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अनेकान्त
लक्षणोपलब्धे । इह सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च सशय । न च वनेकान्तमा विशेषालय यत स्वरूपाद्यादेशशीकृता विशेषा उक्तावण्या प्रत्यक्षमुपलभ्यन्ते ततो विशेष सशयहेतु ॥ ॥ विरोधाभावात् संशयाभाव ॥१०॥ उक्तादभेदाह एकाविरोधेनावशेषो धर्माणां पितापुत्रादिबन्ध ॥११ सपक्षास पक्षापेक्षपतिसत्त्वासत्त्वादिभेदापचिधर्मा | १२ ॥ - प्रश्नं अनेकान्तसंशयका हेतु है, क्योंकि एक आधार में अनेक विरोधी धर्मोका रहना असम्भव है उत्तर नहीं क्योंकि यहाँ विशेष लक्षणकी उपलब्धि होती है ।... सामान्य धर्मका प्रत्यक्ष होनेसे विशेष धर्मो प्रत्यक्ष न होनेपर किन्तु उभय विशेषोका स्मरण होनेपर संशय होता है। जैसे धुंधली रात्रिमें स्थायु और पुरुषगत ऊँचाई afe सामान्य धर्म की प्रत्यक्षता होनेपर, स्थाणुगत पक्षी निवास व कोटर तथा पुरुषगत सिर खुजाना, कपडा हिलना आदि विशेष धर्मोके न दिखने पर किन्तु उन विशेषोंका स्मरण रहनेपर ज्ञान दो कोटिमें दोलित हो जाता है, कि यह स्थाणु है या पुरुष । इसे संशय कहते है । किन्तु इस भाँति बनेकान्तवादमें विशेषोकी अनुपा नहीं है। क्योंकि स्वरूपादिकी अपेक्षा करके कहे गये और कहे जाने योग्य सर्व विशेषोंकी प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है। इसलिए अनेकान्त संशयका हेतु नहीं है | इन धर्मों में परस्पर विरोध नहीं हैं, इसलिए भी संशयका अभाव है ॥१०॥ पिता-पुत्रादि सम्बन्ध मुख्यगीण विकासे अविरोध सिद्ध है (देखो आगे अनेकान्त ५) ॥ ११॥ तथा जिस प्रकार वादी या प्रतिवादी के द्वारा प्रयुक्त प्रत्येक हेतु स्वपक्षकी अपेक्षा साधक और परपक्षकी अपेक्षा दूषक होता है, उसी प्रकार एक ही वस्तुमें विविध अपेक्षाओंसे सत्त्व असत्त्वादि विविध धर्म रह सकते है, इसलिए भी विरोध नहीं है ॥ १२ ॥ ( स भ त / ८१-१३ । आठ दोषोका निराकरण) । ३ अनेकान्तके बिना वस्तुकी सिद्धि नहीं होती ब. स्तो./२२, २४, २५ अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं भेदान्वयज्ञानमिद हि सत्य । मृषोपचारोऽन्यतरस्य सोपे, तच्छेषनोपोऽपि ततोऽनुपास्यम् ॥२२॥ न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति न च क्रियाकारकमंत्र युक्तम् । | नेवासतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति ॥ २४॥ विधिनिषेधश्च कचिदिविवक्षया मुख्यगुणव्यवस्था मुक्ति नीत वस्तुतत्त्व भेद - अभेद ज्ञानका विषय है और अनेक तथा एक रूप है भेद ज्ञानसे अनेक और अभेद ज्ञानसे एक है। ऐसा भेदाभेद ग्राहक ज्ञान ही सत्य है । जो लोग इनमें से एकको ही सत्य मानकर दूसरे में उपचारका व्यवहार करते है वह मिथ्या है, क्योंकि दोनों धर्मोम-से एकका अभाव माननेपर दूसरेका भी अभाव हो जाता है। दोनोंका अभाव हो जानेपर वस्तुतत्त्व अनुपाख्य अर्थात् नि स्वभाव हो जाता है ॥२२॥ यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उदय अस्तको प्राप्त नहीं हो सकती और न उसमें क्रियाकारककी ही योजना बन सकती है। जो सर्वथा असन है उसका कभी जन्म नहीं होता और जो सत् है उसका कभी नाश नहीं होता । दीपक भी बुझनेपर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता किन्तु अन्धकार रूप पर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है |॥ २४॥ वास्तवमें विधि और निषेध दोनो कथ चित् इष्ट हैं। विवक्षावश उनमें मुख्यगौणकी व्यवस्था होती है ॥२५॥ (स्व. सो./४२-४४ ६२-६३), (पं.पू. ४९८-४३३) ।
म. २/१.१.१९/१०/२ नात्मनोऽनेकान्तत्वमसिद्धमनेकान्तमन्तरेण तस्यार्थ कारित्वानुपपतेः । आत्माका अनेकान्तरमा असिद्ध नहीं है, क्योंकि अनेकान्त के बिना उसके अर्थ क्रियाकारीपना नहीं बन सकता । (रतो. मा. २/९.९.१२०/५६०)
४. किसी न किसी रूपमें सब अनेकान्त मानते हैं रा.मा./१/६, १४ / ३७ नात्र प्रतिवादिनो विसंवदन्ते एकमनेकात्मकमिति । के चित्तावदाहु-सत्वरजस्तमसा साम्यावस्था प्रधान' इति तेषां प्रसादलाघव शोषतापावरणसादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मना मिथेश्च न विरोध अथ मन्येथान प्रधान नामक गुणेभ्योऽथन्तिर
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अनेकान्त
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भूतमस्ति, किन्तु त एव गुणा साम्यापन्ना प्रधानाख्य लभन्ते' इति । यद्यदेवं भूमा प्रधानस्य स्यात् । स्यादेतत्-तेषां समुदय प्रधानमेकमितिः अतएवाविरोध' सिद्ध गुणानामवयवानां समुदायस्य च । अपरे मन्यन्ते - 'अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण सामान्यविशेष" इति । तेषां च सामान्यमेव विशेष सामान्यविशेष इत्येकस्यात्मन उभयात्मक न विरुध्यते । अपरे आहु - 'वर्णादिपरमाणुसमुदयो रूपपरमाणु इति तेषां कस्रादिनिपा रमना मिथश्च न विरोध । अथ मतम् 'न परमाणुर्नामैकोऽस्ति बाह्य', किन्तु विज्ञानमेव तदाकारपरिणतं परमाणुव्यपदेशार्ह इत्युच्यते अत्रापि ग्राहक विषयाभास से विशिकाराधिकरस्यैकरणभ्युपगमा विरोध किं सर्वेषामेव तेषां पूर्वोरभावावस्थाविशेषा र्पणाभेदादेवरूप कार्यकारणसमययो न विशेषस्यास्पदमिरयविरोधसिद्धि । 'एक वस्तु अनेक धर्मात्मक है' इसमें किसी वादीको विवाद भी नहीं है । यथा साख्य लोग सत्व रज और तम इन भिन्नस्वभाववाले धर्मोका आधार एक प्रधान मानते है। उनके मत में प्रसाद, लाघव, शोषण, अपवरण, सादन आदि भिन्न-भिन्न गुणों का प्रधानसे अथवा परस्पर में विरोध नहीं है । वह प्रधान नामक वस्तु उन गुणो से पृथक ही कुछ हो सो भी नहीं है, किन्तु वे ही गुण साम्यावस्थाको प्राप्त करके 'प्रधान' संज्ञाको प्राप्त होते है और यदि ऐसे हों तो प्रधान भूमा (व्यागक) सिद्ध होता है। यदि यहाँ यह कहो कि उनका समुदाय प्रधान एक है तो स्वयं ही गुणरूप अवयवो के समुदाय में अवरोध सिद्ध हो जाता है। वैशेषिक पृथिवोत्व आदि सामान्य विशेष स्वीकार करते है। एक ही पृथिवी स्वव्यक्तियो मे अनुगत होने से सामान्यात्मक होकर भी जलादिसे व्यावृत्ति करानेके कारण विशेष कहा जाता है। उनके यहाँ 'सामान्य ही विशेष है' इस प्रकार पृथिवीव आदिको सामान्यविशेष माना गया है। अत: उनके यहाँ भी एक आत्मा के उभयात्मकपन विरोधको प्राप्त नहीं होता । बौद्ध जन कर्कश आदि विभिन्न लक्षणाने परमाणुओके समुदायको एकरूप] स्वलक्षण मानते है इनके मतने भो विभिन्न परमाणुओं में रूपकी दृष्टिसे कोई विरोध नहीं है। विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार बौद्ध एक ही विज्ञानको ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और सवेदनाकार इस प्रकार प्रयाकार स्वीकार करते ही है । सभी वादी पूर्वावस्थाको कारण और उत्तरावस्थाको कार्य मानते है अत एकही पदार्थ में अपनी पूर्व और उत्तर पर्यायोंकी दृष्टिसे कारण कार्य व्यवहार निर्विरोध रूपसे होता है । उसी तरह सभी जीवादि पदार्थ विभिन्न अपेक्षाओसे अनेक धर्मो के आधार सिद्ध होते है (गीता/१३/१४-१५) (ईशोपनिष८)।
५ अनेकान्त भी अनेकान्तात्मक है
स्वस्तो / १०३ ननुभवन्मते येन रूपेण जीवादि वस्तु नित्यादिस्वभावं तेन किं कथ चित्तथा सर्वथा वा । यदि सर्वथा तदेकान्तप्रसङ्गादनेकान्तक्षति अथ कथचिदानवस्थेच्या माह- अनेकान्तोऽष्यनेकान्तः प्रमाणनयसाघन अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितात्रयात् । = प्रश्न- भगवान्के मत में जीवादि वस्तुका जिस रूप से नित्यादि स्वभाव बताया है, वह कथ चित् रूपसे है या सर्वथा रूपसे । यदि सर्वथा रूपसे है तब तो एकान्तका प्रसग आनेके कारण अनेकान्तकी क्षति होती है और यदि कथचित् रूपसे हैं तो अनवस्था दोष आता है। इसी आशकाके उत्तर में आचार्य देव कहते हैं। उत्तर- आपके मत में अनेकान्त भी प्रमाण और नय साधनोको लिये अनेकान्तहुए स्वरूप है। प्रमाण की दृष्टिसे अनेकान्तरूप सिद्ध होता है और विवक्षित नकी अपेक्षा अनेकान्त में एकान्तरूप सिद्ध होता है । रा.वा./१०६/०/२५/२८ नथार्पणादेकान्तो भवति एकनिश्चयप्रमणात; प्रमाणामारनेकान्तो भवति अनेकनिश्चयाधिकरणत्वाद - एक अंगका निश्चय करानेवाला होनेके कारण नयकी मुख्यतासे एकान्त होता है और अनेक अंगोका निश्चय करानेवाला होनेके कारण प्रमाणकी विवक्षा से अनेकान्त होता है।
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