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अनुभाग
ननुभाग जन्य महया सम्यग्दृष्टिया तदनुभागमजघन्य नाति तदास्य सदस्य द्वितोवादिसमयेषु अनादिस्वमिति चतुविध यथासम्भव द्रष्टव्यम् । - अनुभाग व प्रदेश बन्ध सादि, अनादि, धव. अब भेदतें चार प्रकार हो हे । बहुरि अजघन्य भी ऐसे ही अनुत्कृष्टवद च्यार प्रकार हो है । इनके लक्षण यहाँ उदाहरण मात्र किचित् कहिये है - उपशम श्रेणी चढनेवाला जीव सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानवर्ती भया तहाँ उत्कृष्ट उच्चगोत्रका अनुभागबन्ध करि पीछे उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती भया । बहुरि इहाँ ते उतर करि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती भया । तहाँ अनुत्कृष्ट उच्चगोत्रका अनुभागबन्ध किया। तहाँ इस अनुत्कृष्ट उच्चगत्रि के अनुभागको सादि कहिये। जाते अनुत्कृष्ट उम्रो अनुभागका अभाव हो महरि सद्भाव भया तातं सादि कहिये बहुरि सूक्ष्मसम्यगुणस्थान नीचे गुणस्थानवर्ती जीव है तिनके सो बन्ध अनादि है। बहुरि अभव्य जीव विषै सो बन्ध ध व है । बहुरि उपशम श्रेणीवालेके जहाँ अनुत्कृष्टको उत्कृष्ट बन्ध हो है तहाँ सो बन्ध अध्र ुव है ऐसे अनुत्कृष्ट उच्चगो के अनुभाग मयविधै सादि अनादि व अभयार ध प्रकार कहै। ऐसे ही जघन्य भी च्यारि प्रकार है, सो कहिये है। सप्तम नरक पृथिवीविर्षे प्रथमोपशम सम्यक्त्वका सन्मुख भया मिध्यादृष्टि जीव तहाँ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका अन्तसमय विषै जघन्य नीचगोत्रके अनुभागको बान्धे है बहुरि सो जो सम्पन्दष्टि हो पीछे मिथ्यात्व के उदयकरि मिथ्यादृष्टि भया तहाँ अजघन्य नोचगोत्र के अनुभागको बान्धे है । तहाँ इस अजघन्य नीचगोत्र के अनुभागको सादि कहिये। बहूर तिस मिध्यादृटिके तिस असमय पहिले सो बन्ध अनादि है । अभव्य जीवके सो बन्ध ध्रुव है । जहा अजघन्यको छोड जघन्य को प्राप्त भया तहाँ सो बन्ध अध्रुव हैं । ऐसे अजघन्य नोवगोत्र के अनुभागविषे सादि अनादि ध व अध ुव च्यारि प्रकार कहे । ऐसे ही यथा सम्भव और भी बन्ध विषै सादि अनादि अध च्यारि प्रकार जानने । प्रकृति बन्ध विषै उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य अजघन्य ऐसे भेद नाहीं है। स्थिति, अनुभाग, प्रदेशबन्ध नि विषै वे भेद यथा योग्य जानने ।
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६. अनुभाग स्थान सामान्यका लक्षण
म. १२/४,२०,२००/११९/१२ एन्जीवसि एकहि समये जो दोसदि कम्माभागो से ठाम नाम एक जीव एक समय जो कर्मानुभाग दिखता है उसे स्थान कहते हैं। 1
क. पा /५/४-२२/६/०२/२३८/१ अनुभाग शाम चरिमफड्यचरिमबग्नगाए एपरमाणुहि दिअणुभागहाण विभाग विच्छेद कायो । सो उक्कडणार वट्टदि । अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणु स्थित अनुभाग अबिभाग प्रतियेोके समूहको अनुभाग स्थान कहते है । प्रश्न- ऐसा माननेपर 'एक अनुभाग स्थान में अनन्त स्पर्धक होते है' इस सूत्र के साथ विरोध आता है ? उत्तरनहीं, क्योकि जघन्य अनुभाग स्थानके जघन्य स्पर्धकसे लेकर ऊपर के सर्व स्पर्धक उसमें पाये जाते है । प्रश्न- तो एक अनुभाग स्थान में जघन्य वर्गणा से लेकर उत्कृष्ट स्थानकी उत्कृष्ट वर्गणा पर्यन्त क्रमसे बढते हुए प्रदेश के रहने का जो कथन किया जाता है उसका अभाव प्राप्त होता है 1 उत्तर- ऐसा कहना ठोक नहीं, क्योकि जहाँ यह उत्कृष्ट अनुभागवाला परमाणु है, वहां क्या यह एक ही परमाणु है या अन्य भी परमाणु है । ऐसा पूछा जानेपर कहा जायेगा कि वहाँ वह एक ही परमाणु नहीं है. किन्तु वहाँ अनन्त कर्मस्कन्ध होने चाहिए और उन कर्म स्कन्धों के अवस्थानका यह क्रम है, यह बतलानेके लिए अनुभाग स्थानकी उक्त प्रकारसे प्ररूपणा की है। प्रश्न- जैसे योगस्थानमें जीवके सब प्रदेशो की सब योगोके अविभाग प्रतिच्छेदोंको लेकर स्थान प्ररूपणा की है वैसा कथन यहाँ क्यों नहीं करते । उत्तर-नहीं, क्योकि वैसा कथन करनेपर अध स्थित गलनाके द्वारा और अन्य प्रकृति रूप सक्रमणके द्वारा अनुभाग काण्डकको अन्तिम फाली
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अनुभाग
को छोड़कर डिचरम आदि फासियोंमें अनुभागस्थानके यातका प्रसंग आता है । किन्तु ऐसा है नही, क्योंकि काण्डकघातको छोडकर अन्यत्र उसका घात नहीं होता ।
स. सा / आ. ५२ यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणानि अनुभागस्थानानि 1 भिन्न-भिन्न प्रकृतियो के रसके परिणाम जिनका लक्षण' है, ऐसे जो अनुभाग स्थान ।
७. अनुभाग स्थानके भेद ६. १२/४.०२.२००/१९१२/१३
विभागद्वा
भागसंत ठाणं चेदि । वह स्थान दो प्रकारका है - अनुभाग बन्ध स्थान व अनुभाग सवस्थान ।
क. पा /५/४-२२/ठाणप्ररूपणा सूत्र / १३३० / १४ सम्मट्टापाणि तिथिहामि बंधमुपतिवादिताण दहमुपत्तियाणि । - सत्कर्मस्थान (अनुभाग) तीन प्रकार के है- मन्यसमुत्पत्ति, इतरा मुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक । (कपा / ५ / ४-२२/११८६/१२५/८) । ८. अनुभागस्थानके मेदों के लक्षण
१. अनुभाग सत्कर्मका लक्षण घ./१२/४,२.४.२००/११२ / १ जमपुभागट्टा घादिमा धानुभागट्ठाण सरिसण होदि. बधअट्ठ क उव्व काणं विश्वाले हेट्ठिम उव्व कोदो अपसगुणं उबरिम अट्ठारो अनतगुणही होण दि म भागसंतकम्मट्ठाण - - घाता जानेवाला जो अनुभागस्थान बन्धानुभाग सदृश नही होता है, किन्तु बन्ध सदृश अष्टाक और उवंकके मध्य में अधस्तन उर्व कसे अनन्तगुणा और उपरिम अष्टाकसे अनन्तगुणा होन होकर स्थित रहता है, वह अनुभाग सत्कर्मस्थान है।
२ अनुभागबन्धस्थानका लक्षण
ध. / १२ / ४,२७,२०० /१३ तत्थ ज बधेण निष्कण्णं तं बंधद्वाण णाम । भाभागे वादियमाणे महाभागेन गरिसं होण पददि पि बधट्ठाण चैव तत्स रिसअणुभागव ध्रुवल भादो । -जो बन्धसे उत्पन्न होता है वह बन्धस्थान कहा जाता है। पूर्व बद्ध अनुभागका घात किये जानेपर जो बन्ध अनुभागके सदृश होकर पडता है वह भी बन्धस्थान ही है, क्योंकि, उसके सदृश अनुभाग बन्ध पाया जाता है।
३ बन्ध समुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मस्थानका लक्षण क./५/४-२२/१५००/३२१/१ बन्धात्समुत्पतिर्येषा तानिबन्धसमुत्पति कानि। जिन सरफर्म स्थानो की उत्पति मन्यसे होती है, उन्हें न्यसमुत्पत्तिक कहते है ।
क. पा./५/४-२२/१९८६/ १२४/१ दसमुचयाविनोदजहणानुभाग राद्वाणसमागमद्वापमादि का जायचयपज्जतसव्वुक्कस्साणु भागव धट्टाणे ति ताव एदाणि असखे० लोगमेत्तछट्टाणाणि बधसमुत्पत्तियद्वाणाणि ति भण्ण ति. बधेण वण समुयणतादो। अणुभागसतट्ठाणघादेण जमुप्पण्णमणुभागस तट्ठाणं त पि एमाणमिदपेतम्य माणसामाणसात समुत्पत्ति सत्कर्म को करके स्थित हुए सूक्ष्म निगोदिया जीव जघन्य अनुभाग सत्त्वस्थानके समान बन्धस्थान से लेकर सज्ञी पंचेंद्रिय पर्याके सर्वोत्कृष्ट अनुभागमन्धस्थान पर्यन्त जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान है उन्हे बन्ध समुत्पत्तिकस्थान कहते है. क्योंकि वे स्थान बन्धसे उत्पन्न होते है । २ अनुभाग सस्थानके घात से जो अनुभाग सत्वस्थान उत्पन्न होते है उन्हे भी यहाँ बन्धस्थान ही मानना चाहिए, क्योकि वे बन्धस्थानके समान है (सारांश यह है कि अपने स्थानोको ही बन्यसमुत्पत्तिरस्थान नहीं कहते, किन्तु पूर्ववद अनुभागस्थानोंमें भी रसधात होनेसे परिवर्तन होकर समानता रहती है तो वे स्थान भी धस्थान ही कहे जाते है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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