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અનુમાનો
अनुमान
२. अनुमान ज्ञान कोई प्रमाण नहीं घ.६/१,१,६.६/१५१/१ पवयणे अणुमाणस्स पमाणस्स पमाणत्ताभावत्तादो।
प्रवचन (परमागम) में अन मान प्रमाणके प्रमाणता नही मानी गयी है। ३ अनुमान ज्ञान परीक्ष प्रमाण है
सि. वि //६/११-१२/३८६ यथास्व न चेद्बुद्रे स्वस विदन्यथा पुन । स्वाकार विभ्रमात सिध्येद् भ्रान्तिरप्यनुमानधी ॥११॥ स्वव्यक्तस वृतात्मानौ व्याप्नोत्येक स्वलक्षणम् । यदि हेतुफलापमानौ व्याप्नात्येक स्वलक्षणम् न बुद्धे ग्राहकाकारी भ्रान्ताव स्वयमेकान्तहाने ॥१२॥ -यदि ज्ञान यथायोग्य अपने स्वरूपको नही जानता तो अपने स्वरूपमे भी विभ्रम होनेसे स्वलक्षण बुद्धि भी भ्रान्तिरूप सिद्ध होगी। यदि कहोगे कि अनुमानसे जानेगे तो अनुमान बुद्धि भी तो भ्रान्त है ॥११॥ यदि एक स्त्रलथण (बुद्धिवस्तु), सुव्यक्त (बोधस्वभाव प्रत्यक्ष)और सवृत (उससे विपरीत रूपो मे व्याप्त होता है, अर्थात् एक साथ व्यक्त और अव्यक्त स्वभाव रूप होता है तो उस स्वलक्षणके अपने कारण और कार्य में व्याप्त होने में क्या रुकावट हो सकती है। बुद्धिके ग्राह्य और ग्राहक आकार सर्वथा भ्रान्त नहीं है ऐसा माननेसे स्वयं बौद्धके एकान्तकी हानि होती है ॥१२॥ सि वि././६/8/३८७/२१ प्रमाणत सिद्धा, किमुच्यते व्यवहारिणेति । प्रमाण सिद्धत्योभयोरपि अभ्युपगमाईत्वात अन्यथा त्परत प्रामाणिकत्वाद्वो येन (परस्यापि न प्रामाणिकत्वम)। व्यवहार्यभ्युपगमात चेव, अतएव प्रतिबन्धान्तरमस्तु । न च अप्रमाणा-युपगसिद्ध द्ववैस स (. अर्धवैशस्य) न्यायो भ्यायानुसारिणा युक्त । यदि पूर्व और उत्तर क्षणमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध प्रमाणसे सिद्ध है तो उसे व्यवहार सिद्ध क्यों कहते हो ! जो प्रमाण सिद्ध है वह तो वादी और प्रतिवादी दोनोंके ही स्वीकार करने योग्य है। अन्यथा यदि वह प्रमाणसिद्ध नहीं है तो दूसरेको भी प्रामाणिकपना नहीं है। यदि व्यवहारीके द्वारा स्वीकृत होनेसे उसे स्वीकार करते है तो इसीसे उन दोनोके नीचमें अन्य प्रतिबन्ध मानना चाहिए । अप्रमाण भी हो और अम्युगम (स्वीकृति) सिद्ध भी हो यह अर्ध वैशसन्याय न्यायानुसारियोंके योग्य नहीं है। ४. कार्यपर-से कारणका अनुमान किया जाता है आम. मी./मू ६८/६६ कार्यलिङ्ग' हि कारणम् । = कार्यलिंगत ही कारण
का अनुमान करिये है। पं. ध./उ./३१२ अस्ति कार्यानुमानाद्वै कारणानुमिति. कचित् । दर्शनानदपूरस्य देवो वृष्टो यथोपरि ॥३१२॥-निश्चयसे कार्यके अमुमानसे कारणका अनुमान होता है । जैसे नदोमें पूर आया देखनेसे यह अनुमान हो जाता है कि ऊपर कहीं वर्षा हुई है । (अनुमान १/८)
५. स्थूलपर-से सूक्ष्मका अनुमान किया जाता है झा./३३/४ अलक्ष्य लक्ष्यसबन्धात् स्थूलात्सूक्ष्म विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्ब तत्त्व वित्तत्त्वमञ्जसा 18 तत्त्वज्ञानी इस प्रकार तत्त्वको प्रगटतया चिन्तवन करे कि-लक्ष्यके सम्बन्धसे तो अलक्ष्यको और स्थूलसे सूक्ष्म पदार्थको चिन्तवन करै। इसी प्रकार किसी पदार्थ विशेषका अवलम्बन लेकर निरालम्ब स्वरूपसे तन्मय हो।
६. परन्तु जीव अनुमानगम्य नहीं है प्र सा /त. प्र/९७२ आत्मनो हि . अलिङ्गग्राह्यत्वम् • न लिङ्गादिन्द्रियगम्याद धूमादग्नेरिव ग्रहणं यस्येतीन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वकानुमानाविषयस्वस्य। आत्माके अलिंगग्राह्यत्व है। क्योकि जैसे धुऍसे अग्निका ग्रहण होता है, उसी प्रकार इन्द्रिय प्रत्यक्षपूर्वक अनुमानका विषय नहीं है।
३. अनुमानके अवयव
१. अनुमानके पॉच अवयवोका नाम निर्देश न्या सू / /१-१/३२ प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवा ॥३२॥
- प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन, ये अनुमान वाक्यके पाँच अवयव है।
२ पॉचो अवयवोकी प्रयोगविधि प मु/३/६५ परिणामी शब्द कृतकत्वात् । य एवं स एव दृष्टा यथा धट । कृतन श्वाय तस्मात्परिणामी। गस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्ट! यया बन्ध्यास्तनधय । कृतकाय तस्मात्परिणामी ॥६५॥ - शब्द परिणामस्वभावी है (प्रतिज्ञा), क्योकि वह कृतक है (हेतु)। जो-जो पदार्थ कृतक होता है वह-वह परिणामा देखा गया है, जैसे घट (अन्य उदाहरण), जो परिणामी नही होता, वह कृतक भी नहीं हाता जैसे बन्ध्यापुत्र (व्यतिरेकी उदाहरण)। यह शब्द कृतक है (उपनयो इसलिए परिणामी है (निगमन)। द्र.स/टी/५०/२१३ अन्तरिता सूक्ष्मपदार्या, धमिण कस्यापि पुरुष विशेषस्य प्रत्यक्षा भवन्तीति साध्या धर्म इति धमिधर्मसमुदायेन पक्षवचनम् । कस्मादिति चेत्, अनुमान विषयत्वादिति हेतुवचनम् । किंवत् । यद्यदनुमानविषय तत्तत् कस्यापि प्रत्यक्ष भवति, यथाग्न्यादि. इत्यन्वयदृष्टान्तवचनम् । अनुमानेन विषयाश्चेति इत्युपनयवचनम् । तस्मात कस्यापि प्रत्यक्षा भवन्तीति निगम नवचनम्। इदानी व्यतिरेकदृष्टान्त क्थ्यते - यन्त्र कस्यापि प्रत्यक्ष तदनुमानविषयमपि न भवति यथा रखपुष्पा'द, इति व्य तिरे दृष्टान्तवचनम् । अनुमानविषयाश्चेति पुनरप्युपनयवचनम् । तस्मात् प्रत्यक्षा भवन्तीति पुनरपि निगमनवचमिति । - अन्तरित व सक्ष्म पदार्थ रूप धर्मी क्सिी भी पुरुष विशेष के प्रत्यक्ष होते है। इस प्रकार साध्य धर्मी और धर्म के समुदायसे पक्षवचन अथवा प्रतिज्ञा है। क्योकि वे अनुमान के विषय है, यह हेतु वचन है। क्सिकी भॉति । जो-जो अनुमानका विषय है वह-वह किसाके प्रत्यक्ष होता है, जैसे अग्नि आदि, यह अन्वय दृष्टान्तका वचन है। और ये पदार्थ भी अनुमानके विषय है, यह उपनयका वचन है। इसलिए किसी के प्रत्यक्ष होते है. यह निगमन वाक्य है।
__ अब व्यतिरेक दृष्टान्त कहते है-जो किसी के भी प्रत्यक्ष नहीं होते वे अनुमानके विषय भी नही होते, जसे कि आकाशके पुष्प आदि, यह व्य तिरेकी दृष्टान्त वचन है। और ये अनुमानके विषय है, यह पुन उपनयका वचन है। इसीलिए किसी के प्रत्यक्ष भी अवश्य होते है, यह पुन निगमन वाक्य है।
३. स्वार्थानुमानमें दो ही अवयव होते है न्या दी /३/६२४-२५/७२ अस्य स्वार्थानुमानस्य त्रीण्यङ्गानि-धर्मी,
साध्य, साधनं च ॥२४॥ पक्षो हेतुरित्यद्वयं स्वार्थानुमानस्य, साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिणः पक्षत्वात। तथा च स्वार्थानुमानस्य धर्मीसाध्यसाधनभेदात्रीण्यङ्गानि पक्षसाधनभेदादद्वय चेति सिद्ध , विवक्षाया वैचित्र्यात ॥२५॥ - इस स्वार्थानुमानके तीन अंग हैधर्म, साध्य व साधन ॥२४॥ अथवा पक्ष व हेतु इस प्रकार दो अग भी स्वार्थानुमान के है, क्यो कि, साध्य धर्मसे विशिष्ट होनेके कारण साध्य व धर्मी दोनोक। पक्षमें अन्तर्भाव हो जाता है और साधन व हेतु एकार्थवाचक है। (यहाँ प्रतिज्ञा नामका कोई अग नहीं होता, उसके स्थानपर पक्ष होता है)। इस प्रकार स्वार्थानुमानके धर्मी, माध्य व साधनके भेदसे तीन अंग भी होते है और पक्ष व हेतुके भेदसे दो अग भी होते है । ऐसा सिद्ध है। यहाँ केवल विवक्षाका ही भेद है ॥२५॥ ४.परार्थानुमानमें भी शेष तीन अवयव वीतराग कथा
में ही उपयोगी हैं, वादमें नहीं प मु./३/३७,४४,४६ एतद्द्वयमेवानुमानाड्ग नोदाहरणम् ॥३७॥ न च तदङ् ॥४४॥ • बालव्युत्पत्त्य तत्त्रयोपगमे शाख एवासौ नवा दे,अनुप
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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