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अनुमान
अनुमान
३. स्वार्थानुमानके तीन भेद (पूर्ववत् आदि) न्या. मू./मू./१-१/५ अथ तत्पूर्वक विविधमनुमान पूर्ववच्छेषवरसामान्यतोदृष्टं च ॥५॥ प्रत्यक्ष पूर्वक अनुमान तीन प्रकारका है-पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट । (रा वा/१/२०,१५/७८/११)।
४. स्वार्थानुमानका लक्षण प. मु /३/१४,१४ स्वार्थ मुक्तलक्षणम् ॥५४॥ साधनात्साध्यविज्ञामनुमानम् ॥१४॥ -स्वार्थका लक्षण पहिले कह दिया गया है ॥५४॥ कि साधनसे साध्यका विज्ञान होना अनुमान है ॥१४॥ स.म./२८/३२२/२ तत्रान्यथानुपपत्त्येकलक्षणहेतुग्रहणसबन्धस्मरणकारणक साध्यविज्ञानं स्वार्थम् । अन्यथानुपपत्ति रूप एक लक्षणबाले हेतुको ग्रहण करनेके सम्बन्धके स्मरणपूर्वक साध्यके ज्ञानको स्वार्थानुमान कहते है। (स. म /२०/२५६/१३)। न्या. दी./३/१२८/७५ में उद्धृत "परोपदेशाभावेऽपि साधनात्साध्यबोधनम् । यद्गद्रष्टुर्जायते स्वार्थ मनुमान तदुच्यते॥-परोपदेशके अभावमें भी केवल साधनसे साध्यको जान जो ज्ञान देखनेवालेको उत्पन्न हो जाता है उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। न्या. दो./३/१२३/७१ परोपदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव निश्चितात्प्राक्तानुभूतव्याप्तिस्मरणसहकृताधूमादे. साधनादुत्पन्नपर्वतादी धर्मिण्यग्न्यादे, साध्यस्य ज्ञान स्त्रार्थानुमानमित्यर्थः।-परोपदेशकी अपेक्षा न रखकर स्वयं ही निश्चित तथा तर्क प्रमाणसे जिसका फल पहिले ही अनुभव हो चुकता है ऐसी व्याप्तिके स्मरणसे युक्त, ऐसे धूम आदि हेतुसे पर्वतादि धर्मी में उत्पन्न होनेशले जो अग्नि आदिक साध्यका ज्ञान, उसको स्वार्थानुमान कहते है। (न्या. दी./३/६१७)। और भी दे. प्रमाण १, (स्वार्थ प्रमाण ज्ञानात्मक होता है)। ५. परार्थानुमानका लक्षण प. मु /३/५५-५६ पराथं तु तदर्थ परामशिवचनाज्जातम् ॥५५॥ तद्वचनमपि तद्धेतुस्वात ॥५६॥ = स्वार्थानुमान के विषयभूत हेतु और साध्यको अवलम्बन करनेवाले वचनोसे उत्पन्न हुए ज्ञानको परार्थानुमान कहते हैं ॥५५॥ परार्थानुमानके प्रतिपादक वचन भी उस ज्ञानका कारण होनेसे
उपचारसे परार्थानुमान हैं, मुख्यरूपसे नहीं ॥५६॥ (स.म /२८/३२२/३)। न्या. दी./३/१२६ परोपदेशमपेक्ष्य साधनात्साध्यविज्ञानं परार्थानुमानम् । प्रतिज्ञाहेतुरूपपरोपदेशवशाच्छ्रोतुरुत्पन्नं साधनारसाध्यविज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः। यतः पर्वतोऽयमग्निमान भवितुमर्हति धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति वाक्ये केनचित्प्रयुक्ते तद्वाक्याथ पर्यालोचयत स्मृतव्याप्तिकस्य श्रोतुरनमानमुपजायते। -- परोपदेशसे जो साधनसे साध्यका ज्ञान होता है वह परार्थानुमान है। अर्थात प्रतिज्ञा और हेतुरूप दूसरेका उपदेश सुननेवालेको जो साधनसे साध्यका ज्ञान हता है उसे परार्थानुमान कहते हैं। जैसे कि इस पर्वतमें अग्नि होनी चाहिए, क्योंकि यदि यहॉपर अग्नि न होती तो धूम नहीं हो सकता था। इस प्रकार किसीके कहनेपर सुननेवालेको उक्त वाक्यके अर्थका विचार करते हुए और व्याप्तिका स्मरण होनेसे जो अनुमान होता है वह परार्थानुमान है। और भी दे प्रमाण १/३ (परार्थ प्रमाण वचनात्मक होता है)। ६. अन्वय व व्यतिरेक व्याप्तिलिंगज अनुमानोंके लक्षण स.म/१६/२१६/६ यद्यन सह नियमेनोपलभ्यते तत ततो न भिद्यते, यथा सञ्चन्द्रादसञ्चन्द्रः। नियमेनोपलभ्यते च ज्ञानेन सहाथ इति व्यापकानुपलब्धि - जो जिसके साथ नियमसे उपलब्ध होता है, वह उससे भिन्न नहीं होता। जैसे यथार्थ चन्द्रमा भ्रान्त चन्द्रमाके साथ उपलब्ध होता है, अतएव भ्रान्त चन्द्रमा यथार्थ चन्द्रमासे भिन्न नही है। इसी प्रकार ज्ञान और पदार्थ एक साथ पाये जाते है, अतएव ज्ञान पदार्थ से भिन्न नहीं है । इस ब्यापकानुपलब्धि अनुमानसे ज्ञान और पदार्थ का अभेद सिद्ध होता है।
वैशेषिक सूत्रोपस्कार (चौखम्बा काशी)/२,१/१ व्यतिरेकव्याप्तिकालि
गाद् यदनुमानं क्रियते तद्वयतिरेकिलिङ्गानुमानमुच्यते । साध्याभावे साधनाभावप्रदर्शनं व्यतिरेक्व्याप्ति । तथा च प्रकृते अनुमाने सर्वरूपसाध्याभावे निर्दोषत्वरूपसाधनाभाव' प्रदर्शित व्यतिरेकव्याप्तिवाले लिंगसे जो अनुमान किया जाता है उसे व्यतिरेक लिंगानुमान कहते है। साध्यके अभाव में साधनका भी अभाव दिखलाना व्यतिरेकव्याप्ति है। प्रकृतमें सर्वज्ञरूप साध्य के अभाबमें निदोषत्व रूप साधनाका भी अभाव दर्शाया गया है। अर्थात यदि सर्वज्ञ नहीं है तो निर्दोषपना भी नहीं हो सकता। ऐसा अनुमान व्यतिरेकव्याप्ति अनुमान है।
७. पूर्ववत् अनुमानका लक्षण रा वा /१/२०,१५/७८/१२ तत्र येनाग्नेनि सरन् पूर्व धूमो दृष्ट. स प्रसिद्वाग्निघूमसबन्धाहितसंस्कारः पश्चाइधूमदर्शनाइ 'अस्त्यत्राग्नि इति पूर्ववदग्नि गृह्णातीति पूर्वदनुमानम् । -जिसने अग्निसे निकलते हुए धूमको पहिले देखा है, वह व्यक्ति अग्नि और धूमके प्रसिद्ध सम्बन्ध विशेषको जाननेके संस्कारसे सहित है। यह व्यक्ति पीछे कभी धूमके दर्शन मात्रसे 'यहाँ अग्नि है। इस प्रकार पहिलेकी भाँति अग्निको ग्रहण कर लेता है। ऐसा पूर्ववत् अनुमान है। (न्या. सू । भा /१-१/५/१३/१)। न्या. सू 1१-१/५/१२/२४ पूर्ववदिति यत्र कारणेन कार्यमनुमीयते यथा मेघोन्नत्या भविष्यति वृष्टिरिति । - जहाँ कारणसे कार्यका अनुमान होता है उसे पूर्ववत अनुमान कहते हैं, जैसे बादलोंके देखनेसे आगामी वृष्टिका अनुमान करना। ८ शेषवत् अनुमानका लक्षण रा वा /१/२०,१५/०८/१४ येन पूर्व विषाणविषाणिनो' संबन्ध उपलब्ध तस्य विषागरूपदर्शनाद्विषाणिन्यनुमानं शेषवत् । =जिस व्यक्तिने पहिले कभी सौंग व सीगवाले के सम्बन्धका ज्ञान कर लिया है, उस व्यक्तिको पीछे कभी भी सीग मात्रका दर्शन हो जानेपर सींगवालेका ज्ञान हो जाता है । अथवा उस पशुके एक अवयवको देखनेपर भी शेष अनेक अवयवों सहित सम्पूर्ण पशुका ज्ञान हो जाता है, इसलिए वह शेषवत अनुमान है। न्या स /भा /१-१/१२/२५ शेषवदिति यत्र कार्येण कारणमनुमीयते । पूर्वोदकविपरीतमुदकं नद्या पूर्ण त्वं शीघ्रत्व च दृष्ट्वा स्रोतसोऽन मीयते भूता वृष्टिरिति । = कार्यसे कारणका अन मान करना शेषवत् अनुमान कहलाता है। असे नदीकी बाढको देखकर उससे पहिले हई वर्षाका अन मान होता है. क्योंकि मदीका चढना वर्षाका कार्य है। ९. सामान्यतोदृष्ट अनुमानका लक्षण रा वा./१/२०,१५/७८/१५ देवदत्तस्य देशान्तरप्राप्ति गतिपूर्विको दृष्ट्वा संबन्ध्यन्तरे सवितरि देशान्तरप्राप्तिदर्शनाद गतेरत्यन्तपरोक्षाया अनुमान सामान्यतोदृष्टम् । - देवदत्तका देशान्तरमें पहुँचना गतिपूर्वक होता है, यह देखकर सूर्यकी देशान्तर प्राप्तिपरसे अत्यन्त परोक्ष उसकी गतिका अनुमान कर लेना सामान्यतोदृष्ट है। (न्या. सू./ भा /१-१/५/१२/२६।। २. अनुमान सामान्य निर्देश
१. अनुमान ज्ञान श्रुतज्ञान है रा. वा/१/२०.१५/०८/१६ तदेतस्त्रितयमपि स्वप्रतिपत्तिकाले अनक्षरश्रुत परप्रतिपत्तिकाले अक्षरश्रुतम् । तीनों (पूर्वन्त शेषत व सामान्यतोदृष्ट) अनु मान स्वप्रतिपत्ति कालमें अनक्षरशूत हैं और पर प्रतिपत्तिकालमें अक्षरश्रुत है। क. पा /पू./१/१-१५/३४१/३ धूमादिअत्यलिंग पुण अणुमाणं णाम ।
धूमादि पदार्थरूप लिगसे जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अर्थलिगज श्रुतज्ञान है। इसका दूसरा नाम अनुमान भी है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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