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अनुमानित
अनुयोग
४ पदमीमासा आदि अनुयोगद्वार निर्देश । * विभिन्न अनुयोगद्वारोके लक्षण ।-दे. वह वह 'नाम'। ३ अनुयोगद्वार निर्देश
१ सत, संख्या आदि अनुयोगद्वारोके क्रमका कारण । २ अनुयोगद्वारोमे परस्पर अन्तर। * उपक्रम व प्रक्रममे अन्तर । -दे उपक्रम । ३. अनुयोगद्वारोंका परस्पर अन्तर्भाव । ४. ओघ और आदेश प्ररूपणाओका विषय ।
५. प्ररूपणाओ या अनुयोगोका प्रयोजन । * अनुयोग व अनुयोग समास ज्ञान -दे श्रुतज्ञान II
योगात॥४६॥ == पाल और हेतु ये दोनों ही अनुमानके अग है, उदाहरण नहीं ॥३७॥ न ही उपनय व निगमन अग है ॥४४॥ क्योकि बाल व्युत्पत्तिके निमित्त इन तीनोका उपयोग शास्त्रमें होता है,वाद में नहीं, क्योंकि वहाँ वे अनुपयोगी है ॥४६॥ न्या दी /३/३१,३४,६६/७६,८१,८२ परार्थानुमानप्रयोजकस्य च बाक्य
स्य द्वाववयवौ, प्रतिज्ञा हेतुश्च ॥३१॥ प्रतिज्ञाहेतुप्रयोगमात्रै वोदाहरणादिप्रतिणास्यार्थस्य गम्यमानस्य व्युत्पन्नेन तु शक्यत्वात । गम्यमानस्याप्यभिधाने पौनरुक्तप्रसङ्गात् ॥३४॥ वीतरागकथायर्या तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन प्रतिज्ञाहेतू द्वाववयवौ, प्ररिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रय , प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वार प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा पञ्चेति यथायोग्य प्रयोगपरिपाती। तदेव प्रतिज्ञादिरूपाल्परोपदेशादुत्पन्नं परार्थानुमानम् ॥३६॥ - परार्थानुमान प्रयोजक वाक्यके दो अवयव होते है - प्रतिज्ञा व हेतु ॥३१॥ प्रतिज्ञा व हेतु इन दो मात्रके प्रयोगसे ही व्युत्पन्न जनो को उदाहरणादिके द्वारा प्रतिपाद्य व जाना जाने योग्य अर्थका भो ज्ञान हो जाता है। जान लिये गयेके प्रति भी इनको कहनेमे पुनरुक्तिका प्रसग आता है ॥३४॥ परन्तु वीतराग कथामें प्रतिपाद्य अभिप्रायके अनुरोधसे प्रतिज्ञा व हेतु ये दो अवयव भी है, प्रतिज्ञा, हेतु व उदाहरण इस प्रकार तीन अवयव भी है. प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण और उपनय इस प्रकार चार भी है तथा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन इस प्रकार पाँच भी है। यथायोग्य परिपाटीके अनुसार ये सब ही विक्रूपरित हो जाते है। इस प्रकार प्रतिज्ञादि रूप परोपदेशमे उत्पन्न होने के कारण वह परार्थानुमान है ॥३६॥ अनमानित-आलोचनाका एक दोष-दे आलोचमा २ । अनुमोदना-दे अनुमति । अनयोग-जेनागम चार भागोमे विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते है-प्रथमानुयाग, करण नृयोग, चरणानुयाग और द्रव्यानुयोग । इन चारोमें क्रमसे कथए व पुराण, म मिद्धान्त व लोक विभाग, जीवका आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्योका स्वरूप व तत्त्वोका निर्देश है। इसके अतिरिक्त वस्तुका क्थन करने में जिन अधिकारों की आवश्यक्ता होती है उन्हे अनुयोगद्वार कहते है। इन दोनो हो प्रकारके अनुयोगोका कथन इस अधिकार में किया गया है।
१. आगमगत चार अनुयोग
१ आगमका चार अनुयोगोमे विभाजन । २. आगमगत चार अनुयोगोके लक्षण । ३. चारों अनुयोगोकी कथन पद्धतिमे अन्तर । ४. चारो अनुयोगोका प्रयोजन । ५. चारो अनुयोगोकी कथंचित् मुख्यता गौणता । ६ चारो अनुयोगोका मोक्षमार्गके साथ समन्वय । * चारो अनुयोगोके स्वाध्यायका क्रम ।
-दे स्वाध्याय १ २. अनुयोगद्वारोके भेद व लक्षण १. अनुयागद्वार सामान्यका लक्षण । २. अनुयोगद्वारोके भेद-प्रभेदोके नाम निर्देश । १. उपक्रम आदि चार अनुयोगद्वार । २ निर्देश, स्वामित्व आदि छ अनुयोगद्वार। ३ सतु, संख्यादि आठ अनुयोगद्वार तथा उनके भेद ।
१. आगमगत चार अनुयोग
आराम १. आगमका चार अनुयोगोंमें विभाजन कियाकलापमें समाधिभक्ति--"प्रथमं करण चरणं द्रव्य नम । प्रथमा
नुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगको नमस्कार है। द्र स/टी./४२/१८२ प्रथमान योगो चरणान योगो. करणान योगो.. द्रव्यान योगो इत्युक्तलक्षणान योगचतुष्टरूपेण चतुर्विध भूतज्ञानं ज्ञातव्यम् । = प्रथमानु योग, चरणान योग, करणान योग और द्रव्यान योग ऐसे उक्त ल* गोवाले चार अन योगोंरूपसे चार प्रकारका श्रुतज्ञान जानना चाहिए । (प का /ता. /१७३/२५४/१५) । २. आगमगत चार अनुयोगोके लक्षण
१ प्रथमानुयोगका लक्षण र.क.श्रा /४३ प्रथमान योगमाख्यान चरित पुराणमपि पुण्यम् । बोधि
समाधिनिधान बोधातिबोध समीचीन ॥४३॥ - सम्यग्ज्ञान है सो परमार्थ विषयका अथवा धर्म, अर्थ, वाम मोक्षका अथवा एक पुरुषके आश्रय क्थाका अथवा प्रेसठ पुरुषोके चरित्रका अथवा पुण्यका अथवा रत्नत्रय और ध्यानका है कथन जिसमें सो प्रथमान योग रूप शास्त्र
जानना चाहिए । (अन ध/३/8/२५८)। ह पु/१०/७१ पदै पञ्चसहस्र स्तु प्रयुक्त प्रथमे पुन' । अनु योगे पुराणार्थविषष्टिरुपवर्ण्यते ॥७९॥ स दृष्टिवादके तीसरे भेद अन योगमें पाँच हजार पद हैं तथा इसके अवान्तर भेव प्रथमान योग, त्रेसठ शलाका पुरुषोंके पुराणका वर्णन है ॥७१॥ (क.पा/१/६१०३/१३८) (गो क / जी प्र/३६१-३६२/७७३/३) (द्र स./टी./४२/१८२/८) (पं का./ता../ १७३/२५४/१५)। ध, २/१,१,२/१.१.२/४ पढमाणियोगो पंचसहस्सपदेहि पुराणं वण्णेदि । प्रथमान योग अर्थाधिकार पाँच हजार पदोके द्वारा पुराणों का वर्णन करता है।
२ चरणानुयोगका लक्षण र क श्रा/४५ गृहमेध्यनगाराणा चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम्। 'चरणान
योगसमय सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥४५॥ - सम्यग्ज्ञान ही गृहस्थ और मुनियोंके चारित्रकी उत्पत्ति, वृद्धि, रक्षाके अंगभूत चरणानु योग
शास्त्रको विशेष प्रकारसे जानता है । (अन ध/३/११/२५१)। द्र सं./टो /१२/१८२/६ उपासकाध्ययनादौ श्रावकधर्मम्, आचाराराधनो यतिधर्म च यत्र मुख्यत्वेन कथयति स चरणानु योगो भण्यते । उपासकाध्ययन आदिमें श्रावकका धर्म और मूलाचार, भगवती आराधना आदिमें यतिका धर्म जहाँ मुख्यतासे कहा गया है, वह दूसरा चरणान योग कहा जाता है । (पं का/ता वृ./१७३/२५४/१६) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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