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अनुभाग
प्रकृतिनिके देशधाता स्पर्धक है नाहीं । तात सर्वघाती जघन्य । स्पर्धक वर्गणा तेसे ही परस्पर समान जाननो । तहाँ पूर्वोक्त देशघाती छब्बीस प्रकृतिनिकी अनुभाग रचना देशवाती जघन्य स्पर्धक ते लगाय उत्कृष्ट देशघाती स्पर्धक पर्यन्त होइ । तहाँ सम्यक्त्वमोहनीयका तौ इहाँ हो उत्कृष्ट अनुभाग होइ निवरया। अवशेष २५ प्रकृतिनिको रचना तहाँ तै ऊपर सर्वघाती उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त जाननी। बहुरि सर्वघाती बीस प्रकृतिनिकी रचना सर्वघातोका जघन्य स्पर्धकतै लगाय उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त है। यहाँ विशेष इतना-सर्वघाती दारु भागके स्पर्धकनिका अनन्तवा भागमात्र स्पर्धक पर्यन्त मिश्र मोहनीयके स्पर्धक जानने । उपरि नहीं है। बहुरि इहाँ पर्यन्त मिथ्यात्वके स्पर्धक नाही है। इहॉतै उपरि उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त मिथ्यात्वके स्पर्धक है।
२ मोहनीय प्रकृतिकी विशेष प्ररूपणा क. पा.५/४-२२/चूर्ण सूत्र/६१८६-२१३/१२६-१५१ उत्तरपय डिअणुभागविहत्ति वत्तइस्सामो ।१८। पुठ्वं गणिज्जा इमा परूवणा । ११०। सम्मत्तस्स पढम देसघादिफद्दयमादि कादूण जाव चरिम घादिफद्दगं त्ति एदाणि फद्दयाणि ॥६१११॥ मम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतक्म्म सव्वधादिआदिफद्दयमादि कादूण दारुबसमाणस्स अणतभागे दिं 1६१४२० मिच्छत्तस्स अणुभागसंत कम्मं जम्मि सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं णिहिद तदो अणं तरफद्दयमाढत्ता उवरि अप्पडिसिद्ध १९३। बारसक्सायाणमणुभागसंतक म्म सव्वघादीण दुट्ठाणियमादिफद्दयमादि कादूण उवरिमप्पडिसिद्ध ६१६४। चदुसजलणणवणाकसायाण मणुभागसंतकम्म देसवादीणमादिफद्दयमादि कादूण उवरि सधघादि त्ति अप्पडिसिद्ध १६५। तत्थ दुविधा सण्णा घादि सण्णा छ णसण्णा च । १६६। ताओ दो वि एक्कदो णिज्जति । १९७१ मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जहण्णय मन्त्र धादि दुट्ठाणिय । ६१६८। उक्कस्सयमणुभागसंतकम्मं सव्वधादिचदुठाणियं ।६२००1 एव बारसकसायछण्णोकसायण । ६२०१। सम्मत्तस्स अणुभागसंतकम्म देसघादि एगठाणियं वा दुठाणिय वा । २०२१ सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सवघादि दुट्ठाणिय । ६२०३। एक्कं चेव ठाण सम्मामिच्छताणुभागस्स । २०४। चदुसंजलणामणुभागसतकर्म सधघाती वा देसधादी वा एगट्ठाणियं वा दुट्ठाणिय वा तिठाणियं वा चउट्ठाणियं वा ।२०५। इत्थि वेदस्स अणुभागसंतकम्म सयघादौ दुठाणिय वा तिहाणिय वा चउद्राणिय वा । २०६। मोत्तूण खवगच रिमसमयइस्थिवेदय उदयणिसेगं । २०७। तस्स देसघादा एगट्ठाणियं । ६२०८ पुरिसघेदस्स अणुभागस तकम्मं जहण्णयं देसघादी एगहाणिय । २०६। उक्कस्साणुभागसतकम्म सम्बधादी चदुठ्ठाणियं ।६२१०॥ णवंसयवेदयस्स अणुभागस तक्म्म जहण्णयं सम्मघादी दुढाणिय ।६२११। उक्कस्सयमणुभागसतकम्म सबघादी चउट्ठाणिय १२१२॥ णवरि खवगस्स चरिमसमयण सयवेदयस्स अणुभागसंतकम्म देसघादी एगट्ठाणियं 18२१४। अब उत्तर प्रकृति अनु भाग विभक्तिको कहते है ॥१८॥ पहिले इस प्ररूपणाको जानना चाहिए ॥१०॥ सम्यक्त्व प्रकृतिके प्रथम देशघाती स्पर्धकसे लेकर अन्तिम देशघाती स्पर्धक पर्यन्त ये स्पर्धक होते है ।१६१॥ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अनुभागसरकर्म प्रथम सर्वघाती स्पर्धकसे लेकर दारुके अनन्तवे भाग तक होता है ॥१६२॥ जिस स्थान में सम्यग्मिथ्यात्व का अन भागसत्कर्म समाप्त हुआ उसके अनन्तरवर्ती स्पर्ध कसे लेकर आगे बिना प्रतिषेधके मिथ्यात्व सत्कर्म होता है ॥११॥ बारह कषायोका अनुभागसत्कर्म सर्वघातियोंके द्विस्थानिक प्रथम स्पर्धकसे लेकर आगे बिना प्रतिषेधके होते हैं। ( अर्थात दारुके जिस भागसे सर्वघाती स्पर्धक प्रारम्भ होते है उस भागसे लेकर शेल पर्यन्त उनके स्पर्धक होते है ) ॥१६४॥ चार संज्वलन और नव नोकषायोका अन भागसत्कर्म देशधातियोके प्रथम स्पर्धकसे लेकर आगे बिना प्रतिषेधके सर्वघाती पर्यन्त है । (तो भी उन सभके अन्तिम स्पर्धक समान नहीं है ) ॥१६॥ उनमें से सज्ञा
अनुभाग दो प्रकारकी है-घाति सज्ञा और स्थान संज्ञा ॥१६॥ आगे उन दोनों संज्ञाओको एक साथ कहते है ॥१६॥ मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग सत्कर्म सर्वधाती और विस्थानिक (लता दारु रूप ) है ॥१८॥ मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती और चतु स्थानिक ( लता, दारु. अस्थि, शैल ) रूप है ॥२००॥ इसी प्रकार बारह साय
और छ नोक्षायो ( त्रिवेद रहित ) का अनुभाग सर्म है ।२०१॥ सम्यक्त्वका अनुभाग सत्कम देशघाती है और एक्स्थानिक तथा द्विस्थानिक है (लता रूप तथा लता दारु रूप) ॥२०२॥ सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभागसत्कम सर्वघाती और द्विस्थानिक ( लता दारु रूप) है ॥२०॥ सम्यग्मिथ्यात्व के अनुभागका एक (द्विस्थानिक ) ही स्थान होता है ॥२०॥ चार संज्वलन कषायोका अनुभागमत्कम सर्वघाती और देशघाती तथा एक स्थानिक (लता) द्विस्थानिक ( लता दारु), त्रिस्थानिक (लता, दारु, अस्थि ) और चतु स्थानिक (लता दारु, अस्थि व शेल) हाता है ॥२०॥ स्खी वेद का अनुभाग सत्कर्म सर्वघातों तथा द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु स्थानिक होता है ( केवल लतारूप नहीं होता ) ॥२८६॥ मात्र अन्तिम समयवर्ती क्षपक स्त्रीवेदीके उदयगत निषेकका छोडकर शेष अनुभाग सर्वघाती तथा द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु स्थनिक होता है ॥२०७॥ किन्तु उस (पूर्वोक्त क्षपक ) का अनुभाग सत्कर्म देशघाती और एक स्थानिक हाता है ॥२०८॥ पुरुष्वेदका जघन्य अनुभाग सत्कर्म देशघाती और एक स्थानिक है ॥२०६॥ तथा उत्कृष्ट अनुभाग मरकम सब घाती और चतु स्थानिक होता है ॥२१०॥ नए सक्वेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वधाती और विस्थानिक होता है ॥२१॥ तथा ( उसीका) उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतु स्थानिक होता है ॥२१२॥ इतना विशेष है कि अन्तिम समयवर्ती नासमवेदी क्षपक्का अनुभागसत्कर्म देशघाती और एक स्थानिक होता है ।। ६. कर्मप्रकृतियोंमे सर्व व देशघाती अनुभाग विषयक
शंका-समाधान
१ मति आदि ज्ञानावरण देशघाती कैसे है ज्ञानबिन्दु-प्रश्न-मति आदि ज्ञानाबरण देशाबाती कैसे है। उत्तरमति, श्रुत, अवधि, मन पर्यय चार ज्ञानावरण ज्ञानाशको घात करनेके कारण देशघातो है, जबकि केवलज्ञानाबरण ज्ञानके प्रचुर अशोको घातने के कारण सर्वघाती है। (अवधि व मन पर्प य ज्ञानावरण मे देशघाती मघाती दोनो स्पर्धक है । दे --उदय ४।२) ।
२ केवलज्ञानावरण सर्वघाती है या देशघाती घ १३/५.५.२१/२१४/१० केवलणाणावरणीय कि सव्वघादी आहो देसघादो। ण ताव सवबादी, केवलणाणस्स णिस्सेणाभावे सते जीवाभावप्पसंगादो आवर णिज्जाभावेण सेसावरणाणमभावप्पस गादो वा। ण च देसघादो, 'केवलणाण-केवलदसणावरणीयपनडीओ सव्वधादियाओ'त्ति सुत्तेण सह विराहादा एस्थ परिहारो-ण ताव केवलणाणावरणीय देसघादो, कितु सवधादी चेत्र, पिस्सेसमावरिदकेवलणाणत्तादो। ण च जीवाभावो, केवलणाणे आवरिदे विच दण्णणाणाणं स तुबलं भादो। जीवम्मि एक्क केवलणाण', तंच पिसे समाव रिद । कत्तो पुण चदुण्ण णाणाणं सभवो। ण, छारच्छण्णगीदाबाफुप्पत्तीए इव सब धादिणा आवरणेण आवरिदकेवलणाणादो चदुण्ण णाणाणमुप्पत्तीए विरोहाभावादो । एदाणि चत्तारि विणाणाणि केवलणाणस्स अवयवा ण होति ।-प्रश्न - केवलज्ञानावरणीयर्म क्या सर्व घाती है या देशघाती । (क) सर्वघाती तो हो नही सक्ता, क्योकि केवलज्ञानका नि शेष अभाव मान लेनेपर जीवके अभावका प्रसंग आता है। अथवा आवरणीय ज्ञानोका अभाव होनेपर शेष आवरणोके अभावका प्रसग प्राप्त होता है । (ख) केवलज्ञानावरणीय कर्म देशघाती भी नहीं हो सकता, क्योकि ऐसा माननेपर केवलज्ञानावरणीय और केवल
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