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अनुभाग
दर्शनावरणीय कर्म सर्वघाती है। इस सूत्रके साथ विरोध आता है । उत्तर--केवल ज्ञानावरणीय देशघाती तो नहीं है, किन्तु सर्वघाती ही है, क्योकि वह केवलज्ञानका नि शेष आवरण करता है, फिर भी जीवका अभाव नही होता, क्योकि केवलज्ञानके आवृत होनेपर भी चार ज्ञानोका अस्तित्त्र उपलब्ध होता है। प्रश्न-जीवमें एक केवलज्ञान है। उसे जब पूर्ण तया आवृत कहते हो, तब फिर चार ज्ञानोका सद्भाव कैसे हो सकता है। उत्तर-नही, क्योकि जिस प्रकार राखसे ढकी हुई अग्निसे वाष्पकी उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार सर्वधाती आवरण के द्वारा केवल ज्ञानके आवृत होनेपर भी उमसे चार ज्ञानोकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता। प्रश्न-चारो ज्ञान केवलज्ञानके अवयव है या स्वतन्त्र । उत्तर-दे ज्ञान I/४|
३ सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती कैसे है क पा १/४-२२/8१६१/१३०/१ लदासमाण जहण्णफहयमादि कादूण जाव देसघादिदारू असमाणुवस्स फद्दय ति टिदसम्मत्ताणुभागस्स कुदो देसघादित । ण, सम्मत्तस्स एगदेस वादे ताण तदविरोहो । को भागो सम्मत्तस्स तेण घाइज्जदि । थिरत्त णिक्कवरवन । प्रश्न-लता रूप जघन्य स्पर्धक्मे लेकर देशघाती दारुरूप उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त स्थित सम्यक्त्वका अनुभाग देशघातो कैसे है। उत्तर-नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकतिका अनुभाग मम्यग्दर्शनके एकदेशको धातता है। अत उसके देशघाती हानेमें कोई विरोध नहीं है। प्रश्न- सम्यक्त्वके कौन-से भागका सम्यक्त्व प्रकृति द्वारा घात होता है। उत्तर-उसकी स्थिरता और निष्काक्षिताका घात हता है। अर्थात् उसके द्वारा घाते जाने मे सम्यग्दर्शनका मूलमे विनाश तो नहीं होता किन्तु उसमें चल, मल आदि दोष आ जाते है।
४ मम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है क पा ॥४-२२/६१६२/१:०/१० सम्मामिच्छत्तफहयाण कुदो सव्व घादित्त । णिस्सेमसम्मत्त घायणादा। ण च सम्मामिच्छ से सम्मत्तस्स गंधो बि अस्थि, मिच्छत्तसम्मनेहितो जाच तरभावेणुप्पण्णे सम्मामिछत्ते सम्मत्त-मिच्छत्त णमत्यित्तविराहादो।- प्रश्न-सम्यग्मिथ्यात्वके स्पर्धक सर्वघाती कैमे है। उत्तर क्योकि वे सम्पूर्ण सभ्यकत्वका घात करते है। सम्यग्मिध्यात्व उदयमें सम्यक्त्वकी गन्ध भी नही रहती, क्योकि मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी अपेथा जात्यन्तररूपसे उत्पन्न हुए सम्याग्मियविमें सम्यक और मिथ्यात्वके अस्तित्वका विरोध है। अर्थात् उस समय न सम्यक्त्व ही रहता है और न मिथ्य त्व ही रहता है, किन्तु मिला हुआ दही-गुडके समान एक विचित्र ही मिश्रभाव रहता है। ध/१,७४/१८/ह सम्मामिच्छत्त खओवस मियमिदि चे एवं विहविवकरवाए सम्मामिछत्त खओबसमिय मा होदु, कितु अवयव्यवयवनिराकरणानिराकरण पच्च ख ओवसमियं सम्मामिच्छत्तदव्वकम्म पिसव्वघादी चेव होदू, जस्चतरस्स सम्मामिच्छत्तस्स सम्मत्ताभावादो। क्तुि सद्दहणभागो ण होदि, सहहणासहहणाण मेयत्तविरोहा । सम्यग्मिथ्यात्वका उदय रहते हुए अवयवी रूप सम्यक्त्व गुणका तो निराकरण रहता है किन्तु सम्यवत्व गुण का अवयव रूप अश प्रगट रहता है, इस प्रकार भायोपशमिक भी वह सम्यग्मिथ्याव द्रव्यकर्म सर्वघाती ही होवे, क्योंकि जात्यन्तर सम्यग्मिथ्यात्व कमके सम्यक्त्वताका अभाव है। किन्तु श्रद्वान भाग अश्रद्धान भाग नहीं हो जाता है, क्योकि श्रद्वान और अश्रद्धानके एक्ताका विरोध है। ध १/१,१,११/१६८/५ सम्यग्दृष्टेनिरन्बय विनाशाका रिण सम्यग्मिथ्यास्वस्य क्थ सर्वधातित्वमिति चेन्न, सम्यग्दृष्टे साक्ष्यप्रतिबन्धितामपेक्ष्य तस्य तथोपदेशात प्रश्न-सम्यग्मिथ्यात्वका उदय सम्यग्दर्शनका निरन्वय विनाश तो करता नही है फिर उसे सर्वघाती क्यों कहा १ उत्तर-ऐसी शका ठीक नहीं है, क्योंकि वह सम्यग्दर्शनकी पूर्णताका प्रतिबन्ध करता है, इस अपेक्षासे सम्यग्मिध्यात्वको सर्वघाती कहा है।
ध ७/२,१,७६/११०/८ होदुणाम सम्मत्तं पड्डच्च सम्मामिच्छतफयाण सव्वघादित्त, कितु असुद्धणए विवक्रिखए ण सम्मामिच्छत्तफह्याण सव्वधादित्तमत्थि, तेसिमुदए सते वि मिच्छत्तसलिदसम्मत्तकणस्सुवल भादो ।- सम्यक्त्वकी अपेक्षा भले ही सम्यग्मिथ्यात्व स्पर्धकोंमें सर्वघातीपन हो, किन्तु अशुद्धनयकी विवक्षासे सम्यग्मिध्यात्व प्रकृतिके स्पर्धकों में सर्वघातीपन नहीं होता, क्योकि उनका उदय रहनेपर भी मिथ्यात्वमिश्रित सम्यक्त्वका कण पाया जाता है। (ध.१४/५.६.१६/२१/६)।
५. मिथ्यात्व प्रकृति सर्वघाती कैसे है क. पा १/४-२२/१२००/१३६/७ कुदो सव्वधादित्त। सम्मत्तासेसावयवविणासणेण । प्रश्न-यह सर्वघाती क्यों है। उत्तर-क्योकि यह सम्यक्त्वके सव अवयवोका विनाश करता है, अत सर्वघाती है।
६ प्रत्याख्यानावरणकषाय सर्वघाती कैसे है ध११,७७/२०२/५ ए सते पच्चक्खाणावरणस्स सव्वघादिस फिट्टदि
त्ति उत्ते ण फिट्टदि, पच्चवखाणं सव्व घादयदि त्ति त सव्व घादी उच्चदि। सब्बमपच्चक्रवाणं ण घादेदि, तस्स तत्थ बावाराभावा ।प्रश्न- यदि ऐसा माना जाये (कि प्रत्याख्यानावरण चतुष्कके उदयके सर्व प्रकार के चारित्र विनाश करनेकी शक्तिका अभाव है। तो प्रत्याख्यानावरण कषायका सर्वघातीपन नष्ट हो जाता है। उत्तर-नहीं होता, क्योकि प्रत्यारण्यानावरण कषाय अपने प्रतिपक्षी भर्व प्रत्या. रख्यान (सयम) गुणको घातता है, इसलिए वह सवघाती कहा जाता है। किन्तु सर्व अप्रत्याख्यानको नहीं घातता है, क्योंकि इसका इस विषयमें व्यापार नहीं है।
७ मिथ्यात्वका अनुभाग चत स्थानीय कैसे हो सकता है क पा/१/४-२२/१९८-२००/१३७-१४०/१२ मिच्छत्ताणुभागस्स दारुअट्ठि-सेलसमाणाणि त्ति तिष्णि चेव ठाणाणि लतासमाणफद्दयाणि उल्ल धिय दारुसमाणम्मि अवठिदसम्मामिच्छत्तु कस्सफद्दयादो अण त. गुणभावेश मिच्छत्तजहण्णफद्दयस्स अवठाणादो। तदो मिच्छत्तस्स जहण्णास भागसनक्म्म दुट्ठाणियमिदि वुत्ते दारु-अट्ठि-समाणफहयाण गहण कायव्य, अण्णहा तस्स दुठाणियत्ताणुववत्तीदो ...लतादारुस्थानाभ्यां केनचिद शान्तरेण समानतया एकत्वमापन्नस्य दारुसमानस्थानस्य तद्वयपदेशोपपते । समुदाये प्रवृत्तस्य शब्दस्य तदवयवेऽपि प्रवृत्युपलम्भाद्वा ॥ १३७ १३८॥ लदासमाणफद्दएहि विणा कध मिच्छत्ताणुभागस्स चदुठ्ठाणियत्त । मिच्छत्तकस्सफहयम्मि लदादारु-ठि-सेलसमाणट्ठाणाणि चत्तारि वि अस्थि, तेसि फट्याविभागपलिच्छेदाणसंभवो,"मिच्छत्तकस्साणुभागसंतकम्मं चदुट्ठाणियमिदि वुत्ते मिच्छत्तेगुक्कस्सफद्दयस्सेत्र कध गहणं । ण, मिच्छ सु. कस्सफदयचरियवग्गणाए एगपरमाणुणा धरिदअण ताविभागपलिच्छेदणिपण्ण अण त फयाणमुक्कस्साणुभागसतक्म्मवव एसादो। -प्रश्नमिथ्यात्वके अनुभागके दारुके समान, अस्थिके समान और शैलके समान, इस प्रकार तीन ही स्थान है। क्योंकि लता समान स्पर्धकोंको उल्लंघन कर के दारुसमान अनुभागमें स्थित सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धकसे मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कम द्विस्थानिक है ऐसा कहनेपर दारुसमान और अस्थिसमान स्पर्धकोंका ग्रहण करना चाहिए. अन्यथा वह द्विस्थानिक नहीं बन सकता ! उत्तर-क्सिी अंशान्तरकी अपेक्षा समान होनेके कारण लता समान और दारु समान स्थानोसे दारुस्थान अभिन्न है, अत उसमें द्विस्थानिक व्यपदेश हो सकता है। अथवा जो शब्द समुदायमें प्रवृत्त होता है, उसके अवयवमें भी उसकी प्रवृत्ति देखी जाती है, अतः केवल दारुसमान स्थानोंको भी द्विस्थानिक कहा जाता है। प्रश्न-जन मिथ्यात्वके स्पर्धक लता समान नहीं होते तो उसका अनुभाग चतु स्थानिक कैसे है। उत्तर-मिथ्यात्यके उत्कृष्ट स्पर्धकमें लता समान, दारु-समान, अस्थिसमान और शैलसमान चारों ही स्थान हैं क्योंकि उनके
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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