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अनुभाग
५. अनुभाग बन्ध सम्बन्धी कुछ नियम व प्ररूपणाएँ १. प्रकृतियोंके अनुभागकी तरतमतासम्बन्धी सामान्य नियम |
२. प्रकृति विशेषोमे अनुभागकी तरतमताका निर्देश १ ज्ञानावरण और दर्शनावरणके अनुभाग परस्पर समान होते है । २. केवलज्ञानदर्शनावरण, असाता व अन्तरायके अनुभाग परस्पर समान हैं । ३. तिचा से मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा है । ३. जघन्य व उत्कृष्ट अनुभागके बन्धको सम्बन्धी नियम
उत्कृष्ट अनुभागका बन्धक ही उत्कृष्ट स्थितिको बान्धता है । - दे स्थिति ४ ।
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उत्कृष्ट अनुभागके साथ ही उत्कृष्ट स्थिति बन्धका कारण । दे स्थिति ५ ।
१. अघातिया कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभाग सम्यग्दृष्टिको ही बँधता है, मिथ्यादृष्टिको नही । २. गोत्रकर्मका जघन्य अनुभागबन्ध तेज व बातकायिकोंमे ही सम्भव है ।
४. प्रकृतियोके जघन्य व उत्कृष्ट अनुभाग बंधकोंकी
प्ररूपणा ।
५. अनुभाग विषयक अन्य प्ररुणाओंका सूचीपत्र । अनुभाग सत्त्व
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* प्रकृतियोके चतुःस्थानीय अनुभाग बन्धके काल, अंतर क्षेत्र, स्पर्शन, भाव अल्पबहुत्व व संख्या सम्बन्धी प्ररूपणाएँ । - वह वह नाम
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१. भेद व लक्षण
१. अनुभाग सामान्यका लक्षण व भेद
घ. १३/५०५,८२/३४९/५ छदव्वाण सत्ती अणुभागो णाम । सो च अणुभागो हल्लिहोजीमा पग्गाभागो धम्मथिय भागो अम्मत्थिय अणुभागो आगासस्थिम अणुभाग कालदवाणुभागो चैदि । छह द्रव्योकी शक्तिका नाम अनुभाग है। वह अनुभाग छ' प्रकारका है - जीवानुभाग, पुद्गलानुभाग, धर्मास्तिकायानुभाग, अधर्मास्तिकायानुभाग, आकाशास्तिकायानुभाग और कालद्रव्यानु
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भाग ।
२. जीवादि द्रव्यानुभागोंके लक्षण
घ./११/५२,८२/३४६/७ रारथ असेसइयागमो जीवाणुभागो जरकृट्ठलयादिवासनं तदुपाय चोलागी जोगपाहुडे भगद मततीयो पोग्गलाणुभागो थ्यो। जोयगोग्गलाय गमणागमणहेतुत्त धम्मत्थियाणुभागी । तेसिमबट्ठाणहेदुत्त अधम्मस्थियाणुभागो जीवादिदमागमाहारसमागास स्वियाभागो मेसि
व्वाण' कमाकमेहि परिणमणहेदुत्त कालदव्बाणुभागो । एवं दुसजोगादिणा अणुभागपरूवणा कायव्त्रा । जहा [मट्टिआ ] पिंड दड-चक्कचीवर-जल-कुंभारादीण पप्पाषाणुभाग समस्त इब्योंका जानना जीवानुभाग है। ज्वर, कुष्ट और क्षय आदिका विनाश करना
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अनुभाग
और उनका उत्पन्न करना, इसका नाम पुद्गलानुभाग है । योनिप्रभू कहे गये मन्त्र तन्त्र शक्तियो का नाम पुगानुभाग है. ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। जीव और गलोके गमन और आगमन में हेतु होना, धर्मास्तिकायानुभाग है। उन्होंकि अवस्थानमे हेतु होना, अधर्मास्तिकायानुभाग है । जीवादि द्रव्योंका आधार होना, आकाशास्तिकायानुभाग है । अन्य द्रव्योंके क्रम और अक्रमसे परि
मनमें हेतु होना, कालद्रव्यानुभाग है । इसी प्रकार द्विसयोगादि रूपसे अनुभागका कथन करना चाहिए। जैसे- मृत्तिकापिण्ड, दण्ड, चक्र, चीवर, जल और कुम्भार आदिका घटोत्पादन रूप अनुभाग |
३. अनुभाग बन्ध सामान्यका लक्षण
स. सु./८/२१.२२ विपाकोऽनुभव. १९९६ यथानाम १२२- विविध प्रकारके पाक अर्थात् फल देनेकी शक्तिका पडना ही अनुभव है ॥२१॥ वह जिस कर्मका जैसा नाम है उसके अनुरूप होता है ॥२२॥ मु.आ./ १२४० कम्मा जो रसो अभवसायिह अहो बा बधो सो अणुभागो पदेसबधो हमो होइ ॥ १२४० ॥ ज्ञानावरणादि कमका जो कषायादि परिणामजनित शुभ अथवा अशुभ रस है वह अनुभागबन्ध है ।
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स.सि./८/२/२०६ सविशेषोऽनुभव यथा अजगो महिष्यादि क्षीराणां तीव्रमन्दादिभावेन रसविशेष तथा कर्मप्रगलाना स्वगतसामर्थ्यविशेषोऽभवः। उस (कर्म) के रस को अनुभव हैं । जिस प्रकार बकरी, गाय और भैस आदिके दूधका अलग अलग तीम] मन्द आदि रस विशेष होता है, उसी प्रकार कर्म-गोंका अलग-अलग स्वगत सामर्थ्य विशेष अनुभव है । ( प स / प्रा./४/५१४) (रा. बा /८/३.२/५६७) (पं.सं./सं./४/३६८) (व. /टी./२३/१२) घ. १२/४.२,७,१११/१९/८ अण्णं वि कम्माणं जीवाणु गमहेदुपरिणामो - अनुभाग किसे कहते है आठ कर्मों और प्रदेशोंके परस्पर में अन्वय (एकरूपता) के कारणभूत परिणामको अनुभाग कहते हैं।
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क. पा ५/४-२३/११/२/३ को अणुभागो । कम्माणं सगकज्जकरण सती अणुभागो णामा । कर्मोंके अपना कार्य करने ( फल देने) की शक्तिको अनुभाग कहते हैं।
निसा /ता वृ / ४० शुभाशुभकर्मणा निर्जरासमये सुखदुखफलदानशक्तियुक्तो ह्यनुभागबन्ध | शुभाशुभकर्मकी निर्जराके समय सुखदुखरूप फल देनेकी शक्तिवाला अनुभागमन्ध है।
४. अनुभाग बन्धके १४ मेवोंका निर्देश
प्रा. / ४/४४१ सादि अनादिय अट्ठ य पसत्थिदरपरूवणा तहा सण्णा । परचय विवाय ऐसा सामिषेणाह अनुभागो १४४१३- अनुभागके चौदह भेद है। वे इस प्रकार हैं-१ साथि अनादि २४.अ ५. जघन्य ६ अजघन्य ७ उत्कृष्ट, ८. अनुत्कृष्ट, ६. प्रशस्त. १०. अप्रशस्त, १९. देशघाति व सर्वधाति, १२ प्रत्यय, १३. विपाक, ये तेरह प्रकार तो अनुभाग बन्ध और १४ व स्वामित्व । इन चौदह भेदोंकी अपेक्षा अनुभाग बन्धका वर्णन किया जाता है ।
५. सादि अनादि ध्रुव अध्रुव आदि अनुभागोंके लक्षण
जी./११/०५ येषां कर्म कृतेामेव कर्मणा उत्कृष्ट स्थित्यनुभागप्रदेश साचादिभेदाचतुविधो भत अजघन्येऽपि एवमेव चतुर्विध। तेषां लक्षणं. अत्रोदाहरणमात्र किचित्प्रदर्श्यते । तद्यथा-उपशमश्रेण्यारोहक सूक्ष्मसाम्पराय सूक्ष्मसाम्पराय उभा उत्कृष्ट बद्ध्वा उपशान्तकषायो जात । पुनरवरोहणे सूक्ष्मसाम्परायो भूत्वा तदनुभागमनुत्कृष्टं भासितस्य सादियम्। तत्सूक्ष्मसाम्पराय परमादधोऽनादित्वम् अनुकृष्टं उत्कृष्ट नाति तदा अभवत्वमिति । अजघन्येऽप्येवमेव चतुर्विध । तद्यथासमपृथिव्या प्रथमोपशमसम्ययश्वाभिमुखो मिध्यादृष्टिरमसमये
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