________________
अनुभव
ध्यानी है। ऐसा कहते हैं, वे जिनधर्म विराधक मिथ्यादृष्टि जानने
चाहिए। भावसंग्रह/३८५ (गृहस्थोंको निरालम्ब ध्यान माननेवाला मूर्ख है)।
७. साधु व गृहस्थके निश्चय ध्यानमें अन्तर मो.पा.//८३-८६ णिच्छयणयस्स एवं अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदिसुचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वार्ण ॥८३॥ एव जिणहि कहि सवणाण सावयाण पुण सुणम् । ससारविणासयर सिद्धियर कारणं परमं ८५ गहिऊण य सम्मत्तं मुणिम्मल मुरगिरीव णिक्कं । त जाणे ज्झाइज्जइ सात्रय । दुक्खक्खयट्ठाए ॥८६॥ - निश्चय नयका ऐसा अभिप्राय है कि जो आत्मा ही विर्षे आपहीके अर्थि भले प्रकार रस होय सो योगी ध्यानी मुनि सम्यग्चारित्रवान् भया संता निर्वाणक पावै है ॥८३॥ इस प्रकारका उपदेश श्रमणोके लिए किया गया है। महुरि अब श्रावकनिक कहिये है, सो सुनो। कैसा कहिये है-ससारका तो विनाश करनेवाला और सिद्धि जो मोक्ष ताका करनेवाला उत्कृष्ट कारण है ॥८॥ प्रथम तौ श्रावकके भलै प्रकार निर्मल और मेरुबव अचल अर चल, मलिन, अगाढ दूषण रहित अत्यन्त निश्चल ऐसा सभ्यक्कू ग्रहणकरि, तिसळू ध्यानविर्षे ध्याबना, कौन अर्थिदुःखका क्षयके अर्थि ध्यावना ॥८६॥ जो जोव सम्यक्त्वक ध्याव है, सो जीव सभ्यग्दृष्टि है, बहुरि सम्यक्त्वरूप परिणया सता दुष्ट जे आठ कर्म तिनिका क्षय करै है ॥८७५ ८. अल्पमूमिकामें आत्मानुभवके सद्भाव-असद्भावका
समन्वय स.सा./ता../१० यो भावश्रुतरूपेण स्वसंवेदनज्ञानबलेन शुद्धात्मान जानातिस निश्चयश्रुतकेवलीभवति । यस्तु स्वशुद्धात्मानं न सवेदयति न भावयति, बाहिर्विषयं द्रव्यश्रुतार्थं जानाति स व्यवहारश्रुतकेवली भवतीति । ननु तर्हि-स्वस वेदनज्ञानबलेनास्मिन् कालेऽपि श्रुतकेवली भवति । तत्र यादृशं पूर्वपुरुषाणां शुक्लध्यानरूप स्वस बेदनज्ञान तादृशमिदानों नास्ति किंतु धर्मध्यानयोग्यमस्तीत्यर्थ । जो भावश्रुतरूप स्वसंवेदनज्ञानके बलसे शुद्धात्माको जानता है, वह निश्चय श्रुतकेवली होता है । जो शुद्धात्माका सवेदन तो नहीं करता परन्तु महिविषयरूप द्रव्य श्रुतको जानता है वह व्यवहारश्रुतकेवली होता है। प्रश्न-तब तो स्वसंवेदन ज्ञानके बलसे इस काल में श्रुतकेवली हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि जिस प्रकारका शुक्लध्यानरूप स्वसवेदनज्ञान पूर्व पुरुषों को होता था वैसा इस काल में नहीं है, किन्तु धर्मध्यानके योग्य है। प्र.सा/ता../२४८ ननु शुभोपयोगिनामपि कापि काले शुद्धोपयोगभावना हरयते, शुद्धोपयोगिनामपि कापि काले शुभोपयोगभावना दृश्यते। श्रावकाणामपि सामायिकादिकाले शुद्धभावना दृश्यते, तेषां कथं विशेषो भेदो ज्ञायत इति। परिहारमाह -युक्तमुक्त भवता परं किंतु ये प्रचुरेण शुभोपयोगेन वर्तन्ते, यद्यपि कापि काले शुद्धोपयोगभावना कुर्वन्ति तथापि शुभोपयोगिन एव भण्यन्ते। येऽपि शुद्धोपयोगिनस्ते यद्यपि कापि काले शुभोपयोगेन वर्तन्ते तथापि शुद्धोपयोगिन एव। कस्मात् । बहुपदस्य प्रधानत्वादावननिम्बवनवदिति - प्रश्नशुभोपयोगियोंके भी किसी काल शुद्धोपयोगकी भावना देखी जाती है और शुद्धोपयोगियोंके भो किसी काल शुभोपयोगकी भावना देखी जाती है। श्रावकोंक भी सामायिकादि काल में शुद्धभावना दिखाई देती है। इनमें किस प्रकार विशेष या भेद जाना जाये। उत्तर-जो प्रचुर रूपसे शुभोपयोगमें वर्तते है वे यद्यपि किसी काल शुद्धोपयोगकी भावना भी करते है तथापि शुभोपयोगी ही कहलाते है और इसी प्रकार शुद्धोपयोगी भी यद्यपि किसी काल शुभोपयोग रूपसे पर्तते है तथापि शुद्धोपयोगी ही कहे जाते है। कारण कि आघवन व निम्बवनकी भाँति महुपदकी प्रधानता होती है। ब.स./टो./३४/१०/१तत्राशुद्धनिश्चये शुद्धोपयोगो कथं घटते इति चेत्तत्रोतरम्-शुद्धोपयोगे शुद्धबुद्ध कस्वभावो निजारमाध्येयस्तिष्ठति तेन
कारणेन शुद्धध्येयत्वाच्नद्धावलम्बनस्वारद्धात्मस्वरूपसाधत्वाच शुद्धोपयोगी घटते । स च संवरशब्दवाच्य शुद्धोपयोग ससारकारणभूतमिथ्यात्वरागाद्यशुद्धपर्यायवदशुद्धो न भवति फलभूत केवलज्ञानपर्यायत्रत शुद्धोऽपि न भवति किंतु ताभ्यामशुद्धशुद्धपर्यायाभ्या विलक्षणं एकदेशनिरावरण च तृतीयमवस्थान्तर भण्यते। -प्रश्नअशुद्ध निश्चय में शुद्धोपयोग कैसे घटित होता है। उत्तर-- शुद्धोपयोगमें शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव आत्मा ध्येयरूपसे रहती है। इस कारणसे शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्ध अवलम्बन होनेसे और शुद्धात्मस्वरूपका साधक होनेसे शुद्धोपयोग घरित होता है। सवर शब्दका वाच्य वह शुद्धोपयोग न तो मिथ्यात्वरागादि अशुद्ध पर्यायवत अशुद्ध होता है और न ही केवलज्ञानपर्यायवत शुद्ध ही होता है। किन्तु अशुद्ध व शुद्ध दोनों पर्यायोसे विलक्षण एकदेश निरावरण तृतीय अवस्थान्तर कही जाती है । (प्र सा./ता ७ /१८१/२४५/११) । ६. शुद्धात्माके अनुभव विषयक शका-समाधान
१. अशुद्ध ज्ञानसे शुद्धात्माका अनुभव कैसे करें स.सा/ता /४१४/५०८/२३ केवलज्ञान शुद्ध छद्यस्थ ज्ञान पुनरशुद्ध
शुद्धस्य केवलेज्ञानस्य कारण न भवति। नैवं छद्मस्थ ज्ञानस्य कथं - चिच्छुद्धाशुद्धत्वम् । तद्यथा-यद्यपि केवलज्ञानापेक्षया शुद्ध न भवति तथापि मिथ्यात्वरागादिरहितत्वेन वीतरागसम्यक्चारित्रसहितत्वेन च शुद्धम् । अभेदनयेन छद्मस्थानां समन्धिभेदत्रानमात्मस्वरूपमेव तत कारणात्तेनैकदेशव्यक्तिरूपेणापि सक्लव्यक्तिरूप केवलज्ञान जायते नास्ति दोष 1.. क्षायोपशमिमपि भावतज्ञान मोक्षकारण भवति । शुद्धपारिणामिक भाव एकदेशव्यक्तिलक्षणाया कथंचिदभेदाभेदरूपस्यद्रव्यपर्यायात्मकस्य जीवपदार्थस्य शुद्धभावनावस्थायां ध्येयभूतद्रव्यरूपेण तिष्ठति न च ध्यानमर्यायरूपेण । प्रश्न-केवलज्ञान शुद्ध होता है और छद्मस्थका ज्ञान अशुद्ध। वह शुद्ध केवलज्ञानका कारण नही हो सकता-उत्तर-ऐसा नही है, क्योकि छद्मस्थज्ञानमें भी कथ चिव शुद्धाशुद्धत्व होता है। वह ऐसे कि यद्यपि केवलज्ञानको अपेक्षा तो वह शुद्ध नहीं होता, तथापि मिथ्यात्व रागादिसे रहित होनेके कारण तथा वीतराग सम्यक्पारिबसे सहित होनेके कारण वह शुद्ध भी है। अभेद नयसे छद्मस्थो सम्बन्धी भेदज्ञान भी आत्मस्वरूप ही है। इस कारण एक देश व्यक्तिरूप उस ज्ञानसे सकल व्यक्तिरूप केवलज्ञान हो जाता है, इसमें कोई दोष नही है। क्षायोपशमिक भावभुतज्ञान भी (भले सावरण हो पर) मोक्षका कारण हो सकता है। शुद्ध पारिणामिकभाव एकदेश व्यक्तिलक्षणरूपसे कथचित भेदाभेद द्रव्यपर्यात्मक जीवपदार्थकी शुद्धभावनाकी अवस्थामें ध्येयभूत द्रव्यरूपसे रहता है, ध्यानकी पर्यायरूपसे नहीं। (और भी देखो पीछे 'अनुभव/५/७')।
२. अशुद्धताके सद्भावमें भी उसकी उपेक्षा कैसे करें पध./उ./१५६.१६२ न चाशङ्कयं सतस्तस्यस्यादुपेक्षा कथ जवात ॥१५॥
यदा तद्वर्णमालायां दृश्यते हेम केवलम् । न दृश्यते परोपाधिः स्वेष्ट दृष्टेन हेम तव ॥१६२॥ - उस सत्स्वरूपपर संयुक्त द्रव्यकी सहसा उपेक्षा कैसे हो जायेगी-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए ॥१५६॥ क्योकि जिस समय अशुद्ध स्वर्ण के रूपो में केवल शुद्ध स्वर्ण दृष्टिगोचर किया जाता है, उस समय परद्रव्यकी उपाधि दृष्टिगोचर नहीं होती, किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाणसे अपना अभीष्ट वह केवल शुद्धस्वर्ण ही दृष्टिगोचर होता है।
३. देह सहित भी उसका देह रहित अनुभव कैसे करें ज्ञा /३२/१-११ कथं तर्हि पृथक् कृत्वा देहाद्यर्थकदम्बकार । आरमानमभ्य सेयोगी निर्विकल्पमतीन्द्रियम् ॥६अपास्य बहिरारमान स्थिरेणान्तरात्मना। ध्यायेद्विशुद्धमत्यन्तं परमात्मानमव्ययम् ॥१०॥ संयोजयति देहेम चिदात्मानं बिमूढधी। बहिरात्मा ततो ज्ञानी पृथक् पश्यति देहिनाम् ॥११॥ प्रश्न-यदि आत्मा ऐसा हे तो इसे देहादि पदार्थोंके समूहसे पृथक करके निर्विकल्प व अतीन्द्रिय, ऐसा कैसे ध्यान
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org