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अनुभव
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पध / पू / ७१० इह सम्यग्दृष्टे किल मिथ्यात्वोदय विनाशजा शक्ति । कानीयात्यमेतदस्ति यथाष्टजनके निश्चय हो मिध्यात्वकर्म के अभाव कोई अनिर्वचनीय शक्ति होती है जिससे यह आत्मप्रत्यक्ष होता है। मोमा/०/३०६/६ मोची दशाविप केई जीवनि शुभोगयोग और शुद्रोयोगातपना पाये है। सा.स/भाषा/४/२६६/११२ चौथे गुणस्थान में सम्पदर्शनके साथ ही स्वरूपाचरण चारित्र भो आत्मामें प्रगट हो जाता है । यु अ. / ५१ प जुगल किशोर "स्वाभाविकत्वाच्च मम
मनस्ते ॥ ५१ ॥
• असयत सम्यग्दृष्टिके भी स्त्रानुरूप मन साम्यकी अपेक्षा मनका सम होना बनता है, क्योंकि उसके सयमका सर्वथा अभाव नहीं है । ३. धर्मध्यान में किंचित् आत्मानुभव अवश्य होता है इस /टो /४०/२६ नियममार्ग तथेव व्यवहारमोक्षमार्ग च विधमपि निर्विकारस्य विश्यात्मकपर मध्यानेन मुनि प्राप्नोति । - निश्चय मोक्षमार्ग तथा व्यवहार मोक्षमार्ग इन दोनोको मुनि निर्विकार स्वसवेदनरूप परमध्यानके द्वारा प्राप्त करता है । इस टी ३६/२२५ तस्मिन्ध्याने स्थितानां महीतराग परमानन्द सुर्ख प्रतिभाति तदेव निश्वयममार्गस्वरूप तच पर्यायनामान्तरेण कि किं भण्यते तदभिधीयते । तदेव शुद्धात्मस्वरूप, तदेव परमात्मस्वरूप तदेवैकदेशव्यक्तिरूप परमहंसस्वरूपम् । तदेव शुद्रपारि स एव शुद्वापयोग पडावश्यक स्वरूप. सामायिक चतुविधाराधना, धर्मध्यान, शुक्रुध्यान. शून्यध्यान, परमसाम्यं,
भेदज्ञान, परमसमाधि, परमस्वाध्याय इत्यादि ६६ बोल । उस ध्यान में स्थित जोवोका जो वीतराग परमानन्द सुख प्रतिभासता है, वह निश्चय मोक्षमार्गका स्वरूप है। वही पर्यायान्तरसे क्या-क्या कहा जाता है, सो कहते है । वही शुद्धात्मस्वरूप है, वही परमात्मस्वरूप तथा एकदेश परमहसस्वरूप है। वही शुद्धचारित्र, शुद्धोपयोग, षडावश्यकस्वरूपसामायिक, चतुविधाराधना, धर्मध्यान, शुक्रध्यान, शून्यध्यान, परमसाम्य, भेदज्ञान, परम समाधि, परमस्वाध्याय आदि हैं। ४. धर्मध्यान अल्प भूमिकाओ में भी यथायोग्य होता है प्रसा/ता वृ / ११ ध्यायति य कर्ता । कम् । निजात्मानम् । कि कृत्वा । स्वमवेदनज्ञानेन ज्ञात्वा कथभूतः । यति गृहस्थ । य एव गुणविशिष्ट अपयति स मोहदुग्रन्थिम् । =जो यति या गृहस्थ स्वसवेदनज्ञानसे जानकर निजात्माका ध्याता है उसकी माहग्रन्थि नष्ट हो जाती है ।
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इस ट ४८/२०१-२० (२०१) तारतम्यवृद्धिकमेणासयतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तस यताप्रमत्ताभिधान चतुर्गुणस्थानवर्त्ति जावसंभव मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धकारणमपि परम्परया मुक्तिकारणं चेति धर्मध्यान वध्यते ॥ २०२ ॥ अध्यात्मभाषया पुन सहजशुद्धपरमदयासिनि निरानन्दमालिनी भगवति निजात्मन्युपादेयबुद्धि कृत्वा पश्चानन्तज्ञानोऽहमनन्सुलाऽहमित्यादिभावनारूपमभ्यन्तर धर्मध्यानमुच्यते। पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादि तदनुकूलशुभानुष्ठानं पुनर्म हिर धर्मध्यानंभ वति (२०४) । -आगम भाषा के अनुसार तारतम्य रूपसे असंयत सम्पति वैशसयत प्रमत्तसयत और अनन्तसंयत इन चार गुणावर्ती जीवोमें सम्भव, मुख्यरूपसे पुण्यन्धका कारण होते हुए भी परम्परासे मुक्तिका कारण धर्मध्यान कहा गया है। अध्यात्म भाषा के अनुसार सहज शुद्ध परम चैतन्य शालिनी निर्भराभन्द मालिनी भगवती निजात्मामें उपादेय बुद्धि करके पीछे मै अनन्त ज्ञानरूप हूँ, मै अनन्त सुख रूप हूँ' ऐसी भावना रूप अभ्यन्तर धर्मध्यान कहा जाता है । पञ्चपरमेष्ठीकी भक्ति आदि तथा तदनुकूल शुभानुष्ठान बहिरंग धर्मध्यान होता है ।
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पंध./उ /६८८,६१५ दृड्मोहेऽस्त गते पुंस शुद्धस्यानुभवो भवेत् । न भवेनिकर कविचारित्रावरणोदय ॥ ६८८॥ प्रमत्तानां विकल्पत्वान्न स्यामा शुद्धतना अस्तोति वासनोन्मेषः केचित्सन सहि १९६०
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आरमा दर्शनमोहकर्मका अभाव होनेपर शुद्धात्माका अनुभव होता है। उसमे किसी भी चारित्रावरणकर्मका उदय बाधक नहीं होता ॥ ६८८॥ *प्रमत्तगुणस्थान तक विकल्पका सद्भाव होनेसे वहाँ शुद्ध चेतना सम्भव नहीं' ऐसा जो किन्होंके वासनाका उदय है, सो ठीक नहीं है ॥१५॥
५. निश्चय धर्मध्यान मुनिको होता है गृहस्थको नहीं
ज्ञा ४/१७ खपुष्पमथवा शृङ्गं खरस्यापि प्रतीयते । न पुनर्देशकालेऽपि ध्यान सिद्धिगृ हाथमे ॥|१७|| आकाशपुष्प अथवा खरविषाणका होना कदाचित् सम्भव है, परन्तु किसी भी देशकालमें गृहस्थाश्रममें ध्यानकी सिद्धि होनी सम्भव नही ॥१७॥
त अनु/२७ मुख्योपचारभेदेन धर्मध्यानमिह द्विधा जमतेषु तम्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम् ॥४७॥ - धर्मध्यान मुख्य और उपचारके भेद से दो प्रकारका है । अत्रमत्त गुणस्थानो में मुख्य तथा अन्य प्रमत्तगुणस्थानों में औपचारिक धर्मध्यान होता है।
ससा / ता वृ / १६ ननु वीतरागस्वसवेदनज्ञानविचारकाले वीतरागविशेषण किमिति क्रियते प्रचुरेण भवद्भि कि सरागमपि स्वसवेदनज्ञानंमस्तीति अनुभवानन्दरूपं स्वसवेदनानं सर्वजन सरागमप्यस्ति शुरू स्वेदज्ञानं वीतरागमिति । इद व्याख्यानं स्वसंवेदनव्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यमिति भावार्थ । प्रश्न- वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानका विश्चार करते हुए आप सर्वत्र 'बीतराग' विशेषण क्सिलिए लगाते है । क्या सरागको भी स्वमवेदनज्ञान हता है ? उत्तर- विषय सुखानुभव के आनन्द रूपसवेदनज्ञान सर्वजन प्रसिद्ध है । वह सरागको भी होता है । परन्तु शुद्धात्म सुखानुभूति रूप स्वस्बेदनज्ञान वीतरागको ही होता है । स्वसवेदनज्ञान के प्रकरण में सर्वत्र यह व्याख्यान जानना चाहिए। साता २०४/३४७ विषयनिमितो पन्नेमा रौद्रयानन परिणताना गृहस्थानामात्माश्रितनिश्चयधर्मस्याको नास्तिविषय कषायके निमित्तसे उत्पन्न आर्त रौद्र ध्यानो में परिणत गृहस्थजनको आरमाथित धर्मका अवकाश नहीं है।
द्र स / टी / ३४/६६ असयतसम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्त संयतेषु पारम्पर्येण वृद्धोयोगसाधक तारतम्येन शुभपयोगो वर्तते तदनन्तरममसादिक्षीणकषायपर्यन्तं जघन्यमध्यमेश नयरूप शुद्धोपयोगो वर्तते । असयत सम्यग्दृष्टिसेप्रमत्तसंयत तक के तीन गुणस्थानों में परम्परा रूपपयोगका साधक तथा ऊपरऊपर अधिक अधिक विशुद्ध भोपयोगकर्ता है और उसके अनन्तर अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यन्तके गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदको लिये विवक्षित एकदेश नमरूप शुद्धता है। मो पाटो /२/२०६/६ मुनीनामेव परमात्मध्यानं घटते लोहगोलसमानगृहिणी परमात्मध्यानं न संगच्छते । मुनियों के ही परमात्मध्यान घटित होता है। तप्तलोहके गोलेके समान गृहस्थों को परमात्मध्यान प्राप्त नहीं होता (देवन सूरिकृत भाद्र ३०१-३१०, ६०५) भा पा./टी./८१/२३२/२४ होभः परीषोपसर्गनिपाते चित्तस्य चहन ताभ्यां विहीनो रहित मोहक्षोभविहीन । एवं गुणविशिष्ट आत्मनः शुद्धबुद्ध स्वभावस्य चिचमत्कारानन्दरूप परिणामो धर्म इत्युच्यते स परिणामो गृहस्थानां न भवति पञ्चसुनासहितत्वाद। = परिषह व उपसर्गके आनेपर चित्तका चलना क्षोभ है। उससे रहित मोह-क्षोभ विहीन है। ऐसे गुणोंसे विशिष्ट शुद्धबुद्ध एकस्वभावी आत्मा का चिचमत्कार लक्षण चिदानन्द परिणाम धर्म कहलाता है। पंचसून दोष सहित होनेके कारण वह परिणाम गृहस्थीको नहीं होता । ६. गृहस्थको निश्चयध्यान कहना अज्ञान है। मो.पा/टी./२/३०५ ये गृहस्था अपि सन्ती मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रवते ते जिनधर्मविराधका मिध्यादृष्टयो ज्ञातव्याः । = जो गृहस्थ होते हुए भी मना आत्मभावनाको प्राप्त करके 'हम
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