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अनुभत
अनुभव
ज्ञानरूपी चेतना शरीर रूपसे प्रतिभासित न होनेपर भी स्वयं ही दिखाई पड़ती है। पं. का /ता वृ./१२७/१६० यद्यप्यनुमानेन लक्षणेन परोक्षज्ञानेन व्यवहारनयेन धूमादग्निवदशुद्धात्मा ज्ञायते तथापि स्वसवेदनज्ञानसमुत्पन्न सुखामृतजलेन. भरितावस्थानां परमयोगिनां यथा शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति तथेतराणा न भवति । - यद्यपि अनुमान लक्षण परोक्षज्ञानके द्वारा व्यवहारनयसे धुमसे अग्निकी भॉति अशुद्धारमा जानी जाती है, परन्तु स्वसंवेदन ज्ञानसे उत्पन्न सुखामृत जलसे परिपूर्ण परमयोगियोको जैसा शुद्धारमा प्रत्यक्ष होता है, वैसा अन्यको नहीं होता। (प्र. सा./ता. वृ)।
२. स्वसंवेदनमें केवलज्ञानवत् आत्मप्रत्यक्ष होता है स. सा /ता वृ/१६० प्रक्षेपक गाथा-को विदिदच्छो साहू संपडिकाले भणिज्जरूवमिणं । पच्चवरखमेव दिट्ठ परोक्रवणाणे पटतं । वर्तमानमें ही परोक्ष ज्ञानमे प्रवर्तमान स्वरूप भी साधुको प्रत्यक्ष होता है। क पा/१/१/६३१/४४ केवलणाणस्स ससंवेयणपच्छवखेण णिव्बाहेणुवलं
भादो। -स्वसवेदन प्रत्यक्षके द्वारा केवलज्ञानके अशरूप ज्ञानकी निर्वाधरूपसे उपलब्धि होती है। स, सा./आ /१४३ यथा खलु भगवान्केवली विश्वसाक्षितया केवल स्वरूपमेव जानाति, न तु नयपक्ष परिगृह्णाति, तथा किल य . श्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्भगमनेऽपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौरसुक्यतया स्वरूपमेव केवलं जानाति, न तु स्वयमेव विज्ञानघनभूतस्वात.. नयपक्ष परिगृह्णाति, स खलु निखिल विकल्पेभ्य परतर' परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्र समयसार । -जैसे केवली भगवान् विश्वके साक्षीपनेके कारण, स्वरूपको ही मात्र जानते है, परन्तु किसी भी नयप को ग्रहण नहीं करते: इसी प्रकार श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उत्पन्न होनेपर भी परका ग्रहण करनेके प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होनेसे स्वरूपको ही केवल जानते है परन्तु स्वयं ही विज्ञानधन होनेसे नय पक्षको ग्रहण नहीं करता, वह वास्तवमे समस्त विकल्पो सेपर परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योति, आत्म
ख्याति रूप अनुभूतिमात्र समयसार है । (और भी दे, नय 1/३/५-६)। स. सा./आ [१४/१२ भूत भान्तमभूतमेव रभसान्निभिद्य बन्ध सुधार्यद्यन्त किल कोऽप्यहो क्लयति व्याहत्य मोहं हठात् । आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते धब, नित्यं कर्मकलकपडूकविकलो देव स्वयं शाश्वतः ॥१२॥ = यदि कोई सुबुद्धि जीव भूत, वर्तमान व भविष्यत कमौके बन्धको अपने आत्मासे तत्काल भिन्न करके तथा उस कर्मोदयके बलसे होने वाले मिथ्यात्वको अपने मलसे रोककर अन्तरंगमें अभ्यास करे, तो यह आत्मा अपने अनुभव से ही जानने योग्य जिमको प्रगट महिमा है, ऐसा व्यक्त, निश्चल, शाश्वत, नित्य कर्मकल कसे रहित स्वय स्तुति करने योग्य देव विराजमान है। (स सा/आ./२०३/क २४०)। ज्ञा./३२/४४ सुसवृत्तेन्द्रियग्रामे प्रसन्ने चान्तरात्मनि । क्षणं स्फुरति यत्तत्व तद्रूपं परमेष्ठिन ॥४४॥ = इन्द्रियों का सवर करके अन्तर गमें अन्तरात्माके प्रसन्न होनेपर जो उस समय तत्व स्फुरण होता है, वही परमेष्ठीका रूप है । (स श./मू./३०)। स.सा/ता ७ /११० इदमात्मस्वरूपं प्रत्यक्षमेव मया दृष्टं चतुर्थ काले केवलज्ञानिकद । - यह आत्म-स्वरूप मेरे द्वारा चतुर्थ काल में केवल
शानियोंकी भाँति प्रत्यक्ष देखा गया । प्र सा./ता वृ./३३ यथा कोऽपि देवदत्त आदित्योदयेन दिवसे पश्यति
रात्रौ किमपि प्रदोपेनेति। तथादित्योदयस्थानीयेन केवल ज्ञानेन दिवसस्थानीयमाक्षपर्याये भगवानात्मानं पश्यति। संसारी विवेकिजन पुनतिशास्थानीयसंसारपर्याये प्रदीपस्थानीयेन रागादिविकलपरहिवपरमसमाधिना निजात्मान पश्यतीति । - जैसे कोई देवदत्त सूर्योदयके द्वारा दिनमें देखता है और दीपकके द्वारा रात्रिको कुछ
देखता है। उसी प्रकार मोक्ष पर्यायमें भगवान आत्माको मेवलज्ञानके द्वारा देखते है। संसारी विवेकी जन संसारी पर्यायमें रागादि विकल्प रहित समाधिके द्वारा निजात्माको देखते है। नि.सा./ता वृ/१४६/क,२५३ सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशखास्य योगिनः । न कामपि भिदा क्वापि ता विद्मो हा जडा' बयम् ॥२५३॥ -- सर्वज्ञ वीतरागमें और इस स्वबश योगीमें कहीं कुछ भी भेद नहीं है; तथापि अरे । हम जड है कि उनमें भेद मानते हैं ।२५३॥ नि सा./ता वृ/१७८/क २६७ भावा पञ्च भवन्ति येषु सततं भाव पर' पञ्चम । स्थायी संसृतिनाशकारणमय सम्यग्दृशा गोचर ॥२६७१ -भाव पाँच हैं, जिनमें यह परम पंचम भाव (पारिणामिक भाव) निरन्तर स्थायी है । स सारके नाशका कारण है और सम्यग्दृष्टियोंके गोचर है। पंध /उ (२१०,४८६ नातिव्याप्तिरभिज्ञाने ज्ञाने वा सर्व वेदिन । तयो.
स वेदनाभावात् केवल ज्ञानमात्रत ॥२१०॥ अस्ति चात्मपरिच्छेदिज्ञानं सम्यग्दृगात्मन । स्वस वेदनप्रत्यक्ष शुद्ध सिद्धास्पदोपमम् ॥४८॥ -स्वानुभूति रूप मति-श्रुतज्ञानमें अथवा सर्वज्ञके ज्ञानमें अशुद्धोपलब्धिकी व्याप्ति नहीं है, क्योकि उन दोनों ज्ञानों में सुख दुखका संवेदन नहीं होता है। वे मात्र ज्ञान रूप होते है ॥२१०॥ सम्यग्दृष्टि जीवका अपनी आत्माको जाननेवाला स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञान शुद्ध और मिद्धोके समान होता है ॥४८॥ स.सा /१४३ ५ जयचन्द "जब नयपक्षको छोड वस्तुस्वरूपको केवल जानता ही हो, तब उस काल मे श्रुतज्ञानी भी केवलीकी तरह बीतरागके समान ही होता है। ३. सम्यग्दृष्टिकोस्वात्मदर्शनके विषयमें किसीसे पूछनेकी
आवश्यकता नहीं स.सा /आ/२०६ आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्य भविष्यति । तत्त तत्क्षण एवं त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि मा अन्यान् प्राक्षी । - आत्मसे तृप्त ऐसे तुझको वचन अगोचर सुख प्राप्त होगा और उस सुखको उसी क्षण तू ही स्वय देखेगा, दूसरोसे मत पूछ ।
४. मति-श्रुतज्ञानको प्रत्यक्षता व परोक्षताका समन्वय स सा /ता. /१६० यद्यपि केवलज्ञानापेक्षया रागादिविक्स्परहितस्वसवेदनरूप भाव श्रुतज्ञानं शुद्धनिश्चयनयेन परोक्ष भण्यते. तथापि इन्द्रियमनोजनितस विकल्पज्ञानापेक्षया प्रत्यक्षम् । तेन कारणेन आत्मा स्वसवेदन ज्ञानापेक्षया प्रत्यक्षोऽपि भवति, केवल ज्ञानापेक्षया पुन' परोक्षोऽपि भवति । सर्वथा परोक्ष एवेति वक्तुं नायाति। कित चतुर्थ कालेऽपि केवलिन किमात्मान हस्ते गृहीत्वा दर्शयन्ति । तेऽपि दिव्यध्वनिना भणित्वा गच्छन्ति । तथापि श्रवणकाले श्रोतृणां परोक्ष एव पश्चात्परमसमाधिकाले प्रत्यक्षो भवति। तथा इदानी कालेऽपीति भावार्थ:। -यद्यपि केवलज्ञानकी अपेक्षा रागादि विकल्परहित स्वसवेदनरूप भाव श्रुतज्ञान शुद्ध निश्चयसे परोक्ष कहा जाता है. तथापि इन्द्रिय मनोजनित सविकल्प ज्ञानकी अपेक्षा प्रत्यक्ष है। इस प्रकार आत्मा स्वसंवेदनज्ञानकी अपेक्षा प्रत्यक्ष होता हुआ भी केवलज्ञानकी अपेक्षा परोक्ष भी है। 'सर्वथा परोक्ष ही है' ऐसा कहना नहीं बनता। चतुर्थकालमें क्या केवली भगवान् आत्माको हाथमें लेकर दिखाते हैं। वे भी तो दिव्यध्वनिके द्वारा कहकर चले ही जाते है। फिर भी सुननेके समय जो श्रोताके लिए परोक्ष है, वही पीछे परम समाधिकाल में प्रत्यक्ष होता है। इसी प्रकार वर्तमान काल में भी समझना। पं.का /ता.वृ/08/१५६ स्वसवेदनज्ञानरूपेण यदात्मग्राहकं भावश्रुत तत्प्रत्यक्षं यत्पुनादशाङ्गचतुर्दशपूर्वरूपपरमागमसज्ञ तच्च मूर्ताभोभयपरिच्छित्तिविषये व्याप्तिज्ञानरूपेण परोक्षमपि केवलज्ञानसदृशमित्यभिप्राय'।=स्वसवेदन ज्ञानरूपसे आत्मग्राहक भाव तज्ञान है वह प्रत्यक्ष है और जो बारह अग चौदह पूर्व रूप परमागम नामवाला ज्ञान है, वह मूर्त, अमूर्त व उभय रूप अर्थोके जाननेके विषयमें अनुमान ज्ञानके रूपमे परोक्ष होता हुआ भी केवलज्ञानसहश है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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