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अनुभव
अनुभव
४. धर्मध्यान अल्पभूमिकाओंमे भी यथायोग्य होता है। * पंचमकालमे शुद्धानुभव संभव है।-दे धर्मध्यान ५। ५. निश्चय धर्मध्यान मनिको होता है, गहस्थको नही। ६. गृहस्थको निश्चय ध्यान कहना अज्ञान है। ७. साधु व गृहस्थके निश्चय ध्यानमे अन्तर * शुभोपयोग मुनिको गौण होता है और गृहस्थको
मुख्य ।-दे. धर्म है। * १-३ गुणस्थान तक अशुभ और ४-६ गुणस्थान
तक शुभ उपयोग प्रधान है। -दे उपयोग II/४ | ८. अल्पभूमिकामे आत्मानुभवके सद्भाव असद्भावका
समन्वय । * शुद्धात्मानुभूतिके अनेको नाम ।-दे. मोक्षमार्ग २/५ । शुद्धात्माके अनुभव विषयक शंका समाधान १. अशुद्ध ज्ञानसे शुद्धात्माका अनुभव कैसे करे । २. अशुद्धताके सद्भावमे भी उसकी उपेक्षा कैसे करें। ३. देहसहित भी उसका देहरहित अनुभव कैसे करें। ४ परोक्ष आत्माका प्रत्यक्ष कैसे करे । * मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि के अनुभवमे अन्तर ।
-दे, मिथ्यादृष्टि ४ ।
१.भेद व लक्षण
१. अनुभवका अर्थ अनुभाग त. सू /८/२१ विपाकाऽनुभव । विपाक अर्थात विविध प्रकारके फल
देने की शक्तिका (कर्मोमें) पड़ना ही अनुभव है। देग्वो विपाक-द्रव्य, क्षेत्र, काल आदिके निमित्तसे उत्पन्न पाक ही अनुभव है। २. अनुभवका अर्थ उपभोग रा वा./३/२७३,१६१ अनुभव उपभोगपरिभोगसम्पत । -अनुभव उप- भोग परिभोग रूप होता है । (स सि /३/२७/२२२) ।
३. अनुभवका अर्थ प्रत्यक्षवेदन इ.स./टो /१२/१८४ स्वसवेदनगम्य आत्म सुखका वेदन ही स्वानुभव है
-दे आगे स्वस वेदन। न्या. दो/३/८/५६ इदन्तोल्ले विज्ञानमनुभव । 'यह है ऐसे उल्लेखसे चिह्नित ज्ञान अनुभव है।
४ अनुभूतिका अर्थ प्रत्यक्षवेदन स सा /आ/१४/क १३ आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किले ति बद्ध्वा । आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकम्पमेकोऽस्ति नित्यमयबाघन समन्तात् ॥१३॥ = शुद्वनयस्वरूप आत्माको अनुभूति हो ज्ञानकी अनुभूति है । अत आश्मामें आत्माको निश्चल स्थापित करके सदा सर्व ओर एक ज्ञानधन आत्मा है इस
प्रकार देखो। प का /ता प्र/३६/७६चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात् । चेतना,
अनुभव, उपलब्धि और वेदना ये एकार्थक है। पंध पु/६५१-६५२ स्वारमाध्यानाविष्टस्तथेह कश्चिन्नरोऽपिक्लि यावत् ।
अयमहमारमा स्वयमिति म्यामनुभविताहमस्य नयपक्ष ॥५१॥ चिरमचिर वा दैवात् स एव यदि निर्विकल्पकश्च स्यात् । स्वयमात्मेत्यन
भवनात् स्यादियमात्मानुभूतिरिह तावत ५२॥ -स्वारमध्यानसे युक्त कोई मनुष्य भी जहाँ तक "मै ही यह आत्मा हूँ और मैं स्वयं ही उसका अनुभव करनेवाला हूँ" इस प्रकार के विकल्पसे युक्त रहता है, तब तक वह नयपक्ष वाला कहा जाता है ॥६५१॥ किन्तु यदि वही दैववशसे अधिक या थोडे कालमें निर्विकल्प हो जाता है, तो 'मै स्वय आत्मा हूँ' इस प्रकारका अनुभव करनेसे यहाँ पर उसी समय आत्मानभूति कही जाती है। ५. स्वसंवेदनज्ञानका अर्थ अन्तःसुखका वेदन त.अनु १६१ वेद्यत्वं वेदकत्वं च यत् स्वस्य स्वेन योगिनः । तत्स्वसंवेदन प्राहुरात्मनोऽनु भव दृशम् ॥१६१॥ -- 'स्वस वेदन' आत्माके उस साक्षाद दर्शनरूप अनुभवका नाम है जिसमें योगी आत्मा स्वयं ही शेय तथा ज्ञायक भावको प्राप्त होता है। प.प्र/टी/१२ अन्तरात्मलक्षणवीतरागनिर्विकल्पस्वस वेदनज्ञानेन...ये
परमात्मस्वभावम् ज्ञात' । अन्तरात्म लक्षण बीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानके द्वारा जो यह परमात्मस्वभाव जाना गया है। द्र.सं टी/४१/१७६ रागादिविकल्पोपाधिरहितपरमस्वास्थ्यस वित्तिसंजातसदानन्दकलक्षणसुखामृतरसास्वाद- । -रागादि विकल्पोंकी उपाधिसे रहित परम स्वास्थ्य लक्षण संवित्ति या स्वसंवेदनसे उत्पन्न सदानन्द रूप एक लक्षण अमृतरसका प्रास्वाद- (द्र. स.टी./४०/ १६३:४२/१८४)। द्र, स /टी/११/१७७ शुद्धोपयोगलक्षणस्वस वेदनज्ञानेन। - शुखोपयोग
लक्षण स्वस वेदन ज्ञानके द्वारा । द्र स /टी /२/२१ तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वस वेदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्य पृथपरिच्छेदन सम्यग्ज्ञानम् । -उसी शुद्वात्माके उपाधिरहित स्वसवेदरूप भेदज्ञान-द्वारा मिथ्यात्व रागादि परभावोसे भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है । ६. संवित्तिका अर्थ सुखसंवेदन न च //३५० लक्षणदो णियलक्खे अग्रहवयाणस्स ज हवे सोपवं । सासं वित्तीभणिया सयल वियप्पाण णिहहणा ॥३०॥ -निजात्माके लक्ष्यसे सकल विकल्पोको दग्ध करने पर जो सौख्य होता है उसे संवित्ति कहते है। २. अनुभव निर्देश
१. स्वसंवेदन मानस अचक्षुदर्शनका विषय है प प्र/टी./२/३४/१५५ अत्र चतुष्टयमध्ये मानसमचक्षुर्दर्शनमारमग्राहक
भवति। - चारों दर्शनों में-से, मानस अचक्षुदर्शन आरमग्राहक है। पंध पू/७११-७१२ तदभिज्ञानं हि यथा शुद्धस्वात्मानुभूतिसमयेऽस्मिन् । स्पर्शनरसनमाणं चक्षु' श्रोतं च नोपयोगि मतम् ॥७११॥ केवलमुपयोगि मनस्तत्र च भवतीह तन्मनी द्वेधा। द्रव्यमनो भावमनो नोइंद्रियनाम किल स्वार्थात् ॥७१२ - शुद्ध स्वात्मानुभूतिके समयमें स्पर्शन, रसना, प्राण, चनु और श्रोत्र इन्द्रियाँ उपयोगी नहीं मानी जाती ॥७११॥ तहाँ केवल एक मन ही उपयोगी है और बह मन दो प्रकारका है-द्रव्यमन व भावमन ।
२. आत्माका अनुभव स्वसंवेदन द्वारा ही संभव है त अनु/१६६-१६७ मोहीन्द्रियाधिया दृश्यं रूपादिरहितरवतः । वितर्कास्तत्र पक्ष्यन्ति ते ह्यविस्पष्टतर्कणा ॥१६६॥ उभयस्मिन्निरुद्ध तु स्याद्विस्पष्ट मतीन्द्रियम् । स्वमवेद्य' हि तद्रूप स्वसं वित्यैव दृश्यताम ॥१६७॥ -रूपादिसे रहित होनेके कारण वह आत्मरूप इन्द्रियज्ञानसे दिखाई देनेवाला नहीं है। तर्क करनेवाले उसे देख नहीं पाते। वे अपनी तर्कणामें भी विशेष रूपसे स्पष्ट नहीं हो पाते॥१६॥ इन्द्रिय और मन दोनों के निरुद्ध होनेपर अतीन्द्रिय ज्ञान विशेष रूपसे स्पष्ट होता है। अपना वह जो स्वसंवेदनके गोचर है, उसे स्वसंवेदनके द्वारा ही देखना चाहिए । ॥१६॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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