________________
अनुप्रेक्षा
अनुप्रेक्षा
ज्ञा/१३/२/६ विध्याति कषायाग्निगिलति रागो बिलीयते ध्वान्तम् ।
उन्मिपति बोधदीपो हृदि पुंसा भावनाभ्यासात । इन द्वादश भावनाओके निरन्तर अभ्यास करनेसे पुरुषोके हृदयमें कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है तथा पर द्रव्योके प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूपी अन्धकारका विलय होकर ज्ञानरूप दीपका प्रकाश होता है। प./वि 14/४२ द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभि । तद्भावना भवत्येव कर्मण. क्षयकारणम् ॥४२॥ - महात्मा पुरुषोको निरन्तर बारहो अनुप्रेक्षाओका चिन्तवन करना चाहिए। कारण यह है कि उनकी भावना (चिन्तन) कमके क्षयका कारण होती है।
२. अनुप्रेक्षा सामान्यका प्रयोजन भ आ/मू /१८७४/१६७६ इय आनंबणमणुपेहाओ धमस्स होति ज्झाणस्स । ज्झायताणविणस्सदि ज्झाणे आल बणेहि मुणी ॥१८७४।-धर्मध्यानमें जो प्रवृत्ति करता है उसको ये द्वादशानुप्रेक्षा आधार रूप है, अनुप्रेक्षाके बलपर माता धर्मध्यानमें स्थिर रहता है, जो जिस वस्तु स्वरूपमें एकाग्रचित्त होता है वह विस्मरण होनेपर उससे चिगता है, परन्तु बार-बार उसको एकाग्रताके लिए आलंबन मिल जावेगा तो वह नहीं चिगेगा। स सि /8/६/४१३ कस्मारक्षमादीनयममलम्बते नान्यथा प्रवर्तत इत्युच्यते
यस्मात्तप्ताय पिण्डवक्षमादिपरिणतेनात्महितैषिणा कर्तव्या ।। स /सि /8/७/४१६ मध्ये अनुप्रेक्षावधनमुभयार्थम् । अनुप्रेक्षा हि भाव
यन्नुत्तमक्षमादीश्च प्रतिपालयति परीषहाश्च जेतुमुत्सहते। तपाये हुए लोहेके गोलेके समान क्षमादि रूपसे परिणत हुए आत्महितको इच्छा करने वालोको ये निम्न द्वादश अनुप्रेक्षा भानी चाहिए। बोच में अनुप्रेक्षाओ का कथन दोनो अर्थ के लिए है। क्योकि अनुप्रेक्षाओका चिन्तवन करता हुआ यह जीव उत्तम क्षमादिका ठीक तरहसे पालन करता है और परिषहोको जीतनेके लिए उत्साहित होता है।
३. अनित्यानुप्रेक्षाका प्रयोजन स.सि./8/७/४१४ एव ह्यम्य भव्यस्य चिन्तयतस्तेष्वभिष्वनाभावाद् भुक्तोज्झितगन्धमाल्यादिष्विव वियोगकालेऽपि विनिपाते नोपपद्यते । - इस प्रकार विचार करनेवाले इस भव्यके उन शरीरादिमे आसक्तिका अभाव होनेसे भोग कर छोडे हुए गन्ध और माला आदके समान वियोग काल में भी सन्ताप नही होता है। (रा वा /६/७ ६/६००/१२) । का अ./मू./२२ चइऊण महामोह विसए मुणिऊण भगुरे सव्वे । णिबिसय कुणह मणं जेण सुह उत्तम लहइ ॥२२॥ - हे भव्य जीवो। समस्त विषयोंको क्षणभ गुर जानकर महामोहको त्यागो और मनका विषयो के सुखसे रहित करो, जिससे उत्तम सुखकी प्राप्ति हो । (चा सा./१७८/२)।
४. अन्यत्वानुप्रेक्षा का प्रयोजन स सि./8/9/४१६ इत्येव ह्यस्य मन समादधानस्य शरोरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते। ततस्तत्त्वज्ञानभावनापूर्व कवैराग्यप्रकर्ष सति आत्यन्तिकस्य मोक्षमुविस्थावाप्तिर्भवति । - इस प्रकार मन को समाधान युक्त करनेवाले इसके शरीरादिमें स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञानको भावनापूर्वक वैराग्य की वृद्धि होनेपर आस्यन्तिक मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है। (रा वा /8/७.५/६०२/३) (चा सा /१६०/४) । का अ/मू/८२ जो जाणिऊण देह जोर-सरूवाद दु, तच्च दोभिण्ण ।
अप्पाण पि य सेवदि कज्जरं तस्स अण्णत्तं । जो आत्मस्वरूपको यथार्थ में शर रमे भिन्न जानकर अपनी आत्माका ही ध्यान करता है उसके अन्यत्वानुप्रेक्षा कार्यकारी है। (चा सा १८/२) ।
५. अशरणानुप्रेक्षा का प्रयोजन स सि /8/9/२१४एव ह्यस्याध्यावसतो नित्यमशरणोऽस्मीति भृशमुद्विग्नस्य
सामारिकेषु भावेषु ममत्व विगमो भवति । भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीत एव' मार्ग प्रयत्नो भवति । इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीवके
'मै सदा अशरण है' इस तरह अतिशय उद्विग्न होनेके कारण संसार के कारण भूत पदार्थोमे ममता नही रहती और वह भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग ही प्रयत्नशील होता है। (रा वा/8/७१/६००/२५ का अहम् (३१ अप्पाण पि य सरणं खमादि-भावेहि परिणदो होदि । तिव्व कसायाविट्ठो अप्पाण हद अप्पेण ॥३१॥ आत्माको उत्तम समादि भावोसे युक्त करना भी शरण है। जिसकी तीव्र क्षाय होती है वह स्वयं अपना घात करता है । (चा सा /१८०/२) ।
६ अशुचि अनुप्रेक्षाका प्रयोजन स सि /8/७/४१६ एव ह्यस्य सस्मरत शरीरनिर्वेदो भवति । निविण्णाश्च जन्मोदधितरणाय चित्त समाधत्ते । -इस प्रकार चिन्तवन करनेसे शरोरसे निर्वेद होता है और निविण्ण होकर जन्मोदधिको तरनेके लिए चित्तको लगाता है । (रा वा./8/७.६/६०२/१७) (चा सा /१६२/६)। का अ/मू /८७ जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुराय। अप्प सरूव-सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स । -जो दूसरो के शरीरसे विरक्त है और अपने शरीरसे अनुराग नहीं करता है तथा आत्मध्यानमें लीन रहता है उसके अशुचि भावना सफल है।
७ आत्रवानप्रेक्षाका प्रयोजन स.सि./8/७/४१७ एवं ह्यस्य चिन्तयत क्षमादिषु श्रेयस्त्व बुद्धिर्न प्रच्यवते। सर्व एते आस्रवदोषा कूर्मवत्स वृतात्मनो न भवन्ति । इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीवके क्षमादिकमें कल्याण रूप बुद्धिका त्याग नही होता तथा क्छुएके समान जिसने अपनो आत्माको सवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते है। (रा.वा./8/05/ ६०२/३०) चा.सा /१६५/५)। का.अ./18 एदे मोहय भावा जो परिवजजेड उधसमे लीणो हेय ति मण्णमाणो आसब अणुवेहण तस्स ॥६४।। - जो मुनि साम्यभावमें लीन होता हुआ, मोहकर्म के उदयसे होनेवाले इन पूर्वोक्त भावो का त्यागनेके योग्य जानकर, उन्हे छोड़ देता है, उसीके आखवानुप्रेक्षा है।
८ एकत्वानुप्रेक्षाका प्रयोजन स सि /8/9/४१५ एव ह्यस्य भावयत स्वजनेषु प्रीत्यनुबन्धो न भवति । परजनेषु च द्वषानुबन्धो नोपजायते । तता नि सङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते।= इस प्रकार चिन्तवन करते हुए इस जीवके स्वजनों में प्रीतिका अनुबन्ध नहीं होता और परजनो में द्वषका अनुबन्ध नहीं होता इसलिए नि सङ्गताका प्राप्त होकर मोक्षके लिए ही प्रयत्न करता है । (रा बा १/७,४४६०१/२७) (चा सा /१८८/३)। का अ/म /७६ सव्वायरेण जाणह एक्क जीव सरीरदा भिन्न । जमिहद मुणिदे जीवे होदि असेसंखणे हेयं ७६ पूरे प्रयत्नसे शरीरसे भिन्न एक जीवको जानो। उस जोबके जान लेनेपर क्षण भरमें ही शरीर, मित्र, स्त्री, धन, धान्य वगैरह सभी वस्तुएँ हेय हो जाती है।
९ धर्मानुप्रेक्षाका प्रयोजन स मि JE/७/४१६ एव ह्यस्य चिन्तयतो धर्मानुरागात्सदा प्रतियत्नो भवति । - इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीवके धर्मानुरागवश उसकी प्राप्तिके लिए सदा यत्न होता है। (रा वा /६/७,११/६०७/४) (चा.सा/२०१३)। का अ//४३७ इय पच्चवरव पेच्छह धम्माधम्माण विविहमाहप्प । धम्म
आयरह सया पाव दूरे परिहरह ॥४३७॥-हे प्राणियो, इस धर्म और अधर्मका अनेक प्रकार माहात्म्य देखकर सदा धर्मका आचरण करो और पापसे दूर ह रहा। १०. निर्जरानुप्रेक्षाका प्रयोजन स सि /8/9/४१७ एव ह्यस्यानुस्मरत कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति ! = इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इसकी कर्म निर्जराके लिए प्रवृत्ति होती है। रा वा/8/७,७/६०३/३) (चा सा /१६७/२)। का अ/म्/११४ जो समसोवरख णिलीणो बार बार सरेइ अप्पाण। इदिय-वसाय विजई तास हवे णिज्जरा परमा ।११४।। जो मुनि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org