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नुपेक्षा
वाली चार गतियों में भ्रमण करता ससार है। शिवपदके परमामृत सुख भतिठा असंसार है। चतुति प्रमण न होनेसे और मोक्षकी प्राप्ति न होनेसे सयोगकेवलीको जीवन मुक्ति अवस्था ईषद संसार या नोसंसार है। अयोगकेवली इन तीनोसे विलक्षण है । अभव्य तथा भव्य सामान्यकी दृष्टिसे ससार अनादि-अनन्त है। भव्य विशेषकी अपेक्षा अनादि और उच्छेदवाला है। नोससार सादि और सान्त है । असमार साथि अनन्त है। प्रियान् है। मोससारका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट देशोन एक लाख क्रोड पूर्व है । सादि सान्त ससारका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल है । ऐसा वह संसार, द्रव्य, क्षेत्र काल, भव व भावके भेदसे पाँच प्रकारका है । श्रीमद्रराजचन्द्र - बहु पुण्य केरा पुञ्ज पी शुभ देह मानव नो मन्यो । तोये अरे भव चक्र तो आटो नही एके टलो । रे आत्म तारो । आत्म तारो ॥ शोध एने ओणखो। सर्वात्म मा समदृष्टि द्यो आ वचनने हृदय लखो। बहुत पुण्यके उदयसे यह मानवकी उत्तम देह मिली, परन्तु फिर भी भवचक्र में विचित्र हानि न कर सका । अरे । अब शीघ्र अपनी आत्माको पहिचानकर सर्व आत्माओको समदृष्टि से देख, इस बचनको हृदयमे रख । (विशेष दे - ससार ३ में पच परिवर्तन) २ अनुप्रेक्षा निर्देश
१. सर्व अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन सब अवसरों पर आवश्यक नही
अन ध /६/८२/६३४ इत्येतेषु द्विषेषु प्रवचनदृगनुप्रेक्षमाणोऽवादिष्वद्धा यत्किचिदन्त. करणकरण जिद्वेत्ति य स्व स्वयं स्वे । उच्चैरुच्चे यदाशाभविराम्भोधिपारा राजपूतकोटिप्रपति परेस्क्यू परमागम ही है नेत्र जिसके ऐसा जो मुमुक्षु अध वादि बारह अनुप्रेक्षाओ में से यथा रुचि एक अनेक अथवा सभीका तत्त्वत. हृदय में ध्यान करता है वह मन और इन्द्रिय दोनोपर बिजय प्राप्त करके आत्मा ही में स्वयं अनुभव करने लगता है । तथा जहाँ पर चक्रवर्ती तीर्थ करादि उन्नत पदोको प्राप्त करनेको अभि लाषा लगी हुई है ऐसे ससारके दु ख समुद्र से पार पहुँच कर कृतकृत्यताको प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार वह मुमुक्षु पवित्र यश और वचनोको धारण करके जोवन्मुक्त बनकर अन्तमें अपने सम्यग्दर्शनादि उत्कृष्ट गुणों द्वारा तीन लोक्के ऊपर प्रदीप्त होता है ।
२. एक व अन्यस्व अनुप्रेक्षामें अन्तर
द्र. स / ८ / ३५ / १०८ एकत्वानुप्रेक्षायामै कोऽहमित्यादिविधिरूपेण व्यास्थान अन्यत्वानुसाया तु देहादयो मत्सकाशादन्ये मदीया न भवन्तीति निषेधरूपेक्षा विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तात्पर्यं तदेव । - एकत्व अनुप्रेक्षा में तो 'मै अकेला हूँ' इत्यादि प्रकारसे विधिरूप व्याख्यान है और अन्यत्व अनुप्रेमामें 'देह आदि पदार्थ मुझसे भिन्न है, ये मेरे नहीं है' इत्यादि निषेध रूप से वर्णन है। इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनो अनुप्रेक्षाओंमें विधि - निषेध रूपका हो अन्तर है। तात्पर्य दोनोका एक ही है। २. आखव, संवर, निर्जरा इन भावनाओकी सार्थकता राया ६०००/६०२ समरनिर्जराणमादिति चेत् नतद्गुणदोषान्वेषणपरत्वात् ॥७॥ - प्रश्न- आस्रव संवर और निर्जराका कथन पहले प्रकरणो मे हो चुका है अत: यहाँ अनुप्रेक्षा प्रकरण में इनका ग्रहण करना निरर्थक है। उत्तर-नही, उनके दोष विचारनेके लिए यहाँ उनका ग्रहण किया है।
४. दग्य स्थिरीकरणार्थं कुछ अन्य भावनाएं
तसू / ७/१२ जगत्कायस्वभावौ वा सवेगवैराग्यार्थम् ||१२|| - सवेग और वैराग्य के लिए जगत्के स्वभाव और शरीरके स्वभावकी भावता करनी चाहिए। (ज्ञा / २७ / ४) ।
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अनुप्रेक्षा
म.पु. / २१/६६ विषयेष्वनभिष्वङ्ग कायतश्वानुचिन्तनम् । जगत्स्वभावचिन्त्येति वैराग्यस्थैर्यभावना ॥१६॥ = विषयो में आसक्त न होना, शरीर के स्वरूपका बार-बार चिन्तवन करना और जगत के स्वभावका चिन्तवन करना ये वैराग्यको स्थिर रखनेवाली भावनाएँ है ।
३. निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार
१. अनुप्रेक्षाके साथ सम्यक्त्वका महत्त्व स.सि /६/०/४१६ ततस्तस्वज्ञानभावनापूर्व के नियन्ति कस्य मोक्षस्यासित इससे (अर्थात शरीर व आत्माके भिन्न रूप समाधान से ) तत्त्वज्ञानकी भावना पूर्वक आत्यन्तिक मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है।
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२ अनुप्रेक्षा वास्तव में शुभ भाव है।
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र. सा / ६४-६५ दव्वत्थ कायछपणतच्च पयत्थेसु सत्तणवसु । बधणमुबखे तक्कारणरूपे बारसणुवेवखे ॥ ४६ ॥ रयणत्तयस्स रूवे अज्जाकम्मो दयाहसद्धम्मे । चचैव माइगो जो बहस होइ सुभान पचास्ति काय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नवपदार्थ, बधमोक्षके कारण बारह भावना, रत्नत्रय, आर्जवभाव, क्षमाभाव और सामायिकादि चारित्रमय जिन भव्य जीवोके भाव है वे शुभ भाव है।
बा अ / ६३ सुहजोगेसु पवित्ती सवरण कुणदि असुहजोगस्स । सुहज गस्स गिरोहो सुबजोगेण सभवदि ॥ ६३॥ - मन, वचन कायकी शुभ प्रवृत्तियो से अशुभ योगका सवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोगसे शुभय गका संवर होता है। इस टी १४१ एम मतसमितिमंद्रादशानुक्षारोपयचारिणां भावसवरकारणभूताना यद्व्याख्यान वृत्त, तत्र निश्वयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रय रूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापासत्र संवरणानि ज्ञातव्यानि । यानि तु व्यवहाररत्नत्रय साध्यस्य शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयस्य प्रतिपादकानि तानि पुण्यपापद्वयसंवरकारणानि भवन्तीति ज्ञातव्यम् । = इस प्रकार भाग के कारणभूत मत समिति गुछि धर्म द्वादशानुप्रेक्षा परीषहजय और चारित्र, इन सबका जो व्याख्यान किया, उसमें निश्चय रत्नत्रयका साधक व्यवहार रत्नत्रय रूप शुभोपयोगके वर्णन करनेवाले जो वाक्य है वे पापासव के सबरमें कारण जानने चाहिए। जो व्यवहार रत्नत्रय के साध्य शुद्धोपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय के प्रतिपादक बाक्य है, वे पुण्य पाप इन दोनो आस्रवोके सवर के कारण होते है, ऐसा समझना चाहिए ।
३. अन्तरंग सापेक्ष अनुप्रेक्षा संवरका कारण है तसा /६/४३/३५१ एव भावयत साधोभवेद्धर्ममहोद्यम । ततो हि निष्प्र मादस्य महान् भवति सवर ॥ ४३ ॥ - इस प्रकार ( अन्तरग सापेक्ष) बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करने से साधुके धर्मका महान् उद्योत होता है। उससे वह निष्प्रमाद होता है, जिससे कि महान् सवर होता है।
४. अनुप्रेक्षाका कारण व प्रयोजन
१. अनुप्रेक्षाका माहात्म्य व फल
या अ./८६.६० मोगा पुरिसा अगाइकाले बार असुख परिभविऊण सम्म पणमामि पुणो पुणो तेसि ॥८६॥ कि पल बियेण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले । सेति य जे (भ) विया तज्जाणह तस्स माहप्पं ॥ ६०॥ जो पुरुष इन बारह भावनाओका चिन्तन करके अनादि काल से आज तक मोक्षको गये है उनको मै मन, वचन, काय पूर्वक बारम्बार नमस्कार करता हूँ |॥८६॥ इस विषय मे अधिक कहनेकी जरूरत नही है इतना ही बहुत है कि भूतकाल में जितने श्रेष्ठ सिद्ध हुए और जो आगे होगे वे सब इन्ही भावनाओका चिन्तन करके हो हुए है । इसे भावनाओका ही महत्त्व समझना चाहिए ।
पुरुष
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