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अनुभव
अनुभव
३. अन्य ज्ञेयोंसे शून्य होता हुआ भी सर्वथा शून्य नहीं है त. अनु/१६०,१७२ चिन्ताभावो न जैनाना तुच्छो मिध्यादृशामिव । एग्बोधसाम्यरूपस्य स्वस्य सवेदन हि स १६०॥ तदा च परमैकाप्रधादबहिरर्थषु सत्स्वपि। अन्यत्र किचनाभाति स्वमेवारमनि पश्यत' १७श-चिन्ताका अभाव जैनियोंके मतमें अन्य मिथ्याप्टियोंके समान तुच्छाभाव नहीं है क्योंकि वह वस्तुत' दर्शन, ज्ञान और समतारूप आत्माके सवेदन रूप है॥१६०॥ उस समाधिकालमें स्वाश्मामें देखनेवाले योगीकी परम एकाग्रताके कारण बाह्य पदार्थोके विद्यमान होते हुए भी आत्माके (सामान्य प्रतिभासके) अतिरिक्त और कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता ॥१७२॥ दे. ध्यान ४/६ (आलेख्याकारवत् अन्य ज्ञेय प्रतिभासित होते है)-इन दोनोंका समन्वय दे दर्शन २ ।
४. आत्मानुभव करनेकी विधि स. सा./आ/१४४ यत प्रथमत श्रुतज्ञानावष्टम्भेन ज्ञानस्वभावात्मान निश्चित्य ततः खम्बात्मख्यातये परख्यातिहेतृनखिला एवेन्द्रियानिन्द्रियबुद्धीरवधार्य आत्माभिमुखी कृतमतिज्ञानतत्त्वत , तथा नानाविधनयपक्षालम्बनेनाने कविकल्पैराफुयन्ती श्रुतज्ञानबुद्धिरप्यवधार्य श्रुतज्ञानतत्त्वमप्यात्माभिमुखीकुर्वन्नत्यन्तम विकल्पो भूत्वा झगित्येव स्वरसत एव व्यक्तीभवन्तमादिमध्यान्तविमुक्तमनाकुल मेक केवलमखिलस्यापि विश्वस्योप र तरन्तमिमारवण्डप्रतिभासमयमनन्तं विज्ञान धनं परमात्मानं समयसार विन्दन्नैवात्मा सम्यग्दृश्यते ज्ञायते च । -प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बनसे ज्ञानस्वभाव अ.त्माका निश्चय करके, और फिर आत्माको प्रसिद्धिके लिए. पर पदार्थ की प्रसिद्धि के कारणभूत इन्द्रियों और मनके द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियोको मर्यादामें लेकर जिसने मतिज्ञान तत्त्वको आत्मसम्मुख किया है, तथा जो नाना प्रकारके नयपक्षोके आलम्बनसे होनेवाले अनेक विकल्पोंके द्वारा आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञानकी बुद्धियोको भी मर्यादामें साकर श्रतज्ञान तत्त्वको भी आरमसम्मुख करता हुआ, अत्यन्त विकल्प रहित होकर, तत्काल निजरससे हो प्रकट होता हुआ, आदि, माय और अन्तसे रहित, अनाकुल, केवल, एक, सम्पूर्ण ही विश्व पर मानो तैरता हो ऐसे अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त, विज्ञानधन, परमात्मारूप समयसारका जब आत्मा अनुभव करता है, तब उसी समय आरमा सम्यक्तया दिखाई देता है. और ज्ञात होता है। से सा./आ./३८१/क२२३ रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृश', पूर्वागामिसमस्तकर्मबिकला भिन्नास्तदात्वोदयात्। दूरारूढचरित्रवैभवमलावञ्चिदचिर्मयों, विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवना ज्ञानस्य संचेतनाम् ॥२२॥ = जिनका तेज राजद्वेषरूपी विभावसे रहित है, जो सदा स्वभावको स्पर्श करनेवाले है, जो भूतकालके तथा भविष्यस्कालके समस्त कर्मोसे रहित है, और जा वर्तमानकालके कर्मोदयसे भिन्न हैं, वे ज्ञानी अतिप्रबल चारित्रके वैभवके बलसे ज्ञानकी सचेतनाका अनुभव करते है -जो ज्ञान चेतना चमकती हुई चैतन्य ज्योतिमय है और जिसने अपने रससे समस्त लोकको सींचा है। ३. मोक्षमार्गमे आत्मानुभवका स्थान
१ आत्माको जानने में अनुभव ही प्रधान है म. सा./५ त एयत्तविहत्त दाएह अप्पणो सविहवेण । जदि दाएज्ज पमाणं चुधिज्ज छल घेतव्व ॥५॥ - उस एकत्व विभक्त आत्माको में निजात्माके वैभवसे दिखाता हूँ। यदि मै दिखाऊँ तो प्रमाण करना और यदि कहीं चूक जाऊं तो छल ग्रहण न करना । (स. सा/ मू./३), (वि./१/११०), (पंध. उ/९६३) (पं.ध. पू/७१)। स.सा./आ। यदि दर्शय तदा स्वयमेव स्वानुभवप्रत्यक्षेण परीक्ष्य प्रमाणीकर्सम्यम् । -मै जो यह दिखाऊँ उसे स्वयमेव अपने अनुभव प्रत्यक्षसे परीक्षा करके प्रमाण करना।
प्र. सा./त.प्र/परिशिष्ट/प्रारम्भ-नन कोऽयमात्मा क्थे चाबाप्यत इति
चेव । आत्मा हि तावच्चैतन्यसामान्यव्याप्तानन्तधर्माधिष्ठात्रक द्रव्यमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयव्याप्येकश्तधानलक्षणपूर्वकस्वानुभव प्रमीयमाणत्वात। -प्रश्न -यह आत्मा कौन है और कैसे प्राप्त किया जाता है 1 उत्तर-आत्मा वास्तवमें चैतन्यसामान्यसे व्याप्त अनन्त धोका अधिष्ठाता एक द्रव्य है, क्योंकि अनन्त धमोमें व्याप्त होनेवाला जो एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण है, उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभवसे प्रमेय होता है। पं का./ता वृ/२०/४४ तदित्यभूतमात्मागमानुमानस्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानात
शुद्धो भवति । - वह इस प्रकारका यह आत्मा आगम, अनुमान और स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे शुद्ध होता है ।
२. पदार्थकी सिद्धि आगम, युक्ति व अनुभवसे होती है सा, सा /आ/१४ न खनवागमयुक्तिस्वानुभवैर्वाधितपक्षत्वात् तदारमपादिन परमार्थबादिन । -जो इन अध्यवसानादिकको जीव कहते है, वे वास्तव में परमार्थवादी नही है, क्योंकि आगम, युक्ति और स्वानुभवसे उनका पक्ष बाधित है। (और भी दे. पक्षाभास व अकिचित्करहेत्वाभास)।
३. तत्त्वार्थश्रद्धानमें आत्मानुभव ही प्रधान है स सा आ./१७-१८ परै समर्मकत्वाध्यवसायेन विमूढस्यायमहमनु
भूतिरित्यात्मज्ञान नोप्लबते तदभावादज्ञातवरशृङगश्रद्धानसमानत्वाच्छूद्धानमपि नोत्प्लबते। = परके साथ एकरव के निश्चयसे मूढ अज्ञानी जनको 'जो यह अनुभूति है वही मै हूँ' ऐसा आत्मज्ञान उदित नही होता और उसके अभावसे, अज्ञातकाश्चद्धान गधेके सौंगके समान
है, इसलिए श्रद्धान भी उदित नहीं होता। पंध/उ/११५-२० स्वानुभूतिसनाथश्चेत सन्ति श्रद्धादयो गुणा । स्वानुभूति विनाभासा नाच्छ्रद्धादयो गुणा ४१॥ नैव यत' समव्याप्ति श्रद्धा स्वानुभवद्वयो । नून नानुपलब्धेय श्रद्धा खरविषाणबद ॥४२०॥ - यदि श्रद्धा आदि स्वानुभव सहित हो तो वे सम्यग्दृष्टिके गुण लक्षण कहलाते है और वास्तबमें स्वानुभवके बिना उक्त श्रद्धा आदि सम्यग्दर्शनके लक्षण नहीं कहलाते किन्तु लक्षणाभास कहलाते है ॥४१॥ श्रद्धा और स्वानुभव इन दोनोमें समध्याप्ति है, कारण कि निश्चयसे सम्यग्ज्ञानके द्वारा अगृहीत पदार्थ में सम्यक्त्रमा खरविषाणके समान हो ही नही सकती ॥४२०॥ (ला सं/३/६०,६६)।
४. आत्मानुभवके बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता र सा /30 णियतच्चुवलद्धि विणा सम्मत्त वद्धि गस्थि णियमेण । सम्मत्तक्लद्धि विणा णिव्वाण णस्थि जिणुदृढ १०॥-निज तत्वोपलब्धि के बिना सम्यक्त्व की उपलब्धि नहीं होती और सम्यवस्वकी उपलब्धिके बिना निर्वाण नही होता ॥१०॥ स सा/आ /१२/कई एकत्वे नियतस्य शुद्ध नयतो व्याप्सुर्यदस्यात्मनः पूर्ण ज्ञानघनस्य दर्शन मिह द्रव्यान्तरेभ्य' पृथक् । सम्यग्दर्शनमेत देव नियतमात्मा चतावानय,तन्मुक्त्वानवतत्त्वस ततिमिमात्माय मे कोऽस्तु न'६ -इस आत्माको अन्य द्रव्योसे पृथक् देखना ही नियमसे सम्यग्दर्शन है। यह आत्मा अपने गुण पर्यायोमें व्याप्त रहनेवाला है और शुद्ध नयसे एक तस्वमें निश्चित किया गया है तथा पूर्ण ज्ञानघम है। एवं जितना सभ्यग्दर्शन है उतना ही आत्मा है, इसलिए इस नव तत्त्वकी सन्ततिको छोडकर यह आरमा एक ही हमें प्राप्त हो। ४. स्वसवेदनज्ञानकी प्रत्यक्षता
१. स्वसंवेदन द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष होता है न. च. वृ/२६६ पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ॥२६६॥ आराधनाकाल में युक्ति
आदिका आलम्बन करना योग्य नहीं, क्योंकि अनुभव प्रत्यक्ष होता है। त अनु/१६८ बपृषोऽप्रतिभासेऽपि स्वातन्त्र्येण च कासती। चेतना ज्ञानरूपेयं स्वय दृश्यत एव हि ॥१६८)-स्वतन्त्रतासे चमकती हुई यह
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