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अनुप्रेक्षा
२. व्यवहार
मा. अ. / १४ एको करेदि कम्मं एक्को हिदि य दोहसंसारे । एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भंजदे एक्को ॥१४॥ यह आत्मा अकेला हो शुभाशुभ कर्म बान्धता है, अकेला ही अनादि ससारमें भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने कर्मों का फल भोगता है, अर्थाद इसका कोई साथी नहीं है। ( मू. आ / ६६६) ।
स सि. / ६ / ७ / ४१५ जन्मजरामरणावृत्तिमहादु खानुभवनं प्रति एक एवाहं न कश्चिन्मे स्व परो वा विद्यते। एक एव जायेऽहम् । एक एव म्रिये । न मे कश्चित् स्वजन परजनो वा व्याधिजरामरणादोनि दुःखान्यपहरति । बन्धु मित्राणि श्मशान नातिवर्तन्ते धर्म एव मे सहाय' सदा अनपायीति चिन्तनमेकस्वानुप्रेक्षा-जन्म जरा मरणकी आवृत्ति रूप महादु खवा अनुभव करनेके लिए अकेला ही मै हूँ, न कोई मेरा स्व है और न कोई पर है, अकेला हो मै जन्मता अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन, व्याषि जरा और मरण आदिके दु खाँको दूर नहीं करता। बन्धु और मित्र श्मशानसे आगे नहीं जाते। धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़नेवाला सदाकाल सहायक है । इस प्रकार चिन्तवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। (भ आ / १७४७१७५१) ( मू आ./६६८) (रा.वा./६/७,४/६०१ ) ( चा. सा / १८७ / २) तथा सम्पूर्ण अधिकार स ४, श्लोक से २१) न घ ६ / ६४-६५ ) ( भूधरकृत भावना स ३) (श्रीमद्रकृत १२ भावनाएँ) । ६. धर्मानुप्रेक्षा - १. निश्चय
बा. अ / ८२ णिच्छयणएण जोवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो । मज्झस्थभावणार सुद्धपं चितये णिच्च ॥८२॥ जीव निश्चय नयसे सागार और अनगार अर्थात् श्रावक और सुनि धर्मसे बिलकुल जुदा है, इसलिए राग-द्वेष रहित परिणामोसे शुद्ध स्वरूप आत्मा ही सदा ध्यान करना चाहिए। रा.वा./१/७,१०/६०३/२३ उक्तानि जोवस्थानानि गुगस्थानानि च तेषां गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु स्वतस्यविचारणालक्षणो धर्म जिनशासने स्वाख्यात ॥ पूर्वोक्त जोवस्थानी व गुणस्थानोंका उन गति आदि मार्गणास्थानों में अन्वेषण करते हुए स्वतत्रत्वको विचारणालक्षणवाता धर्म जिनशासन में भली प्रकार कहा गया है।
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२. व्यवहार
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मा. अ /६८,८१ एयरसदसभेय धम्मं सम्मत्तपुब्बयं भणियं । सागारणगाराणं प्रतमहरा पशुहि ॥६८॥ सावयधम्मं चत्ता जम्मे जो वट्टए जोवो । सो ण य वज्जदि मोक्ख धम्म इदि चितये णिच्च. ॥८९॥ - उत्तम सुखमें लीन जिनदेवने कहा है कि श्रावको और मुनियोंका धर्म जो कि सम्यक्त्व सहित होता है, क्रमसे ग्यारह प्रकारका और दस प्रकारका है ॥ ६८ ॥ जो जोव श्रावक धर्मको छोड़कर मुनियोंके धर्मका आचरण करता है, वह मोक्षको नही छोड़ता है, इस प्रकार धर्म भावनाका नित्य ही चिन्तन करते रहना चाहिए । स. सि. / ६ / ७ / ४१६ अय जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षणः सत्याधिष्ठितो विनयसूत क्षमामलो मह्मचर्य उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रड्तालम्बन' अस्थालाभादनादिससारे जीवा' परिभ्रमन्ति दुष्कर्म विपाक दुखमनुभवन्त अस्य पुनः प्रतिलम् विविधा भ्युदयप्रतिपूर्विका निश्रेयसोपलब्धिर्नियतेति चिन्तनं धर्मस्वाख्यातवानुप्रेक्षा । - जिनेन्द्रदेवने जो अहिंसालक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है । विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशमकी उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलम्बन है। इसकी प्राप्ति नहीं होनेसे कर्म विपाक जायमान दुखको अनुभव करते हुए ये जीन अनादि संसारमें परिभ्रमण करते है । परन्तु इसका लाभ होनेपर नाना प्रकार के अभ्युदयोंकी प्राप्ति पूर्वक मोक्षकी प्राप्ति होना निश्चित है, ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातस्यानुपेक्षा है (भ.आ.//
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अनुप्रेक्षा
१८४७-१८४५) ( आ / ७२६-१४४) (रा. ना //११/२००/२) (चा. सा./ २०१/२) (वि. ६/५१) (अन. प./६/८०/६१३) (भूधरकृत भावना सं. १२) ।
इ. सं./टी./१२/१४५ चतुरशीटियोक्षेषु मध्ये दु खानि सहमान सम्भ्रमितोऽम जोनो यदा पुनरेव गुणविशिष्टस्य धर्मस्य नाभो भवति तदा "विविधाभ्युदयसुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रयभावनाबलेनाक्षयानन्तसुखादिगुणास्पदमर्हत्पदं सिद्धपद च लभते तेन कारणेन धर्म एव परमरसरसायनं निधिनिधान कल्पवृक्ष कामधेनुश्चिन्तामणिरिति । इति सक्षेर्पेण धर्मानुप्रेक्षा गता । =चौरासी लाख योनियो में दुखोंको सहते हुए भ्रमण करते इस जोबको जब इस प्रकार के पूर्वो धर्मकी प्राप्ति होती है तब यह विविध प्रकारके अम्युदय सुखोंको पाकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रयकी भावनाके बलसे अक्षयानन्त सुखादि गुणोका स्थानभूत अर्हन्तपद और सिंद्ध पदको प्राप्त होता है। इस कारण धर्म ही परम रसका रसायन है, धर्म ही निधियोंका भण्डार है. धर्म ही कल्पवृक्ष है, कामधेनु है, धर्म हो चिन्तामणि है...इस प्रकार संक्षेपसे धर्मानुप्रेक्षा समाझ हुई श्रीमत १२ भावनाएँ)
१०. निर्जरानुप्रेक्षा - १. निश्चय
म. सा / मू/ १६८ उदय विवागो विविहो कम्माणं वण्णिओ जिणवरेहिं । दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमिको ॥१६८॥ कम उदयका रस जिनेश्वर देवने अनेक प्रकारका कहा है। वे कर्म विपाकसे
भाव मेरा स्वभाव नही है। मै तो एक ज्ञायक भाव स्वरूप हूँ । इ.सं./टी./१२/११२ निजपरमात्मानुभूतिमसेन निर्जरा
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भोगाकांक्षादिविभाग राज्यपरिणामवर्त्तत इति । .. इति निर्जरानुप्रेक्षा गता । निजपरमात्मानुभूतिके
बस निर्जरा करनेके लिए ट व अनुभूत मोगोकी आदि रूप विभाव परिणामके त्याग रूप सवेग तथा वैराग्य रूप परिणामोंके साथ रहता है । इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई। (स. सा. /आ./ १९३ उत्थानिका रूप कलश. १३३)
२
व्यवहार
बा. अ / ६७ सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा । चादुगदीण पढमा वयजुत्ताण हवे बिदिया ॥ ६७॥ उपरोक्त निर्जरा दो प्रकारकी है - स्वकाल पक्व और तप द्वारा की गयी। इनमें से पहली तो चारो गतिवाले जीवोके होती है और दूसरी केवल व्रतधारी श्रावक वा मुनियोके होती है। (भूधरकृत भावना स १० ) । ससि /६/७/४१७ निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम् । सा द्वेधा-अबुद्धिपूर्वा कुशसा चेति तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाका अपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा परिवहनये कृते कुसला सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति । इत्येवं निर्जरामा गुणदोषभावन निरानुपेक्षा वेदनाविकका नाम निर्जरा है. यह पहले कह आये हैं। वह दो प्रकारकी है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला । नरकादि गतियों में कर्मफलके विपाकसे जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है. वह अजानुबन्धा है तथा परिपके जीतनेपर जो निर्जरा होती है. वह निर्जरा है वह माना और निरनुबन्धा होती है। इस प्रकार निर्जराके गुणदोषोंका चिन्तवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। (भ.आ./मू. १८४५-१८५६) (सू.आ./७४४७४१) (रा बा./६/०६/०१/११) (प./२/५३) (अनभ/६/०४-०५/ ६२०) |
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११. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा-१ निश्चय
मा. अ / ८३-८४ उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवारण तस्सुवायस्स । चिता हवेह बोही अच्चतं दुल्लहं होदि ॥८३॥ कम्मुदयजपज्जाया हेयं लाओसमयमाण खु सगदम्बादेयं हि होदिसणा ॥८४॥ जिस उपाय से सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति हो, उस उपायकी चिन्ता करनेको अत्यन्त दुर्बोध भावना कहते हैं, खोकिमो
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