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अनुप्रेक्षा
अनुप्रेक्षा
इहलोगिय परलोगियोसे पुरिसस्स आवहइ णिच्च । अत्थो अणत्थमुलं महाभय सुत्तिपडिप थो ॥१८१४॥ कुणिमकुडिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा। उबधो लोए दुवखावहा य ण य हुति ते सुलहा ॥१८१५॥ अर्थ व काम पुरुषार्थ तथा सर्व मनुष्यो का देह अशुभ है। एक धर्म ही शुभ है और सर्व सौख्योका दाता है ॥१८१३॥ इस लोक और परलोकके दोष अर्थ पुरुषार्थ से मनुष्यका भोगने पड़ते है। अर्थ पुरुषार्थ के वश होकर पुरुष अन्याय करता है, चोरी करता है और राजासे दण्डित होता है और परलोक में नरक मे नाना दु खोका अनुभव लेता है, इसलिए अर्थ अर्थात धन अनथ का कारण है। महाभयका कारण है, मोक्ष प्राप्तिके लिए यह अर्गलाके समान प्रतिबन्ध करता है ॥१८१४॥ यह काम पुरुषार्थ अपवित्र गरीरमे उत्पन्न होता है, इससे आरमा हल्की होतो है, इसकी सेवासे आत्मा दुर्गतिमें दुख पाती है, यह पुरुषार्थ अल्पकाल में ही उत्पन्न ह कर नष्ट हो जाता है।
और प्राप्त होनेमें कठिन है। ब'.अ/४४ दुग्गंध वीभत्वं कलिमलभरि अचेयणा सुत्त । मडण पडणसहाव देह इदि चितये णिच्च ॥४॥ - यह देह दुर्गन्धमय है, डरावनी है, मलसूत्रसे भरी हुई है, जड है, मुर्तीक है और क्षीण होनेवाली है तथा विनाशीक स्वभाववाली है। इस तरह निरन्तर इसका विचार करते रहना चाहिए। स सि /8/७/१६ शगेरमिदमत्यन्ताशुचियोनिशुक्रशोणित शुचिसधितमवस्करबद शुचिभाजन त्वड्मात्रप्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्य न्दिलोतोबिलमगारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयात । स्नानानुलेपनधूपप्रघर्षबासमाल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहर्तमस्य । सम्यगदर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिी शुद्धिमाविषयतीति तत्त्वतोभावनमशुचित्वानुप्रेक्षा। - यह शरीर अत्यन्त अशुचि पदार्थों की योनि है । शुक्र और शाणित रूप अशुचि पदार्थोसे बृद्धिको प्राप्त हुआ है, शौचगृहके समान अशुचि पदार्थोका भाजन है। त्वचा मात्रसे आच्छादित ह । अति दुर्गन्धित रसको बहानेवाला झरना है। अगार के समान अपने आश्रयमे आये हुए पदार्थीको भी शीघ्र ही नष्ट कर देता है। स्नान, अनुलेपन धूपका मालिश और सुगन्धित माला आदिके द्वारा भी इसकी अशुचिताको दूर कर सकना शक्य नहीं है, किन्तु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यगदर्शन आदिके जीव की आत्यन्तिक शुद्धिको प्रगट करते है। इस प्रकार वास्तविक रूषसे चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है। (भ आ / मू /१८१६-१८२०) (भा.पा /म् /३७-४२) (म आ /७२०-७२३) (रा वा । ६/६/६०२) (चा सा/१०/६) (वि/६/५०) अन ध/६/६८-६९) स सा नाटक ४ (भूधरकृत भावना स ६) (श्रीमद्कृत् १२ भावनाएँ) (और भी देखो अशुचिके भेद)।
७. आस्नबानुप्रेक्षा-१ निश्चय मा.अ/६० पुव्वत्तासवभेयो णिच्छयण ग्रएण णस्थि जीवस्स । उदयासबणिम्मुबक अप्पाण चितए णिच्च ॥६०॥ = पूर्वोक्त आसब मिथ्यात्व आदि भेद निश्चय नयसे जीवके नही होते है। इसलिए निरन्तर हो आत्माके द्रव्य और भावरूप दोनो प्रकार के आसवोसे रहित चिन्तवन करना चाहिए । (स सामू ५१) (म सा /आ १७८/क १२०) ।
२ व्यवहार बा.अ/५६ पार पज्जएण दु आसव किरियाए णस्थि णिबाण । ससारगमणकारणमिदि णिद आसत्रों जाण ॥५६॥-कर्माका आस्रव करनेवाली क्रियासे परम्परासे भो निर्माण नही हा सक्ता है। इसलिए संसारमे भटकनेवाले आखकको बुरा समझना चाहिए । मृ.आ./७३० धिद्धी माहस्स सदा जेण हिदत्येण माहिदो संतो। णवि बुज्झदि जिगवयण हिदसित्रमुहकारण मग ॥७३०॥ - मोहको सदा काल धिक्कार हो, धिक्कार हो, क्योकि हृदय में रहनेवाले जिस मोहसे मोहित हुआ यह जीव हितकारी मोक्ष सुखका कारण ऐसे जिन बचनको नही पह वानता।
स सि./8/७/४१६ आसवा इहामुत्रापाययुक्ता महानदीस्रोतोवेगतीक्ष्णा इन्द्रियकषायावतादय तत्रेन्द्रियाणि तावत्स्पर्शादीनि वनगजवायसपन्नागपतङ्गहरिणादीत् व्यसनार्णवमवगायन्ति तथा क्षायोदयोऽपीह बधबधापयश परिक्लेशादीन जनयन्ति । अमुत्र च नानागतिषु बहुविधदु खप्रज्वलितासु परिभ्रमयन्तीत्येवमासवदोषानुचिन्तनमासबानुप्रेक्षा- आस्रव इस लोक और परलोकमे दुखदायी है। महानदीके प्रवाहके वैगके समान तो है तथा इन्द्रिय, कषाय और अवत रूप है। उनमेसे स्पर्शादिक' इन्द्रियाँ बनगज, कौआ, स, पतन और हरिण आदिको दुखरूप समुद्र में अवगाहन कराती है। कषाय आदि भी इस लोकमें, वध, बन्ध, अपयश और क्लेशादिक दुखोको उत्पन्न करते है। तथा परलोकमें नाना प्रकार के दुखोसे प्रज्वलित नाना गतियो मे रिभ्रमण कराते है। इस प्रकार आस्रवके दोषोको चिन्तवन करना आसत्रानुप्रेक्षा है। (भ आ/मू०/१८२१-१८३५) (स सा /मू । १६४-१६५) (रा वा/६/७,६/६०२/२२) (चा सा/११/२) (प.वि /६/५१) (अन.ध/६/७०-७१) (भूधरकृत भावना सं.)। द्र. स /टी /५/१६० इन्द्रियाणि • कषाया पञ्चावतानि । पञ्चविशतिक्रिया रूपास्त्रवाणाद्वारै मजल प्रवेशे सति ससारसमुद्रे पातो भवति । न च • मुक्तिवेलापत्तन प्राप्नोतीति । एवमात्रबगतदोषानुचिन्तनमासवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति । पाँच इन्द्रिय, चार कषाय, पाँच अवत और पचास क्रिया रूप आत्रबोके द्वारोसे कर्मजल के प्रवेश हो जानेपर ससारसमुद्र में पतन होता है और मुक्तिरूपी वेलापत्तनकी प्राप्ति नही होतो। इस प्रकार आस्रवके दोषोका पुन.-पुन चिन्तवन सो आस्रवानुप्रेक्षा जानना चाहिए।
८. एकत्वानुप्रेक्षा-१ निश्चय भ. आ /मू /१७५२-१७५३ जो पुण धम्मो जीवेण कदो सम्मत्तचरणसुदमइयो। सा परलोए जीवस्स होइ गुणकारक्स हाओ । ७५२॥ बद्धस्स बधणे व ण रागो देहम्मि होइ जाणिस्स । पिससरिसेसुण रागो अस्थेसु महाभयेमु तहा ॥१७५३॥=सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यग्ज्ञान रूप अर्थात रत्नत्रय रूप धर्म जा इस जीवने धारण किया था वही लोकमे इसका कल्याण करनेवाला सहायक होता है ॥१७५२॥ रज्जू आदिसे बन्धा हुआ पुरुष जिस प्रकार उन रज्जू आदि बन्धनोमे राग नही करता है, वैसे ही ज्ञानी जनो के शरीर में स्नेह नहीं होता है। तथा इसी प्रकार विषके समान दुखद व महाभय प्रदायी अर्थ में अर्थात् धनमे भी राग नहीं होता है ॥१७५६ ॥ गअ/२० एक्कोह णिम्ममा सुद्धोणाणदसणलवणो। सुद यत्तमुपादेयमेव चितेड सम्बदा ॥२०॥ - मै अकेला हूँ, ममता रहित हूँ. शुद्ध हूँ,
और ज्ञान दर्शन स्वरूप हूँ, इसलिए शुद्र एकपना ही उपादेय है, ऐसा निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए । (स सा /मू /७३) (सामायिक
पाठ अमितगति २७) (स सा ना /३३) । द्र स टी/४/१०७ निश्चयेन केवल ज्ञानमेबैक सहजशरीरम् । " न
च सप्तधातुमयौदारिक्शरीरम् । निजात्मतत्त्वमेवैक सदा शाश्वत परमहितकारी न च पुत्र कल त्रादि। स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमाऽर्थ न च सुवर्णाद्या स्वभावात्मसुखमेवैक सुरवं न चाकुलत्वोत्पादेन्द्रियसुख मिति । स्वशुद्धात्मैकसहायो भवति। एव एकत्वभावनाफल ज्ञात्वा निरन्तर निजशुद्धात्मैकत्वभावना कर्तव्या । इत्येव त्वानुप्रेक्षा गता। निश्चय से केवलज्ञान ही एक सहज या स्वाभाविक शरीर है, सप्तधातुमग्री यह औदारिक शरीर नही । निजात्म तत्त्व ही एक सदा शाश्वत व परम हितकारी है, पुत्र कलत्रादि नहीं। स्वशुद्धात्म पदार्थ ही एक अविनश्वर व परम हितकारी परम धन है, सुवर्णादि रूप धन नहीं । स्वभावात्म सुख ही एक सुख है, आकुलता उत्पादक इन्द्रिय सुख नही। स्वशुद्धारमा ही एक सहायी है। इस प्रकार एकरच भावनाका फल जानकर निरन्तर शुद्धात्मामें एकत्र भावना करनी चाहिए । इस प्रकार एकरव भावना कही गयी।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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