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अनुप्रेक्षा
अनुप्रेक्षा
घ ६/४,१,५५/२६३/१ कम्मणिज्जरण?मट्ठि-मजाणुमयस्स सुदणाणस्स परिमलणमणुपेक्रवणा णाम। = कर्मो की निर्जराके लिए अस्थि मज्जानुगत अर्थात पूर्ण रूपसे हृदयगम हुए श्रुतज्ञानके परिशीलन करनेका नाम अनुप्रेक्षा है। घ. १४/५,६,१४/६/५ सुदत्थस्स सुदाणुसारेण चिन्तणमणुपेहण णाम ।
सुने हुए अर्थ का श्रुतके अनुसार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । २. अनुप्रेक्षाके भेद त.सू./६/७ अनित्याशरणससारे कत्वान्यत्वाशुच्यासवसवरनिर्जरालोकबाधिदुलंभ मंस्वाव्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा ७॥ -अनित्य, अशरण, ससार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आसव, सवर, निर्जरा,लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मम्बाख्यातत्वका बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षाएँ है। (बा अ/२) (म आ/६६२) (रा वा /१,७/१४/४०/१४) (प वि./६/४३-४४) (द्र स.टी/३५/१०१)। भ. आ /मू /१७१५/१५४७ अधुवमसरणमेगत्तमण्णत्तस सारलोयमसुइत्त ।
आसवसवरणिज्जरधम्म बोधि च चितिज्ज |-अध व, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्त्रव, सवर, निर्जरा, धर्म और बोधि ऐसे बारह अनुप्रेक्षाआका भी चिन्तन करना चाहिए। रा. वा./8/७४/६०१/२६ अन्यत्व चतुर्धा व्यवतिष्ठते-नामस्थापनाद्रव्यभावालम्बनेन । =अन्यत्व नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके आश्रयसे चार प्रकारका है।
३. अनित्यानुप्रेक्षा-१ निश्चय मा. अ/७ परम?ण दु आदा देवासुरमणुवरायविविहेहि । वदिरित्तो सो
अप्पा सस्सदभिदि चितये णिच्च ॥७॥ -शुद्ध निश्चयनयसे आत्माका स्वरूप सदैव इस तरह चिन्तवन करना चाहिए कि यह देव, असुर, मनुष्य और राजा आदिके विकल्पोसे रहित है। अर्थात इसमें देवादिक भेद नहीं है-ज्ञानस्वरूप मात्र है और सदा स्थिर रहनेवाला है। रा. वा./8/७,१/६००/७ उपात्तानुपात्तद्रव्यसयोगव्यभिचारस्वाभावोsनित्यलम् । - उपात्त और अनुपात्त द्रव्य सयोगोका व्यभिचारीस्वभाव अनित्य है। द्र. स./टो/३५/१०२ तत्सर्व मध व मिति भावयितव्यम् । तद्भावनासहित
पुरुषस्य तेषा वियोगेऽपि सत्युच्छिष्टेष्विव ममत्व न भवति तत्र ममत्वाभावादविनश्वरनिजपरमात्मानमेव भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भावयति.यादशमविनश्वरमात्मान भावयति तादृशमेवाक्षयानन्तसुखस्वभाव मुक्तात्मान प्राप्नोति। इत्या कानप्रेक्षा मता। -(धन खी आदि) सो सब अनित्य है. इस प्रकारे 'चन्तवन करना चाहिए। उस भावना सहित पुरुष के उन स्त्री आदिके वियोग होने पर भी जूठे भोजनोके समान ममत्व नहीं होता। उनमें ममत्वका अभाव होनेस अविनाशी निज परमात्माका हो भेद, अभेद रत्नत्रयकी भावना द्वारा भाता है। जैसी अत्रि नश्वर आत्माको भाता है, वैसी हो अक्षय, अनन्त सुख स्वभाववाली मुक्त आत्माको प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार अधु व भावना है।
२. व्यवहार मा. अ./६ जीवणिबद्ध देह खीरोदयमिव विणस्सदे सिग्ध । भोगोप
भोगकारणदव्व णिच कह होदि ॥६॥ = जब क्षीरनीरवत् जीवके साथ निबद्ध यह शरीर ही शोघ नष्ट हो जाता है, तो भोगापभोगके कारण यह दूसरे पदार्थ किस तरह नित्य हो सक्ते है। (भूधरकृत १२ भावनाएं) (श्रीमद्कृत १२ भावनाए। स.सि./8/9/४१३ इमानि शरीरेन्द्रियविषयोपभोगद्रव्याणि जल बुदबुद्धबदनवस्थितस्वभावानि गर्भादिष्ववस्थाविशेषेषु सदोपलभ्यमानसयोगविपर्ययाणि, मोहादत्राज्ञो नित्यतां मन्यते। न किचितस सारे समुदित
बमस्ति आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावादन्यदिति चिन्तनमनुप्रेक्षा। -ये समुदाय रूप शरीर, इन्द्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य, जल बुदबुदके समान अनव स्थित स्वभाववाले होते हैं तथा गर्भादि अवस्था विशेषों में सदा प्राप्त होनेवाले सयोगोसे विपरीत
स्वभाववाले होते है। मोहवश अज्ञ प्राणी इनमे नित्यताका अनुभव करता है, पर वस्तुत आत्माके ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके सिवा इस ससारमें कोई भी पदार्थ ध व नहीं है, इस प्रकार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है। (भ आ/मू./१७१६-१७२८/१५४३) (म.आ/६६३६६४) (रा वा /8/७,१/६००/8) (प 14 /३ सम्पूर्ण) (प वि /६/४५) (चा सा./१७८/१) (अन ध/६/५८-५९/६०६)।
४. अन्यत्वानुप्रेक्षा–१ निश्चय बा.अ/१३ अण्ण इम सरीरादिग पिज होइ बाहिर दव । णाण दंसणमादा एव चितेहि अण्णत्त ॥२३॥ - शरीरादि जो बाहिरी द्रव्य है, सो भी सब अपनेसे जुदा है और मेरा आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है, इस प्रकार अन्यल भावनाका चिन्तवन करना चाहिए । (स सा./मू./२७,३८) (स सा/क./)। स, सि./8/७/४१५ शरीरादन्यत्व चिन्तनमन्यत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बन्ध प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादन्योऽहमैन्द्रियकं शरीरमतीन्द्रियोऽहमज्ञ शरीर ज्ञोऽहम नित्यं शरीर नित्योऽहमाद्यन्तच्छरीरमनाद्यन्तोऽहम् । बहूनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि ससारे परिभ्रमत । स एवाहमन्यस्तेभ्य इत्येव शरीरादप्यन्यत्व मे किमग, पुनर्वाह्येभ्य' परिग्रहेभ्य । इत्येव ह्यस्य मन समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोरपद्यते। - शरीरसे अन्यत्वका चिन्तन करना अन्यत्वानप्रेक्षा है । यथा बन्धकी अपेक्षा अभेद होनेपर भी लक्षण के भेदसे 'मै अन्य है', शरीर ऐन्द्रियक है, मै अतीन्द्रिय हूँ। शरीर अज्ञ है, मै ज्ञाता है। शरीर अनित्य है, मै नित्य हूँ। शरीर आदि अन्तवाला है और मै अनाद्यनन्त हूँ। ससारमें परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखो शरीर अतीत हो गये है। उनसे भिन्न वह ही मै हूँ। इस प्रकार शरीरसे भी जब मै अन्य हूँ तम हे वत्स । मै बाह्य पदार्थोंसे भिन्न होऊँ.ता इसमें क्या आश्चर्य है । इस प्रकार मनको समाधान युक्त करनेवाले इसके शरीरादिमे स्पृहा उत्पन्न नही होती। (भ आ /मू./१७५४) मू आ /७००-७०२) (रा.बा /8/७.५/ ६०१/३१) (चा सा/१७०/४) (प वि /६/४६/२१०) (अन ध/६/६६६७/६/8). रा.वा /8/9.५/६०१/२६ अन्यत्व चतुर्धा व्यवतिष्ठते--नामस्थापनाद्रव्यभावालम्बनेन । आत्मा जीव इति नामभेद . काष्ठप्रतिमेति स्थापनाभेद , जीवद्रव्यमजीवद्रव्य मिति द्रव्यभेद , एकस्मिन्नपि द्रव्ये आलो युवा मनुष्यो देव इति भावभेद । तत्र बन्ध प्रत्येक्त्वे सत्याप लक्षणभेदादन्यत्वम्। = नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके अवलम्बन भेदसे अन्यत्र चार प्रकारका है। आत्मा जीव इत्यादि तो नाम भेद या नामोमे अन्यत्व है, काष्ठ आदिकी प्रतिमाओमें भेद सो स्थापना अन्यत्व है, जीब-अजीव आदि सो द्रव्योमें अन्यत्व है और एक ही द्रव्यमें बाल और युवा, मनुष्य या देव आदिक भेद सो भावों से अन्यत्व है । बन्ध रूपसे एक होते हुए भी लक्षण रूपसे इन सबमे भेद होना सो अन्यत्व है।
२. व्यवहार बा.अ./२१ मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिबधुसदोहो। जीवस्स ण संबधो णियकज्जवसेण वति ॥२१॥ =माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि बन्धुजनोका समूह अपने कार्यके वश सम्बन्ध रखता है, परन्तु यथार्थ मे जीवका इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थात ये सब जीवसे
जुदे है। धम्मपद/५/३ पुत्ता मत्थि धन मत्थि इदि बालो विहङजति । अत्ता हि
अत्तनो नत्थि कतो पुत्तो कतो धन ॥ -मेरे पुत्र है, मेरा धन है ऐसा अज्ञानीजन कहते है। इस ससारमें जब शरीर ही अपना नहीं तब
पुत्र धनादि कैसे अपने हो सकते है। द्र.स /टी./३५/१०८ देहबन्धुजनसुवद्यिर्थन्द्रियसुखादीनि मधिीनत्वे विनश्वराणि- निजपरमात्मपदार्थानिश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि । तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति। इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा• ॥ -देह, बन्धुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रिय सुख आदि कर्मोके आधीन
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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