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अनुकृति
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सूत्रसे बाह्य है, जो अन्य पाखण्डी गुरुकी उपासना करते है, नम्र और कष्टदायक कायक्लेश करते है, इनके ऊपर कृपा करना यह भी मिश्रानुकम्पा है, क्योंकि गृहस्थोकी एकदेशरूपतासे धर्ममे प्रवृत्ति है, वै सम्पूर्ण चारित्र रूप धर्म का पालन नहीं कर सकते। अन्य जनोका धर्म मिथ्यात्वसे युक्त है। इस वास्ते गृहस्थ धर्म और अन्य धर्म दोनोंके ऊपर दया करनेसे मिश्रानुकम्पा कहते है । ३ सर्वानुकम्पासुदृष्टि अर्थात् सम्यग्दृष्टि जन, कुदृष्टि अर्थात् मिथ्यादृष्टि जन यह दोनों भी स्वभावत मार्द वसे युक्त होकर मम्पूर्ण प्राणियोके ऊपर दया करते है, इस दयाका नाम समानुकम्पा है। जिनके अवयव टूट गये, जिनको जख्म हुई है, जो बॉधे गये है, जो स्पष्ट रूपसे लूटे जा रहे हैं. ऐसे मनुष्योंको देखकर, अपराधी अथवा निरपराधी मनुष्योको देखकर मानो अपनेको ही दुख हो रहा हो, ऐसा मानकर उनके ऊपर दया करना यह सर्वानुकम्पा है। हिरण, पक्षी, पेटसे रेगनेवाले प्राणी, पशु इनको मासादिक के लिए लोग मारते है ऐसा देखकर, अथवा आपसमें उपर्युक्त प्राणी लडते है और भक्षण करते है ऐसा देखकर जो दया उत्पन्न होती है, उसको सर्वानुकम्पा कहते है। सूक्ष्म कुथु, चीटी वगैरह प्राणी, मनुष्य, ऊँट, गधा, शरभ, हाथी, धोडा इत्यादिकोके द्वारा मर्दित किये जा रहे है, ऐसा देखकर दया करनो चाहिए। असाध्य रोग रूपी सर्पसे काटे जानेसे जो दुखी हुए है, 'मैं मर रहा हूँ' 'मेरा नाश हुआ''हे जन दौडो' ऐसा जो दु,खसे शब्द कर रहे है, रागोका जो अनुभव करता है उनके ऊपर दया करनी चाहिए। पुत्र, कलत्र, पत्नी वगैरहसे जिनका वियोग हुआ है, जो रोग पीडासे शोक कर रहे है, अपना मस्तक वगैरह जो वेदनासे पीटते है, कमाया हुआ धन नष्ट होनेसे जिनको शोक हुआ है, जिनके मान्धव छोडकर चले गये हैं, धैर्य, शिल्प, विद्या, व्यवसाय इत्यादिको से रहित है, उनको देखकर अपनेको इनका दुख हो रहा है ऐसा मानकर उन प्राणियोको स्वस्थ करना, उनकी पीडाका उपशम करना, यह सर्वानुकम्पा है। अनकृति-ध ११/४,२.६,२४६/३४ /१२ अणुकट्ठी णाम द्विदि ज्झव
सॅणिट्ठणाण समाणत्तमसमाणत्त च परूवेदि । -अणुकृति अनुयोगद्वार प्रत्येक स्थिति के स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोको समानता ब असमानताको बतलाता है। अनुकृष्टि-ल सा./४३/७७/५ अनुकृष्टय वा एकसमयपरिणाममाना
खण्डस ख्येत्यर्थ । - अनुकृष्टिका गच्छ, एक एक समय सम्बन्धी परिणानि विषै एते एते खण्ड हो है ऐसा अर्थ है। (विशेष दे. गणित 1/६/२)। अनुकृष्टि गच्छ आदि-दे गणित 11/६/२ । अनुकृष्टि चय-दे. गणित II/६/२, अनुक्त-मतिज्ञानका एक भेद - दे. मतिज्ञान ४ । अनुगम-4 ३/१,२,१/८/६ यथावस्त्वबोध अनुगम- केवलिश्रुतकेवलि भिरनुगतानुरूपेणावगमो वा। = वस्तु के अनुरूप ज्ञानको अनुगम कहते है । अथवा केवली और श्रुतकेवलियोके द्वारा परम्परासे
आये हुए अनुरूप ज्ञानको अनुगम कहते है। ध.१/४१,४५/१४१/६ जम्हि जेण वा वत्तव्व परुधिज्जदि सो अणुगमो। अहियारसपिणदाणमणिओगद्दाराण जे अहियारा तेसिमणुगमो त्ति सण्णा, जहा वेयणाए पदमीमांसादि । अथवा अनुगम्यन्ते जीवादय: पदार्थाः अनेनेत्यनुगम प्रमाणम् ।-१ जहाँ या जिसके द्वारा वक्तव्यकी प्ररूपणा की जाती है, वह अनुगम कहलाता है। २. अधिकार संज्ञा युक्त अनुयोगद्वारो के जो अधिकार होते है उनका 'अनुगम' यह नाम है, जैसे-वेदनानुयोगद्वारके पदमीमांसा आदि अनुगम । ३. अथवा जिसके द्वारा जीवादि पदार्थ जाने जाते है वह अनुगम अर्थात प्रमाण कहलाता है। घ.१/४,१,४६/१६२/४ अथवा अनुगम्यन्ते परिच्छिद्यन्त इति अनुगमाः षड्नम्याणि त्रिकोटिपरिणामात्मकपाषण्ड्य विषयविभ्राइभावरूपाणि
अनुत्सेक प्राप्तजात्यन्तराणि प्रमाणविषयतया अपसारित ट्रन यानि सविश्वरूपानन्तपर्यायसप्रतिपक्षविविधनियतभडगारमसत्तास्वरूपाणीति प्रतिपत्तव्यम् । एवमणुगमपरूवणा कदा। -अथवा जो जाने जाते है' इस निरुक्तिके अनुसार त्रिकोटि स्वरूप (द्रव्य, गुण, पर्याय स्वरूप) पाषण्डियोके अविषय भूत अविभ्राङ्भाव सम्बन्ध अर्थात कथ चित तादात्म्य सहित. जात्यन्तर स्वरूपको प्राप्त, प्रमाणके विषय होनेसे दुर्न योको दूर करनेवाले, अपनी नानारूप अनन्त पर्यायोकी प्रतिपक्ष भूत असत्तासे सहित और उत्पाद, व्यय, धौव्य स्वरूपसे सयुक्त, ऐसे छह द्रव्य अनुगम है, ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार अनुगमकी प्ररूपणा की है। अनुगामी-अवधिज्ञानका एक भेद-दे अवधिज्ञान १। अनुग्रह–स सि./७/३८/३७२ स्वपरोपकारोऽनुग्रह । स्वोपकार' पुण्यसचय , परोपकार' सम्यग्ज्ञानादिवृद्धि । -अपना तथा दूसरेका उपकार सो अनुग्रह है । (दान विषै) अपना उपकार तो पुण्य सचय है और परका उपकार सम्यग्ज्ञानादिकी वृद्धि है। (रा वा / ७/३८,१/५५६/१५)। रा. वा. ४/२०,२/२३५/१३ अनुग्रह इष्टप्रतिपादनम् । - इष्ट प्रतिपादन
करना अनुग्रह है। रा. वा/५/१७,३/४६०/२५ द्रव्याणा शक्त्यन्तराविर्भाव कारणभावोऽनुग्रह
उपग्रह इत्याख्यायते। =द्रव्यकी अन्य शक्तियोके प्रगट होने में कारण भावको अनुग्रह या उपग्रह कहते है । अनुग्रहतंत्र नय-दे. नय 1/५। अनुजीवी गुण-दे. गुण १ । अनुत्तर- १३/५.५.५०/२८३/३ उत्तर प्रतिवचनम्, न विद्यते
उत्तर यस्य श्रुतस्य तदनुत्तर श्रुतम्। अथवा अधिकमुत्तरम्, न विद्यते उत्तरोऽभ्यसिद्धान्त अस्मादित्यनुत्तर श्रुतम् ।-१ उत्तर प्रतिवचन का दूसरा नाम है, जिस श्रुतका उत्तर नही है वह श्रुत अनुत्तर कहलाता है । अथवा उत्तर शब्दका अर्थ अधिक है, इससे अधिक च कि अन्य कोई भी सिद्धान्त नही पाया जाता, इसलिए इस श्रुत
का नाम अनुत्तर है । २ कल्पातीत स्वर्गीका एक भेद-दे स्वर्ग ५/२। अनुत्तरोपपादक-ध. १/१,१,२/१०४/१ अनुत्तरेष्वोपपादिका अनुत्तरोपपादिका 1 -जो अनुत्तरोमें उपपाद जन्मसे पैदा होते हैं, उन्हे अनुत्तरोपपादिक कहते है।
१. भगवान् वीरके तीर्थ में दश अनुत्तरोपपादकोका निर्देश ध.१,१,२/१४०/२ ऋषिदास-धन्य-सुनक्षत्र-कात्तिकेयानन्द-नन्दन-शालिभद्राभय वारिषेण-चिलातपुत्रा इत्येते दश बर्द्धमानतीर्थकरतीर्थ । - ऋषिदास. धन्य, सुनक्षत्र, कात्तिकेय, आनन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, बारिषेण और चिलातपुत्र ये दश अनुत्तरौपपादिक वर्धमान तीर्थकरके तीर्थ मे हुए है। अनुत्तरोपपादकदशांग-दव्यश्रुतज्ञानका नशें अग =दे श्रुत
ज्ञान । अनुत्पत्तिसमाजाति-न्या सू./५/१/१२/२९२ प्रागुत्पत्ते कारणाभावादनुत्पत्तिसम ॥१२॥ उत्पत्ति के पहले कारणके न रहनेसे 'अन - त्पत्तिसम' होता है। शब्द अनित्य है, प्रयत्नकी कोई आवश्यकता नहीं होनेसे घट की नाई है, ऐसा कहनेपर दूसरा कहता है कि उत्पत्तिके पहले अनुत्पन्न शब्दमें प्रयत्नावश्यक्ता जो अनित्यत्वकी हेतु है, वह नहीं है । उसके अभावमें नित्यका होना प्रास हुआ और नित्य की उत्पत्ति है नहीं, अनुत्पत्तिसे प्रत्यवस्थान होनेसे अनुत्पत्तिसम हुआ। (श्लो वा ४/न्या. ३७३/५१/४) । अनुत्पादनोच्छेद-दे. व्युच्छित्ति । अनत्सेक-स सि/६/२६/३४० विज्ञानादिभिरुत्कृष्टस्यापि सतस्त
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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