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अनुकंपा
दुहि
अनुकंपा का // ११०/२०१ तिसिद्धं भूरिख दमणोपकिनला तमेशा हारि अणुकपा ॥ तृषातुर, क्षुधातुर अथवा दुखीको देखकर जो जीव मनमें दुख पाता हुआ उसके प्रति करुणामे वर्तता है, उसका वह भाव अनुकम्पा है।
ससि (९ / १२ / ०२० अनुग्रहाकृतचेतम परपीड
कम्पनमनुकम्पा अनुग्रहमे दमाई बिनाले दूसरेको पीडाको अपनी ही माननेका जो भाव होता है, उसे अनुकम्पा कहते है। (रा वा / ६ / १२,३ / ५२२/१६) । रावा / २ / २.३० / २२/१
मेत्री अनुसा
मा अनुकम्पा है। प्रसा/ता वृ / २६८ तृषित वा वुभुक्षित वा दु खितं वा दृष्ट्वा कमपि प्राणियो ह्रिस्फुट दु खितमना मन् प्रतिपद्यते स्वाकराति दयापरिणामेन तस्य पुरुषस्येपा प्रत्यवीभूता शुभाषयागरूपानुकम्पा दया भवतीति । =प्यासेको या भूखेको या दुवित किसी भी प्राणीको देखकर जो स्पष्टत दुखित मन होकर दया परिणामके द्वारा (उनकी सेवा आदि) स्वीकार करता है, उस पुरुषके प्रत्यक्षीभूत शुभोपयोग रूप यह दया या अनुकम्पा होती है ।
४६५०अनुकम्पा कृपा ज्ञेया सर्वमेवनुग्रह मेत्रीभावोऽथ माध्यस्थ ने शल्य बेरवर्जनात् ॥ ४४६ ॥ समता सर्वभूतेषु यानुकम्पा परत्र सा । अर्थत स्वानुकम्पा स्याच्छत्यवच्छयवर्जनात् || १५० || अनुकम्पा शन्दका अर्थ कृपा समझना चाहिए अथवा वर के त्यागपूर्वक सर्व प्राणियों पर अनुग्रह, मंत्रीभाव, माध्यस्थभाव और अन्य रहित वृत्ति अनुकम्पा कहलाती है ॥ ४६ ॥ जा सब प्राणियो में समता या माध्यस्थभाव और दूसरे प्राणियोके प्रति दयाका भाव है वह सब वास्तव में शल्यके समान राज्यके त्याग होनेके कारण स्त्रानुकम्पा ही है ॥ १५० ॥
द पा./२/१ जयचन्द "सर्व प्राणीनि विषे उपकारकी बुद्धि तथा मैत्री भात्र सो अनुकम्पा है, सो आप ही विषे अनुकम्पा है"।
१. अनुकम्पाके नेव
भ आ / वि / १८३४ / २६४३/३ अनुकम्पा त्रिप्रकारा धर्मानुकम्पा, मिश्रानुकम्पा, सर्वानुकम्पा चेति । अनुकम्पा या दया इसक तोन भेद है-धर्मामधानुकरण और सर्वानुकम्प
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२. अनुकम्पाके भेदोके लक्षण
भानि १८०४ / १६४१/२ त धर्मानुकम्पा नाम परिश्यासयमेषु मानवमातामाता समानान्ते यान्त करणेषु मातर्गमव मुक्तिमाश्रितेषु परिहृतोप्रकषायविषयेषु दिव्येषु भोगेषु दोषान्विचिन्त्य विरागतामुपगतेषु मसारमहासमुद्रामेन निशास्त्रेषु, अगीकृतनिस गत् समादियाविध धर्मपरिणयनुकम्पया धर्मानुकम्पा यया युक्तो जनो विवेकी तद्योग्यान्नपानावसथेषणादिक सयमसाधनं यतिभ्य प्रयच्छति । स्वामिनि शक्ति उपसोपानपसारयति म करोति भ्रष्टमा पन्थानमुपदर्शयति से प्रयोगमवाप्य अहो पुण्यात हृष्यति समास तेषाम् गुणान् की पतिस्मा गुरु मिव पश्यति तेषा गुणानामभीक्ष्णं स्मरात महात्मभिकामम समागमति से संयोग समीप्सति तदीयान् गुणादपरेर भिवयंमानान्निशम्य तुष्यति । इत्थमनुकम्पापर साधुर्गुणानुमननानुकारी भवति । त्रिधा च सन्तो बन्धमुपदिशन्ति स्वयं कृते करणाया, पर कृतस्यानुमतेश्च एतो महागुजरातिर्षा महाद] पुण्यास मिश्रानुकम्पोच्यते पृथुपापकर्म मूलेभ्यो हिसादिभ्यो व्यावृता' सतोषवैराग्यपरमनिरता दिविरति देशविरति अनर्थदण्डविरति घोषगतास्तदोषात् भोगोपभोगान्निवृत्य शेषे च भोगे कृतप्रमाणा' पापापरिमोचिता विशिष्ट काले जिससमा पस्या
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अनुकंपा
रम्भयोग सकलं विसृज्य उपवास ये कुर्वन्ति तेषु संयतासंयतेषु
माजी कृत्याकृरस्नाम बुध्यमाना जिनावाह्या येऽम्यपारमहरताना कष्टानि सन्ति यमाणायासपि कर्म चिनोति देशप्रवृतिगृहिणाममा विस्वदोषोपहतोऽन्यधर्म इरमेषु मिश्रा भवति धर्मो मिश्रानुकम्पामत्रगच्छेज्जन्तु । सदृष्टयो वापि कुश्या स्वभावतो मार्दवसप्रयुक्ता । या कुर्वते सर्वकारी र बर्गे सर्वानुमायमानश् मममा निरेनमा वा परि मृगान्गा सरीसृपालु पशु मामादि निमित्त प्रहन्यमानात् परलोके परस्परं वातान् हिंसतो दृष्ट्वा सूक्ष्मात् कृत्यु पिपीलिकाप्रभृतिप्राणभृतो मनु कम्भयग्रभ रितुरगादिभिः समृयमानानभिवीक्ष्य असाध्यरोगोपरिमाना मृतोऽस्मि नही रोगानु धूयमानान्वादिभिराकालि (1) सहसा विज् स्वानश्नतम शोक्न उपाय मानान् प्रनष्टबन्धू पर्यशिल्पविद्याहीनात्यात्प्रज्ञाप्रशाशकान् निरीक्ष्य दु खमात्मस्थमिव विचिन्त्य स्वास्थ्यमुपशमनमनुकम्पा । १. धर्मानुकम्पा - जिन्होने असंयमका त्याग किया है। मान अपमान, सुख, दु ग्व, लाभ, अलाभ तृण, स्वर्ण इत्यादिकोंमें जिनका बुद्धि रागद्वेष रहित हो गयी है, इन्द्रिय और मन जिन्होंने अपने किये है, माता की भाँति युक्तिका जिन्होने आश्रय लिया है, उग्र पाय विषयका जिन्होने छोड़ दिया है, दिव्य भोगोंको दापयुक्त देखकर जो वैराग्य युक्त हो गये है, ससार समुद्रकी भीति से रात में भी अल्प निद्रा लेनेवाले है। जिन्होने सम्पूर्ण परिग्रहको छोड़करनि सगता धारण की है, जो क्षमादि दस प्रकारके धर्मों में इतने तत्पर रहते है कि मानो स्वयं क्षमादि दशधर्म स्वरूप ही भने हों, ऐसयमी मुनियों के ऊपर दया करना, उसको धर्मानुरूपा कहते है । यह अन्तकरण में जब उत्पन्न होती है तब विवेकी गृहस्थ प्रतियोंको योग्य अन्नजल, निवास, औषधादिक पदार्थ देता है। अपनी दाक्तिको छिपाकर वह मुनिके उपसर्गको दूर करता है। हे प्रभो आज्ञा दीजिए, ऐसी प्रार्थना कर सेवा करता है। यदि कोई मुनि नागभ्रष्ट होवर दि हो गये हों तो उनको मार्ग दिखाता है। मुनियोका संयोग प्राप्त होनेसे 'हम धन्य है' ऐसा समझकर मनमें आनन्दित होता है, सभामें उनके गुणोंका कीर्तन करता है । मनमें मुनियोको धर्मपिता व गुरु समझता है। उनके गुणोंका चिन्तन सदा मनमें करता है, ऐसे महात्माओका फिर कम सयोग होगा ऐसा विचार करता है, उनका सहवास सदा ही होनेकी इच्छा करता है, दूसरो के द्वारा उनके गुणोका वर्णन सुनकर सन्तुष्ट होता है। इस प्रकार धर्मानुकम्पा करनेवाला जीव माधुके गुणोंको अनुमोदन देने बाला और उनके गुणोका अनुारण करनेवाला होता है। जाचार्य बन्धके तीन प्रकार कहते है-अच्छे कार्य स्वय वरना, कराना और करनेवालोको अनुमति देना, इससे महान् पुण्यामव होता है, क्योंकि महागुणों मे प्रेम धारण कर जो कृत कारित और अनुमोदन प्रवृत्ति हासी है वह महाराष्यको उत्पन्न २. मिश्रा महा पाठकों के मूल कारण रूप हिंसादिको रिक्त होकर अर्थादि अनुमती वनकर सन्तोष और वैराग्यमें तत्पर रहकर जो दिग्विरति देशविरति और अनर्थ दण्डत्याग इन अणुव्रतोंको धारण करते हैं, जिनके सेवन से महादोष उत्पन्न होते है ऐसे भोगोपभोगोंका त्यागकर बाको भोगोपभोगकी वस्तुओका जिन्होने प्रमाण किया है. जिनका मन पाप से भय युक्त हुआ है, पापसे डरकर विशिष्ट देश और कालकी मर्यादा कार जिन्होने सर्व पापोका त्याग किया है अर्थात जो सामायिक करते है, पोंके दिनमें सम्पूर्ण आरम्भका त्याग कर जो उपवास करते है, ऐसे सयतासयत अर्थात् गृहस्थोंपर जो दया की जाती है उसको धानुकम्पा कहते है जो जीर दया करते है, परन्तु दयाका पूर्ण स्वरूप जो नही जानते हैं, जो जिन
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