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अचेलकत्व
अचेलकत्व
रहता है। जितने तीर्थकर हो चुके और होनेवाले हैं वे सब वस्त्ररहित होकर ही तप करते हैं । जिनप्रतिमाएँ और तीर्थ करों के अनुयायी गणधर भी निर्वस्त्र ही हैं। उनके सर्व शिष्य भी वस्त्र रहित ही होते हैं ।...नग्नतामें अपना बल और वीर्य प्रगट करना वह गुण है।... नग्नतामें दोष तो है ही नहीं परन्तु गुणमात्र अपरिमित हैं।
* कदाचित स्त्रीको नग्न रखनेकी आज्ञा दे. लिंग १/४ ।
उसके निर्दोष अचेलवत होता है । (रा. वा./8/8/१०/०६/२६) (चा. सा./१११/५ । * द्रव्यलिंगकी प्रधानता व भावलिंगके साथ समन्वय
दे. लिंग ४। * सवस्त्र मुक्तिका निषेध-दे. वेद ७ । २. अचेलकत्वके कारण व प्रयोजन भ. आ./वि./४२१४६१०-६१९/४ अचेलो यतिस्त्यागारव्ये धर्म प्रवृत्ती भवति। आकिंचन्याख्ये अपि धर्मे समुद्यतो, भवति...असत्यारम्भे कुतोऽसयमः । न निमित्तमस्त्यनृताभिधानस्य । 'लाधवं च अचेलस्य भवति । अदत्तविरतिरपि सपूर्णा भवति ।.. रागादिके त्यक्ते भावविशुद्धिमयं ब्रह्मचर्यमपि विशुद्धतमं भवति ।...चोत्तमाक्षमा व्यवतिष्ठते ।...मार्दवमपि तत्र सन्निहितं ।...आर्जवता भवति... सोढाश्चोपसर्गाः निश्चेलतामभ्युपगच्छता। तपोऽपि घोरमनुष्ठित भवति । एवमचेलवोपदेशेन दशविधधर्माख्यानं कृतं भवति संक्षेपेण । अन्यथा प्रकम्यते अचेलताप्रशंसा। संयमशुद्धिरेको गुण ।...इन्द्रियविजयो द्वितीयः ।...कषायाभावश्च गुणोऽचेलतायाः। ध्यानस्वाध्याययोरविघ्नता च ।...ग्रन्थत्यागश्च गुणः ।...शरीर आदरस्त्यक्त.... स्ववशता च गुणः । चेतोविशुद्धिप्रकटनं च गुणोऽचेलतायो...। निर्भयता च गुणः...1 अप्रतिलेखनता च गुणः । चतुर्दशविधं उपधि, गृह्णता बहुप्रतिलेखनता न तथाचेलस्य । परिकर्मवजनं च गुणः ।... रब्जनं इत्यादि कमनेक परिकर्म सचेलस्य। स्वस्य वस्त्रप्रावरणादेः स्वयं प्रक्षालन सीवनं वा कुत्सितं कर्म, विभूषा, मूर्छा च । लाघवं गुणः । अचेलोऽल्पोपधिः स्थानासनगमनादिकाम क्रियासु वायुक्दप्रतिबद्धो लघुर्भवति नेतरः । तीर्थकराचरितत्वं च गुणः जिनाः सर्व एवाचेलाभूता भविष्यन्तश्च । 'प्रतिमास्तीथंकरमार्गानुयायिनश्च गणधरा इति तेऽप्यचेलास्तच्छिष्याश्च तथै बेति सिद्धमचेल त्वम् ।... अतिगूढबलवीर्यता च गुणः । इत्थं चेले दोषा अचेलताया अपरि. मिता गुणा इति ।- वस्त्र रहित यति सर्व परिग्रहका त्याग होनेसे त्याग नामक धर्ममें प्रवृत्त होता है। आकिचन्य धर्म में प्रवृत्त होता है। आरम्भका अभाव होनेसे असंयम भी नष्ट हो चुका है। असत्य भाषण का कारण ही नष्ट हो गया है। आचेलक्यसे लाघवगुण प्राप्त होता है । अचौर्य महाबतको पूर्णावस्था प्राप्त होती है।...रागादिकका त्याग होनेसे परिणामों में निर्मलता आती है, जिससे ब्रह्मचर्यका निर्दोष रक्षण होता है।.. और उत्तमक्षमा गुण प्रगट होता है ।...मार्दव गुण प्राप्त होता है । आर्जव गुणकी लब्धि होती है। 'उपसर्ग व परिषह सहन करने की सामर्थ्य आत्मामें प्रगट होती है।...घोर तपका पालन भी होता है। अचेलता की प्रशंसा अब दूसरे प्रकारसे आचार्य कहते हैं --संयम शुद्धि होती है...इन्दियविजय नामक गुण प्रगट होता है।...लोभादिक कषायोंका अभाव होता है ।...ध्यान स्वाध्याय निर्विघ्न होते है।...परिग्रहत्याग नामका गुण प्रगट होता है। इससे धारमा निर्मल होता है । 'शरीरपर अनादर करना यह गुण है ।... स्ववशता गुण प्रगट होता है । "मन की विशुद्धि प्रगट हातो है।... निर्भयता गुण प्रगट होता है। अप्रातिलेखना नामक गुण भी निष्परिग्रहताते प्राप्त होता है । चौदह प्रकारकी उपाधियों को ग्रहण करनेवाले श्वेताम्मर मुनियों को बहुत संशोधन करना पड़ता है, परन्तु दिगम्बर मुनियों को उसकी आवश्यकता नहीं। परिकमबखन नामका गुण है।..रंगाना इत्यादिक कार्य वन सहित मुनिका करने पड़ते हैं।... स्वतः के पास वख प्रावरणादिक हो तो उसको धोना पड़ेगा, फटनेपर सोना पड़ेगा, ऐसे कुत्सित कार्य करने पड़ेंगे तथा वस्ख समोप होनेसे अपनेको अलंकृत करनेकी इच्छा होती है। और इसमें मोह उत्पन्न होता है। अचेलतामें लाघब नामक गुण है। निवस्त्र मुनि खड़े रहना, बैठना, गमन करना इत्यादिक कार्योमे वायु के समान अप्रतिमन रहते हैं। तीर्थ कराचारत नामका गुण भी अचेलतामें
३. कदाचित परिस्थितिवश वस्त्र ग्रहणकी आज्ञा भ, आ./वि./४२१/११/१८ अथैवं मन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम् । तथा ह्याचारप्रणिधौ भणितम्- “प्रतिलि खेत्पात्रकम्बलंधवमिति । असत्सु पात्रादिपु कथं प्रतिलेखना ध्रव क्रियते ।"..'वस्त्रपात्रे यदि न ग्राह्ये कथमेतानि सूत्राणि नीयन्ते। निषेधेऽप्युक्त-"कसिणाई वत्थ कंबलाइं जो भिक्रनु पडिग्गहिदि पज्जदि मासिग लहुगं" इति । एवं सुत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कथं इत्यत्रोच्यते-आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्ख' कारणापेक्षया। भिक्षूणां ह्रीमानयोग्यशरीरावयवी दुश्चर्माभिलम्बमानबीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति ।... हिमसमये शीतबाधासहः परिगृह्य चेलं तस्मिन्निष्क्रान्ते ग्रीष्मे समायाते प्रतिष्ठापयेदिति । कारणापेक्ष्यं ग्रहणमाख्यातम् । परिजीर्णविशेषोपादानादृढानामपरित्याग इति चेत् अचेलतावचनेन विरोधः। प्रक्षालनादिकसंस्कारविरहात्परिजीर्णता वस्त्रस्य कथिता '...अचेलता नाम परिग्रहत्यागः पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्यागः सिद्ध एवेति। तस्मात्कारणापेक्षं वस्त्रपात्रग्रहणम्। यदुपकरणं गृह्यते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहणविधिः गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यमेव । तस्माद्वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारापेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् । = प्रश्न- पूर्वागमों में वस पात्रादिकके ग्रहण करनेका विधान मिलता है। आचारप्रणिधि नामक ग्रन्थमें लिखा है-"पात्र और कम्बलको अवश्य शोधना चाहिए। अर्थात उनका प्रतिलेखन आवश्यक है"। यदि वस्त्र पात्रादिकका विधान न होता तो प्रतिलेखना निश्चयसे करनेका विधान क्यों लिखा होता! ( आचारोग आदि सूत्रों में भी इसी प्रकारके अनेकों उद्धरण उपलब्ध होते हैं) वख पात्र यदि 'ग्राह्य नहीं है' ऐसा आगममें लिखा होता तो इन सूत्रों का उल्लेख के से होता। वख पात्रके सम्बन्धमे ऐसा प्रेमाण है 'सर्व प्रकारके वस्त्र कम्बलोको ग्रहण करनेसे मुनिको लघुमासिक नामक प्रायश्चित्त विधि करनी पड़ती है। इस प्रकार सूत्रों में ग्रहण का विधान है. इसलिए अचेलता या नग्नताका आपका विवेचन कैसे योग्य माना जायेगा ! उत्तर-आगममे आर्यिकाओंको वस्त्र ग्रहण करनेकी आज्ञा है। और कारणकी अपेक्षासे भिक्षुओं को वस्त्र धारण की आज्ञा है। जो साधु लज्जालु हैं, जिसके शरीरके अवयव अयोग्य हैं अर्थात् जिसके पुरुष लिंग पर चर्म नहीं हैं, जिसका लिग अति दीर्घ है। (भ. आ./वि.७७ ) जिसके अण्डकोश दोध हैं, अथवा जो परिषह सहन करने में असमर्थ है वह वस्त्र ग्रहण करता है। जाड़ेके दिनों में जिससे सी सहन होती नहीं है ऐसे मुनिको वख ग्रहण करके जाड़ेके दिन समाप्त होने पर जीर्ण वस्त्र ( पुराने वस्त्र) छोड़ देना चाहिए। कारणकी अपेक्षासे वस्त्र ग्रहण करनेका विधान है (निरर्ग लतावश नहीं)। प्रश्न-जीणं वस्त्रका त्याग करनेका विधान आगममें है इसलिए दृढ़ (मजबूत) या जो अभी फटा नहीं है, वस्त्रका त्याग नहीं करना चाहिए, ऐसा आगमसे सिद्ध होता है। उत्तर-ऐसा कहना अयोग्य है क्योंकि इससे आचार्यके मूल वचन ( मूल गाथामें कथित) अचेलताके साथ विरोध आता है। प्रक्षालन आदि संस्कार न होनेसे वस्त्र जीर्णता आती ही है। इसी अपेक्षासे जीर्णताका कथन किया है। अचेलता शब्दका अर्थ सर्व परिग्रह त्याग है । पात्र भी परिग्रह है, इसलिए उसका भी त्याग करना अवश्य सिद्ध होता है। अतः कारणको अपेक्षासे वस्त्र पात्रका ग्रहण करना सिद्ध होता
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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