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अनंतबीय
(विशेष परिचय - (विशेष परि
अहमिन्द्र हुआ (१२/१६०) (सर्व ४०/२६०३६१) वर्त मान भवमें भगवान् ऋषभदेव के पुत्र तथा भरतचक्रवर्तीके छोटे भाई थे (१६/२) भरतने उन्हें नमस्कार करने को कहा। स्वाभिमानी उन्होने नमस्कार करनेकी बजाय भगवान् के समीप दीक्षा धारण कर ली (३४ / १२६) अन्त में मुक्ति प्राप्त की ( ४७ / ३६६ ) । अनंतवीर्य तकालीन पौषोसये तीर्थकर दे तीर्थंकर ५) २ भाविकालीन चौबीसवे तीर्थंकर चय दे तोर्थंकर / ५) । ३ म पु / सर्ग / श्लो " आप पूर्वके नवमें भव में सागरदत्त के उग्रसेन नामक पुत्र थे" (८/२२३-२२४) फिर व्याघ्र हुए (८/२२६) फिर सातवे भवमे उत्तरकुरुमे मनुष्य हुए ( ८/१० ) वहाँसे फिर छठे भाव में ऐशान स्वर्गमे चित्रांगद नामक देव हुए (६/१८७) फिर पॉचवं भव में विभीषण राजाके पुत्र वरदत्त हुए (१०/१४१) फिर चौथे भव में अच्युत स्वर्ग मे देव हुए (१०/१७२) फिर तोसरे भयमे जय नामक राजकुमार हुए (११/१०) फिर पूर्व के दूसरे भनमे स्वर्गमे अहमिन्द्र हुए (१९/९६०) वर्तमान मे ऋषभनाथ भगवान् के पुत्र तथा भरतके छोटे भाई हुए (१६/३) भरतने इन्हे नमस्कार करने को कहा | स्वाभिमानी इन्होने नमस्कार करनेकी बजाय भगवान् के समीप दीक्षा धारण कर ली तथा सर्वप्रथम मोक्ष प्राप्त किया (२४/१८१) अपर नाम महासेन था । (युगपत् सर्वभव ४७ / ३७९) ४ ( म पु ६२ / श्लोक) वत्सकावती देश प्रभाकरी नगरीके राजा स्तमितसागरका पुत्र था (४१) राज्य पाकर नृत्य देखने में आसक्त होनेसे नारदकी विनय करना भूल गया (४२२-४३०) क्रुद्ध नारदने शत्रु दमितारिको मुद्धार्थ प्रस्तुत किया (४४३ ) इसने नर्तकीका बेश बना उसकी लडकीका हरण कर लिया (४६१-४०३) उसके हो चक्र उसकी मार दिया (४८३-४८४) आगे क्रमसे अर्धचक्री पद प्राप्त किया (५१२) तथा नारायण होनेसे नरकमें गया ( ६३ / २५ ) यह शान्तिनाथ भगवान्के चक्रायुध नामक प्रथम गणधरका पूर्वका नवम भव है - दे, चक्रायुध । ५. अपरनाम अनन्तरथ- दे. अनतरथ । अनन्तवीर्य — द्रविडसंघ नन्दिगण उरुङ्गलान्वय गुणकीर्ति सिद्धान्त
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भट्टारक तथा देवकीर्ति पण्डितके गुरु, वादिराज के दादागुरु, श्रीपाल के सधर्मा, गोणसेन पण्डित के शिष्य श्रवणबेलगोलवासी, न्यायके उद्भट विद्वान् कृतियाँ कृतग्रन्थोके भाध्य सिद्धिविनिश्वयसि प्रमाणसग्रहालंकार । समय-ई ६७५-१०२५ ( ती ३/४०-४१ ) । (दे. इतिहास ६)। अनंतानंत
अनत।
_जीवोकी कषायोको विचित्रता सामान्य बुद्धिका अनंतानुबंधीविषय नहीं है । आगम में वे कषाय अनन्तानुबन्धी आदि चार प्रकारकी बतायी गयी है। इन चारो के निमित्त मृत कर्म भी इन्ही नामवाले है । यह वासना रूप होती है व्यक्त रूप नहीं । तहाँ पर - पदार्थों के प्रति मेरे तेरेपनेकी, या इष्ट-अनिष्टपनेकी जो वासना जीवमें देखी जाती है, वह अनन्तानुबन्धी कषाय है, क्योकि वह जीवका अनन्त ससारसे बन्ध कराती है। यह अनन्तानुबन्धी प्रकृतिके उदयसे होती है । अभिप्रायकी विपरीतताके कारण इसे सम्यक्त्वघाती तथा परपदार्थों में राग-द्वेष उत्पन्न करानेके कारण चारित्रघाती स्वीकार किया है।
१. अनरसानुबन्धीका लक्षण
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स. सि./८/६/३८६ अनन्तसंसारकारणत्वान्मिथ्यादर्शनमनन्तम् । तदनुबन्धिनोऽमन्तानुधन क्रोधमानमायलोमा अनन्त संसारका कारण होनेसे मिथ्यादर्शन अनन्त कहलाता है तथा जो कषाय उसके अनुबन्ध हैं, वे अनन्तानुमन्धी कोष, मान, माया, लोभ है। (रा. वा /८/१२/५०२/१३) |
ध. ६ / १,६ - १,२३/४९/५ अनन्तान् भवाननुबद्ध' शीलं येषां ते अनन्तानुबन्धनको मान माया लोहे हि असहि सह
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अनंतानुबंधी
ण
जोवो असे भने हिदि सि कोह-माणमाया लोहा सबंधी सण्णा ति उत्त होदि । एदेहि जीवम्हि जणिदसरुकारस्स अणं तेसु भवे अवद्वावगमादो। अधवा अणं तो अणुबंधी तेसि कोह- माणमाया लोहा ते समधी कोह-मान-माया लोहा हो सारो अर्थ भने अनुबंध विधि सारो । सो जेसि ते अणताणुबधिणो कोह- माण- माया लोहा । =१ अनन्त भवोको बाँधना ही जिनका स्वभाव है, वे अनन्तानुबन्धो कहनाते है । अनन्तानुबन्धी जो क्रोध, मान, माया, लोभ होते है, वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाते है। जिन अविनष्ट स्वरूपवाले अर्थात् अनादि परम्परागत क्रोध, मान, माया और लोभ के साथ जीव अनन्तभवो में परिभ्रमण करता है उन क्रोध, मान, माया व लोभ कषायोकी ‘अनन्तानुबन्धी' सज्ञा है, यह अर्थ कहा गया है । २. इन कषायो के द्वारा जीव में उत्पन्न हुए सस्कारका अनन्त भवो में अवस्थान माना गया है । अथवा जिन क्रोध, मान, माया. लोभोका अनुबन्ध (विपाक या सम्बन्ध) अनन्त होता है वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोभ कहलाते है । ३, इनके द्वारा वृद्धिगत संसार अनन्त भयो अनुमन्यको नहीं होता है इसलिए 'अनन्तानुबन्ध' यह नाम संसारका है। वह संसारात्मक अनन्तानुबन्ध जिनके होता है वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ है। भ.आ./वि./२६/५५/५ न विद्यते अन्त अवसानं यस्य तदनन्तं मिथ्या
तीन होता अनन्तानुबन्धिनोपमानमामा
लोभा. । -नही पाइये है अन्त जाका ऐसा अनन्त कहिये मिथ्यात्व ताहि अनुबन्धति कहिये आश्रय करि प्रबर्से ऐसे अनन्तानुबन्धीको मान. माया, लोभ है।
गो जी / जी प्र. / २८१/६०८/१० अनन्त संसारकारणादनमा
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अनन्तमसंस्कारकाल वा अनुबध्नन्ति संघटयन्तीत्यनन्तानु बन्धिन इति निरुक्तिसामर्थ्यात् । अनन्त संसारका कारण मिध्यात्व वा अनन्त संसार अवस्था रूप काल ताहि अनुबध्नन्ति कहिए सम्बन्ध रूप करें तिनिको अनन्तानुबन्धी कहिए। ऐसा निरुक्तिसे अर्थ है । दपा / २ / पं जयचन्द "जो सर्वथा एकान्त तत्त्वार्थ के कहनेवाले जे अन्यमत, जिनका श्रद्धान तथा बाह्य वेष, ता विषै सत्यार्थपनेका अभिमान करना, तथा पर्यायनि विषै एकान्त ते आत्मबुद्धि करि अभिमान तथा प्रीति करनी, यह अनन्तानुबन्धीका कार्य है । (स.सा./२०/क. १३७/६ जयचन्द ) |
२. अनन्तानुबन्धीका स्वभाव सम्यक्त्वको घातना हैपं. सं. प्रा / २ / ११५ पढमो दंसणघाई विदिओ तह घाइ देसविरह ति । तइओ सजमघाई चउत्थो जहखायघाईया | =प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शनका घात करती है, द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशविरतिकी घातक है। तृतीय प्रत्याख्यानावरण कषाय सकलसयमकी घातक है और चतुर्थ संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्रकी घातक है। ( पं. स.प्रा./१/११०) (गो.जी./मू./ २८३/६०८ ) ( गो . क./मू ४५ ) ( प सं . सं. ९ / २०४ २०५ ) - दे. सासादन २ / ६ ।
३. वास्तव में यह सम्यक्त्व व चारित्र दोनोको घातती हैध. १/१.१,१०/१६५/१ अनन्तानुबन्धिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपादनफलस्वात् यस्माच विपरीताभिनिवेशो माधो न रह र्शनमोहनीय तस्य चारित्रावरणत्वात् । तस्योभयप्रतिबन्धकत्वादुभयव्यपदेशो न्याय्य इति चेन्न इष्टत्वात् । - अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोकी द्विस्वभावताका कथन सिद्ध हो जाता है तथा जिस अनन्तानुबन्धीके उदयसे दूसरे गुणस्थान में विनिवेश होता है. यह अनानुवन्धी दर्शन मोहनीयका भेद न होकर पाना जान
करनेवाला होने चारित्र मोहनीयका भेद है। प्रश्न- अनन्ता बन्धी सम्यक् और चारित्र इन दोनोंका प्रतिबन्धक होनेसे उसे उभयरूप सज्ञा देना न्याय संगत है ? उत्तर-- यह आरोप ठीक
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