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अनवस्थित
अनवस्थित—अवधिज्ञानका एक भेद-दे अवधिज्ञान १ । अनशन - यद्यपि भूखा मरना कोई धर्म नही, पर शरोरसे उपेक्षा हो जानेके कारण, अथवा अपनी चेतन वृत्तियोको भोजन आदिके बन्धनयुक्त करनेके लिए, अथवा सुधा आदिने भो साम्परसमे च्युत न होने रूप आत्मिक बल की वृद्धिके लिए किया गया अशनका त्याग मोक्षमार्गीको अवश्य श्रेयस्कर है। ऐसे ही त्यागका नाम अनशन तप है. अन्यथा तो कोरा लघन है, जिससे कुछ भी सिद्धि नही ।
१. अनशन सामान्यका निश्चय लक्षण काम-दिन-भय-पर-तोय- सोमव रिक्खा। अप्पाणे विय णिवसई सज्झाय-परायणो होदि ॥ ४४० कम्माम जर आहार परिहरेह लोलाए एम-दिनादि-प्रमाणं तस्स तव अणसण हादि। जो मन और इन्द्रियोको जीतता है, इस भव और परभवके विषय सुखकी अपेक्षा नहीं करता, अपने आत्मसुखमें ही निवास करता है और स्वाध्याय में तत्पर रहता है ॥४४०|| उक्त प्रकारका जो पुरुष क्र्मोकी निर्जराके लिए एक दिन वगैरहका परिमाण करके लीला मात्र से आहारका त्याग करता है, उसके अनशन नामक तप होता है ॥४४१ ॥
प्र सा / त प्र / २२७/२७५ यस्य सकलकालमेव सकलपुद्गलाहरणशून्यमात्मानमत्रबुद्वयमानस्त्र सक्लाशनतृष्णा शून्यत्वात्स्वग्रमनशन एव स्वभाव । तदेव तस्यानान नाम तपाऽन्तरङ्गम्य बलीयस्त्वात् ।
- सदा ही समस्त पुद्गलाहारसे शून्य आत्माको जानता हुआ समस्त अनशन तृष्णा रहित हानेमें जिसका स्वयं अनशन ही स्वभाव है, वही उसके अनशन नामक तप है, क्योकि अन्तर गकी विशेष बलवत्ता है ।
२. अनशन सामान्यका व्यवहार लक्षण रावा / ६ /१६.१/६२८/१० चिन्न मन्त्रसाधनाद्यनुदिश्य क्रियमाणमुपमनमनमािधनादिष्ट फको अपेक्षा
के बिना किया गया उपवास अनशन कहलाता है। (चा सा./१३४/१) । भ. आ / वि / ६ / ३२/१४ = अनशनं नाम अशनत्याग । स च त्रिप्रकार मनसा भुजे, भाजयामि, भाजने व्यापृतस्यानुमति करोमि । भुजे भु, पचन कृति वचसा तथा चतुर्विधस्याहारस्याभिसंधि पूर्वकं कायेनादान हस्तमज्ञाया प्रवर्तन अनुमतिचनं कायेन । एतेषा मनावाक्कायक्रियाणा कर्मोपादानकारणानां त्यागोऽनशन चारित्रमेव । चार प्रकारके आहारोका त्याग करना इसको अनशन कहते है । यह अनशन तोन प्रकारका है। मै भोजन करू, भोजन कराऊँ, भोजन करनेवालेको अनुमति देऊ, इस तरह मनमें संकल्प करना नै आहार लेता हूँ तू भोजन कर, तुम भोजन पकाओ ऐसा बचनसे कहना, चार प्रकारके आहारको सकल्प पूर्वक शरीरसे ग्रहण करना, हाथ से इशारा करके दूसरेको ग्रहण करने में प्रवृत्त करना, आहार ग्रहण करनेके कार्य में शरोरसे सम्मति देना ऐसी जो मन, वचन, कायको कर्म ग्रहण करने में निमित्त होने वाली क्रियाएँ उनका त्याग करना उसको अनशन कहते है ।
ध १३ / ५.४२६/५७ / १ तत्थ चउत्थ छट्ठम- दसम दुवाल स पक्ख - मास उडु अयण सवच्छ रेसु एसणपरिचाओ अणेसणं णाम तवो। =चौथे, छठे, आठवे, दसवे और बारहवे एषणका ग्रहण करना तथा एक पक्ष. एक मास. एक ऋतु एक अयन अथवा एक वर्ष तक एषणका त्याग करना अनेषण नामका तप है।
बन. ७/९९/६६४ चतुर्याचवर्षात उपवासोऽथवामृते। भुक्तिश्च मुक्त तपाऽनशनमिष्यते ॥११॥ कर्मोंका उद्देश्य से भोजनका त्याग करनेको अनशन तप कहते है। २. अनशन रूपके भे
भ. आ / / २०६ अद्धाणसण सव्वाणसण दुविहं तु अणसणं भणियं । - अर्धानशन और सर्वानशन ऐसे अनशन तपके दो भेद है।
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सकृद्र करने के
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यू. ला / १४० इतिरियं जायजा दुविह पूर्ण असणं मुणे - अनशन तपके दो भेद है- इतिरिय तथा यावज्जीव । रा. वा / १/२६.२/६१८/१८ तह विविधतानव कालभेदात अनशन अनवधृत और अवधृतकालके भेदसे दो प्रकारका होता है । (चासा / १३४/२) | अन घ. /७/९९/८६५
अनशन
॥१४०॥
वह
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यह दो प्रकार होता है - सदतिया प्रोष तथा दूसरा उपवास । उपवास दो प्रकारका माना है- अवधृत काल और अनवधृतकाल ।
४. अनशनके भेदोके लक्षण
अवधृत काल अनशनका लक्षण सूला / २४०-२४८ इतिरियमानाम् ॥ ४७॥ मदसमवादसहि मासमासखमणाणि । कणगेगावलि आदी नबोविहाणाणि णाहारे |॥ ३४८ ॥ कालकी मर्यादासे इतिरिय होता है ॥ ३४७॥ अर्थात् एक दिनमें दो भोजन बेला कही है। चार भोजन वेलाका त्याग उसे चतुर्थ उपवास कहते है । छ भोजन वेलाका त्याग वह दो उपवास कहे जाते है । इसीको षष्ठम तप कहते है । षष्टम, अष्टम दशम, द्वादश, पद्रह दिन, एक मास त्याग, कनकावली. एकावली, मुरज, मद्य विमानपंक्ति, सिहनी क्रीडित इत्यादि जो भेट जहाँ है वह सब साकांक्ष अनशन तुप है ॥ ३४८ ॥ इसीको अवधृत काल अनशन तप कहते हैं । (चासा / १३४ / २) |
रावा / २ /१६.२/६१८/२०
समृद्ध
वटा चतुर्थभादि । - एक बार भोजन या एक दिन पश्चात भोजन नियतकालीन अनशन है।
भजन (२०६/४२४/१३ कदा तदुभयमिeas कालाव रन्तस्य ग्रहणप्रतिसेवनकालयोर्वर्तमानस्य अद्वानशनं । = = ग्रहण और प्रतिसेवना काल में अद्वानशन तप मुनि करते है । दीक्षा ग्रहण कर जब तक सन्यास ग्रहण किया नहीं तब तक ग्रहण काल माना जाता है। तथा व्रतादिको में अतिचार लगनेपर जो प्रायश्चित्त से शुद्धि करनेके लिए कुछ दिन अर्थात् षष्ठम, अष्टम आदि अनशन करना पडता है, उसको प्रतिसेवनाकाल कहते है ।
अनघ / ७ /११ / ६६५ वह अनशन दो प्रकारका होता है - सकृद्धभुक्ति अर्थात् प्रोषध तथा दूसरा उपवास दिनमें एक बार भोजन करनेको प्रोषध और सर्वथा भोजनके परिहारको उपवास कहते हैं। उसमें अवधृतकाल उपवासके चतुर्थ से लेकर षाण्मासिक तक अनेक भेद होते है ।
२. अनवधूत काल या सर्वानशनका लक्षण
मूला. / ३४६ भत्तण्हण्णा इंगिणि पाउबगमणाणि जाणि मरणाणि । अण्णेवि एवमादी बोधव्वा णिरवकखाणि ॥ ३४६ ॥ भक्तप्रत्याख्यान, इगिनीमरण. प्रायोपगमनमरण अथवा अन्य भी अनेकों प्रकारके मरणों में जो मरण पर्यन्त आहारका त्याग करना है वह निराकांक्ष कहलाता है।
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रामा / २ / ११.२/१८/२० अनवधूतकाल मादेहो परमात्। शरीर छूटने तक उपवास धारण करना अनियमित काल अनशन कहलाता है । (पासा / ११४/३) (बन /७/१९/६४) (भ. खा / वि. / २०१/४२)। ५. सर्वानशन तप कब धारण किया जाता है
भ आ./वि/२०६/४२५/१४ परित्यागोत्तर कालो जीवितस्य य सर्वकाल' तस्मिन्ननशनं अशनत्याग' सर्वानशनम् ।.. चरिमते परिणामकालस्यान्ते । मरण समयमें अर्थात् संन्यास कालमे मुनि सर्वानशन तप करते हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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६. अनशनके अतिचार
भ आ / वि. / ४८७७०७ / १ तपसोऽनशनादेरतिचार' । स्वयं न भुटते अन्यं भोजयति, परस्य भोजनमनुजानाति मनसा वचसा कामेन च । स्वयं क्षुधापीडित आहारमभिलषति । मनसा पारणां मम कः प्रयच्छति क मा उपस्यामीति चिन्ता अनशनातिचार-स्वयं
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