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अनर्थदंड
अनवस्थाप्य
पु. सि. ११४४ असिधेनुविषहुताशनलागलकरवालकार्मुकादीनाम् । वितरणमुपकरणानां हिंसाया परिहरेद्यत्नात। - असि, धेनु, जहर, अग्नि, हल, करवाल, धनुष आदि अनेक हिंसाके उपकरणोंको दूसरोंको माँगा देनेका त्याग करना, हिंसाप्रदान अनर्थदण्ड है। का अ./मू./३४७ मज्जार-पहुदि-धरण आउह-लोहादि-विकण ज च । लक्खा-खलादि-गहणं अणत्थ-दण्डो हवे तुरिओ ॥३४७।- बिलावादि हिंसक जन्तुओंका पालना, लोहे तथा अस्त्र-शस्त्रोका देना-लेना और
लाख, विष वगैरहका लेना-देना चौथा अनर्थदण्ड है। सा, ध/५/८ हिंसादानविषास्त्रादि-हिंसाङ्गस्पर्शन त्यजेत। पाकाद्यर्थ च नाग्न्यादिदाक्षिण्याविषयेऽर्प येव । -विष या हथियार आदि हिंसाके कारणभूत पदार्थोंका देना हिसादान नामक अनर्थदण्ड व्रत कहलाता है । उस हिंसादान अनर्थदण्डको छोड देना चाहिए। जिससे अपना व्यवहार है ऐसे पुरुषोंसे भिन्न पुरुषोंके विषयमें पाकादिके लिए अग्नि नही देवे।
५ दु श्रुति अनर्थदण्ड र क.श्रा/७१ आरम्भसंगसाहसमिथ्यावद्वेषरागमदमदनै । चेत: कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुश्रुतिर्भवति ॥ ७९ ॥ -आरम्भ, परिग्रह, दुसाहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, गर्व, कामवासना आदिसे चित्तको क्लेषित करनेवाले शास्त्रोंका सुनना-बाँचना सो दु श्रुति नामा अनर्थदण्ड है। स सि./७/२१/३६० हिंसारागादिप्रबनदुष्टकथाश्रवणशिक्षणव्यापृतिर
शुभश्रुति। -हिंसा और राग आदिको बढानेवाली दुष्ट कथाओका सुनना और उनकी शिक्षा देना अशुभश्रुति नामका अनर्थदण्ड है। (रा. वा./७/२१,२१/५४६/१७) (चा. सा /१७/४ )। पु.सि । १४५ रागादिवर्द्धनानौ दुष्टकथानामबोधबहुलानाम् । न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि ॥१५॥ रागद्वेष आदिक विभाव भावोंके बढानेवाली, अज्ञान भावसे भरी हुई दुष्ट कथाओंको सुनना, बनाना, एकत्रित करना, या सीखना आदिका त्याग करनेका नाम दु'श्रुति अनर्थदण्ड व्रत है। का.अ/मू./३४८ ज सवर्ण सत्थाण भंडण-वासियरण-काम-सस्थाणं। परदोसाणं ज तहा अणत्थ-दण्डो हवे चरिमो। ३४८। -जिन शाखों या पुस्तकोंमें गन्दे मजाक, वशीकरण, कामभोग बगैरहका वर्णन हो उनका सुनना और परके दोषों की चर्चा वार्ता सुनना पाँचवाँ अनर्थदण्ड है। सा.ध.// चित्तकालुष्यकृरकाम-हिंसाद्यर्थश्रुतश्रुतिम् । न दुःश्रुतिमपध्यानं, नार्तरौद्रारम चान्वियात् ।। =अनर्थदण्डवतका इच्छुक श्रावक चित्त में कालुष्यता करनेवाला जो काम तथा हिसा आदिक हैं तात्पर्य जिनके ऐसे शास्त्रोके रूप दुःश्रुति नामक अनर्थदण्डको नहीं करे और आर्त तथा रौद्र ध्यान स्वरूप अपध्यान नामक अनर्थदण्डको नहीं करे।
३. अनर्थदण्डवतके अतिचार त.सू /७/३२ कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमोक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थ क्यानि ।-१ हास्ययुक्त अशिष्ट बचनका प्रयोग, २. कायकी कुचेष्टा सहित ऐसे बचनका प्रयोग, ३. बेकार बोलते रहना, ४. प्रयोजनके बिना कोई न कोई तोड-फोड करते रहना या काव्यादिका चिन्तबन करते रहना, ५. प्रयोजन न होनेपर भो भोग-परिभोगकी सामग्री एकत्रित करना या रखना, ये पाँच अनर्थदण्ड बतके अतिचार है। (र. क. श्रा./८१)। ४. भोगपभोग परिमालवत व भोगोपभोग आनर्थक्य
नामक अतिचारमें अन्तर रा.बा.//३२.६-७/५५६/२६ यावताऽर्थन उपभोगपरिभोगौ प्रकल्प्येतेतस्य ताबानर्थ इत्युच्यते, ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थ क्यम् ।।...स्यादेतत्--- उपभोगपरिभोगवतेऽन्तर्भवतीति पौनरुक्त्यमासज्यत इति; तन्न कि
कारणम् । तदर्थानवधारणा। इच्छावशात् उपभोगपरिभोगपरिमाणावग्रह सावधप्रत्याख्यान चेति तदुक्तम, इह पुन' कल्प्यस्यैव आधिक्य मित्यतिक्रम इत्युच्यते । नन्वेवमपि तद्भवतातिचारान्तर्भावात् इद वचनमनर्थकम् । नानर्थ कम, सचित्ताद्यतिक्रमवचनात ।-जिसके जितने उपभोग और परिभोगके पदार्थोसे काम चल जाये वह उसके लिए अर्थ है, उससे अधिक पदार्थ रखना उपभोगपरिभोगानर्थवय है। प्रश्न-इसका तो उपभोग परिभोगपरिमाणवतमें अन्तर्भाव हो जाता है अत इससे पुनरुक्तता प्राप्त होती है। उत्तर--नहीं होती, क्योंकि इसका अर्थ अन्य है। उपभोग परिभोगपरिमाणवतमें तो इच्छानुसार प्रमाण किया जाता है और सावद्यका परिहार किया जाता है, पर यहाँ आवश्यकताका विचार है। जो संकल्पित भी है पर यदि आवश्यकतासे अधिक है तो अतिचार है। प्रश्न-तम इसका अन्तर्भाव भोगपरिभोग-परिमाणवतके अतिचारमें हो जानेसे यह कथन निरर्थक है । उत्तर-निरर्थक नहीं है क्योकि वहाँ सचित्त सम्बन्ध आदि रूपसे मर्यादातिकम विवक्षित है, अत इसका वहाँ कथन नहीं किया।
५. अनर्थदण्डवतका प्रयोजन रा वा/७/२१,२२/५४६/१६ दिग्देशयोरुत्तरयोश्चोपभोगपरिभोगयोरवधृतपरिमाणयोरनर्थक चड्क्रमणादिविषयोपसेवनं च निष्प्रयोजन न कर्तव्यमितिरेकनिवृत्तिज्ञापनार्थ मध्येऽनर्थदण्डवचन क्रियते । -पहले कहे गये दिग्वत तथा देशव्रत तथा आगे कहे जाने वाले उपभोग-परिभोग परिमाणवतमें स्वीकृत मर्यादामें भी निरर्थक गमन आदि तथा विषय सेवन आदि नहीं करना चाहिए, इस अतिरेकनिवृत्तिको सूचनाके लिए बीचमें अनर्थदण्डविरतिका ग्रहण किया है।
६. अनर्थदण्डवतका महत्त्व पु. सि |१४७ एवं विधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदण्ड य । तस्यानिशमनवद्य' विजयमाहिंसाबत लभते ॥१४॥-जो पुरुष इस प्रकार अन्य भी अनर्थदण्डौको जानकर उनका त्याग करता है, यह निरन्तर निर्दोष अहिंसावतका पालन करता है। अपित-स. सि 1५/३२/३०३ त द्विपरीतमनर्पितम् । प्रयोजनाभावाव
सतोऽप्यविवक्षा भवतीत्युपसर्जनीभूतमनर्पितमित्युच्यते।-अर्पितसे विपरीत अनर्पित है। अर्थात प्रयोजनके अभाव में जिसकी प्रधानता नहीं रहती वह अनर्पित कहलाता है। तात्पर्य यह है कि किसी वस्तु या धर्मके रहते हुए भी उसकी विवक्षा नहीं होती इसलिए जो गौण हो जाता है वह अनर्पित कहलाता है । (रा. वा./५/३२,२/४६७/१५) । अनल-दे अग्नि । अनलकायिक-आकाशोपपन्न देव- दे, देव 11/१/३ । अनवधृत अनशन-दे अनशन । अनवस्था-श्लो वा./४/न्या /४५६/५५१/१६ उत्तरोत्तरधर्मापेक्षया विश्रामाभावानवस्था। -उत्तर-उत्तर धर्मोमें अनेकान्तकी कल्पना
बढती चली जानेसे उसको अनवस्था दोष कहते है। स. भ त/८२/४ अप्रामाणिकपदार्थ परम्परापरिकल्पनाविश्रान्त्यभावश्चानवस्थेत्युच्यते । अप्रामाणिक पदार्थोंकी परम्परासे जो कल्पना है, उस कल्पनाके विश्रामके अभावको ही अनवस्था कहते है। प.ध.पू /३८२ अपि कोऽपि परायत्त सोऽपि पर सर्वथा परायत्तात् ।
सोऽपि परायत्त स्थादित्यनवस्थाप्रसङ्गदोषश्च ॥३८२॥ -यदि कदाचित् कहो कि (कोई एक धर्म) उनमें से परके आश्रय है, तो जिस परके आश्रय है वह पर भी सब तरहसे अपनेसे परके आश्रय होनेसे, अन्य परके आश्रयकी अपेक्षा करेगा और वह भी पर अन्यके आश्रयकी अपेक्षा रखता है इस प्रकार उत्तरोत्तर अन्य-अन्य आश्रयों की कल्पनाकी सम्भावनासे अनवस्था प्रसंग रूप दोष भी आवेगा। अनवस्थाप्य-परिहार प्रायश्चित्तका एक भेद-दे. परिहार।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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