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अनंतावधि ज्ञान
तहाँ क्रोधका उदय तो नाही परन्तु वासना काल रहै, तेतैं जोहस्यो क्रोध किया था तोहस्यों क्षमा रूप भी न प्रवर्ते सो असें वासना का पूर्वोक्त प्रमाण सब कषायनिका नियम करके जानना । (चा.सा./१०/१) | १०. अन्य सम्बन्धित विषय
अनन्तानुबन्धी प्रकृतिका बंध उदय सत्व व तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान दे वह वह नाम | 'अनन्तानुबन्धीमे दशों करणोंकी सम्भावना दे करण २ । 'अनन्तानुबन्धीकी उद्वेलना है. कम
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* कपायों की तीव्रता मन्दतामे अनन्तानुबन्धी नही, लेश्या कारण है - दे. कषाय ३ ।
* अनन्तानुबन्धीका सर्वातियापन अनुभाग ४ * अनन्तानुबन्धो की विसंयोजना—दे नियोजना
* यदि अनन्तानुबन्धी द्विस्वभावी है तो इसे दर्शनचारित्र मोहनीय क्यों नही कहते ? दे, अनन्तानुबन्धी ३ । * अनन्तानुबन्धी व मिध्यात्वजन्य विपरीताभिनिवेशमे अन्तरदे, सासादन १/२/
अतावधि ज्ञान अधि -पे. अनऋद्धि प्राप्त आर्य - दे. आर्य । अनक्षरगता भाषा — दे. भाषा ।
अनक्षरात्मक ज्ञान
लहान 1 / १ । अनक्षरात्मक शब्द दे. शब्द । अनगार आ / ८८६ समनोति संजोति रिसिजाति वादवरागोति । णामाणि सुविहिदाणं अणगार भद त द तोति ॥ ८८६ ॥ = उत्तम चारित्रवाले मुनियोके ये नाम है-— श्रमण, सयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदत, दंत व यति । चापा/मू / २० दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे निरायार । सायारं सरगं परिग्गहा रहिय खलु निरायारं ॥२०॥ सयम चारित्र है सो दो प्रकारका होता है - सागर तथा निरागार या अनगार तहाँ सागार तो परिग्रह सहित श्रावक होता है और निरागार परिग्रह रहित साधुके होता है।
दे अगारी चारित्र मोहनीयका उदय होनेपर जो परिणाम घरसे निवृत्त नहीं है वह भावागार कहा जाता है। वह जिसके है वह वन में निवास करते हुए भी अगारी है और जिसके इस प्रकारका परिणाम नहीं है वह घरमें वास करते हुए भी अनगार है ।
त सा / ४/७६ अनगारस्तथागारी स द्विधा परिकथ्यते । महाव्रतोऽनगार' स्यादगारी स्यादणुवत ॥७६॥ वे व्रती अनगार तथा अगारी ऐसे दो प्रकार हैं। महाव्रतधारियों को अनगार कहते है । प्रसा./ता.वृ / २४६ अनगारा सामान्यसाधव । कस्मात् । सर्वेषां सुखदुखादिविषये समता परिणामोऽस्ति । अनगार सामान्य साधुओको कहते है, क्योंकि, सर्व ही सुख व दुख रूप विषयो में उनके समता परिणाम रहता है । ( चा सा / ४७/४ ) १. अनागारका विषय विस्तार अनगारधर्म - र. सा./मू / ११
साधु
भाणायण मुक्ख जइधम्म ण तं विणा तहा सोवि ॥११॥ - ध्यान और अध्ययन करना मुनीश्वरोका मुख्य धर्म है। जो मुनिराज इन दोनोको अपना मुख्य कर्तव्य समझकर अहर्निश पालन करता है. वही मुनीश्वर है मोक्षमार्गलग्न है। अन्यथा वह मुनीश्वर नहीं है ।
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अनर्थदंड
१. वि १/३८ आधारो दशधर्म मयमतपोमूलोतराख्या गुणा मध्यामोहमदोनं शमदमध्यामप्रमादस्थिति मेराग्यं समयोप गुणा रत्नत्रयं निर्मलं पर्यन्ते च समाधिरक्षयपदानन्दाय धर्मो यते ॥ ३८ ॥ -ज्ञानाचारादि स्वरूप पाँच प्रकारका आधार उत्तम क्षमादि रूप दश प्रकारका धर्म, संयम, तप तथा मूलगुण और उत्तरगुण, मिथ्याश्व, मोह एव मदका त्याग, कषायोका शमन, इन्द्रियोका दमन, ध्यान, प्रमाद रहित अवस्थान, संसार, शरीर एवं इन्द्रिय विषयोंसे विरक्ति, धर्मको बढानेवाले अनेको गुण, निर्मल रत्नत्रय तथा अन्तमें समाधिमरण यह सब मुनियोंका धर्म है जो अविनश्वर मोक्षपदके आनन्दका कारण है।
अनगारधर्मामृत - १. आशाधरनो (ई ११०३-१२४३) द्वारा रचित संस्कृत श्लोकबद्ध यत्याचार विषयक एक प्रसिद्ध ग्रन्थ । इसमें ६ अध्याय तथा ६५४ श्लोक है । ( तो ४/४६ ), (जै. १/४२६ ) अनधिगत चारित्र - दे. चारित्र ९ अनध्यवसाय या दी /१/१६/८ किमित्यालोचनमात्रम मध्यवसाय । यथा पथि गच्छतस्तृणस्पर्शादि ज्ञानम् -' - 'यह क्या है' इस प्रकारका जो ज्ञान होता है, उसको अनध्यवसाय कहते है । जैसेरास्ता चलनेवालेको तृण या कॉटे आदिके स्पर्श मात्रसे यह कुछ पदार्थ है, ऐसा ज्ञान होता है, उसको अनध्यवसाय कहते है । ध. १ / १.१.४ / १४८/५ प्रतिभास प्रमाणञ्चाप्रमाणञ्च विसंवादाविसवादोभयरूपस्य तत्रोपलम्भात् । - अनध्यवसाय रूप प्रतिभास प्रमाण भी है और अप्रमाण भी है, क्योकि, उसमें विसवाद अर्थात् 'यह क्या है' ऐसा अनिश्चय तथा अविसवाद अर्थात् 'कुछ है अवश्य ' ऐसा निश्चय दोनो पाये जाते है ।
रा. वा. हि /१/३२ / १६२ काहै ने निर्णय कीजिये । हेतुवाद तर्क शास्त्र हैते तो कही ठहरे नाहीं । बहुरि आगम है वे जुदे जुदे है । कोई
कहे कोई कहे तिनि का ठिकाना नाहीं । बहुरि सर्वका ज्ञाता मुनि कोई प्रत्यक्ष नाही, जाके वचन प्रमाण कीजिये । बहुरि धर्म का स्वरूप यथार्थ सूक्ष्म है, सो कैसे निर्णय होय । तातें जो बडा मार्ग चला आवे ते से चलना, प्रवर्तना । निर्णय होता नाहीं, ऐसे अनध्यवसाय है ।
* अनव्यवसाय, संशय व विपर्ययमे अन्तर दे संशय ४ । अननुगामी- ---अवधिज्ञानका एक भेद = दे. अवधिज्ञान १ । अननुभाषण - या सू./५/२/१६/२९६ मितस्य परिरभि हितस्याप्यप्रत्युच्चारणमननुभाषणम् ॥ १६ ॥ सभा अर्थात् सभासदने जिस अर्थ को जान लिया और वादीने जिसको तीन बार कह दिया ऐसे जाने और तीन बार कहे हुएको सुनकर भी जो प्रतिवादी कुछ न कहे तो उसको 'ना' नामक निग्रहस्थान कहते है। ( श्लो वा ४ / न्या २३१ / ४०६ / १० ) ।
अनपायी - नवि /वृ./१/८६/३६५ अनपायी अव्यभिचारी यत् इति ।
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- अनपायी अव्यभिचारीको कहते है ।
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अनभिव्यक्ति-व्यक्ति
अनय- एक ग्रह - दे. ग्रह । अनयाभास, नय 11/2
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अनर्थदंड - र. क. श्रा / ७४ आभ्यन्तर दिगवधेर पार्थिकेम्य सपापयोगेभ्य विरमणमनर्थदण्ड विदुतधराग्रम्य विद्याओकी मर्यादाके भीतर-भीतर प्रयोजन रहित पावोंके कारणोसे विरक्त होनेको व्रतधारियो में अग्रगण्य पुरुष अनर्थदण्ड व्रत कहते है । ससि / ०/२१/३५६ असत्युपकारे पापादान हेतुरनर्थदण्ड उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पापका कारण है. वह अनर्थ दण्ड है । ( रा. मा./०/२१४/५४०/२८) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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