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अनंत
अनंत
तथाप्यवसान नास्ति ।-क्रमसे जाते हुए जो भविष्यवकालके समय, उनसे यद्यपि भविष्यत्कालके समयोकी राशिमें कमी होती है, फिर भी उस समय-राशिका कभी अन्त न होगा, इसी प्रकार मुक्तिमें जाते हुए जीवोंसे यद्यपि जगत में जीवराशिको न्यूनता होती है तो भी उस राशिका अन्त नहीं होता। २. अनन्तको सिद्धि रा.वा /५/६,३-५/४५२/३४ न च तेन परिच्छिन्नमित्यतः सान्तम् । अनन्तेनानन्तमिति ज्ञातस्वात। मात्र सर्वे प्रवादिनो विप्रतिपद्यन्तै केचित्तावदाहु' - 'अनन्ता लोकधातवः' इति । अपरे मन्यन्ते-दिक्कालात्माकाशाना सर्वगतत्वाद अनन्तत्वमिति । इतरे ब्र वते-प्रकृतिपुरुषयोरनन्तत्व सर्वगतत्वादिति। न चैतेषामनन्तत्वादपरिज्ञानम्, नापि परिज्ञानत्वमात्रादेव तेषामन्तवत्त्वम्।. यस्य अर्थानामानन्त्यमपरिज्ञातकारणं तस्य सर्वज्ञाभाव प्रसजति। अथान्तवत्त्वं स्यात् ससारो मोक्षश्च नोपपद्यते । कथमिति चेत्, उच्यते जीवाश्चेत्सान्ता , सर्वेषां हि मोक्षप्राप्तौ संसारोच्छेद' प्राप्नोति। तद्भयात मुक्ताना पुनरावृत्त्यभ्युपगमे स मोक्ष एव न स्यात अनास्यन्तिकत्वात् । एकै कस्मिन्नपि जीवे कर्मादिभावेन व्यवस्थिता पुदगला अनन्ताः, तेषामन्तवत्त्वे सति कर्मनोकर्मविषयविकल्पाभावात् ससाराभावः तदभावान्मोक्षश्च न स्यात् । तथा अतीतानागतकालयोरन्तवत्त्वे प्राक् पश्चाच्च कालव्यवहाराभाव स्यात्। न चासौ युक्त असत प्रादुर्भावाभावाव सतश्चात्यन्त विनाशानुपपत्तरिति। तथा आकाशस्यान्तवरवाभ्युगगमे ततो बहिर्घनत्वप्रसङ्ग । नास्ति चेदघनत्वम् आकाशेनापि भवितव्यमित्यन्तवत्स्वाभाव प्रश्न-अनन्तको केवलज्ञानके द्वारा जान लेनेसे अनन्तता नहीं रहेगी। उत्तर-१. उसके द्वारा अनन्तका अनन्तके रूपमें ही ज्ञान हो जाता है। अत: मात्र सर्वज्ञके द्वारा ज्ञानसे उसमें सान्तत्व नहीं आता। २. प्राय' सभी वादी अनन्त भी मानते हैं और सर्वज्ञ भी। बौद्ध लोग धातुओंको अनन्त कहते है। वैशेषिक दिशा, काल, आकाश और आत्माको सर्वगत होनेसे अनन्त कहते हैं। सौख्य पुरुष और प्रकृतिको सर्वगत होनेसे अनन्त कहते है। इन सबका परिज्ञान होने मात्रसे सान्तता हो नहीं सकती। अतः अनन्त होनेसे अपरिज्ञानका दूषण ठीक नहीं है। ३. यदि अनन्त होनेसे पदार्थको अज्ञेय कहा जायेगा तो सर्वज्ञका अभाव हो जायेगा। ४. यदि पदार्थोंको सान्त माना जायेगा तो संसार और मोक्ष दोनोंका लोप हो जायेगा। सो कैसे, वह बताते हैं(१) यदि जीवोंको सान्त माना जाता है तो सब जीव मोक्ष चले जायेंगे तब संसारका उच्छेद हो जायेगा। यदि ससारोच्छेदके भयसे मुक्त जीवोंका ससारमें पुन' आगमन माना जाये तो अनात्यन्तिक होनेसे मोक्षका भी उच्छेद हो जायेगा। (२) एक जीवमें कर्म और नोकर्म पुदगल अनन्त है। यदि उन्हें सान्त माना जाये तो भी संसारका अभाव हो जायेगा और उसके अभावसे मोक्षका भी अभाव हो जायेगा। (३) इसी तरह अतीत और अनागत कालको सान्त माना जाये तो पहले और बादमें काल व्यवहारका अभाव ही हो जायेगा, पर यह युक्तिसंगत नहीं है। क्योकि असतकी उत्पत्ति और सदका सर्वथा नाश दोनो ही अयुक्तिक है। (४) इसी तरह आकाशको सान्त माननेपर उससे आगे कोई ठोस पदार्थ मानना होगा। यदि नहीं तो आकाश ही आकाश माननेपर सान्तता नहीं रहेगी। ज, प./प्र.१.२/(प्रो. लक्ष्मीचन्द्र ) पायथागोरियन युगमें 'जीनो के तोंने इसकी सिद्धि की थी। केटरके कन्टीनम् ( continuum) १,२,३...के अल्पबहुत्वसे अनन्तके अल्पबहत्वकी सिद्धि होती है।.. जार्ज केन्टरने 'Abstractset Theory' की रचना करके अनन्तको स्वीकार किया है।
३. अर्थपुद्गल परिवर्तनको अनन्त कैसे कहते हैं घ.१/१,१,१४१/३६३/२ अर्धपुदगलपरिर्तनकाल. सक्षयोऽप्यनन्त छद्मस्थैरनुपलब्धपर्यन्तत्वात् । केवलमनन्तस्तद्विषयत्वाद्वा ।-अर्द्ध पुद्गल
परिवर्तनकाल क्षय सहित होते हुए भी इसीलिए अनन्त है कि छद्मस्थ जीवोंके द्वारा उसका अन्त नहीं पाया जाता है। वास्तवमें केवलज्ञान अनन्त हैं अथवा अनन्तको विषय करनेवाला होने से वह
अनन्त है। ध.३/१,२,५३/२६७/७ कधं पुणो तस्स अद्धपोग्गलपरिमट्टस्स अण तयवएसो। इदि चे ण, तस्स उबयारणिबधणत्तादो। तं जहा अण तरस केवलणाणस्स अद्धपोग्गल परियट्टकालो वि अण तो होदि। प्रश्न-अखपुद्गल परिवर्तनकालको अनन्त सज्ञा कसे दी गयी है। उत्तर-नहीं, क्योंकि अर्धपुदगल परिवर्तनकालको जो अनन्त सज्ञा दी गयी है, वह उपचार-निमित्क है। आगे उसीका स्पष्टीकरण करते है-अनन्त रूप केवलज्ञानका विषय होनेमे अर्द्ध पुदगल परिवर्तनकाल भी अनन्त है ऐसा कहा जाता है। (ध.३/१.२.२/२५-२६/३), (घ४/१,२,२३/२६६) (ध. १४/५,६,१२८/२३५/८) ।
४. अनन्त, संख्यात व असंख्यातमें अन्तर घ.३/१,२.५८/२६७/५ किमस खेज्ज णाम । जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमाणे णिट्टादि सो असस्वेज्जो। जो पुण ण समप्पइ सो रासी अणं तो। जदि एवं तो वयसहिदसवय अद्धपोग्गलपरियट्टकालो यि अस खेज्जो जायदे । होदु णाम । कध पुणो तस्स अद्धपोग्गलपरियट्टरस अर्ण तबबएसो। इदि चे ण, तस्स उबयारनिबधणादो। तं जहा-अणं तस्स केवलणाणस्स विसयत्तादो अद्धपोग्गल परियट्टकालो वि अण तो होदि । केबलणाणविसयत्त पडि विसेसाभावा सव्वस खाणमा तरुण जायदे। चे ण, ओहिणाणबिसयवदिरित्तस खाणे अण्णबिसयम तदुवयारपवुत्तादो। अहवा जं सखाण पंचिदियविसओ त स खेज्ज णाम । तदो उबरि जमोहिणाणविसओ तमस खेज्ज णाम । प्रश्नअसंख्यात क्सेि कहते है, अर्थात अनन्तसे असख्यातमें क्या भेद है ! उत्तर-एक-एक संख्या घटाते जानेपर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असंख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनन्त है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो व्यय सहित होनेसे नाशको प्राप्त होनेवाला अर्धपुदगल परिवर्तन काल भी असंख्यात. रूप हो जायेगा। उत्तर-हो जाये। प्रश्न--तो फिर उस अर्ध पुदगलपरिवर्तनकालको अनन्त संज्ञा कैसे दी गयी है। उत्तर--नहीं, क्योंकि अर्ध पुद्गल परिवर्तनकालको जो अनन्त सज्ञा दी गयी है वह उपचार निमित्तक है। आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैअनन्तरूप केवलज्ञानका विषय होनेसे अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल भी अनन्त है, ऐसा कहा जाता है। प्रश्न - केवल ज्ञान के विषयत्वके प्रति कोई विशेषता न होनेसे सभी संख्याओको अनन्तत्व प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि, जो सख्याएँ अवधिज्ञानका विषय हो सकती है उनसे अतिरिक्त ऊपरकी संख्याएँ केवलज्ञानको छोडकर दूसरे और किसी ज्ञानका विषय नही हो सकतीं, अतएव ऐसी संख्याओमें अनन्तत्वके उपचारकी प्रवृत्ति हो जाती है। अथवा, जो संख्या पाँचों इन्द्रियोका विषय है वह संख्यात है, उसके ऊपर जो संख्या अवधिज्ञानका विषय है वह अस ख्यात है, उसके ऊपर जो सख्या केवलज्ञानके विषय-भावको ही प्राप्त होती है वह अनन्त है। त्रि. सा./५२ जावदिय पच्चक्रव जुग मुदओहिकेवलाण हवे। तावदियं सखेज्जमसखमणत' कमा जाणे ॥५२॥-यावन्मात्र विषय युगपत प्रत्यक्ष श्रुत, अवधि, केवलज्ञानके होंहि तावन्मात्र सख्यात असंरण्यात अनन्त क्रमतें जानऊ। ५. सर्वज्ञत्वके साथ अनन्तत्वका समन्वय रा,वा.५/६,३-४/४५२/२४ अनन्तत्वादपरिज्ञान मिति चैत, न, अतिशयज्ञानदृष्टत्वात् ॥३॥ स्यादेतत्-सर्व शेनानन्द परिच्छिन्न बा, अपरिच्छिन्न वा। यदि परिच्छिन्नम् उपलब्धावसानस्वाद अनन्तत्वमस्य हीयते। अथापरिच्छिन्नमः तत्स्वरूपानवबोधाद् असर्वज्ञत्वं स्मादिति । तन्न किं कारणम् । अतिशयज्ञानदृष्टत्वात । यत्तत्केव लिनी ज्ञानं क्षायिकम् अतिशयबद् अनन्तानन्तपरिमाण तेन तदनन्तमय
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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