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अनंतकथा
अनंतविजय
ध. ३१.३॥ अनादि
बुध्यते साक्षात् । तदुपदेशादितरैरनुमानेनेति न सर्वज्ञत्वहानिः । न च तेन परिच्छिन्नमित्यत सन्तम् अनन्तेनानन्तमिति ज्ञातत्वात् । कि च सर्वेषामविप्रतिपत्ते ॥४॥=प्रश्न--अनन्त होनेके कारण वह ज्ञानमे नही आना चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योकि अतिशय रूप केवलज्ञानके द्वारा उसे भी जान लिया जाता है। प्रश्न-सर्वज्ञके द्वारा अनन्त जाना जाता है अथवा नही जाना जाता । यदि अनन्तको सर्वज्ञने जाना है तो अनन्तका ज्ञानके द्वारा अन्त जान लेनेसे अनन्तता नही रहेगी, और यदि नहीं जाना है तो उसके स्वरूपका ज्ञान न होने के कारण असर्वज्ञताका प्रसग आयेगा। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि अतिशय ज्ञानके द्वारा बह जाना जाता है। यह जो केवलज्ञानियोका क्षायिज्ञान है सो अतिशयवान् तथा अनन्तामन्त परिमाण वाला है। उसके द्वारा अनन्त साक्षात् जाना जाता है । अन्य लोक सर्वज्ञके उपदेशमे तथा अनुमानसे अनन्तताका ज्ञान कर लेते है। प्रश्न-यदि कहोगे कि उसके द्वारा जाना गया है, अत. बह अनन्त भी सान्न है। उत्तर-तो ऐसा भी नही है, क्योकि सर्वज्ञने अनन्तको अनन्त रूपसे हो जाना है और सभी वादी प्रायः इस विषयमें विरोध भी नहीं रखते है। (वि. दे, अनन्त २/२) । ध. ३/१,२,३/३०/६ ण च अणादि त्ति जाणिदे सादित्त पावेदि, विरोह।। -अनादित्वका ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्वकी प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात नहीं है, क्योकि ऐसा मानने में विरोध आता है।
६. निर्व्यय भी अभव्यराशिमें अनन्तत्व कैसे सिद्ध होता है घ. ७/२,५.१६०/२६/१० कधं एदस्स अब्बए संते अनाच्छिज्जमाणस्स
अणं तववएसो ण, अणं तस्स केवलणाणस्स चेव विसए अहिदाणं सखाणमुक्यारेण अणं तत्तविरोहाभावादो। प्रश्न-व्ययके न होनेसे व्युच्छित्तिको प्राप्त न होनेवाली अभव्य राशिके 'अनन्त' यह सज्ञा कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं, क्योकि, अनन्त रूप केवलज्ञानके ही विषयमें अवस्थित संख्याओके उपचारसे अनन्तपन मानने में विरोध नहीं आता।
७. अनन्त चतुष्टयमें अनन्तत्व कैसे सिद्ध है क्ष. सा./मू./६१०/७२५ खोणे घादिचउक्के णं तचउक्कस्स होदि उत्पत्ती। सादी अपज्जब सिदा उक्कस्साण तपरिस खा ॥६१०॥ प्रश्न-(घातिया कर्मनिके चतुष्टयका नाश होते अनन्तचतुष्टयकी उत्पत्ति हो है। अनन्तपन कैसे सम्भव है १) - उत्तर-सादि कहिये उपजने काल विर्ष आदि सहित है तथापि अपर्यवसिता कहिए अवसान या अन्त ताकरि रहित है तातै अनन्त कहिये । अथवा अविभाग प्रतिच्छेद निकी अपेक्षा इनको उत्कृष्ट अनन्तानन्त मात्र सख्या है तातै भी अनन्त कहिये ।
८. अनन्त भी कथंचित् सीमित है 7. ३/१,२,३/३०१ तन कारणेण मिच्छाइटिठरासीण अब हिरिज्जदि, सव्वे समया अवहिरिजंति। अण्णहा तस्साभावपसंगादो। ण च अणादि त्ति जाणिदं सादित्तं पावेदि, विरोहा।-मिध्यादृष्टि जीवराशिका प्रमाण समाप्त नहीं होता, परन्तु अतीत कालके सम्पूर्ण समय समाप्त हो जाते है।...यदि उसका प्रमाण नहीं माना जाये तो उसके अभावका प्रसंग आ जायेगा। परन्तु उसके अनादित्वका ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसे सादित्वकी प्राप्ति हो जायेगी, सो भी बात
नहीं है, क्योकि ऐसा मानने में विरोध आता है। श्लो.वा/२/१/७/१६/५६६/६ भाषाकार "जैन सिद्धान्त अनुसार अलोकाकाशके अनन्तानन्त प्रदेश भी संख्या परिमित है, क्योंकि अक्षय अनन्त जीवराशिसे अनन्तगुणी पुद्गल राशिसे भी अनन्त गुणे हैं। * आगममें अनन्तको यथास्थान प्रयोग विधि-दे.
गणित 1/१/१६॥ अनंतकथा-आचार्य पद्मनन्दि (ई. १२८०-१३३०) की संस्कृत छन्दबद्ध रचना।
अनंतकायिक-दे. वनस्पति । अनंतकोति-१ प्रामाण्यभंगके कर्ता। समय-ई श ८। (ती./ ३/१६६ ) । २ बृहत् तथा लघु सर्वज्ञसिद्धिके कर्ता। प्रभाचन्द्र (ई.६५०-१०२०) ने अपने प्रमेयकमलमार्तण्डमें इनका अनुसरण किया। समय-ई. श ६ का उत्तरार्ध । (ती./३/६१४) । ३. यश.की तिके दादा गुरु, ललितकीतिके गुरु । समय-वि. १२४६ (ई.१९८४) । (भद्रबाहुचरित/प्र ७/कामताप्रसाद)। अनंतगणनांक-सिद्धान्त - (ध. /प्र २७) Theory of
infinite cardinals, अनंतचतुर्दशी व्रत-वत विधान सग्रह/पृ. ८७ गणना- कुल
समग्र - १४ वर्ष तक, उपवास -१४।। किशन सिह क्रिया कोश विधि-१४ वर्ष तक प्रत्येक वर्ष अनन्त
चतुर्दशी (भाद्रपद शु. १४) को उपवास । अनन्तनाथ भगवानकी पूजा। मन्त्र--"ओं नमो अहंते भगवते अनन्ते अनन्तकेवलीय अनन्तणाणे अण तकेवलदसणे अणुपूजवासणे अनन्ते अनन्तागमकेव लिने स्वाहा" अथवा-यदि लम्बा पड़े तो "ओं ह्रीं अहं ह स' अनन्तकेवलिने नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । अनंतचतुष्टय-दे चतुष्टय । अनंतदेव-स.भं त./अन्तिम प्रशस्ति--"आप दिगम्बराचार्य थे।"
शिष्य विमलदास नामा एक गृहस्थ था। समय-प्लवङ्ग सवत्सर (1)। अनंतधर्मत्वशक्ति-स.सा /आ. परि./शक्ति नं.२७ विलक्षणानन्तस्वभावभावितै कभावलक्षणानन्तधर्मस्वशक्तिः।-परस्पर भिन्न लक्षणस्वरूप जो अनन्तस्वभाव उनसे मिला हुआ जो एक भाव जिसका लक्षण है ऐसी सत्ताईसवी अनन्तधर्मत्व शक्ति है। अनंतनाथ-म, पु/६०/श्लोक "पूर्व के तीसरे भव में धातकी खण्डमें पूर्व मेरुसे उत्तर की ओर अरिष्ट नगरका छद्मस्थ नामक राजा था (२-३) आगे पूर्वके दूसरे भवमें पुष्पोत्तर विमानमें इन्द्रपद प्राप्त किया (१२) वर्तमान भवमें चौदहवें तीर्थकर हुए हैं। (विशेष दे. तीर्थकर ५) अनंतनाथपुराण-श्रीजन्नाचार्य (सं. १२०९) को रघना है । अनंतबल मुनि-प. पु /१४/३७०-३७१ मेरुकी वन्दना करके लौटते __समय मार्गमें आपसे रावणने परखी त्याग व्रत ग्रहण किया था। अनंतात-भगवान धर्मनाथका शासन देव-दे. यक्ष । अनंतर-दे अध/१। अनंतरथ-प. पु/२२/१६०-१६६ राजा अनरण्यका पुत्र तथा दशरथ
का बड़ा भाई था। पिताके साथ-साथ दीक्षा धारण कर अनन्त परीषहको जीतनेके कारण अनन्तवीर्य नामको प्राप्त हुए। अणंतरोपनिधा-ध.११/४,२,६,३५२/३५२/१२ जत्थ णिरतरं थोवबहुत्तपरिक्खा कीरदे सा अणं तरोवणिधा।-जहाँपर निरन्तर अल्प बहुत्वकी परीक्षा की जाती है, वह अनन्तरोपनिधा कही जाती है। अनंतवर्मन-गंगवंशी राजा था। उड़ीसामें राज्य करता था।
समय-ई. १०४०। अनंतविजय-म पु./सर्ग/श्लोक "पूर्व के नवमें भव में पूर्व विदेहमें वत्सका देशके राजा प्रीतिवर्धनका पुरोहित था (८/१२) फिर आठवें भवमें उत्तरकुरुमें मनुष्य हुआ (८/२१२) आगे पूर्व के सातवें भवमै प्रभंजन नामक देव हुआ (८/२१२-२१३) फिर छठे भवमें धनमित्र नामक सेठ हुआ (८/२१८) फिर पाँचवें भवमें अधोबेयकमें अ)मन्द्र हुआ (E/०-६२) फिर चौथे भवमें वज्रसेन राजाका महापीठ नामक राजपुत्र हुआ (११/१३) फिर पूर्वके तीसरे भव में सर्वार्थ सिद्धिमें
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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