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अनंत
अनंत
तो जघन्य पगेतानन्त == न.पज -
४. जघन्यादि परीतानन्तके लक्षण रा. वा. ३/३८/५/२०७/७ यज्जघन्या संख्येयासंख्येय तद्विरलीकृत्य पूर्वविधिनात्रोन्वारान् वगितसंवर्गित उत्कृष्टासंख्येयास ख्येय प्राप्नोति । तता धर्माधर्मकजीवलोकाकाशप्रदेशप्रत्येकशरीरजोबबादरनिगोतशरीराणि धडप्येतान्यसरव्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि योगविभागपरिच्छेदरूपाणि चाख्येयलोकप्रदेशपरिमाणान्युत्सपिण्यवसर्पिणीसमयांश्च प्रक्षिप्य पूर्वोक्तराशौ त्रोन्वारान् वर्गितसंगित कृत्वा उत्कृष्टासख्येयासख्येयमतीत्य जघन्यपरोतानन्त गत्वा पतितम् ।...यज्जघन्यपरीतानन्त तत्वपूर्ववगितसवगितमुत्कृष्टपरीतानन्तमतीत्य जघन्ययुक्तानन्तं गत्वा पतितम् । तत् एकरूपेऽपनोतेउत्कृष्ट परोतानन्तं तद्भवति। मध्यममजघन्योत्कृष्ट परीतानन्तम् । - जघन्य संख्येयासंख्येय (देखो अस ख्यात) को विरलन कर पूर्वोक्त विधिसे (दे. नीचे) तीन बार वगित संगित करनेपर भी उत्कृष्ट संख्येयासंख्येय नहीं होता। इसमें धर्म, अधर्म, एक जीव व लोकाकाशके प्रदेश, प्रत्येक शरीर, बादर निगोद शरीर ये छहो असंख्येय, स्थिति बन्धाध्यवसाय स्थान, अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थान, योगके अविभाग प्रतिच्छेद, उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालके समयोको जोडकर तीन बार वगित संवगित करनेपर उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयका उल्लघकर जघन्यपरीतानन्तमे जाकर स्थित होता है। यह जो जघन्य परीतानन्त उसको पूर्ववत् वगितसंवर्गित करनेपर उत्कृष्ट परीतानन्तको उल्लंघकर जघन्य युक्तानन्तमे जाकर गिरता है। उसमे से एक कम करनेपर उत्कृष्ट परीतानन्त हो जाता है। मध्यम परीतानन्त इन दोनो सीमाओके बीचमे अजघन्य व अनुत्कृष्ट रूपवाला है । (ति.प.४/३१०/१८१) (त्रि. सा ४५-४६) ।
यह
५. वगित संगित करनेकी प्रतिक्रिया ध ५/प्र. २३ (ध. ३/१,२,२/२०)
अ अज-जघन्य असंख्यातासख्यात
[ यही राशि]
मध्यम परीतानन्त - न.प.म. =>न प ज, किन्तु <न प उ. अर्थात न प ज. से बड़ा और न.प.उ. से छोटा। उत्कष्ट परीतानन्त= न.प.उ -न.प ज.-१ ६. जघन्यादि युक्तानन्तके लक्षण रा.बा /३/३८,६/२०७/१४ यज्जघन्यपरीतानन्त तत्पूर्ववगितस वर्गितमुत्कृष्टपरोतानन्तमतीत्य जघन्ययुक्तानन्त गत्वा पतितम् • यजघन्ययुक्तानन्त तद्विरलीकृत्यात्रैकैकरूपे जधन्ययुक्तानन्त दत्वा सकृद्वगितमुत्कृष्टयुक्तानन्तमतीत्य जघन्यमनन्तानन्त गत्वा पतितम् । तत् एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टयुक्तानन्त भवति । मध्यममजघन्योत्कृष्टयुक्तानन्तम् । =जघन्य परीतानन्त पूर्ववत् वर्गित, संवर्गित उत्कृष्ट परीतानन्तको उक्ल घ कर जघन्य युक्तानन्तमे जाकर स्थित होता है। इस जघन्य युक्तानन्तको विरलन कर प्रत्येकपर जघन्ययुक्तानन्तको रख उन्हे परस्पर वर्ग करने पर उत्कृष्ट युक्तानन्तको उल्लंघकर जघन्य परीतानन्त
(जघन्य युक्तानन्त) को प्राप्त होता है अर्थात (जघन्य युक्तानन्त) राशि जघन्य अनन्तानन्तके बराबर है । इसमें से एक कम करनेपर उत्कृष्ट युक्तानन्त होता है । मध्यम युक्तानन्त इन दोनोकी सीमाओं के बीचमें अजघन्य व अनुत्कृष्ट रूप है। (ति प/४/३११) (त्रि.सा/ ४६-४७)।
७. जघन्यादि अनन्तानन्तके लक्षण रा.वा./३/३८,५/२०७/१६ यज्जघन्ययुक्तानन्त तद्विरलीकृत्यात्रैकैकरूपे जघन्ययुक्तानन्त दत्वा सकृद्वगितमुत्कृष्टयुक्तानन्तमतत्य जघन्यानन्तानन्त गत्वा पतितम् ।. यजघन्यानन्तानन्तं तद्विरलीकृत्य पूर्ववत्रीन्वारान् वगितसंगितमुत्कृष्टानन्तानन्त न प्राप्नोति, तत सिद्धनिगोत जीववनस्पतिकायातीतानागतकालसमय सर्व पुद्गलसर्वाकाशप्रदेशधर्माधर्मास्तिकायागुरुल घुगुणानन्तान् प्रक्षिप्य प्रक्षिप्य तीन बारात् वगितस बगिते कृते उत्कृष्टानन्तानन्तन प्राप्नोति ततोऽनन्ते केवलज्ञाने दर्शने च प्रक्षिप्ते उत्कृष्टानन्तानन्त भवति। तत एकरूपेऽपनीतेऽजघन्योत्कृष्टानन्तानन्त भवति। - जघन्य युक्तानन्तको विरलन कर प्रत्येकपर जघन्य युक्तानन्तको रख उन्हे परस्पर वर्ग
(जघन्य युक्तानन्त) । करनेपर अर्थात (जघन्य युक्तानन्त)
उरष्ट युक्तामन्तसे आगे जघन्य अनन्तानन्तमें जाकर प्राप्त होता है. इस जघन्य अनन्तानन्तको पूर्ववत् विरलीकृत कर तीन बार वर्गित सवगित करनेपर उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्राप्त नहीं होता है। उसमें सिद्ध जीव, निगोद जीव, बनस्पति काय वाले जीव, अतीत व अनागत कालके समय, सर्व पुद्गल, सर्व आकाश प्रदेश, धर्म व अधर्मास्तिकाय द्रव्योके अगुरुलघु गुणोके अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद जोडें। फिर तीन बार बगित सवगित करे। तब भी उरकृष्ट अनन्तानन्त नहीं होता है। अत उसमें केवल ज्ञान व केवलदर्शनको (अर्थात इनके सर्व अविभागी प्रतिच्छेदोको) जोडें, तब उत्कृष्ट अनन्तानन्त होता है। उसमे-से एक कम करनेपर अजघन्योत्कृष्ट या मध्यम अनन्तानन्त होता है । (ति.प/४/३११) (ध. ३/१,२,२/१८/५) (त्रि सा./४७-५१)
(अ अ ज)) (अ अज)
यदि
(अ अज)
(अअज)
'ख' = क + (धर्म व अधर्म द्रव्य तथा एक जीव व लोकाकाशके प्रदेश +प्रत्येक शरीर जीव+बादर निगोद शरीर ये छह )
+४ निम्नराशि
'ग'
४ राशि-स्थिति बन्धाध्यवसाय स्थान + अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थान+योगके अविभाग प्रतिच्छेद + उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालोंके कुल समय।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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