________________
अध्यात्म
५४
६. पहले-पहले वाले स्थितिबन्ध अध्यवसायस्थान अगलेअगले स्थानोंमें नही पाये जाते
भ. १९/४.२,८,१००/३६४/५ जागि बिदियार दिए विधाय खाणामागताणि तदिवाए विीए ट्ठिदिन] धन्यवाणट्ठाणेसु होति त्तिण घेत्तव्य, पढमख उज्झरसाणठाणाण तदिर्याट्ठदि अज्फरसाण ठाणेसु अणुवलं भादो । • जो स्थिति बन्ध अध्यवसाय स्थान (कर्मकी) द्वितीय स्थिति (बन्ध ) मे है, वे तृतीय स्थितिके अध्यवसायस्थानों में (भी) हाते है, ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए. क्योकि द्वितीय स्थितिके प्रथम खण्ड सम्बन्धी अध्यवसायस्थान तृतीय स्थितिके अध्यवसायस्थानोमे नही पाये जाते है । ७. स्थिति व अनुभाग बन्ध अध्यवसायस्थानोंमें परस्पर
सम्बन्ध
[६] ८/९.१-७,४३/२००/३ सम्म टिदिन घट्ठाणान एक्केक्ट्ठदिग्धसहेामेण अससेज्जलगमेतानि अणुभागधज्यसागर ठाणाणि होति सर्व स्थिति बन्धो सम्बन्धी एक-एक स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानके नीचे उपवृद्धि क्रमसे असंख्यात लोकमात्र अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान होते है । ८. अनुभाग अध्यवसायस्थानोंमें परस्पर सम्बन्ध
१. मूल प्रकृति - देखो म ४ / ३७१-३८६ / ९६८ । २. उत्तर प्रकृतिदेखो म७/६२६-६५८/२०२
अध्यात्म साता // ५२५ शुद्धात्मनि विशुद्धा धारभूतेऽनुष्ठानमध्यात्म अपने शुद्धात्मामें विशुद्धताका आधारभूत अनुष्ठान या आचरण अध्यात्म है । पं.का./ता.वृ./ २५५/१० अर्थ पदानामभेद रत्नत्रयतिपादकानामनुकूलं यत्र व्याख्यान क्रियते तदध्यात्मशास्त्रं भण्यते । - - अभेद रूप रत्नत्रय के प्रतिपादक अर्थ और पदोके अनुकूल जहाँ व्याख्यान किया जाता है उसे अध्यात्म शास्त्र कहते है ।
इ.स /टो २०/२३८ मिभ्यागादिसमस्त विकल्पजातरूपपरिहारेणस्यशुद्धात्मन्यनुष्ठानं तदध्यात्ममिति मिध्यावरागादि समस्त विकल्प समूह के त्याग द्वारा निज शुद्धात्मामें जो अनुष्ठान प्रवृत्ति करना, उसको अध्यात्म कहते है ।
सूपा / ६ / प जयचन्द "जहाँ एक आत्माके आश्रयनिरूपण करिये सो अध्यात्म है ।"
अध्यात्मक मलमार्तण्ड
राजमनी (वि. १६३२-१६५०) द्वारा रचित संस्कृत छन्द बद्ध आध्यात्मिक ग्रन्थ ( ती ४ / ८१ ) । अध्यात्मनयनय 1/1 अध्यात्मपदटीका - भट्टारक शुभचन्द्र (ई. १५९६ - ९५५६ ) द्वारा रचित एक आध्यात्मिक ग्रन्थ । ( दे शुभचन्द्र ) । अध्यात्मपद्धति
अध्यात्मरहस्य - आहार द्वारा नियमन तथा भावमनका स्वरूप दर्शानेवाला योग विषयक संस्कृत पद्यबद्ध ७२ श्लोक प्रमाण ग्रन्थ । अपर नाम योगोद्दीपन । समय ई १९४३ - १२४३ । ( ती. ४/४५ ) ।
अध्यात्मसंदोह — आचार्य योगेन्दुदेव ( ई. श ६ उत्तरार्ध ) द्वारा विरचित अपभ्रंश दोहा बद्ध आध्यात्मिक ग्रन्थ । ( दे, योगेन्दुदेव ) । अध्यात्म स्थान स. सा / आ. / ५२ / ६४ / ६ - यानि स्वपर करवाध्यासे सति विशुद्धचित्परिणामातिरिक्तलक्षणान्यध्यात्मस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य । स्वपरके एकत्वका अध्यास होनेपर विशुद्ध चैतन्य परिणामसे भिन्न लक्षणवाने अध्यात्म स्थान भी जीवके लक्षण नहीं है ।
मर
Jain Education International
अनत
अध्यारोप - १. एक बातको भूलसे दूसरी जगह लगाना; २. मिथ्या
या निराधार कल्पना ।
अध्यास- सा./आ / ५२/६४/६ यानि स्वाति =स्व परके एकत्वका अभ्यास होनेपर ।
अध्रुव- १. मतिज्ञानका एक भेद- दे. मतिज्ञान ४२ मधी प्रकृति २
प्रकृतियों
अध्वर - १.५ / २७/११३ यागो यज्ञ कंतु पूजा रुपये ज्याभ्रो म मह इत्यपि पर्याय वचनान्यर्थनाविधे याग, यह ऋतु पूजा, सपर्या ज्या अभ्यर मस्त्र और मह ये सब पूजाविधि पर्यायवाचक शब्द है ।
..
अध्वान - ८ / ३, ५ /गा २ / ८ / २३ अध्वान अर्थात् बन्धसीमा । [ किस गुणस्थान तक बन्ध होता है । ] अनंगक्रीडा - रा.वा./७/२८.२/५८४/३९ व प्रजननं योनिश्च ततोऽन्यत्र क्रीडा अनङ्गक्रीडा अनेकविध प्रजननविकारेण जघनादन्यत्र चाड्गे रतिरित्यर्थ । लिग तथा भग या योनि अंग है। इससे दूसरे स्थान में क्रीडान फेलिसो अयोग्य अंगसे क्रीडा है अर्था काम सेवन के योग्य अगोको छोडकर अन्य अंगोंमें वा अन्य रीतिसे क्रीडा करना सो अनंगक्रीडा है ।
अनंत- द्रव्यो, पदार्थों व भावो तककी संख्याओं का विचित्र प्रकार से निरूपण करनेका ढग सर्वज्ञ मतसे अन्यन्त्र उपलब्ध नहीं होता। ये संख्याएँ गणनाको अतिक्रान्त करके वर्तनेके कारण असंख्यात ब अनत द्वारा प्ररूपित की जाती है। यद्यपि अनन्त संख्याको जानना अपक्ष के लिए सम्भव नहीं है फिर भी उसमें एक दूसरेको अपेक्षा तरतमता दर्शाकर बडी योग्यताके साथ उसका अनुमान कराया जाता है।
१. अनंतके भेद व लक्षण
१. अनंत सामान्यका लक्षण
स सि / ५ / ६ / २७५ अविद्यमानोऽन्तो येषा ते अनन्ता । - जिनका अन्त नहीं है, वे अनन्त कहलाते हैं ।
स. सि / ८ /६/३८६
अनन्तस] सारकारणस्याविध्यदर्शनममन्तम् - अनन्त ससारका कारण होनेसे मिथ्यादर्शन अनन्त कहलाता है । ध १ / १.१.१४०/३२ / ६ न हि सान्तस्यानन्त्यं विरोधात । सव्ययस्य निरायस्य राशे. कथमानन्त्यमिति चेन्न, अन्यथै कस्याप्यानन्त्यप्रसङ्गः । शव्ययस्यानन्तस्य न क्षयोऽस्तीत्येकान्तोऽस्ति = सान्तको अनन्त माननेमें विरोध आता है। प्रश्न- जिस राशिका निरन्तर व्यय चालू है, परन्तु उसमें आय नहीं है, तो उसको अनन्तपन कैसे बन सकता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, यदि सव्यय और निराय राशिको भी अनन्त न माना जावे तो एकको भी अनन्तपनेका प्रसंग आ जायेगा । व्यय होते हुए भी अनन्तका क्षय नहीं होता है यह एकान्त नियम है।
३ / १२.५१/२६०/६ जो रासी एमेन अमिणिट्ठादि सो असखेज्जो । जो पुण ण समप्पइ सो रासी अणंतो । एक-एक संख्या के घटते जानेपर जो राशि समाप्त हो जाती है वह असख्यात है और जो राशि समाप्त नहीं होती है वह अनन्त है। (ध. ३/१,२,२/१५/८ ) ( ध १४/५.६.१२८/२३/६)। २. अनंतके भेद-प्रभेव
[घ] ३/१.१.२/गा. ८/११/० नाम इमानियां सरसद पदेसियम | एगो उभयादसो वित्थारो सव्वभावो य । -नामानन्त, स्थापनानन्त, द्रव्यानन्त, शाश्वतानन्त, गणनानन्त, अप्रदेशिकानन्त, एकानन्सउभयानन्त, विस्तारानन्त, सर्वानन्त और भावानन्त इस प्रकार के ग्यारह भेद है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org