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अध्यवसाय
अध्यवसाय
स, सा /ता वृ/२७०/३४८ शुद्धात्मसम्यश्रद्वानज्ञानानुचरणरूपं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं भेदविज्ञान यदा न भवति तदाह जीवान् हिनस्मीत्यादि हिसाध्यवसान नारकोऽहमित्यादि कर्मोदयाध्यवसान, धर्मास्तिकायोऽयमित्यादि ज्ञेयपदार्था यवसान च निर्विकल्पशुद्वात्मन' सकाशाद्भिन्न न जानातीति । - शुद्वात्माका सम्यक् श्रद्वान, ज्ञान व अनुचरणरूप निश्चयरत्नत्रय लसणवाला भेदज्ञान जब नहीं होता तब भै जोयोका हनन करता हूँ इत्यादि हिसा आदि रूप अध्यबसान होता है। 'मै नारकी हूँ' इत्यादि कर्मोदयरूप अध्यरसान होता है। यह धर्मास्तिकाय है' इत्यादि ज्ञेय पदार्थ अध्ययसान होता है । निर्विकल्प शुद्भात्मको इन सबसे भिन्न नही जानता है।
३. अध्यवसान भावोकी अनर्थ कार्यकारिता स सा /म् /२६६/३४३ दुविखदमुहिदे जीवे करेमि बधेमि तह विमो
चेमि । जा एसा मूढमई णिरत्यया साहू दे मिच्छा ॥२६६॥ स.सा/आ./२६६/३४३ यदेतदध्यबसान तत्सर्वमपि परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थ क्रियाकारित्वाभावाद खकुसुम लुनामीत्यध्यवसानवम्मिथ्यारूपं केवलमात्मनोऽनरिव ।। स सा./ता.वृ/२६६/३४३ सुरिखतदु खितान् जोवान् करोमि, बन्धयामि, तथा विमोचयामि या एषा तब मति सा निरथिका निष्प्रयोजना स्फुटम् । अहो तत' कारणात् मिथ्या वितथा व्यलीका भवति। -भाई। तेरी जो ऐसी मूढबुद्धि है कि मै जोकोको दुखी-सुरखी करता हूँ, बंधाता हूँ और छडाता हूँ, वह मोहस्वरूप बुद्धि निरर्थक है सत्यार्थ नहीं है, इसलिए निश्चयसे 'मिथ्या है। जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योकि परभावका परमें व्यापार न होनेसे स्वार्थ-क्रियाकारीपन नहीं है। परभाव परमें प्रवेश नही करता । जैसे कोई ऐसा अध्यवसान करे कि 'मै आकाश-पुष्पको तोडता हूँ' इसी प्रकारके अध्यवसानवत् (वे सब उपर्युक्त भाव भी) मिथ्यारूप है, मात्र अपने अनर्थ के लिए ही है, परका कुछ भी करनेवाले नहीं है। मै जीवोको सुखी व दुखो करता हूँ, बॅधाता व छडाता हूँ, ऐसी जो रो बुद्धि है वह स्पष्टरूपसे निरर्थक व निष्प्रयोजन है। क्योकि अन्यको दुखी-सुग्वी करनेका अन्यका कार्य नहीं है । इसी कारण यह अध्यवसान मिथ्या है, वितथ है, व्यलीक है। अध्यवसाय-म सा /आ /२५०/३३१ परजीवानहं जीवयामि परजोवैर्जीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध वमज्ञानम् - मै परजीवोको जिलाता हूँ और परजीव मुझे जिलाते है, ऐसा आशय निश्चयसे अज्ञान है। (और भी दे अध्यवसान)।
१. स्थितिबन्ध अध्यवसायस्थान ध ११/४.२,६,१६५/३१०/६ सयमूलपयडीणं सग-उदयादो समुप्पण्णपरिणामाण सग-सगढिदिबंबकारणत्तेण ट्ठिदिबंधज्झवसाणाणाणंसब मूल प्रकृतियोके अपने-अपने उदयसे जो परिणाम उत्पन्न होते है उनकी हो अपनी-अपनी स्थिति के बन्धमें कारण होनेसे स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान सज्ञा है। गो. जो/भाषा/३१०/१२ ज्ञानावरणादिक कर्मनि का ज्ञानको आवरना इत्यादिक स्वभाव करि संयुक्त रहनेको जो काल ताकी स्थिति कहिये, तिसके सम्बन्ध को कारणभूत जे परिणामनिके स्थान तिनिका नाम स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान है। २. कषाय व स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानमें अन्तर ध.११/१,२,६,१६५/३१०/३ (जदि पुण कसायउदयट्ठाणाणि चेव द्विदिबंध
झवसाणट्ठाणाणि) होति तो णेदमप्पाबहूगं घडदे, कसायोदयट्ठाणेण विणा मूलपयडिबंधाभावेण सवपयडिठिदिबंधज्झरसाणट्ठाणार्ण समाणत्तप्पसंगादो। तम्हा सध्यमूलपयडीण सग-सग-उदयादो समुप्पण्णपरिणामाण सग-सगहिदिबंधकारणतण हिदिबंधझवसाणठाणाणं । - यदि कषायोदय स्थान हो स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हो तो यह अल्पबहत्व घटित नहीं हो सकता है क्योंकि
क्षायोदय स्थानके बिना मूल प्रकृतियो का बन्ध न हो सब से सभी मूल प्रकृतियो के स्थितिबन्धाध्यवसाय सानोकी समानताका प्रसंग आता है । अतएव सब मूल प्रकृतियोके अपने अपने उदयसे जो परिणाम उत्पन्न होते है उनकी अपनी-अपनी स्थितिके बन्धमें कारण होनेसे स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान संज्ञा है।
३. अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानोमें हानि वृद्धि रचना ध ६/१६-७,४३/२००/३ मटि ठदिबधाणा एक्के कठिदि बंधट्ठाणाण एक्के कििदवधज्झवसाण ठाणस्स हेट्ठा छवार टकमेण असखेजलोगमेत्ताणि अणुभाग: धज्झवसाण हाणाणि होति । ताणि च जण कसाउदयअणुभागबधज्झवसाणाणप्पहुडि उवरि जाव जहण ट्ठिदि-उकस्सकस उदयद्वाण अणुभगबधझवसाण वाणाणि त्ति विसेसाहियाणि । बिसेसे पुण अखेज्जा लोगा।- सर्व स्थिति-बन्धों सम्बन्धी एक-एक स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानके नीचे उर्युक्त षड्वृद्धिके क्रमसे असख्यात लोकमात्र अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान होते है। वे अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान जधन्य कषायोदय सम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानसे लेकर ऊपर जधन्य स्थितिके उत्कृष्ट कषायोदयस्थानसम्बन्धी अनुभागबन्धाध्यवसायस्थाम तक विशेषविशेष अधिक है। यहां पर विशेषका प्रमाण असख्यात लोक है। ४. अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानोमें गुणहानि शलाका
सम्बन्धी दृष्टिभेद गो क /जी प्र/६६४/११६१/१ अनुभागबन्धाध्यवसायानां नानागुणहानिशलाका सन्ति न सन्तोत्युपदेशद्वयमस्ति । अनुभाग बन्धाध्यक्षसायनि के नाना गुण हानि शलाका है वा नाही है ऐसा आचार्यनिके मतिकरि दोऊ उपदेश है।
५. स्थितिबन्ध अध्यवसायस्थानोमे हानि-वृद्धि रचना ध ६/१.६-७,४३/१६६/४ एक्के करस ट्ठिदिवघाण स्स अस खेज्जा लोगा दिदिबंधझवसाण ठाणाणि जहाकमेण विसेसाहियाणि । विसेसो पुण अस खेज्जा लोगा। ताणि च द्विदिवझवसाण ठाणाणि जहण्णाद्वाणादो जाबप्पप्पणो उक्कस्सहा, ताव अण तभागवड ढी असरखेज्जभागवड्डी, सखेजभागवड्ढी, सखेज्जगुणवढी, असंखेजगुणवड्ढी. अण तगुणवड्ढी त्ति छविधाए बड्ढीए टिठदाणि । अण तभागवडिढकेंडयं गतूण, एगा अस खेजभागबहढी होदि। अस खेजभागरिढकडयं गतूण एगा सखेज्जभागवड्ढी होदि। सखेज्ज भागड्किडय गतूण एगा सखेज्जगुण वडढो हादि । स खेज्जगुणवहि ढक ड्य ग तूण एगा असखेजगुणवड्ढी होदि । असखेज्जगुणवढिकडयं गंतूण एगा अण तगुणवद्धि होदि । एदमेगं छठाण । एरिसाणि असखेज्जलोगमेत्ताणि छट्ठाणाणि होति । = एक-एक स्थिति बन्धस्थानके अस ख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसाप स्थान हाते है। जो कि यथाक्रमसे विशेष - विशेष अधिक है। इस विशेषका प्रमाण असख्यात लक है। वे स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान जघन्य स्थानसे लेकर अपनेअपने उत्कृष्ट स्थान तक अनन्तभागवृद्धि, असरख्यात भागवृद्धि, सख्यातभागवृद्धि, सख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि, इस ६ प्रकारकी वृद्धिसे अवस्थित है। अनन्तभाग वृद्धिकाण्डक जाकर अर्थाद सुच्य गुलके असरूपातवें भाग मात्र बार अनन्तभागवृद्धि हो जानेपर एक बार असख्यातभागवृद्धि होती है । असंख्यातभागवद्धि काण्डक जाकर एक बार सख्यात भागवृद्धि होती है। सख्यातभागवृद्धि चाण्डक जाकर एक बार सरण्यातगुणवृद्धि होती है। सख्यातगुणवृद्धिकाण्डक जाकर एक बार असख्यात गुणवृद्धि होती है। असंख्पानगुणवृद्धि काण्डक जाकर एक बार अनन्तगुण वृद्धि होती है । ( यहाँ सर्वत्र काण्डकसे अभिप्राय सूच्यं गुलके असंख्यातवें भाग मात्र बारोसे है) यह एक षड्वृद्धि रूप स्थान है। इस प्रकारके असंख्यात लोकमात्र षड्वृद्धिरूप स्थान उन स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानों के होते है।
जैनेन्द्र सिधान्त कोश
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