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अधिराज
अध्यवसाम
अन्य कारण समूह) से उत्पन्न नहीं होता है। क्योंकि प्रथम ही श्रुतज्ञानसे जीव आदि तत्वोंका निर्णय कर चारित्रका पालन किया जाता है, अत श्रुतज्ञान-पूर्वक ही चारित्र है। इसके विशेष अर्थात् सामायिक, परिहारविशुद्धि आदि भी निसर्गसे उत्पन्न नहीं होते । अत' चारित्र-निसर्ग व अधिगम दोनों प्रकारसे नहीं होता [अपितु अधिगमसे ही होता है। रा. वा. हिं/९/३/२८ चारित्र है सो अधिगम ही है तातें भूतज्ञानपूर्वक
अधिराज-दे. राजा। अधोऽधिगम-द्रव्य निक्षेपका एक भेद-वे निक्षेप सह । अधोमुख-नवम नारद । अपर नाम उम्मुख-दे. शलाकापुरुष । अधोलोक-१. चित्र-दे. लोक २/८ । २. व्याख्या-दे. नरक ५ । अध्यधि-१. आहारका एक दोष-दे. आहार 11/४। २. वसतिका
एक दोष-दे, वसति। अध्ययन-दे. स्वाध्याय । अध्ययन कुशल साधु-अ.आ./वि./४०३/५६२/६ स्वाध्यायं कृत्वा गव्यूतिद्वयं गत्वा गोचरक्षेत्रवर्सति गत्वा तिष्ठति । यत्र विप्रकृष्टोमार्गस्तत्र सूत्रपौरुष्यामर्थपौरुष्यावा मगल कृत्वा याति एवं स्वाध्यायकुशलता। -जो मुनि स्वाध्याय कर दो कोस गमन करता है और जहाँ आहार मिलेगा ऐसे क्षेत्रकी वसतिमें जाकर ठहरता है। यदि मार्ग दूर होय तो सुत्रपौरुषी अथवा अर्थ पौरुषीके समय मंगल करके आगे गमन करता है। वह स्वाध्याय कुशल मुनि है। अध्यवधि-१. आहारका दोष।-दे. आहार II/४/४।२. वसतिका
एक दोष । दे. वसति । अध्यवसान-सूसा /व आ /२७१/३५० बुद्धी ववसाओ वि य
अज्झवसाणं मईबविण्णाण । एक्कट ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो ॥ २७१ ॥ स्वरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितमात्रमध्यवसानम् । तदेव च बोधमात्रत्वादबुद्धि । व्यवसानमात्रत्वाद व्यवसाया। मननमात्रत्वान्मतिः । विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानम् । चैतनमानत्वाच्चित्तम् । चित्तो भवनमात्रत्वाद् भाव । चित्त परिण मनमात्ररवाद परिणाम। --बुद्धि, व्यवसाय, अध्यवसान, मति, विज्ञान, चित्त, भाव और परिणाम ये सब एकार्थ ही है। ॥ २७१ । स्व और परका ज्ञान न होनेसे जो जीवको निश्चिति होना यह अध्यवसान है। वही बोधन मात्रपनसे बुद्धि है, निश्चयमात्रपनसे व्यवसाय है, जानन मात्रपनसे मति है, विज्ञप्तिमात्रपनसे विज्ञान है, चेतन मात्रपनसे चित्त है, चेतनके भवन मात्रपनसे भाव है और परिणमन मात्रपनसे परिणाम है । अतसब शब्द एकाथवाची हैं। स. सा./ता वृ/१५/१५२ विल्पः यदा शेयतत्त्वविचारकाले करोति जीवः तदा शुद्वात्मस्वरूप विस्मरति तस्मिन्विकरपे कृते सति धर्मोs
हमिति विकल्प उपचारेण घटत इति भावार्थ ।। स. साता वृ/२७०/३४८ भेद विज्ञानं यदा न भवति तदाहं जीवात हिनस्मीत्यादि हिंसाध्यवसान नारकोऽहमित्यादि कर्मोदय अध्यबसान, धर्मास्तिकायोऽहमित्यादि ज्ञेयपदार्थाध्यवसानं च निर्विकल्प शुद्धात्मान सकाशाद्भिन्न न जानातीति ।। -ज्ञेय पदार्थ का विचार करते समय जब जीव विकल्प करता है तम शुद्धात्म स्वरूपको भूल जाता है। उस विकल्पके होनेपर मैं धर्मास्तिकाय द्रव्य हूँ' ऐसा विकल्प उपचारसे घटता है-यह भावार्थ है। भेद विज्ञान जब नहीं होता तम •मैं जीवोंको मारता हूँ' इस प्रकारका हिंसाध्यवसान होता है । 'मै नारको हूँ' इस प्रकारका कर्मोदय अध्यवसान होता है । 'मैं धर्मास्तिकाय हूँ'' इस प्रकारका ज्ञेयपदार्थ अध्यवसान होता है।
स्व. स्तो/टी./७/२६ अहमस्य सर्वस्य स्त्र्यादिविषयस्य स्वामीति क्रिया 'अहं क्रिया'। ताभिः प्रसक्त संलग्नः प्रवृत्तो वा मिथ्या. असत्यो, अध्यवसायो, अभिनिवेशः। -'मैं इन स्त्री आदि सर्व विषयोंका स्वामी हूँ' ऐसी क्रिया 'अह क्रिया है। इसके द्वारा प्रसक्त, संलग्न या प्रवृत्त मिथ्या है, असत्य है, अध्यवसाय है, अभिनिवेश है।
१. अध्यवसानके भेद स. सा./आ./२१७/२१८ इह खत्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसारविषया' कतरेऽपि शरीरविषया । तत्र यतरे संसारविषया ततरे अन्धनिमित्ता। यतरे शरीरविषयास्ततरे तूपभोगनिमित्ता । यतरे बन्धनिमित्तास्ततरे रागद्वेषमोहाद्या यतरे उपभोगनिमित्तास्ततरे मुखदु खाद्या । स, सा./आ/२७०/३४८ एतानि किल यानि त्रिविधा (अज्ञानादर्शमा
चारित्रसंज्ञकानि ) अध्यवसानानि समस्तान्यपि तानि शुभाशुभकर्मअन्धनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात् । -इस लोकमें निश्चयसे अध्यवसानके उदय कितने ही तो ससारके विषय हैं और कितने ही शरीरके विषय है। उनमें से जितने संसारके विषय है उतने तो बन्धके निमित्त हैं और जितने शरीरके विषय है उतने उपभोगके निमित्त है। वहाँ जितने बन्धके निमित्त है उतने तो राग द्वेष मोहादिक है और जितने उपभोगके निमित्त है उतने सुखदुःखादिक है। ये पूर्वोक्त अध्यवसान तीन प्रकारके है-अज्ञान, अदर्शन और अचारित्र । ये सभी शुभ अशुभ कर्म बन्धके निमित्त है क्योकि ये स्वयं अज्ञानादि रूप है।
२. अध्यवसान विशेषके लक्षण स.सा/आ./२७०/३४८ एतानि किल यानि त्रिविधाभ्यध्यबसानामि समस्तान्यपि तानि शुभाशुभकर्मबन्धनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात् । तथाहि, यदिद हिनस्मीत्याद्यध्यवसान तदज्ञानमयत्वेन आरमन' सदहेतुकज्ञप्त्येक क्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीन हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति ताबदज्ञान विवितात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शन, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् । यत्पुनरेष धर्मो ज्ञायत इत्याद्यध्यवसान तदपि ज्ञानमयस्वेनात्मन सदहेतुकज्ञान करूपस्य ज्ञेयमथाना धर्मादिरूपाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानास्ति ताबदज्ञान विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं विविक्तारमानाचरणादस्ति चाचारित्रम् । ततो बन्धनिमित्तान्येवैतानि समस्तान्यध्वसानानि ।-ये पूर्वोक्त अध्यवसान तीन प्रकारके हैं-अज्ञान. अदर्शन और अचारित्र। यह सभी शुभअशुभ कर्म बन्धके निमित्त हैं, क्योंकि ये स्वयं अज्ञानादि रूप हैं। किस तरह हैं सो कहते हैं- जो यह 'मैं जोवको मारता हूँ' इत्यादि अध्यवसान है, वह अज्ञानादि रूप है, क्योकि यात्मा तो ज्ञायक है, इस ज्ञायकपनसे ज्ञप्ति क्रिया मात्र ही (होने योग्य) है (हनन क्रिया नहीं) इसलिए सद्रूप द्रव्य दृष्टिसे किसीसे उत्पन्न नहीं, ऐसा नित्य रूप जानने मात्र ही क्रियावाला है। हनना घातना आदि क्रियाएँ है वे रागद्वेषके उदयसे है। इस प्रकार आत्मा और घातने
आदि क्रियाके भेदको न जाननेसे आत्माको भिन्न नहीं जाना, इसलिए 'मै पर जीवका घात करता हूँ' ऐसा अध्यवसान मिथ्याज्ञान है। इसी प्रकार भिन्नात्माका श्रद्धान न होनेसे मिथ्यादर्शन है। इसी प्रकार भिन्नात्माके अनाचरणसे मिथ्याचारित्र है । 'यह धम द्रव्य मुझसे जाना जाता है ऐसा अध्यवसान भी अज्ञानादि रूप ही है। आत्मा तो ज्ञानमय होनेसे ज्ञानमात्र ही है, क्योंकि सट्टप द्रव्य दृष्टिसे अहेतुक ज्ञानमात्र ही एक रूप वाला है। धर्मादिक तो झंयमय है। ऐसा ज्ञान ज्ञेयका विशेष न जाननेसे भिन्नात्माके अज्ञानसे मै धर्म द्रव्यको जानता हूँ' ऐसा भी अज्ञान रूप अध्यवसान है। भिवात्माके न देखनेसे श्रद्धान न होनेसे यह अध्यवसान मिथ्यादर्शन है और भिन्नात्माके अनाचरणसे यह अध्यवसान अचारित्र है। इसलिए ये सभी अध्यवसान बन्धक निमित्त हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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