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अधिकरण सिद्धान्त
अधिगम
प्रत्यय करनेपर अधिगम अर्थात् पदार्थका ज्ञान करना सो अधि
गम है। ध. ३/१,२,५/३६/१ अधिगमो णाणपमाण मिदि एगो । अधिगम
और ज्ञान प्रमाण ये दोनों एकार्थवाचो है। रावा हि /१/६/४३ प्रमाण नय करि भया जो अपने स्वरूपका आकार ताक अधिगम कहिये।
२. अधिगम सामान्यके भेद त.सु./१/६ प्रमाणनयैरधिगम । जीवादि पदाथोंका ज्ञान प्रमाण और
नयों द्वारा होता है। स.सि /१/६/३ जीवादीना तत्त्वं प्रमाणाभ्या नयैश्चाधिगम्यते । तत्र प्रमाणं द्विविध स्वार्थ परार्थ च । जीवादि पदार्थों का स्वरूप प्रमाण
और नयोंके द्वारा जाना जाता है । प्रमाणके दो भेद है-स्वार्थ और परार्थ । (रा.वा./२/६,४/३३/११)। सभ.त.१४९ तत्राधिगमो द्विविधः स्वार्थ परार्थश्चेति । स च द्विविध प्रमाणात्मको नयात्मकश्चेति ।-अधिगम दो प्रकारका है-स्वार्थ और परार्थ । और वह अधिगम प्रमाण-रूप तथा नय-रूप इन दो भागों में विभक्त है।
अधिगम
स्वार्थाधिगम (ज्ञानात्मक)
पराधिगम (शब्दात्मक)
रख देना अथवा जिसपर उपकरणादिक रखे जाते हैं उसको अर्थात चौकी जमीन वगैरहको अच्छी तरह साफ न करना, इसको दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण कहते है। साफ करनेपर जीव है अथवा नहीं हैं, यह देखे बिना उपकरणादिक रखना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण है। शरीरको असावधानता पूर्वक प्रवृत्ति करना दुःप्रयुक्त कहा जाता है, ऐसा दुःप्रयुक्त शरीर हिंसाका उपकरण बन जाता है। इसलिए इसको देहनिवर्तनाधिकरण कहते हैं। जीव-बाधाको कारण ऐसे छिद्र सहित उपकरण बनाना, इसको भी निर्वर्तनाधिकरण कहते हैं। जैसे-काजी वगैरह रखे हुए पात्र में जन्तु प्रवेश कर मर जाते हैं। पिच्छी-कमण्डलु आदि उपकरणोंका संयोग करना, जैसे ठण्डे स्पर्शवाले पुस्तकका धूपसे संतप्त कमण्डलु और पिच्छीके साथ संयोग करना अथवा धूपसे तपी हुई पिच्छीसे कमण्डलु, पुस्तकको स्वच्छ करना आदिको उपकरण संयोजना कहते हैं । जिनसे सम्मूर्छन जीवोंकी उत्पत्ति होगी ऐसे पेयपदार्थ दूसरे पेयपदार्थ के साथ संयुक्त करना, अथवा भोज्य पदार्थके साथ पेय पदार्थको संयुक्त करना। जिनसे जीवोंकी हिंसा होती है ऐसा ही पेय और भोज्य पदार्थोंका संयोग निषिद्ध है, इससे अन्य सयोग निषिद्ध नहीं हैं। ऐसा भक्तपानसंयोजना है। मन, वचन और शरीरके द्वारा दुष्ट प्रवृत्ति करना उसको निसर्गाधिकरण कहते हैं।
३. असमीक्ष्याधिकरण स. सि /9/३२/३७ असमीक्ष्यप्रयोजनमाधिक्येन करणमसमीक्ष्याधिकरणम्।-प्रयोजनका विचार किये बिना मर्यादाके बाहर अधिक काम करना असमोक्ष्याधिकरण है। रा.वा./७/३२,४-१/४५६/२२ असमीक्ष्य प्रयोजनमाधिक्येन करणमधिकरणम् ॥४॥ अधिरुपरिभावे वर्तते, करोति चापूर्वप्रादुर्भाव प्रयोजनमसमोक्ष्य आधिक्येन प्रवर्तनमधिकरणम् । तत्त्रेधा कायवाइमनोविषयभेदात ३॥ तदधिकरण त्रेधा व्यवतिष्ठते । कुत' कायवाड्मनोविषयभेदात । तत्र मानसं परानर्थककाव्यादिचिन्तनम, बाग्गत निष्प्रयोजनकथाख्यानं परपोडाप्रधान यत्किचनवक्तृत्वम्, कायिक च प्रयोजनमन्तरेण गच्छ स्तिष्ठन्नासीनो वा सचित्तेतरपत्रपुष्पफलच्छेदनभेदनकुट्टनक्षेपणादोनि कुर्यात। अग्निविषक्षारादिप्रदान चारभेत इत्येवमादि, तत्सर्वमसमोक्ष्याधिकरणम् । = प्रयोजनके बिना ही आधिक्य रूपसे प्रवर्तन अधिकरण कहलाता है। मन, वचन और कायके भेदसे वह तीन प्रकारका है। निरर्थक काव्य आदिका चिन्तन मानस अधिकरण है। निष्प्रयोजन परपीडादायक कुछ भी बकवास वाचनिक अधिकरण है । बिना प्रयोजन बैठे या चलते हुए सचित्त या अचित्त पत्र, पुष्प, फलोंका छेदन, भेदन, मदन, कुट्टन या क्षेपण आदि करना तथा अग्नि, विष, क्षार आदि देना कायिक असमीक्ष्याधिकरण है। (चा.सा /१८/४)। अधिकरण सिद्धान्त-दे सिद्धान्त । अधिकारिणी क्रिया-दे क्रिया /३/२ । अधिगत-दै चारित्र /१ । अधिगम-मौखिक उपदेशों को सुनकर या लिखित उपदेशों को पढकर जीव जो भी गुण दोष उत्पन्न करता है वे अधिगमज कहलाते है, क्योंकि वे अधिगम पूर्वक हुए है। वे ही गुण या दोष यदि किन्हीं जीवों में स्वाभाविक होते हैं, तो उन्हें निसर्गज कहते हैं । सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान तो दो प्रकारका होता है पर चारित्र केबल अधिगमज हो होता है क्योंकि उसमें अवश्य ही किसीके उपदेशकी या अनुसरणकी आवश्यकता पड़ती है।
१.अधिगम सामान्य स.सि.१२/१२ धिगमोऽर्थावबोधः।-अधिगमका अर्थ पदार्थका
ज्ञान है। स.बा.१३,२२/१४ अधिपूर्वाद गर्भावसाधनोऽच अधिगमनमधिगमः । 'अधि' उपसर्ग पूर्वक 'गम्' धातुमें भाव साधन अच
प्रमाण नय
प्रमाण
नय ३. स्वार्थाधिगम स सि /१/६/३ ज्ञानात्मक स्वार्थम् । -स्वार्थ अधिगम झान स्वरूप है। रा.वा. १/4,४/३३/१२ स्वाधिगमहेतुञ्जनात्मक प्रमाणनयविकल्पः।
स्वाधिगम हेतु ज्ञानात्मक है जो प्रमाण और नय भेदों वाला है। स.भ त/१/२ स्वार्थाधिगमो ज्ञानारमको मतिश्त्यादिरूप । -स्वार्थाधिगम ज्ञानात्मक है जो मति श्रुत आदि ज्ञान रूप है।
४. परार्थाधिगम स.सि /१/६/३ बचनात्मक परार्थम् । -परार्थ अधिगम बचन रूप है। रा.वा./२/६,४/३३/१२ पराधिगमहेतुर्वचनात्सकः । तेन श्रुतारण्येन प्रमाणेन स्यावादनयसस्कृतेन प्रतिपर्यायं सप्तभङ्गीमन्तो जोवादय' पदार्था अधिगमयितब्या। -वचन पराधिगम हेतु हैं। वचनारमक स्याद्वाद भूतके द्वारा जोवादिककी प्रत्येक पर्याय सप्तभगी रूपसे
जानी जाती है। स भ 11९/७ परार्थाधिगम शब्दरूप । स च द्विविध -प्रमाणात्मको नयात्मकश्चेति ।..... अयं द्विविधोऽपि भेद' सप्तधा प्रवर्तते, विधिप्रतिषेधप्राधान्यात् । इयमेव प्रमाणसप्तभङ्गी नयसप्तभङ्गी च कथ्यते। -शब्दात्मक अर्थात वचन रूप अधिगमको परार्थाधिगम कहते हैं। वह अधिगम प्रमाण और नय रूप है । पुन' विधि प्रतिषेधको प्रधानतासे ये दोनो भेद सप्त भगमें विभक्त है। इसीको प्रमाणसप्तभङ्गी तथा नयसप्तभङ्गी कहते हैं।
५. निसर्गज सम्यग्दर्शन स सि./९/३/१२ यद्बाह्योपदेशाइते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम् । -जो बाह्य उपदेशके बिना होता है, वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है। (रा.
बा./१/३,५/१३/२३)। श्लो. वा १२/१/३/१३/८५/२८ तत्र प्रत्यासन्ननिष्ठस्य भव्यस्य दर्शनोहोपशमादो सत्यन्तरने हेतौ बहिरङ्गादपरोपदेशात्तत्त्वार्थज्ञानाव..... प्रजायमान तत्त्वार्थ श्रद्धानं निसर्ग जम् । प्रत्येतव्यम्। -निकट सिद्भिवाले भव्य जीवके दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम आदिक अन्त
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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