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अधःकर्म
अधस्तन द्वीप
प्रकारका प्रतिपादन किया जाता है। क्योंकि सद्रूपसे चेतन और अचतन पदाथमि भेद नहीं है। यदि भेद माना जाये तो सतसे भिन्न होनेके कारण वे सम असत हो जायेंगे। * द्वैत व अद्वैतका विधि निषेध- दे. द्रव्य ।
*परम अद्वैतके अपर नाम-दे. मोक्षमार्ग २४५। अधःकर्म-जिन कार्यों के करनेसे जीबहिंसा होती है उन्हें अध'कर्म कहते है। अधःकर्म युक्त किसी भी पदार्थकी मन, वचन, कायसे साधुजन अनुमोदना नहीं करते और न ही ऐसा आहार व वसति आदिका ग्रहण करते हैं। इस विषयका परिचय इस अधिकारमें दिया गया है।
१. आहार सम्बन्धी अधःकर्म मूला. म्/४२३ छज्जोवणिकायाणां विराहणोद्दावणादिणिपण्णं । आधाकम्भ णेयं सम रकदमादसपण्ण । ४२३ । -पृथ्वीकाय आदि छह कायके जीवोंको दु.ख देना, मारना इससे उत्पन्न जो आहारादि वस्तु बह अध'कर्म है। वह पाप क्रिया आप कर को गयी, दूसरे कर की गयी तथा आप कर अनुमोदना की गयी जानना। ध. १३/५,४.२९/४६/८ तं ओदावण-विहावण-परिदावण-आरभकदणिपफन्णं त सव्व आधाकम्मं णाम ॥ २२ ॥...जीवस्य उपद्रवणम् ओहावणं णाम । अगच्छेदनादिव्यापारः विदावण णाम। संतापजनन परिदावणं णाम । प्राणिप्राण-वियोजन आर भो णाम । -जो उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ रूप कार्यसे निष्पन्न होता है, वह सब अध कर्म है ॥ २२ ॥ ..जीवका उपद्रव करना ओरावण कहलाता है। अंग छेदन आदि व्यापार करना बिहावण कहलाता है। सन्ताप उत्पन्न करना परिदावण कहलाता है और प्राणियों के प्राणों
का वियोग करना आरम्भ कहलाता है। चा. सा/६८/१ षडजोब निकायस्योगद्रवणम् उपद्रवणम्, अंगच्छेदनादिव्यापारो विद्रावणम्, संतापजननं परितापन, प्राणिप्राणव्यपरोपणमारम्भः एवमुपद्रवण विद्रावण परितापनारम्भक्रियया निष्पन्नमन्न स्वेन कृतं परेण कारितं वानुमनितं वाधकर्म (जनित ) तत्सेविनोऽनशनादितपासि...प्ररक्षन्ति ।-षट्कायके जीव समूहोंके लिए उपद्रव होना उपद्रवण है । जीवोंके अंग छेद आदि व्यापारको विद्रावण कहते है। जोवोंको सन्ताप ( मानसिक वा अन्तरग पीड़ा) उत्पन्न होनेको परितापन कहते है । प्राणियोंके प्राण नाश होनेको आरम्भ कहते है। इस प्रकार उपद्रवण, विद्रावण, परितापन, आरम्भ क्रियाओंके द्वारा जो आहार तैयार किया गया हो, जो अपने हाथसे किया हो अथवा दूसरेसे कराया हो, अथवा करते हुए की अनुमोदना की हो, अथवा जो नीच कर्मोंस बनाया गया हो, ऐसे आहारको ग्रहण करनेवाले मुनियों के उपवासादि तपश्चरण नष्ट होते हैं।
२. वसति सम्बन्धी अधःकर्म भ.आ.वि २३०/४४७ तत्रोद्गगमो दोषो निरूप्यते। वृक्षच्छेदस्तदानयन, इष्टकापाक., भूमिखनन, पाषाणसिक्तादिभिः पूरण, धराया' कुट्टन, कर्दमकरणं, कीलानां करण, अग्निनायस्तापनं कृत्वा प्राताड्य क्रकचै. काठपाटन, वासी भिस्तक्षणं, परशुभिश्च्छेदनं इत्येवमादिव्यापारण षण्णा जीवनिकायानां बाधां कृत्वा स्वेन वा उत्पादिता, अन्येन वा कारिता वसतिरधम्कर्मशब्देनोच्यते।- वृक्ष काटकर उनको लाना, इंटोंका समुदाय पकाना, जमीन खोदना, पाषाण, बालु इत्यादिकोंसे खाड़ा भरना, जमोनको कूटना, कीचड करना, खम्भे तैयार करना. अग्निसे लोह तपवाना, करौतसे लकडी चीर शसीसे छीलना, कुल्हाड़ोसे छेदन करना इत्यादि क्रियाओंसे षट्काय जीवोंको बाधा देकर स्वयं वसति बनायी हो अथवा दूसरोंसे बनवायी हो, यह बसति अध कर्मके दोषसे युक्त है।
३. अपकर्म शरीर ध.१३/५,४,२४/४७/५ जम्हि शरीरे ठिदाणं केसि चि जीवाणं कम्हि विकाले ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणे हि मरणं सभवदितं सरीराधाकम्म णाम ।-जिस शरीरमें स्थित किन्हीं जोवोंके किसी भी कालमै उपद्रावण, विद्रावण और परितापनसे मरना सभव है, वह शरीर अध कर्म है।
४. नारकियोंमें अधःकर्म नहीं होता ध. १३/५,४,३१/११/ आधाकम्म-इरियावधकम्म-तवोकम्माणि णस्थि; णेरइएस ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहन्वयाभवादो। एवं सत्तम पुढवीसु।-अध'कर्म ईर्यापथ कर्म, और तप.कर्म नहीं होते. क्योंकि नारकियोंके औदारिक शरीरका उदय और पंचमहावत नहीं होते। इसी प्रकार सातों पृथिवियोमें जानना चाहिए ।
५. नारकियोंका शरीर अधःकर्म नहीं ध. १३/५,४,२४/४७/३ ओढावणादिद सणादो रइयसरीरमाधाकम्म त्ति किण्ण भण्णदे। [ण] तत्व ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहितो आर भाभावादो।जम्हि सरीरे ठिदाणं केसि वि जीवाणं कम्हि वि काले ओदावण-विहावण-परिदावणेहि मरणं सभवदि त सरीरमाधाकम्म णाम ण च एद विसेसण णेरड्यसरोरे अत्थि, तत्तो तेसिमवमिरचुवज्जियाण मरणाभावाद।। अधवा चउण्णं समूहो जेणेग विसेसणं,ण तेण पुन्बुत्तदोसो। प्रश्न - नारकियोके शरीरमें भी उपद्रावण आदि कार्य देखे जाते है, इसलिए उसे अध कर्म क्यों नहीं कहते उत्तर-- नहीं, क्योकि वहाँपर उपद्रावण -विद्रावण और परितापनसे आरम्भ (प्राणि प्राण वियोग) नहीं पाया जाता। जिस शरोरमें स्थित किन्हीं जोवोंके किसी भी कालमें उपद्रावण, विद्रावण और परितापनसे मरना सभव है वह शरीर अध कर्म है। परन्तु यह विशेषण नारकियोंके शरीरमें नहीं पाया जाता, क्योंकि इनसे उनकी अपमृत्यु नहीं होती, इसलिए उनका मरण नहीं होता। अथवा चूकि उपद्रावण आदि चारोंका समुदायरूप एक विशेषण है,इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं आता।
६. भोगभूमिजका शरीर अधःकर्म कैसे । ध. १३/५,४.२४/४७/१ एव घेप्पमाणे भोगभूमिगयमणुस्सतिरिक्खाणं सरीरमाधाकम्म ण होज्ज, तत्थ ओद्दावणादीणमभावादो। ण ओरालियसरीरजादिदुवारेण सवाह सरीरेण सह एयत्तमावण्णस्स आधाकम्मत्तासिद्धीदो। प्रश्न-जिस शरीरमें स्थित जीवोंके उपद्रावण आदि अन्यके निमित्तसे होते हैं, वह शरीर अध कर्म है। इस तरहसे स्वीकार करनेपर भोगभूमिके मनुष्य और तियंचोंका शरीर अधर्म नहीं हो सकेगा, क्योंकि वहाँ उपद्रावण आदि कार्य नहीं पाये जाते + उत्तर-नहीं, क्योंकि औदारिक शरीररूप जातिकी अपेक्षा यह बाधा सहित शरीर और भोगभूमिजोंका शरीर एक है, अत उसमें अध कमपनेकी सिद्धि हो जाती है। * अध कर्म विषयक सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल,
अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ
दै. वह वह नाम। अघःप्रवृत्तसंयत-दे, सयत १३ करण ४ । अधःप्रवृत्तसंयतासंयत-दे. संयतासंयत १ व करण ४। अधःप्रवृत्तिकरण-दे. करण ४ ।
मण-दे. सक्रमण है। अधर्म द्रव्य-दे. धर्माधर्म। अधस्तन कृष्टि-दे. कृष्टि। अधस्तन द्रव्य-दे. कृष्टि । अधस्तन द्वीप-(ज प./प्र.१०५ ) Inner Island.
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