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अद्धाच्छेद
आभाषा के विकल्प होते हैं उनमें देव और नारकियोंके, आयुकी उत्कृष्ट निषेक स्थिति सम्भव है ।
घ. १४/५.६.६४५/२०३/१२ जण आठ अबंधकालो जहम्ण विरसमण कालपुरस्सरी असंखेद्धा णाम । सो जनमज्झचरिमसमयहुड ताब होदि जाव जहण्णाउअबंधकालच रिमसनओ ति । एसा कि असंखेपद्धा तदियति भागम्मि चेत्र होदि । - * जघन्य विश्रमण काल पूर्वक जघन्य आयुबन्ध काल असंक्षेपाद्धा कहा जाता है। वह यव मध्यके अन्तिम समय से लेकर जघन्य आयु बन्धके अन्तिम समय तक होता है। यह असंक्षेपाया तृतीय त्रिभागमें ही होता है।
गो.जी. जी. २.२१८६११
राज्यमानायुषाय भागः तस्मिन्नवशिष्टे प्रागेव अन्तर्मुहूर्त मात्र समयप्रबद्धान् परभवायुनियमेन बद्ध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्यः । 'असंक्षेपाना' जो आवलीका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण काल भुज्यमान आयुका अवशेष रहै ताकै पहिले अन्तर्मुहूर्त काल मात्र समय प्रबद्धनिकरि परभव आयु stafa पूर्ण करे है ऐसा नियम जानना ।
गो.क. मू./२१७/१९०२ आउस्स व आबाहा ण ट्ठिदिपडिभागमाउस्स = बहुरि नहीं पाइयें है आयुकी आबाधाका संक्षेप, घाटि पना जाते ऐसा जो अद्धा काल सो असंक्षेपाद्धा कहिये है । अद्धाच्छेद
पा. १/३. २२/१२०/१२/२ परिमणियस्य काही उक्कस्स अद्धाच्छेदो णाम । (बद्ध कर्मके) अन्तिम निषेकके कालको उत्कृष्ट अद्धाच्छेद कहते हैं ।
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क. पा. ३/३,२२/९५१३/२६२/५ सयल णिसेयगयकाल पहाणी अद्धाच्छेदो सयलणिसेगपहाणा द्विदित्ति । सर्व निषेकगत काल-प्रधान अद्धाच्छेद होता है और सर्व निषेधान स्थिति होती है। अद्धानशन — दे. अनशन ।
अद्धापल्यगणित 1/4
३. आयु १ ।
अद्धायुदे, । अद्धासागर कालका प्रमाण- गणित 1/१/२ अद्वैत दर्शन - १. एकान्त अद्वैतका निरास दे द्रव्य ४ २. अद्वैत दर्शनका विकासक्रम- दे. दर्शन ३ विशेष दे. वेदान्त
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अद्वैत नय - प्र. सा./त.प्र./परि/मय सं. ४५ निश्चयमयेन केवलमध्य माननुच्यमानबन्धमोक्षोचित स्निग्धत्वगुणपरिणत परमानन् मोक्षयोर द्वैतानुवर्ति ॥ ४५ ॥ - - आत्मद्रव्य निश्चयनयसे बन्ध और मोक्षमें अद्वैतका अनुसरण करनेवाला है. अकेले मध्यमान और मुच्यमान ऐसे बंधमोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्वगुणरूप परिणत परमापकी भाँति ।
१. ज्ञान-लेय द्वैताद्वैत नय
प्र. सा./त.प्र./ परि. / नय सं. २४-२५ ज्ञानज्ञे याद्वैतनयेन महदिन्धनभारपरिणतधूमकेतुमदेक १४ हातनयेन परप्रतिविम्बसंयुक्त दर्पणवदनेकम् ॥ २५ ॥ = आत्म द्रव्य ज्ञान ज्ञेय अद्य तनय मे ( ज्ञान और ज्ञेयके अद्वैतरूप नयसे ) महान् ईंधनसमूह रूप परिणत अग्निकी भाँति एक है । २४ । अम द्रव्य ज्ञान - ज्ञेय द्वैतरूपनयसे, परके प्रतिबिम्बों से सम्पृक्त दर्पणकी भाँति अनेक है । २५ । अद्वैतवाद
१. पुरुषाद्वैतवाद
गो. क. मू./८८९ / २०६५ एक्को चैत्र महप्पा पुरिसो देवो य सब्बवावी य । सव्वंगणिगूढोविय सचेयणो णिग्गुणो परमो ॥ ८८१ ॥ - एक ही महात्मा है । सोई पुरुष है। देव है । सर्व विषै व्यापक है। सपन निगूढ कहिए अगम्य है । चेतनासहित है। निर्गुण है। परम उत्कृष्ट है। ऐसे एक आत्मा ही करि सत्रकौं मानना सो आत्मवादका अर्थ है । ( स. सि./८/१/५ को टिप्पणी जगरूपसहाय कृत ) ( और भी दे. बेदान्त २ ) ।
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अद्वैतवाद
स.म./११/१५१८
नेह नामारित किंचन। आरामं
तस्य पश्यन्ति न तत्पश्यति कश्चन" । इति समयात् । "अयं तु प्रपश्चो मिथ्यारूपः प्रतीयमानत्वात् ।" हमारे मतमें एक ब्रह्म ही सद है । कहा भी है 'यह सब ब्रह्मका ही स्वरूप है, इसमें नानारूप नहीं हैं, ब्रह्मके प्रपश्ञ्चको सब लोग देखते हैं. परन्तु ब्रह्मको कोई नहीं देखता' तथा 'यह प्रपञ्च मिथ्या है, क्योंकि मिथ्या प्रतीत होता है।' (और भी दे. वेदान्त )
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अभियान राजेन्द्र कोवा पुरुष एकः सकललो स्थितिसर्गप्रलयहेतुः नातिशयातिरिति तथा चोक्तम् ऊर्जनाम इवशूनां चन्द्रकान्त इवाम्भसाम् । प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मनाम इति । तथा 'पुरुषं सर्वं यह भूतं यच भाव्यम् । . वे. १०/१० । इत्यादि मन्वानां वादः पुरुषवादः । - एक पुरुष ही सम्पूर्ण लोककी स्थिति, सर्ग और प्रलयका कारण है। प्रलय में भी उसकी अतिशय ज्ञानशक्ति अलुप्त रहती है। कहा भी है-जिस प्रकार ऊर्णनाभ रश्मियोंका. चन्द्रकान्त जलका और बटबोज प्ररोहका कारण है उसी प्रकार वह पुरुष सम्पूर्ण प्राणियोंका कारण है। जो हो चुका तथा जो होगा, उस सबका पुरुष ही हेतु है। इस प्रकारकी मान्यता पुरुषबाद है । २. विज्ञानाईतवाद
न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ११६ प्रतिभासमानस्याशेषस्य वस्तुनो ज्ञानस्वरूपान्तः प्रविष्टत्व प्रसिद्धेः संवेदनमेव पारमार्थिकं तत्त्वम् । तथाहि यदवभासते तज्ज्ञानमेव यथा सुखादि, अवभासन्ते च भावा इति ।... तथा यद्वेद्यते तद्धि ज्ञानादभिन्नम् यथा विज्ञानस्वरूपम्, वेद्यन्ते च नौसादयइत्यतोऽपि विज्ञानाद्वैतसिद्धिरिति प्रतिभासमान अशेष ही वस्तुओंका ज्ञानस्वरूपसे अन्तजविष्टपन प्रसिद्ध होनेके कारण संवेदन ही पारमार्थिक तत्व है। वह इस प्रकार कि जो-जो भी अवभासित होता है वह ज्ञान ही है, जैसे सुखादि भाव ही अवभासित होते हैं।...इसी प्रकार जो-जो भी वेदन करनेमें आता है वह ज्ञान अभित है, जैसे विज्ञानस्वरूप नीलादिक पदार्थ वेदन किये जाते हैं। इसीलिए यहाँ भी विज्ञानाद्वैतवादकी सिद्धि होती है । (यु. अनु. / ११ /२४) । अभिधान राजेन्द्र कोदा "बाह्मार्थनिरपेक्ष ज्ञानामेव मेमोयविशेषा मन्वते ते विज्ञानवादिनः । तेषां राद्धान्तो विज्ञानवादः । - बाहर के निरपेक्ष ज्ञानाईतको ही जो कोई बौद्ध विशेष मानते हैं वे विज्ञानवादी हैं. उनका सिद्धान्त विज्ञानवाद है ।
२. शब्दावाद
न्यायकुमुदचन्द्र पृ. १३६ - १४० योंगजमयोगजं वा प्रत्यक्षं शब्द ब्रह्मोल्लेख्येबावभासते वाह्याध्यात्मिकार्थे षूत्पद्यमानस्यास्य शब्दानुविद्धत्वे. - वोत्पत्तेः, तत्संस्पर्श वैकल्ये प्रत्ययानां प्रकाशमानतया दुर्घटत्वाद वापत हि शाश्वतो प्रत्यवमर्शिनी च तदभावे तेषां नापरं रूपमवशिष्यते । = समस्त योगज अथवा अ ोगज प्रत्यक्ष शब्दब्रह्मका उल्लेख करनेवाले ही अवभासित होते हैं। क्योंकि बाह्य या आध्यात्मिक अर्थों में उत्पन्न होनेवाला यह प्रत्यक्ष शब्दसे अनुविद्ध ही उत्पन्न होता है। शब्द के संस्पर्शके अभाव में ज्ञानोंकी प्रकाशमानता दुर्घट है, बन नहीं सकती । वाग्रूपता नित्य और प्रत्यवमर्शिनी है, उसके अभाव में ज्ञानोंका कोई रूप शेष नहीं रहता ।
* सभी अद्वैत दर्शन संग्रह नयाभासी हैं दे. अनेकान्त २/१ ॥ ४. सम्यगेकान्नकी अपेक्षा
न्या, दो /३/१८४/१२८/३ एवमेव परमद्रव्याथिकनयाभिप्रायविषयः परमद्रव्यं सत्य, तदपेक्षया 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म नेह नानास्ति किचन' सद्रूपेण चेतनानामचेतनानां च भेदाभावात् भेवे दुसलक्षणत्वेन तेषामसत्वप्रसङ्गात् । - इसी प्रकार परम द्रव्यार्थिक नयके अभिप्रायका विषय परम सत्ता, महा सामान्य है । उसकी अपेक्षासे 'एक ही अद्वितीय ब्रह्म है यहाँ नाना अनेक कुछ भी नहीं है' इस
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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