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अधिगम
अधिगम
६.सर्व सम्यग्दर्शन साक्षात या परम्परासे अधिगमज ही
रंग हेतुओंके विद्यमान रहनेपर और परोपदेशको छोड़कर शेष, ऋद्धि दर्शन, जिनबिम्ब दर्शन वेदना आदि महिरंग कारणोंसे पैदा हुए तत्वार्थ-ज्ञानसे उत्पन्न हुआ तत्त्वार्थ श्रद्धान निसर्गज समझना चाहिए।
६. अधिगमज सम्यग्दर्शन स.सि /१/३/१२ यत्परोपदेशपूर्वकं जोवायधिगम निमित्तं तदुत्तरम्।
जो माह्य उपदेश पूर्वक जीवादि पदार्थोके ज्ञानके निमित्तसे होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है। (रा. वा./९/३.४१४/२३) । घ. १/१,१,१४४/गा. २१२/३६५ छप्पंच-णव-विहाणं अत्थाणं जिणवरोब. इठ्ठाणं । आणाए अहिगमेण व सहहणं होइ सम्मत! -जिनेन्द्र देवके द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नव पदार्थोंका आशा अथवा अधिगमसे श्रद्धान करनेको सम्यक्त्व कहते हैं। (गो. जो./म. ५६१/१००६)। गो. जी जी प्र. १५६९/१३ तच्छ्रवान..... अधिगमैन प्रमाणनयनिक्षेपनिरुक्त्यनुयोगद्वारै विशेषनिर्णयलक्षणेन भवति। -वह श्रद्धान प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण अर द्रव्यार्षिक पर्यायर्थिक नय अर नाम स्था पना द्रव्य भाव निक्षेप अर व्याकरणादिकरि साधित निरुक्ति अर निर्देश स्वामित्व आदि अनृयोग इत्यादि करि विशेष निर्णय रूप है
लक्षण जाका ऐसा जो अधिमगज श्रद्धान हो है। प्र. सा./ता. वृ./३/१९८/२८ परमार्थ विनिश्चयाधिगमशम्वेन सम्यक्त्वं कथं भण्यत इति चेत । परमोऽर्थः परमार्थः शुद्धबुद्ध कस्वभावः परमात्मा, परमार्थस्य विशेषणेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः परमार्थ निश्चयरूपोऽधिगमः। -परमार्थ विनिश्चय अधिगमका अर्थ सम्यक्त्व है। सो कैसे 1-परम अर्थ अर्थात परमार्थ अर्थात शुद्ध बुद्ध एकस्वभावी परमात्मा। परमार्थ के विशेषण द्वारा संशयादि रहित निश्चयको परमार्थ निश्चयरूप अधिगम कहा गया है।
७. निसर्गज व अधिगमज सम्यग्दर्शनमें अन्तर गो.क जो प्र/१५०/७४२/२३ निसर्गजेऽर्थावबोध स्यान्न बा। यदि स्यात्तदा तदप्यधिगमजमेव । यदि न स्यात्तदानवगततत्त्व. श्रद्दधीतेति । तन्न । उभयत्रान्तरणकारणे दर्शनमोहस्योपशमे क्षये क्षयोपशमे वा समाने च सत्याचार्यादयुपदेशेन जातमधिगमजं तद्विना जातं नैसर्गिकमिति भेदस्य सद्भावात् । -प्रश्न-जो निसर्ग विर्षे पदार्थनिका अवबोध है कि नाहिं, जौ है तो वह भी अधिगमज ही भया अर नाहीं है तो तत्त्वज्ञान बिना सम्यक्त्व कैसे नाम पाया -उत्तर-दोउनिविर्षे अन्तरंग कारण दर्शन मोहका उपशम, क्षय, क्षयोपशमकी समानता है। ताकी होतं तहाँ आचार्या दिकका उपदेश करि तत्त्वज्ञान होय सो अधिगम है। तीहि विना होइ सो निसर्गज है। यह दोनोंमें
अन्तर है। अन.ध./२/४६/१७६ पर उदधृत "यथा शूद्रस्य वेदार्थे शास्त्रान्तरसमीक्षणाव । स्वयमुत्पद्यते ज्ञानं तत्वार्थ कस्यचित्तथा।"-जिस प्रकार शूद्र वेदके अर्थका साक्षात् ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु ग्रन्थान्तरोंको पढकर उसके ज्ञानको प्राप्त कर सकता है। किसी-किसी जीवके तत्त्वार्थका ज्ञान भी इसी तरहसे होता है। ऐसे जीवोंके गुरूपदेशादिके द्वारा साक्षात तत्त्वबोध नहीं होता किन्तु उनके ग्रन्थोंके अध्ययन आदिके द्वारा स्वयं तत्त्वबोध और तत्त्वरुचि उत्पन्न हो जाती है। जन. घ./२/४६/१७६ केनापि हेतुना मोहवैधुर्यात्कोऽपि रोचते। तत्वं हि चर्शनायस्त कोऽपि च क्षोदयन्निधी । -जिनका मोह बेदमा अभिभवादिकों में से किसी भी निमित्तको पाकर दूर हो गया है, सम्यग्दर्शनको घातनेवाली सात प्रकृतियोंका बाह्य निमित्त वश जिनके उपशम क्षय या क्षयोपशम हो चुका है उनमेंसे कोई जीव तो ऐसे होते हैं कि जिनको बिना किसी चर्चाके विशेष प्रयास के ही तत्व में रुचि उत्पन्न हो जाती है और कोई ऐसे होते हैं कि जो कुछ अधिक प्रयास करनेपर हो माह्य निमित्तके अनुसार मोहके दूर हो जानेपर तत्त्वरुचिको प्राप्त होते हैं । अल्प और अधिक प्रयासका ही निसर्ग और अधिगमज सम्यादर्शनमें अन्तर है।
रखो.वा./२/१/३/४/६७/२६ न हि निसर्ग. स्वभावी येन ततः सम्यग्दर्शनमुत्पाद्यमानुपलब्धतत्त्वार्थगोचरतया रसायनबन्नोपपद्यत । निसर्गका अर्थ स्वभाव नहीं है जिससे कि उस स्वभावसे ही उत्पन्न हो रहा सत्ता सम्यग्दर्शन नहीं जाने हुए तत्त्वार्थोंको विषय करनेकी अपेक्षासे रसायनके समान सम्यग्दर्शन ही न बन सके, अर्थात रसायनके तत्त्वोंको न समझ करके क्रिया करनेवाले पुरुषके जैसे रसायनकी सिद्धि नहीं हो पाती है। श्लो.वा./२/१/३/२/६३/१३ स्वयंबुद्धश्रुतज्ञानमपरोपदेशमिति चेन्न, तस्य जन्मान्तरोपवेशपूर्वकत्वात् तज्जन्मापेक्षया स्वयबुद्धत्वस्याविरोधात ।प्रश्न-जो मुनिमहाराज स्वयंबुद्ध हैं अर्थात अपने आप ही पूर्ण श्रुतज्ञानको पैदा कर लिया है उन मुनियोंका श्रुतज्ञान तो परोपदेशकी अपेक्षा नहीं रहता, अत: उसको निसर्गसे जन्य सम्यग्ज्ञान कह देना चाहिए। (रा. वा.हि /१/३/२८)। उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि उन प्रत्येक बुद्ध (स्वयंबुद्ध ) मुनियोंके भी इस जन्मके पूर्वके दूसरे जन्मोंमें जाने हुए आप्त उपदेशको कारण मानकर ही इस जन्ममें पूर्ण श्रुतज्ञान हो सका है । इस जन्मकी अपेक्षासे उनको स्वयंबुद्ध होने में
कोई विरोध नहीं है। घ.५/१६-१,३४/४३१/१ जाइस्सरण-जिणमिदंसणेहि विणा उप्पज्जमाण
गइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो। -जातिस्मरण और जिनबिम्ब दर्शनके मिना उत्पन्न होनेवाला नैसर्गिक प्रथम सम्यक्रम
असंभव है। ल. सा /जी. प्र/६/४ चिरातीतकाले उपदेशितपदार्थधारणलाभो बास देशनालग्धिर्भवति । तुशब्देनोपदेशकररहितेषु नारकादिभवेषु पूर्वभवश्रुतधारिततत्त्वार्थस्य संस्कारबलात सम्यग्दर्शनप्राप्तिर्भवति, इति सूच्यते। -अथवा लम्बे समय पहले तत्वों की प्राप्ति देशना लब्धि है।तु शब्द करि नारकादि विष तहाँ उपदेश देने वाला नाही तहाँ पूर्व भव विर्षे धारया हुवा तत्त्वार्थ के संस्कार बल ते सम्यग्दर्शनकी
प्राप्ति जाननी । (मो.मा.प्र//३८३१८)। प्रसा/ता. वृ/३/११६ परमार्थतोऽर्थावबोधो यस्मात्सम्यवस्वात्तव पर
मार्थ विनिश्चयाधिगमम् ।-क्योंकि परमार्थ से सम्यक्त्वसे ही अर्थावबोध होता है. इसलिए वह सम्यक्त्व हो परमार्थ विनिश्चयाधिगम है। रा. बा. हि.१/३/२८-२६ सम्यग्दर्शनके उपजावने योग्य बाह्य परोपदेश पहले होय है, तिस ते सम्यग्दर्शन उपजै है। पीछे सम्यग्दर्शन होय तब सम्यग्ज्ञान नाम पावै । * सर्वथा नैसर्गिक सम्यक्त्व असम्भव है-दे. सम्यग्दर्शन
III/२/१ ६.क्षायिक सम्यक्त्व साक्षात रूपसे अधिगमज व निसर्गज
दोनों होते हैं रलो वा /२/१/३/२/२०/६४ भाषा “किन्हीं कर्मभूमिया द्रव्य-मनुष्योंको केवली श्रुतकेक्लीके निक्ट उपदेशसे और उपदेशके बिना भी क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाता है। १०. पांचों ज्ञानोंमें निसर्गज व अधिगमजपना रा वा. हि/१/३/२८ केवलज्ञान श्रुतज्ञान-पूर्वक होता है तातै निसर्गपना नाहीं। श्रुतज्ञान परोपदेश-पूर्वक ही होता है। स्वयंबुद्धके श्रुतज्ञान हो है सो जन्मान्तर के उपदेश-पूर्वक है। (तात निसर्गज नाही) मति, अवधि, मन पर्ययज्ञान निसर्गज ही हैं।
११. चारित्र तो अधिगमज ही होता है श्लो वा./२१/३/२/२८/६४ चारित्रं पुनरधिगमजमेव तस्य श्रुतपूर्व करवात्तद्विशेषस्यापि निसर्गजत्वाभावाव द्विविधहेतुकत्वं न सभवति । -चारित्र तो अधिगमसे ही जन्य है। निसर्ग (परोपदेशके बिना
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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