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अदंतधोवन
अद्धा असंक्षेप
जोतने में समर्थ तापक्त बल बोयं परन्तु परिहार विधिको धारण करने में असमर्थ साधु इस विधिको धारण करते हैं। ज्ञान दर्शन सम्पन्न तथा तीव्र संसारभीरु तीन, पाँच, सात अथवा नौ साधु मिलकर धारण करते है। धर्माचार्यको शरणमें रहते है। उनका आचार बताते है-औत्सर्गिक (नग्न) लिग धारण करते हैं। वेहोपकारार्थ माहार, वसति, कमंडलु और पिच्छिकाका आश्रय लेते है। तृण, चटाई, फलक आदि अन्य परिग्रह व उपधिका त्याग करते है। बैठते उठते आदि समय पिच्छिकासे शरीरस्पर्श रूप प्रतिलेखन नहीं करते। शरीरसंस्कारका त्याग करते हैं. परीषह सहते है. तीन वा पाँच आदि मिलकर वृत्ति करते हैं, वेदनाका इलाज नहीं करते, तपसे अतिशय थक जानेपर सहायकों के हस्तादिका आश्रय लेते हैं, बाचना, पृच्छना आदिका त्याग करते हैं, दिन में व रातको कभी नहीं सोते, परन्तु न सोनेकी प्रतिज्ञा भी नहीं करते, ध्यानमें प्रयत रहते है.श्मशानमें भी ध्यान करनेका उन्हें निषेध नहीं है, षडावश्यक क्रियाओंमें सदा प्रयत्नशील रहते हैं, सार्य व प्रातः पिच्छिका कमंडलुका संशोधन करते हैं। 'मिथ्या मे दुकृतम्' इतना बोलकर ही दोषों का निराकरण कर लेते हैं, दस प्रकार के समाचारोंमें प्रवृत्ति करते है। संघके साथ दान, ग्रहण, विनय आदिका व्यवहार नहीं करते। कार्यवश उनमें से केवल एक साधु ही बोलता है, जिस क्षेत्र में सधर्माजन हों वहाँ प्रवेश नहीं करते, मौनका नियम होते हुए भी तीन विषयों में बोलते हैं-मागं पूछना, शास्त्र विषयक प्रश्न पूछना, घरका पता पूछना । बसतिमें आग आदि लग जानेपर उसे त्याग देते है अथवा नहीं भी त्यागते, व्याघ्रादि दुष्ट प्राणियोंके आ जानेपर मार्ग छोड़ देते है अथवा नहीं भी छोड़ते, कण्टक आदि लगने या आँख में रजकण पड़नेपर उसे निकालते हैं अथवा नहीं भी निकालते। धर्मोपदेश करते हैं. परन्तु दीक्षार्थीको दीक्षा देनेका मनमें विचार भी नहीं करते। क्षेत्रको अपेक्षा ये साधु सर्व कर्मभूमियोंमें होते है, कालकी अपेक्षा सदा होते हैं, चारित्रकी अपेक्षा सामायिक व छेदोपस्थापना ये दो चारित्र होते हैं, तीर्थकी अपेक्षा सब तीर्थंकरोंके तोों में होते हैं. ३० वर्ष पर्यन्त भोग भोगकर १६ वर्ष तक मुनि अवस्थामें रहनेके पथावही अथालंद विधिधारणके योग्य होते हैं, ज्ञानकी अपेक्षा नौ या दस पूर्वोके ज्ञाता होते हैं, वेदकी अपेक्षा पुरुष या नपुंसकवेदी होते है। लेश्याकी अपेक्षा पद्य च शुक्ल लेश्यावाले होते हैं, ध्यानकी अपेक्षा धर्मध्यानी होते हैं। संस्थानकी अपेक्षा छहों में से किसी भी एक संस्थानवाले होते हैं, अवगाहनाकी अपेक्षा सात हाथसे १०० धनुषतकके होते हैं, कालकी अपेक्षा विधिको धारण करनेसे पूर्व बीती आयुसे हीन पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबाले होते हैं। (मध्यम जघन्य भी यथायोग्य जानना)। विक्रिया, चारण व क्षीरसावी आदि ऋद्धियोंके धारक होते हैं, परन्तु वैराग्यके कारण उनका सेवन नहीं करते। गच्छविनिर्गत अर्थात् गच्छसे निकलकर उससे पृथक रहते हुए अथा लद विधि करनेवाले मुनियों का यह स्वरूप है। २. अब गच्छप्रतिबद्ध अधालंद विधिका विवेचन करते हैं। -गच्छसे निकलकर बाहर एक योजन और एक कोश ( ५ कोश ) पर ये मुनि विहार व निवास करते हैं। शक्तिमान् आचार्य स्वयं अपने क्षेत्रसे बाहर जाकर उनको अर्थपदका अध्ययन कराते हैं । अथवा समथ होनेपर अधालंद विधिबाले साधु स्वयं भी आचार्यके पास जाकर अध्ययन करते हैं। परिज्ञान व धारणा आदि गुण सम्पन्न एक, दो या तीन मुनि गुरुके पास आते है और उनसे प्रश्नादि करके अपने स्थानपर लौट जाते हैं। यदि गच्छ क्षेत्रान्तरको विहार करता है, तो वे भी गुरुकी आज्ञा लेकर बिहार करते हैं। (क्षेष विधि पूर्ववत जानना)-इस प्रकार अयाजद विधिके दोनों भेदोंका कथन किया गया। अक्तपोवन-मूला. ३३ अंगुलिणहावलेहणिकलीहिं पासाणवलियादीहि। तमलासोहणयं संजमगुली अदंतमणं ।-अंगुली, नख, बातीन, तृणविशेष, पैनीकंकणी, वृक्षकी छाल (बकल ), आदि कर
दाँतके मलको नहीं शुद्ध करना वह इन्द्रिय संयमकी रक्षा करनेवाला
अदंतधोवन मूल गुण है। अदत्तावान-दे. अस्तेय । अवर्शन परिषह-स सि /६/६/४२७/१० परमवैराग्यभावनाशुखहृदयस्य विदितसकलपदार्थ तत्त्वस्याहदायतनसाधुधर्मपूजकस्यचिरन्त नप्रबजितस्याद्या पि मे ज्ञानातिशयो नोस्पद्यते। महोपवासाचनुष्ठायिना प्रातिहार्यविशेषाः प्रा भवन्निति प्रलापमात्रमर्थिक प्रवज्या। विफलं व्रतपरिपालनमित्येवमसमादधानस्य दर्शमविशुद्धियोगाददर्शनपरिषहसहनमवसातव्यम्।-परम वैराग्यकी भावनासे मेरा हृदय शुद्ध है, मैंने समस्त पदार्थोके रहस्यको जान लिया है, मैं अरहन्त, आयतन, साधु और धर्मका उपासक है, चिरकालसे मैं प्रबजित हूँ तो भी मेरे अभी भी ज्ञानातिशय नहीं उत्पन्न हुआ है। महोपवास आदिका अनुष्ठान करनेवालेके प्रातिहार्य विशेष उत्पन्न हुए, यह प्रलापमात्र है। यह प्रवज्या अनर्थक है, बतौका पालन करना निरर्थक है इत्यादि बातोका दर्शन विशुद्धिके योगसे मनमें नहीं विचार करनेवालेके अदर्शनपरिषह सहन जानना चाहिए। (रा. वा./६/१.२८/६१२/१७). (चा. सा./१२८/४) । १. प्रज्ञा व अदर्शन परिषहमें अन्तर-वे. प्रज्ञा परीषह ।
२. अवर्शनकाअर्थ अभवान क्यों अवलोकनाभाव क्यों नहीं रा.बा./६/६,२६-३०/६१२/२३ श्रद्धानालोचनग्रहणम विशेषादिति चेत; न
अन्यभिचारदर्शनार्थत्वात ।२६। स्यादेतत् श्रद्धानमालोचनमिति द्विविध दर्शनम, तस्याविशेषेण ग्रहण मिह प्राप्नोति, कुतः, अविशेषाद । न हि किंचिद्विशेषलिङ्गमिहाश्रितमस्तीति, तन्न. किं कारणम् । अव्यभिचारी दर्शनार्थत्वात् । मत्यादिज्ञानपञ्चकाव्यभिचारिश्रद्धानं दर्शनम् । आलोचनं तु न, श्रुतमनःपर्यययोरप्रवृत्तरतोऽस्याव्यभिचारिणः श्रद्धानस्य ग्रहणमिहोपपद्यते। मनोरथपरिकल्पनामात्रमिति चेत् न वक्ष्यमाणकारणसामर्थ्यात्।३०।...दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ । त. सू./९/१४ इति । - यद्यपि दर्शनके श्रद्धान और आलोचन ये दो अर्थ होते हैं, पर यहाँ मति आदि पाँच ज्ञानोंके अव्यभिचारी श्रद्धान रूप दर्शनका ग्रहण है, आलोचन रूपदर्शन श्रुत और मनःपर्यय ज्ञानों में नहीं होता अतः उसका ग्रहण नहीं है। जागे स.सं. १४ में दर्शनमोहके उदयसे ही अदर्शन परिषह बतायी जायेगी। अतः वर्शनका अर्थ श्रद्धान है केवल कल्पनामात्र नहीं है। अदिति-(ह. पु./२२/५१-५३ ) तप भ्रष्ट नमि बिनामि द्वारा ध्यानस्थ
ऋषभनाथ भगवानसे राज्यकी याचना करनेपर, अपने पति धरणेन्द्रकी आज्ञासे इस देवीने उन दोनों को विद्याओंका कोप दिया था। अदीक्षा ब्रह्मचारी-दे. ब्रह्मचारी। अवष्ट-कायोत्सर्गका एक अतिचार दे. व्युत्सर्ग ।। अदृष्टांत वचनोदाहरणाभास-वे. दृष्टान्स । अखा-स. सि./३/३८ अद्धा कालस्थितिरित्यर्थः।-अखा और काल
की स्थिति ये एकार्थवाची है। (ध.४/१,५.१/३१८/१) (ध. १३/५.६, ५०/२८४/२) (भ. आ. वि/२५/८६/४)। रा. वा./५/१,१६/४३३/२२ अदाशब्दो निपातः कालवाची।-अबा
शब्द एक निपात है, वह कालबाची है। क. पा.४/३.२२/१२६/११/८ का अद्धा णाम। द्विदिबंधकालो ।-अदा
किसे कहते हैं। स्थिति बन्धके कालको अद्धा कहते है। अद्धाअसंक्षेप-घ.६/१.६-६,२३/१६७/१ असंखेपदा ति एमावाधावियम्पेस देव-णेरझ्याणं आउअस्स उक्कस्सणिसेयहिदी संभवति त्ति उत्तं होदि।-असंक्षेपाचा अर्थात जिससे छोटा (संक्षिम) कोई काल न हो. ऐसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक जितने
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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