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अतिचार
द्वारा बलात्कारसे ब्रह्मचर्य का विनाश होना, ऐसे कार्य परवशतासे होनेसे अतिचार लगते हैं। इनकी आलोचना करना क्षपकका कर्तव्य
१९. पालिकुंचनस्य क्षेत्र काल और भामके आश्रम जो अतिचार हुए हों उनका अन्यथा कथन करना उसको पालिकंचन कहते हैं जैसे सचित पदार्थका सेवन करके अचिसका सेवन किया ऐसा कहना या अचित्तका सेवन करके सचित्तका सेवन किया ऐसा कहना (द्रव्य), वसतिमें कोई कृत्य किया हो तो मैंने यह कार्य रास्ते में किया ऐसा कहना (क्षेत्र), सुभिक्षमें किया हुआ कृत्य दुर्भिक्षमें किया था ऐसा कहना, तथा दिनमें कोई कृत्य करनेपर भी मैंने रात में अमुक कार्य किया था ऐसा बोलना (काल), अकषाय भावसे किये हुए कृत्यको तीव्र परिणामसे किया था ऐसा भोलना (भाव), इन दोषोंकी आलोचना करनी चाहिए । १२ प्रदोषसंज्वलन कषायका तीव्र परिणमन होना अर्थात उनका तीव्र उदय होना । जल, धूलि, पृथिवी, व पाषाण रेखा तुल्य क्रोध, मान, माया, व सोमके प्रत्येक चार-चार भेद है। इन सोलह कपायोंसे होनेवाले अतिचारको प्रदोषा तिचार कहते हैं । १३. प्रमाद--- वाचना पृच्छना आदि चार प्रकार स्वाध्याय तथा सामायिक वन्दनादि आवश्यक क्रियाओं में अनादर आलस्य करना प्रमाद नामका अतिचार है । १४. भय - एकान्त स्थानमें वसति होनेमे सर्प, दुष्ट पशु बाघ इत्यादिक प्राणि प्रवेश करेंगे इस भयसे वसतिके द्वार बन्द करना भयातिचार है । १५ मीमांसा परीक्षा-अपना बल और दूसरेका बल, इसमें कम और ज्यादा किसका है इसकी परीक्षा करना, इससे होनेवाले अतिचारको मीमांसाठिचार कहते हैं-जेसे से हुए हाथको समेट लेना, संकुचित हाथको फैला लेना, धनुषको डोरी लगाकर सज्ज करना, पत्थर फेंकना, माटोका ढेला फेकना, बाधा देना, मर्यादाबाको उल्लघना, कंटकादिको लौंधकर गमन करना, पशु सर्प वगैरह प्राणियाँको मन्त्रको परीक्षा करनेके लिए पकड़ना और सामर्थ्य की परीक्षा करनेके लिए अंजन और चूर्ण का प्रयोग करना, द्रव्यों का संयोग करनेसे त्रस और एकेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति होती है या नहीं इसकी परीक्षा करना, इन कृत्योको परीक्षा कहते हैं । ऐसे कृत्य करने से व्रतों में दोष उत्पन्न होते हैं । १६. वचन दे. सं. ११ पाचन अतिचार १७ वसति वसतिका तृण कोई पशु खाता हो तो उसका निवारण करना, वसति भग्न होती हो तो उसका निवारण करना, बहुतसे व्यक्ति मेरो वसति में नहीं ठहर सकते ऐसा भाषण करना, बहुत मुनि प्रवेश करने लगें तो उनपर क्रुद्ध होना, बहुत यतियोंको वसति मत दो ऐसा कहना, वसतिकी सेवा करना, अथवा अपने कुलके मुनियोंसे सेवा कराना, निमित्तादिकोंका उपदेश देना, ममत्व से ग्राम नगर में अथवा देशमें रहनेका निषेध न करना, अपने सम्बन्धो यतियोंके सुखसे अपनेको ली और उनके दुःखसे अपनेको दुखी समझना ( इस प्रकार के अतिचारोंका अन्तर्भाव उपचाराति चारमें होता है) १८. विनयातिवार पार्श्वस्थादि मुनियोंकी वन्दना करना, उनको उपकरणादि देना, उनका उल्लंघन करनेकी सामर्थ्य न रखना, इत्यादि कृश्यों से जो दोष होते हैं, उनकी आलोचना करनी चाहिए ( इसका अन्तर्भाव संख्या ६ वाले उपचाराविचारमें करना चाहिए) ११. शंका पिच्छिका वगेरह उपयोगी
यों में ये सचित्त हैं या अचित्त हैं ऐसी शंका उत्पन्न होनेपर भी उन्हें मोड़ना, फोड़ना, भक्षण करना । आहार, उपकरण और वसति ये पदार्थ उद्गमादि दोष रहित है, अथवा नहीं है ऐसी शंका जानेपर भी उनको स्वीकार करना यह शंकिता तिचार है । २० सर्वातिचार - ( व्रतका बिलकुल भंग हो जाना सर्वातिचार है) ११. सहसाविचार अनुभवचन और अशुभ विचारोंमें वचनकी और मनकी तरकात अविचारपूर्वक प्रवृति होना इसको सहसातिचार कहना चाहिए २२, स्नेहा विचार शरीर, उपकरण, वसति, कुल, गाँव, नगर, श, बन्धु और पार्श्वस्थ मुनि इनमें 'ये मेरे हैं' ऐसा भाव उत्पन्न होना इसको स्नेह कहते हैं।
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अतिथि
इससे उत्पन्न दोषोंको स्नेहातिचार रहते हैं । २१ स्वप्नातिचारस्वममें अयोग्य पदार्थ का सेवन होना उसको मिग (स्व) कहते हैं । २४, स्वयं शोधक- आचार्यके पास आलोचना करनेपर आचार्यके प्रायश्चित्त देनेसे पूर्व ही स्वयं यह प्रायश्चित्त मैने लिया है, ऐसा विचार कर स्वयं प्रायश्चित्त लेता है, उसको स्वयं शोधक कहते हैं। स्वयं मैंने ऐसी शुद्धि की है ऐसा कथन जानना ।
* बडे-बड़े दोष भी अतिचार हो सकते है वे अतिचार सामान्य के मैद
३. अतिचार व अनाचार में अन्तर स.सि./७/२/144 दण्डका बेवादिभिरभिवा प्राणिनां धन प्राणव्यपरोपणम् तत प्रागेवास्य विनिवृत्तण्डा चाबुक और बेंत आदिसे प्राणियोंको मारना वध है । यहाँ बधका अर्थ प्राणोंका वियोग करना नहीं लिया है, क्योकि अतिचारके पहले ही हिंसाका त्याग कर दिया जाता है। ( भावार्थ - प्राण-व्यपरोपण अतिचार नहीं है, उससे तो व्रतका नाश होता है } । सा. पामिनःसिक व्यतिक्रमं। प्रभोतिचार विषयेषु वर्तन वदन्त्यनाच र मिहातिसक्तताम् -मनकी शुद्धि क्षति होना अतिक्रम है तथा मठोंकी मर्यादाका उल्लघन करना व्यतिक्रम है, विषयोंमें वर्तन करना अतिचार है, और विषयोंमें अत्यन्त आसक्तिका होना अनाचार है । (पू.सि./३० में उत
४. अतिचार लगने के कारण
स. सि /०/२३/२०९ कथं पुनरस्य सचितादिषु प्रवृत्ति
प्रमादसमो हाभ्याम्। प्रश्न- यह गृहस्थ सचित्तादिकमें प्रवृत्ति किस कारण से करता है। उत्तर- प्रभाद और समोहके कारण । क्रमश रा. वा. हिं/७/३५/५८० प्रमाद ते तथा अति भूख तै तथा तीव्र राग ते होय है ।
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* अतिचार लगने की सम्भावना दे. सम्यग्दर्शन २ / ६ । * व्रतोंमे अतिचार लगाने का निषेध २ अतिथि- स. सि. / ७ / २२ / ३६२ संयममविनाशयन्नततीव्यतिथिः । अथवा नास्य तिथिरस्तीव्यतिथि अनियतकालागमन इत्यर्थ । - सयमका विनाश न हो, इस विधिसे जो आता है. वह अतिथि है या जिसके आनेकी कोई तिथि नहीं उसे अतिथि कहते है। तात्पर्य यह है कि जिसके जानेका कोई काल निश्चित नहीं है, उसे अतिथि कहते हैं।
साध /५/४२ में उद्धृत “तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे श्यक्ता येन महात्मना । प्रतिथित विजानीयाद्वेषमभ्यागत विदु" जिस महात्माने तिथि पर्व उत्सव आदि सबका त्याग कर दिया है अर्थात् अमुक पर्व या तिथिमें भोजन नहीं करना ऐसे नियमका त्याग कर दिया है उसको अतिथि कहते हैं। शेष व्यक्तियोंको अभ्यागत कहते हैं ।
चा. पा./टी./२५/४५ न विद्यते तिथिः प्रतिपदादिका यस्य सोऽतिथि. । अथवा संयमलाभार्थमति गच्छति उदण्ड कर तिथियेतिः । - जिसको प्रतिपदा आदिक तिथि न हों वह अतिथि है । अथवा संयम पालनार्थ जो बिहार करता है, जाता है. उडण्डपर्या करता है ऐसा यति अतिथि है ।
१. अतियिसंविभाग व्रत
स.सि /०/२९/१६२ अतिषये संविभागोऽतिथिसंविभागः स चतुर्विधः भिक्षोपकरणोषप्रतिश्रयभेदाय मोक्षार्थमयुताय तिथये संयमपरायणाय शुद्धाय तसा निरवद्या भिक्षा देवा धर्मोपकरणानि सम्यग्दर्शनाथ पवृहमानि दातव्यानि औषधमपि योग्ययो जन प्रतिश्रयच परमधर्मश्रद्धया प्रतिपादयितव्यकृति ' मागगृहस्थधर्मसमुचयार्थ अतिथिके लिए विभाग
शब्दो
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