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है। जो उपकरण कारणकी अपेक्षासे ग्रहण किया जाता है उसका त्याग भी अवश्य करना चाहिए। इसलिए वस्त्र और पात्रका अर्थाधिकारकी अपेक्षासे सूत्रो में महुत स्थानों में विधान आया है, वह सम कारणकी अपेक्षा से ही है, ऐसा समझना चाहिए ।
नोट - [ इस बादमें सभी उद्धरण श्वेताम्बर साहित्य में से लिये गये है अत ऐसा प्रतीत होता है कि विजयोदया टीकाकार आचार्यको श्वेताम्बरों को प्रेमपूर्वक समझाना इष्ट था। वास्तव में दिगम्बर आम्नाय में परिषहादिके कारण भी वस्त्रादिके ग्रहण की आज्ञा नहीं है । यदि ऐसा करना ही पड़े तो मुनिपद छोडकर नीचे आ जाना पडत है । ] ( और भी दे. प्रत्रज्या १/४ ) । अचैतन्य - दे, अचेतन ।
अचौर्य -
अच्छेज्ज
अस्तेय |
वसतिका दोष दे वसति ।
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१ कल्पवासी देवोका एक भेद तथा उनका अवस्थान- दे. अच्युतस्वर्ग ५, २. कल्प स्वर्गो में १६वाँ स्वर्ग दे स्वर्ग : ३. आरण अच्युत स्वर्गका तृतीय पटल व इन्द्रक - दे. स्वर्ग ५, ४ (म.पु / सर्ग / श्लोक ) -- पूर्व भवनं ८ में महानन्द राजाका पुत्र हरिवाहन था ( ८ / २३७ ) पूर्व भव न. ७ में सूकर बना (८ / २२६) पूर्व भव नं ६ में उत्तरकुरुमें मनुष्य पर्याय प्राप्त की (६/१०) पूर्व भवन ५ में ऐशान स्वर्ग में मणिकुण्डल नामक देव हुआ (६/१८७) पूर्व भवन, ४ में नन्दिषेण राजाका पुत्र बरसेन हुआ ( १०/१५०) पूर्वभव न ३ में विजय नामक राजपुत्र हुआ (११/१० ) पूर्वभव न. २ में सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ ( ११ / १६० ) वर्तमान भव में ऋषभनाथ भगवान्का पुत्र तथा भरतका छोटा भाई (१६/४) भरत द्वारा राज्य माँगा जानेपर विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली ( ३४ / १२६ ) भरतके मुक्ति जानेके बाद मुक्तिको प्राप्त किया (४७ / ३६६ ) इनका अपर नाम श्रीषेण था (४७ / ३७२-३७३) । अच्युता— एक विद्यादे विद्या बच्छेद्यदोष
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वसति
अज - भारतीय इतिहासको पुस्तक १/५०१-५०६ मगधका राजा था शिशुनागवंशका था समय-ई. पू. ६ अजयवर्मासा /म. २६-३७ / भोजवी राजा था। भोजन की
वंशावलीके अनुसार ( दे, इतिहास ) आप राजा यशोवर्मा के पुत्र और विन्ध्यर्मा ( विजयवर्मा ) के पिता थे। मालवा ( मगध ) में आपका राज्य था। धारा व उज्जैनी आपकी राजधानी थी। समय ई. १९५३ - १११२ । ( विशेष दे इतिहास ३ / १ ) । अजातशत्रु मगधका एक राजा था तथा शिशुनागवंशी था । अजितंजय-8.9/०/४१२, त्रि. सा ८५२-८३६ आगम में इस राजा
को धर्मका संस्थापक माना गया है। जबकि कल्किके अत्याचारोंसे धर्म व साधुसंघ प्राय नष्ट हो चुका था तब कल्किका पुत्र अजित जय मगध देशका राजा हुआ था जिसने अत्याचारोंसे सन्तप्त प्रजाको सान्त्वना देकर पुन सघ व धर्मकी वृद्धि की थी। समय बी. नि. १०४० ई. ५१४ । अजितंधर- अष्टम रुद्र थे । (विशेष दे. शलाकापुरुष ७ ) । अजित - १. भ. चन्द्रप्रभका शासक यक्ष-दे तीर्थंकर ५/३; २. एक मह्मचारी थाति हनुमच्चरित्र ( अ./५२१)। अजितनाथ म. ५/४८/लोक) पूर्वभवन में विदेह क्षेत्रके
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सीमा नगरका विमलवाहन नामक राजा था (२-४); पूर्व भव नं. २ में अनुमान हुआ (११) वर्तमान भ ५ अजितनाभि- नवम रुद्र थे। अपर नाम जितनाभि था । ( विशेष
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दे शलाकापुरुष ७ ) ।
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अजितपुराण- १. विजयसिंह (ई. १४४८) कृ
रचना: २, अरुणमणि (ई. १६५६ ) कृत भाषा काव्य । अजितसेन १. (म. पु. / ५४ / श्लोक) पूर्व घातकी खण्डमें राजा अजितजयका पुत्र था (८६, ८७, ६२) पिताकी दीक्षाके पश्चात् क्रमसे चक्रवर्ती पद प्राप्त किया (६६,६७ ) एक माहके उपवासी मुनिको आहार देकर उनसे अपने पूर्व हुने तथा दीक्षा धारण कर ली. मरकर अच्युरीन्द्र पद प्राप्त किया (१२०-१२६) यह चन्द्रप्रभु भगवास्का पूर्वका पाँचव भव है ( २७६), २ राजा मार सिंह, इनके उत्तराधिकारी राजा राजमल्ल, इनके मन्त्री चामुण्डराय और इनके पुत्र जिनदेव ये सम समकालीन होते हुए मुनि अजितसेनके शिष्य थे। समय ई. १० का उत्तरार्ध, जैन साहित्यका इतिहास २६७ / प्रेमीजी, गो, क. नू. २६६, बाहुबलि चरित्र श्लो. ११, २८. जे / १/३६०: ३ सेनगण में पार्श्वसेन के प्रशिष्य, कृति अलकार चिन्तामणि, समय ई. १२५० । अजीब/१/२/१४ पिलोजीः- जीव विपरीत लक्षणवाला अजीब है ।
अजीब विजय
सि./५/२/२६६ तेषां धर्मादीना 'अजीब' इति सामान्यसंज्ञा जोवलक्षणाभावमुखेन प्रवृत्ता धर्मादिक द्रव्योंमें जीमका लक्षण नही पाया जाता है इसलिए उनकी अजीव यह सामान्य संज्ञा है । प्र. सा. १२७ यत्र पुनरुपयोगसहचरिताया यथोदितलक्षणायाश्चेत नाया अभावा बहिरन्तश्चा चेतनत्वमवतीर्णं प्रतिभाति सोऽजीमः । - जिसमें उपयोग साथ रहनेवाली यो लक्षणवाली चेतनाका अभाव होनेसे बाहर तथा भीतर अचेतनत्व अवतरित प्रतिभासित होता है, वह अजीब है । द्र.सं./टी./१५/५० इत्युक्तलक्षणोपयोगश्चेतना च यत्र नास्ति स भवत्यजीव इति विशेष इस प्रकारकी उक्त लक्षणवादी चेतना जहाँ नहीं है वह अजीब होता है ऐसा जानना चाहिए। १. अजीवके दो आध्यात्मिक मेव
पप्र./टी./१/३० / ३३ तच्च द्विविधम् । जीवसंबन्धमजीवसंबन्ध च । = और वह दो प्रकारका है- जीव सम्बन्ध और अजीब सम्बन्ध । २. अजीवके उपर्युक्त मेदोंके लक्षण
प. प्र /टी./१/३० / ३३ देहरागादिरूपं जीवसंबन्ध, पुढगलादिपञ्चद्रव्यरूपमजीव संबन्धमजीवलक्षणम्। देहादिमें राग रूप तो जीव सम्बन्ध अजीवका लक्षण है और पुद्गलादि पश्चद्रव्य रूप अजीव सम्बन्ध अजीव का लक्षण है।
३. पाँच अजीव द्रव्यों का नाम निर्देश
त. सू. /५/१,३६ अजीव काया धर्माधर्माकाशपुद्गला' १ कालश्च ॥ ३६.
- धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य, पुद्गल द्रव्य और काल द्रव्य ये पाँच अजीव काय है । ( प्र सा / त. प्र / १२७) (द्र सं . / मू/ १५/५०) | ४. अन्य सम्बन्धित विषय
* धर्मादि द्रव्य वह वह नाम _दे.
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* जीवको कथंचित् अजीव कहना. जीन १/३ । * अजीव विषय धर्मध्यानका लक्षण ध्यान षट् द्रव्योंमे जीव अजीव विभाग — दे. द्रव्य. ३ । अजीव आत्रय दे. आसव |
*
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अजीव कर्म- दे. क
अजीव निर्जरा दे. निर्जरा।
अजीव बन्ध - दे. बंध । अजीव मोक्ष-वे. मोक्ष | अजीव विजय
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धर्मध्यान १ ।
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