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अज्ञान
अज्ञान
अज्ञान कहते है। मोक्षमार्गको प्रमुखता होनेके कारण आगममें अज्ञान शब्दसे प्राय' मिथ्याज्ञान कहना हो इष्ट होता है।
१. औदयिक अज्ञानका लक्षण स सि/२/६/१५६ ज्ञानावरणकर्मण रदयारपदाथानवबोधौ भवति तद
ज्ञानमौद यिकम् । पदार्थोके नही जाननेको अज्ञान कहते है चूकि वह ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होता है इसलिए औदयिक है।
रा वा /२/६/५/१०६/८1 पघ, उ./१०२२ अस्ति यत्पुनरज्ञाननादौदयिक स्मृतम् । तदस्ति
शुन्यतारूप यथा निश्चेतन वपुः ॥१०२२ = और जो यथार्थ में ओदयिक अज्ञान है वह मृत देहेकी तरह शूभ्य रूप है। २.क्षयोपशमिक अज्ञानका लक्षण
१ मिथ्याज्ञानकी अपेक्षा रा.वा/8/9/११/६०४/८ मिथ्यादर्शनोदयापादितकालष्यमज्ञानं त्रिविधम् ।-मिथ्यादर्शनके उदयसे उत्पन्न होनेवाला अज्ञान तीन प्रकार
का है । (द्र सं./टी/५/१५) (त. सा./१/३५) । ध १/१.१.१३५३/७ मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्याकरणादज्ञानव्यपदेशात । मिथ्यात्वसहित ज्ञानको ही ज्ञानका कार्य महीं करनेसे
अज्ञान कहा है। (ध१/१,७,४/२२४/३)। स सा | आ| २४७ सोऽज्ञानत्वान्मिथ्यादृष्टि ।- (परके कतख रूप
अध्यवसायके कारण) अज्ञानी होनेसे मिथ्यादृष्टि है। स सा /ता वृ/८८/१४४ शुद्धारमादितत्त्वभावविषये विपरीतपरिच्छित्ति विकारपरिणामो जीवस्याज्ञानम्। - शुद्धात्मादि भाव तत्त्वोके विषयमें विपरीत ग्रहण रूप विकारी परिणामोंको जीवका अज्ञान कहते है। वध / उ./१०२१ त्रिषु ज्ञानेषु चैतेषु यरस्यादज्ञानमर्थता । क्षायोप
शमिकं तत्स्यान्न स्यादौदयिक कचित। इन तीन ज्ञानोमे जो बास्तबमें अज्ञान है अर्थात ज्ञान में विशेषता होते हुए भी यदि वह सम्यग्दर्शन सहित नहीं तो उसे वास्तव में अज्ञान कहते है। वह अज्ञान क्षायोपशमिक भाव है। कहीं भी औदयिक नहीं कहा जा
सकता। स.सा/प. जयचन्द/१६५ मिथ्यात्व सहित ज्ञान ही अज्ञान कहलाता है।। स. सा/प जयचन्द/७४,१७७)।
२ दूषित ज्ञानकी अपेक्षा ध.१/१,१,१२०/३६४/६ यथायथमप्रतिभासितार्थ प्रत्ययानुविद्वावगमोडज्ञानम्। -न्यूनता आदि दोषोंसे युक्त यथास्थित अप्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्तसे उत्प हुए तत्सम्बन्धी बोधको अज्ञान
साधन हो सकता है, धर्मका नहीं। ( इनकी यह मान्यता ही
अज्ञान है।) ध.८/३,६/२०/४ विचारिज्जमाणे जीवाजीवादिषयस्था ण संति णिचाणिञ्च वियप्पे हिं, तदो सव्वमण्णाणमेव । णाणं स्थिति अहिणिवेसो अण्णाणमिच्छत्त । -नित्यानित्य विकल्पोसे विचार करनेपर जीवाजीवादि पदार्थ नहीं है, अतएव सब अज्ञान ही है, ज्ञान नहीं है, ऐसे
अभिनिवेशको अज्ञान मिथ्यात्व कहते है। त.सा./२/७/२७८ हिताहितविवेकस्य यत्रात्यन्तमदर्शनम् । यथा पशुबधी धर्मस्तंदज्ञानिकमुच्यते। -जिस मतमें हित और अहितका बिलकुल हो विवेचन नहीं है। पYवध धर्म है' इस प्रकार अहितमें प्रवृत्ति कराने का उपदेश है वह अज्ञानिक मिथ्यात्व है। नोट-और भी देखो आगे अज्ञानवाद।।
३. मति आदि ज्ञानोंको अज्ञान कैसे कहते हैं ध ७/२,१,४८६-८८/७ कधं मदिअण्णाणिस्स खओवसमिया ली। मदिअण्णाणावरणस्स देशघादिफहयाणमुदएण मदिअण्णाणित्तुबलभादो। जदि देसघादिफहसाणमुदएण अण्णाणित्तं होदि तो तस्स
ओदइयत्तं पसज्जये। ण सबघादिफहयाणमुदयाभावा। कथं पुण खओवसमियत्त । आवरणे मते वि आवरणिज्जास पाणस्स एगदेसो जम्हि उदए उबलभदे तस्स भावस्स ग्वओबसमवषएसादो खओवसमियत्तमण्णाणस्स ण विरुज्झदे। अधवा माणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उबसमो एमदेसक्खओ, तस्स खोवसमसण्णा ।' .. सपहि दोण्हं (सव्वधादिफद्दयाणमुदयख एण तेसिं चेव संतोवसमेण) पडिसेहं कादूण देसघादिफयाणमुदयणेव खोवसमिय भावो होदि त्ति परुवेंतस्स स्वयणविरोहो किण्ण जाय। ण, जदि सत्रधादिफचयाणमुदयक एण सजुत्तदेसघादिफबयाणमुदएणेव खोवमिय भावो इच्छिज्जदि तो फासिदिय-कायजोगो-मदि-सुदणाणाणं खोवसमिओ भावोर पावने फासिदियावरण वीरियंतराश्यमदि-मुदणाणावरणाण सम्वधादिफयाण सव्वकालमुदयाभावा । ण च सबबयणविरोहो वि, हदियजोगमगणाम अण्णे सिमाहरियाणं सक्खाणकमजाणावण ठें तत्थ तधापरूवणादो। ज दो णियमेण उप्पज्जदि तं तस्स कज्जमियर च कारण ! ण च देसघादिफक्ष्याणमुदओ च सम्बघादिफद्दयाणमुदयक्रवओ णियमेण अप्पप्पणो णाणजणओ, खोण कसायचरिमसमर ओहिमणपज्जवणाणावरणसम्यघादिफद्दयाण ख एण समुप्पज्जमाणओहिमणपज्जवणाणाणमुबलभाभावादो। -प्रश्न-मति अज्ञानो जोवके क्षयोपशम ल ब्धि कैसे मानी जा सकती है। उत्तर -क्योंकि, उस जोक्के मत्यज्ञानावरण कर्मके देशघाती स्पर्धकोके उदयसे अज्ञानित्व पाया जाता है। प्रश्न-यदि देशघाती स्पर्ध कोके उदयसे अज्ञानित्व होता है तो अज्ञानित्वको औदयिक भाव माननेका प्रसग आता है । उत्तर-नही आता, क्योंकि वहाँ सर्वघाती स्पर्ध कोंके उदयका अभाव है । प्रश्न-तो फिर अज्ञानिस्व में क्षायोपशमिकत्व क्या है। उत्तर-आवरण के होते हुए भी आवरणीय ज्ञान का एक देश जहॉपर उदय में पाया जाता है उसी भावको क्षायोपशमिक नाम दिया जाता है । इसमे अज्ञानको क्षायोपशमिक भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता। अथवा ज्ञानके विनाशका नाम क्षय है उस क्षयका उपशम हुआ एकदेश क्षय। इस प्रकार ज्ञानके एक देशीय क्षयकी क्षयोपशम सज्ञा मानी जा सकती है...। प्रश्न-यहाँ (मति अज्ञान आदिकोमें ) सर्वघातो स्पर्धको के उदय, क्षय और उनके सत्त्वोपशम इन दोनोका प्रतिषेध करके केवल देशपाती स्पर्धकों के उदयसे क्षायोपमिक भाव होता है ऐसा प्ररूपण करनेवालेके स्ववचन-विरोध दोष क्यों नहीं होता! उत्तर-नहीं होता, क्योंकि यदि संबंघाती स्पर्धकोके उदयक्षयसे संयुक्त देशघाती स्पर्ध कोंके उदयसे ही क्षामोपशमिक भाव मानना इष्ट है तो स्पर्शनेन्द्रिय, काययोग और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इनके क्षायोपशमिक भाव प्राप्त नहीं होगा। क्योकि स्पर्शेन्द्रियावरण,
कहते है।
न. बृ./३०६ सम्यविमोहविम्भमजुत्त ज त खु होइ अण्णाणं । अह्वा कुसच्छाझेयं पावपः हवदितं जाणं ॥३०६॥ - सशय, विमोह, विभ्रमसे युक्त ज्ञान अज्ञान कहलाता है अथवा कुशास्त्रोका अध्ययन पापका कारण होनेसे वह भी अज्ञान कहलाता है। (ध. १/१,१,४/१४३/३ )।
३ अज्ञान मिथ्यात्वकी अपेक्षा स. सि./८/२/३५ हिताहितपरीक्षाविरहोऽज्ञानिकत्वम् । - हिताहित
की परीक्षासे रहित होना अज्ञानिक मिथ्यादर्शन है। (रा वा ८/ १/२८/५६४/२२)। ग. वा/८/१/१२/१६२/१३ अत्र चोद्यते-बादरायणवसुजैमिनिप्रभृतीनां श्रुतिविहितक्रियानुष्ठायिनो कथमज्ञानिकत्वमिति । उच्यते-प्राणिवधधर्मसाधनाभिप्रायात् । न हि प्राणिवध पापहेतुधर्मसाधनस्वमापत्तु महति। -प्रश्न-बादरायण, वसु, जैमिनी आदि तो बेद विहित क्रियाओं का अनुष्ठान करते है, वे अज्ञानी कैसे हो सकते है । उत्तर--- इनने प्राणी वधको धर्म माना है (परन्तु) प्राणी वध तो पापका ही
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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