Book Title: Vasantraj Shakunam
Author(s): Vasantraj Bhatt, Bhanuchandra Gani
Publisher: Khemraj Shrikrishnadas
Catalog link: https://jainqq.org/explore/034213/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો ! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૭૧ વસંતરાજ શકુનમ્ : દ્રવ્ય સહાયક : પૂ. આચાર્ય શ્રી રામચન્દ્ર-ભદ્રંકર-કુંદકુંદસૂરીશ્વરજી મહારાજના શિષ્યરત્ન વર્ધમાન તપની ૧૦૦+૮૧ ઓળીના આરાધક પૂ. પંન્યાસ પ્રવર શ્રી નયભદ્રવિજયજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી સામુહિક ચાતુર્માસ આરાધના સમિતિ-સં. ૨૦૬૮ રાજેન્દ્ર ભુવન-પાલિતાણાના ચાતુર્માસ પ્રસંગે જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 ઈ. ૨૦૧૩ સંવત ૨૦૬૯ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ ક્રમાંક પૃષ્ઠ કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा. पू. जिनदासगणि चूर्णीकार पू. मेघविजयजी गणि म. सा. 001 002 003 004 005 006 007 008 009 010 011 012 013 014 015 016 017 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05. 018 019 020 021 022 023 024 025 026 027 028 029 श्री नंदीसूत्र अवचूरी श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं श्री मानतुङ्गशास्त्रम् अपराजितपृच्छा शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् शिल्परत्नम् भाग - १ शिल्परत्नम् भाग - २ प्रासादतिलक काश्यशिल्पम् प्रासादमञ्जरी राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र शिल्पदीपक वास्तुसार दीपार्णव उत्तरार्ध જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ जैन ग्रंथावली હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ | न्यायप्रवेशः भाग-१ दीपार्णव पूर्वार्ध | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १ | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२ प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः शक्तिवादादर्शः क्षीरार्णव वेधवास्तु प्रभाकर पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. पू. मानतुंगविजयजी म.सा. श्री बी. भट्टाचार्य | श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री विनायक गणेश आपटे श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री नारायण भारती गोंसाई श्री गंगाधरजी प्रणीत श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा. श्री एच. आर. कापडीआ श्री बेचरदास जीवराज दोशी श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 238 286 84 18 48 54 810 850 322 280 162 302 156 352 120 88 110 498 502 454 226 640 452 500 454 188 214 414 192 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 824 288 30 | શિન્જરત્નાકર प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३ श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. 520 034 (). પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२) 324 302 196 039. 190 040 | તિલક 202 480 228 60 044 218 036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038 | તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી 045 190 138 296 (04) 210 274 286 216 532 113 112 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર ભાષા | 218. | 164 સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२ પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६ | पू. लावण्यसूरिजी म.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प प. जिनविजयजी म.सा. 160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) | श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य 668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी सं पू. मेघविजयजी गणि 516 064| विवेक विलास सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य 268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम् | सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 420 06764शमाता वही गुशनुवाह गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम् सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया 428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 308 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन 128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं श्री भगवानदास जैन 532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો १४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376 060 322 073 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 075 076 સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 077 1 ભારતનો જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય 079 શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १ 081 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - २ જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૧ જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૨ 082 ह शिल्पशास्त्र भाग - 3 O83 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो भाग-१ 084 ल्याए 125 ORS विश्वलोचन कोश 086 | Sथा रत्न छोश भाग-1 0875था रत्न छोश भाग-2 હસ્તસગ્રીવનમ્ 088 089 090 એન્દ્રચતુર્વિશનિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા गुभ. शुभ, गुभ. गुभ. शुभ श्री साराभाई नवाब श्री साराभाई नवाब श्री विद्या साराभाई नवाब श्री साराभाई नवाब सं. श्री मनसुखलाल भुदरमल श्री जगन्नाथ अंबाराम शुभ. शुभ. शुभ. शुभ, गु४. सं.हिं श्री नंदलाल शर्मा गुभ. गुभ. सं सं. श्री जगन्नाथ अंबाराम श्री जगन्नाथ अंबाराम पू. कान्तिसागरजी श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री श्री बेचरदास जीवराज दोशी श्री बेचरदास जीवराज दोशी पू. मेघविजयजीगणि पू.यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 374 238 194 192 254 260 238 260 114 910 436 336 230 322 114 560 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार क्रम 272 240 सं. 254 282 466 342 362 134 70 316 224 612 307 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३ बादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४ बादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी | वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला | गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१ पुरणचंद्र नाहर | पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२ पुरणचंद्र नाहर सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३ पुरणचंद्र नाहर सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१ कांतिविजयजी सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१ विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स पी. पीटरसन | भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम् | जिनविजयजी सं. जैन सत्य संशोधक 514 454 354 सं./हि 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404 404 540 274 सं./गु 414 400 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 754 194 3101 276 69 100 136 266 244 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम कर्ता / संपादक भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२ हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६ पी. पीटरसन अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ) शील खंड सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः ब्रह्मदेव सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।। जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२ सोमविजयजी | शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण) रत्नचंद्र स्वामी प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २ कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह) मेघविजयजी सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि कल्याण वर्धन सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम् रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 274 168 282 182 गुज. 384 376 387 174 320 286 272 142 260 232 160 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार क्रम विषय संपादक/प्रकाशक प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम 154 उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य 155 | उणादि गण विवृत्ति कर्त्ता / संपादक पू. हेमचंद्राचार्य पू. हेमचंद्राचार्य 156 प्राकृत प्रकाश-सटीक 157 द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति 158 आरम्भसिध्धि सटीक 159 खंडहरो का वैभव 160 बालभारत 161 गिरनार माहात्म्य 162 | गिरनार गल्प 163 प्रश्नोत्तर सार्ध शतक 164 भारतिय संपादन शास्त्र 165 विभक्त्यर्थ निर्णय 166 व्योम वती - १ 167 व्योम वती - २ 168 जैन न्यायखंड खाद्यम् 169 हरितकाव्यादि निघंटू 170 योग चिंतामणि- सटीक 171 वसंतराज शकुनम् 172 महाविद्या विडंबना 173 ज्योतिर्निबन्ध 174 मेघमाला विचार 175 मुहूर्त चिंतामणि- सटीक 176 | मानसोल्लास सटीक - १ 177 मानसोल्लास सटीक - २ 178 ज्योतिष सार प्राकृत 179 मुहूर्त संग्रह 180 हिन्दु एस्ट्रोलोजी भामाह ठक्कर फेरू पू. उदयप्रभदेवसूरिजी पू. कान्तीसागरजी पू. अमरचंद्रसूरिजी दौलतचंद परषोत्तमदास पू. ललितविजयजी पू. क्षमाकल्याणविजयजी मूलराज जैन गिरिधर झा शिवाचार्य शिवाचार्य संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं. ५ - - यशोविजयजी व्याकरण व्याकरण व्याकरण धातु ज्योतीष शील्प प्रकरण साहित्य न्याय न्याय न्याय उपा. न्याय भाव मिश्र आयुर्वेद पू. हर्षकीर्तिसूरिजी आयुर्वेद ज्योतिष पू. भानुचन्द्र गणि टीका ज्योतिष पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका शिवराज ज्योतिष ज्योतिष पू. विजयप्रभसूरी रामकृत प्रमिताक्षय टीका ज्योतिष भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष भगवानदास जैन ज्योतिष अंबालाल शर्मा ज्योतिष पिताम्बरदास त्रीभोवनदास ज्योतिष काव्य तीर्थ तीर्थ भाषा संस्कृत संस्कृत प्राकृत संस्कृत/हिन्दी संस्कृत हिन्दी संस्कृत संस्कृत / गुजराती संस्कृत/ गुजराती हिन्दी हिन्दी संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत / हिन्दी संस्कृत/हिन्दी संस्कृत / हिन्दी संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत/ गुजराती संस्कृत संस्कृत संस्कृत प्राकृत / हिन्दी गुजराती गुजराती जोहन क्रिष्टे पू. मनोहरविजयजी जय कृष्णदास गुप्ता भंवरलाल नाहटा पू. जितेन्द्रविजयजी भारतीय ज्ञानपीठ पं. शीवदत्त जैन पत्र हंसकविजय फ्री लायब्रेरी साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी जैन विद्याभवन, लाहोर चौखम्बा प्रकाशन संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय बद्रीनाथ शुक्ल शीव शर्मा लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस खेमराज कृष्णदास सेन्ट्रल लायब्रेरी आनंद आश्रम मेघजी हीरजी अनूप मिश्र ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट भगवानदास जैन शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी पिताम्बरदास टी. महेता पृष्ठ 304 122 208 70 310 462 512 264 144 256 75 488 226 365 190 480 352 596 250 391 114 238 166 368 88 356 168 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम 181 182 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमलाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६ 192 प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। विषय पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१ काव्यप्रकाश भाग-२ काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३ 183 184 नृत्यरत्न कोश भाग-१ 185 नृत्यरत्न कोश भाग- २ 186 नृत्याध्याय 187 संगीरत्नाकर भाग १ सटीक 188 संगीरत्नाकर भाग २ सटीक 189 संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक 190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो 193 न्यायविंदु सटीक 194 शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196 शीघ्रबोध भाग- ११ थी १५ 197 शीघ्रबोध भाग - १६ थी २० 198 शीघ्रबोध भाग- २१ थी २५ 199 अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 मग्गानुसारिया कर्त्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव नारद - - - श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर श्री डी. एस शाह भाषा संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत/हिन्दी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती संस्कृत हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी हिन्दी संस्कृत/ गुजराती संस्कृत संस्कृत/गुजराती संपादक/प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल श्री रसीकलाल छोटालाल श्री वाचस्पति गैरोभा श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग मुक्ति-कमल जैन मोहन ग्रंथमाला श्री चंद्रशेखर शास्त्री सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा नरोत्तमदास भानजी सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट पृष्ठ 364 222 330 156 248 504 448 444 616 632 84 244 220 422 304 446 414 409 476 444 146 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग - १ नियुक्ति + टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग - २ निर्युक्ति+ टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग - ३ निर्युक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग - ५ निर्युक्ति+ टीका 207 सुयगडांग सूत्र भाग - १ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग - २ सटीक 209 सुयगडांग सूत्र भाग - ३ सटीक 210 सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 सुयगडांग सूत्र भाग - ५ सटीक 212 रायपसेणिय सूत्र 213 प्राचीन तीर्थमाळा भाग १ 214 धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग - १ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 तार्किक रक्षा सार संग्रह 219 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची । 220 221 वादार्थ संग्रह भाग - १ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका) | वादार्थ संग्रह भाग - २ ( षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, समासवादार्थ, वकारवादार्थ) वादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका) कर्त्ता / टिकाकार भाषा श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री मलयगिरि गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री धर्मसूरि सं./ गुजराती श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा संस्कृत श्री हेमचंद्राचार्य आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती श्री हेमचंद्राचार्य सं./ गुजराती आ. श्री वरदराज संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि संस्कृत संपादक / प्रकाशक श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री माणेक मुनि श्री बेचरदास दोशी श्री बेचरदास दोशी राजकीय संस्कृत पुस्तकालय महादेव शर्मा महादेव शर्मा महादेव शर्मा महादेव शर्मा पृष्ठ 285 280 315 307 361 301 263 395 386 351 260 272 530 648 510 560 427 88 78 112 228 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DISASAASS ॥श्रीः॥ वसंतराजशाकनम्. Se SANE महत्वसवराजविरचितं भाननंदगणिनि गवनवा टाकया समलकतम दध्यकुलोत्पनजटागकात्मजीवरकाया मनागजन्यामापाव्याख्ययापनमा CATIOस राणायाawarenewwwwwwwwwwonागतमा 2225022 खमराजधाकृष्णदास श्रेष्टिना स्वकीय श्रीवाटेवर स्टीम-यन्त्रागारे मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । पाल्गुन संवत् १९६३, बाके १८२८. तमलिस्टब्दिक २५ तमराज नियमानुसारती - राजलेखेन "श्रीवर यन्त्रालयाधीशेत सर्वथा AKADAKOREATrm Aho I Shrutgyanam Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aho ! Shrutgyanam Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना.. शाकुनविषयमें शकुनवसंतराज बहुत योग्य है. यामें नानाप्रकारकं शकुन कहेहैं । यह शकुनशास्त्र प्राचीन देवऋषिप्रणीत है । पूर्व जो अंधकासुरके वधकू उद्युक्त हुये जब शिवजीने शकुन देखे तब ये शकुन प्रवर्त हुये. तापीछे तारकासुरके संग्रामसमयमें तारकासुरके वैरी स्वामिकार्तिकजीके अर्थ शिवजीने शकुननको उपदेश दियो । तापीछे जंभासुरके क्धके लिये युक्त होय रह्यो इंद्र तावू स्वामिकार्तिकजी शकुननको उपदेश करते हुये ॥ तापीछे इंद्र कालांतर में कश्यपजीकू शकुन देतो हुयो और कश्यपजीने जा समयमें गरुडजी अमृत हरवेकू चले तब गरुडजीकू शकुननको उपदेश कियो || और शिवजीने अत्रि, गर्ग, भृग्वादिकनकू आदिले मुनीनळू शकुन कहे । भृग्वादिकमुनिनने ये शकुन प्राणीनके कल्याणके लिये कहे ये शकुन महेश्वर, गर्ग, शुक्र, सहदेव, भृग्वादिकनने प्रगट किये हैं. यातें ये शकुन सत्य हैं । शकुन जाननेवाले पुरुषकी कष्टसू रक्षा, सुंदर वृत्ति, जीविका और या लोक परलोकके सारभूत शकुननके प्रभावते त्रिवर्गकी वृद्धि ये होय हैं । विजयराजके पुत्र श्रीशिवराज और वसंतराज ये दो हुये, तामें वसंतराम पृथ्वीमें विख्यात हुये. सो मिथिला पुरीके राजा चंद्रदेवने प्रार्थना कीनी तब भट्ट वसंतराजने माहेश्वर सार और सहदेवकृत शास्त्रमेंसूं सार और बृहस्पति, गर्ग, शुक्र, भृग्वादिकनने कहे जे शास्त्र उनमेंसूं सार ग्रहण कर ये ग्रंथ कियो और पादशाह श्रीअकबर जलालुद्दीनके समयमें श्रीशाहिराज नाम राजाकी प्रार्थनासू वसंतराजकी टीका श्रीभानुचंद्रने करी ॥ या शकुनशास्त्रकर समस्त कार्य जाने जान्यो. ऐसो मनुष्य कष्टरूपी कूपमें नहीं पडै इंद्रियनकर देखये मुनवेमें नहीं आवे ऐसे कार्यनमें शास्त्रही दिव्यचक्षु है. जैसे दिव्यदृष्टि करकै दाखै है तैसेही शास्त्र करके उब जान्यो जाय है. शकुनशास्त्रको जानवेवारो मनुष्य है; सो मेरो ये कार्य कष्टसहित होयगो वा कष्टरहत होयगो ऐसो शकुनझू जान करकै नि:संदेह कार्य करवेकू प्रर्वत्त होय है. और ज्योतिःशास्त्रादिकनकरके जडीकृत मनुष्य हैं उनको ये शकुनशास्त्र प्रगट हुयो है. चमत्कार रसको आधिक्य जामें ऐसो औषधरूप है और वेदनके अर्थनकरकै शोभित "वसंतराज" नाम करके प्रसिद्ध ऐसो ये शकुनको पंथ ता द्विपद, चतुष्पद, षट्पद, अष्टपद, अनेकपद, अपद इन सर्व जंतुनके नानाप्रकारके शकुन यामें कहे हैं || या ग्रंथमें २० वर्ग हैं । ___ १ प्रथम वर्गमें शकुनकी श्लाघा और शिवनीकरके मनुष्यन• उपदेश कह्यो। २ द्वितीयवर्गमें शास्त्रसंग्रहनाम तामें वर्गनको अनुक्रम कह्यो। ३ तृतीयवर्ग अभ्यर्चननाम पूजनका है। ४ चतुर्थ गि मिश्रितनाम तामें शकुननके अनेक भेद मिलेहुये हैं। ५ पंचमवर्ग शुभाऽशुभ नाम है। ६ छठे वर्गमें मनुष्यनके शकुन है। ७ सातवें वर्ग में पोदकीके शकुन कहेहैं। ८ आठवें वर्गमें पक्षिनको वचारस्वरूप कह्यो है। ९ नवमवर्गमें चाष नाम नीलकंठको शकुन है । १० दशम वर्गमें खंज. को शकुन है। '११ ग्यारहवें वर्गमें मलारीके शकुन हैं। १२ बारहवें वर्गमें काकके शकुन हैं । Aho! Shrutgyanam Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) प्रस्तावना । १३ तेरहवें वर्गमें पिंगलिकाके शकुन हैं। १४ चतुर्दशवें वर्गमें चार पावनके जीवनको शकुन है । २५ पंद्रहवें वर्गमें भ्रमरादिकनके शकुन हैं। १६ सोलहवें वर्गमें लालकाली कोडिनके शकुन हैं। १७ सत्रहवें वर्गमें पल्ली नाम छपकलीको शकुन है। १८ अठारहवें वर्गमें श्वाननको शकुन है। १९ उगनीसवें वर्गमें शिवा नाम शृगालीको प्रकरणहै । २० बीसवें वर्गमें शास्त्रको प्रभाव वर्णन है। या प्रकार यामें शकुनको बहुत विषय है । शकुनको ग्रंथ अभीतक कोईभी छाप्यो नहीं है। या ग्रंथकी प्राप्ति प्रथम हमारे मित्रवर्य पंडित हरिकृष्ण व्ये कुट रामजी औरंगाबादवालेने मेरे ऊपर अनुग्रह करके यह ग्रंथ मूलमात्र संवत् १७०३ ई० को लिखों हुयो पुस्तक दियो । , तापीछे एक हमारे स्नेही आनंद सूरगछका श्रीपूज्य गुणरत्न सूरीजी उन्होंने मूल और अंतके सात वर्गकी टीका दीनी. बो पुस्तक बहुत प्राचीन है तापीछे हमने बहुतसो प्रयत्न करथो. तब एक हमारे मित्रवर्य परमस्नेही व्यासजी श्रीमेवदत्तजी उन्होंने समस्त टीका कृपाकरकै राजधानी जोधपुरतूं संपादन करके भेजी ॥ तापीछे हमारे मित्रवर्य नानासाहेब नारो गोविंद मेहँदले काशीजीमें रहे उनने एक पुस्तक मूलमात्र भेज्यो | तापीछे पंडितवर्य कविराज श्रीलक्ष्मीनारायण जीने काशीसं मूल समस्त और प्रथम ७ वर्गकी टीका भेजी ॥ तापीछे राजधानी सवाई जयपुरनिवासी पंडितवर्य श्रायुत गुणाकरजीने समस्त मूल टीका कृपा करके दीनी ॥ यह पुस्तक बडो प्राचीन मिल्यो । या रीतिसं ६ प्रतियां प्राप्त हुई । अत्यन्त प्रयाससू इन सर्व सज्जन पुरुषनको मैं बडो उपकार मान हूं । शकुनके शास्त्रमें यह ग्रंथ बहुत श्रेष्ठ है । मनुष्यनकू सर्व कार्यनके जानवेमें बहुत उपयोगी है याने हमने मूल संस्कृत टीका और हिंदुस्थानी ब्रजभाषा बनवायकरके बहुत श्रमकर शुद्ध कर छपाया है । और इसका रजिष्टरीहक सदाके लिये हमने स्वाधीन कियाहै ताकि अन्य कोई न छापसकै ऐसा यह वसंतराज शाकुन सर्व सजन पुरुषन• मान्य करनो योग्य है । ज्योतिर्वित् श्रीधर जटाशंकर. LA Aho ! Shrutgyanam Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अथ वसंतराजशाकुनस्य सारांशानुक्रमणिका प्रारंभः। - विषयाः पत्र पं० लो. विषयाः पत्र पं० श्लो. प्रथमो वर्गः। शकुनमाज्ञाताज्ञातं ईदृशेषु नृषुमंगलाचरणम् न विशिष्यते येषांशकुनानि तेषां किंचित्प्रार्थना ३ १ २ | येनपक्षिपशवोपरप्रयोजने अतोदै-. . ग्रंथकर्तृवंशवर्णनम् ४ १. ३ वमुक्तम् ग्रंथकर्तनाम | पुरुषोयोगीवत्रिकालदर्शीशकुनेन । १४ ३ २६ ग्रंथकर्तुः प्रार्थना नपनाम अत्रिगुरुशुक्राद्यापिहितभावात्शमृत्युलोकजंतुसमूहशकुनानि कुनमूचुः १५ १ २७ शकुनलक्षणम् पुराणवेदेतिहासाद्याः सत्याधिक शकुनप्रयोजनम् शकुन वदंति १५ ३ शकुनसंज्ञा शिवोपिगणानांशाकुनमुपादिशत् १५ ५ २९ एतच्छास्त्रमौषधमिष्टम् ७३ १० नराणामीश्वरोपदिष्टेनापिशकुनन प्राणभृतांक्षणेन शुभाशुभम् ८ १ ११ ___ शीघ्रज्ञानं आस्मिन्ग्रंथे अवलोकिते उपदेप्र वसंतराजसर्वार्थसमागमेषुसत्यम् १६ ३. ३१ योजनं न . शकुने विरुद्ध समुहूर्तेनापिकार्य न, ९ १ १३ द्वितीयो वर्गः। दैवनोदितः शकुन: पूर्वकर्मफलं अस्मिन्वर्गसंख्याकथ्यते प्रकाशयति ९ ३ १४ | आद्यवर्गप्रतिष्ठाख्येत्रिंशत्श्लोकाः-१७३२ बुद्धिमान्दुःखदंप्रयोजन परिहार्य द्वितीयेसंग्रहाख्येत्रयोदशश्लोकाः . . सुखदं समाश्रयेत् । तृतीयेअर्चनाख्येत्रिंशच्छूलोकाश्चनृभिः प्राक्तनकर्मफलं भुज्यते त तुर्थेमिश्रकाख्येसप्ततिश्लोकाः . १७ ५ ३ . - हि शकुनेन किम् १० | पंचमेशुभाशुभेषोडशश्लोकाःषष्ठवर्गे इह देहिनां पूर्वकर्मणा न किंतु नरेंगिताख्येश्लो०पंचाशत् । १८ १ ४ देशकालादवश्यं भुक्ते सप्तमेश्यामारुतेचतुःशतश्लोकाः सुबुद्धिः शकुनेन दुःखनाशयति अष्टमवर्गपक्षिविचारेसप्तपंचाशत् , _ सुखं संधयति च ५१ श्लोकाः दैवादप्यधिकोद्यमः कुतः वन्हि | नवमेचाषविचारे श्लोकापंचदशमे सपादिकान्दूरतस्त्यजति..११ ३ १९ / खंजनेषड्विंशतिश्लोकाः १८ ४ सुबुद्धिः पौरुषेण इप्सितं याति | एकादशेकरापिकारुतं एकादश त्तः द्वादशेकाकरते एकाधिकादेवात् न किंतुदावानलेनपादपा . अलन्ति १२ १ २० । शीतिशतश्लोकैः देवमपि कारणं तहि सुधियो नृपाः त्रयोदशे पिंगलिकारुतं शतश्लो. नीतिशास्त्रेण धरी कथं पालयंति १२ ३ २१ | चतुर्दशे चतुष्पदानांवर्ग:पंचाउद्यमसाध्यतां देवस्यप्रतिपादयति १३ १ २२ शच्छलोकैः पुरुषःशकुनेनात्महितसंचरते १३ ३. २३ / पंचदशेषट्पदादिरुतंत्रयोदशश्लोक Aho ! Shrutgyanam ... १८. २ शिका Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । - - विषयाः पत्र पं० श्लो० विषयाः पत्र पं० श्लो. षोडशेपिपीलिकाशकुन:पंचदश सरस्वतीध्यानम् २९ १ १७ श्लोकः | कुबेरध्यानं २९ ३ १८ सप्तदशेपल्लीरुतं द्वात्रिंशत्लोकैः गरुडध्यानं अष्टादशेश्वचेष्टितं द्वाविंशत्युत्तर चंडीध्यानंश्लोकद्वयेन द्विशत-लोकैः २. १ १० पार्वतोध्यानं ३१ ३ २२ एकोनविंशे शिवास्तंनवतिश्लो. शकुनज्ञानमाचार्यपूजनंच विशे प्रभाववर्गः चतुर्दशश्लोकैः ११ देवान्प्रणम्यपूजांगुरवेदद्यात् भस्मिनविंशतिवर्गात्मके शाकुन | कुमारिकादीनभोजयेत् सारभूतेबाणनेत्रशरैकश्लोकाः २० ५ १२ रात्रौ शयनविधिः एतच्छाखनौकामधिरूढाशाकुना प्रातःशकुनचेष्टाज्ञानं बुधिं तरति पक्षांतरेपुनःशयनविधिः ३३ ५ २० प्रातःशिशुकुमार्योर्हस्तेशलाकांदतृतीयो वर्गः। ___ त्वापुनस्तेनशकुनंज्ञापयेत् ३४ १ २९ शाकुनगुर्खाशाकुनाःपक्षिणस्ते | शकुनशुभाशुभज्ञानम् षामर्चनम् २१ ४ , शकुनदेवताप्रीतये अर्चनम् ३५ १ ३१ शकुनाधिकारी शकुनघुमुख्यत्वेनपोदक्यादि चतुर्थो वर्गः। पंचैव पोदक्याषिष्टातृदेवाः २३ १ ४ मिश्रशकुनविचारमाह अस्मिन्लोके सर्वेष्वपिपशुपक्षिषु अभिज्ञजनसमूहेप्रधानंशकुनपश्येत् ३६ १ २ देवतास्तिष्ठंत्यतःशाकुनिके नते व्रजतांसमूहेयादृशंशकुनंतादृशं नहिंस्याः २४ , ५ फलम् कांचनादिमूर्तिपूजनम् २४ ३ नराणांशकुनभेदेप्राणगत्याशकुनं शकुनदेशनिर्माणपूजा विलोकयेत् अंतरिक्षात्गोमयंसंगृह्यभूतले इडापिंगलयोमिदक्षिणशकुनं चतुरसादिमंडलं विरुद्धेशकुनेक्षीरतरोरधस्तिष्टवंध्यत्वादिदोषयुक्तायागोगोमयं मशकुनांतराणिपश्येत् न ग्राह्यम् ३ ९/शकुनेविरुद्धेप्राणायामः पिष्टांकितपचरंगौर्विचित्रकार्यम् ११. कोशांतरेशकुनेशुभाशुभम् इंद्रादिरूपेणरंगवर्णनमष्टदले समानितशकुनमाह एवमष्टदले लोकपालानाचार्यवा गृहनिर्गमनानंतरशकुनेशुभाशुभं क्येनार्चयेत् दूरनिकटेशुभाशुभशकुनं नमसायुक्तैर्मन्त्रैःसुगंधद्रव्यैर प्रवेशसमये शुभाशुभशकुन ४० १ १२ चयेत् प्रयाणाद्विपरीतभावः संग्रामादी पनमध्येधनुर्द्धर्यादिपूजनम् २८ १ १४ शस्तः गुरूपदेशान्मंत्रशतं जपेत् मधुना यातु:वामापसव्यौशकुनौप्रहोमः २८ ३ १५ / शस्तो दुर्गायुगलादिकानां ध्यानम् २० ५ १६ पतत्रिणोहर्निशंचरंतितेलक्ष्याः ४१ ३ १५ م ه سه د Aho! Shrutgyanam Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । - - 55521 विषयाः पत्र पं० लो. विषयाः पतत्रिनपुंसकादिभेदमाह ४१ ५ १६ | आतशब्दादिशकुनाः पुरुषलक्षणमाह ४२ १ १७ | दक्षिणवामांगशकुनाः | वामांगेदयामादिशुभास्तथापुंनामनीनपुंसकलक्षणमाह ४२ २ १८ धेयाःशुभाः प्राणभृतां शकुनानांबलाबलंपरी श्रीकंठाद्यादक्षिणेशुभाः | पुंस्त्रीवत्क्ष्वेडादिसव्यासव्येशुभे ४४ १ २० ५९ १ ५३ प्राम्यवनादिशुभाशुभशकुनम् । खंजनजाहकाचैःशुभं कूटपूरकादयःपूर्वदिशिबलवंतः । हारोतकादयो दक्षिणेबलवंतः अच्छनकुलादिशब्दैः शुभाशुभं उत्क्रोशादय:पश्चिमेबलवंतः दिवारात्रौ पुरल्लिकनकुलादिगमने ४५ ३ २३ सरोजादय उत्तरेबलवंतः न शुभं निवृत्तिप्रवृत्तिशकुनयोःशांतादि पुंस्त्रियोदक्षिणवामांगर्दष्ट्रयादिशुभं ६१ १ ५७ निरूपणम् प्राच्यादिषुयशुक्लवर्णादिशकुनाः ६१ ३ ५८ दग्धादिदिगन्तानाह गमनप्रवर्तकशुभाशुभशकुनाः सूर्यभोगनदग्धाद्यष्टदिग्भेदानाह ४७ ५ २७ तोरणनामधेयशकुनाः दग्धादिशकुनमाह ४८ १ २८ चाषादयोदिवसचारिणः क्रियाप्रदीप्तशकुनमाह पिंगलादयोरात्रिचारिणः शकुनंदशप्रकारेणाह मानुषाद्यारात्रिदिनचारिणः ६३ १ ६३ शकुनपरीक्षणम् दशप्रकारानाह देशभेदेनशिवादिशुभाशुभं. प्रदीप्तायशुभशकुनानाह संध्याद्वये प्रदीप्तादिशकुनानाह पथिकैमप्रवेशेवर्जनीयानि शकुनाष्टगतयो वा षोडशगतयः ६४ ५ ६७ कपालाद्यशुभशकुनानाह प्रदीप्तस्वरायशुभशकुनानाह दीप्तादिदिग्विभागशकुनफलानि ६५ ९३ नृणां शांताअपि निष्फला:स्युः बहुशकुनतः फलं खगमृगादिरुतमशुभम् शकुनस्यभक्षणेनसौम्यादिप्रकर एतन्मित्रकवर्गाध्ययनफलम् ६६३ ५२ श्लोकद्वयेनशकुनशुभाशुभारोहणं ५२ ११३ पंचमो वर्गः। पवित्रभूमौस्थितेनशुभशकुनम् उच्चदेशेषुमृतशुष्कशरीराद्यशुभं ४१ उभयात्मकं मंगलमाह नीचशेअंगारादिशुभदं न प्रवेशेकीर्तनदध्यादिकंयथोत्तरंमं० ६७ २ २ एकत्रदेशेप्रदीप्तेनदेशादिभंगावधि कार्योद्यतानां श्लोकचतुष्टयेन द ६७ ५ ३ सर्वस्वजातिमासहरंतोदुर्भिक्षक ध्यादिपंचाशच्छुभानि रामार्जारादिविना परयोनियानाद्देशभंग: अंगभेदेन तद्वया॑वानि नीडाद्यासकोशुभः | गांधारादिस्वरफलम् शिशिरे अश्वोष्ट्राद्याहेमंतेमहिषा प्रयाणेकुंभशकुनः - या:शकुने व्यर्थाः अंगारादित्रिंशद्वयंपदार्थाः ७० ३५, वसंतादावृती काकपिकायायाः ५७ १, ४८प्रस्थानेविघ्नकराः Aho! Shrutgyanam سه م س م م س م س nnnnnnn णम् م ه م سه ما . I . . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) विषयाः प्रयाणे मार्जारयुद्धादि पथिरोदनहीनेशवेदृष्टे श्रेयः प्रवेशम शुभं गंडूषादकस्मादतर्जलं तदाभीप्सितभोजनम् त्यक्तदंतधावनेसन्मुखेपतितवांछितभोजनम् द्विपदेषु नराणां शुभाशुभशकुनं स्त्रीपुंसयोः प्रयासितवस्त्र शकुनः श्लोकद्वयेन स्त्रीपुंसयोर्व मनाद्यनि टम् सकलोद्यमेषुनृपादिदर्शनशकुनः कृष्णांबरादिशकुनः श्वेतांबरादिशकुनः धृतातपत्रादिशकुनः गमनेफलहस्ते पुरुषशकुनः वसंतराजशाकुन सारांशानुक्रमणिका । पुंसां पृष्ठे गच्छाग्रे आगच्छइति वाक् श्रेष्ठा पुसां छिंधिभिधिवेत्यादयोशुभाः शब्दज्ञानाच्छुभाशुभम् उपश्रुत्यंतरप्रकारः श्लोकपंचकेन उपश्रुतिप्रकारांतरं श्लोकत्रयेण प्रदोषे प्रत्यूषेवाउपश्रुतिः नृणांबालभाषितमुपश्रुतिः 'वामदक्षिणोदितोपश्रुतिः रुदितोपश्रुतिः प्राच्या दिदिश्रुदितोपश्रुतिफलम् छक्का शकुन माह षष्ठो वर्गः । आलोकनप्रकरणम् । ७३ ७३ पत्र पं० श्रो० विषया: ७१ ७२ ७२ ७२ उपश्रुतिकरणं । ७४ ठ ७५ ७५ ७५ ७६ छक्काप्रकरणम् । ३ १३ | र्सवकार्येषुछिकानेष्टा छिकायादिगनुसारतः १ ७७ ७८ ३ ५ १ ३ ७७ १ ३ १ ३ ५ १ ७७ ३ ५ १ १४ १५ १६ ३।५ शुभाशुभफलं श्लोकद्वयेन दीप्तादिदिक्षु छिकायाः शुभाशु १ ८२ ३।५ भफलम् बहुछिका निष्फला स्वाषभोजन छिक्काफलम् आद्यतछिकाशकुननिहंत्री छिकायंत्रम् १ अंगस्फुरणमाह २ मूदिस्फुरणं शुभं ३१४ ५ ६ भुजादिस्फुरणशुभाशुभम् ७ पार्श्वादिस्फुरणं शुभाशुभं ८ अत्रादिस्फुरणंशुभाशुभं ९मुष्कादिस्फुरणंशुभम् ८१ ३ ८१ ५ १५ १६ ८२ १ दक्षिणोत्तर पथागतवायोः फलं ४ शाकुनशास्त्राध्ययनासमर्थज है कर्तव्यता ७९ ८० १५ १२ प्रकरणश्लोकसंख्याख्यातं ८१ १ १३ वृत्तत्रयेण १४ अंगस्फुरणचक्रम् दृगंतमध्यादिस्फुरणं शुभं गंडघ्राणादिस्फुरणंशुभं अंगस्फुरणप्रकरणं ! जान्वादिस्फुरणं भाशुभं पुंस्त्रियो दक्षिणवा मांगस्फुरणं शुभाशुभम् मशकादिफलम् २ नखबिंदुशुभाशुभफलम् ३ पत्र पं० श्र० ८३ ३ २ सप्तमो वर्गः । अधिवासनप्रकरणं शकुनदेवतायाः स्तुतिः सर्वविहंगमानां श्यामोदिता शकुनदेवताधिवासनविधिः ८३ १ १ शकुननिर्माणभूमिः Aho! Shrutgyanam ८३ ५/७ ३१४ ८४ १ ८४ ३ ८४ ५ ૪ ७ ८५ १ ८७ ८७ ८७ ઃઃ ટ ८९ ८९ ८९ ९० ० १ ३ :" १. ३ १ ३ ५ १ ३ ९०. ९१ ९१ ३ ९.१ ५ ९२ १ ५ ६ ' ८ ९ , ९३ ४ ९.३ ४ ९३ ५ ९४ १ ९५ १ २ " mr xsw9vর ५ १० १ ११ १२ १३ ३ ४ ५ ६ १४ ३।११।३ १ १ २ ३ ४ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । १ १४ ११४ १ ११५ ११७ ११८ विषयाः पत्र पं० श्लो. विषयाः पत्र पं० श्लो. शकुनत्याज्यभूमिः ९५ ३ ५ | आशायुगलमिश्रफलं ११० ३ ४१ शकुनेसुतरांमनोरमाभूमिः ९६ १६ज्वलितादिभेदःप्रभातयंत्रंच ११० ५ ४२ चक्रवर्तिनृपादिशकुनभूमिप्रमाणं ९६ ३ ७ | उक्तदिशांफलानि निवर्तनप्रमाणं . ९७ १ ८ छायादिशकुनफलम् १११ ३ ४४ भूमेर्वषविभागः . ९७ ३ ९ | संक्रांतिभेदेनदिग्विभागभेदः १११ ५ ४५ भूमिमासादिनिर्णयः ९८ १ १० शांतादिप्रकारेषुसोपयोगित्वं . ११२ १.४६ शकुनकालतःशुभाशुभं ३ ११ प्रशस्ताःककुभादयः ११२ ३ ४७ शकुनताराबलम् ५ १२ सप्तधाशांतश्रेष्टंदीप्तनेष्टम् ११२ ५ ४८ शकुनेक्षीणचंद्रादित्याज्यं शांतदीप्तेषुशुभाशुभं ११३ १ ४९ शाकुनिकेनशकुनार्थगमन शांतप्रदीप्तादिजानातिसशाकुनिकः ११३ ३ प्रकारः | टीकायांशकुनाणवेदिग्विभागशकुनदेवतार्चनविधिः १०० ३३ १५ ! स्त्वेवं। शकुनदेवतामंत्रः १ मंत्र दिग्विभागचक्र शकुनदेवताध्यानम् १०२ ६ १९ | पुनःमरुस्थलीदिग्विभाग: शकुनदेवताकार्यनिवेदनं १०२ ८ २० पुनर्दिग्विभागचक्रं अखिलतोरणान्यर्चयित्वार्जुनायुचारणम् १०३ १ २१ | पोदकीरुस्तेस्वरप्रकरणं । अर्जुननामानि १०३ ३ २२ | पोदकोरुतविचारः ११९ पोदकीनामस्तुतिःश्लोकद्वयेन १०३ ५।८ पोदकीस्वरभेदःश्लोकत्रयेण पोदकीपुंस्त्रीभेदः १०४ १ २५ नराणांप्रतिशब्दकथनं १२. ३ ५५ पादक्यय॑ विधान १०४ ३ पुन:पृष्ठयादौशुभाशुभस्वराः १२० ५ पक्षिपूजांगुरवेनिवेद्यस्वगृहंगच्छेत् १०४ ५ २७ सव्यापसव्यस्वरफलं जपाद्दशांशहोमंविदध्यात् १०५ १ २८ [पंचभूतस्वरभेदःश्लोकत्रयेण गुडाज्यपायसै:कुमारिकाभोजनं | पार्थिवादिनादफलं . १२२ ३ ६१ शयनविधिः पृथ्वीजलपावकानांस्वरफलं १२२ ५ ६२ प्रातःशकुनाचार्येणस हतोरणभूमि पार्थिववयादिस्वरफलं १२३ १ ६३ भागगमनं १०५ ७ ३१ पृथ्व्यादिस्वराःशांतादिभेदेन १२३ ३ ६४ श्यामाशकुनः | शांतादिफलम् १२३ ५ ६५ श्यामाशुभाशुभम् पोदकीदृष्टादृष्टेनशुभाशुभम् १०६ ५ ३४ ष्टाप्रकरणं। अथ शुभचेष्टा १२४ २ शान्तप्रकरणं। पोदकीसन्मुख्यादिशुभम् १२४ ४ ६७ शांतदीप्तादिदिग्विशेषकथनं १०७ | पोदकाप्रसन्नादिमुखशुभम् १२४ कालपरत्वेनदग्धादिदिक्संज्ञाक पोदकीदिशावलोकनफलं थनं श्लोकत्रयेण ४।१ । पोदकीदक्षिणांगकंडूयनफलं १२५ ३ सवितुःक्रमेणाष्टदिग्भोगः १०९. ३ ३९ पोदकीपक्षादिक्षेपणफलं १२५ ५ १ दग्धादिभेदः ११० १ ४० पोदकीभक्ष्यायभिलाषादिफलम् १२६ १ ७२ Aho! Shrutgyanam FFEN १२१ १२३ १२५ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) वसंतराजशाकनसारांशानुक्रमाणका । विषयाः पत्र पं० श्लो० विषयाः पत्र पं० श्लो. गमनेपोदकोस्थानादिफलम् १२६ ३ ७३ | दीप्तशांतीपोदकांचेष्टाशुभाऽशुभा १३५ ७ १०३ प्रवासेनराणांशांतगमनेनशुभं १२६ ५ ७४ | ग्रंथविस्तारभयाद्बहुचेष्टान १३६ १ १०४ स्वजातिसंगमित्रादिलाभः एतत्प्रकरणपठनफलम् १३६ ३ १०५ पुच्छमुत्क्षिपतीवध्वागमाभीप्सितं १२७ ३ ७६ ऊर्वादिकमनिस्पृशंतीस्त्रिया लाभदा गतिप्रकरणम् । परस्परकंड्यनाद्भोगादिलाभः. १२७ पोदकीगमनस्वरूपं पोदकीशरीरसंस्कारेण शुभंजल अपसव्यात्सव्यगमने, अनुलोमास्नाने अभिषेकं ब्रूमः १२८ १ ७९ | दिसंज्ञा ७ ३१०७ पोदकीदक्षिणपृष्ठभागेकंडूयनात् पोदक्याःवामदिग्भागादिगमने पुंसांवारणादिलाभ: १२८ ३ ८० साअदक्षिणादिसंज्ञा ३७ ५ १०८ कार्यिणांविहगचेष्टितमीप्सितं | देव्या अष्टौगतयः १०९ शाकुनशास्त्रविज्ञैः पोदकीपाथ। अशुभचेष्टाप्रकरणं। __ समूहमाताकीर्तिता १ ११० ऋज्वीत्यादिद्वादशनामानित्युः १३८ वक्रायशुभफलानि ऋज्वीकपाटसंज्ञे १३८ ५११२ पोदक्यालस्यादिफलं १२९ ५ ८२ स्खलितांधसंज्ञे १३९ १११३ पोगात्रशैथिल्यादिफलं १२९ ७ ८३ १३९ ३११४ पोदकीरुतेप्रकंपफलं वक्रदूरसंज्ञे .१३० १ पो भक्ष्यत्यागफलं गुलिक्यूलसंज्ञे १३९ ५११५ १३० ३ कांडपृष्ठसंज्ञे पो.स्वपरजातियुद्धादिफलं १३० ५ अर्द्धद्वितीया संज्ञे १४० १११७ पोगमनागमनादिफलं | एषैववैपरीत्यगत्याद्वादशनामधेया १४० ३ ११८ दीप्तादिदेशस्थितपोदक्या:फलं पोदकीरमणत्यागेच्छाफलं वेदश्लोकै ज्वागत्यादिशुभाशुभं १३१ ५ ८९ पोदक्यावामांगकंडूयनादिफलं श्लोकचतुष्टयेन १४० ५।३ १३६ १३२ १ ९० प्रयातुर्जान्वायंगेषुपोदकीस्पर्शे १४१ ५ १२३ गुदस्पर्शात्संग्रहण्यादिरोगोभवेत् १३२ ३ ९१ तत्तदंगानुसारतःफलानि १४१ रोगार्तपोदक्यशुभा ५ १२४ १३२ ५ पोदकोधूल्यांनानेनाशुभं | वामादिगतिवारष्ठमध्याधमसंज्ञा १४२ १ १२५ केशास्थिवत्रा अशुभा दक्षिणादिगत्याबहुमध्यमल्पंदुष्टं १४२ ३ १२६ तनुंधुनानापोदक्यशुभा दक्षिणवामगत्यानरान्वेष्टयंती शुभाशुभं १४२ ५ १२७ पोदकीमूर्धविधूननेनाशुभं . पृष्ठादिगत्याकरणीयमतीतंवक्ति १४३ १ १२८ पोदकीचलचेष्टाऽशुभा पोदकीगतिभेदेनशुभाशुभं १४३ ३ १२९ अधोमुखाद्यशुभं १३४ ३ ९८ वामदक्षिणगत्याशुभश्रेष्ठं १४३ ५१३० तनुचर्वणाद्यशुभं काष्ठादिषुमुखघर्षणायशुभं १३५ ११०० अधिवासितादृश्याशुभाअन्यपक्षिजोदक्षिणेनशुभं १३५ ३ १०१ पो०पादतलस्पर्शगमनाद्यशुभम् १३५ ५ १०२ । Aho ! Shrutgyanam Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । ३ १४१ विषयाः पत्र पं० श्लो० विषयाः पत्र पं० श्लो. यात्राप्रकरण। भक्ष्यलाभालाभेशुभाशुभे १५२ ५ १५९ पोदकीगतिस्वरादिनिरूपणं १४४ १ १३१ विपश्चितात्मकार्ये शलभादिभएकादिताराशुभं तोरणेषु लोक क्ष्यतःशुभाशुभं विचार्यम् १५३ १ १६. द्वयेन १४४ ३।११३ | पोदकीमौनधारणे सव्यासव्यकार्यनाशिनीवक्रतारा १४५ ३ १३४ | गमनशन्देशुभं । वामैकाद्यशुभं १४५ ५ १३५ | तारागमनागमनेशुभाशुभं १५३ ५१६२ अद्विअधिवासितवामेक्षंणेशु शुक्तारातःशुभाशुभं १५३ ७ १६३ भाशुभम् पथिकेनसाकं वामाताराशनअधिवासितदक्षिणेक्षणशुभं व्रजेच्चेच्छुभम् १५४ ११६४ पूजादिवसे वामेक्षणेनाशुभं ऊर्वादधोगतिः अशुभा १५४ ३ १६५ अधिवासितनिवर्तनस्यवामा धनुर्धरीखेवेगेनगच्छंत्यशुभा श्रेष्ठा १४६ ७ १३९ पोदक्यग्रपृष्ठगत्याशुभाशुभं १५५ १ १६७ अनुलोमादिभिः शुभाशुभं १४७ ११४० भक्ष्यग्रहणंदक्षिणभागेशुभं १५५ ३ १६८ अधिवासितनिवृत्तस्य एकादि | शुक्लपक्षाया:धूल्यांनिमज्य वामताराश्रेष्ठा ___ कुचेष्टितेनशुभाशुभं नरस्यचेष्टास्वरशांतरूपं १४७ ५१ १४२ | दीप्तभेदादितःशुभाशुभं १५५ ७१७० तारात्रयेणवामपुरस्तादशुभं शुष्कादिवृक्षारोहेशुभाशुभं १५६ ११७१ श्रेष्ठंच १४७ ७१४३ उत्तमाधमस्थानेशुभाशुभं १५६ ३ १७२ दक्षिणवामतारामिश्रितफलं | पोदकीगतिशब्देनपूर्वफलनिषेधः १५६ ५ १७३ १४८ १ पोदकीयुगलंगमनेनशुभाशुभं कृष्णपोदकीशब्दगत्याफलंनेष्ट १५७ १ १७४ श्लोकद्वयेन पोदकीवामदक्षिणस्थेनशुभाशुभं १५७ ३ १७५ गमनेविहंगमविहंगीतःशुभाशुभं १४९ दक्षिणवामशब्देनशुभम् १५७ ५ १७६ तोरणांते वामदक्षिणे विहायाप अनुलोमशब्देनविलंबेनंशुभं १५८ १ १७७ रविलोकनीया १४९ ३ १४८ वामशब्दगमनेनान्यस्थानस्थिता तोरणेताराऽदृष्टाशुभा १४९ ५ १४९ १५८ ३ १७८ पोदकविामदक्षिणदर्शनेनशुभाशुभं पुरीषकृतापोदकीविधूनेनतोऽ श्लोकद्वयेन १५० १।३ १५० १५८ ५ १७९ सध्यासव्यवृक्षादिरूढेशुभं १५० ५ १५२ वामऋज्वीताराशब्देनमौनंशुभं १५८ ७ १८० शकुनकदेवीनिंद्यस्थानेस्थिता गुणदोषेप्यधिकशकुनेबाह्य १५९ १ १८१ किंचित्श्रेयस्करी १५१ १ १५३ भाषितचेष्टादिशुभाशुभं १५९ ३ १८२ पोदकीविपदासहवांछितंददाति १५१ ३ १५४ | पोदकीशीघ्रगत्यादिशुभं १५९ ५१.३ ऊर्ध्वपक्षाभक्ष्यमुखीनृपसमत्वं १५१ ५ १५५ | खेऊर्ध्वाधोगत्याकिंचिच्छुभं १६. १ १८४ पोदकीभक्ष्यलाभालाभेशुभाशुभं १५१ ७ १५६ | उड्डीयनोगत्याभूरिफलम् १६० ३ १८५ भक्ष्यग्रहणेच्छापलायनतःकष्टात् प्रवेशेनचादिगत्याफलंविचार्य १६० ५ १८६ लाभः १५२ १ १५७ / मस्तकादिगमनेअवधिनिर्णयः १६० ७ १८७ पोदकभिक्ष्यजिघृक्षरन्यपतंग दंडादिप्रदक्षिणे शुभं १६१ ११८८ ग्रहणे शुभम् १५२ ३ १५८ | शकुनपृथ्वीप्रदक्षिणावधिःशुभे १६१ ३ १८९ Aho ! Shrutgyanam १४८ श्रेष्ठा शुभम् Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) विषया: तोरणादिप्रदक्षिणायांशुभं भूमिभागात्कालनिर्णय: चेष्टादिकार्यपादादिनिर्णय: क्षुधार्तचेष्टारहितायां स्वल्पं वेदचेष्टाभक्ष्यग्रहणे शुभं यात्रायांवामदक्षिणगत्याश्रेष्ठं श्यामांननिरीक्षनखगांतरात् श्यामावत्फलंर्विदति श्यामावामचेष्टादिरौद्रशुभं श्लोकद्वयेन निंद्यस्थानादिफलं चेष्टानिनादादिक्रमात् बलवान् क्षेत्राद्यधिकलाभे राज्यलाभ: पुंस्त्रियोश्चेष्टादिविशेषलाभ: इतियात्राप्रकरणम् चंद्रनाड्यां स्वेच्छया वायोप्रविशतिदक्षिणातारातईप्सितं १६५ हंसचारप्रकरणम् । सूर्यनाड्यामुदानवायु निःसरणे वामताराऽशुभा दक्षिणनाडी भेदेनशुभाशुभं वामनभेदेनशुभाशुभं चंद्रनाडीभेदेनशुभाशुभं हंसचारं प्रचारयामः चंद्रादिनाज्यंतर्गतवायुनाशुभाशुभं १६६ चंद्रनाडीवहनतः श्यामाशुभाशुभा प्राणवायुभेदेन फलम् नराणां श्वासभेदः नाडीभेदेन श्यामाचारज्ञः सश कुनज्ञः वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । पत्र पं० श्लो०/ विषयाः १६१ ५ १९० तोरणांते अनुलोमतारावामा न तदाराज्यं सुचिरम् १६२ १ १९१ १६२ १६२ ३ १९२ | तोरणांतेवामाताराननिवृत्तिका लेउद्धृता तदाचक्रवर्तित्वं ७ १९४ तोरणांतेप्रतिलोमतारानेष्टा ५ १९३ १६२ १६३ ११९५ | राज्यचिकीर्षोस्तोरणांतेन्यतमखगप्रदक्षिणेनापरराजा ब्रह्मपुत्रीरुतेराज्याभिषेकंब्रूमः देवयस्याभिषेकेवामादिस्वरातत: १६३ ३ १९६ १६३ ५ १९७ १६३ १९८ ७/१ १६४ पर १६४ ३ २०० १६४ ५ २०१ शुभं तोरणांतात्देवीवामादिचेष्टाशुभा राज्ञः एताश्चेष्टाः सौख्यदा:व्य त्यासाद्दुःखदाः १६५ ४ २०३ १ २०५ १६६ १६६ १६७ १६७ १६७ १६७ १६८ १६८ अभिषेकप्रकरणं । १६८ १ २०२ १६९ १७० ३ २०६ ५ २१४ शुभपथप्रवर्तिनां नृपाणां संधि विग्रहः वामस्वरादक्षिणगतापोदकी संधानकर्त्री ७ २११ शुभम् १ २१२ | वामस्वपुच्छोत्पाटने पोदका से ३ २१३ न्यंहंति युद्धप्रपाकीतानोद्धृता अत्यशुभा तोरणांततारागमने प्रतिलोमे अतिसंग्राम: १ २१५ अर्चितपोदकीयुग्मं तोरणेलीनं चोराणांजयः १६९ ३ २१६ | पोदकीतोरणपृथ्व्यां वामस्वरा १६९ ५ २१७ दक्षिणतः शुभं तोरणेपोदक्यपसव्यध्वनिनादी १ २१८ समशुभम् Aho! Shrutgyanam पत्र पं० श्रो० "दुर्गायुगं वियुज्यतेऽरयः संधि मिच्छन्ति वामांदिशंखगेन सह दक्षिणगम संधिंविधातुं दूतउपैति अवामशब्दाच्छून्येनकलिंकरोतितदाविग्रहः पोदक दक्षिणगत्यारिपुणास ५ २०७ मागमः राज्ञः प्रतिकूल्यंच १७३ १२०८ पोदक्यादक्षिणवा शुभाशुभे १७३ ३ २०९ | तारावामस्वरादक्षिणतः शुभाशुभा १७३ ५ २१० || प्रदीप्तस्थितताराविहंगयुद्धेना १७० संधिविग्रहप्रकरणं । १७० ६ २२० १७१ १ २२१ १७१ १७१ १७२ १७२ १७२ १७२ १७३ १७४ १७५ १७४ १७५ ३ २१९ १७५ ३ २२२ ६ २२३ १ २२४ ३ २२५ ५ २२६ ७ २२७ १ २२८ ३ २२९ ५ २३० ७ २३१ , २३२ ३ २३३ ५ २३४ १ २३५ ३ २३६ १७५ ५२३७ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयाः पोदकीयुग्मेत्वेकावामगमनागमनाशुभं तोरणपृथ्व्यांपोदकीप्रदक्षिणप्रातिलोम्येनाशुभं पोदकीदक्षिणवामशब्दे शुभाशुभं संग्रामे पोदकीवामदक्षिणशब्देन शुभाशुभं युद्धोद्यमेतारावामदक्षिणगा शकुनज्ञानम् शाकुनिकः पूर्ववद्विहंगद्वयं विभावयेत् आश्रमिणांमध्ये वरिष्ठोगृहीस्यात् कन्यावरयोः पोदकीवामदक्षि वसंतराज शाकुन सारांशानुक्रमणिका । विषया: पादकीधूल्यांनिमज्यशुभस्थानेस्थिता पतिः संन्यासी पोदकीचंचुपुढे अस्थ्यनुलोमा शुभेस्थिता कपाली पोदकीयुग्मे फलादिहीनवृक्षारूढे दरिद्री ५ २४१ | पोदकीदक्षिणगमनशब्देनशु शुभाशुभा पोदीयुग्मेनशुभाशुभ युद्धकामियात्राशकुनविरुद्धंशुभम् १७७ पोदकीवामपादेनांगस्पर्शेशुभं आदौपक्षियुग्मपूजनेनशकुनः शाकुनकस्य युग्मपक्ष्याचरणेन १७७ १७७ शुभाशुभ पाणिग्रहणेपोदकीयुग्मदक्षिशुभं पत्र पं० श्लो० १७५ ७ २३८ १७६ १ २३९ १७६ ३ २४० द्रव्यलाभः खगीखगयोः स्वपरप्रीत्या समं १७६ विवाहप्रकरणम् । १७६ १७७ १ २४३ १७८ १७० १७८ १७९ वृक्षारूढात्म् ७ २४२ पोदकीयुग्मैकविहंगदक्षिण ग भनशुभं १८० ३ २४४ | पोदकीयुग्मैकान्यविहंगाश्रये - ५ २४५ णाशुभम् ७ २४६ | पोदक्यन्यविहंगाश्रयेणाशुभं रतेवामस्वरादिदीप्तेस्थिता तदा १८० १ २४७ ३ २४८ ६ २४९ निवृत्तौश्यामावामाताराशुभा १ २५० १७९ ३ २५१ | गर्भप्रकरणं १७९ पूर्वोक्तयुग्मस्य शुभचेष्टयाप्रभुत्वम् १७९ ५ २५२ | तारापक्षिणः पुष्पफलमहखगीखगयोः परस्परमशनदानात् णाग्रहणे गर्भस्य शुभाशुभम् ७ २५३ पक्षिण अधोवमनाद्येन गर्भभंग: गर्भ श्यामादक्षिणोच्चस्व रणगर्भसंख्या गर्भपुंस्त्रीजन्म ३ २५५ | प्रश्नकर्तरिपुंस्त्रीजन्मनिश्चयः पोदकीयुग्मे स्त्रीपुंसंज्ञकक्षारूढेस्त्रीपुंसौ ७ २५७ | पोदकीयुग्मे नपुसंकसंज्ञक - क्षारूढे षंढ : पोदकीयुग्मशुभचेष्टयावा प्र दीप्तयाशुभाशुभं १८० ५ २५६ १८० Aho! Shrutgyanam स्त्रीपुंसयेोर्भवति पोदकीस्वपरजातिभिराबेष्टितात्तथानवोढा रतिकालेपोदीवामदक्षिणतः सती कुलटात्वं श्यामावृक्षसमूहारोहणाद्राज्ञी पोदीयुग्मपृष्ठ वामागमनेना शुभम् १८१ १ २५८ पोदीयुग्मैकत्यागेन स्त्रीपुंसयोस्यागः १८१ ३२५९ साध्वी आहारादिदक्षिणतः पक्षिद्वयं करोति कौमार्यभंग: अनुलोमाश्यामाशाखाहीन वृक्षेस्थिताऽशुभम् वामगतिवामशरीरचेष्टातः शुभम् १ २५४ १८१ पत्र पं० श्लो० १८१ १८२ १८२ १८२ १८३ १८२ .३ २६३ १८३ गर्भप्रकरणम् । (8) १८४ १८३ ३२६७ १८५ १८५ ५ २६० ७ २६.१ १८६ ૧ १ २६२ ७ २६९ १८३ १८४ १ २७० ३ २७१ १८४ १८६ ५ २६४ ७ २६५ १ २६६ ५ २६८ १८५ ५ २७५ १८५ ७ २७६ १८६ १ २७७ ७ २७२ १२७३ ३ २७४ ३ २७८ ५ २७९ ७ २८० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) विषयाः पुंस्त्री विहंगा नांवामदक्षिणगमनानुलोम्ये गर्भ संख्या पक्षिणांदक्षिणतोवामागमनमपत्यान्हति पोदकी दक्षिणागमादीप्तस्थितागर्भनाश: वामकृतशब्दो दक्षिणागमनः शुष्कवृक्षारूढो विहंगः सुतंहंति गाविधूयवर्चः विधाय वा कृतशाखवृक्षारूढोजातस्य विपत्तिद: पुंविहंगेनुलोमं दक्षिणेगत्वा चपलेस्थितेजातस्यभूरिभ्र वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । मणम् पक्षिणि धूल्यांनिमज्य वामादक्षिगते सन्यासि मुख्यता फलादिरहितवृक्षारूढेसशब्दे कृपण: दक्षिणगमने सुस्वरेविहंगे जात: चिरजीवी पुंपक्षिणिविततदक्षिणपुंखे शिशुनृपत्वम् विहंगी पूर्वोक्तेनप्रयाति तदा शुभम् पोदक्यागमनागमननिरूपणम् गमनागमनप्रश्ननिरूपणम् ताराचलस्थिताचेदागमनं पोदकी वामाचेत् दूरादागमनं सशब्दा पोदकी दक्षिणा चेत्सध नागमनम् दक्षिणेविहंगो भार्या संगच्छेत् तदातुः स्वगृहे सौख्यं पृच्छकवामशब्दा पोदकी दक्षिणे सुगंधवृक्षारूढासाधितकार्य: पांथोर्द्धमार्गे पत्र पं० श्रो० १८७ १ २८१ १८७ ३ २८२ १८७ १८७ ૮૮ १८८ १८८ १८८ गमनागमन प्रकरणम् । १९० १९० १८९ १८९ विषयाः वामस्वरदक्षिणगतौ शुष्कवृक्षारूढा पांथोरोगार्त्तः वामशब्देन स्वदेशेतिरोहितेन पांभ: कुशली दक्षिणशब्दावामप्रदीप्तस्थिता धम् पोदक्यन्यदेशगमने शुभाशुभं ८ २८४ दक्षिणेनश्यामादूरगमने शुभं निवृत्तौवामा शुभा १९० १९० १९१ १८९ १ २८९ १९१ ५ २८३ १ २८५ ३ २८६ ५ २८७ ७ २८८ | पांथसमूह मातुश्चेष्टादिकमाख्या यते अधिवासनेनविनापिपाथः शकुनंगृह्णातिसजांघिकनामधेयः | दुर्जनादिसंगोवरं न कदाचित्शकुनमुल्लंघयेत् तन्नवरम् वामस्वरादक्षिणका यचेष्टाताराशांतेस्थितायातुः सर्वकार्यकरा विपर्ययेण कार्य नाशिनी पांथसमूहमात्रापुनः पुनर्यो विचेष्टयते तद्वत्तव्यय जीवनाशी श्यामानुलोमाप्रथमं पश्चत्प्रतिलोमाअध्वगस्य त्रैष्ठयं १ २९२ वामशब्दा दक्षिणमा श्रेष्ठा दक्षिणशब्दा वामगा अशुभा ३ २९३ वामप्रदेशेवाऽपसव्ये समभूमिभा ३ २९० ५ २९१ ५ २९४ ७ २९५ १ २९६ १९१ पत्र पं० छो० दक्षिणेदीप्ताला भक्षतिदा ३ २९७ | देवीउद्धृताभक्ष्यं गृहीत्वा दक्षिणे Aho! Shrutgyanam १९१ ७ २९९ यात्राप्रकरणम् । १९२. १ ३०० १९२ ३ ३०१ १९२ ३०२ १९३ १९३ १९३ १९४ १९४ १९४ १९४ ५ २९८ १९५ १९५ १९५ २ ३०३ ४ ३०४ ६ ३०५ १ ३०६ क्रीडतिपक्षियुग्मंतदा नराणांसिद्धिः वामदक्षिणतुल्यकालशोभन शब्द पक्षियुग्मं तोरणसंज्ञं श्रेष्टम् भगवत्ता मातृतोपभयंनपुनः दक्षिणा सिंहादिभयेप्यकुशलीस्यात्१९५ ५ ३१२ तारादक्षिणेशांता अध्वगानां शुभा ३ ३०७ ५ ३०८ ७३०९ १ ३१० ३ ३११ ७ ३१३ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । विषयाः ___ पत्र पं० श्लो० विषयाः पत्र पं० श्लो. क्षीरवृक्षेस्थितातदा प्रयातुर्महती यस्मिन्भतारावामातस्मिन्नर्केवधनर्द्धिः १९६ १ ३१४ | टिर्न २०० ७ ३३१ उन्मूलितच्छिन्नादिवृक्षेषुतारोपवि | दक्षिणशब्दोदूधृतायदंशदीप्तेसंमुखा टाफलहानिकी १९६ ३ ३१५ अंशः सवृष्टिरहितः २०१ १ ३३२ पुरतः अतिदूरंगत्वा पोदक्यदृ । श्यामायांऋक्षभुवं आसाद्य शुष्कश्यतां गताश्रेष्ठा संमुख | वृक्षारूढायांतदर्केविरलावृष्टिः २०१ ३ ३३३ मभ्युपेतानष्टा १९६ ५ ३१६ | पोदक्यावामशब्ददक्षिणागमेनपांथमनुव्रजित्वा निवृत्तमानस्य ___ वृष्टयवधिः २०१ ५ ३३४ - वितारा शुभा १९६ ७ ३१७ / पोदकीवामेवारिशब्दादक्षिणा ___गमनेनशांते स्थिताऽतिवृष्टिः २०१ ७ ३३५ सतीपरीक्षाप्रकरणम् । | वारुणशब्दमुच्चरन् खगोव्योमविनराणां सुशीलास्त्रीगार्हस्थ्यं सफ लोकनेन नीडविशति तदावृष्टिः २०२ १ लं दोषैस्तुनेष्टं १९७ २३१८ पादकादाक्षणा पोदकीदक्षिणादिभागेआद्यमध्यांस्त्रीषु सतीत्वसंदेहे पत्रेआलेख्य त्यवृष्टिः २०२ ३ ३३७ . तन्नामललाटेलिखेत् १९७ ४ ३१९ / पोदकीदीप्तस्वरे अनावृष्टिः २०२ ५ ३३० शाकुनिक:पत्रमादाय तोरणेशकुन भूत्रितयावहिर्दुर्गावारिशब्देनकृतप्रपृच्छेद्वदध्वंकिमियंसतीति १९७ ३२० । दक्षिणावर्षातीतावृष्टिः २०२ ७ ३३९ खगीआहारादिचेष्टायुक्तावामेस शकुननिवृत्तौवामापोदकी तदाबहुती दक्षिणेअसती १८ १ ३२१ ! वृष्टिविपरीतेनावृष्टिः २०३ १ ३४० वामशब्ददक्षिणागमाभ्यांसाध्वी पोदकीभूतृतयशब्दा वामातदा आविपरीतेकुलटा ३२२ । तपतप्तापृथ्वी २०३ ३ ३४१ दक्षिणपोदकीमैथुनेनकुलटावैप विहंगमूत्रोद्यमेन दक्षिणेऽतिवृष्टिः २०३ ५ ३४२ रीत्येनसती ५ ३२३ / वृष्टिसमयेश्यामासुदेशमूत्रोद्यमेदक्षिणशब्दवामागमनेनस्वजन __ न अतिवृष्टिः २०३ ७ ३४३ व्यभिचारः १९८ ५ ३२४ | कृष्णपक्षीविष्ठांविधायतारोभवेदृष्टिंकृष्णविहंगयुगंवाममुपैति तदान हंति २०४ १ ३४४ . रस्यापवादः १९९ १ ३२५ | श्यामाभूस्थानेसमानापत्यंप्रकटयति सौम्यरवपक्षिणौवामाद्दक्षिणौगतो सतापापृथ्वी तदासतो १९९ ३ ३२६ यस्यगृहस्य द्वारादिषु श्यामानी डंतस्यनाशकरीवृष्टिः वृष्टिप्रकरणम् । गर्ताद्येविषयप्रसूतिसंख्याचलने वृष्टिर्न: श्यामारुतेनवृष्टिप्रकरणमाह २०४ ७ ३४७ १९९ ७ ३२७ रेखादिभेदैस्तोरणविभागादशधा २०० १ ३२८ प्रासादशैलद्रुमकोटरेषुतुंगेषुनीड विधानादतिवृष्टिः २०५ १३४० आदिदशभानितोरणभूदलेषु सन्निवेश्यानि २०० ३ ३२९ दशभानांमध्येयत्ररविस्तत्र धान्यनिष्पत्तिप्रकरणम् । 'भागेताराबुपातः . २०० ५ ३३० | ब्रह्मपुत्रीरुते धान्यनिष्पत्तिमाह २०५ ३ ३४९ Aho! Shrutgyanam Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । १ ३५४ , विषयाः पत्र पं० श्लो० | विषयाः पत्र पं० श्लो. लोके धान्यसंज्ञा २०५ ६ ३५० | जीवितप्रश्नपोदकी दक्षिणोपृथ्वीभेदेन धान्यमुष्टिंक्षिपेत् घृताचिरजीवी २११ ३३६९ यत्रताराततधान्यं २०६ १ ३५१ | तोरणेतारादक्षिणवामतोजीवितं दक्षिणादितारातः पृथ्वीत्रयभेदेन मरणच २११ ५३७० धान्यनिष्पत्तिः ३५२ | वामगापोदकीवामचेष्टयादीप्तशुभस्वराभस्मवृक्षाधिरूढा रक्षित स्थातदावियोगः २११ ७.३७१ स्याप्यन्नस्यभस्म . २०६ ४ ३५३ | मस्तकदेहादिकंपेअधोमुखी विरुद्धभावादेवीतारादीप्तगातदारा पूर्वचेष्टादीर्घजीवी २१२ १३७२ . जाग्न्यायेनधान्यवृद्धिनाशः २०७ ताराश्यामावामादिनेष्टंश्रेष्ठं २१२ ३३७३ जंतुधान्यभक्षणमाह २०७ ३३५५ | औषधिप्रश्नेश्यामालोमानुलोपोदकीदक्षिणशब्दावामगादीप्तस्था ___ मतःशुभाशुभम् २१२ ५ ३७४ तदातंदुला न ५ ३५६ तारादक्षिणादिभेदेनधान्यशुभा . . सुखादिप्रकरणं । शुभम् २०७ ७ ३५७ | शकुनि रुतेसौख्यादिपृथ्वीत्रयेपिसौम्यरवाशांतेनिव ___ माह २१३ १३७५ त्तोद्धृताबहुअनं २०८ १ ३५ पृथ्वीत्रयेपिउद्धृतानिवृत्तौदक्षि प्रश्नश्यामादक्षिणे शुभम् २१३ ३ ३७६ णासिद्धाबीहिः परार्थे २०८ प्रश्नेअनुलोमादिशुभाशुभं २१३ ६ ३७७ ३ ३५९ | अवश्यप्रश्नेतारावामादिशुभाशुभं २१४ १३७८ वामस्वरादक्षिणगमना शुभा २१४ ३ ३७९ समर्घमहर्घप्रकरणं । वाणिज्यसेवाप्रश्नेवामादिनेष्टंश्रेष्ठं २१४ ५ ३८० लोकेपण्यसमधमहर्घत्वकथनम् २०८ ७ ३६० | वामरवाशुभचेष्टाश्रेष्ठा विलोमेनेष्ठा २१४ ७ ३८१ यस्यार्थवाक्योचरितापोदकीदी श्यामापरस्परदक्षिणा स्वामि प्तरहितप्रदक्षिणातन्महर्षम् २०९ । सहायानुकूलाश्रेष्ठा २१५ १ ३८२ पोदकीवामाप्रदीप्तेस्थिताधान्यं शवागमेश्यामप्रदक्षिणोद्धृतादितः । मध्यमम् शुभाशुभम् २१५ ३३८३ पोदकीदक्षिणवामतोधान्यगुणा निवर्तनेवामगत्यादिशुभाशुभम् २१५ ५ २८४ २०९ ५ ३६३ | रिपुभयेश्यामाविरुद्धचेष्टादिशुविण्मूत्रादिस्वपिच्छसंत्रोटनेन भाशुभम् २१६ १ ३८५ धान्यसमर्घम् ७ ३६४ | दक्षिणशब्दावामगाप्रदीप्तस्था तदा भूमित्रयेउप्रबीजेदक्षिणवामगाशुभा २१० १ ३६५ | तस्करादीनां अपकारः २१६ ३ पोदकीवामशब्दादक्षिणगा | प्रामघातादिसुनिकटास्थतेः शांतस्थासंग्रहविक्रयः २१० ३ ३६६ | तस्कराणांशुभं २१६ ५ ३८५ | दक्षिणशब्दवामापृष्ठे ताराचेच्चौजीवितमरणप्रकरणं। ___ रादिहतलब्धिः श्लोकद्वयेन ३१९ ७१ १८६ मानुषेसविंशवर्षशतमायुः २१० ७ ३६७ | वामादिशब्देनतस्करबलाबलं २१७ ३ ३९० पोदकोशब्देनरोगशस्त्रादि वनागमेमार्गभ्रमपोदकीपृष्ठे- घातः · २११ १ ३६८] मार्गलब्धिः २१७ ५ ३९१ Allo! Shrutgyanam गुणौ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । | विषयाः विषयाः चौरसाधुप्रश्ने श्यामा शब्दकृत्वा दक्षिणाचेद्दिव्या सद्धिः चौरशुद्धौशब्दानंतरंवामागमनं तदा चौरशुद्धिर्न नृपमृगयायांवा मादिताराशु भाशुभा प्रवेशेवामरवादक्षिणगमनानेष्टा प्रवेशेशुभचेष्टादक्षिणरवावामगाश्रेष्ठा २१९ प्रवेशेश्यामा एकाद्युदुद्धृता शुभादिनृपत्वदा श्यामादक्षिणगमनाशांतस्थानदा अप्राप्तवस्तुप्राप्तिः श्यामानुलोमाविद्यातडागादौशुभा २१९ प्रश्ननिश्चयप्राप्तिरहितेन नप्राप्यते २१९ ७ ४०० "वैराग्याद्येनत्रिकालज्ञानंतदपिशकुनेन २२० शाकुनिकः स्वर्णपुष्पवतींभुवंजानाति २२० ३ ४०२ ३ ३९८ ५ ३९९ १ ४०१ पत्र पं० श्रो० दिक्कालमानात्समस्तंप्रकटम् कृष्णिका शब्दभेदः श्लोकद्वयेन २१७ ७३९२ दुर्गाप्रथमयामे पूर्वे शांता भय प्रदा २१८ १३९३ द्वितीयप्रहरे शांतालाभप्रदा तृतीयप्रहरे शांता अर्थप्रदा दीप्तस्वरा न फलदा चतुर्थप्रहरे शांता निवौरतां दीप्तासचौरतांचसूच० ३ ३९४ ५ ३९५ २१८ ७३९६ २१८ २१८ वृत्तप्रकरणम् । ८ २२१ २ इदानीं प्रतिप्रकरणवृत्त संख्या २२० प्रथमेद्वात्रिंशद्वृत्तानिद्वितीये षोडश २२१ १ तृतीये पंचदशचतुर्थेषोडश पंचमेपंचविंशतिः षष्ठेपंचविंश० सप्तमेद्विसप्ततिः अष्टमेद्वादश नवमेऽष्ट दशमेविंशतिः एकादशेत्रयोविंशतिः द्वादशे विंशतिः त्रयोदशे एकादश चतुर्दशे पंचदश पंचदशेनव षोडशेद्वाविंशतिः सप्तदशेएकादश अष्टादशेसप्त. एकोनविंशे सप्तविंशतिमेऽष्टा विंशतिः पोदकीशब्दे विंशतिप्रकरणानि वेदशतश्लोकाः २१९ १३९७ २२१ ૪ २२१ ६ २२१ ७ २२१ ९ २२२ १ आग्नेय्यां प्रथमे यामेशतास्वल्पानिः दीप्तस्वरापुरदाहः द्वितीययामे शांता अनिपरिक्षयंदीस्वरामृत्युं च सूचयति तृतीयप्रहरे आमेध्यांशांताधनिनआगमः प्रदीप्तायां याचकस्य चतुर्थप्रहरे पत्रागमः रोगभयम् याम्यां पोदकी प्रथमप्रहरे शांता लाभदादीप्तागोग्रहं शंसति द्वितीयप्रहरे शांतारुजं प्रदीप्ता धनक्षयं मृत्युंवा जल्पति तृतीयप्रहरे याम्यांराजप्रासादं दीप्तानृपाद्धनक्षयमाख्याति ४ तुर्ययामे कांचनरत्नानिदीप्तास्वजनैः कलिं च दर्शयति ६ नैऋत्यां शांतस्वरेणपथिपीडनं ५ २२२ २२२ २ २२२ ४ १० ५ भूपालमततथ्यादिकप्रकरणम् । १ २ ३ तुर्ययामे चिरंवियुक्तागमो दीप्ता अक्षेमकरी ११ २२३ १ १२ | पश्चिमे शुभस्वरैर्दुर्गा जलागमं तैर्जलानिं द्वितीयेयामे धनं प्रदीप्तधूमितै:स्वल्पलाभमाख्याति २२३ ४ १ तृतीययामेशांता आयुधक्षति Aho! Shrutgyanam दीप्तस्वरेमृत्युः ७ द्वितीययामे चौराणां भयं दीप्ता . हानिकरी ९ तृतीययामे रोगादिवृद्धिर्दीप्ता स्वरैश्चिररोग: ( १३ ) पत्र पं० श्लो० २२४६।१२।३ २२४ २ ४ २२४ ४ ५ २२४ ५ २२४ २२५ १ २२५ २ २२५ ५ २२५ २२५ ४ १० २२६ ६ 4 ९ २२६ १. १३ २२७ ११ ७ १२ २२७ २२६ ૪ १५ २ १४ २२६ ५ १६ २२६ ७ १७ २२७ १ ૧૮ ४ २ १९ २० १२७ ५ २१ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) वसंतराजशाकुनसाराशानुक्रमणिका । . . . . : २२९ २ २९ । विषयाः पत्र पं० श्लो० विषयाः पत्र पं० को दीप्तामृत्युं वक्ति २२७ ७ २२ | हंसशब्दभेदेनफलविचारः २१२ ५ ५ तुर्ययामेशांतामंगलदीप्तागृहहानिव० २२८ वामांघ्रिणास्थितोबकः धन प्रातःवायव्येमधुरस्वराअत्या र्यादिशुभंवक्ति गमागमं दीप्ता शुभंवक्ति २२० २ २४ | त्रस्तबकश्चौरभयं विशंकः स्त्रीरद्वितीययामशांतास्त्रीसमागम स्नलाभवक्ति २३३ ३ ७ . दीप्तास्त्रीकलहंवाक्ति २२० शांतातृतीययामेरुजंदीप्तामृत्युं व. २२८ ५ २६ चक्रवाकयुगलदर्शनशब्देस्समृद्धि दुश्चेष्टाभिर्विपत् शांतातुर्ययामेत्रियाःपरपुरुषप्रार्थनांसप्तासमागमं व० सारसद्वंद्वविलोकनेनवांछासिद्धिः २२८ ७ २७ __ पृष्ठेनादेन ग्रहएवअभीष्टं उत्तरेमधुरस्वरालाभदादीप्ता ऽर्थनाशंवक्ति २२९ १ २० सारसवामादिशब्देषुम्रीधना दिलाभः शांताद्वितीययामेवस्त्रलाभंदी सारसयुगलशब्दः शीघ्रधनद प्तावस्त्रनाशंव. शांतातृतीययामेप्रधानलाभ स्तद्वत्क्रौंचशकुनाः २३४ ८ ११ ढंकगत्यादितःशुभाशुभं - दीप्ताहानिंवक्ति २२९ २३५ १ १२ शांतातुर्ययामेभुजंगादिभयंदी टिटिभशब्दादिशुभाशुभम् २३६ १ १३ कारंडवशब्दादिशुभाशुभं तामरणंवक्ति ईशानेशांताभयंदीप्तापरचक्रव० २२९ श्लोकद्वयेनशुकशब्दादिशुभाशुभं २३७ १।३ १३ शांताद्वीतीययामेकन्यालाभं श्लोकद्वयेनसारिकापृष्ठवामादिफलं ४ १ र दीप्ताकलहंव० चकोरशब्दनामग्रहणेशुभाशुभं २३८ ५ १९ शांतातृतीययामेकन्याप्राप्तिंदी भासपक्षिशुभाशुभंश्लोकद्वयेन २३९ १।३ प्ताकन्याक्लेशंवक्ति श्लोकद्वयेनमयूरशब्दादिशुभाशुभं २३९ ॥१३ शांतातुरीययामेरुअंदीप्तामहाव्या दात्यूहसंकीर्तनादिशुभाशुभं २४० ५ २४ धिंवक्ति षट्श्लोकैस्तित्तरकपिंजलशकुनः ३४३ १।३ खशांतालाभं दीप्तास्वामिरुजं० २४२ ६ लावकेशकुनः . ३१ २३० ५ द्वितीययामेलाभदादीप्तानेष्टा वर्तिकाछिप्पिकाशकुनं १४३ १ ३२ २३० ७ तृतीययामेलाभकरीदीप्ताहा गृध्रशकुनं श्लोकद्वयेनश्येनशकुनं .. निकरी १ ३८ २४३ १६ शांतातुर्ययामेचौरभयंदीप्ता फेटशकुन राजभयं वक्ति २३१ २ ३९ शवलिकाशकुनं पंचश्लोकैरुलूकशकुनं ३४४ ४।५ श्लोकत्रयेणकपोतशकुनं २४७ ११५ अष्टमो वर्गः। पुष्पभूषीशकुन २४७ ९ द्विपदेषुविहंगमानांशकुनान्याह २३१ ६ १ पारावतशकुनं २४८ २ ४७ विहंगमप्रार्थना २३१ ८ २ गोवत्सशकुनं २४८ ५ ४८ विहंगार्चनशकुनं | श्लोकद्वयेनलट्वाशकुनं २४९ २।४ १९ हंसदर्शनशब्दाभ्यासर्वसिद्धिर्नाम कपेक्षुश्रीकर्णशकुनं २४९ ८ ५१ श्रवणाच्छुभं च २३२ ३ ४ । फेंचदहियकशकुन २५० २ ५५ २३० ४ र १ Aho 1 Shrutgyanam Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयाः श्लोकद्वयेन कुक्कुटशकुनम् भारतीशकुनम् कलविंकश कु चाषादिकादिशकुनं चाषस्तुति: चाषार्चनं चाषदर्शन गतिशब्दादिशुभं चाषकाकयुद्धे जयपराजयैौ चाषशब्दावादीप्तशांतौ खंजनस्तुतिः खंजनार्चनं वसंत राजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । नवमो वर्गः । खंजनकुचेष्टायांपूजादिनाशुभं पिष्टखं जनार्चनं ददाति नद्यादिस्थलेषु खंजरीटोपविष्टः वांछितवक्तिश्लोकद्वयेन तुरंगमादिपूर्वत्राहनिखंजरीटोहष्टस्तस्य नृपत्वंवक्ति महिष्यादि स्थितखंजरीट:धान्यादिलाभवति २५० २५१ - ५1१ २५१ ५ दशम वर्गः । २५२ १ २५२ ૪ अन्येनसंदर्शिते खंजरीटेपरस्त्रीसंगंहलखात भूमौदृष्टे विवाह पत्र पं० श्लो० २५२ २५३ २५३ २५३ २५४ १ वेदखंजनानां लक्षणानि स्यमंतभद्रादिवेद खंजनसंज्ञाश्लोक द्वयेन मध्याविआकाश भद्रभेदेन शुभा शुभं गोमूत्रखंजनदृष्टेऽशु अदृग्गोचरखंजन: २५७ गजाश्वलाभादिषु खंजनदर्शने प्राप्तिः २५७ पुष्पफलादिवृक्षारूढःखंजनः श्रियं ७ १ ३ २५४ ५ २५५ १ २५५ ३ २५५ ५ २५५ ક २५६ १ २५६ ५ २५६ ७ २५७ ५ विषयाः लाभव ० ५४ ५५ प्रभातादौखंजनेदृष्टेशुभं ५६ एवंमनोरमस्थानांतरेषु खंजनो इच्छाफलदात ५७ वल्ली शुष्का वृक्षादिषु दृष्टे खंजने अशुभं लोकम वरत्रास्वशुचौरोगादिभ० १ खरोष्ट्रादिपृष्ठो रूढे अशुभं प्रथमदिवसेखंजनशकुनावस्थया २ ३ ४ २५७ २५८ ७/१ २५८ ३ ५ १ २ ३ करापिकायाउभय प्रकारमाह ४ करापिकास्तुतिः ५ कंराधिकार्चनं १ १० ३ ११ ७ ८ ९ शुभाशुभं खंजनाश्चर्ययात्रा शकुनं विष्ठास्थाने अंगार संभोगस्थाने महाधनम् खंजननामदर्शनदक्षिणागमनतो वांछितं १३ १४ दिग्भेदतः करापिका रुतेन शुभाशुभं वामादितः करापिकाशुभा १५ काकरुतमाह (१५) पत्र पं० श्लोο २५९ १ १७ २५९ ३ १८ Aho! Shrutgyanam २५९ ५ १९ ब्राह्मणादिकाकलक्षणानि २५८ ५ १६ ब्राह्मणक्षत्रियका लक्षण वैश्यशूद्र का लक्षण अंत्यजका कलक्षणं २५९ २६० २६० २६१ १ २३ २६१ २६१ एकादशी वर्गः । २६२ ३ २६३ ५ करापिकापक्षकंड्रयनदर्शनेनाशुभं २६३ ६ वामदक्षिण कडूयनेन शुभाशुभम् २६४ १ २६४ ३ हृदयादिकंडू यनं शुभं मूर्द्धादिकंडूयनंशुभं करापिकायाः सव्यापसव्येनशु २६४ ५ भाशुभं १२ | लघुनिष्ठुरशब्दे नशुभाशुभं ७/१२ ४ २२ द्वादशी वर्गः । * ३ २४ २६१ ७ २६ ५ २५ २६२ ७ २६२ ९ २६३ १ २६३. १ २७ = २६५ ५ २६६ १ २६६ ३ २६६ ५ २६७ १ १ २ ३ ४ २६४ ७ १० २६५ १ ११ ५ ६ ७ ९ १ २ ३ ૪ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका। २६८ ५ १० प्रसादः २७५ ५ विषयाः पत्र पं० श्लो० विषयाः पत्र पं० श्लो. काकभेदेनशुभाशुभं २६७ ३ ६ | वायव्येऽध्वगश्चौरसंग:उत्तरेद्रव्याविप्रादिभेदेनोत्तरभेदः २६७ ५ ७ ___दिलाभः २७४ १ ३० वर्णभेदेनफलप्राप्यवधिः २६८ १ ८ ईशानेऋक्षशब्देनचौराग्नित्रासः . सुस्वरेसभार्यगुर्वागमः . काकस्यशांतादिभेदेनशुभाशुभं २६८ ३ ९. खेद्वितीयप्रहरेकाकशब्देननृपदिनरात्रिभेदेनशुभाशुभं . २७४ ५ ३२ शांतस्थितदीप्तमुखशब्देनशुभा पूर्वेतृतीयप्रहरेदीप्तशब्देवृष्टिःकाके शुभम् २६८ ७ ११ प्रसन्नेसिद्धिः । २७५ १ दीप्ताभिमुखशांताभिमुखकाके. आग्नेय्यांकाकविरुद्धशब्देऽग्न्यादि भाशुभम् २६९ १ १२ भयंसुशब्देनजयः सूर्योदयेपूर्वेसुस्थानस्थितस्य । दक्षिणेकाकशब्देशीघ्ररोगादिशुभा मधुरशब्देनशुभं . २६९ ३ १३. शुभं . प्रभाते आग्निकोणस्थितशब्देनशुभं २६९ ५ १४ नैर्ऋत्यांशब्देनमेघागमोयात्रायाम प्रभातेदक्षिणस्यांकुशब्दनदुःखं । शुभम् ५७५ ७ ३६ मधुरस्वेरणशुभं २६९ ७ १५ | पश्चिमशब्देननष्टद्रव्यलाभः २७६ १ ३७ प्रभातेनैर्ऋत्यांकूरशब्देदंड: २७० १ १६ वायव्यशब्देनशुभाशुभं २७६ ३ ३० प्रातःपश्चिमेशब्देनजलागमः उत्तरशब्देनशुभं २७६ ५ ३९ स्त्रियाकलहः २७० ३ १७ ऐशान्येशब्देनशुभाशुभं २७६ ७ ४० वायव्यकोणशब्देनशुभाशुभम् २७० ५ १८ पूर्वेचतुर्थप्रहरेशब्देनरोगादिभयं २७७ २ उत्तरेसशब्दकाकदर्शनेनाशुभं दक्षिणरवेशुभाशुभंनैर्ऋत्यामभीष्टईशानशब्देनव्याधिः . २७० १ २० - सिद्धिः २७७ ४ ४२ खेमधुरशब्देनवांछित २७१ ३ २१ पश्चिमेशुभं २७७ पूर्वस्यांप्रथमेयामे सुशब्दःकाकः वायव्येयोषिदाप्तिः 'चिंतितकार्यवक्ति २७१ ८ उत्तरशब्देनशुभाशुभम् २७८ ३ ४५ प्रथमेयामेअग्निकोणेवादक्षिणे ऐशान्यशब्देनशुभम् २७८ ५ ४६ _ बलिभुग्विरावःस्त्रीलाभदः २७२ १ २३ | दिशानुक्रमेणवीप्तशांतशब्दाच्छु नैर्ऋत्यांशब्देयोषिदाप्तिःप्रतीच्या भाशुभम् २७९ १ ४७ विरुतैःअंबुवृष्टिः २७२ ३ २४ दीप्तशांतस्थितशब्देनशुभा० • वायव्यकोणशब्देशुचिसंगतिः दीप्तस्थितरूक्षशब्देनाशुभं २७९ उत्तरस्यांशुभाशुभं २७२ ५ २५ | शांतमुखदीप्तस्थितौअतितुच्छफईशानशब्देनसुजनसंगःखेसन्माना २७९ ७ ५० दिसंपत् २७२ ७ २६ | शांतादिक्षुरवस्थितनशुभाशुभं २८० १ ५१ पूर्वेद्वितीयप्रहरेपथिचौरभयं २७३ १ २७ / काकचेष्टाशब्देनशकुनज्ञानम् २८० ३ ५२ आग्नेय्यांशब्देनकलहप्रयाणादि आगतं याम्येचमहद्भयं २७३ ४ २८ नैर्ऋत्यांप्राणभयं स्यादिलाभः । काकालयप्रकरणम् । पश्चिमप्रबलामिः २५३ ६ २९ । काकालयशकुनमाह २७९ - - - - Aho! Shrutgyanam Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । (१७) ا م م و م २८९ م م م س विषयाः पत्र पं० श्लो० | विषयाः . पत्र पं० श्लो. वैशाखे सुवृक्षेकाकगृहशुभं प्रासादाधिरूढे शुभं २८७ ५ ७९ शुष्के दुर्भिक्षदम् २८० ८ ५४ | पृष्ठाग्रगोमयक्षीरवक्षादिरूढे सुवृक्षपूर्वशाखावरूढगृहेशु० २८१ १ ५५ शुभम् २८८ १ . आग्नेय्यांशाखानीडे अशुभं २८१ ३ ५६ अन्नादिमुखदृष्टे शुभं २८८३ दक्षिणस्यां शाखानीडे अशुभं २८१ ५ ५७ स्त्रीमस्तककुंभेकाकस्थितशनैर्ऋत्यांनीडेशुभाशुभं २८१ ७ ५८ __ ब्देन शुभम् पश्चिमायां नीडं शुभं २८२ १ ५९ | गोपृष्ठदूर्वादिस्थितेवांछितभोजनम् २८८ वायव्यनीडेअन्नादिनाशः २८२ ३ ६० धान्यादिरूढशब्देन शुभम् २८९ उत्तरनीडं शुभम् २८२ ५ ६१ अंकुरादियुक्तवृक्षेषुकाकशब्दःसिईशान्यनीडमशुभम् २८२ ७ ६२ द्धिदः वृक्षाप्रेनीडशुभंमध्येमध्यं अ. | वृक्षाग्रारूढेशांतस्वरेस्त्रीधनप्राप्तिः । धमेऽल्पम् २८३ १ ६३ | करभादिपृष्ठेशुभाशुभम् २८९ ७ भूनीडमशुभं शुष्कवृक्षेनीडम वृषभादिपृष्ठेऽशुभं २९० १ ८८ शुभम् २८३ ३ ६४ | दक्षिणनादगमनेनाशुभं २९० तरुकोटरादिनीडमशुभम् २८३ ५ ६५ | काकस्यदक्षिणतो वामोरवः अन र्थदः २९० काकांडसंज्ञाप्रक०। दक्षिणशब्दे पृष्ठागमे अशुभं २९. ७ ९१ काकांडसंज्ञामाह २८४ २ ६६ | गोपुच्छादिरूढे अशुभं २९१ १ ९२ वारुणाग्निसंज्ञांडेनशुभाशुभं २८४ ४ ६७ | अप्रपृष्ठादिशब्दे अशुभ २९१ ३ ९३ समीरजांडेनशुभाशुभम् . २८४ ६ ६८ चंच्वाशुष्कदाऽदिताडनमशुभं २९१ ५ ९४ वामेशुष्कवृक्षाद्यारोहणमशुभं २९१ ७ ९५ यात्राप्रकरणम्। भग्नशाखायारोहणमशुभं यात्रानिमित्तशकुनमाह २८५ १६९ छत्रनिंद्याद्यारोहणमशुभम् २९२ ३ ९० काकस्तुतिमाह | वल्लीरज्वादिमुखेपुण्यक्षयादि काकार्चनम् ___ श्लोकद्वयेन काकमधुरवामशब्देनशुभं विप ऊर्ध्वमुखश्चलपक्षोऽशुभः २९३ ३ १०० रीतेनाशुभम् २८५ ७ ७२ आकुंचितैकांघ्रिचंचलचित्तदीकाकप्रदक्षिणवामनिवर्तनेनपांथ ___प्तरवेणाशुभं २९३ ५ १०१ वांछितलाभः १ ५३ पुच्छताडनसूर्यावलोकनमशुभं २९४ -१ १०२ दक्षिणवामशब्दे शुभं अन्यस्मिन् काकःपुंमस्तके विद्गोमयादि अशुभं २८६ ३ ७४ | न्यस्यत्यशुभम् पृष्ठे मधुरशब्देन शुभं २८६ ५ ७५ | पाथपुंमस्तकोपरिस्थितशब्दा अग्रगामिपादेनमस्तककंडूय. दशुभं २९४ ५ १०४ नं अभीष्टदं २८६ ७ ७६ | नदीतीरमार्गेउच्चस्वरेणाशुभम् । २९४ ७ १०५ गजस्तंभादिरूढे श्रेष्ठम् २८७, ७७ | यात्रोद्यमेरथहस्त्याधिरोहेऽशुभं २९५ ११.६ कूपस्थितेनष्टलाभोनदतिौरस्थि राजसैन्येकंककाकादियुद्धमशुभं २९५ ३ १०७ तेकार्यसिद्धिः २८७.३ ७४ | शस्त्रादिरूढशुभम् २९५ ५१०० Aho ! Shrutgyanam م ، م س Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका।' - - ___ शुभदौ विषयाः पत्र पं० श्लो० विषयाः पत्र पं० श्लो पूर्वेकाकगमनस्वरौ कथितवैपरीत्येन। काकटीटाकुकेकेटाकुटिकीशब्दे २९५ ५ १०९ ___षुअशुभम् ३०४ १ १४० विश्वासकर्तुरेतच्छास्त्रेणशुभाशुभं २९६ १ ११० | वाकेके कोकोकुरूकुरूतःशुभाशुभं ३०४ ३ १४१ कादीर्घकालशब्देनाशुभम् ३०४ ५ १४२ स्थानस्थितप्रकरणं। कवकवकतिकतिखुरुखुरु काकचेष्टायाः प्राक्तनशुभाशुभ० २९६ ४ १११ शवशवतःशुभाशुभं निष्कारणमिलितारुवंत अशुभाः २९६ ६ ११२ | करकरकलकल कुलुकुलु बहुसमूहेविघाताद्यशुभं २९७ १ ११३ | कटकटतःशुभाशुभम् ३०५ १ १४४ धूलिस्नातेजलविलोक्य कृतशब्दे काकशब्दसारांशः कथितः ३०५ ३ १४५ वृष्टिः विपरीतेऽशुभम् २९७ ३ ११४ | चिरजीविनो द्वात्रिंशद्भाषाभेदाः ३०६ १ . मध्याह्नगृहेरौद्रशब्दांगकंपनमशुभं २९७ ५ ११५ पिंडप्रकरणम् । तृणपत्रमुखो रुवन्काक: अशुभः २९७ ७ ११६ काकस्तुष्टः सत्ययेनवदति ३०७ २ १४६ प्रस्थायिनःछायाभूम्यादिस्थि बलिपिंडभोज्यैः काकोनिमंत्रतकाकशब्देन शुभाशुभं २९८ १११७ | णीयः ३०७ ४ १४७ द्वाररुधिरलिप्तशब्देनशुभं २९८ ३ ११८ |मंडलेब्रह्ममुरारिभानूनर्चयेत् ३०७ ६१४८ ऊर्ध्वपक्षः कुनादोभ्रमन्काकः अष्टदिक्षुभत्या लोकपालान अशुभं करोति २९८ ५ ११९ येत् ३०८ १ १४९ काकेनकृते द्रव्याहरणत्यागेशुभाशुभं २९८ . १२० | नरः सप्रणवैरर्घादिभिरर्चयेत् ३०८ ३ १५० रोगविनाशप्रश्ने प्रदीप्तेसुशब्दः तरुसन्निविष्टान्प्राक्तनमंत्रशशुभः २९९ १ १२१ | क्त्यार्चयेत् ३०८ ५१५१ शुभप्रश्नेशांतस्थितसुशब्दःशुभः २९९ ३ १२२ मंत्रः बृहज्जलपात्रस्थितशब्देनशुभं २९९ ५ १२३ |स्वकार्यमुदीर्यकाकचेष्टातः अन्नादिमुखोवांछितदः २९९ ७ १२४ ___ शुभाशुभलक्षणीयम् ३०८ ९ १५२ अश्वछत्रादिरूढःशुभः ३०० १ १२५ दिभेददृश्यंशुभाशुभंश्लोकद्वयेन ३०९ ११३ १५४ स्थानसंमुखेकुलुकुलुशब्दःशुभः ३०० ३ १२६ । विलुप्तपिंडेमिधेविकीर्यादशुभं ३०९ ५ १५५ काकमैथुनदर्शनमशुभम् ३०० ५ १२७ | दुग्धवृक्षादिरूढे दधितंदुलादि अद्भुतदर्शनेनउद्वेगादयोभवंति ३०० ७ १२८ भिर्बलिः ३०९ ७ १५६ काकोत्पातशांतिः पंचश्चोकैः ३०३ ११ ३३३ पिंडत्रयप्रकरणं । स्वरभेदप्रकरणम्। नारादाद्यैः पिंडत्रयस्यविधानमुक्तं ३१० । २ १५७ काकस्वरभेदेनकांचनादिलाभः ३०२ ५ १३४ | नरेणकाकाः पिंडत्रयभोजनार्थ केंकेंशब्देस्त्रीप्राप्तिःकुकुशब्दःशुभः ३०२ निमंत्रणीयाः ३१० ३ १५८ झोंकोंशब्देसुखंफ्रेंडूं क्रांक्रांशब्दः काकार्चनंदध्योदनायैः श्लोकद- । : रणाय ६।१ १५ कांक्रांबूकुकुशब्देमरणं ३०३ ३ १३७ | पिंडेषुसुवर्णादिस्थापनं ३११. ३ १६१ फ्रीकी शब्देऽशुमं एकविंशतिवारंमंत्रमुच्चार्यकाके काककशब्देशुभाशुभं १३९ भ्यःपिंडान्दत्वाकार्यविचार्यम् ३११ ५.१६२ Aho! Shrutgyanam येन Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसाराशानुक्रमणिका । (१९) ३१२ ३१२ ३१३ ३१३ ६१३ ५ १६९ विषयाः पत्र पं० श्लो० | विषयाः पत्र पं० श्लो. आह्वानमंत्रः ३११ ७ त्रयोदशोवर्गः। सुवर्णादिसहितेपिंडेमुक्तेउत्तमम पिंगलस्यशकुननिरूपणं . ३१८ ७ १ ध्यमाधमानि ३१२ १ १६३ पिंगलारुतेअधिवासनविधिः ३१९ १ २ . पिंडेविवादेवाणिज्यादिविचार शकुनाचार्यस्यलक्षणं ३१९ ३ ३ णीयं | दिननक्षत्रादिकबलपूर्वकपिंगलादक्षिणांगचेष्टादिभिः शुभं ३१२ ५ १६५ | याः शकुनं निरीक्ष्यम् ३२० १ ४ पिंडं समादाय शुभचेष्टयाशुभं शकुनदर्शनेनिषिद्धानि ३२० ३ ५ विपरीतंनेष्टं ७ १६६ । अधिवासने शस्तोवृक्षः । ३२० ४ . ६ शांतदिशिगमनेपर्णफलं १ १६७ स्नानपूर्वकंसायंकाले वृक्षमूलेदीप्तदिशिगमने कार्यहानिः ३ १६८ | गमनम् द्वितीयपिंडमपत्हत्यशांतदिगु अवनि विशोध्यसरोजंविदध्यात् ३२२ ३ . ड्डानेशुभम् | मृदादिना पिंगलयुगंप्रकल्प्यसलोहपिंडं समादायदीप्तदिग्गमने रोजेनिवेशनं ३२२ ५ ९ तिनिकृष्टम् ३१३ ७ १७० दशसुकाष्ठासुइंद्रादिलोकपालानां ___ अष्टपिंडप्रकरणं। निवेशनम् ३२३ १ १० मुनयः सारातिसारपिंडाष्टकं नमोयुतैः सप्रणवैः स्वनाममंत्रैः वदंति __३१४ २ १७१ अादिभिः पूजनम् ३२३ ३. ११ शुभेहि सायंपिंडाष्टकंभो अथासनमंत्रः ३२३ ५. . तुमधिवास्य प्रभातेबहिर्या ! वृक्षेअवतरणमंत्रः ३२३ यात् ४ १७२ आह्वानमंत्रः श्लोकपंचकनार्चनविधिः | पूजाजपहोममंत्रः ३२४ मंत्रस्तुतिः ९ १७८ | अथाधिवासनमंत्रः ३२४ ३ प्रथमपिंडग्रहणेशुभं द्वितीये अ मंत्रंजप्त्वामधुनासमिद्भिस्त शुभं १ १७९ __ दशांशहोमः ३२४ ८ १२ तृतीयपिंडग्रहणेऽशुभं चतुर्थे मधुनासमिद्भिर्तृत्वाध्यानम् ३२४ १० १३ शुभं पंचमे अभीष्टंषष्ठेविफलं चंडीध्यानम् ३२४ १२ १३ मुनिपिंडग्रहणेअशुभअष्टमेसंता पिंगलिकांसंपूज्यध्यानपूर्वकचंपादि ५ १८१ ___ डीस्मरणं चंच्वापिंडाविक्षिपतितदाघोरयुद्धं ३१७ १ १८२ | पांडुरवस्त्रसूत्रैः वृक्षवेष्टयेत्पूजा प्रथमेद्विपंचाशत् द्वितीयेत्रयोदश गुरवेनिवेदयेच्च श्लोकाः ३१७ ४ १ | पृष्ठेप्रदीप्तांककुभंविधायतञ्चेष्टित तृतीयेत्रयः चतुर्थे चत्वारिंशत् ३१७ ५ २ वीक्षणम् ३२५ ३ १५ पंचमेत्रयोविंशतिः षष्ठेद्वादश ३१७ ७ ३ तांप्रणम्यतस्याःस्मरणपूर्वकंगृहासप्तमे एकादश अष्टमेचतुर्दश ३१८ १ ४ । ऽऽगमनं नवमे एकादश ३१८ २ ५ गुडाज्यपायसादिभिःकुमारिका समस्तवृत्तानामेकाशीत्यधि __णांभोजनम् २५ ७ १९ कशतं ३१८ ४ ६ रानौशयनंकृत्वातृतीयप्रहराते Aho! Shrutgyanam ३२४ ३ १८० Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) विषयाः स्वप्नस्मरणम् पुनःवृक्षसमीपंगत्वास्वकार्यनि वेदनम् ब्रह्मपुत्रीविरुतादशेषज्ञानं पिंगल स्वरप्रकरणम् पार्थिवादिस्वर संज्ञा पार्थिवस्य एकमात्रादिपंचभेदाः लोकद्वयेन स्वरप्रकरणम् । वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । “आप्यस्वरस्य एकादिपंचभेदाः लोकद्वयेन `तैजसस्वरस्यएकमात्रादिपंचभेदा: श्लोकद्वयेन मारुतस्वरम्य का दिमात्राभेदा: लोकद्वयेन अंबरस्वरस्य एकमात्रादिपंचभेदाः लोकद्वयेन पिंगलस्वराणांलघुदीर्घप्लुतभेदा:तेषां फलानि पृथ्व्यादिभेदत्रयेणशांतनादा: भारतांबरौप्रदीप्तशब्दौ पंचस्वराणांदिग्विभागैर्मित्रादि फलानि प्राच्यादिदिग्विभागैः पार्थिवादि बलं श्लोकद्वयेन पृथ्व्यादिपरस्पर शब्दभेदेनमित्रादिवलं सप्तश्लोकैः पत्र पं० श्लो० विषया: ३२५ ९ २० | निशायाः प्रहरवशाद्दिग्विभाग:धेन्वादिसंज्ञा: श्लोकचतुष्टयेन धेन्वादीनां फलानि ३२६ १ २१ ३२६ ३ २२ पार्थिवादिस्वराणांधेन्वादिसंज्ञातः अर्थसंज्ञाफलानि पूर्वदिशिपार्थिवस्यप्रहरवशादर्थं दिवसेधेन्वादिसंज्ञाः ३३० ३३० स्वरबलप्रकरणम् । १ ३३३ १/३ ३३३ ५ ३३३ ७ ३३४ १ ३३४ ३ ५१ ३३४ ७ धेन्वादिप्रकरणम् । ३३५ १३ ३३५ ३३ ५।१ .३३७ परीतम् ३३१ ३।५ २८ पार्थिवतैजसः शुभफलः सुविपर्ययेणविपरीतं ३३२ १।३ ३ धरामारुतजौशब्दौ शुभौव्यतिक्र माद्विपरीतफलौ ३३२ ५/७ २ भौमखशब्दौ सुखासुखौ क्रमरहिते विपरीतफलम् २३ ४ x २४ द्विसंयोगेन मिश्रितानां फलं २६ भूमिजलध्वनीशुभौविपर्ययेण वि ३९ श्र KN . पिंगलोकानां स्वराणां केवलानां फलंपंचभिः श्लोकैः ४९ केवलस्वरप्रकरणम् । ३३७ ६ ५०. पिंगलारुतेद्विसंयोगफलप्रकरणम् । ३४१ , 33 ३४ | आप्यस्यानुतैजसः शब्दः फलंकृत्वानिहं ३५ तिप्रथमं तैजसे सतिसिद्धंफलं ३६ जलमारुतौ अशुभौ विपर्ययेण ३७ भक्षयकरौ ३८ जलांबरशब्दावशुभौ | अग्निमारुतौ शुभौ तद्वैपरीत्येमृभदौ तैजसनाभसौशब्दौ अशुभौ मारुतांबरौ शब्दौ अशुभौविपर्यये अत्यशुभं हुताशनाकाशसमीर शब्दाः शुभाः पार्थिवनादयोर्मध्यस्थितःअन्यनादः शुभः पत्र पं० श्लो० ३३८ ११७ ५४ ३३९ १ ५५ ३३९ ३४० ४५ पिंगलारुते त्रिसंयोगफलं पार्थिवाऽऽप्ययोर्मध्यस्थः वातज: वा गगनजः अशुभः भूजलाग्निरवाः शुभाः जलभूम्य निरवाः शुभदाः Aho! Shrutgyanam ३४१ ३ ६२ ३४१ ५ ३४२ १ ३४१ ७ ६४ ३४२ ३ ૬૧ ६३ पिंगलारुतेत्रिसंयोगफलप्रकरणम् । ३४४ १ ६५ ३४२ ५ ६७ ३४२ ७ ६८ ६६ ३४३ १ ६९ ३४३ ३ ७० ७१ ३४३ ५ ३४३ ७२ ७ ७३ ३४४ ६ ७४ ३४४ ७ ७५ ३४५ १ ७६ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका ।। विषयाः पत्र पं० श्लो० | विषयाः पत्र पं० श्लो. तेजसाप्यवडिमास्त्रयोरवाःस्त्रीविष . मारुतवह्निवारिभूमिनिनादाः येशुभाः अन्यविषयेमध्यमाः ३४५ ३ ७७ रणवैवाहिकद्रव्यागमनंचकथ० ३५०. ३ ९९ भूमिवातगगनस्वनाः प्रथमशुभाः वाय्वग्निपृथ्वीजलशब्दाः हितभेद पश्चादसुखाः । ३४५ ५ ७४ कराविग्रहेणलाभदाः ३५० ५ १०० वातावारिवियतारुतानिभयदानि . ३४५ ७ ७९ वाताऽनलांभोवसुधाशब्दाः अशुभ व्योमवातपृथ्वीशब्दाः अशुभाः पश्चात्तुच्छलाभदाः ३४६. १ ८० | भौमाप्यहौताशननाभसशब्दाः पिंगलारुतचतुःसंयोगफलप्रकरणम् ।। शुभाशुभदाः ३५१ १ १०२ पिंगलारुतेचतुःसंयोगफलम् ३४६ ४ ८१ भूवाकाशहुताशशब्दाःशुभाः ३५१ ३ १०३ पिंगलस्य भूमिनलानलमारुत पृथ्वीहुताशांबरवारिशब्दाः नादाः शुभदाः ६ ८२ शुभदाः ३५१ ५ १०४ पार्थिववारुणवाय्वग्निरुतानि धरानभोऽभोग्निरवाः शुभदाः ३५१ ७ १०५ ___ शुभदानि ३४६ ८ ८३ भूमिहुताशपयोगगननादाःशुभदाः ३४७ १ ८४ | धरांबुवातांबरशब्दाअशुभाः भूम्यंबुजौद्वौशब्दौनभोमारुतौ भुमिपवनांबुहुताशनादाःशुभदाः ३४७ २ ८५ भूम्यनिलाऽनलनीरनिनादाः द्वौशब्दौलाभात्परंदुःखदौ ३५२ ११०६ शुभदाः ३४७ ५ ८६ | धरासमीरांबुनभोरवाः शुभाः ३५२ ३ १०७ वारिभूमिदहनश्वसनशब्दाः भूमारुतव्योमजलोत्थशब्दाअशुभदाः ३४७ ७ ८७ | शुभाः ३५२ ४१०७ अंबुभूमिवियदग्निनिनादा:शुभदाः ३४७ | महीमरुव्योमहुताशशब्दाःअशुभाः ३५२ ५ १०८ वारिवह्निपवनावनिशब्दाः भूव्योमतेजोमरुत्शब्दाः वामभागेशुभदाः ३४८ अशुभाः . . वारिवाय्ववनिवह्निशब्दाःशुभदाः ३४८ ३ ९० | पृथ्वीसमीरांबुहुताशनशब्दाः सेवारिवातदहनावानवाचःशुभदाः ३४८ ५ ' नापतिमृत्युदास्तथांभोऽग्निवाता तेजोधरावारिसमीरशब्दा:अशुभाः ३४८ ७ ९२ बरशब्दाःअशुभदाः ३५२ ७ १०९ अग्निमहीमारुतवारिशब्दाःपूर्व आप्यानिलाग्नेयवियच्छन्दाः शुभदास्ततः कलहदाः ३४९ शुभदा: अंभोऽनला वन्द्यबुवाताऽवनिनिनादा: आदौ काशसमीरशब्दाः कलिदाः ततः शुभदाः ३४९ रणमृत्युदाः ३५३ १ ११. अग्निजलोर्वीपवनशब्दाःभूमि अंभोनिलवह्निवियत्शब्दैरणे हेतोः कलहमहार्थलाभदाः ३४९ ५ ९५ मरणं पयःसमीरांबरवह्निहुताशवाताऽबुमहीरवशब्दाः नादाः अशुभदाः ३५३ ३ १११ अशुभाः ७ ९६ पयोविहायोग्निसारनादाः । समीरपृथ्वीजलवाहिनादा:अशुभ अंभोवियद्वातहुताशशब्दाः ३४९ ९ ९७ शुभदाः ३५३ ५ ११२ समीरजलपृथ्वीपावकशन्दाः भूतोयतेजोमरुदंबरशब्दाः शुभदाः ३५३ ७ ११३ शुभदाः ३५० १ ९८ | पिंगलःशुभदाननिनादान् Aho ! Shrutgyanam Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका। टफलम् ३५६ ५ १२३ विषयाः पत्र पं० श्लो० | विषयाः पत्र पं० श्लो. कृत्वाऽशुभौविदधाति तदापूर्व | स्वस्थानादीनांप्रवेशनातपिंगल: सिद्धिस्ततःप्रणाशः ३५४ १ ११४ शुभदः पिंगलस्य अशस्तौ प्रशस्तौनादौ वामेदृष्टःपिंगल: शुभः ३५९ ५१३५ शुभप्रदौ ३५४ ३ ११५ निबिडोर्ध्वमहच्छाखायांपिंगरुतं पार्थिवपूर्वकैरवैःप्रशस्तंफलम् ३५४ ५ ११६ शुभदं प्रांतेऽशुभदम् ३५९ ७ १३६ पार्थिववारुणतैजसनादानामभी वृक्षेस्थितःभूमिरवेण जल्पन् ३५४ ७ ११७ भौमानभोजः वा अनिलजः अ. पिंगः शुभदः १ १३७ शुभदः अग्निमारुतशब्दात् शुभं ३५५ १ ११८ अग्निजातोमरुदंबरोत्थौ अग्निरहि ताभ्यामुपरिवारुणमशुभम् ३६० ३ १३८ तौशब्दौशुभौ ३५५ ३ ११९ | पिंगस्य आप्यभौमौशुभौमारुत पिंगलस्यशांतदीप्तस्वरस्यफलं ३५५ ५ १२० पार्थिवावशुभौ मिश्रितशब्दानांदिङ्मात्रक्रमः ३५५ - ७ १२१ | मरुदंबुशब्दौ अग्न्यंबुशब्दौअशुभपिंगलशब्दज्ञानफलस्तुतिः ३५६ १ १२२ | ३६० ७ १४० अंबुहुताशरवौ अशुभौभूमिपयः संकीर्णप्रकरणम् । खरवाः शुभाः ३६१ १ १४१ संकीर्णप्रकरणसारः खाऽग्निध्वनीवह्निनभोध्वनी अशुअभ्यर्चितस्य पिंगलस्यभौमाप्य भौकोपिपिंग: मारुतेनाशुभदः ३६१ ३ १४२ रवौ शुभदौ ! जीर्णादिवृक्षाःअशुभाःतद्वत्मारुतं वृक्षेस्थितस्यपिंगलस्यभौमाप्य रुतमशुभम् ३६१ ५ १४३ | पिगलस्य अंभोनभोजौरवौअभक्ष्यपूर्णवदनः शुभशब्दःपिंगलः शुभदः व्योम्नस्तरोरवतरन्सन्अशुभः अर्चितवृक्षादन्यवृक्षे स्थितःपिंगलः उत्थायशांतदिग्गमनमशुभम् ३६२ १ शुभदः पिंगलस्यस्थानादिदीप्तत्रयेस्थाना शुष्कादिवृक्षे अंबरशब्देनपिंगल: । दीनां विनाशः ३६२ ३ १४६ ___ अशुभदः | पंकादीनि स्थानानि सूर्यान्विताकोटरस्थपिंगल: पार्थिववारुण नि दिशःवातांबरजौस्वरौचदी___ नादैः शुभदः ३५८ १ १२९ प्ताख्यानि ३६२ ५ १४७ दक्षिणभागेशांतदेशेशुभनादापि शांतत्रयेसतिस्थानादिलाभाः .. गल: शुभदः पर्वतमूर्द्धनिस्थितः पिंगः श्रीदः ३६२ वामंगतःशांतदेशेस्थितः पिंगलो पिंगलस्यशिरोंगानांकंपनमशुभ. लाभदः ३५८ ५ १३१ | मशस्तशब्दस्तुअशुभः पिंगलिकायाः भूमिजवह्निजनादैः पिंगलस्यउन्मूलितेवृक्षेदुष्टशब्दैरशुभम् ३५८ ७ १३२ | , शुभं ततोदृष्टस्य अशुभफलंच ३६३ ३ १५. कीकसादौस्थितस्यापिंगलत्यशांत बहुपुष्पादियुक्तेवृक्षे स्थितःपिंगः दीप्तस्वरौ अशुभदौ ३५९ १ १३३ | अतिशुभदः ३६३ ५ १५१ ३५६ ७ १२४ रवी अशुभदौ शभौ १४५ ७ १२८ ३५८ ३ १३० ७ १४० Aho! Shrutgyanam Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । (२३) ३७२ २ ७ ३७३ विषयाः पत्र पं० श्लो० विषयाः पत्र पं० श्लो. अर्चितविनावृक्षंगत्वाऽदृश्यमानः पिंगलारुतयात्राप्रकरणम् । पिंग:अशुभदः ३६३ ७ १५२ | यात्रायांशुभाऽशुभज्ञानम् ३७२ १ १८२ कोटरांतर्गतःपिंगल:भूमिमीरम यात्रायांनिश्चयज्ञानं ३७२ ३ १८३ रुदग्निरवःअशुभदः . ३६४ १ १५३ | यात्रिकोयांदिशंगत्वाकृतार्थो- . शुभवृक्षादौस्थितःपिंगल: शुभदः ३६४ ३ १५४ __ भूत्वाग्रहमागच्छेत् त्वगादिसंत्रोट्यतरोरधः पतनेन पिंगलोनंप्राप्यभुक्त्वाआयाति त. अशुभम् ३६४ ५ १५५ | द्वत्पांथिकआयाति । अर्चितमात्रपिंग:अभिमुखागमना पिंगलवत्पथिकःधनमर्जयित्वाप.. दिभिरशुभः ७ १५६ रदेशेएवस्थितः नभोरवात्पश्चात्वडिमात्तथाआ पिंगलस्यप्रशांतवामशब्दःशुभःदी ___प्यात्परं मारुतरवात्अशुभं ३६५ १ १५७ __प्तसमःशस्तः पिंगलस्य आप्यात्परंतैजसस्वरेण | निवासेवायव्यशब्दःशुभोअशुभम् ३६५ ३ १५८ | यात्रासुमरुदारवे अभद्रं ३७३ ५१८८ पिंगलस्यमैथुनोत्तरंपार्थिवध्वनिना पिंगलस्यभौमादिरवैरशुभं ३७३ ७ १८९ दः अशुभः ३६५ ५ १५९ | पिंगलस्यदक्षिणेनपार्थिवाप्यशपिंगलस्यभौमादियुग्मयुग्मफ० ३६५ ७ १६० ब्दी अशुभौ ३७४. १ १९० पिंगलस्यजलादियुग्मयुग्मफलं ३६६ १ १७१ मारुतगगनशब्दौ शुभौ ३७४ ३ १९१ पिंगलस्यपवनादियुग्मयुग्मफलं ३६६ ३ १६२ | तैजसमारुतौशब्दौअशुभौ अदृश्यमानापिंगलादन्यविहंग पिंगलस्यवामेपुरतः भौमाप्यौ मदर्शनात् शुभं शब्दौशुभदौ पिंगलारुतेशुभचेष्टाप्रकरणम् । पिंगलस्यवामदक्षिणशब्दौशुभदौ ३७५ पिंगलायाश्चेष्टितानितथाफलानि ३६७ २ १६४ | पिंगलस्यवामेदक्षिणतःभौमनिनपिंगलस्य अंगविलोकनादिभिः दः शुभदः शुभफलं पिंगलस्याऽवनिनरिशब्दौपंथिकपिंगलस्य अभिमुखादिभिः शुभफलं ३६७ ६ १६६ ___ स्यवामेवाऽग्रतःशुभदौ ३७४ पिंगलस्यकंडूयनादिभिःशुभफलं ३६८ १ १६७ दीप्तदक्षिणतः पिंगस्यमारुतांबरौ पिंगलस्यवामांगे निरीक्षणादिभिः - अशुभदौ ३७५ शुभफलं ३६८ ३ १६८ | वाणिज्यादिकर्तुमे पिंगस्य पिंगलस्यउत्तमांगादि अंगानांक भौमनिनदाःशुभदाः डूयनैः शुभंफलंषड्भिःश्लोकैः ३६६ यात्रासुधिंगलस्यधरादिनिनादाः पिंगलस्यपक्षानां फलं ३७० १ १७५ शुभाः ३७६ ३ १९९ पिंगलस्यपुन:कंडूयनफलं यात्रायां पिंगलायाः शकुननसश्लोकत्रयेण मग्रफलं यथापिंगलायाः फलंतथाखगांतरे भ्योपिद्रष्टव्यं ३७०. १ १७९ पिंगलारुतेऽनुक्रमप्रकरणम् । पिंगलिकायाएत्तचेष्टादिकं श्लोकद | आयेऽविवासनप्रकरणेद्वाविंशति येनबहुषुकर्मसुयोग्यम् ३७१ ३।५ १८० . . श्लोकाः ३७६ ९ १ Aho! Shrutgyanam ३७४ ३७५ ३ १९५ ३७० ३।७ १७४ ३७६ ५ २०० Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) . वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । येन विषयाः पत्र पं० श्लो० विषयाः पत्र पं० श्लो० षोडशभिर्वत्तैःस्वरनामप्रकरणंद्वि वानरस्यशकुनावलोकनम् ३८५ १ १९ तीयं ३७७ १ २ अरण्यवासिनांशकुनानि ३८६ १ २० तृतीयेस्वरबलाभिधे दशवृत्तानि ३७७ १ २ | गौरमृगादीनांसर्वजातीनांमृगाणां चतुर्थेधेन्वादिसंज्ञाख्यवृत्तसप्तकम् ३७७ २ ३ शकुनानि षड्भिः श्लोकैः ३५१ पंचमेस्वरनामनि प्रकरणपंचवृत्ता वराहस्यशकुनानि नि ३७७ ३ ३ नखिनांपशूनांशकुनानि श्लोकद्ध षष्ठद्विसंयोगस्वरामिधेत्रयोदशवत्तानि मृगेंद्रगुंजारवादिशब्दा अतिशुभ त्रिसंयोगस्वराख्येसप्तमेसप्तव० ३७७ ४ ४] दाः चतुःस्वराणांसंयोगेअष्टमे द्विच सिंहव्याघ्रादिनखिनांशकुनानि ३८९ ३ त्वारिंशत् | लोमशाः मृगाद्याः शकुनसिंहादि नवमेसंकीर्णएकचत्वारिंशत्लोकाः ३७७ ६ ५ तुल्याः ३८९ ५ ३२ शुभचेष्टाफलाभिधेदशमेऽष्टादश शशादीनांशकुनानिचतुर्भिःश्लोकैः ३९० १७ श्लोकाः ३७७ ७ ६ ककलासस्यशकुनानियुग्मेन ३९२ १।३ । एकादशेयात्राख्येएकोनविंशति नकुलस्यशकुनानि ३९२ ६ ३९ श्लोकाः शगालशकुनानिचतुर्भिः श्लोकैः ३९३ ११७ एवंपिंगलारुतएकादशप्रकरणात्म लोमशीशकुनानि त्रिभिः श्लोकैः १३ ११ केवृत्तानांशतद्वयम् ३७७ ९ . आरण्यानांशकुनाः ग्राम्यारण्यचराणांपरस्परस्यश कुनम् ३९५ ५ ४८ चतुर्दशोवर्गः। वन्यसत्वानांशकुनानि युग्मेन ३९६ १।३ . चतुष्पदानां प्रकरणम् । पंचदशोवर्गः। चतुष्पदानांगतिस्वरालोकनचे षट्पदादीनां प्रकरणम् । ष्टितानि ३७८ ३ १ षटपदादीनांशकुननिरूपणं चतुष्पदानांमंत्रः ३७८ ५ २ षट्पदानांशकुनंयुग्मेन ३९७ ३।५ ३ पूजनपूर्वकचतुष्पदशकुनावलोक | शरभशकुनम् ३७८ ७ ३ ऊर्णनाभेः शकुन हस्तिशकुनावलोकनम् ३७९ १ ४ | मर्कटिकाशकुनं युग्मेन . ३२६ ४११ ६७ अश्वशकुनम् ३८० १ ५ खर्जूरकर्णसूच्योः शकुनम् ३९९ ३ ८ गर्दभशकुनंचतुर्भिःश्लोकैः १८५ ४३ है | सर्पाणांशकुनानि त्रिभिः श्लोकैः ३९९ ५।३ वृषस्यशकुनम् ३८१ ७ १० मीनादिजलजंतूनांशकुनं ४०० ५ १२ महिषस्यशकुनम् ३८२ १ ११ | ऊर्ध्वमुखस्थितकपर्दिकायाः 'गोमहिन्यो:शकुनौ श्लोकत्रयेण ३४२ ५।१ १२ | शकुनम् ____४०१ १ १२ अजाऽजयोःशकुनौ मेषैडकयोःशंकुनाबलोकनम् षोडशोवर्गः। उष्छुछुदरामूषकानांशकुनम् ३८४ ४ १७ पिपीलिकाप्रकरणम्। बिडालशकुनावलोकनम् ३८४ ७ १८ पिपीलिकानांशकुनेनज्ञानं नम् Ano! Shrutgyanam Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । ४१७ १८ ५।११ विषयाः । पत्र पं० श्लो० | विषयाः पत्र पं० श्लो. पिपीलिकानांशकुनज्ञानार्थेयो ब्रह्मप्रदेशप्रहरक्रमेणसार्धाभ्यांद्विश्लोकाभ्यां ग्यायोग्यस्थानं. ४०२. १ २ पल्लीरुतफलं . ५३ २४ स्थूलकपिलपिपीलिकानांशकुनं. ४०२ ३ ३ पल्लयाः शांतादिफलं . ४१४ ३ २८ गृहेदिविभागवशापिपीलि पल्ल्याः संगमादीनांफलं ४१४ ५ २९ काया:फलंत्रिभिःश्लोकैः ४०२ ५१ पल्लिकायाः वामदक्षिणयोः फलं ४१४ ७ ३० तल्पाश्रया:देहल्यांविलोक्य पल्लयाः दक्षिणांगादीनांफलं - ४१५ १. __मानाः अशुभाः ४०३ ३ | दक्षिणोन्नतंसमधिरुह्यवामतोऽवतकेदाररथ्यादिषुचत्वरादौचपि रणफलं पीलिकानां शकुनमशुभं ४०३ ५ ८ | पल्लीप्रपतनेतिथिवारफलंपंच०४१४ १३१३६ पिपीलिकायाः. आज्यघटेशकुन, ४०४ १ ९ | पल्लीप्रपतने नक्षत्रफलं ४१६ ६ रक्तपिपीलिकायाः गृहस्योपरि पल्लीप्रपतने लग्नफलम् निःसरणशकुन ४०४ ३ १० पल्लीप्रपतनेअंगस्थानफलम् रक्तपिपीलिकायाः अंबुघटस्य पल्लीविचारः ४१८ मूलानिःसरणशकुनम् ४०४ ५ ११ ग्रंथांतरात्पल्या:प्रभातिकचेष्टा ४१९ २ । १ रक्तपिपीलिकायाः धान्यादिषु पुनः शरीरेपतनफलं ४१९ ७ निःसरण फलंचतुर्भिःश्लोकैः ४०४ ७१ १३ | नूतनगृहप्रवेशेपल्लीगमनचेष्टाफ० ४२० ६. . पुनः पल्लीस्वराणांफलं ४२१ २.. सप्तदशो वर्गः। पुनः पल्लीप्रपतनेअंगानांफलम् ४१२ ५ . पल्लीविचारप्रकरणम्। ॥ इति पल्लीविचारेसप्त दशोवर्ग:समाप्तः ॥ पलिकायाःकालदिक्कमवशेनशकुनम् अष्टादशो वर्गः। पूर्वदिशिसूर्योदयादिप्रहरवशात् पल्लीस्वरफलं त्रिभिःश्लोकैः ४०६ ६३ ३ श्वचेष्टितेऽधिवासनप्रकरणम् । अग्निकोणेप्रहरवशाहवारात्रौत्रिभिः श्वस्तस्यशुभाशुभवर्णनं श्लोकैपल्लीरवफलं | आचार्यलक्षणं . ४२३ ३ २ दक्षिणस्यादिशिप्रभातकालादि | शुन: नामानि क्रमेणत्रिभिः श्लोकैः पल्लीरवफलं १०८ शुनः श्वेतादिवर्णभेदेनब्राह्मणादिव. नैर्ऋत्येप्रहरवशात्रिभिः श्लोकैः संज्ञा पल्लीरवफलं. | सर्वेषुकुकुरेषुकृष्णवर्णश्वाशस्तः ४२४ ३ पश्चिमायांदिशिप्रहरक्रमेणत्रिभिः | पैष्टश्चयुग्मंशुचिरर्चयित्वाशिश्लोकैः पल्लीरवफलम् ४१० | शुबांधवानांभोजनंदद्यात् ४२४ ५ ६ मारुतस्यदिशिप्रहरक्रमेणत्रिभिः शूद्रसंज्ञकस्यशुनःलक्षणम् श्लोकै: पल्लीरवफलं . ४११।। | तंसारमेयअधिवास्यरात्रौयत्नेनउत्तरस्यादिशिप्रहरक्रमेणत्रिभिः । मंत्रजपः श्लोकैः पल्लीरवफलं. ४१२ | ततःप्रभातेगोमयेनमंडलकरणम् . ४२५ ६ ईशानदिशिप्रहरक्रमणत्रिभिः मंडलेकमेणअष्टसुदिक्षुइंद्रालोकैः पाठीरुतफलं ३३१ दिलोकपालानापूजा ६ ... Aho! Shrutgyanam . . Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) विषयाः ततः शुनामुपहाराभ्यर्चनं श्लो. द्व. अब्दाद्यव कार्येषुविदध्यात् श्वविमोचनं कृत्वा तस्यचेष्टाऽवलोकनीया वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । वरकन्ययोः परस्परपरीक्षार्थशुनष्टावलोकनं शुनः दक्षिणचेष्टायाविवाहः शुन्यासमंकेलिरतं शुभं दक्षिणवामांगकंडून फले श्वादक्षिणांघ्रिमुत्क्षिप्य मणिकेऽम मूत्रक्षिपतितस्य फलम् निजानिवामांगानिकर्षतः शाला पत्र पं० श्लो० ४२६ ५/७ ४२७ १ १४ १२. 73 राज्याधिकारप्रकरणम् । राज्यादिकार्येषुशुनश्चेष्टानिरूप्यते ४२८ २ दक्षिणेन करेणागंकंड्यमानस्य शुनः फलं लोकद्वयेन हस्तेनदक्षिणनेत्रोद्घाटन फलं दक्षिणेन करेणअंगानांकंडूयनस्य फलं त्रिभिः श्लोकैः दक्षिणचरणोत्थैः उदरं लिखेत्त त्फलं शुनः दक्षिणवामचेष्टा फलंयुग्मेन शुनः शतिदीप्तादिभेदैः फलंत्रिभिःश्लोकः दीनिविशतः शुनः फलं वरणोद्यतस्याभिमुखोऽभ्युपैतितस्यशुनः फलं शुनःनासिकाग्रकंडूयनफलं विट्शयनादिकुर्वतः शुनः फलं शुनोमैथुनादीनां फलं ४२७ शुन: वामचेष्टादिफलं शुनः जिह्वामार्जनादिफलं निजमूत्रास्वादनफलम् ४३१ ॥ इति राज्याधिकारः ॥ ४२८ ३५ ४२९ १ ४२९ ૪ वचेष्टितेविवाहप्रकरणम् । ३ १५ ४३० ३ ४३० ५/७ १९ ४३२ २ २९ १६ | हलादीनिगृहीत्वायातुः पुंसः वामा दिफल्म् ४३२ ३ ३० ४३२ ५ ३१ २४ ३।१ २३ विट्वमनादिफलं शुन: क्रीडाफलं २३ || शुभप्रदेशेमूत्रफलं दक्षिणांग कंडूयनफलं | दक्षिणवामचेष्टा फलं युग्मेन १।५ ३ शुनः गर्तादिप्रवेशनफलं चंद्रदृष्ट्वा शब्दं करोति तस्य फलं ४३३ १ ३२ ४३३ ५ ४३३ ७ ४३३ ३ ३३ विषया: वामांघ्रिणा कंठादीनांस्पर्शनफलं वरकन्ययोः शुनः दक्षिणवामचेष्टा फलमू ૪ ३५ शुनः देशला भादिचेष्टाफलं शुनः शिरःस्पर्शनफलम् देशलाभादिप्रकरणम् । द्यूतफलम् द्यूतेशुनः कास हि कादीनांफलं शुनः अवामवामचेष्टा फलयुग्मेन शुनकोत्तमस्य वर्षानिमित्तचेष्टा: | नेत्रोद्घाटन नाभ्यास्वाद० फलं शुनः जले निमज्जनभ्रमणादिफलं शुनः जृंभागगनविलोकनाऽश्रुपात नेफलं 'तृणादिस्थशुनः रोदनफलम् तोयान्निर्गत्य तटमधिरुह्य देहकंपन पत्र पं० छो० ४३५ ५ ४१ ४३६ १ ४२ श्वचेष्टितवृष्टिप्रकरणम् । ४४० ४ ५८ ५९ ४४० ६ ४४१ १ ६० ३६ | सैन्यद्वयस्यमंडलचेष्टितेनयुद्धं ३७ त्रिपिंडस्थापनेनयुद्धजयभंगानां Aho ! Shrutgyanam ४३४ १ ४३४ ३ ४३४ ५ ३८ ज्ञानम् ४३५ १ ३९ शुनः शांत प्रदीप्तचेष्टयो: फलं ४३५ ३ ૪૦ शुनः शब्दादीनां फलम् ४३६ ४ ४३ ४३६ ६ ૪૪ ४३७ १ ४५ . ४३७ ३ ४६ ४३७ ५ ४७ ૪૭ ७19 ४३८ ४३८ ३ ५० ४३८ ५ ५१ ४३८ ७ ५२ ४३९ १ ५३ ४३९ ३३५ ५५ ४३९ ७ १ ५४ ५६ ४४० ५७ फलम् उच्च प्रदेशमधिरुह्य र विमीक्षमाणोभ पतितस्यफलं शुनः केनचिद्दोषेण अवृष्ट्यादिफल ४४२ ४४२ ४४१ ३ ४४१ ५ युद्धप्रकरणम् । ४४१ ७ ६३ ६१ ६२ १ ૪ ३.६५ ४४२ ६ ६६ ४४३ १ ६७ ४४३ ३. ४४३ ५ ६९ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका । | विषयाः विषयाः शुनः संमुखागमनादिफलं युद्धार्थिनोराज्ञः श्वनयुगलेनजया ऽजयज्ञानम् श्वयुग्मबलिग्रहणादिनाअन्योन्य संधानज्ञानं शुनः प्रलापनादिनाराज्ञो भयादि ज्ञानम् घुरघुरशब्दं कुवर्तः शुनः फलं एकेन बलिग्रहणे अन्येनपलायनेजयादिज्ञानम् शुनोः स्थानतः अचलनातू संग्रामादिज्ञानम् वयुग्ममभिभूय अन्येनशुनाबलि ग्रहणफलम् शुनोर्मध्यात्एकेनगृहीतमुक्तंनैवेद्यं तृतीयोगृह्णातितस्य फलं शुनोर्मध्यादन्येन शुनागृहीतबले: फलंयुग्मेन तृतीयेनशुनासमं बलिभोजनफलं वल्कलादिकंगृहीत्वा श्वानांत रंजि त्वाबलिभोजनफलं रणप्रश्शुन: शांतचेष्टा फलम् दिगादीनांशांत प्रशांतचेष्टाफलं अक्रूरदृगादिशुनोनिकटंत्रजित्वाकौ - टिल्यगमनस्य फलं अंबरेक्षमाणादीनां फलं दक्षिणवामगमनस्य तथाव्यतिक्र मस्यफलं राज्ञोरणनैव भविष्यतीतिप्रश्नेशुनः चेष्टायुग्मेन शुनः शांतदीप्तचेष्टाफलं युद्धविधातुं चलितस्य सैन्यद्वयस्य मध्येश्वमूत्रफलम् युद्धं प्रतिगच्छतः पुंसः श्ववामदक्षिनगतिफलं युद्धकर्तुर्यात्रिकायात्रिकफलं शुनः शिरःकंपादिफलम् पत्र पं० छो० ૪૪૪ १ ७० ४४४ ४४४ ४४४ ४४५ ३ ७१ ५ ७ १ ४४५ ३ ४४६ १ ४४६ ३ ४४५ ५ ७६ ४४६ ५१७ ४४७ १ ४४७ ३ ४४७ ५ ४४७ ४४९ ७२ 6 ू ७३ | जिह्वानखाग्रादिभिः दक्षिणांगानां स्पर्शतः फलंयुग्मेन ७४ ७७ ७८ ८० ८१ प्रस्थितानांपुंसां क्रीडादिकर्तुः शुनः फलं ८२ ८३ ८४ शुभाशुभंज्ञाननिमित्तभूतंचेष्टितं शुनः कर्णकंपनफलं ७५ | शुनः विजृंभादीनांफलं शुनोवृक्षादिस्थानेषुमूत्रकरणे फलं चतुर्भिः श्लोकैः सिद्धान्नादिभिः पूर्णवक्रस्यशुनः संमुखागमनफलम् सुप्रदेशे तुंगे स्थितस्य शुनः शिरः कंइनफलं दक्षिणमक्षिउद्घाट्यशाकुनिकंपइये त्तस्य फलं ४५४ दृष्टथापयो विलोकनादिफलं ४५५ | प्रीवामुन्नमयन् कर्णौधुनोतितत्फलं ४५५ अनिष्टचेष्टदुष्टश्ववर्णनम् अश्मादिभिः पूर्णवकादिफलं आमिषंविनामिलित्वा चिंतांकुर्वतांशुनाफलम् ૪૪૮ ५ ८७ ** १ ८५ कर्तितपुच्छकर्णादिभिः युक्तस्य सं ૪૪૮ ३ ८६ वचेष्टिते शुभाशुभप्रकरणम् । पत्र पं० श्रो० ४५१ ( २७ ) ४५१ ४५२ ४५२ ४५२ ४५१ ४ ९६ ४५२ ४५४ ४५४ ४५६ मुखागमनफलम् | तोयेनिमज्यस्व व पुर्विधुन्वनादि ४५६ ४५७ फलम् शुनामत्युच्चनादादीनां फलं ४४९११३८ द्वारप्रदेशेजघनविघर्षणादीनांफलं ४५७ ५ ९० गेहं प्रविश्य स्तंभसमालिंगनादिफलं ४४९ ७ ९१ शुनः दक्षिणांगशिरः कंडूयनफलम् छायांतिकस्थः श्वाघर्मेस्थिर्तिक ४५० १ ९२ रोतितत्फलम् ४५० ३ ९३ शुनः दक्षिणशांतदीप्तचेष्टाकलंयु ४५० ५ ९४ मेन Aho! Shrutgyanam ४५६ १ ४५७ ४५७ ९५ ६।१ ९७ ९८ ३ ९९ ५ १०६ ५१०७ १ १०८ ३ १०९ ४५५ ५ ११० ४५५ ७ १११ १०१ १ १०५ ३ १०६ १ ११२ ३ ११३ ५११४ १ ११५ ३ ११६ ५ ११७ ७ ११८ ४५८ १११९ ४५८३५१ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका। १३२ १ १३३ केन . विषयाः . पत्र पं० श्वो० विषयाः पत्र पं० श्लो. खहस्तकंड्यमानः ब्रह्मदेशेमधु- . . . . . . मूत्रंविधायाऽभिमुखागतस्यशुनः • रारवः श्वातत्फलम् ४५८ ७. १२२ ___ फलं ४६६ ५ १४८ गृहेआकाशादीनांविलोकनफलं. ४५९ १ १२३ | मनोज्ञेस्थानेमूत्रादिफ़लं ४६६ ७१४९ पृथिव्याःकमपित्र इतिश्वचेष्टितेलाभप्रकरणम् वलोकतेतत्फलं ४५६ ३ १२४ सायंकालादिसमयेसूर्याभिमुखस्य 'अर्थश्वचेष्टितमरणजीवितप्रकरणम् । दिग्वशाच्छुनःफलंचतुर्भिःश्लोकैः ४५९ ५५ १२५ / रोगिणोमरणजीवनविलोकनेकपिसूर्यसंमुखऊर्ध्वमाननंकृत्वासायं लस्यचेष्टितं . ४६७ ११५० प्रातः रुवतः शुनः फलम् ४६१ १ १२९ | शुनःहस्ततलस्याऽऽघ्राणाऽऽस्वादन .. शुनः राज्यादिरोदनफलं ४६१३१३० फलम् प्राममध्ये एकत्रमिलित्वाकूररवं. कर्णनेत्रयुग्मनर्तननासिकालेहन-.. कुर्वतांफलं ४६१ योःफलं ४६७ ५ १५३' ताज्यमानाइवखेखेइतिरवेणमंडली पुनःपुनरूरुजठरावलेहनस्यफलम् ४६८ १ १५३ सहिताःप्रधावंतितस्यफलं ४६१ दक्षिणप्रदेशेनवक्रीभूयपृष्ठकंडूतिदूगृहादिस्यानेभूमिखननफलं ४६२ रीकरणेफलम् । ४६८ ३१५४ द्वारिशिरःकृत्वाशुन:रुदनेफलं ४६२ ३ १३४ | पुच्छोरसोर्लेहनफलम् ४६८ ५ १५५ सुन्याभंगांनांआघ्राणेफलंयुग्मश्लो प्रश्नसमयेआलस्ययुक्तशयनफलम् ४६८ ७ १५६ | कौंविधूयगात्रसंकोचनस्थापन वृक्षमंचादिषुभषणेशुन:फलंत्रि फलम् । ४६९ ११५७ भिलोकैः संकोचनयुक्तशयनफलम् लिप्तपरिचतुष्करममाणस्यशु निष्कारणप्रपलायनादियुक्तगृहप्र'नःफलम् वेशस्तत्फलं ४६९ ५ १५९ एकनलोचनेनरोदितिगोभिःसमं दिनेदिनेभास्करसंमुखभषणफलं ४६९ ८ १६० . क्रीडतितस्यफलं ४६४ ५१४१ रोगिणःप्रश्नेशुनश्चेष्टाफलम् ४७. ११६१ . ' इतिशुभाशुभज्ञानप्रकरणम्। 'रोगिणः औषधादिसमयेशुनांतारा । गतिःशुभा ४७० ३१६२ श्वचेष्टितेलाभप्रकरणम् । . - इतिश्वचेष्टितेजीवितमरणप्रकरणम् । भानविचेष्टितेनलाभस्यकथनं ४६५ ११४२ / । .. अथयात्राप्रकरणम् । हरिद्रामिषगरिकायैःपर्णाननस्यत शुनःशकुनैःयात्रासुशुभाशुभ ; था पुष्पादिदृष्टे:फलम् ४६५ ३ १४३ । ज्ञानम् नवीनपत्रैःक्रीडनवृक्षमूलेईक्षमाणा | यात्रायांप्रवेशेदक्षिणवामगतिःश्वा । दिफलं . ४६५ ५ १४४ तत्फलम् ४७१ १ १६४ दक्षिणेनपादेनशिरकंड्रयन गमनेप्रवेशेशुन्यागतिःशुनःवैपरीस्यफलं ४६५ : ७ १४५. त्येनप्रशस्तामता. ४७१ ३ १६५ : फलंगृहीत्वागृहप्रवेशेफलं ४६६ १ १४६ / मुखेमवस्त्रादिगृहीत्वापुर:प्रधावतः दक्षिणवामचरणाभ्यांदक्षिणचेष्टि..... ४७१ ५ १६६ तफलम् .. ४६६ ३.१४७ यात्रायांवामदक्षिणप्रतिफलम् .४७१ ७.१६५. Aho! Shrutgyanam ३ १४० ४७० ७ १६३ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका। (२९) ه م س م ه م سه विषयाः पत्र पं० श्लो० | विषयाः पत्र पं० श्लो. अध्वगानामभिमुखागमनादिफलं ४७२ १ १६८ | जलप्लावितवृक्षादिषुमूत्रमुत्सृजतः उच्चनीचदेशादवतीर्यवामदक्षिण ___ शुनःफलंयुग्मेन ७८ ११९३ गमनेफलम् ४०२ ३ १६९/विण्मांसादिभिःपूर्णवक्रस्यानः गजाश्चादिकषुस्थलेषुमूत्रयित्वा पुरोगमनेफलंयुग्मेन. ..१७२ ५।१ १४७ पराङ्मुखः चाक्षितिखनतितस्य तुष्टयादियुक्तवाभिमुखागमन फलं ... फलम् . ४७३ ३ १७२ नासिकाग्रविज़ंभणास्वादनयोः अन्नादीनमुखेबिभ्रतोवामदक्षिणाव. फलं ४८० लोकनेफलं पुरस्ताविधुतकर्णेशुनिसतिपांथ ४७३ ५१७३ श्वावनिविलिख्ययातुर्मुखंपश्यति - गृहप्रवेशनफलम् ४८० तस्यफलं गमनेनिवृत्तीचश्वयुद्धादिफलम् ४८० ७ ४७४ ११७४ शुनःवामदक्षिणगतिफलम् ४८१ १ १९९ श्वायातारमाजिध्रतिभानुलोम्येन शुनःघुरघुरारवादीनांफलं ४८१ ३ २०० प्रयातितत्फलं ४७४ ३ १७५ १७५ धरित्रीखननादिकानांफलम् ४८१ ५ २०१ कुसुमानिगृहीत्वाधावतःशुन:फलं ४७४. ५ १७६ बापृष्ठेआघ्रायदशनैर्नावस्त्रंविश्वापथिकेनसहवामेनगच्छन्तस्य __कर्षतिचेत्तस्यफलं ४८१ ७२०२ फलं ४७४ ७ १७७ धूतांग:पुमःखादन्श्चाऽशुभदः ४८२ १ २०३ शुनःहरितपत्रादिकमादायया अग्रेवामापृष्ठगतःभषनश्चातस्यतु:मुखागमनेफलं ११७८ फलम् । ४९२ ३ २०४ उपानहंबिभ्रतस्थानांतरंयातितस्य अग्रेपृष्ठेतथासव्यापसव्यौभवंती ४७५ ३ १७९ ___ श्वानौतत्फलम् ४८२ ५ २०५ अस्थ्यादिमुखःश्चातस्यफलंचतु गृहपादौजिघ्रतितथागंतुमिच्छतः निःश्लोकैः __ पादौजिघ्रतितत्फलम् ४८२ अत्यंतकंड्यनफलम् १८४ पद्भ्याक्षितिखननादिचेष्टादिफलं ४८३ गृहवागेहशून्यांक्रीडांकरोतितस्याः अग्रपादेनोविदारणादिफलं ४८३ लांगूलाधंगानिचालयतःसंमुखा४७७ १ १८५ ४८३ ५२.९ यात्रायांवाप्रवेशहर्षसहितारमतेत ‘गमनादिफलं स्थानस्थितादीनांपुंसांशुनःवामद. स्फलम् । ४८४ १२१० क्षिणचेष्टाफलं चानयुग्मेदक्षिणभागेसहचलना वामकेनदक्षिणांगंदक्षिणेनवामांगं४७७ ५ १८७ स्पृशतितत्फलं ४८४ ३२११ गवासहकीडनादिकस्यफलं ४७७ वामेघूर्णनपुरतःकुद्धोऽभिधावन् उकारऊकारआकारशब्दानांफलं ४८४ ५ २१२ 'श्चातस्यफलम् . ४७८ गोधादिपंचकंश्वतुल्यंबिडालादीकाष्टादिमुखःश्चायीक्षतेत नांक्षुतफलञ्च ४८५ १२१३ स्फलम् .. वचेष्टितेभोजनप्रकरणम् । प्रस्थातुरप्रेश्चाकायादिकंपनंकरो.. . शुनःभोजनलाभालाभचिह्नकथ... तितत्फलम् .. ४८५ .५ २१४ Aho ! Shrutgyanam ४७५ फलम् १८५ १८६ दियुक्त तत्फलं. ४७८३१९० Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका। ल - विषयाः पन्न पं० श्लो० | विषयाः पत्र पं० श्लो० शुनःगममागमनवामदक्षिणगति अहौद्वितीयप्रहरपूर्वाऽग्निदक्षिण नेत्राग्रेभक्षणफलम् ४८५ ७ २१५ दिक्षुशिवारवफलं ४९. अशितुव्रजतामादौदक्षिणग:अनु अहस्तृतीयप्रहरेऽग्नियमनैर्ऋत्येषुवामगतिः तत्फलं युग्मेन ४८६ १३२१६ ____ शिवारटनफलं ४९० ९ सृकियुगधौतपात्रधरित्र्यास्वा अहश्चतुर्थप्रहरेयमनैर्ऋत्यवरुणदिदनाऽऽघ्राणफलं ४८६ ५ २१८ क्षुशिवारवफलम् ४९१ १ दर्शितईतशुनओष्ठयुगादीनामा निशाद्येप्रहरेनैऋत्यवरुणवायुस्वाइनफर्म ४८७ १२१९ | दिक्षुशिवारवफलं क्षीरिणिशाखिनिवापक्कफलेवा पुरुषस्याग्रेमूत्रफलं ४८७.१ १२८ निशाया:द्वितीयप्रहरेवरुणवायकु. दक्षिणभागेश्वासृक्कियुगमास्वादयन | बेरदिक्षुशिवारवफल ४९१ भिमुखंपश्यतितत्फलं ४८७ ५ २२१ | रात्रित०प्र०वायुसोममहेशदि० शिफ० ४९१ ७ १. श्वचेष्टितवृत्तप्रकरणसंख्या। रात्रिचतुर्थयामेउत्तरेशानपूर्वदिक्षुशुनःषोडशभित्तैरधिवासनप्र० ४८८ १ १ शिवारटनफलं राज्यलाभप्रक० द्वि. त्रयोदशभिव ४८८ २ २ तृतीयेचतुर्दशभिःश्लोकैःवर्णनं ४८८ ३ शिवारुतेदिक्पंचयामप्रकरणम् । चतुर्थपंचदशभित्तैःदेशला ! शिवारुतेदिक्पंचकयामयोगाभादिप्र. ४८८.४ च्छुभफलानि ४९२ ४ १२ तथाष्टभिःश्लोकैः पंचमवृष्टिप्रक० ४८८ वृत्तानांत्रिंशद्भिःषष्ठंयुद्धप्रकरणं ४८८ | शि.दक्षिणादिदिक्पंचकयाम यो. फ. षट्चत्वारिंशद्वत्तैःशुभज्ञानाख्यं सप्तमंप्रकरणं ४८८ ६ शि नैऋत्यादिदि-पं०यामयोअष्टमित्तैःलाभप्रकरणमष्टमं गात्फलं ४८८ त्रयोदशभित्तैःरोगिणांजीवित शि०पश्चिमादिदिक्पं. ज्ञानंनवमंप्रकरणं ४८८ ७ ५ __गात्फलं एकपंचाशत्तैर्दशमयात्राप्रक० ४८९ १६ शिवायव्यादिदि-पं०यामयोअष्टाभिर्वृत्त झोज्यलाभप्र० एकाद. ४८९ १ ६ | गात्फलं श्वचेष्टितएवंएकादशप्रकरणानि शि उत्तरादिदिपंचकयामयोद्वाविंशत्यायुक्तवृत्तानांद्वशते ४८९ २ ७ गात्फलं इत्यष्टादशोवर्गः। शि०ईशानादिदिक्पंचकयामफएकोनविंशेवगैशिवारुतेदग्धादिप्रकरणम् । ४९४ १ १८ शांतदीप्तादिग्ज्ञानयुक्तशिवारुतं ४८९ ७ १ शि.पूर्वादिदिक्पंचकयामयोगादग्धादिदिशाज्ञानयुग्मेन .. ४९० १ ४९४ ३ १९ अहआयेप्रहरेईशानपूर्वाग्निकोणेषु शि० अग्न्यादिदि०५०यामयोशिवारवफलं ४९० ५ गात्फलं ४९४ ५ २. "Aho! Shrutgyanam लम् त्फलं Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका। (३१) विषयाः पत्र पं० श्लो. विषयाः पत्र पं० श्लो. स्वराष्टकप्रकरणम् । | वामदक्षिणादौशिवारवफलंयुग्मेन ५०४ ५१७ ६४ प्राच्यादिदिक्षुएकादिशब्दानांशि पथिकस्याग्रेशिवाया:हाहारवफ० ५०५ १६० वारुतानांअशेषंफलवर्णनम् ४९४ ९ २१ | नृपस्ययात्रासमयेवमनिवेदयंत्याः प्रशांतदिशिएकादिशब्दैःशुभफलं ४९५ १ २२ / शि.पुरतोगमनफलं शिवायादीप्तदिशिएकादिशब्दैर | शांतदीप्तदिशिशिवायाःनादादि शु०फ० । फलंयुग्मेन शि०पूर्वदिशिप्रथमादिसप्तशब्दैः नराणांनोत्तरणेशिवारवफलम् ५०६ ३ ६४ साईश्लोकेनफलं शिवारुतेस्थानस्थितप्रकरणम् । अग्निकोणेप्र०सप्तशब्दैःसार्द्धश्लोके स्थानस्थितानांसर्वेषांशिवारवैःशुनशिवाफलं भाशुभं याम्येएकादिशब्दैःसा०श्लो०शि० शि० फेफेरवस्यफलं ५०७ १६६ फलम् ३१५ २७ शिवायाःसर्वदिक्षुनिरंतररवफलं ५०७ नैर्ऋत्येए-श०सा० श्लो• शिवाफलं ९६ ६१ ३६ ग्रामस्यपार्श्वेप्रदीप्तदिशिअतिरौद्र पश्चिमायांशि-ए.श.सा. श्लो. फ० ४९७ ३।५ ।। - रवफलम् वायव्येशि०ए.श.सा. श्लोकेनफ० ४९७ ६३ ग्रामस्यमध्येशिवारवफलं उत्तरस्यादिशिशिवाया:एकादिश | ग्रामस्यसमीपेसप्तदिनपर्यंतभयंब्दैः फलम् कररवफलं पुनःउत्तरस्यांए.श.सा.लो.शि.फ. ४९८ ४।६ प्रामस्यसमीपेमध्याहेपंचदिनपईशानदिशिएकादिशब्दैस्सार्द्धश्लो. र्यंतशिवारवफलं केनशिवाया:फलम् ९६ ७१ प्रामसमीपेकूररवाशिवाया:पंचनिइतिशिवारुतेस्वराष्टकप्रकरणम् ।। शीथरवफलं शिवारुतेयात्राप्रकरणम् । | यत्स्थानसमीपेशिवापंचदिनशिवारुतेनक्षेमलाभादीनांनिश्चय | पर्यंतरौतितत्ररवफलं ज्ञानं ४९९ ५ ३७ | सायंशिवायादिनत्रयपर्यंतंकठोररव गंतुमभ्युद्यतानांशांतदीप्तदिक्षुशि फलम् ५०९ १ ७४ वारुतफलं सर्वदिक्षुरटंत्या:शिवायाभ्रमणफ. ५०९ ३ ७५ प्राचीदिग्गंत्र्याःशिवाया:संमुखा रौद्रनादयुक्तज्वालाविमोचनादि दिरुतफलंत्रिथिःश्लोकैः.. फलम् दक्षिणाशागंत्र्याःरविसहितशिवाया | फेइतिअतिक्रूररवफलम् रवफलंचतुर्भिःश्लोकैः नदीतटेशिवायाःत्रयाणांपंचानां पश्चिमदिशिगंत्र्याःशिवायारवफलं वासौम्यनादानांफलं चतुभिःश्लोकैः ५०० | मध्याह्नेश्मशानेवाऽर्द्धरात्रेगृहाउत्तराशागंत्र्याःशि.रवफ.त्रिभिःश्लो ५०२ प्रदेशेशिवारवफलम् ५१०३ ७९ यत्रदिशिसूर्यस्तत्रगंत्र्याःशिवाया | सर्वेषुकार्येषुशिवालिफलं रखफ० । बलिविधानप्रकरणम् । पथिकस्यदक्षिणवामशिवारवफलं ५०३ ५ ५४ शिवाया:बलिविधानं शांतदीप्तदिशोर्गतुःशि.र.फ.त्रि.श्लो. ५०० ७।३ ६. । बलिप्रदानायस्थानवर्णन Aho! Shrutgyanam ५१० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका। विषयाः । पत्र पं० श्लो० | विषयाः पत्र पं० श्लो. तस्मिस्पलेमंडलक्रमोगोपरीक्षाच ५११ ३.५ प्रथमप्रकरणं मंडलेऽष्टदलंतत्रलोकपालपूजनं ५११ ६ ८५ / नवमि दिक्पंचनामद्वि०प्र०५१४ ४ २ शिवापूजनं ५१२ १ ८६ | पंचदशभिस्तृतीयस्वराष्टकनामप्र० ५१४ ५ २ शिवावलिःसामग्रीप्रमाणंच ५१२ ३ ८७ | अष्टाविंशतिभित्तस्तुर्ययात्राप्र. ५१४ ६ ३ शिवाबलेस्तिथ्यादिसमयः . . . . .५१२.५ ८८ षोडशभित्तैःपंचमस्थानप्रक... ५१४.७ ३ तांबूलादिभिःशकुनाचार्यपूजनं ५१३. १ ८९ वृत्तद्वादशकेनषष्ठंबलिप्रकरणं ५१४८ ४ शिवारवेत्याज्यग्राह्यनक्षत्राणि ५१३ ३ ९० | एवंप्रकरणषट्कैनवतिवृत्तानि ५१५ ८ ४ शिवारुतेयत्नकरणमावश्यकम् ५१४ ५।१ ९१ | इत्येकोनविंशतितमोवर्गः । भथप्रकरणोद्देशोवृत्तसंख्याकथ०. | विंशतितमेवगैचतुर्दशभिःलोकैः दिक्कमयामाख्यमेकादशभिर्वतैः । शास्त्रप्रभाववर्णनम् इति वसंतराजशाकुनसारांशानुक्रमणिका समाप्ता. अग्रे भाषाटीकासहितः स्वप्नाध्यायो द्रष्टव्यः । Aho ! Shrutgyanam Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः॥.. अथ श्रीवसन्तराजशाकुनप्रारंभः। --NCRece----- विरंचिनारायणशंकरेभ्यः शचीपतिस्कंदविनायकेभ्यः ॥ ॥ टीका ॥ - श्रीमन्महागणाधिपतये नमः ॥ स्वस्तिश्रीसदनं यदीयवदनं वेधा विधायाद्भुतं वीक्ष्याश्चर्यमवाप सस्पृहतया सम्मार्जयन्वाससा ॥ क्षिप्तं तच्च तथा विधेरनुगुणैर्वैषम्यमापादितं मन्ये संप्रति लक्ष्यते घनपथे शीतयुतेर्मण्डलम्॥१॥आनम्रत्रिदशेदमीलिमुकुटप्रोदामरत्नांशुभिर्यत्पादद्वितयं विचित्ररचनाभंगीभिरंगीकृतम् ॥ दिङ्गागैश्च यदीयकीर्तिरतुला कर्णावतंसीकृतास श्रीवीरविभुर्ददातु भवतां शश्वन्मनोवांछितम् ॥२॥ यस्त्रैलोक्यरमाभिरस्पृहतया सानंदमालोकितस्तीक्ष्णैः स्वर्गिवधूकटाक्षविशिखैर्यो लक्ष्यता नागमत् ॥ ज्ञानःस्वात्मसमुत्थितैश्च निखिलान्भावान्समावेदयन् स श्रीमान्भुवनावतंसकमाणिः पायादपायात्प्रभुः॥३॥ प्रादुर्भूता यदंगात्पसरतिभुवने भारतीभव्यरूपावक्तुं यत्सृष्टिजातान हि विभुरविभुःसद्विशेषानशेषान्॥ यद्वक्त्रस्फीतिभावंदधदहिमरुचांन्यक्कृति निर्मिमीते ज्ञानाद्वैतप्रकाश-स भवतु भवतां भूतये ना भिजातः॥४॥नमःसुकृतसंदोहशालिने परमात्मने॥शंभवेसर्ववेदार्थवेदिने भवभेदि. ने॥५॥ जाग्रज्ज्योतिरकब्बरक्षितिपतेरभ्यर्णमातस्थिवान्सिद्धाद्रेकरमोचनादिसुकृतं योऽकारयच्छाहिना॥जीवानामभयप्रदानमधिकं सर्वत्र देशे स्फुट श्रीमद्वाचकपुंगवः सजयताच्छीभानुचंद्राभिधः॥६॥अस्ति श्रीमदुदारवाचकसमालंकारहारोपमः प्रख्यातो भुवि हेमसूरिसदृशः श्रीभानुचंद्रोगुरुः॥ श्रीशबुजयतीर्थशुक्लनिवहप्रत्याजनोद्ययशाः शाहिः श्रीमदकब्बर्पितमहोपाध्यायदृश्यत्पदः॥ ७ ॥तच्छिष्यः मुकृतैकभूमतिमतामग्रेसरः केसरी शाहिस्तांतविनोदनैकरसिक श्रीसिद्धिचंदाभिधः ॥ पूर्व श्रीविमलाद्रिचैत्यरचना दूरीकृतां शाहिना विज्ञाप्यैव मुहुर्मुहुस्तमधिपं योकारयत्ता पुनः॥८॥ यावन्या किल भाषयाप्रगुणितान्ग्रंथानशेषांश्च तान्विज्ञाय प्रतिभागुणैस्तमधिकंयोध्यापयच्छाहिराद ॥ दृष्ट्वानेकविधानवैभवकलां चेतश्चमत्कारिणी चक्रेषु स्फुटमेति सर्वविदितं गोत्रं यदीयं हि सः॥९॥तबुद्धिवैभवकृतेत्रवसन्तराजसच्छाकुनस्य विवृति प्रणयत्यभिज्ञः॥ श्रीसूरचंद्रचरणांबुजचंचरीकः श्रीशाहिराजकृतस Aho ! Shrutgyanam Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराज शाकुने - प्रथमो वर्गः । लक्ष्मीभवानीपथिदेवताभ्यः सदा नवभ्योपि नमो ग्रहेभ्यः ॥ १ ॥ (२) ॥ टीका ॥ त्कृतिभानुचंद्रः ॥ १० ॥ जंबूद्वीपाभिधे द्वीपे क्षेत्रे भरतनामनि ॥ राजते रजतस्वर्णचतुर्वर्णविभूषितम् ॥ ११ ॥ अर्बुदाद्रिसमीपस्थं सारणेश्वरशोभितम् ॥ सीरोहीनगरं तत्र तिलकं नगरीषु यत् ॥ १२ ॥ नीलरत्नमहासौधरश्मिवल्लिषितानके ॥ यत्र रात्रिषु कुर्वन्ति तारकाः सुमविभ्रमम् ॥ १३॥ मुखैश्चंद्रमसंनेत्रैः कमलं कोकिलंस्वरैः ॥ गमनै राजहंसं च जिग्युर्यत्रावला अपि ॥ १४ ॥ प्रतापाक्रांतदिक्चक्रः साक्षाच्चक्र इवापरः || श्रीमानखपराजाख्यस्तत्रास्ते भूमिजंभजित् ॥ १५ ॥ यस्यां विभांति धवलाः क्षीरोदस्फटिकालयाः ॥ अक्षताख्यमहाराजयशसां निचया इव ॥ १६ ॥ यस्य यद्विषतां चैव कीर्त्यकीर्तीसितासिते ॥ मिलंत्यो दिक्षु चक्रांते गंगायमुनयोभ्रमम् ॥ १७॥ रिपुदुर्यशसा स्पृष्टं यद्यशो विश्वपावनम् ॥ जलाशयेषु स्नातीव शुद्धयै हंसा बलिच्छलात् ॥ १८ ॥ इह हि ग्रंथकृत्रिर्वित्र समाप्तिकामो मंगल माचरेदित्यलौकिकावगीतशिष्टाचारानुमितश्रुतिबोधितकर्तव्यता कत्वेन प्रथमत एव मंगलमाविष्कुर्वनाह ॥ विरंचीति अस्पार्थः एभ्यो नमः अस्तु इत्यन्वयः । नम इति नमस्कारार्थकमव्ययं नमस्कारश्च स्वापकर्षबोधनानुकूलो व्यापारस्तत्र विरंचिर्ब्रह्मा प्रथमत एव तस्योपादानं रजोगुणेन जगत्कर्तृत्वेनास्य सर्वदेवेभ्यो मुख्यत्वात्प्रसिद्धत्वात् । नारायणो विष्णुस्तदनतस्योपादानं सत्त्वगुणत्वेन ब्रह्मनिमित्तत्रिजगद्रक्षाविधायकत्वात् । शंकरो महेश्वरः प्रति चैतस्योपादानं सृष्टस्तमोगुणत्वेन संहारकारित्वात्प्रलय कारित्वात्तदुक्तमन्यत्र । रजोजुषे जन्मनि सत्त्ववृत्तये स्थितः प्रजानां प्रलये तमस्पृशामिति । तथा च विरंचिश्च नारायणश्च शंकरश्चेतीतरेतरद्वंद्वः । तेभ्यः। पुनः केभ्यः। शचीपतिस्कंदविनायकेभ्य इति शच्या इंद्राण्याः पतिः शचीपतिरिद्रस्तन्नमस्कृतौ बीजं महाभारतादौ विष्णोरनुजत्वेन प्रतिपादनमेव । उपेंद्रइंद्रावरजश्चक्रपाणि ॥ भाषा ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ श्रीगुरुचरणकमलेभ्यो नमः ॥ प्रणम्य श्रीहयग्रीवं राधाकृष्णं व्रजेश्वरम् ॥ वसंतराजतिलकं करोमि व्रजभाषया ॥ १ ॥ या ग्रंथकर्त्ता निर्विघ्नपरिसमाप्तिकी जिनकूं कामना ऐसे बसंतराज मंगलाचरण करे है | विरंचीति ॥ विरांचे जो ब्रह्माजी और नारायण और शंकर जो शिवजी इनके अर्थ नमस्कार हो. और इंद्राणीको पति इंद्र, और स्कंद जो स्वामि Aho! Shrutgyanam Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठितप्रकरणम् १. (३) बुद्धिं वो नरपक्षिणो द्विचरणा यच्छंतु हस्त्यादयो माहा - त्म्यं च चतुष्पदा रतिसुखं भृंगादयः षट्पदाः ॥ उत्साहं शरभादयोऽष्टचरणाः खर्जूरकाद्यास्तथा श्रेयोऽनेकपदा महान्तमपदा भोगं भुजंगादयः ॥ २ ॥ ॥ टीका ॥ चतुर्भुज इत्यमरः । स्वामिकार्तिकेयो जगत्प्रलयकारि तारकदैत्योपघातकत्वेन सर्वेभ्योप्यतिशायिबलत्वाद्विनायको विघ्नेशः सकलविघ्नविघातकत्वात्सर्वदेवार्च्य वाचै-तयोर्नमस्कृतिः। पुनःकाभ्यो लक्ष्मीभवानीपथिदेवताभ्यइति लक्ष्मीर्विष्णुप्रिया सर्वत्र प्रसिद्धा तदर्थमेव सर्वेषां प्रवृत्तेः । भवानी शक्तिः । सर्वेषां समीहितार्थदात्री | पार्थदेवतास्तत्तत्पंथानमाश्रित्यः स्थिता देवतास्ताभ्यः नृणां तत्तदेशोद्भवपापनिवारकत्वेन सर्वेषां सुखदातृत्वादासांनमस्कृतिः हेतुगर्भितविशेषणादेव सावित्र्यास्तु लोके प्रसिद्धेरभावात्तदुपादानं लक्ष्मीश्च भवानी च पथिदेवताश्च इतरेतरद्वंद्वः । पुनः केभ्यो नवभ्यो ग्रहेम्य: सूर्यादिनवभ्यो ग्रहेभ्यः इत्यदृष्टानुसारेण जनानां सुखदुःखदातृत्वेनैतेभ्यो नमस्कारस्य सर्वथौचित्यं भवतीति काव्यार्थः । वा सुखदुःखयोरेतदधीनत्वेन परंपरया नृणामपि तदधीनत्वख्यापनार्थं सर्वेति सर्वदेवनमस्कार इत्यर्थः । अत्रापिशब्दो न्यूनतावाची तेन समग्रस्येत्यर्थः । न तदंतर्भूतानामन्यतमस्येति तात्पर्यार्थः ॥ १ ॥ येषां शकुनानि अग्रे कथयिष्यते ॥ किंचित्प्रार्थनाद्वारेण तान्प्रकटीकुर्वन्नाह || बुद्धिमिति ॥ अस्यार्थः ॥ नरपक्षिणः नराश्च पक्षिणश्च नरपक्षिणः इतरेतरद्वंद्वः मनुष्यपक्षिण इत्यर्थः वः युष्माकं बुद्धिं तथाविधां प्रतिभां यच्छंतु ददतु इत्यन्वयः । कीदृशाः नरपक्षिणो द्विचरणाः । द्वौ चरणौ क्रमौ येषां ते द्विचरणाः नरेषु सचिवादिषु वयःसु च शुकसारिकाहंसादिषु प्रतिभाप्रकर्षणस्य शास्त्रे श्रूयमाणत्वात्प्रत्यक्षेणापि दृश्यमानत्वाच्चैतत्प्रार्थनं युक्तमेव तथा हस्त्या॥ भाषा ॥ कार्त्तिक, और विनायक जो गणेशजी इनके अर्थ नमस्कार हो. और लक्ष्मीजी, और भवानीजी, पार्वतीजी, और मार्गमें आश्रय लेकरके स्थित जो मार्गदेवता, तिनके अर्थ नमस्कार हो. और प्रारब्धके अनुसारकरके मनुष्यनकूं सुखदुःखकूं देवेवारे सूर्यादि नवग्रह तिनके अर्थ नमस्कार हो. ॥ १ ॥ जिनके शकुन अगाडी कहेंगे तिनकूं कछुक प्रार्थनाद्वारा प्रगट करत कहे है | बुद्धिमिति ॥ दोय चरण जिनके ऐसे जे मनुष्य और पक्षी ते तुमकूं बुद्धि दो; Aho! Shrutgyanam और चार Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . वसंतराजशाकुने-प्रथमो वर्गः। भट्टः श्रीशिवराजोऽदोषोर्जितमूर्तिरतितेजस्वी ॥ सूर्य इव सत्यवत्यां समजनि सनुर्विजयराजात् ॥३॥ ॥टीका॥ दयः हस्ती आदौ येषां ते हस्त्यादयः माहात्म्यं गौरवं यच्छंतु । कीदृशाश्चतुष्पदाः चत्वारः पदाश्चरणा येषां ते तथोक्ताः।द्वारोपस्थितेषु हस्तिषु नृणां माहात्म्याधिक्यदर्शनात्तेभ्यस्तत्प्रार्थनं आदिशब्दादश्वादीनामपि परिग्रहः । पदात्यपेक्षयाश्वारूढस्याधिक्यदर्शनात्तथा /गा आदौ येषां ते भुंगादयो रतिसुखं यच्छंतु रतिविषयजनिता मनस्तुष्टिस्तस्याःमखं सौख्यमित्यर्थः । कीदृशाः षटपदाः षटुसंख्याकाः पदाश्चरणा येषां ते षट्पदाः भुंगाना सवर्दा मधुपानासक्तत्वेन विषयभोगनिवृत्तेरभावात्तेभ्यस्तत्प्रार्थनं।तथा शरभादयः शरभ आदौ येषां ते तथोक्ताः उत्साहं आत्मप्रयत्नविशेषं यच्छंतु । कीदृशाः अष्टचरणाः अष्टौ अष्टसंख्याकाश्चरणा येषां ते अष्टचरणाः|शरभादीनां शौर्यगुणाधिक्येन तत्प्रार्थनीतथा खजूरिकाद्यास्तु श्रेयः कल्याणं यच्छंतु कीदृशाः अनेकपदाः अनेकानि पदानि चरणा येषां तेऽनेकपदाः एकस्मिश्चरणे भनेपि तेषां न काचित्क्षतिरिति तत्प्रार्थनाभुजंगाःसर्पाः महांतमुदारं भोगं यच्छंतु । कीदृशाः अपदाः चरणरहिताश्चिरजीवित्वेन वायुभुक्त्वेन बलाधिक्येन च तत्प्रार्थनम् ॥२॥ अयं ग्रंथः केन कृतस्तत्रापि स्वप्रबोधविधये विहितोनिर्मितः किंवान्येन कारित इत्यपेक्षायामाह ॥ भट्टः श्रीशिवराज इति ॥ विजयराजात्सत्यवत्याःसूनुः नाना श्रीशिवराजःसमजनि। कीदृशःअदोषोजितमूर्तिरिति अदोषेण दोषाभावेन जिता बलवती मूर्तिर्यस्य स तथा पुनः कीदृशःअतितेजस्वीति अत्युत्कृष्टं तेजो विद्यते यस्य सः अतितेजस्वी क इव सूर्य इव यथा सूर्य ॥ भाषा ॥ पाँवके हाथीकं आदिले जे पशु ते तुमकं माहात्म्य जो महिमा ताय दो. और छै पाँवजिनके ऐसे भ्रमरादिक, ते तुमको विषयसुख दो. और आठहैं चरण जिनके ऐसे शरभादिक पक्षी हैं ते उत्साह जो प्रयत्न करनेका उल्लास ताय दो. और खज़रिकादिक खनखिजरो इत्यादिक हैं अनेक पाँवनके ते श्रेय जो कल्याण ताय देवें. और नहीं हैं पाँवं जिनके ऐसे सादिक हैं ते महान् जो भोग ताय दो. ॥ २ ॥ ये ग्रंथ कीनने कियाहै तामें ही अपनेही बोधके अर्थ कियाहै वा और करके करायो है या संदेह निवृत्ति के अर्थ कहै हैं | भष्टः श्रीशिवराज इति ॥ विजयराजते सत्यवाके बेटा नामकरके श्रीशिवराजप्रगट होते Aho! Shrutgyanam Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठितप्रकरणम् १. पूर्णकलोप्यकलंको जातो वसुधातले सुधाकिरणः॥ तत्पादसमुपजीवी वसंतराजोनुजस्तस्य ॥४॥ अभ्यर्थितोभियत्नात्कृतबहुमानेन चंद्रदेवेन ॥ ज्यरचयदसौ तदर्थ शाकुनमन्योपकृतये च ॥५॥ ॥ टीका॥ स्तेजस्वी तथायमपीत्यर्थः । भट्ट इति पूज्यः ॥ ३ ॥ पूर्णकल इति ॥ तस्य शिवराजस्यानुजो वसंतराजो वसुधातले सुधाकिरणोजातः चंद्रसदृशोबभूवेत्यर्थः। कीदृशः पूर्णकलोप्यकलंकोमालिन्यरहित इत्यर्थः।अत्रापिशब्दोविरोधाभासद्योतनार्थः। यः पूर्णकलो भवति सोकलंकः कथं स्यादिति विरोधः तत्परिहारश्च पूर्णा कला विज्ञानं यस्य स तथा न तु षोडशो भागः । पुनः कीदृशस्तत्पादसमुपजीवी अत्र तच्छब्देन शिवराजः परामृश्यते । तच्छब्दस्य पूर्वपरामर्शकत्वात्तस्य पादौ समुपजीवतीत्येवंशीलस्तत्पादसमुपजीवी शीलार्थे णिन् अनुज इति अनु पश्चाज्जायत इति लघुर्जात इत्यर्थः ॥ ४ ॥ अभ्यर्थितश्चेति ॥ असौ वसन्तराजः शाकुनं शास्त्रं व्यरचयत् कीदृशः अभ्यर्थितः प्रार्थितः केन चंद्रदेवेनेति मिथिलाधीशेनेत्यर्थः । कीदृशेन राज्ञा कृतबहुमानेनेति कृतं बहुमानं येन स तथा नियतं निश्चयं यथा स्यादिति क्रियाविशेषणं किमर्थं तदर्थमिति तस्मै राज्ञे हेतोरित्यर्थः । पुनः किमर्थम् अन्योपकृतये चेति चकारादन्यस्योपकारार्थमित्यर्थः । एतेन वसंतराजेन कृतोयं ग्रंथश्चंद्रदेवेन राज्ञा कारितः । अस्य ग्रंथस्य वसंतराज इत्यभिधानमिति सू ॥ भाषा ॥ हुये. कैसे है निर्दोष करके बलवान् है मूर्ति जिनकी; फेर कैसे हैं अति उत्कृष्ट है तेज जाको सूर्यकी नाई येभी तेजस्वी, और भट्टः नाम पूजयेके योग्यहैं. ॥ ३ ॥ पूर्णकलइति ॥ ताशिवराजको अनुज छोटोभाई वसंतराज पृथ्वीमें चंद्रमाकी तुल्यहोतो हुयो. कैसो है पूर्ण है कलाकहिये अनुभव जाके ऐसो पूर्णकलावान् है तौहू कलंकरहित है फिर कैसो है बडो भैया शिवराजके चरणनको भक्त ॥ ४ ॥ अभ्यर्थितश्चेति ॥ चंद्रदेवराजाकरके बहुत सम्मानपूर्वक प्रार्थना कियेगये ऐसे वसन्तराज हैं सो शकुनशास्त्र ताय रचते हुये. कौनके अर्थ ता राजा चंद्रदेवके अर्थ अथवा मनुष्यनके उपकारके अर्थ वसंतराजने ये ग्रंथ को है. और मिथिलापुरीको अधीश राजाचंद्रदेवने करायोहै. और या ग्रंथको नाम वसन्तराज है. ॥ ५ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) वसंतराजशाकुने-प्रथमो वर्गः। द्विपदचतुष्पदषट्पदमष्टापदमनेकपदमपदम् ॥ यजंतुवृंदमस्मिन्वक्ष्यामस्तस्य शकुनानि ॥ ६॥ शुभाशुभं ज्ञानविनिर्णयाय हेतुर्नृणां यः शकुनः स उक्तः ॥ गतिस्वरालोकनभावचेष्टाः संकीर्तयामो द्विपदादिकानाम् ॥ ७ ॥ सापायमेतन्निरपायमेतत्प्रयोजनं भावि ममेति बुद्धया ॥ असंशयं शाकुनशास्त्रविज्ञो जहाति चोपक्रमते मनुष्यः॥ ८॥ ॥ टीका ॥ चितम् ॥५॥ द्विपदेति ॥ अस्मॅिल्लोके यजंतुवृन्दं तस्य शकुनानि वयं वक्ष्याम इत्यन्वयः। तच्छब्दस्य यच्छब्दसापेक्षत्वादाह कीदृशं यत् जन्तुवृंदं द्विपदचतुष्पदषट्पदमष्टापदमनेकपदमपदं च तत्र द्विपदा मनुष्यादयः । चतुष्पदा हस्त्यादयः । षट्पदा भ्रमरादयः। अष्टपदाः शरभादयः । अनेकपदाः खजूरकादयः अपदाः सपदियः। प्राण्यंगत्वादेकवद्भावः । अत्र द्वौ पादावस्येति अकारांतेन पदशब्देन समासः। 'पदोंऽघिश्चरणक्रमः' इति कोशोक्तेः। एवं चतुष्पदादावपि समासो ज्ञेयः।अटापदमित्यत्र दीर्घत्वं तु अष्टनःसंज्ञायां चेति सुत्रेण ज्ञेयम् ॥ ६ ॥ शकुनस्य लक्षणं प्रतिपादयन्नाह ॥ शुभाशभइति ॥ शुभं श्रेयः तद्विरुद्धमशुभं तयोर्ज्ञानं तस्य निर्णयो निश्चयस्तस्य यो हेतुः कारणं शकुन उक्त प्रतिपादितो बुधैरिति शेषः । लक्षणमुक्त्वाभिधेयमाह । गतीति द्विपदादिकानामेताः संकीर्तयामः कथयामः वय.. मितिशेषः। एताःकाःगतिस्वरालोकनभावचेष्टाः। तत्र गतयो वामतारादिभेदेनानेकविधाः स्वराभाषाविशेषाः । आलोकनमीक्षणं भवोध्यवसायः चेष्टा शरीरव्यापारः॥७॥ शकुनस्य प्रयोजनं प्रतिपादयन्नाह ॥ सापाय इति ॥ शाकुनं शास्त्रं ॥भाषा ॥ द्विपदेति ॥ दोय हैं पाँव जिनके और चारहैं पाँव जिनके और छै हैं पाँव जिनके और आठहैं पॉवजिनके और बहुतहैं पाँव जिनके और नहीं हैं पाँव जिनके, ऐसो जो जंतुनको वृंद कहिये सम • ह ताके शकुन तिन्हें या शास्त्रमें हम कहैहैं॥६॥अब शकुनके लक्षण करेंहैं। शुभाशभइति ।। शुभ और अशुभ इनको ज्ञान ताको निर्णय कहा निश्चय ताको जो कारण सो विवेकिन करके शकुन कहेहैं और दोयहैं पाँव जिनके ऐसे मनुष्यहै आदिमें जिनके ऐसे मनुष्यादिकनकी गति स्वर आलोकन . देखनो भाव चेष्टा इने हम कहेहैं ॥ ७ ॥ शकुनके प्रयोजन ताय कहैहैं सापायमिति ॥ शाकुनशास्त्र ताय विशेषकरके जाने ऐसो मनुष्यहै सो मेरो ये कार्यकष्टस. Aho! Shrutgyanam Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 प्रतिष्ठितप्रकरणम् १. ( ७ ) लोको मुना शाकुनसंज्ञकेन ज्ञानेन विज्ञातसमस्तकार्यः ॥ नापायकूपे पतति प्रसर्पशास्त्रं हि दिव्या हगतींद्रियेषु ॥ ॥ ९ ॥ चूडामणिज्योतिषशास्त्रहोरा स्वरोदयाद्यैर्विविधैर्जनस्य ॥ जडीकृतस्यौषधमेतदिष्टं स्फुरचमत्काररसातिरेकम् ॥१०॥ ॥ टीका ॥ विशेषेण जानातीति शाकुनशास्त्रविज्ञो मनुष्यो ममैतत्प्रयोजनं सापायं सकष्टं भविष्यति निरपायं कष्टरहितं भावि भविष्यतीति बुद्धया ज्ञानेन कृत्वा असंशयं संशयरहितं यथा स्यात्तथा तत्प्रयोजनं जहाति त्यजति । च पुनरुपक्रमते । तत्करणायोद्यतो भवतीत्यर्थः एतेन पूर्वोक्तं लक्षणमेव समर्थितम् ॥ ८ ॥ पुनस्तदेव प्रपंचयन्नाह ॥ लोक इति ॥ लोको जनः प्रसर्पन्नितस्ततो गच्छन्नपायकूपे कष्टावटे न पतति । कीदृशो लोको विज्ञात समस्त कार्य इति विज्ञातं विशेषेण अवगतं समस्तं सकार्यं येन स तथा केन अमुना शास्त्रेण कीदृशेन शकुनसंज्ञकेनेनि शकुन इति संज्ञाभिधानं यस्य स तथा हि यस्मात्कारणादतींद्रियेष्वर्थेषु शास्त्रं दिव्या दृग्वर्तते । यथा दिव्यदृशा देवः सर्व पश्यति तथा तेनेत्यर्थः ॥ ९ ॥ चूडामणीति ॥ एतच्छास्त्रमौषधमिष्टं वांछितं । कस्य जनस्य कीदृशस्य जडीकृतस्य जडतां प्रापितस्येत्यर्थः । कैः चूडामणिज्योतिषशास्त्रहो।स्वरोदयाद्यैस्तत्र चूडामणिग्रंथविशेषः । ज्योतिषशास्त्रं संहितादि । होरा जातकादि । स्वरोदयो महेश्वरकृतो ग्रंथः एतत्प्रभृतिभिरित्यर्थः । कीदृशेर्विषमैरर्थतो न तु सुत्रतः । कीदृशं स्फुरचमत्काररसातिरेकं स्फुरन्प्रकटीभवन् चमत्कारलक्षणो रसस्तस्यातिरेकः आधिक्यं ॥ भाषा ॥ हितं होयगो, कष्टरहित होयगो, या बुद्धिकर शकुनतें संदेह रहित होय, कार्यकूं त्याग करै, फिर वा कार्यके करवेके अर्थ उद्योगकरै ॥ ८ ॥ लोकइति ॥ शाकुन है संज्ञा जाकी ऐसो ये शास्त्र ताकरके हुये जो ज्ञान ताकरके जाना है समग्र कार्य जाने ऐसो मनुष्य है सो इतउतमें डोलत फिरत कष्टरूपी कुंआ नहीं पडैहै क्यों जो इंद्रियनकरके नहीं है ऐसे कार्य में शास्त्रही दिव्यदृष्टि तैसेही मनुष्यशास्त्ररूपी दिव्यदृष्टिकरके देखे हैं ॥ ग्रंथविशेषहै. और ज्योतिषशास्त्र जो संहितादिक, नहीं देखवेमें आवैहै और सुनवेमें वर्ते है जैसे दिव्यदृष्टिकरके देवता संपूर्ण देखे है ९ ॥ चूडामणीति ॥ चूडामणिये कोई और होरा जो जातकादिक, और स्त्ररोदय जो Aho! Shrutgyanam Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) वसंतराजशाकुने-प्रथमो वर्गः। गतिस्वरालोकनभावचेष्टानिरूपणात्प्राणभृतांक्षणेन ॥ प्रयोजने भाविनि तत्त्वबोधो नैमित्तिकस्याहति योगिनो वा ।। ॥ ११॥ अवेक्षितेऽस्मिन्न खलूपदेष्टा न चात्र कार्य गणितेन किंचित् ॥ उत्पद्यतेऽमुष्य हि पाठमात्राज्ज्ञानं मनो' हारि फलानुसारि ॥ १२॥ यत्र तत्तथा ॥ १० ॥ गतीति ॥ मायाप्राणभृतां पूर्वोक्तानां द्विपदादिजीवानां गतिस्वरालोकनभावनानि तैर्युक्ता चेष्टेति मध्यमपदलोपी तत्पुरुषः। अन्यथासमाहारैकत्वेन एकत्वे द्विगुइंद्वाविति नपुंसकत्वं दुर्वारं बहुवचनांतत्वे तु निरूपणक्रिययानन्वयः । येन क्षणेन क्षणमात्रेण भाविनि प्रयोजने कृत्ये योगिन इव नैमित्तिकस्येति निमित्तभाविशुभाशुभयोनिदानं जानातीति नैमित्तिकस्तस्य तत्त्ववोधो यथार्थज्ञानमर्हति योग्यो भवति । यथा भाविकार्यस्य तत्त्वबोधो योगिनस्तथा नैमित्तिकस्येत्यर्थः । अत्र इवाथ वा ॥ ११ ॥ अवेक्षितस्मिन्निति ॥ अस्मिन्नवेक्षिते ग्रंथे सति खलु निश्चयेन तस्य कोपि उपदेष्टा गुरुर्न भवति अस्यैव शुभाशुभोपदेशकत्वेन गुरुत्वात्तथा गणितेन किंचित्कार्य नास्ति गणितं हि प्रश्ननिर्णयार्थ क्रियते । अनेनैव चेनिर्णयो भवति तर्हि किमर्थ तत्प्रयास इति भावः । हि यस्मात्कारणादमुष्य शास्त्रस्य पाठमात्रादिति केवलः पाठः पाठमात्रमत्र केवलार्थको मात्रशब्दः । तस्मादेव ज्ञानमुत्पद्यते । कीदृशं मनोहारीति मनश्चित्तं हरतीत्येवंशीलं मनोहारि। ॥ भाषा॥ माहेश्वरकृतग्रंथ ये अर्थ करके विषम हैं सूत्र करके विषम नहीं हैं ऐसे जे ये शास्त्र इनकरके जडताळू प्राप्तहोय रह्यो जो जन ताकू ये शास्त्र औषधरूपहै, और वांछित है, याते चमत्काररूपीरसको अधिकता जामें ऐसो ये वसंतराज प्रगटहोतो हुयो.॥ १० ॥ गतीति ॥ मायाकर प्राणके धारवेवार पूर्वकह आये जे द्विपदादिक तिनकी गति, स्वर,आलोकन, भावचेष्टा, इनके नि. रूपणतें क्षणमात्र करके होनहार जो कोई कार्य तामें योगी की नाई निमित्त जो शुभ अशुभ निदान कारण ताय जानवेकू योग्यहै. ॥ ११ ॥ अवेक्षितस्मिन्निति ॥ ये वसंराज ग्रंथ जाने दखलीनोहै निश्चय करके ता पुरुषकू कोईभी उपदेशको देवेवारो नहीं है, क्यों याकू ही शु Aho! Shrutgyanam Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठितप्रकरणम् १. नक्षत्रवारस्तिथिभिः सुलनैः कार्य न किंचिच्छकुने विरुद्ध ॥ दोषेऽपि तेषां शकुनेऽनुकूले सदैव सिध्यंति समीहितानि ॥ १३॥ पूर्वजन्मकृतकर्मणः फलं पाकमेति नियमेन देहिनः॥ तत्प्रकाशयति दैवनोदितः प्रस्थितस्य शकुनः स्थितस्य च ॥ १४॥ ॥ टीका ॥ गोलार्थे णिन् । पुनः कीदृक्कलानुसारीति । अत्र कलाशब्देनाभ्यासो गृह्यते । तदनुसर्तु शीलमस्येति कलानुसारि याहगभ्यासस्ताहरज्ञानमित्यर्थः ॥ १२॥ नक्षत्र. वारैरिति ॥ शकुने विरुद्ध सति नक्षत्रवारैस्तथाविधैस्तिथिभिनन्दादिभिः सुलमैः स्वामिनिरीक्षितादिगुणोपेतैः न किंचित्कार्य यतस्तेषां पूर्वोक्तानां दोषेऽपि वैगुण्येपि शकुने अनुकूले सति समीहितानि वाछितानि सदैव सर्वकालं सिध्यति न तु कदाचिदित्यर्थः ॥ १३ ॥ पूर्व इति पूर्वजन्मनि यत्कृतं कर्म तस्य फलं शुभाशुभं नियमनदेहिनः पाकमुदयाभिमुखतामेति तर्हि शकुनस्य किमायातमित्यपेक्षायामाह-तत्प्रकाशयतीति । दैवं शुभाशुभं कर्म तेन नादितः प्रेरितः शकुनः । प्रस्थितस्य कुत्रचिद्गच्छतो जनस्य स्थितस्य वा स्वसअनि कृतस्थितेर्वा तत्पाकं तयोः शुभाशुभकर्मणोः पाकं परिणतिं प्रकाशयति विविच्य दर्शयतीत्यर्थः ॥ १४ ॥ ॥ भाषा ॥ भ अशुभके उपदेशके देवेमें गुरुपनोहै यातें और या ग्रंथमें गणित करके कभी कार्य नहीं है क्यों गणित तो प्रश्नके निर्णयके अर्थ करेहैं जब याकरके शुभ अशुभका निर्णय होजाय तब गणितमें प्रयास जो खेद सो नहीं करनो योग्यहै, और निश्वयही या शास्त्रके पाठमात्रते ही ज्ञान उत्पन्न होयहै, फैसो ज्ञानहोयहै कि चित्तके हरवेमेंहै शीलस्वभाव जाको, फिर कैसो है कला जो अभ्यास ताके अनुकूल है शील जाको, अर्थात् जैसो जाकू अभ्यास है तैसो ही ताकू ज्ञान होयहै ॥ १२॥ नक्षत्रवारैरिति ॥ शकुन जो विरुद्धहोय, और नक्षत्र उत्तम होय, नंदादिक तिथि उत्तम होय, और लग्न अपने स्वामकिरके निरीक्षितादिक गुणयुक्त होय तो इनकरके कभी न होय, और जो ये सब दोषयुक्त होय, और शकुन अनुकूल होय तो वांछितफल कार्य सर्वकालसिद्ध होय ॥ १३॥ पूर्व इति ॥ पूर्व जन्ममें जो कियो कर्म ताकोफल शुभ वा अशुभ सा नियमकरके देहधारीकू उदयहोय है तो यामें शकुनको कहा तो ये कहै हैं दैव जो शुभ अशुभ कर्म ताकरके प्रेरोहयो शकुन है सो कहूंकू गमन करे ताकू वा घरमेंही स्थि Aho ! Shrutgyanam Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) वसंतराजशाकुने प्रथमो वर्गः । तेन दुःखदमतिप्रयोजनं सत्वरं परिहरेदुपागतम् ॥ बुद्धिमाञ्छकुनकोविदो जनः सन्निपत्य सुखदं समाश्रयेत् ॥ १५॥ नन्ववश्यमुपभुज्यते नृभिः प्राक्तनस्य निजकर्मणः फलम्। किं ततः शकुनसंविदा जनो यन्न दैवमतिवर्तितुं क्षमः ॥१६॥ नैतदेवमिह येन देहिनां पूर्वकर्मविहितं कुतोपि वा । देशकालवशतो विपच्यते भुज्यते व्यवहितं कथं नु तत् ॥ १७ ॥ ॥ टीका॥ तेनेति ॥पूर्वोक्तप्रकारेण दुःखदमतिप्रयोजन अतिशयितं कार्यमुपागतमिति फलोन्मुखमपि सत्वरं शीघ्रं परिहरेत् बुद्धिमान् शकुनकोविद इति शकुनेष्वर्थाच्छकुनशास्त्रेषु कोविदः पंडितः । अतएव महान् शाकुनिकः संनिपत्येति सम्यक्प्रकारेण स्थित्वा सुखदं कार्य समाश्रयेत्सम्यक्तया आश्रयेत्स्वीकुर्यादित्यर्थः ॥ १५॥ नन्विति ननु चर्चकः प्राह । प्राक्तनस्य पुरा कृतस्य निजकर्मणः फलं नृभिरवश्यमुपभुज्यते। तत स्तेन कारणेनाशकुनसंविदेति शकुनज्ञानेन किमिति आक्षेपे किं स्यादित्यर्थः। यद्यस्मात्कारणाज्जनो मनुष्यः दैवं भावि शुभाशुभमतिवर्तितुमुल्लंघयितुं न क्षमः समर्थः ॥ १६ ॥ नैतदेवमिति ॥ एतत्पूर्वोक्तमेवं न यथा त्वयोक्तं ॥ भाषा ।। त ताकू कर्मको फल प्रकाश करैहै ॥ १४ ॥ तेनेति ॥ पूर्व कह्यो जो प्रकार ता करके दुःखको देबेवारो अधिक कार्यहै और वो कार्यहुयो चाहेहैं तोभी शीघ्रही मिटजाय वा औरतूं और होजाय तब बुद्धिमान् होय शकुनशास्त्रनमें कोविद अर्थात् पंडित होय वो शकुनमें स्थित होय करके सुखको देवेवारो कार्य ताय स्वीकार करे ॥ १५ ॥ नन्विति ॥ दूसरे चर्चा करते वाले कहैहैं पूर्वजन्ममें किया जो निजकर्म ताको फल मनुष्यनकरके अवश्य भोगवेके योग्यहै, ताकारण करके शकुनको जो ज्ञान जाननो ताकरके कहा होयहै ये आक्षेप कियो तब कहैहैं या कारणते जन जो मनुष्यहै सो दैव जो शुभ अशुभकर्म ताय उल्लंघन करवेकू नहीं योग्य है नहीं समर्थ है ॥ १६ ॥ नैतदेवमिति ॥ जैसे ये पूर्व तुमने कह्यो तैसो नहीं है, तामें का Aho.! Shrutgyanam Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठितप्रकरणम् १, (११) तनिरूप्य शकुनेन दुःखदं वंचयंति नियतं समुद्यतम् ॥ पौरुषेण पुरुषाः सुमेधसः संश्रयंति पुनरात्मनो हितम् ॥ ॥ १८॥ सर्पवह्निविषकंटकादिकान्येन देवशरणोऽपि मानवः ॥ दूरतस्त्यजति पौरुषं सदा तेन तत्स्फुरति दैवतोधिकम् ॥ १९॥ ॥ टीका ॥ तथा नेत्यर्थः । तत्रार्थे हेतुमाह। येन कारणेन इहास्मिल्लोके विहितं पूर्वमिति शेषः। कर्म देहिनां प्राणिनां देशकालवशतःतदधीनत्वेन विपच्यते परिपाक यातीत्यर्थः । तत्कर्म व्यवहितं देशकारणसहकारिकारणानपेक्ष्यं कथं भुज्यते।एतेन देशकालसापेक्ष एव पूर्वकर्मणां भोगः स्यादित्यावेदितं भवति॥१७॥तर्हि शकुनैः किमित्यपेक्षायामाह ॥ तनिरूप्यति ॥ तदेशकालं दुःखदं पुरुषाः पौरुषेण उद्योगेन वंचयंतीत्यन्वयः। तदनागमनमेव तद्वंचनमित्यर्थः । किं कृत्वा निरूप्य ज्ञात्वा केन शकुनेन कीदृशाः पुरुषाः सुमेधस इति सुष्ठ मेधा बुद्धिर्येषां ते तथा "नित्यमसिच्पजामेधयोः" इत्यसिन् । कीदृशं नियतमवश्यंभावि पुनः कीदृशं समुद्यतं दुःखोत्पादनाय कृतप्रयत्नं पुनः आत्मनो हितं स्वस्य हितकारि यदेशकालादि तत्संश्रयंति भजंतीत्यर्थः ॥ १८ ॥ दैवादप्याधिकं उद्यम इति प्रदर्शयन्नाह ॥ सर्प इति ॥ येन कारणेन मानवः सर्पवहिविषकंटकादिकान् आदिशब्दनापरानपि भयोत्पादकानि ॥ भाषा। रण कहैहैं जा कारणकरके या लोकमें पूर्व कियो जो कर्म सो प्राणिनकू देशकरके और काल करके फल जो शुभ और अशुभ ताय प्राप्त करैहै; और जो कर्म कियो ही नहीं है तो फिर फलभी कैसे भोगै, और देशकालकाभी अपेक्षा नहीं रहै है ॥ १७ ॥ शकुनन करके कहा होयहै ताय कहै हैं. ॥ तनिरूप्यति ॥ सुंदर है बुद्धि जिनकी ऐसे पुरुष हैं ते शकुन करके देशकालदुःखको देवेवारो ताय जानकरके दुःखके प्रगटकरवेके अर्थ कियोहै, उद्यमजाने निश्चय ऐसो देश काल ताय उद्योगकरके बचाय जाय अर्थात कहूंकू निरंतर गमन करजाय तब अपने दिन निकलजाँय, फिर आपकू हितकारी जो देशकालादि ताय आश्रयकर, अर्थात् सेवनकरै ॥ १८ ॥ अब दैवते भी अधिक उद्यम है ताय कहैं हैं ॥ सर्प इति ॥ जा कारण करके देव जो भाग्य सोई है शर Aho ! Shrutgyanam Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) . वसंतराजशाकुने-प्रथमो वर्गः। पौरुषेण हृदयेप्सितां गतिं प्राप्नुवंति पुरुषाः सुमेधसः॥ यांति देवशरणाः क्षयं यथा पादपा ज्वलति दावपावके ॥ ॥ २० ॥ दैवमेव यदि कारणं भवेत्रीतिशास्त्रमुपयुज्यते कथम् ॥ यद्लेन सुधियो महोद्यमाः पालयति जगती जनाधिपाः॥२१॥ । टीका ॥ त्यर्थः। दूरतस्त्यजति परिहरतीत्यर्थः । कीदृशो देवशरण इंति दैवं भाग्यं तदेव शरणं यस्यस तथा किमुद्यमेन भाग्यादेव समीहितार्थसिद्धिर्यथा।"समुद्रमथनाल्लेभे हरिलक्ष्मी हरो विषम्' इति जनानां पुरः प्रतिपादयन्नित्यर्थः। तेन कारणेन तत्पौरुषं दैवतोप्यधिकं स्फुरति । यतो देवशरणोपि मानवः प्रयत्नेनैतान्दूरीकरोत्यतो मानवः दैवादपि बलवानित्यर्थः॥ १९ ॥ पौरुषेणेति ॥ यथा दैवशरणाः पादपा दावपावके वनोद्भववह्नौ ज्वलति दीप्यमाने क्षयं योति तथा पौरुषेण नियोगेन सुमेधसः पुरुषास्तत्र क्षयं न याति किं तु पौरुषेण पराक्रमेण मनोभीष्टां हृदयेप्सितां गति प्राप्नुवंतीत्यर्थः देवशरणाः दैवमेव शरणं परित्राणं येषां ते तथाविधाः पुरुषाः क्षयं यांति।अतः दैवादुद्यम एव बलवानित्यर्थः ॥२०॥ देवमिति ॥ यदि दैवमेव कारणं नियामकं भवेत् अत्रान्ययोगव्यवच्छेदपर एवशब्दः। तदा नीतिशास्त्रं ॥भाषा। ण जाके उद्यमकरके कहा होय है भाग्य ते ही वांछित सिद्धि होयह ऐसो मनुष्य, सर्प, अग्नि, विषकंटकादि भयके उत्पादन करवेवारे औरभी तिने दूरतेही त्याग करे, और जैसे समुद्रमथनमेंते हार भगवान् लक्ष्मीप्राप्त होते हुये और शिवजी विषप्राप्त होते हुये ता कारणतें वो पुरुषार्थ दैवते भी अधिक वर्ते है याते जो भाग्यके ऊपर है सोभी यत्न करके ही सादिकनकू दूर कर है, यातें दैवते भी पुरुषार्थ बलवान् है ॥ १९॥ पौरुषेणेति ॥ जैसे दैव है शरण जिनके ऐसे जे वृक्ष ते वनकी अग्नि प्रज्वलित होय तब भस्म होय जातेहैं, तैसे सुंदरहै बुद्धि जिनकी ऐसे पुरुषार्थ करके नाशकू नहीं प्राप्त होय हैं, किंतु पराक्रम करके हृदयमें वांछित जो गति ताय प्राप्त होय है, यासं दैवते उद्यमही बलवान् है. ॥ २० ॥ देवमिति ॥ जो दैवही कारण होय, तो नीतिशास्त्र कैसे प्रवर्त होय रह्यो है Aho! Shrutgyanam Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठितप्रकरणम् १. पूर्वजन्मजनितं पुराविदः कर्म दैवमिति संप्रचक्षते।उद्यमेन तदुपार्जितं तदा दैवमुद्यमवशं न तत्कथम् ॥ २२ ॥ तन्निरूप्य शकुनेन पूरुषः पूर्वजन्मपरिपाकमायतौ ॥ संचरेत्सुचिरमात्मनो हितं चिंतयन्पुरुषकारतत्परः ॥ २३ ॥ वेत्ति मामयमयं न वेत्ति मां मन्यतेऽयमवमन्यतेऽथवा।। यत्नवानयमुपेक्षते स्वयं नेहशेषु शकुनो विशिष्यते ॥२४॥ ॥ टीका ॥ कथमुपयुज्यते । यदलेन नीतिशास्त्रवलेन जनाधिपाः जगतीं पालयंति । कीदृशाः महोद्यमा इति।महानुद्यमो येषां ते तथा। पुनः कीदृशाःसुधियः मुष्ठुधीर्येषां ते तथा एतेन बुद्धिनियोगाभ्यां सकलसमोहितप्राप्तेः दैवमेव शरणमित्यपास्तं वेदितव्यम्॥२१ उद्यमसाध्यतां देवस्य प्रतिपादयन्नाह ॥ पूर्वेति ॥ पुराविदः पंडिताःकर्म देवमिति संप्रचक्षते कथयंति कीदृशं कर्म पूर्वजन्मजनितमिति पूर्वजन्मनि भवांतरे जनितं नि पादितमित्यर्थः । तत्कर्म तदोद्यमेनोपार्जितं तत्तस्मात्कारणादैवमुद्यमवशं कथं न स्यात् अपि तु स्यादेव ॥ २२ ॥ तनिरूप्यति ॥ पूरुषः शकुनेनायतावुत्तरकाले। "आयतिस्तूत्तरः कालः" इति हैमः । तत्पूर्वकर्मपरिपाकं निरूप्य परिज्ञाय संचरेत इतस्ततो गच्छेदित्यर्थः । किं कुर्वन् चिन्तयन् । किमात्मनो हितं । कीदृशः पुरुषकारतत्पर इति पुरुषाणां कारं मुचिरं चिरकालं कृत्यं तत्र तत्परः उद्यमवानित्यर्थः ॥ २३ ॥ वेत्ति मामयमिति ॥ तदर्शयति भवतीत्यर्थः । अयं शकुनः ॥ भाषा ॥ जा नीतिशास्त्रके बलकरके सुंदर है बुद्धि जिनकी और महान् हैं उद्यम जिनके, ऐसे मनुध्यनके अधिप राजा पृथ्वीकू पालन करै हैं, या करके ये आयो बुद्धिक नियोगकरके संपर्ण वांछित प्राप्ति है याते दैव कारण नहींरह्यो ये जाननो योग्यहै ॥ २१ ॥ पूर्वइति ॥ पूर्ववेत्ता जे पंडित ते पूर्वजन्मके कर्म• ही देव कहे है, सो कर्म उद्यमकरके संचय कियोहयो है, ताकारणते दैव उद्यमके वश कैसे नहीं है, अपि तु वो दैव उद्यमकेई वशहै ॥ २२ ॥ तनिरूप्येति ।। पुरुषनके कृत्यमें तत्पर होयरह्यो ऐसो पुरुष या जन्ममें शकुन करके पूर्वकर्मको फल ताय जानकरके फिर अपनो हित ताय चितवनकरत इतउत विचारै ॥ २३ ॥ वेत्तिमामयमिति।। ये शकुन मोकू जान हैं कि, नहीं जाने है, और मेरी करीहुई पूजादिक ये मान्ह Aho ! Shrutgyanam Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) वसंतराजशाकुने-प्रथमो वर्गः । येन पक्षिपशवो विचक्षणाः संभवति न परप्रयोजने ॥ कर्मपाकपिशुनास्ततः कथं तत्र दैवमुदितं प्रवर्तकम् ॥ २५ ॥ आसीदिदं चास्ति भविष्यतीति पृच्छन्यथेच्छं पुरुषस्तिरश्वः ॥ त्रिकालदर्शी तदनुग्रहेण योगीव सर्वो भवति क्षणेन ॥ २६ ॥ ॥ टीका ॥ वेति नवेति यस्य संशयो भवति मत्कृतं पूजादिकमयं मन्यते न वायं यत्नवान् अयं मामुपेक्षते । ईदृशेषु पुरुषेषु शकुनो न विशिष्यते विशेषेण फलप्रदायको न भवतीत्यर्थः ॥ २४ ॥ एते कथं जानतीत्याशंक्य प्रदर्शनपूर्वकमाह ॥ येनेति ॥ येन कारणेन परप्रयोजने परकृत्ये पक्षिपशवो विचक्षणाः प्रेक्षावंतः न संभवंति ततः कपाकपिशुनाः कर्मजनितशुभाशुभसूचकाः कथं स्युरित्याह । तत्रकर्मपाकपिशुनत्वे प्रवर्तकं दैवमुदितं कथितं पूर्वाचार्यैरित्यर्थः । अदृष्टप्रेरिताः पक्षिपशवस्तथाविधकार्येषु प्रवर्तन्त इत्यथः ॥ २५ ॥ आसीदिदमिति ॥ सर्वो जनः पुरुषः योगीव त्रिकालदर्शी भवति कथं क्षणेन स्वल्पकालेनेत्यर्थः । किं कुर्वन्पुरुषः पृच्छन् कान् तिरश्चः द्विकर्मकत्वात् द्वितीय कर्मापेक्षायामितीति किमासीत् इदं वस्तु वर्तते । इदमः प्रत्यक्षगतार्थवाचकत्वात् । किंचिद्भविष्यतीति कीदृशो जनस्त्रिकालदर्शीति भूतभविष्यद्वर्तमानं पश्यतीत्येवंशीलः स तथा केन तदनुग्रहेण शकुनानुग्रहणेनेत्यर्थः ॥ २६ ॥ ॥ भाषा ॥ के नहीं माने हैं, ये शकुन यत्नवान् हैं कै ये मोकूं उपेक्षाकरे हैं, याप्रकार जापुरुषकं संदेह होय, उनपुरुषनमें शकुन विशेष करके फलको देवेवारो नहीं होय है. ॥ २४ ॥ येनेति ॥ जाकारणकरके पराये कार्यमें बडे निपुण पक्षी पशु ये नहीं होय तो कर्मजनित शुभ अशुभ फ लको ज्ञान कैसे होयं, ताकर्मफलके जितायवे में प्रवर्त्तक पूर्वाचार्यों ने देवकह्यो है, अर्थात् अदृष्ट जो प्रारब्ध ताकरके प्रेरेहुये पक्षी पशु ये तैसे ही कार्यनमें प्रवर्त्त होय हैं, ॥ २९ ॥ आसीदिदमिति ॥ संपूर्ण जन हैं सो पक्षिनकूं यथेच्छ भूतभविष्यवर्तमानपूछते संते शकुनके अनुग्रहकरके अल्पकाल करके ही त्रिकालदर्शीयोगीकी नाई होय. ॥ २६ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठितप्रकरणम् १. (१५) अत्रिगर्गगुरुशुक्रवसिष्ठव्यासकौत्सभृगुगौतममुख्याः ॥ ज्ञानिनो मुनिवरा हितभावात्संविदं निजगदुः शकुनानाम् ॥ ॥२७॥ वेदाः पुराणानि तथेतिहासाः स्मार्तानि शास्त्राणि तथापराणि ॥ सत्याधिकं शाकुननामधेयं ज्ञानं समस्तानि समाश्रितानि ॥ २८ ॥ स्वयं त्रिनेत्रो भगवान्गणानामुपादिशच्छाकुनमुत्तमं यत् ॥ केन प्रकारेण तदप्रमाणं फलाविसंवादि वदंति जिह्माः॥२९॥ ॥ टीका ॥ केनेदं प्रकटीकृतमित्याशंकायामाह ॥ अत्रिगर्गइति ॥ अत्रिश्चंद्रोत्पत्तिकृत् गर्गः प्रसिद्धो गुरुवृहस्पतिः शुक्रः कविर्वसिष्ठः प्रसिद्धो व्यासो महाभारतप्रणेता कौत्सो वरतंतुशिष्यो भृगुः शुक्रजनको गौतमः पुरंदरस्य शापप्रदः पते मुख्यत्वेन प्रतिष्ठिताःप्रतिष्ठांप्रापिता येषु ते तथा यदा आद्यर्थे मुख्यशब्दस्तेन एतदादयइत्यर्थः।ज्ञानिनः शकुनानां पक्षिणां संविदं ज्ञानं निजगदुः कथयामासुरित्यन्वयः। कीदृशास्ते मुनिवराइति मुनिषु वराः प्रधाना इत्यर्थः।कस्मात् हितभावादिति हिताध्यवसायादित्यर्थः ॥ २७ ॥ वेदा इति ॥ एतानि समस्तानि शास्त्राणि शकुननामधेयंशाकुनाख्यं ज्ञानं समाश्रितानि एतानि कानीत्यपेक्षायामाह। वेदा इति । वेदा ऋग्यजुः सामप्रभृतयः पुराणान्यष्टादशसंख्याकानि इतिहासाः पुरावृत्तं तथाऽपराणि यानि शास्त्राणि स्मृतानि स्मृतिगोचरीभूतानीत्यर्थः शाकुननामधेयं शाकुनाख्यं ज्ञानं समाश्रितानि इतिहासः पुरावृत्तमिति हैमः । कीदृशं शाकुनज्ञानं सत्याधिकमिति सत्यप्राधान्यतया प्रथितं सर्वोत्कृष्टमित्यर्थः ॥२८॥ एतन्मुनीनां केनोपदिष्टमित्याकांक्षायामाह । स्वयमिति । जिह्माः कुटिलाशयाः केन प्रकारेण तच्छास्त्रमप्रमाणं न ॥भाषा ॥ ये शकुनज्ञान कौननें प्रकट कियो है ताय कहै हैं । अत्रिगईइति ॥ मुनिनमें श्रेष्ठ ऐसे जे अत्रि, गर्ग, गुरु, बृहस्पति, शुक्राचार्य, वशिष्ठ, वेदव्यास, कौत्स, शुक्रजीके पिता भृगु, गौतम, येहैं मुख्य जिनमें ऐसे ज्ञानी ऋषि ते शकुन है नाम जाको ऐसे पक्षिनको ज्ञान ताय प्राणिनके कल्याणकेलिये कहतेहुये ॥ २७ ॥ वेदाइति ॥ वेद जे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वणवेद, और अठारह पुराण और इतिहास महाभारतादिक, और स्मृतिगोचर जे शास्त्र है ते ये समस्तशास्त्र सत्य हैं मुख्य जामें ऐसो शकुन ज्ञान ताय आश्रय करे हैं ॥ २८॥ मुनिना कौन करके उपदेश हुया ताय कहैहैं. ॥ स्वयामिति ॥ कुटिलहैं अंतःकरण जिनके ऐसे जन Aho ! Shrutgyanam Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) वसंतराजशाकुने-प्रथमो वर्गः। तेन संविदिह शाकुनसंज्ञा सम्यगस्ति खलु सा च नराणाम् ॥ उद्यमेषु सकलेषु नितांतं सर्वकालमुपयोगमुपैति ॥३०॥वसंतराजशाकुने सदागमार्थशोभने ॥ समस्तसत्यकौतुके प्रतिष्ठितं हि शाकुनम् ॥ ३१ ॥ इति श्रीवसंतराजशाकुने प्रथमो वर्गः ॥१॥ ॥ टीका ॥ युक्त्या व्यवस्थापितं वदंति कथयति कीदृक्फलाविसंवादीत । फलेन सहाविसंवादः अव्यभिचारो विद्यते यस्य तत्तथा अस्त्यर्थे इन् यत् यस्मात् त्रिनेत्रो भगवान्यदुत्तमं शाकुनं शकुनशास्त्रं तद्गणानां वा मुनीनां वा नराणां उपादिशदकथयत् ॥२९॥ तेनेति ॥ तेन हेतुना ईश्वरोपदिष्टत्वेनेत्यर्थः । इहास्मिञ्जगति शाकुनसंज्ञा संविज्ज्ञानं सम्यगस्ति खलु निश्चयेन च पुनः सा संवित् नरागां सकलेद्यमेषु नितांतभातशयेन उपयोगं कार्य उपैति गच्छति सदा सर्वकालं सर्वस्मिन्काले सर्वदेति यावत् ॥ ३०॥ वसंतराज इति हि निश्चितं शाकुनज्ञानं प्रतिष्ठितं युक्तिभिः सम्यक्तया ग्रंथकृता स्थापितं कस्मिन्वसंतराज इत्यभिधया प्रसिद्ध शाकुने शकुनग्रंथे इत्यर्थः कीदृशे सदागमार्थशोभने इति। सदागमा वेदास्तेषामस्तैिः शोभने पुनः कीदृशे समस्तति।समग्राणि सत्यान्येव कौतुकानि यस्मिन्स तथा॥३१॥इतिश्रीपाति साहश्रीअकब्बर जलालदीनसूर्यसहस्रनामाध्यापकश्रीशत्रुजयकरमोचनादिसुकृतका रिभिर्महोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचितायां वसंतराजविवृतौ प्रथमो वर्गः १॥ ॥भाषा । कोई प्रकारकरके याकू अप्रमाण शास्त्रयुक्तिकरके कहैं हैं याते ही त्रिनेत्र जो शिवजी भगवान् मनुष्यके कल्याणके लिये गणनकू वा ऋषिनकू कहतेहुये. ॥ २९ ॥ तेनेति ॥ शिवजी करके उपदेश दियोगयो ताकारण करके या पृथ्वीमें शकुनज्ञान बहुत उत्तमहै, निश्वयही ये शकुन मनुष्यनकू संपूर्ण उद्यमनमें करनो योग्य है, शकुनते ही सब कार्य मनुष्यको प्राप्त होय है ॥ ३० ॥ वसंतराजेति ॥ वेदनके अर्थनकरके शोभायमान और सत्यहैं समस्त शकुनादिक जामें सो नामकरके प्रसिद्ध ग्रंथ जो वसंतराज तामैं निश्चयशाकुनज्ञान ग्रंथकाने स्थापन कियो है ॥ ३१ ॥ इति श्रीवसंतराजशाकुनभाषाटीकायां श्रीमजटाशंकरात्मजज्योतिर्विच्छ्रीधरविर चितायां प्रथमो वर्गः ॥ १ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहप्रकरणम् २. (१७) वर्गाभिधानान्यथ वर्गसंख्यां वर्गेषु वृत्तप्रमित क्रमेण ॥ व्यस्तां समस्तामपि सम्यगस्मिन्नाचक्ष्महे शाकुनशास्त्रमख्ये॥१॥ आयो वर्गः शाकुनस्य प्रतिष्ठासंज्ञो वृत्तत्रिंशता कीर्तितोऽस्मिन् ॥ शास्त्रस्यायं संग्रहार्थों द्वितीयो वृत्तानि स्युर्दश च त्रीणि तत्र ॥२॥ त्रिंशत्तथाभ्यर्चननामधेयो वृत्तानि भावीनि तृतीयवर्गे ॥ वर्गश्चतुर्थस्त्विह मिश्रकाख्यो भावी कमात्सप्ततिवृत्तसंख्यः॥३॥ ॥ टीका ॥ . आद्यवर्गकथनानंतरं द्वितीयवर्ग प्रतिपादयन्नाह ॥ वर्गाभिधानानीति ॥ अस्मिन् शाकुनशास्त्रे मुख्ये एतानि वयं आचक्ष्महे कानि वर्गाभिधानानि वर्गनामानि । अथ वर्गसंख्या कियंतो वर्गा इति वर्गेषु क्रमेण वृत्तप्रमिति वृत्तानां काव्यानां प्रमिति संख्यां व्यस्ता प्रतिवर्गप्रभा संख्यां समस्तां सकलग्रंथनिबंधनां संख्या गणनामाचक्ष्महे ॥ १॥ आद्य इति ॥ आयो वर्गः अयं प्रत्यक्षोपलभ्यमानः मया कीर्तितः कीदृशः शाकुनस्य प्रतिष्ठासंज्ञ इति । शाकुनस्य शकुनजनितज्ञानस्य प्रतिष्ठाः युक्तिभिः सत्यत्वेन व्यवस्थापनं सा एव संज्ञा नाम यस्य स तथा। केन. वृत्तत्रिंशतेति त्रिंशत्प्रमितकाव्यैदितीयो वर्गोऽयं भवति । कीदृशः संग्रह एवा. थः प्रयोजनं यस्य स तथा । कस्य शास्त्रस्य शाकुनग्रंथस्येत्यर्थः। तत्रेति।तस्मिन्वर्गे दश त्रीणिति त्रयोदशवृत्तानि स्युरित्यर्थः ॥ २ ॥ त्रिंशत्तथेति ॥ तथा अभ्यर्च ॥भाषा॥ प्रथम वर्ग कहेके अनंतर अब द्वितीयवर्ग कहेहे ॥ वर्गाभिधानानीति ॥ शकुनके शास्त्रनमें मुख्य ऐसो जो वसंतराज तामें हम वर्गनके नाम, और वर्गनकी संख्या, और वर्गनके विषे कमकरके वृत्त जे श्लोक तिनकी वर्ग वर्गमें हुई जो संख्या ताय समस्तग्रंथके श्लोक तिनकी संख्या ताय उत्तमप्रकारके कहेहैं. ॥ १ ॥ आयइति ॥ शकुन ते हुयो जो ज्ञान ताकं सत्यभावकरके प्रतिपादन कियो जामें ऐसो शाकुन प्रतिष्ठित जाको नाम प्रथमवर्ग तीसवृत्त 'जे श्लोक तिनकरके मैने कह्योहै, और शकुनशास्त्रको संग्रह सोही जामें प्रयोजन ऐसो ये द्वितीयवर्ग है या द्वितीयवर्गमें त्रयोदशवृत्त कहिये श्लोक हैं ॥ २ ॥ त्रिंशत्तथेति ॥ अभ्यर्चन जो शकुननको पूजन सोईहै नाम जाको ऐसो तृतीयवर्ग तामें तीसवृत्त होंयगे और Aho! Shrutgyanam Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) वसंतराजशाकुने-द्वितीयो वर्गः। शुभाशुभ पंचमके चवर्ग वृत्तानि भावीन्यथ षोडशेहानरेंगिताख्ये खलु षष्ठवर्गे वृत्तानि पंचाशदुदाहृतानि॥ ४॥ सुविस्तरं वृत्तशतैश्चतुर्भिश्श्यामारुतं सप्तममत्र भावि ॥ वर्गाष्टमः पशिविचारसंज्ञः पंचाशता भाव्यथ सप्तभिश्च ॥५॥ वर्गश्च यश्चाषविचारसंज्ञः सपंचवृत्तो नवमोऽत्र भावी ॥ षइिंशतिः खंजनशाकुनाख्ये वृत्तानि वगै दशमे तथेह ॥६॥ ॥ टीका ॥ ननामधेय इति॥अभ्यर्चनं शकुनानां पूजनं तदेव नाम यस्य स तथा वगों भवति तृतीयवर्ग वृत्तानि त्रिंशत् भावीनि भविष्यतीत्यर्थः। इहास्मिन्शास्त्रे मिश्रकाख्यो वर्ग इति शकुनानां विविधभेदमिश्रणात् मिश्रकास एव आख्या नाम यस्य स तथा चतुर्थो वर्गःभावी क्रमाक्रमेण परिपाठयेति यावत् । कीदृशः सप्ततिवृत्तसंख्य इति सप्ततिसंख्यानि वृत्तान्येव संख्या यस्य स तथा ॥ ३ ॥ शुभाशुभइति ॥ अथ इहास्मिन्पंचमके शुभाशुभसंज्ञिते वर्ग षोडशवृत्तानि भावीनि खलु निश्चयेन षष्ठवर्गे नरेंगताख्य इति नराणामिंगितं भूशिरःकंपादि तदेव आख्या यस्य स तथा वृत्तानि पंचाशदुदाहतानि प्रतिपादितानि ॥ ४ ॥ सुविस्तरमिति ॥ इहास्मिन् शाखे चतुभिवृत्तशतैः श्यामारुतं सप्तमं भावि अथाष्टमो वर्गः पंचाशता सप्ताधिकैश्च वृत्तैर्भावी कीदृशः पक्षिविचारसंज्ञ इति पक्षिणां विचारो भिन्नतया तस्वरूपज्ञापनं तदेव संज्ञा यस्य स तथा ॥ ५॥ वर्गश्चेति ॥ यश्चाषविचारसंज्ञो ॥ भाषा ॥ या शास्त्रमें तैसेही शकुननके अनेक भेद मिलरहे हैं, याते मिश्रित नाम चतुर्थवर्ग क्रमकरके सत्तर वृत्त कहिये श्लोक जामें ऐसी होय गो ॥ ३ ॥ शुभाशुभइति ॥ शुभाशुभ संज्ञा जाकी ऐसो पंचमवर्ग तामें सोलह श्लोक होंयगे और निश्चयकरके मनुष्यनकी चेष्टा भ्रुकुटीनेत्र शि. र फडकनो सोही नाम जाको ऐसो नरेंगित नाम छठो वर्ग तामें पंचाश श्लोक प्रतिपादन करेंगे ॥ ४ ॥ सविस्तरमिति ॥ या शास्त्रमें श्यामारुत नाम जाको ऐसो सातमोवर्ग तामें चारसे श्लोक होंगये और याके पीछे पक्षिनको विचार और स्वरूपको जाननौ सोईहै संज्ञा जाकी ऐसो पक्षिविचार नाम आठमोवर्ग सत्तावनश्लोकन करके होयगो ॥ ५ ॥ वर्गवेति ॥ या शास्त्रमें चाष जो मस्तकचूडपक्षी ताको विचार सोई संज्ञाजाकी और Aho! Shrutgyanam Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रसंग्रहप्रकरणम् २. . (१९) एकादशं यश्च करापिकाया रुतं तदेकादशवृत्तमेव ॥ एकाधिकाशीतियुतं शतं यत्तद्दादशे काकरुते प्रदिष्टम् ॥ ७॥ त्रयोदशे पिंगलिकारुते तु भविष्यतो वृत्तशते तथोभे ॥ पंचाशता चैव चतुष्पदानां वर्गोऽत्र भावी स चतुर्दशो यः॥ ॥॥त्रयोदशैवेह च षट्पदादिरुताभिधे पंचदशऽथ वर्गे।। पिपीलिकाशाकुनसंज्ञवर्गों यः षोडशः पंचदशैव तस्मिन् ॥९॥ ॥ टीका ॥ वर्गों वर्तते सः अत्रास्मिन् शास्त्रे नवमोभावी कीदृशः सपंचवृत्त इति पंचवृत्तः सह वर्तमान इत्यर्थः। तथा पूर्वोक्तप्रकारेण इहेति अस्मिन् शास्त्रे खंजनशाकुनाख्ये खंजनविचारसंज्ञिते दशमे वर्गे षड्विंशतिवृत्तानि भावीनि ॥ ६ ॥ एकादशेति ॥ च पुनः यदेकादशं करापिकारुतं वर्तते तदेकादशवृत्तमेवेति।एकादशसंख्यानि वृत्तानि यत्र तथा एकाधिकाशीतिशतयुतं यद्वर्तते अर्थाढतानां तद्वादशे काकरुते प्रदिष्टं कथितमित्यर्थः॥७॥ त्रयोदश इति ॥ तथा त्रयोदशे पिंगलिकारते उभे वृत्तशते भविष्यतः । यश्चतुर्दशश्चतुष्पदानां वर्गः सोत्र पंचाशता वृत्तैर्भावीति ॥ ८॥ - योदशेति । पंचदशे वर्गे षट्पदादिरुताभिधे षट्पदप्रभृतीनां यद्रुतं तंदवाभिधायस्य तत्तथा त्रयोदशैर्वृत्तरिह जानीहि संख्यामिति शेषः।नाधिकीरत्यर्थःगयः पिपी. लिकाशाकुनसंज्ञवर्गो वर्तते स षोडशो वर्गस्तस्मिन् शास्त्रे पंचदशैर्वृत्तैभवितव्यम् ॥ ॥ भाषा॥ पचाश श्लोक जामें ऐसो नवमवर्ग होयगो, और तैसें या शास्त्रमें खंजन शाकुन नाम जाको ऐसोदशमो वर्ग तामें छब्बीस श्लोक होयँगेः॥ ६ ॥ एकादशेति ॥ करापिकारत नाम करके ग्यारह हैं श्लोक जामें ऐसो ग्यारमो वर्ग कहेंगे, और एक सौ इक्यासी श्लोक करके युक्त काकरुत जाको नामरेसो बारमो वर्ग कह्योहै ॥ ७ ॥ त्रयोदशेति ॥ और तैसेही दोसै हैं वृत्त कहिये श्लोक जामें ऐसो पिंगलिकारुतनाम तेखों वर्ग होयगो और जो चोदवों वर्ग चतुष्पदनको है पाके पंचाश श्लोक होयेंगे. ॥ ८॥ त्रयोदशेति ॥ भ्रमरादिकनको जो रुत कहिये शब्द सोई है नाम जाको ऐसो पंद्रमो वर्ग तेरह श्लोकन करके होयगो, और जो पिपीलिका शाकुन संज्ञा जा_ Aho! Shrutgyanam Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) वसंतराज शाकुने - द्वितीयो वर्गः । द्वात्रिंशता सप्तदशोथ वृत्तैः पल्लीरुताख्यो भविताख्यवर्गः ॥ श्वचेष्टितेष्टादशसंख्यवर्गे द्वाविंशतिर्वृत्तशतद्वयं च ॥ १० ॥ एकोनविंशश्च शिवारुताख्यो वृत्तैर्नवत्या भविता च वर्गः ॥ प्रभाववर्गः पुनरत्र विंशो भावी च वृत्तैर्दशभिश्चतुर्भिः ॥११॥ प्रकीर्तिता विंशतिरेवमस्मिन्वर्गा महाशाकुनसारभूताः ॥ सहस्रमेकं त्विह वृत्तसंख्या तथा सपादानि शतानि पंच ॥१२॥ ॥ टीका ॥ ॥ द्वात्रिंशतेति ॥ अथ सप्तदश: पल्लीरुताख्यो वर्ग: द्वात्रिंशता वृत्तैर्भविता अष्टादशसंख्यवर्गे श्वषिचेष्टिते वृत्तशतद्वयं च पुनः द्वाविंशतिर्वृत्तानि भावीनि १० ॥ ॥ एकोनविंशतिरिति ॥ एकोनविंशो वर्गः शिवारुताख्यो नवत्या वृत्तैर्भविता अत्र पुनः प्रभाववर्गः विंशः दशभिश्चतुर्भिर्वृत्तैरिति चतुर्दशभिर्वृत्तैरित्यर्थः । भावी भ विष्यतीत्यर्थः ॥ ११ ॥ प्रकीर्तिता इति ॥ अस्मिन् शास्त्रे महाशकुनसारभूता वर्गा विंशतिः प्रकीर्त्तिताः कथिता ग्रंथकर्त्रेति शेषः । तु पुनः इहास्मिन् शास्त्रे सर्वा ग्रंथवृत्तसंख्या. एकं सहस्रं तथा पंचशतानि सपादानीति पादश्चतुर्थाशः शतसांनिध्यात्तस्यैव चतुर्थांशो गृह्यते तत्सहितानि पंचविंशतिश्लोकसहितानि प्रकीर्तितानी ॥ भाषा ॥ की ऐसो सोलवों बर्ग है: तामें पंद्रह श्लोक होयँगे ॥ ९ ॥ द्वात्रिंशतेति ॥ पारुत है नाम जाको ऐसो सत्रमो वर्ग बत्तीस श्लोकन करके होयगो, और अठारमो वर्ग खाननकी चेष्टा जां. में ऐसो श्वचेष्टितनाम तामें दोयसे बाईस श्लोक होयँगे ॥ १० ॥ एकोनविंशतिरिति ॥ शिवारुत है नाम जाको ऐसो उन्नीसमों वर्ग नब्बे श्लोकन करके होयगो, फेर वीसमों प्रभाव वर्ग चौदह श्लोकन करके होयगो ॥ ११ ॥ प्रकीर्तिता इति ॥ या शास्त्र में महाशकुननके सार - भूत वीस बर्ग ग्रंथकर्ताने कहे हैं फेर या शास्त्रमें संपूर्ण ग्रंथके लोकनकी संख्या एकहजा Aho! Shrutgyanam Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्चनविधिप्रकरणम् ३. ( २१ ) शास्त्रसंग्रहतमधिरूढः शाकुनांबुनिधिमेवमगाधम् ॥ गाहृते शकनरत्नविशेषानुच्चिनोति स फलामृतसिक्तान् ॥१३॥ इति श्रीवसंतराजशाकुने समस्त कौतुके कथितः शास्त्रसंहो नाम द्वितीय वर्गः ॥ २ ॥ ॥ शाकुन गुरुशकुनार्चनमधुना ब्रूमो मुनिवरदर्शितविधिना ॥ यस्माद्विहितं पूजापूर्व सिध्यति कार्यमवश्यं सर्वम् ॥ १ ॥ ॥ टीका ॥ त्यर्थः ॥ १२ ॥ शास्त्रसंग्रहेति ॥ शास्त्र संग्रह एव तरी यानपात्रं तदधिरूढः पुमान् एवं शाकुनांबुनिधिमगाधमतलस्पर्श योऽवगाहते स फलामृतसिक्तान् शाकुनरत्नविशेषानुचिनोति प्रामोतीत्यर्थः ॥ १३ ॥ वसंतराज इति ॥ अत्र द्वितीये वर्गे मया शास्त्रसंग्रहः कृत इत्यन्वयः । शेषं पूर्ववत् ॥ इति श्रीशत्रुंजयकरमोचनादिसुकृतकारिभिर्महोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचितायां वसंतराजविवृतौ द्वितीयो वर्गः ॥ २ ॥ अथ तृतीये वर्गे पूजा प्रोक्ता तां दृर्शयन्नाह || ( शाकुनगुरुरिति ॥ ) शाकुनस्य शकुनज्ञानस्य यो गुरुरध्यापकस्तदर्शको वा शकुनाः पक्षिणस्तेषामर्चनं पूजनमधुना द्वितीयवर्गकथनानंतरं वयं ब्रूमः । केन सुनिवरदर्शितविधिनेति मुनिवरैः पूर्वाचायैर्दर्शितो यो विधिस्तेनेत्यर्थः । यस्मात्कारणात्पूजापूर्व विहितं निष्पादितं ॥ भाषा ॥ र सवा पाँचसौ १५२५ श्लोक है ॥ १२ ॥ शास्त्रसंग्रहेति ॥ शास्त्रको संग्रह सोई हुई नौका तापे बैठो हुयो पुरुष है सो या प्रकार करके अगाध जो शकुनरूपी समुद्र ताय तिरजाय और सत् फलरूपी जो अमृत ताकरके सींचे हुये जे शकुनरूपी रत्नविशेष तिने प्राप्तहोय है ॥ १३ ॥ इति श्रीजटाशंकरात्मज ज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचितायां वसंतराजशाकुनभाषाटीकायां शास्त्रसंग्रहे द्वितीयो वर्गः ॥ २ ॥ अब तृतीयवर्गमें पूजाकही है ताय कहे हैं । शाकुनगुरुरिति ॥ शकुनज्ञानके अध्ययनके करायत्रेवारे गुरु और शकुन जे पक्षी तिनको अर्चन ताय अब हम कहे हैं, पूर्वाचार्य जे मुनिवर तिनने दिखाई जो विधि ता Aho! Shrutgyanam Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) . वसंतराजशाकुने-तृतीयो वर्गः। विमर्शकृच्छाकुनशास्त्रदक्षो विशुद्धबुद्धिः सतताभियुक्तः॥ यथार्थवादी शुचिरिंगितज्ञो भवेदिहाचार्यपदाधिकारी ॥२॥ पोदकी भषणकाकपिंगला जंबुकप्रियतमा च पंचमी ॥ एतदत्र मुनिसत्तमैः सदा कीर्त्यते शकुनरत्नपंचकम् ॥३॥ ॥ टीका ॥ कार्य पुनःसर्वमेव सिध्यति ॥ १ ॥ इहाधिकारी कीदृक् स्यादित्यपेक्षायामाहविमर्शकदिति ॥ इहास्मिन् ग्रंथे ईदृगाचार्यपदाधिकारी भवतीत्यन्वयः । तत्राचर्यते सेव्यते ज्ञानार्थ शिष्यैरित्याचार्यस्तस्य पदं स्थानं तत्राधिकारः प्रवर्तनं विद्यते यस्य स तथा कीदृग्विमर्शकदिति विमर्श पूर्वापरपालोचनं करोतीति विमर्श कृत् । किपः सर्वापहारे "इस्वस्य पिति कृति तुक्” इति तुक् । पुनः कीदृशः शाकुनशास्त्रदक्ष इति शाकुनं यच्छात्रं तत्र दक्षश्चतुरः पुनः कीदृग्विशुद्धबुद्धिः विशुद्धा निर्मला शकुन विचारकरणकुशलेति यावत् बुद्धिः प्रतिभा यस्य सः पुनः कीदृक् सतताभियुक्तःसततमहर्निशमभियुक्तः पठनपाठनादिना कृतपरिश्रमः पुनः कीहक यथार्थवादीति यथार्थं यथादृष्टानुसारिवदतीत्येवंशीलःस तथान तु तन्मनोरंजनाय विपरीतमपि भाषते यदुक्तं किराते।"स किंसखा साधु न शास्ति योधिपं हितान यः संशृणुतेस किं प्रभुरिति"|पुनः कीदृशःशुचिः पवित्रः देहमालिन्यरहित सदाचरणशीलश्च। पुनः कीदृक इंगितज्ञ इति इंगितं पूर्वोक्तं जानातीति इंगितज्ञः॥२॥ अथ शकुनेषु मुख्यत्वेन पंचैव प्रतिपादयन्नाह ॥ पोदकीति ॥ तत्र पोदकी देवी ॥ भाषा॥ करके पहले पूजा करो ता करके फिर संपूर्ण कार्य अवश्य सिद्ध होय.॥१॥ यामे अधिकारी कैसो होय ताय कहै हैं ॥ विमर्शकदिति ॥ या ग्रंथमें गुरुपदको अधिकारी ऐसो होय अर्थात् गुरु ऐसो होय पूर्वापरको विचार करनेवालो होय और शकुनशास्त्रमें चतुर होय कहा शकुन अच्छी तरह सं जानता होय, और विशेष करके शुद्धबुद्धिहोय, और जैसो देख्यो होय तैसोही यथार्थको करवेवालो होय, और पवित्रहोय, आलस्यरहित धर्मयुक्त आचारमें शीलस्वभाव जाको होय, और पहलेकही ये मनुष्यादिकनकी चेष्टा ताय जानै ऐसो होय, सो गुरु होयवेकू योग्य है ॥ २ ॥ शकुननमें मुख्यता करके पांचही, तिनें कहैहैं ॥ पोदकीति ॥ Aho! Shrutgyanam Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्चनविधिप्रकरणम् ३. - (२३) सरस्वती पांडविकां प्रधानां यक्षोऽपि यक्षं गरुडश्च काकम् ॥ चंडी पुनः पिंगलिकां सदैव शिवां शिवादूत्याधितिष्ठतीह ॥४॥ ॥ टीका ॥ अन्यत्र काली चिडीति प्रसिद्धिः। भषणकाकपिंगला इति इंदः।भषणः श्वा काकः करटः प्रसिद्धः पिंगला उलकवदना शकुनविशेषः एतेषामितरेतरबंदः। मरुस्थल्यां भैरवीति गुर्जरेचीवरीति प्रसिद्धिः । अन्यत्र खूराटराजगूहादौ पेचक इति पंचमीजंबुकप्रियतमा शृगालीत्यर्थः।अत्रास्मिन् ग्रंथे मुनिसत्तमैः प्रधानमुनिभिरेतच्छकुनरअपंचकम्। शकुनेषु रत्नं मुख्यमित्यर्थः। “जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तद्रत्नमभिधीयते"। इतिवचनात्तेषां पंचकं पंचैव पंचकं स्वार्थ कः। सदा कीर्त्यते सर्वकालं प्रतिपाद्यते न तु कदाचित् ॥ ३ ॥ एतेषां शकुनत्वे मुख्यत्वं कुतस्तदर्थमाह ॥ सरस्वतीति ॥ सरस्वती ब्रह्मपुत्री पोदकी पांडविकापरनाम्री अधितिष्ठति । एतस्या इयमधिष्ठात्रीत्यर्थः । प्रधानं यक्षः कुबेरः क्षेत्रपालाधिपः यक्षं श्वानमधितिष्ठति।गरुडः काकमधितिष्ठति चिडी देवी पुनः पिंगलिकां पूर्वोक्तां कालीचिडी वा चीवरीमधितिष्ठति सदैव सर्वकालं शिवादूती शिवा पार्वती तस्याः दूती अनुचरी शिवां शृगालीमधि. ॥ भाषा ॥ पोदकी १ ये कालीचिडिया नाम करके प्रसिद्ध है, और भषण २ ये श्वानको नामहै और काक ३ ये प्रसिद्धही है, और पिंगला ४ घुघ्घूको सो मुख जाको शकुनमें है गुर्जरदेशमें चीवरी नाम करके प्रसिद्ध है, और जगहरात्रीचरी कहै हैं, कहूं खूसटराजा कहैंहैं, कहूं पेचक कहैहै, और मारवाडमें भैरी कहहैं, और पांचवीं जंबुकप्रियतमा ५ शृगाली प्रसिद्ध नाम है या ग्रंथमें महामुनिने ये पांच शकुननमें रत्न नाम मुख्य क है ॥ ३॥ इनकू शकुननमें मुख्यभावका. यते कहैं है ताको प्रयोजन कहै हैं । सरस्वतीति । ब्रह्माजीकी बेटी ब्रह्मपुत्री जो सरस्वती सो पांडविका जाको नाम ऐसी जो पोदकी तापे स्थितरहैहै याकी अधिष्ठाता देवीहै याते याकू सरस्वती, और ब्रह्मपुत्री, और पांडविका, इतने पौदकीके नाम कहेंगे, और यक्ष जो कुबेर अथवा क्षेत्रपालकेभी अधिप भैरव सो श्वानपै स्थित रहैहैं, और गरुड काकपै स्थित रहेहैं, और चंडी जो देवी सो पिंगलिका जो काली चिडी वा चीवरी ताके ऊपर स्थित रहेहैं, और शिवा जो पार्वती ताकी दृती अनुचरी सो शृगालीप स्थितरहै है, इन पांचौं अधिष्ठाता देवतानकू मुख्यता Aho! Shrutgyanam Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) वसंतराजशाकुने - तृतीयो वर्गः । न देवताधिष्ठितमंतरेण तिष्ठति केचित्पशुपक्षिणोऽस्मिन् ॥ हिंस्या न ते शाकुनिकेन घातात्कुध्यंति देव्यस्तदधिष्ठिता हि ॥ ५ ॥ हैमानि रौप्याण्यथ पैष्टिकानि तेषां स्वशक्त्या मिथुनानि कृत्वा ॥ अभ्यर्चयेत्पंचभिरेव तुष्टैस्तुष्यंति पुंसां शकुनांतराणि ॥ ६ ॥ यं बुध्यते योस्ति च यत्र देशे यत्रानुरागोऽनुभवोऽथ वा स्यात् ॥ स एव वा शाकुनकोविदेन भक्तेन शक्त्या शकुनोर्चनीयः ॥ ७ ॥ ॥ टीका ॥ तिष्ठति । अधिष्ठातॄणां मुख्यत्वेनैतेषां मुख्यत्वमिति भावः ॥ ४ ॥ अन्यपशुपक्षिणो देवताधिष्ठिताः संति न वेत्याकांक्षायामाह ॥ न देवतेति । अस्मिन् लोके पशुपक्षिणः देवताधिश्रयमंतरेण देवताश्रयणव्यतिरेकेण न तिष्ठति सर्वेषामधिष्ठात्रयः संतीति भावः । अतः शाकुनिकेन ते न हिंस्या न मारणीयाः हि यस्मात्कारणात् घातात्तदधिष्ठितास्तदाश्रिता देव्यः कुप्यंति कोपं कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ ५ ॥ मुख्यत्वे हेत्वंतरमाह ॥ हैमानिति ॥ हैमानि हेमनिष्पन्नानि रौप्याणि रूप्यनिष्पन्नानि पैष्टकानि माषचूणों पजनितानि मिथुनानि युगलानि स्वशक्त्या स्वविभवानुसारेण कृत्वा विधाय अभ्यर्चयेत् पूजयेत् । एभिः पंचभिस्तुष्टैः पुंसां शकुनांतराणि तुष्यंति ॥ ६ ॥ ॥ यं बुध्यते इति ॥ स एव शकुनः शाकुनकोविदेन केनचिच्छकुनज्ञानवता भक्तेन शक्या स्वसामर्थ्यानतिक्रमेण अर्चनीयः तच्छन्दस्य यच्छन्दसापेक्षत्वादाह यमि ॥ भाषा ॥ है याते इन पांचोनकुंभी सब पक्षीनमें मुख्यता है ॥ ४ ॥ इन पांचोनते और जे पशु पक्षी हैं उनपै देवता स्थित है वा नहीं हैं तापै कहै है ॥ न देवतेति ॥ या लोकमें कोई भी पशु पक्षी देवतानके आश्रयविना नहीं है, संपूर्ण पशु पक्षीके अधिष्ठाता देवता हैं यातें शकुन देखवे वा - रेकूं कोईभी मारनो योग्य नहीं है, क्यों कि इनके मारेते इनके ऊपरकी अधिष्ठातादेवी ते कोप करे है ॥५॥हैमानीति ॥ अपनी शक्तिके अनुसार सुवर्णके वा चांदी के वा उडदके चूनके मिथुन नाम जोडा जोडी बनाके फिर पूजन करै पूजन करेसूं प्रसन्न हुये जे पांचों देवता तिन करके पुरुषनकूं और भ शकुन प्रसन्न होय ॥ ६ ॥ यं बुध्यते इति ॥ शकुनी जा शकुनकूं जानतो होय, जा Aho! Shrutgyanam Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्चनविधिप्रकरणम् ३. (२५) वृत्तं विदध्याचतुरस्रकं वा पृथ्वीतले मंडलकं विशुद्धे॥ पौराणिकश्लोकपरीक्षितायाः संगृह्य गोर्गोमयमंतरिक्षात् ॥ ८ ॥ अत्यंतजीर्णदेहाया वंध्यायाश्च विशेषतः ॥ रोगार्तनवसृताया न गोर्गोमयमाहरेत् ॥९॥ ॥ टीका ॥ ति यं शकुन शाकुनिकः बुध्यते यत्र देशे योस्ति यत्र च अस्यानुरागः भक्तिः अ. थ वा यत्र अनुभवः पुनःपुनर्विलोकनात् याथार्थ्यप्रतीतिः ॥ ७ ॥ वृत्तमिति ॥ विशुद्ध पृथ्वीतले वृत्तं वर्तुलं चतुरस्रकं वाचतुर्भिः रंगैः समन्वितं वा मण्डलकं वि. दध्यात् कुर्यादित्यर्थः किं कृत्वा संगृह्य किं गोमयं छगणं कस्मात् अंतरिक्षाभूमिमप्राप्तमित्यर्थः । कस्याः गोःधेनोः कथंभूतायाः पौराणिकश्लोकपरीक्षिताया इति पुराणे भवो यः श्लोकः तेन परीक्षा प्राप्ताया इत्यर्थः ॥८॥ तदेव पौराणिकश्लोकं दर्शयन्नाह ॥ अत्यंतेति ॥ एतादृश्या: गोर्गोमयं न आहरेत् नानयदित्यर्थः । अत्यंतजीर्णदेहाया इति अत्यंतं जीर्णः शिथिलीभूतो देहः शरीरं यस्याः सा तथाच पुनरर्थे वंध्याया इति सदापत्योत्पत्तिरहितायाः विशेषत इति यस्याः दर्शनं निषिद्धं तस्याःगोमयमपि सर्वथा निषिद्धमिति ज्ञापयितुं विशेषपदोपादानं रोगार्तनवप्रसूता या इति रोगार्ता रोगव्याप्ता नवा चासौ प्रसूता चेति कर्मधारयः। पूर्वस्य पुंवद्भाव: अत्र नवत्वं प्रसूत्यपेक्षया मंतव्यं तेन वृद्धादौ नवा ॥ ९॥ मंडले किं कुर्यादित्याह ॥ भाषा । देशमें जो शकुन होय, जामें याकी भक्ति होय, जामें अनुभव होय, सोही शकुन शकुन ज्ञानमें चतुरभक्त होय ताकरके अपनी सामर्थ्य बमूजिब पूजनकरनो योग्य है फिर शकुनके वारंवार देखते यथार्थप्रतीति हायहै ॥ ७ ॥ वृत्तमिति ।। पुराणके श्लोकनकरके परीक्षा प्राप्तहुई ऐसी गौ ताको गोबर होय पृथ्वीमें गिरयो न होय हाथको हाथमें ही लेलियो होय ऐसो गोबर लेकरके फिर शुद्धपृथ्वीमें गोलमंडल अथवा चौखूटो मंडल करै ॥ ८ ॥ सोही पुराणको श्लोक ताय कहै है । अत्यंतेति ॥ अत्यंत जर्णिदेह जाको होय, फिर वंध्या होय, संतानरहित होय, और जाको दर्शन ही करबेको निषेध है, ताको गोबर सर्वथा निषेध है, और रोग करके आर्त होय, और नवीन व्याई होय, ऐसी गौको गोब Aho! Shrutgyanam Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) वसंतराजशाकुने - तृतीयो वर्गः । तस्मिन्विचित्रं विततं विदध्यात्पिष्टान्न केनाऽष्टदलं सरोजम् ॥ यद्वा विशिष्टैर्मसृणप्रपिष्टैर्वस्त्वंतरैश्चंदनकुंकुमाद्यैः ॥ १० ॥ पीतः सुरेशः कपिलो हुताशः कृष्णो यमः श्यामवपुश्च रक्षः ॥ शुकः प्रचेता हरितः समीरश्चित्रो धनेशो धवलो महेशः ॥ ११ ॥ ॥ टीका ॥ ॥ तस्मिन्निति ॥ तस्मिन्मंडले पिष्टान्नकेनाष्टदलमष्टपत्रं सरोजं कमलं विदध्याकुर्यात् कीदृशं विचित्रं विविधवर्णोपेतं पुनः कीदृशं विततं विस्तीर्ण यद्वा कुंकुमचंदनाद्यैरिति कुंकुमं केसरं 'काश्मीरं कुंकुमं वह्निशिखे 'ति कोशोक्तेः चंदनं मलयोद्भ बं ते आद्ये येषां तैस्तथा कीदृशैर्विशिष्टैः नवीनैः मसृणप्रपिष्टैरिति मसृणं म्लष्टं प्रपिधैर्मदितैर्वस्त्वंतरैः पदार्थांतरैः सरोजं कुर्यादित्यर्थः ॥ १० ॥ पीत इति ॥ पीतः सुरेशो मघवान् वर्तते इति अस्य सर्वत्र संबंधः हुताशः कपिलः पीतरक्त इत्यर्थः । यमः कृष्णश्च पुनरर्थे रक्षः श्यामवपुः श्यामं वपुर्यस्य स तथा प्रचेता वरुणः शुक्लः । समीरः पवनः हरितो नीलवर्णः । धनेशो धनदः चित्रोऽनेकवर्णः। महेशो रुद्रः धवलः श्वेतवर्णः श्वेतो गुणो विद्यते यस्मिन्निति । अर्शआदित्वादप्रत्यये विशेषणविशेष्यभावः ११ ॥ भाषा ॥ यामें नहीं लाना ||९|| वा मंडलमें करनो सो कहैं हैं तस्मिन्निति ॥ ता मंडलमें चून करके चित्रवि चित्र वर्ण करके युक्त होय, और लंबो चौडो होय ऐसो अष्टदल कमल करै अथवा कुंकुम जो केसर और मलयागिरिको चंदन ये हैं आदिमें जिनके तिनकरके वा नवीन पिसे और कोई पदार्थ तिन करके कमलकरे ॥ १० ॥ पीत इति ॥ पीत वर्ण जाको ऐसो देवतानको स्वामी इंद्र वर्त्ते है और कपिल जो पीतरक्त है वर्ण जाको ऐसो अग्निवत्तै है; और कृष्ण है वर्ण जाको ऐसो यमराज, और श्यामहे वपु और शुक्क है वर्ण जिनको ऐसो वरुण, और अनेक हैं वर्ण जाके ऐसो जाको ऐसो राक्षस और हरित जो नीलवर्ण है जाको ऐसो धनेश जो कुबेर, और श्वेत है वर्ण जिनको अ पवन, Aho! Shrutgyanam Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्चनविधिप्रकरणम् ३. (२७) एवंविधाः पद्मदलोदरेषु क्रमेण दिवष्टसु लोकपालाः॥ आचार्यवाक्यानुगतेन पुंसा महाईपूजाविधिनाचनीयाः॥ ॥१२॥अर्चासनालेपनपुष्पधूपनैवेद्यदीपाक्षतदाक्षणाभिः॥ ॐकारपूर्वैनमसा च युक्तैर्महाप्रभावर्निजनाममंत्रैः॥ १३॥ ॥ टीका ॥ एवंविधा इति ॥ पूर्वोक्तवर्णोपयुक्ता लोकपालाः पूर्वादिक्रमेण अष्टसु दिक्षु पद्मदलोदरेषु स्थापनीया इति शेषः । तत आचार्यवाक्यानुगते नेतिआचार्यस्य शकुनाचार्यस्य वाक्यमुपदेशः तस्मिन् अनुगतेन तदनुयायि नेत्यथः । पुंसा पुरुषेण अर्चनीयाः पूजनीया इत्यर्थः । केन महार्हपूजाविधिनेति महानहों यस्याःसा महार्दा एवंविधा या पूजा तस्या विधिस्तेनेत्यर्थः।महाय॑पूजाविधिनेति वा पाठः।तत्र महार्य वस्तु तेन या पूजा तत्संबंधी यो विधिस्तेनेत्यर्थः ॥ १२ ॥ अर्चासनेति ॥ अर्चा प्रथमतः सुगंधद्रव्येण पूजा आसनं पट्टकादिस्थापनं आलेपनं चंदनदवेण पुपाणि कुसुमानि धूपः वह्निसंयोगात् काकतुंडप्रभवो धूमः नैवेद्यं पक्वान्नादि यदने स्थाप्यते दीपादशाकर्षः अक्षतास्तंडुलाः दक्षिणा पूजानंतरं ब्राह्मणेभ्यो दानाहद्रव्यम् ॐकारपूर्वैरिति ॐकारः पूर्व प्रथम येषां तानि तथा नमसा च युक्तैरिति चकारात् प्रांते नमःशब्दयुक्तैरित्यर्थः ।निजनाममंत्रैरिति यस्यार्चनं तत्र तन्नामग्रहणपूर्वकं पू ॥ भाषा॥ थवा श्वेतहैं गुण जिनमें ऐसे महेश जो शिवजी रुद्र ये सब मंडलमें वर्ते हैं ॥ ११ ॥ एवंवि धा इति ॥ पूर्व कहे जे वर्ण तिनकरके सहितं लोकपाल देवतानकू पूर्वादिक्रमकरके आठों दिशानमें कमलके पत्तानमें स्थापन करै ता पीछे गुरुनके वाक्यके अनुगत महार्हपूजाविधि करके पुरुषकू पूजन करनो योग्य है ॥ १२ ॥ अर्चासनेति ॥ पहलेही सुगंधद्रव्य करके पाद्य अर्घ्य आचमनीय स्नान पूजा सो अर्चा, और पट्टाकू आदिले तापै स्थापन करनो, और चंदन पुष्प धूप काककी चोंचमें होय, धूपका धूआँ उठे और दीपक नैवेद्य पक्वान्नादिक. वाके अगाडी स्थापन करे, अक्षत दक्षिणा इन करके, और प्रणवहै आदिमें जाके और नमः है अंतमें जाके और जाको अर्चन होय ताको नाम बीचमें ले ॐ इंद्राय नमः । ॐ Aho ! Shrutgyanam Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) वसंतराजशाकुने-तृतीयो वर्गः। तेनैव रूपेण ततः क्रमेण पूजां विदध्याजलजस्य मध्ये ॥ धनुर्धरीवायसपिंगलानां कौलेयकस्यापि ततः शिवायाः ॥ ॥ १४॥ गुरूपदेशात्समवाप्य मंत्रं शतं जपेत्तस्य कृतावधानः ॥ होमो दशांशेन च मंत्रजापात्ततो विधेयो मधुना समिद्भिः॥ १५ ॥ ध्यानं विदध्यादथ वक्ष्यमाणरूपेण दु युगलादिकानाम् ॥ तुष्यंति येनार्चनजाप्यहोमध्यानकतानस्य नरस्य देवाः ॥१६॥ ॥ टीका ॥ वोक्तैः वस्तुभिः पूजा कार्येति भावः॥१३॥ तेनैवेति॥ तेनैव पूर्वोक्तप्रकारेण जलजस्येति पिष्टान्नकृतकमलस्य मध्ये क्रमेण पूजां विदध्यात्कस्याः धनुर्धरीवायसपिंगलायाः धनुर्धरी पोदकी वायस प्रसिद्धःपिंगलाः पूर्वप्रतिपादितान चात्रसमाहारबंदः तदेकत्वे च नपुंसकलिंगता स्यात् अतः धनुर्धरीवायसाभ्यां युक्ता पिंगलेति मध्यपदलोपी तत्पुरुषः । पुनः कस्येति कौलेयकस्य शुन इत्यर्थः। ततः कस्याः शिवायाः शगाल्याः। “अस्थिभुग्भषणः सारमेयः कौलेयकः शुनः॥"इति हैमः॥१४॥गुरूपदेशादिति ॥ गुरूणामुपदेशः गुरूपदेशः तस्मान्मंत्रं प्राप्य शतं जपेत् । कीदृशः कृ. तावधान इति कृतमवधानं चित्तैकाम्यं येन स तथा । कस्येति पूर्वोक्तपंचानामित्यर्थः जात्यपेक्षया चैकवचनं ततः मंत्रजपादनंतरं मधुना क्षौदेण च पुनः समिद्भिः पालाशैः दशांशेन चेति यावत् मंत्रजपः तद्दशमभागेनेत्यर्थः। होमो विधेयः कर्त्तव्यः ॥१५॥ ध्यानमिति ॥ अथेति मंत्रजपानंतरं वक्ष्यमाणरूपेण अग्रे कथ्यमान ॥ भाषा॥ वरुणाय नमः ॥ ऐसे मंत्रनकरके पूजा करनो योग्य है ॥ १३ ॥ तेनैवेति ॥ पहले कह्यो जो प्रकार ताकरके चूनको कियो जो कमल ताके मध्यमें धनुर्धरी जो पोदकी, और काक, और पूर्व कही जो पिंगला, चीवरीनाम कर प्रसिद्ध, और कौलेयक जो श्वान और शृगाली, इनको कम करके पूजन करे. ॥ १४ ॥ गुरुपदेशादिति ॥ गुरूनके उपदेशतें पांचोनके मंत्र प्राप्त होय करके फिर कोनो है एकाग्रचित्त जाने ऐसो मनुष्य सो मंत्र जपे, जाप किये, पीछे सहत और समिधा इन करके जितनो मंत्रनको जाप होय ताको दशांश होम करनो योग्य है ।। १५ ॥ ध्यानामिति ॥ मंत्रको जप किये पीछे आगे कहेंगे ता प्र Aho ! Shrutgyanam Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्चनविधिप्रकरणम् ३. (२९) ज्ञानमुद्रयैकमंकितं कर पुस्तकेन चिह्नितं तथापरम् ॥ बिभ्रती हिमेंदुकुन्ददीधिति पंकजासनां स्मरेत्सरस्वतीम् ॥ ॥१७॥गदायुधः सर्वनिधानभर्ता महोदरःकुंडलवान्किरीटी॥ श्वानं समभ्यर्च्य विचित्रवर्णो ध्येयःक्षणं वैश्रवणो नरेण१८॥ ॥ टीका ॥ प्रकारेण दुर्गायुगलादिकानां ध्यानं विदध्यात् येनार्चनजापहोमध्यानेषु एकतानस्य एकाग्रचित्तस्य नरस्य देवास्तुष्यन्ति संतुष्टिभाजो भवन्ति ॥ १६ ॥ ज्ञानमुद्रेति ।। एवंविधा सरस्वती स्मरेत् ध्यायेत् ॥ किं कुर्वती विभ्रती करं कीदृशं ज्ञानमुद्रया अंकितं चिह्नितं ज्ञानमुद्रा त्वेवम् । "अंगुष्ठानामिके सक्ते हृदये विनियोजिते। ज्ञानमुदेयमाख्याता देवानामपि दुर्लभा॥' तथापरं द्वितीयं करं पुस्तकेन चिह्नितं कीहशी हिमेंदुकुंददीधितिं हिमं तुहिनं इंदुश्चंद्रः कुंदं पुष्पविशेषः तद्वत् दीधितिः कातिर्यस्याः सा तथा पंकजासनामिति।पंकजमेवासनमुपवेशनस्थानं यस्याः सा तयेति पोदकी प्रपूज्येत्यर्थः ॥ १७ ॥ गदायुध इति ॥ श्वानमभ्यर्च्य नरेण वैश्रवणः कुबेरःक्षणं ध्येयः। ध्यानविषयी कार्यः कीदृक वैश्रवणः गदायुध इति गदा प्रहरणविशेष आयुधं यस्य स तथा पुनः कीदृक् सर्वनिधानभर्तेति भूम्यंनिहितं धनं निधानं तेषां सर्वेषां भर्ता स्वामी। पुनः कीदृशः महोदर इति महदुदरं यस्येति स त ॥ भाषा॥ कार करके दुर्गा युगलकं आदिलेके पांचोनको ध्यानकर जा ध्यानकरके अर्चन जप होम ध्यान इनमें एकाग्रचित्त जाको ता मनुष्यके ऊपर देवता प्रसन्न होयहैं ॥ १६ ॥ ज्ञानमुद्रति ॥ ज्ञानमुद्राकरके चिह्नित अंगूठा अनामिका मिलाय हृदयमें युक्तकरै याकू ज्ञान मुद्रा कहें, एक हस्त ज्ञानमुद्रासहित धारण करे, और दूसरो हस्त पुस्तक करके युक्त धारण करे, और चंद्रमा और कुंदको पुष्प ताकीसी है कांति जाकी, और तैसे ही कमलको है आसन जाको ऐसी जो सरस्वती पोदकी ताय ध्यानकरै ॥ १७ ॥ गदायुध इति ॥ श्वानको पूजन करके फिर गदा है आयुध जाके और फिर संपूर्ण पृथ्वीमें भीतर धरयो हुयो धन तिनको स्वामी और फेर महान् है उदर जाको और कुंडलंयुक्त किरीट मुकुट जाके तैसे ही नाना प्रकारको है वर्ण जाको ऐसो वैश्रवण जो कुबेर सो मनुष्यनकरके क्षणमात्र ध्या. Aho ! Shrutgyanam Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुने - तृतीयो वर्गः । चंचपुटग्रस्तमहाभुजंगं भुजंगरत्नाभरणाभिरामम् ॥ हिरण्यरोचिः खचितांतरिक्षं तार्क्ष्य स्मरेद्वायसमर्चयित्वा ॥ १९ ॥ शवाधिरूढां नृकपालहस्तां शूलायुधां भूतिसितागयष्टिम् ॥ उलूकचिह्नां नरसुडमालां निर्मासदेहां रुधिरं पिबन्तीम् ॥२०॥ (३०) ॥ टीका ॥ । था। पुनः कीदृकुंडलवान्कर्णाभरणयुक्तः । पुनः कीदृक्किरीटी किरीटं मुकुटी बततेयस्य स तथा । पुनः कीदृक् विचित्रवर्ण इति विचित्रो विविधरूपो वर्णो यस्य स तथा आजानुकनकगौर इत्यर्थः ॥ १८ ॥ चंच्विति ॥ वायसमर्चयित्वा तार्क्ष्य गरुडं स्मरेत् कीदृशं चंचूपुटग्रस्त महाभुजंगमिति चंचूपुटेन ग्रस्तो गृहीतो महाभुजंगो येन स तथा । पुनः कीदृशं भुजंगरत्नाभरणाभिराममिति भुजंगरत्नानि मुख्य भुजंगाः तान्येव आभरणानि तैरभिरामं मनोहरं यद्वा भुजंगरत्नानि भुजंगमणयस्तेषामाभरणानीति पूर्ववत् । पुनः कीदृशं हिरण्यरोचिःखचितांतरिक्षमिति हिरण्यं सुवर्णं तस्य रोचिरिव रोचिः कांतिस्तया खचितं वर्णपरावर्तनेन अंतरिक्षं गगनं येन स तथा ॥ १९ ॥ शवाधिरूढामिति ॥ पिंगलिकां प्रपूज्य चंडीं स्मरेत् । कीदृशीं शवाधिरूढामिति शवं मृतकं तत्राधिरूढां स्थितां पुनः कीदृशीं नृकपालहस्तामिति नृणां कपालानि हस्ते यस्याः सा तथा । पुनः कीदृशीं शूलायुधामिति शूलमेवायुधं यस्या सा तथा । पुनः कीदृशीं विरूपां भूतिसितांगयष्टिमिति भूतिर्भस्म तया सिता श्वेता अंगयष्टिर्यस्याः सा तथा । पुनः कीदृशीं उल्लूकचिह्नामिति उल्लूकानां घूकानां चिह्नं लक्ष्म यस्याः सा तथा । तदाकृतिमदाभरणयुक्तामित्यर्थः । पु ॥ भाषा ॥ नकरन योग्य है ॥ १८ ॥ चंच्विति ॥ वायस जो काक ताको पूजन करके फिर चोंचकरके ग्रास कियो है महाभुजंग सर्प जाने और भुजंग रत्न जे मुख्य भुजंग तेही आभरण तिनकरके मनोहर अथवा भुजंगरत्न जे सर्पमणि तिनके आभरण तिनकरके अभिराम कहिये सुंदर और फिर हिरण्य जो सुवर्ण ताकी कांतिकरके व्याप्त कियो है आकाश जाने ऐसे तार्क्ष्य जो गरुडजी ताय स्मरण करे ॥ १९ ॥ शवाधिरूढामिति ॥ पिंगलिकाको पूजन करके फिर चंडीकूं स्मरण करे अब चंडीको स्वरूप कहे हैं चंडीकैसी है शव जो मुरदा तापे Aho! Shrutgyanam Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्चनविधिप्रकरणम् ३. ( ३१ ) असृग्वसा चर्चित कृष्णकायां करीन्द्रपंचाननचर्मवस्त्राम् ॥ बिभीतकस्थामंतिभीमरूपां चंडों स्मरेपिगलिकां सभाज्य ॥ ॥ २१ ॥ अधोमुखी घोररवातिरौद्रा ज्वालाकरालं वदनं वहन्ती ॥ स्तनंधयैः सप्तभिरभ्युपेता शिवा शिवादूत्यनुचिन्तनीया ॥ २२ ॥ ॥ टीका ॥ नर्विशिनष्टि नरमुण्डमालामिति नराणां मुंडानि मस्तकानि तान्यवै माला यस्याः सा तथा । पुनः कीदृशीं निर्मासदेहामिति निर्गतं मांसं यस्याः सा तथा । अतिकृशत्वादित्यर्थः । किं कुर्वतीं किं रुधिरं परेषामिति शेषः ॥ २० ॥ पुनः कीदृशीं अमृग्वसाचर्चित कृष्णकायामिति ॥ असृग् रुधिरं वसा नाडी ताभ्यां चर्चितः कृष्णकायो यस्याः सा तथा । पुनः कथंभूतां करीन्द्र पंचाननचर्मवस्त्रामिति करींद्रो हस्तिपुंगवः पंचामनः सिंहः तयोश्चर्म तदेव वस्त्रं यस्याः सा तथा पुनः fravi बिभीतकस्थामिति विभीतके कलिदुमे तिष्ठतीति विभीतकस्था तां । पुनः कीदृशीम् अतिभीमरूपामिति अतिशयेन भीमं भीषणं रूपं यस्याः सा तथा ॥ २१ ॥ युग्मम् ॥ अधोमुखीति ॥ शिवामभ्यच्येति शेषः । शिवादूती अनुचिंतनीयेत्यन्वयः । कीदृशी अधोमुखीति अधः मुखं यस्याः सा । स्वांगाद्वेतीप् ॥ पुनः कीदृशी घोररवेति घोरः भयोत्पादकः रवः शब्दो यस्याः सा । पुनः किं कु ॥ भाषा ॥ स्थित और मनुष्यनके कपाल ते हैं हाथमें जाके और फिर शूल जो त्रिशूल सोहै आयुध जाके और भस्मकरके श्वेत है अंग जाको; तैसे ही फिर उलूक जे घुग्घू ताको है चिह्न जाके, ऐसी और नरमुंडन की है माला जाके और नहीं है मांस जाके और रुधिरकूं पान कररही और रुधिर नाडी इनकरके चर्चित है श्याम देह जाको और करींद्र जो श्रेष्ठ हाथी और पंचानन जो सिंह इनको चर्म सोई है वस्त्र जाके और तैसे ही फिर बिभीतकं जो बहेड़ेका वृक्ष तामें स्थित ऐसी और अतिशयकरके भयंकर रूप जाको ऐसी जो चंडी ताय स्मरण करे ॥ २० ॥ २१ ॥ अधोमुखीति ॥ शिघा जो फिर नीचो मुख जाको भयंकर शब्द जाको और ज्वाला अग्निकी Aho! Shrutgyanam गाली ताय पूजन करके मुखमें उठरही Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) वसंतराजशाकुने - तृतीयो वर्गः । यः शाकुनज्ञानमुनिर्विशेषादभ्यर्चनीयः शकुनेक्षणाय ॥ तं पूजयेत्तत्र भवत्यभीष्टमाचार्यवर्ये परितोषिते हि ॥ २३ ॥ कृतांजलिर्भूमिनिविष्टजानुमूर्ध्ना प्रणम्य त्रिदशाधिपादीन् ॥ यथावदभ्यर्चनतोषिताय पूजां समस्तां गुरखे प्रदद्यात् ॥ ॥ २४ ॥ भोजयेदथ गुडाज्यपायसैः श्रद्धया कतिपयाः कुमारिकाः || आत्मनापि विदधीत भोजनं तद्गुरुस्वजनबंधुभिः समम् ॥ २५ ॥ ॥ टीका ॥ ती वहन्ती किं वदनं कीदृशं ज्वालाकरालमिति ज्वालया करालं विकृताकारं पुनः कीदृशी सप्तभिः स्तनंधयैः अभ्युपेता सप्तसंख्याकै पुत्रैः अभ्युपेता समन्विता ॥ बालः पाकः शिशुभिः पोतः शावः स्तनंधयः ॥ इति हैमः ॥ २२ ॥ य इति ॥ यः शाकुनज्ञानमुनिः स विशेषादभ्यर्चनीयो भवति । कस्मै अतः शकुनेक्षणाय शकुनविलोकनार्थं तत्रेति तस्मिन् स्थले तं शकुनाचार्ये पूजयेत् । हि यस्मात्कारणादाचार्यवर्ये परितोषिते सति अभीष्टं वांछितं भवति ॥ २३ ॥ कृतांजलिरिति ॥ समस्तां पूजां गुरवे दद्यात् कीदृक्कतांजलिरिति कृतोंजलियेन स तथा । पुनः कीद्वन् भूमिनिविष्टजानुरिति भूमौ निविष्ठे जानुनी यस्य स तथा । किं कृत्वा प्रणम्य नमस्कृत्य कानू त्राधिपादील्लो कपालानिंद्रादीन्दिक्पालान् केन मूर्ध्ना शिरसे त्यर्थः । कथंभूताय गुरवे यथावदभ्यर्चनतोषितायेति यथावद्यथाशास्त्रोपदिष्टं यदभ्यर्चनं पूजनं तेन तोषितस्तुष्टि प्राप्तः तस्मै । कीदृशीं पूर्जा समस्तामिति समग्राम् ॥ २४ ॥ भोजयेति ॥ अथेति पूजानंतरं कतिपयाः कियंत्यः कुमारिकाः गु ॥ भाषा ॥ और सातपुत्रनकरके संयुक्त ऐसी शिवादूतीकूं चिंतमनकरे ॥ २२ ॥ शकुनके देखवेके लिये पहले शाकुनज्ञानमुनि विशेष कर पूजवेके योग्य हैं ताही समयमें शकुनज्ञानके आचार्य अपने गुरु उनको पूजन करै आचार्यके प्रसन्न हुये सुवांछित फल होय ॥ २३ ॥ कृतांजलिरिति ॥ हाथ जोड पृथ्वी में जानु टेक मस्तक नमाय स्वर्गादिकनके स्वामी लोकपालदेवता तिनें नमस्कारकरके फिर शास्त्रमें कह्यो पूजन ता करके प्रसन्न हुये गुरू तिनके अर्थ समप्र पूजा निवेदन करे ॥ २४ ॥ भोजयेदिति ॥ पूजाके अनंतर खांड सक्कर घृतसहित पायस Aho! Shrutgyanam Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) अर्चनविधिप्रकरणम् ३. ततो रजन्यां समुदीर्य मंत्रंध्यात्वाऽथ सर्वान्विधिनोदितेन॥ विचार्य कार्य मनसा समस्तं शयीत भूमौ विजने व्रतस्थः॥ ॥ २६ ॥ ततः प्रयत्नादधिवासितस्य यास्मनिवासः शकुनस्य यस्य ॥ प्रातःप्रदेशं समुपेत्य तस्य चेष्टाभिरूहेत सुधीः स्वकार्यम् ॥ २७ ॥ यद्वा शुचिः शाकुनशास्त्रमेतदभ्यर्च्य यत्नादधिवास्य सम्यक् ॥ प्रयोजनं स्वं प्रतिपाय चास्मै हविष्यभोजी विजने शयीत ॥२८॥ ॥ टीका ॥ डाज्यपायसैरिति भोजयेत् भोजनं कारपेत् गुडः इक्षुविकारः आज्यं सर्पिः ताभ्यां युक्तानि पयासि तैः करणभूतैः कया श्रद्धयेति शुद्धाध्यवसायेनेत्यर्थः । आत्मनापि तद्भोजनं विदधीत कथं सह । कैः गुरुस्वजनबंधुभिरिति गुरुः शकुनज्ञानोपदेशकृत स्वजनाःसंबंधिनः बंधवोभ्रातरः एतेषां वंदः तैरित्यर्थः॥२५॥ तत इति ॥ रजन्यां विजने रहसि भूमौ शयीत शयनं कुर्वीताकीदृशः व्रतस्थः ब्रह्मचारी किं कृत्वा उदीर्य उच्चार्य पूर्वोक्त मंत्रमथशब्दश्वार्थः। पुनः उदितेन कथितेन विधिना सर्वान् लोकपालादीन् ध्यात्वा।पुनः किं कृत्वा मनसा समस्तं कार्य विचार्य ॥२६॥ तत इति ॥ ततः शयनोत्थानानंतरं प्रयत्नादधिवासितस्य निमंत्रितस्थ शकुनस्य यस्य यस्मिन्वृक्ष निवास: स्यात्मातः तान् प्रदेशान् गृहान्समुपत्य तस्य शकुनस्य चेष्टाभिः स्वकीयकार्यमूहेत विचारयेसुधीः पंडितः। "गंधमाल्यादिना यस्तु संस्कारः सोऽधिवासितः" ॥ इति हैमः।।२७॥यदेति ॥ पक्षांतरसूचनार्थों वा शब्दः विजने शयीते ॥ भाषा॥ जो क्षीर इन पदार्थन करके श्रद्धापूर्वक कन्या कुमारी भोजन करावे फिर शकुनके उपदेश कर्ता गुरु और भैया बंधु सहित आप भोजन करे ॥ २९ ॥ तत इति ॥ फिर रात्रिमें शयन करती समय पहिले कह आये जो मंत्र ताय उच्चारण करके कह्यो जो विधान ताकरकै संपूर्ण देवतानको ध्यानकरके समस्त अपनो कार्य ताय विचार करके फिर निर्जन भूमिमें शयन करे ॥ २६ ॥ तत इति ॥ सोयके उठे पछि प्रातःकाल यत्नते गंधमाल्यादिक करके पूजा न कियो जो शकुन ताको जा वृक्षमें निवास होय सा वृक्षके समीप आय करके विवेकी शकुन चेष्टानकरके अपने कार्यकू विचार ॥ २७ ॥ यदेति ॥ यामें दुसरो पक्षहै हविष्या. Aho! Shrutgyanam Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) वसंतराजशाकुने - तृतीयो वर्गः । प्रातः प्रपूज्याथ निवेद्य कार्ये विमुच्य विश्लेषितपत्रपंक्तौ ॥ बालस्य पार्श्वदथ वा कुमार्याः प्रक्षेपयेदत्र पुमानिषीकाम् ॥ २९ ॥ दृश्येत यः कश्चिदखंडतादिश्लोकस्ततस्तत्र विमृश्यमाने ॥ शुभोऽशुभो वा खलु यादृगर्थस्तादृक्स्व कार्येऽपि विभावनीयः ॥ ३० ॥ ॥ टीका ॥ त्यन्वयः । सुधीरिति शेषः । कीदृक् हविष्यभोजीति हविष्यं धर्मशास्त्रोक्तं व्रीह्यादि तद्भुक्त इत्येवंशीलः स तथा । पुनः कीदृक् शुचिः पवित्रः किं कृत्वा अभ्यर्च्य किं शाकुनशास्त्रं कीदृशं तत्प्रत्यक्षोपलभ्यमानम् । पुनः किं कृत्वा सम्यक् अधिवास्य निमंत्र पुनः किं कृत्वा स्वं प्रयोजनमात्मीयं कार्यं प्रतिपाद्य तदग्रे कथयित्वेत्यर्थः ॥ ॥२८॥ प्रातरिति ॥ तत्र पुमान् विलोकयेत् । किं कृत्वा प्रपूज्य किं तत्पुस्तकमिति शेषः । कदा प्रातः प्रत्यूषे अथेति पूजानंतरं पुनः किं कृत्वा निवेद्य प्रतिपाद्य किं कार्यम्। पुनः किं कृत्वा विमोच्य किं इषीकां शलाकाम् । “इषीकातूलिकेषिका इति हैमः। कस्माद्वालस्य पार्श्वादथेति पक्षांतरद्योतनार्थः । कुमार्याः पाश्वाद्वा कस्यां विश्लेषित पत्रपंक्तौ विश्लेषिता पृथकृता या शाकुनशास्त्रपत्राणां पंक्तिः श्रेणिस्तस्यां क्वचित्प्रक्षेपयेदित्यपि पाठः ॥ २९ ॥ दृश्येतेति ॥ यः कश्चिदखंडितादिश्लोकः तत्र दृश्यते । ततः इति तस्माद्धेतोः तस्मिन् विमृश्यमाने खलु निश्चयेन शुभोऽशुभो वा यादृगर्थः ॥ भाषा ॥ न जो मूंग भात सो तो भोजन करे फिर रात्रि में पवित्र होय करके ये जो शकुनशास्त्र है ताको पूजन करके अपनो प्रयोजन याके अगाडी कहके कोई मनुष्य वहां होय नहीं फिर सोय जाय ॥ २८ ॥ प्रातरिति ॥ फिर प्रातः काल उठ करके पुस्तककी पूजा करे तापीछे अपनो कार्य कहँ मेरो फलानो कार्य है ऐसे कहके फिर बालकके या कन्या के हाथमें शलाका देवा शलाका सूं पुस्तक खुलाय करकै शलाका जा पत्र पंक्ति में स्थित होय, तहां अवलोकन करना ॥ २९ ॥ दृश्येतेति ॥ ता पत्र पंक्ति में जो श्लोक खंडित वा पूर्ण दखेि तो उतने ही निश्वयकर शुभ वा अशुभ विचार करे जैसो वाको अर्थ होय तैसोही अपनो का - Aho! Shrutgyanam Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४. (३५) अर्चनं विदधतां यथोदितं प्रीतये शकुनदेवता नृणाम् ॥तेन जल्पति न सा वरप्रदा पूर्वकर्मफलपाकमन्यथा ॥३१॥ इति श्रीवसन्तराजशाकुने अर्चनविधिस्तृतीयो वर्गः॥३॥ संप्रति मिश्रितशकुनविचारश्चारुतरः सकलागमसारः॥ क्रियतेसाविह शास्त्रे येन स्यादधिकारी हृदयगतेन ॥ १॥ ॥ टीका ॥ स्यात्स्वकार्यस्य ताहा निर्णयो विभावनीयः विचारणीयः ॥ ३० ॥ अर्चनामिति ॥ यथोचितमर्चनं पूजनं विदधतां कुर्वतां नृणां शकुनदेवता प्रीतये भवति तेन कारणेन सा पूर्वकर्मफलपाकमन्यथा वैपरीत्येन न जल्पति । कीदृशी वरप्रदा वांछितदात्री। ॥ ३१॥ वसंतराजेति ॥ मयार्चने विधिः रचनाविशेषः विचारितः। कस्मिन् वसन्तराजाभिधाने शास्त्रे शेषं पूर्ववत् ॥ इति शर्बुजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रविरचितायां वसंतराजटीकायां तृतीयो वर्गः ॥ ३ ॥ संप्रतीति।। संप्रति मिश्रकशकुनविचारः क्रियते मयेति शेषः । कीदृक् चारुतरः अतिशयेन शुभ इत्यर्थः।पुनः कीदृक् शकुनागमसार इति शकुनज्ञानेषु शकुनशास्त्रेघु सारः प्रधानः। पुनः कीदृग असाविति विप्रकृष्टःयेन विचारेण हृदयगतेन चेतसि धृतेन पुमानिह शास्त्र अधिकारी स्यात् । एतच्छास्त्रप्रवर्तकः स्यादित्यर्थः ॥१॥ ॥ भाषा॥ र्पको निर्णय चिंतमन करनो योग्य है ॥ ३० ॥ अर्चनमिति ॥ यथायोग्य पूजनके करवेवाले मनुष्यनके ऊपर शकुनदेवता प्रसन्न होय है, ताकारण करके शकुनाधिष्ठात्री देवी वांछितवरके देवेवारी सो- पूर्व कर्मके फलको उदय विपरीत नहीं कहै. जैसो होय तैसोही कहै है ॥ ३१ ॥ इति श्रीजटाशंकरसुनुश्रीधरविरचितायां वसंतरानशाकुनभाषाटीकायामर्चनविधिर्नाम तृतीयो वर्गः ॥ ३ ॥ संप्रतीति ॥ सब मिलवां शकुनको विचार करू हूं कैसो है यो विचार बहुत अतिशुभहै, और शकुनके शास्त्रनमें मुख्य है, और या विचारकू हृदयमें राखै तो या शास्त्रमें अधि Aho! Shrutgyanam Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) वसंतराजशाकुने - चतुर्थी वर्गः । साथै प्रधानं शिविरे नरेशं स्वमात्मकार्ये नगरे च देवम् ॥ विद्यावयोजात्यधिकांश्च साम्ये निर्दिश्य पश्येच्छकुनान्यभिज्ञः ॥ २ ॥ एकत्र सार्थे व्रजतां बहूनां यो यादृशं पश्यति दैवयोगात् ॥ श्यामादिकानां शकुनं स तादृक्फलं नरो विंदति निर्विकल्पम् ॥ ३ ॥ तुल्येपि जाते. शकुने नराणामालोक्यते योऽत्र फलस्य भेदः ॥ स प्राणसंचारकृतो विशेपस्तत्प्राणगत्या शकुनो गवेष्यः ॥ ४ ॥ ॥ टीका ॥ सार्थ इति ॥ अभिज्ञः पंडितः साथै जनसमूहे प्रधानं मुख्यजनं निर्दिश्य उद्दिश्य शकुनानि पश्यत् शिबिरे स्कंधावारस्थितौ नरेशमाश्रित्य तानि शकुनानि पश्येदिति सर्वत्रान्वयः । “वरूथिनी चमूश्चकं स्कंधावारोऽस्य तु स्थितिः। शिविरम् । " इति हैमः ॥ आत्मकार्ये स्वनगरे च देवं तन्नायकमुद्दिश्य साम्ये तुल्यत्वे च विद्यावखोजात्यधिकानिति विद्या शास्त्राभ्यासः । वयः बाल्यकौमारादि । जातिः क्षत्रियादिः एताभिः येप्यधिकास्तानुद्दिश्य पश्येदित्यर्थः ॥ २ ॥ एकत्रेति एकस्मिन् सार्थे बहूनां व्रजतां दैवयोगात् शुभाशुभदृष्टयोगात् यः यादृशं श्यामादिकानां शकुनं पश्यति नरस्तादृक्फलं विन्दति प्राप्नोति । निर्विकल्पमिति निर्गतो विकल्पः संशयः संशयलक्षणो यत्र तत्तथा निश्चयेनेत्यर्थः ॥ ३ ॥ तुल्येपीति ॥ तुल्येपि सदृशेपि ॥ भाषा ॥ कारी होय अर्थात् शास्त्रको प्रवर्तन करनेवालो होय ॥ १ ॥ सार्थ इति ॥ शकुनका जानवेवारो विवेकी सार्थ जो यात्रीनको समूह तामें मुख्य प्रधानहोय ताको उद्देश्य करके शकुनकूं देखे, और शिविर जो राजसेनादिक तिनमें राजाको उद्देश्य करके शकुन देखे, और अपनो ही शकुन होय तामें अपनोही उद्देश्य करके शकुन करै, और नगरमें जो नगरको नायक होय ताको उद्देश्य करके शकुनदेखे, साम्य कहिये समान होय तो उनमें जो शामें अधिक होय अवस्था में अधिक होय जातिनें अधिक होय ताको उद्देश्य करके शकुनदेखे ॥ २ ॥ एकत्रेति ॥ एक सार्थक जो यात्रीनको समूह तामें बहुतसे आदमी गमन के करवेवारे उनमें दैवयोगसूं जो जैसो श्यामादिकनको शकुन देखे षोही मनुष्य निःसंदेह निश्चय करते सोही फल प्राप्त होय ॥ ३ ॥ तुल्येपीति । और जो शकुन सब समूहक Aho! Shrutgyanam Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४. ( ३७) भवेदिडायां परिपूरितायां सर्वोपि वामः शकुनः प्रशस्तः ॥ स्यात्पिगलायां परिपूरितायां सर्वोऽपसव्यःशकुनः प्रशस्तः॥ ॥५॥जात विरुद्धे शकुनेऽध्वनीनो व्यावृत्य कृत्वा करपादशौचम् ॥ आचम्य च क्षीरतरोरधस्तात्तिष्ठन्प्रपश्येच्छकुनांतराणि ॥६॥ ॥ टीका ॥ शकुने जाते योत्र फलस्य भेदः जनानामालोक्यते लक्षणो विशेषःप्राणसंचारकृत इति नासाग्रहन्नाभिषु वर्तमानो वायुः प्राणस्तस्य संचारः इडापिंगलयोः परिभ्रमणं तेन कृतो जनितस्तत्तस्मात्कारणात्माणगत्या शकुनो गवेष्यः विलोकनीयः। प्राणवायोर्गतिर्गमनं तया । रिक्तपूर्णनाडिकानुसारेण शकुनस्य फलं विचार्यमित्यर्थः ॥ ॥४॥ भवेदिति इडायां चंदनाड्यां परिपूरितायां वहमानायां वामः वामभा- । गायवर्ती सर्वोपि शकुनः प्रशस्तो भवेत् पिंगलायां सूर्यनाडयां परिपूरितायामपसव्यः दक्षिणभागायवर्ती सर्वः प्रशस्तः। "रिक्तायां तुच्छफलः। पूर्णायां विरुद्धोपिनिष्फलारिक्तायामनभीष्टमहते त्वनाय" इति ग्रंथांतरादवसेयम्॥५॥जात इति।। अध्वनीनः पाथः पुनःशकुनांतराणि प्रपश्येत्। किं कृत्वा व्यावृत्य पश्चादागत्य कस्मिन् सति विरुद्ध शकुने जाते सति । पुनः किं कृत्वा करपादशौचं करपादयोः हस्तचरणयोःक्षालनं कृत्वा पुनः किं कृत्वा आचम्य आचमनं जलस्य विधाय किं कुर्वन् ॥ भाषा॥ समान हुयो तो यामें फलको भेद देखनो चाहिये कैसे इडा पिंगलाको बहनोकि इडा चलै है कि पिंगलाचले है वा खाली है कि पूर्ण है ऐसे नाडीके अनुसारकरके फलको विचार करनो योग्य है ॥ ४ ॥ भवेदिति ॥ इडा जो चंद्रनाडी पूर्ण बहरही होय तो वामभागमें जितने शकुन होय ते सबही शकुन शुभ जानने और पिंगला जो सूर्यनाडी पूर्ण वहरही होय तो दक्षिणभागके संपूर्ण शकुन शुभ जानने और जो दोनों नाडी खाली होय तो तुच्छ फल जाननो और जो दोनोंही नाडी बहरही होंय तोभी निष्फल जाननो ॥ ५ ॥ ॥ जात इति ॥ मार्गको चलवेवारो मनुष्य है जो कोई शकुन देखै और वो शकुन विरुद्ध होय तो पीछो बगद करके हाथपाँव धोयकरके फिर जलसूं आचमन करके Aho! Shrutgyanam Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराज शाकुने - चतुर्थी वर्गः । निटे शाकुनेऽष्टौ विदध्यात्प्राणायामाद्विगुणांस्तु द्वितीये ॥ यात्रां मुक्त्वा भवनं स्वं प्रवासी प्रत्यागच्छेत्प्रतिकूले तृतीये ॥ ७ ॥ कोशांतरे यद्यकदर्थनाया जातं तदा तच्छकुनं फलाय ॥ क्रोशात्परं निष्फलमाहुरन्ये केचिच्चि - रं स्वल्पफलं वदंति ॥ ८ ॥ ॥ टीका ॥ तिष्ठन्नत्र अधस्तात् कस्य क्षीरतरोः ॥ ६ ॥ आद्येनिष्ट इति ॥ आद्येऽनिष्टे विरुद्धे शकुने अष्टौ प्राणायामान् विदध्यात् । प्राणायामो नाम श्वासरोधनं यदाह । “प्राणायामः प्राणयमः श्वासप्रश्वासरोधनम्" इति हैमः । द्वितीये विरुद्धे तु पुनः द्विगुणान् षोडश प्राणायामान् प्रकुर्यादिति शेषः । तृतीये विरुद्धे प्रवासी यात्रां संचलनश्रमं मुक्त्वा स्वभवनं प्रत्यागच्छेत् । व्यावृत्त्य यायादित्यर्थः । यदाह श्रीपतिः । “आद्ये विरुद्धे शकुने प्रतीक्ष्य प्राणानृपः पंच षट्चाथ यायात् ॥ अष्टौ द्वितीये द्विगुणांस्त्रितीये व्यावृत्य नूनं गृहमभ्युपेयात् ।" इति रत्नमालायाम् ॥ ७ ॥ कोशांतर इति ॥ यदि अकदर्थनायाः हरिण्याः कोशांतरे क्रोशमध्ये जातं तच्छकुनं फलाय अन्ये आचार्याः क्रोशात्परं निष्फलमाहुः । केचिच्छकुनेभ्यो हि फलावश्यंभावं मन्यमा : (३८) ॥ भाषा ॥ फिर जा वृक्षमेंसूं दूध निकलतो होय वा वृक्षके नीचे स्थित होय ॥ ६ ॥ आद्ये निष्टे इति ॥ जो मनुष्य अपने स्थानसं चलै और वाकूं पहलेही शकुन अनिष्ट होय तो आठ प्राणायाम करके फिरचले और दूसरोभी अनिष्ट शकुन होय तो फिर दूने प्राणायाम करे और जो फिर तीसरे वी विरुद्ध शकुन होय तो यात्रा छोडकरके अपने घरकूं पीछो आय जाय ॥ ७ ॥ क्रोशांतर इति ॥ जो मार्ग में कोशभर के मध्य में हरिणादिक करके शकुन होय तो वो शकुन फलके अर्थ है और आचार्य ये कहे हैं एक कोशते परे जो ये शकुन होंय तो निष्फल हैं ओर कोई आचार्य शकुनतेही आवश्यक फल होयहैं ये माने हैं ते य कहैं हैं कोशभरसूं अगाडी दूरभी चलके जो शकुन होय तो चिरकालमें और अल्प Aho! Shrutgyanam Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रित प्रकरणम् ४. (३९) रक्षामविघ्नं धनभृत्यवृद्धिं सिद्धिं तथारोग्यमनिष्टनाशम् ॥ संमानितो यच्छति येन यस्मान्नोलंघ्य यायाच्छकुनं विरुइम् ॥ ९ ॥ आद्ये प्रयत्नं शकुने विदध्यात्सिद्धिस्तथा तत्र यतो नराणाम् ॥ कृते प्रवासे शकुनो विरुद्धो यस्मि न्भवेत्तत्र दिने न गच्छेत् ॥ १० ॥ समीपभूतैरचिरेण सिद्विश्विरेण दूरे शकुनैः प्रजातैः ॥ स्वस्थानसंस्थैर्बलिभिः स्वकाले जातैः फलं सम्यगसम्यगन्यैः ॥ ११ ॥ ॥ टीका ॥ नाः चिरकालेन स्वल्पं फलमित्याहुः ॥ ८ ॥ रक्षेति ॥ येन कारणेन संमानितः शकुन एतान् यच्छति ददाति । एतान्कानित्याह । रक्षामिति शरीरस्येति शेषः । अत्र विघ्नमिति अंतरायापगमः धनभृत्यवृद्धिमिति धनं द्रव्यं भृत्याः सेवाकृतः तेषां वृद्धिः वर्धनं सिद्धिः निष्पत्तिः स्वसमीहितकार्यस्येति शेषः । तथारोग्यं नीरोगता अनिष्टनाशमिति अनिष्टस्य अनभिलषितस्य नाशः तस्मात्कारणाद्विरुद्धं शकुन मुल्लंघ्यनो या यात्॥९॥ आद्ये इति ॥ गृहनिर्गमनानंतरमेव शुभे जाते शकुने गमनाय प्रयत्नं कुर्यादित्यर्थः यतः यस्मात्कारणात्तथा सति शुभे शकुने सतीत्यर्थः । तत्रेति तस्मिन् प्रयाणे सिद्धिः स्यात् तथा कृते प्रवासे गमने विरुद्धः शकुनः यस्मिन् दिने भवेत् दिने तत्रेति तस्मिन्दिने न गच्छेत् । आक्रुध्य कार्ये तु वारत्रयं विलोकनीय इति पूर्वमेव प्रतिपादितम् ॥ १० ॥ समीपेति ॥ समीपभूतैः ग्रामनिर्गमनानंतरं ग्राम ॥ भाषा ॥ फलवान् कार्य होय ॥ ८ ॥ रक्षामिति ॥ जा मनुष्य करके सन्मान करोगयो शकुन इतनी वातनकूं करे है कौनसी देहकी रक्षा और निर्विघ्नता और धन और सेवा के करनेवाले इनकी वृद्धि और सिद्धि अपने समान हितकारी और आरोग्यता अनिष्टको नाश इतनी बातें करे हैं याते विरुद्ध जो शकुन ताकूं उल्लंघन करके नहीं गमन करें ॥ ९ ॥ आद्ये इति ॥ घरसूं निकसे पीछे जो शकुन होय तो शीघ्र ही गमन करजाय जो शुभशकुन होय तो वा यात्रामें तत्काल सिद्धि होय निश्चय और गमन करे पै शकुन विरुद्ध होय तो वा दिनागमन न करे पूर्व कह्यो जैसे तीन पोत अवलोकनकरनो योग्य है सो रीति पहले कही है १० ॥ समीपेति ॥ जा मनुष्यकूं ग्रामते निकसतेंही तत्काल हुये जे शकुन तिन करके Aho | Shrutgyanam Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) वसंतराजशाकुने-चतुर्थी वर्गः । प्रावेशिकः स्यात्प्रथमं ततस्तु प्रस्थानशंसी यदि तन्नराणाम् ॥ सुखेन सिद्धिः कथिता प्रवासे व्यत्यासभावान्नगरपवेशे ॥ १२ ॥ भंगे रणे कर्मणि च प्रवेशे शुक्कुग्रहे नष्टविलोकने च ॥ व्याधौ सद्दुर्गभयादिकेषु शस्तः प्रयाणाद्विपरीतभावः ॥ १३ ॥ ॥ टीका ॥ समीपे तत्कालोत्पन्नैः शकुनैः अचिरेण स्तोककालेन सिद्धिः दूरे शकुनैः प्रजातैः ग्रामाद्दूरभूतैः शकुनैः चिरेण चिरकालेन सिद्धिस्तत्र स्वस्थानसंस्थैरिति स्वयं यत्स्थानं क्षेत्रं तत्र स्थितैर्बलिभिः बलयुक्तैः स्वकाले जातैरिति येषां यः कालः तत्रोद्भूतैःशनैः सम्यग् शोभनं फलं स्यात् ततोन्यैः विपरीतैः असम्यग् अशोभनं फलमिति ॥ ११ ॥ प्रावेशि इति ॥ प्रवासे गमने यदि प्रथमं प्रावेशिक ग्रामप्रवेशां चितशकुनः स्यात् तदुपरि यदि प्रस्थानशंसीति प्रस्थानसमयोचितः शकुनः स्यात्तदा नराणां सर्वत्र सुखेन अनायासेन सिद्धिः कथिता मुनिभिरिति शेषः । नगरप्रवेशे व्यत्यासभावादिति प्रथमं प्रस्थानशंसी ततः प्रावेशिकः स्यात्तदा पूर्ववत्कार्यसिद्धिः कथिता ॥ १२ ॥ भंगे इति ॥ एतेषु कार्यविशेषेषु शकुनानां प्रयाणागमनाद्विपरीतभावः शस्तः। अयं भावः गमने प्रास्थानिकाः विलोक्यते यदि भवंति प्रावेशिका ॥ भाषा ॥ कार्यकी शीघ्रही सिद्धि होय और जो दूर गये पै शकुन होंय तो विलंब करके कार्यसिद्धि जानवो अपने स्थानमें स्थित होय बलयुक्त होय समय में हुये शकुनन करके शोभन फल होय और इनते विपरीत शकुननकरके शुभ फल नहीं होय ॥ ११ ॥ प्रावेशिक इति ॥ गमनमें जो प्रथम ग्राम प्रवेशके उचित शकुन होय और फिर दूसरे गमन समय के उचित शकुन होय तो मनुष्यकूं मुनिनने श्रमकरे विनाई सब सिद्धि होंय ये कह्यो है और नगरमें प्रवेश होती समय में विपरीत होंय अर्थात् पहले गमन समयके उचित शकुन होंय और तापीछे प्रवेश समयके उचित शकुन होंय तो पूर्व कीसीनाई विना श्रम करेही कार्यसिद्धी कही है ॥ १२ ॥ भंगे इति ॥ पराजयमें, संग्राममें, अत्यंत क्रूर कर्ममें, प्रबेशमें, और नवीन मंडपमें, और राजा प्रसन्न होयके द्रव्यदेवे ताके ग्रहण समयमें, और गई वस्तुको ढूडनो ता 4 Aho ! Shrutgyanam Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४. (४१) वामापसव्यौ शकुनौ प्रशस्तौ यातौ पुरः पृष्टगतावशस्तैः॥ यातुर्विनाशप्रतिपादनार्थों क्रियाप्रदीप्तौ परिवाभिधानौ ॥ ॥१४॥ नित्यं नभस्यंभसि भूमिभागे ग्रामेष्वटव्यां दिवसे निशायाम् ॥ अहर्निशं चापि पतत्रिणो ये चरंत ते लोकत एव लक्ष्याः ॥ १५ ॥ नपुंसकत्रीपुरुषा विहंगा यथोत्तरं स्युर्बलिनः समस्ताः ॥ तेषां च भेदत्रयलक्षणाय श्लोकाविमौ शाकुनिकाः पठति ॥ १६॥ ॥ टीका ॥ स्तदा शुभामिति केषु भंगे पराजये रणे संग्रामे कर्मणि अत्यंतरे प्रवेश शुल्कग्रहे शुल्कं मंडपिकायां राजदेयं द्रव्यं तद्रहणकाले नष्टविलोकने गतवस्तनो विलोकने व्याधौ आमये नद्युत्तरणे भयादौ शंकादौ आदिशब्दादुर्गशत्रुसंकटादयो गृह्यते ॥ १३॥ वामेति ॥ यातुः पुंसः वामापसव्याधिति वाम दक्षिणभागस्यौ शनौ प्रशस्ती शुभावित्यर्थः । पुरः पृष्ठगतावशस्तावशुभावित्यर्थः । क्रियाप्रदीप्तौ परिष भिधानावने वक्ष्यमाणो यातुः विनाशपतिपादनमेव अर्थः प्रयोजनं ययोस्तौ तथा विनाशकरौ कथितौ ॥ १४ ॥ नित्यमिति ॥ ते पतत्रिणः पक्षिणो लोकत एवं जनप्रवादादेव लक्ष्याः लक्षणीया ज्ञातव्या इाते यावताते के ये नित्यं नभसि अंतरिक्ष अंभसि पानीये भूमिभागे ग्रामेषु अटव्यामरण्ये दिवसे वासरे निशाया रजन्याम् अहर्निशमहोरात्रं वा चरन्ति गच्छति ॥ १५ ॥ नपुंसकति ॥ नपुंसकस्त्रीपुरुषाः नपुं ॥ भाषा ॥ समयमें, रोगमें, और नदीके उतरवेमें, और दुर्ग शत्रुसंकटादिक भयादिक इन कार्यनमें शकुननकं प्रयाणतेमें विपरीत भावता प्रशस्त है इनमें शकुन शुभही है ॥ १३ ॥ वामेति ॥ गमनकरवेवारे पुरुषकू बांए दहिने भागमें जे शकुन ते शुभ है और आगे पीछेके शकुन अशुभ हैं और कियाप्रदीप्त परिधनाम ये अगाडी क गे. ये दोनों गमन करनेवाले नाशके करवेवाले शकुन कहे हैं ॥ १४ ॥ नित्यमिति ।। जे पक्षी आकाशमें, जलमें, पृथ्वीमें, -प्रामनमें, वनमें, दिनमें, रात्रिमें, निरंतर रात्रि दिन विचरोही करे हैं उन पक्षिन; मनुष्यनते जाननो योग्य है ॥ १५ ॥ नपुंसकति ॥ नपुंसकसंज्ञक और स्त्रीसंज्ञक और पुरुषसंज्ञक Aho! Shrutgyanam Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) वसंतराजशाकुने-चतुर्थो वर्गः। पीनोन्नतविकृष्टांसाः पृथुग्रीवाः सुवक्षसः ॥ स्वल्पगंभीरवि. रुताः पुमांसः स्थिरविक्रमाः॥ १७॥ तनुग्रीवाः कृशस्कधाः सूक्ष्मास्यपदविक्रमाः ॥ प्रसन्नमृदुभाषिण्यः स्त्रियोतोन्यत्रपुंसकम् ॥ १८॥ ॥ टीका॥ सकाश्च स्त्रियश्च पुरुषाश्च नपुंसकत्रीपुरुषाः इतीतरेतरद्वंद्वः।विहंगाः पक्षिणः यथोत्तरं बलिनः स्युः समस्ताः समग्राः नपुंसकेभ्यः स्त्रीणां बलाधिक्यं ततः पुरुषाणामिति तात्पर्य तेषां पक्षिणां नपुंसकस्त्रीपुरुषभेदत्रयलक्षणाय ज्ञापनाय इमौ वक्ष्यमा णौ श्लोकौ शाकुनिकाः शकुनवेत्तारः पठन्ति ॥ १६ ॥ पीनोन्नतेति ॥ एवंविधाः पतत्रिणः पक्षिणः पुमांसः पुरुषाः परिकीर्तिता बुधैराित शेषः।कीदृशाःपीनोव्रतविकृष्टांसा इति पीनौ पुष्टौ उन्नतौ उच्चैस्तरौ विकृष्टौ अंसौ बाहुमूले येषां ते तथा । पुनः कीदृशाः।पृथुग्रीवा इति पृथवः विस्तीर्णा ग्रीवा कृकाटिका येषां ते तथा। पुनः कीदृशाः सुवक्षस इति सुष्ठु शोभनं वक्षः येषां ते तथा। पुनः कीदृशाः स्वल्पगंभी. रविरुता इति स्वल्पं स्तोकं गंभीरं भद्रं विरुतं शब्दो येषां ते तथा ॥ १७॥ तनुग्रीवा इति ॥ एवंविधलक्षणलक्षिताः स्त्रियः स्युः। कीदृश्यः तनुग्रीवा इति । तनुस्तुच्छा कृकाटिका कंधरा यासां ताः कृशस्कंधा इति कृशः दुर्बलः स्कंधो यस्याः सा तथा|सूक्ष्मास्यपदविक्रमा इति सूक्ष्ममुपचयरहितमास्यं मुखं यासां ता. स्तथा न विद्यते पदेषु विक्रमः पराक्रमो यासां ताः पश्चात्कर्मधारयः । प्रसन्नमूदु ॥ भाषा ॥ ये तीन प्रकारके पक्षी हैं नपुंसकनते स्त्री संज्ञक श्रेष्ठ हैं और स्त्रीसंज्ञकनसूं पुरुषसंज्ञक श्रेष्ठ हैं इनपक्षिनके ये नपुंसक स्त्री पुरुष तीनों भेदनके जितायबेके लिये आगे कहेंगे जो श्लोक तिने शकुन वेत्ता कहहैं ॥ १६ ॥ पीनोन्नत इति ॥ पुष्ट और ऊंचे और दृढ ऐसे जिनके कंधा होंय और पुष्ट जाके कंठ होय और सुंदर जिनको वक्ष्यस्थल होंय और बहुत अल्प और गंभीर मंदमंद जिनके शब्द होंय ऐसे पक्षीनकी पुरुषसज्ञा विवेकीने कहीहैं ॥ १७ ॥ तनुग्रीवा इति ॥ तुच्छकृश जिनकी ग्रीवा होय और कृश जिनके कंधा होंय और सूक्ष्म जिनके मुख होय और पावनमें पराक्रम जिनके नहोय वा होलहोले पाँवध और प्रसन्न और कोमलवाणी Aho ! Shrutgyanam Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४. (४३) जातिस्वरस्थानबलप्रमोदैर्जवेनसत्त्वेन तथाऽऽनुकूल्यात्।। दिकालतिथ्यादिकहंसचारैर्बलाबलं प्राणभृतां परीक्ष्यम् ॥१९॥ ॥ टीका॥ भाषिण्य इति प्रसन्नं मृदु भाषितुं शीलं यासांताः तथा। अतः अस्मात् एतयोः स्त्रीपुरुषयोरन्यन्नपुंसकं भवतीति भावार्थः ॥ १८ ॥ जातीति ॥ प्राणभृता शकुनानां, बलावलं परीक्ष्यं विचारणीयमित्यर्थःकैः जातिस्वरस्थानवलप्रमोदैरिति अत्र जा. तिश्च स्वरश्च स्थानं च बलं च प्रमोदश्च जातिस्वरस्थानबलप्रमोदास्तैः इतरेतरबंदः जात्या यथा वर्णेषु क्षत्रियजातीयापेक्षया क्षत्रियो बलवान् एवमन्यत्रापि।स्वरेण मंद्रमध्यतारभेदेन तत्र मंद्रापेक्षया तारस्वरो निर्बलः शूदजातीयो निर्बल ब्राह्मणो बलवान् वैश्यो निर्बल वैश्यजातीयापेक्षया स्थानेन स्वस्थानापेक्षया परस्थानस्थो निर्बलः बलेन रात्रिबलो दिवा निर्बल दिवाबलो रात्रौ निर्बलः जवेन जवः शीव्रगतिस्तेन यथा मंदगतिनिर्बलः सत्त्वेन पराक्रमेण सर्वेभ्यः शरभो बलीयान् आनुकूल्यादिति शुभेषु कार्येषु शुभः बलीयान् अशुभेषु अशुभः यथाक्रमं तयोस्तत्रानुकूल्यादिकालतिथ्यादिकहंसचारैरिति अत्रापीतरेतरद्वंद्वः । दिक्च कालश्च तिथ्यादिकंच हंसचारश्च दिकालतिथ्यादिकहंसचारैरिति दिशां बलं त्वग्रे वक्ष्यमाणं कालेन रात्रिचारिणां रात्रावेव बलं दिवाचारिणां दिवस एव बलं तिथ्या प्रतिपदादिकया पूर्णरिक्तादिधर्मेण ॥ भाषा। जिनकी होय ऐसे लक्षण जिनमें होंय वे पक्षी स्त्रीसंज्ञक जानने और जैसेही इन दोनों ल.. क्षण करके रहित होय इनमेंसे कोईभी लक्षण जिनमें न होंय वे पक्षी नपुंसक जानने ॥ ॥ १८ ॥ जातीति ॥ प्राणधारी शकुन पक्षिनको बल और अबल विचारनो योग्यहै कायकरके, जातिकरके, जैसे वर्णनमें क्षत्रिय जातिकी अपेक्षा करके ब्राह्मण बलवान् हैं और वैश्य निर्बल है ऐसे ही वैश्यजातिकी अपेक्षा करके शूद्र जाति निर्बल है और क्षत्रियजाति बलवान् है या प्रकार और जगहभी जानना और स्वरकरके मंद्रमध्यतारभेद करके. मंद्र स्वरकी अपेक्षा करके तारस्वर निर्बल है और स्थानकरके अपने स्थानमें स्थित होय सो बलवान्, और पराये स्थानमें स्थित होयं सो निर्बल, और बलकरके रात्रिमें बलवान् है सो दिवसमें निर्बल है, और दिवसमें बलवान् है सो रात्रिमें निर्बल है, और सत्त्वकरके संपूर्ण जीवनतें सरभपक्षी: बलवान् है, और सब निर्बल हैं, और अनुकूलके प्रभावते शुभका Aho! Shrutgyanam Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... वसंतराजशाकुने-चतुर्थो वर्गः । . ग्राम्यो बहिमिगतश्च बायो दिवाचरो निश्यदिवाचरो हि ॥ वृथाऽथ वा स्वस्थितिकालहीनाश्चिरं भवन्भूपतिदेशभीत्यै ॥२० ॥ कूटपूरकमयूरपुटिन्यः सिंहनादगजवंजुलकाश्च ॥ छिक्करः स कृकवाकुरितीमान् पूर्वतोधिकबलान्कथयंति ॥२१॥ ॥ टीका ॥ चलावलं व्यक्त हंसचारेण बलाबलं पूर्वोक्तमेव ॥१९॥ ग्राम्यो बहिरिति॥ग्रामे भवो ग्राम्या बहिर्गतः सन्वृथा स्यात् । तथा बाह्यो बहिर्भवः ग्रामगतो वृथा दिवाचरः निशि वृथा अदिवाचरो रात्रिचरः अहि पृथा। अथ वेति पक्षांतरद्योतनार्थः। स्वस्थितिकालहीना इति । यस्य या स्थितिः क्षेत्रं यस्य यः कालः ताभ्यां हीनो रहितः शकुनःविरंचिरकालं यावद्भूपतिदेशभीत्यै भूपतिश्च देशश्च तयोर्भयाय भवेत् । एतेन शकुनस्य वृथात्वं निरस्तम् ॥ २० ॥ कूटपूरकेति ॥इमान्पूर्वतः पूर्वस्यां दिशि अधिकघलान् अधिकं बलं येषां तान् तथा कथयति प्रतिपादयंति बुधा इति शेषः । कानिमानित्यपेक्षायामाह । कूटपूरकेत्यादि कूटपूरकः कडवीवा क ॥ भाषा ॥ धनमें शुभबलवान्है, और अशुभकार्यनमें अशुभवलवान् है, और दिशाबल देखलेनो और कालकरके रात्रिमें विचरो कहे तिनपक्षिनकोः रात्रिहीमें बल है, और दिवसमें विचरै है 'तिनको दिनमही अलरहै है और तिथिनकरके पडबाकू आदिले 'तिथी तिनको पूर्णारिक्तादि कर्म करके देखलेनो बल अबल और हंसचार करके बलअबल पहले कह्मो काकको पैसेंही जान. लेनो ॥ १९ ॥ ग्राम्यो बहिरिति ॥ ग्रामको रहवेवालोहै और बाहरगयो घाको शकुनथा, और ग्रामके बाहर वनको रहवेवालो है और ग्राममें आय गयो होय तो वाको शकुन वृथा है, और दिनमें विचरवेवालो है वो रात्रिमें वृथा है और रात्रीमें विचरखे वालोहे वो दिनमें वृथा है, अथवा घेही जो अपनी अपनी स्थिति करके हीन होय जाको जो काल है वा कालकरके रहित होय तो चिरकालपर्यंत राजातें भय करावे देशते भय करावे या कहमें इन शकुननको वृथापनो मिटगयो ॥ २० ॥ कूटपूरकेति ॥ कूटकूरक कड छी ऐसो प्रसिद्ध मयूर मार नामकर प्रसिद्ध है और पुटिनी ये औरदेशमें कौडियाल Aho! Shrutgyanam Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४. (४५) हारीतकाकक्षकपोतकोका चूकस्तथा पिंगलिकाशृगालौ ॥ क्रूरावराक्रोशनरोदनानि भवंति नित्यं बलवंत्यवाच्याम् ।। ॥ २२ ॥ उत्क्रोशगोक्रौंचबिडालहंसाः कपिजलो लोमसिकाशशश्च ॥ वादित्रगीतोत्सवनृत्यहासा बलं प्रतीच्यामधिकं वहन्ति ॥२३॥ ॥ टीका ॥ डछी इति प्रसिद्धः मयूरः प्रसिद्धः पुटिन्यः इति अन्यत्र देशप्रसिद्धाः दुरलीवा कोड़ीयाल इति।जलजंतुःसिंहनादःसिंहध्वनिःगजो हस्ती वंजुलकः पक्षिविशेषः मध्यदेशंपीतरापाणंतरा इति प्रसिद्धः छिक्कर इति हरिणविशेषःस कुकवाकुरिति कृकवाकु: कुक्कुटः तेनसहितः एतान्॥२१॥ हारीतेति॥ अवाच्या दक्षिणस्यां नित्यमेतानि बलवंति भवंति। एतानि कानीत्यपेक्षायामाह । हारीतेत्यादि हारीतश्च काकश्च ऋक्षव कपोतश्च कोकश्च हारीतकाकःकपोतकोकाः इतरेतरद्वंद्वः तत्र हारीतःहारिल तिलगुरु इति लोके प्रसिद्धः। काकः चिरजीवीऋक्षःऋच्छ इति लोके प्रसिद्धः । कपोतः दोलाख्यः गुर्जर प्रसिद्धः अन्यत्र पिंडुकीति यावनीभाषयां फाक्कति कोकः चक्र वाकः घूकः काकारिः पिंगलिका पूर्वोक्ता शृगालः गोमायुः पररवाः फरशब्दाः कोशनमाक्रोशनं रोदनानि प्रसिद्धानि ॥ २२ ॥ उत्क्रोशत्यादि । एते प्रतीच्या ॥ भाषा॥ या नामकर प्रसिद्ध है ये जलको जंतुहै और सिंहध्वनि और हस्ती और वंजुलक पक्षी मध्यदेशमें पीतय या नामकर प्रसिद्ध है और छिक्कर ये हरिण नाम प्रसिद्ध है और हकवाकु कुकुडा ता करके सहित इने विवेकी पूर्वदिशामें बहुत बलवान् कहैहैं ॥ २१॥ हारीतोति॥ हारीत ये हारिल, और तिलगुरु या नामकरके प्रसिद्ध है, और काक ऋक्षनामः रीछकोहै, और कपोत गुर्जर देशमें तो दोला नामकरके विख्यात है, और देशमें पिंडुकी नामकरके विख्यात है, यावनीभाषामें फाका नामकर विख्यात है, और कोका नाम चक्रवाकको है, और धूकनाम घुघूको है, और पिंगलिका पहले कह आयेहैं, और शृगालनाम श्यारियाकू कहै हैं, और क्रूर शब्द और आक्रोशनपुकारनो, और रोदन नाम रोक्नो ये सब दक्षिणदिशामें निरंतरबलवान् होंयहैं ॥ २२ ॥ उकोशेति ॥ कुररी पक्षी, और गो, Aho! Shrutgyanam Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) वसंतराजशाकुने-चतुर्थों वर्गः। सरोजचापैकशफास्तथाऽऽखुगास्तथा कोकिलशल्लकौ च ॥ पुण्याहघंटारवशंखशब्दा दिश्युत्तरस्यां बलमुद्वहंति ॥२४॥ ॥ टीका ॥ पश्चिमायां अधिकं बलं वहति “पूर्वा प्राची दक्षिणावाची प्रतीची तु पश्चिमा ॥" इति हैमः। एते के इत्यपेक्षायामाह उत्क्रोशेति उत्कोशगोक्रौंचविडालहंसा उत्कोशश्च गौश्च क्रौंचश्च विडालश्च हंसश्च उत्क्रोशगोकौंचविडालहंसाः इतरेतरद्वंद्वः। तत्र उत्कोशः कुररः "उत्क्रोशकुररौसमौ" इत्यमरः। उच्चैः फूत्कृतिःगौः क्रौंचःबको वा कुररी पक्षिविशेषः कुज्जवा कुंजडी इति प्रसिद्धः बिडालो मार्जारः हंसः प्रसिद्धः कपिजलो गणेशः चातको वा तित्तरः लोमसिका लूंकडीति गुर्जरे ।अन्यत्र लंबडीति प्रसिद्धा शशः शशकः मरुदेशे षडो इति प्रसिद्धः । यावन्या खरगोसः। वादित्रगीतोत्सवनृत्यहाला वादित्रं च उत्सवश्च नृत्यं च हासश्च इतरेतरबंदः । वादित्रं प्रसिद्ध गीतं गानमुत्सवो महः नृत्यं नर्तनं हासः हास्यम् ॥ २३ ॥ सरोजेति ॥ एते उत्तरस्यां दिशि बलमुद्रहति प्राप्नुवंति एते के इत्यपेक्षायामाह । सरोजेत्यादि सरोजचापैकशफाः सरोजं च चापश्च एकशफश्च सरोजचापैकशफाः इतरेतरबंदः॥ सरोज कमलं चाषो नीलचारु इति गुर्जरे वेडरेचेति प्राच्यामन्यत्र नील इति एकशफस्तुरंगादिः आखुः मूषकः मृगः प्रसिद्धः कोकिलो वनप्रियः सल्लकः पक्षिविशेषः शदेलाख्यः इति प्रसिद्धः तथा पुण्याहघंटारवशंखशब्दास्तत्र पुण्याहमिति ॥ भाषा ॥ बगुला, और बिलाव, और हंस और चातक, तित्तर, और गुर्जरदेशमें लुंकडी कहें, अन्यदेशमें लंबडी कहै हैं, कोईजगह लोंगती । कहै, और शशक खर्गोस मरुदेशमें षढो या नामकर प्रसिद्ध, और बाजनको बजनो और गीत गान उत्सव नृत्य हास्य ये सब पश्चिमदिशामें अधिकबलके देबेवारे हैं ॥ २३ ॥ सरोजेति ॥ कमल और चाष नाम नील वर्ण होयहै लंबी चोंच होयहै, माथेपेचूडचोटी होयहै मच्छी खायहै, कहूं वाकू वेडरेच कहैहैं, कहूं खुटक बढेया कहेहैं, नीलीबडी चिडैया होयहै, और एक खुरके आश्वादिक और मूसा और मृग और कोकिल और शल्लक नाम शदेला पक्षी और पुण्याहवांचतं वेदध्वनि और घंटाको शंखध्वनि ये सब उत्तरदिशामें बल : अधिक Aho ! Shrutgyanam Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४.. एको निवृत्तावितरः प्रवृत्तौ यात्राविरुद्धं शकुनद्वयं तत् ॥ ग्राह्योनयोर्यों बलवान्भवेद्वा प्रदीप्तशांतादिनिरूपणेन ॥२५॥ दग्धादिमुक्ता दिननाथमुक्ता विवस्वदाप्ता भवति प्रदीप्ता॥ सा धूमितायां सविता प्रयाता शेषा दिगंताः किल पंच शांताः॥२६॥दग्धा दिगैशी ज्वलिता दिगेंद्री धूमान्विता चानलदिक्प्रभाते ॥ प्रत्येकमेवं प्रहराष्टकेन भुक्ते दिशोऽष्टौ सविता क्रमेण ॥ २७॥ ॥ टीका ॥ वेदध्वनिःघंटारवः घंटाशब्दः शंखनिनादः शंखध्वनिः॥२४॥एक इति॥एकः शकुन: निवृत्तौ निवृत्तिनिमित्तं जातः इतरः प्रवृत्तौ प्रवृत्तिनिमित्तमिति यात्राविरुद्धं तच्छकुनद्वयं ज्ञेयमनयोर्मध्ये कश्चिद्राह्यो.नवेत्याकांक्षायामाह॥ग्राह्य इति ॥ अनयोनिवृत्तिप्रवृत्तिशकुनयोर्मध्ये प्रदीप्तशांतादिनिरूपणेनति प्रदीप्ता अग्रे वक्ष्यमाणा दिशा शांतास्तद्विपरीता:दिशः। आदिशब्दाजात्यादिग्रहणमेतेषां निरूपणेन विचारणेन यः शकुन:बलवान् भवेत्स ग्राह्यः॥ २५॥ दग्धेति ॥ दिननाथेन मुक्ता त्यक्ता या दिक सा दग्धा उक्ता। विवस्वता रविणा आप्ता या सा प्रदीप्ता भवति । यो दिशं सविता सूर्य प्रयाता यास्यति वा साधूमिता। शेषाःपंच दिगंता दिशा विभागाः शांताः प्रोक्ता इत्यन्वयः॥ २६ ॥ दग्धेति ॥ प्रभाते सूर्योदये ऐशी ईशस्येयमैशी ऐशानी दिग्दग्धा ज्वलिता दिगेंद्री इंद्रस्येयमैंद्री पूर्वा दिक् । अनलदिक् आमयी ॥भाषा ॥ करवे वाले हैं ॥ २४ ॥ एक इति ॥ एक शकुनतो निवृत्ति निमित्त होय दूसरो प्रवृत्ति निमित्त शकुन होय ये दोनों शकुन यात्रा विरुद्ध जानने योग्य हैं तो इन दोनोनमेंसं कोई ग्रहण करनो या नहीं करनो तापै कहैहैं इन दोनोंमें अगाडी कहेंगे जो प्रदीप्तशांत जाति स्वरा. दिकनको विचारकरकै जो बलवान् होय सो ग्रहण करें ॥ २५ ॥ दग्धेति ॥ सूर्यने जा दिशाकू छोडदीनी वो दिशा दग्धासंज्ञा कहैं हैं और जामें सूर्य प्राप्त होंय वो दिशा 'प्रदीप्ता संज्ञा क हैं और जा दिशाकू सूर्य जायंगे वो दिशा धूमिता संज्ञा कहैहै बाकी पांच दिशा रही तिनकी शांता संज्ञा है ॥ २६ ॥ दग्धेति ॥ जब सूर्योदय होयहै वा समयमें Aho! Shrutgyanam Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) वसंतरानशाकुने-चतुर्थीवर्गः। दग्धेषु दग्धं ज्वलतिज्वलत्सु फलं ज्वलिष्यत्यथ धूमितेषु॥ दिशां विभागेषु विभज्य जाते कार्योधतानां शकुने सदैव ॥ ॥ २८ ॥ ऋशेण कालेन समीरणेन तिथ्यादिनेशेन च . दैवदीतः ॥ क्रियाप्रदीप्तः पुनराशयेन स्थानेन गत्या रुतचेटिताभ्याम् ॥२९॥ ॥टीका ॥ धूमान्विता संधुक्षिता प्रत्येकं प्रतिप्रहरमेवं दग्धादिप्रकारेण सविता सूर्यः प्रहराकेन सदैव सर्वकालमष्टौ दिशः क्रमेण भुंक्ते ॥ २७ ॥ दग्धेष्विति । कार्योधतानां पुंसां दिशां विभागेषु विभज्य विभागेन शकुने जाते क्रमेण अनुक्रमेण दग्धेषु दिग्विभागेषु दग्धं फलं भवति ज्वलत्सु दिग्विभागेषुफलं ज्वलंति धूमितेषु दिग्विभागेषु फलं ज्वलयिष्यति सदैव सर्वकालम् ॥ २८ ॥ ऋक्षेणेति ॥ ऋक्षं नक्षत्रं तेन कालः समयलक्षणः तेन समीरणो वायुः हंसचार इत्यर्थः । तेन तिथ्या प्रतिपदादिकया दिनेशेन सूर्पण एतेषां प्रातिकूल्येन पंचप्रकारेण दैवदीप्तः शकुनो भवति आ. शयः अध्यवसायस्तेन स्थानमुपवेशनस्थलं तेन गतिः ऋज्वीप्रभृतिः तया रुतं पक्षिपळपितं चेष्टितं शरीरक्रिया ताभ्यामेतेषां प्रातिकूल्येने पंचपकारेण पुनः कियाप्रदीप्तः शकुनो भवति एवं प्रदीप्तशकुनस्य दशप्रकाराः प्रोक्ता इति भावः ॥२९॥ ॥ भाषा॥ ईशानदिशाकी दग्धा संज्ञा और पूर्व दिशाको प्रदीप्ता वा ज्वलिता संज्ञा है और अग्निदिशाकी धमिता संज्ञा है ये एक एक प्रहर ऐसे रहेहैं सो ऐसेही सूर्य सर्वकाल आठपहर करके आठो दिशानकू भोगे हैं ॥ २७ ॥ दग्धेष्विति ॥ अपने कार्यमें उद्युक्त होय रहे तिनमनुष्यनकू दग्धा दिशानमें विभागकरके शकुन होय तो क्रमकरके दग्ध कल होय और प्रदीप्त प्रज्वलित दिशामें शकुन होय तो फलभी ज्वलित होय और धूमित दिशामें शकुन होय तो फलभी ज्वलित होय ॥ २८ ॥ ऋक्षेणेति ॥ नक्षत्र : १ और काल २ और पान ३ पडवाकू आदिले तिथी ४ और सूर्य ५ ये सब प्रतिकूल होय तब दैक्दीस कुन होय है और आशय और स्थान और गति और शब्द प्रलाप और चेष्टा शरीस्की क्रिया ये सब प्रतिकूल होय तब क्रियाप्रदीप्त शकुन होय है ॥ २९ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४. ( ४९ ) एवं प्रशांतोऽपि दशप्रकारो निरूपणीयः शकुनो नरेण ॥ फलानि जातैः शकुनैः प्रदीप्तैः स्युर्यानि तानि प्रतिपादयामः ॥ ॥ ३० ॥ तिथ्या समीरेण तथा सवित्रा नक्षत्रचेष्टा गति भिव दीप्ताः ॥ धनस्य सैन्यस्य बलांगयोश्च कर्मेष्टयोश्व क्रमतो भयाय ॥ ३१ ॥ जाते प्रदीप्ते शकुने नराणां स्याद्भस्मितायां दिशि वित्तहानिः ॥ आलिंगितायां दिशि जीवनाशः संतापशोकौ दिशि धूमितायाम् ॥ ३२ ॥ ॥ टीका ॥ एवमिति ॥ एवममुना प्रकारेण नरेण प्रशांतोऽपि शकुनो दशप्रकारो निरूपणीयः यथा प्रातिकूल्यादशप्रकारो दीप्तः शकुनः तथानुकूल्या दशप्रकारः शांतः शकुनः इति तात्पर्यार्थः प्रदीप्तैः शकुनैः जातैर्यानि फलानि स्युः तानि वयं प्रतिपादयामः ॥ ३०॥ तिथ्येति ॥ तिथिप्रभृतिषट्कारेण दीप्तः धनप्रभृतिषण्णां क्रमतो भयाय स्युः तत्र बलमात्मशक्तिः अंगं कोशप्रभृति कर्म कृत्यमिष्टं समीहितं वस्तु ॥ ३१ ॥ जात इति ॥ नराणां भस्मितायां दग्धायां दिशि प्रदीप्ते शकुने जाते वित्तहानिभवति आलिंगितायां प्रदीप्तायां दिशि शकुने जाते जीवनाशः स्यात् । धूमितायां ॥ भाषा ॥ एवमिति । जैसे प्रतिकूलपनेते ये दश प्रकारको प्रदीप्त कहे हैं या प्रकार करके मनुष्यन दशप्रकारको प्रशांत शकुनभी अनुकूलभावकर वर्णन कियो है और प्रदीप्तशकुनन करके जे फल हो है तिने हम कहें हैं ॥ ३० ॥ तिथ्येति । तिथि और पवन और सूर्य और नक्षत्र और चेष्टा और गति इनकरके छै: प्रकारको प्रदीप्तशकुन सो धनकूं और सेनाकूं और अपनी सामर्थ्य शक्तिकूं और सात जे अंगराजानके मंत्री राज्यकोशादिक और कर्म और इष्ट कहिये वांछितवस्तु इन छयोनकूं भयके अर्थहोय है ॥ ३१ ॥ जात इति ॥ दग्धादिशामें प्रदीप्त शकुन होय तो मनुष्यनकूं वित्तकी हानि होय और प्रदीप्ता दिशामें प्रदीप्त शकुन होय तो जीव नाश होय और धूमितादिशा में प्रदीप्त शकुन होय तो संताप शोक होय ॥ ३२ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) वसंतराजशाकुने चतुथों वर्गः। संध्याद्वये शस्त्रभयं प्रदीप्तावाताद्भयं मेघनिनादयुक्ताः ॥ उपक्रमे वारिधरागमस्य दीप्ता जलात्संजनयंति भीतिम् ॥ ॥ ३३ ॥ वधः कपाले मरणं चितायां शुष्केऽशुभं कंटकिते कलिश्च ।। दुःखं भवेद्भस्मनि चाप्रसिद्धिः सारेतराश्मस्थितिभिः प्रदीप्तैः॥ ३४॥ ॥ टीका ॥ दिशि प्रदीप्ते शकुने जाते संतापशोको स्यातामित्यर्थः ॥ ३२ ॥ संध्येति ॥ संध्याये प्रदीप्ताः शकुनाः शस्त्रभयं जनयंति वदति तत्रायं विशेषः संध्यायां पश्चिमायां दिशि समुद्भताः शचनाः शस्त्रभयं कुर्युःन तु पूर्वदिशि समुद्भूता इति तदुक्तमन्य "पश्चिममूले दीप्ताः पश्चिमसंध्यासमुत्थिताः शनाः॥शास्त्रानिबौरभूपप्रभृतिभयोत्पादकाः सद्यः॥"इति॥प्राच्यां तु संध्यायां समुद्भवाः शकुनास्तु दुष्टवार्तायै भवंति तदुक्तमन्यत्रा "प्राव्ये मले दीप्ताञ्छकुनानाकस्मिकान समाकर्ण्यांबूयान्न ममैते हिमत्तो महतस्तु वार्तायैभवति॥इति ॥ मेघनिनादयुना दीप्ता वालाद्यं जनयंति। वारिधरागमस्योपक्रो वर्षाकाले मेघनिनादीप्ताः जलादीति संजनयंति॥३३॥ वध इति ॥ कपाले वधो भवति । चितायां मरणम् । शुष्केशुभम् । कंटकिते कटकोपगते दुमे कलिः स्यात् । अस्मनि दुःखं भवेत् । अप्रसिद्धिः अकीतिर्भवेत् । कैः सारेतराश्मस्थितिमा प्रदीप्तैरिति सारादितरद्यदश्म प्रस्तरस्तत्र स्थितैदीप्तःशनैरित्य ॥ भाषा॥ संध्येति ॥ पश्चिम दिशामें प्रदीप्त शकुन होय तो शस्त्रभय और पश्चिमकी मूलमें प्रदीप्त दिशा होय और पश्चिमदिशामें शकुन प्रदीप्त होय तो शस्त्र, अग्नि, चोर, राजा इनकं आदिले भयके करनेवारे तत्काल होय हैं, और पूर्वदिशामें उत्पन्नहुये शकुन दुष्टवार्तानकू प्रकट कर है और पूर्वदिशाकी मूलमैं दीप्त हुये शकुन तिने अकस्मात् सुनकरके ये शकुन मेरे हैं ऐसे न कहैं, और मेघनादकरके रहित होय, दीप्ता दिशा होय तो वातते भय प्रगट करैहै और वर्षा कालमें मेघनादकर युक्त होय और दीप्ता होय तो जलते भीति प्रगट करहै ॥ ३३ ॥ वध इति ॥ कपाल जो दीखजाय शकुनमें तो वध होय, और चिता दीखे तो मरण होय, और शुष्क पदार्थ दाखै तो अशुभ होय, और कांटनको वृक्ष मिले तो कलह होय, और भस्म मिले तो दुःख होय, और पाषाणकी पटियापै बैठे हुये, वा Aho! Shrutgyanam Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४. ( ५१ ) स्वरः प्रदीप्तः कलहं ब्रवीति प्रदेशदीप्तः शकुनस्तु युद्धम् ॥ ब्रवीति यात्रां निजदेशमुज्झन्स्वदेशशायी कथयत्ययात्राम् ३५ ॥ एवंप्रकाराः शकुना नराणां शांताः पुनर्जाप्यफला भवंति ॥ ते भक्षयतोऽशनमिष्टसिद्धिं कुर्वत्यसिद्धिं पुनरुद्विरतः ॥ ३६ ॥ तृणं फलं खादति यः स सौम्यो रौद्रः पुरीषामिषखादको य ॥ शान्तः प्रदीप्तं विदधाति कार्यमन्नाशनः स्यादुभयप्रकारः ३७॥ ॥ टीका ॥ र्थः ॥ ३४ ॥ स्वर इति ॥ स्वरः प्रदीप्तः कलहं विग्रहं ब्रवीति कथयति । प्रदेशदीप्तः । अशुभस्थानस्थितः शकुनः युद्धं संग्रामं ब्रवीति । निजदेशं स्वस्थानमुज्झंस्त्यजन् यात्रामन्यत्र गमनं ब्रवीति स्वदेशशायी स्वस्थानं प्रति गच्छन् अयात्रामन्यत्र गमनाभावं कथयति ॥ ३५॥ एवंप्रकारा इति । एवंप्रकाराः पूर्वोक्तप्रकाराः जनानां ये शकुनाः शांता उक्तास्त एव पुनः जाप्यफला इति जाप्यं फलं येषां ते तथा अधमफलाः प्रदीप्ता इत्यर्थः । शांता एव स्थानादिमाहात्म्यादीप्ता भवतीत्यर्थः। यथा जलस्य वह्निसंयोगादौष्ण्यं जायते एतेन स्वारसिकं शकुनानां दीप्तत्वं नास्तीति सूचितम् । अथ चेष्टाविशेषात्फलविशेषं दर्शयन्नाह त इति। शकुना अशनं भक्ष्यं भक्षयतः इष्टसिद्धिं कुर्वन्ति पुनः उद्भिरेतः वमनं कुर्वन्तः असिद्धिं कुर्वन्ति ॥ ३६ ॥ तृणमिति ॥ तृणं फलं वा यः शकुनः खादति स शकुनः सौम्यः शतिः । यः ॥ भाषा ॥ पाषाण लावते मिलें, और प्रदीप्त होय तो अकीर्ति होय ॥ ३४ ॥ स्वर इति || प्रदीप्त स्वर होय तो कलह करावे और प्रदेशदीप्त शकुन होय अर्थात् अशुभस्थानमें स्थित शकुन होय तो संग्राम करावे स्वदेशकूं त्याग कर यात्रा करावे अपनेस्थानकूं पीछो आवतीसमय ये शकुन होय तो घरआये पीछे यात्रा नहीं करावे ॥ ३५ ॥ एवंप्रकारा इति ॥ या प्रकार मनुष्यनकूं जे शांत शकुन कहे हैं तेही फिर शांतशकुनही स्थानादिकनके माहात्म्यसूं अधम फलके देवेवारे प्रदीप्त हो जाय है जैसे जलकूं अग्निके संयोग उष्णता होय हैं तैसेही जाननो और ते शकुन अन्नभक्षण करते हुये होयँ सो मनोरथकी सिद्धि करे और फिर वमन करतो मिले तो कार्य की असिद्धी करे ॥ ३६ ॥ तृणमिति ॥ जो शकुन तृण वा Aho! Shrutgyanam Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) वसंतराजशाकुने- चतुर्थी वर्गः । प्रासादभूमिः सुरमन्दिराणि स्तंबेरम स्तंभतुरंगशालाः ॥ अशून्यगे च गजाश्वगोष्टक्षीरद्रुमाट्टालकतोरणानि ॥ ३८ ॥ एवंप्रकाराणि मनोहराणि स्थानानि तुंगानि शुभावहानि || नीचेषु मध्याञ्छुभदानिदानीं देशप्रभेदान्प्रतिपादयामः ॥ ३९ ॥ ॥ टीका ॥ पुरीषामिषखादकः पुरीषं च आमिषंच पुरीषामिषे तयोः खादकः विष्ठामांसभक्षकःस रौद्रः । तत्र शांतः शांतकार्ये शुभः । रौद्रः रौद्रकार्ये शुभः | अन्नाशनः अन्नं धान्यमश्नाति भुंक्ते इति अन्नाशनः शकुनः पुनः प्रशान्तः प्रदीप्तं कार्यं विदधाति । यतोयमुभयप्रकारः शांतदीप्तभेदेन द्विविधः स्यात् इत्यर्थः ॥ ३७ ॥ प्रासादेति ॥ प्रासादभूमिश्चैत्यस्याधित्यका सुरमन्दिराणि हरिहरगृहाणि स्तंवेरमस्तंभतुंरंगशाला इति । स्तंबेरमाः हस्तिनस्तेषां स्तंभः आलानः तुरंगाणां वाजिनां शालाः बन्धनस्थानानि "वाजिशाला तु मंदुरा" इत्यमरः । अशून्यं गेहं जनाकुलगृहमित्यर्थः । गजाश्वगोष्ठक्षीरमाट्टालकतारेणानीति तत्र गजाश्रौ प्रतीतौ गोष्ठं गवामुपवेशतस्थलं क्षीरदुमाः न्यशोधप्रभृतयः अट्टालकं गृहोपरिगृहं तोरणं मंगलनिमित्तं यद्गुहद्वारे बध्यते ॥ ३८ ॥ एवमिति ॥ पूर्वोक्तप्रकाराणि मनोहराणि तुंगानि उच्चैस्तराणि स्थानानि तानि शुभावहानि शुभफलदातृणीत्यर्थः । इदानीं नीचेषु वस्तुषु मध्यान्याञ्छुभदान् देश ॥ भाषा ॥ फल खावतो होय तो सौम्य जाननो, और जो पुरीष मांस खावतो होय तो रौद्रजाननो शांत तो शांत कार्य में शुभ है और रौद्र रौद्रकार्य में शुभ है और अन्नकूं भोजन करतो शांत शकुन दीप्तकार्यकूं करें है ये शांतदीत भेदकरके दोय प्रकारको हैं ॥ २७ ॥ प्रासाद इति ॥ प्रासादभूमि, विष्णुमंदिर, और शिवमंदिर, और हाथी बंधवेके स्थान हाथी सहित हॉय, और घोडानकी शाला घोडा सहित होय; और मनुष्यनकरभरे हुये घर होंय, और गोशाला, और बड़कूं आदिले दूधके वृक्ष, और अटालीनाम घरके ऊपरघर तोरण नाम मंगल कार्य द्वारमें बांधे सों ॥ ३८ ॥ एवमिति ॥ ये. संत्र मनोहर होंय बडे ऊंचे स्थान होंय तो शुभ फलके देवेवारेहैं अब नीचे वस्तुनमें मध्यते जो शुभके देवेवारे देश प्रदेश तिने हम कहें Aho! Shrutgyanam Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४. शुचिः सतोया विशदा मनोज्ञा सगोमया सस्यवती च भूमिः।। छायामयी शादलमेवमाया भवंति नीचेषु शुभाः प्रदेशाः॥ ॥ ४० ॥ करंकशूलाचितिशृंगयूपाः शवः खरः सौरभसूकरोष्टाः ॥ वल्मीकशुष्कोत्पटितद्रुमाया नोच्चेषु देशेषु भवंति शस्ताः ॥४१॥ ॥ टीका ॥ प्रदेशान् वयं प्रतिपादयामः ॥३९॥ शुचिरिति ॥ एवमाद्याः प्रदेशाः नीचेषु शुभाः भवंति ते के इत्यपेक्षायामाह ॥ शुचिरिति ॥ शुचिः पवित्रा भूमिः तथा सतोया सह जलेन वर्तमाना विशदा मालिन्यरहिता मनोज्ञा मनोहारिणी सगोमयाच्छगु. णयुक्ता सस्यवती धान्योत्पत्तिमती छायामयी वृक्षवाहुल्यादिति भावः। शाढलं बालतणोपयुक्तं स्थलम् । शाहलः शादहरिते ।' इत्यमरः ॥ ४० ॥ करंकशूलेति॥ उच्चेषु देशेषु एते शस्ताः शोभना न भवंति ते के इत्यपेक्षायामाह करकेति करंक मृतशुष्कशरीरम् ॥ "शरीरास्थि करंकः स्यात्कंकालमस्थिपंजरः" । इति हैमः। शूला चौराणां वधार्थ बहियस्तं काष्ठं चितिः चिताशृंगं विषाणं यूपाः यज्ञस्तंभाः करंकश्च शूलाच चितिश्च शृंगंच यूपश्च करंकशूलाचितिशृंगयूपाःइतरेतरद्वंद्वःशवः जीवेनोज्झितं वपुः मृतकं खरः गर्दभः सैरिभो महिषः सूकरः प्रसिद्धः उष्ट्रः करमः सैरिभश्च सूकरश्च उष्ट्रश्च सैरिभसूकरोष्ट्रा इतरेतरद्वंद्वःतथा। वल्मीकशुष्कोत्पटितद्रुमाद्याः वल्मीकमुपदेशिकागृहं शुष्काः नीरसाः उत्पादिताः वायुनोत्पाट्य भूमौ ॥ भाषा॥ हैं ॥ ३९ ॥ शुचिरिति ॥ पवित्रभूमि होय, जल जहां भर रहो होय, निर्मल होय, मनकू हरवेवाली होय, जाकू देखते ही मनप्रसन्न होजाय, गोबरसहित होय धान्यकी जामें उत्पत्ति होती होय, वृक्षावलीनकी छाया होय, छोटीछोटी हरीहरी तृणयुक्त स्थल होय, इनकू आदिले देशप्रदेश नीचे स्थलनमें शुभ देवेबारे हैं ॥ ४० ॥ करंकशूलाचितीति ॥ ऊँचे देशनमें ये अच्छे नहीं हैं कौन कौन ? कोई मरेको सूखो शरीर, औरशूली, और चिता, और सींग, और यज्ञस्तंभ, और मुरदा, और गधा, और महिष, सूकर, और ऊंट, और सर्पकी वमैं, और सूखे पवन करके उखडे पृथ्वीमें पड़े हुये वृक्ष ये शुभदायक नहीं हैं ॥ ४१॥ Aho ! Shrutgyanam Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) वसंतराजशाकुने-चतुर्थो वर्गः। अंगारभस्मोपलवल्कपंकगर्ता गुहाकेशतुषास्थिविष्टाः॥ घृणाकराः खर्परकोटराया न नीचदेशाः शुभदा भवंति ।। ॥४२॥ सप्ताहमासायनहायनांते ग्रामं पुरं देशमवन्यधीशम् ॥ एकत्र देशे रटति प्रदीप्तो निहंत्यवश्यं शकुनः क्रमेण ॥४३॥ ॥ टीका ॥ न्यस्ताः ये दुमाः वृक्षाः तत्प्रमुखा वल्मीकः कृमिपर्वतः। “वल्मीकटं वामलूरो नाकु: शशिरश्च सः । इति हैमः ॥४१॥ अंगारेति ॥ एते नीचदेशाः शुभा न भवन्ति । के ते इत्यपेक्षायामाह । अंगारेति ।। अंगारः ज्वलितकाष्ठांशः भस्म क्षारम् उपल: प्रस्तरः वल्कं वृक्षत्वक् पंकः कर्दमः गतः खातप्रदेशः गुहा दरी केशः अलकः तुषः धान्यत्वग् अस्थि प्रतीकं विष्ठा मलः घृणाकराः बीभत्सोत्पादकाः। खर्परकोटराद्या इति खर्परं चीवरमिति लोके मृद्भांडशकलम् । “खर्परस्तस्करे धूर्ते भिक्षुपात्रकपालयोः" इति श्रीधरः । कपालखर्परौ घटादीनां खंडेऽप्युपचारात् यदाह । “कपालं शिरसोऽस्थि स्याटादेः शकले बजे"। इति महेश्वरः। कपरे इति पाठे कर्परं मस्तकस्यार्धास्थिवाचकं यदाह। 'कर्परोजतुनिप्रोक्तः कपालेपि च कर्परः" इति विश्वः॥ कोटरः कोतर इति प्रसिद्ध इत्येवमादयःकर्परकोटरो आद्यौ मुख्यौ येषु ये तथोक्ता वा खर्परमस्थिविशेषःकोटराः प्रतीताः ॥ ४२ ॥ सप्ताहति ॥ एकत्र देशे यदा प्रदीप्तः शकुनः रटति त्यजति तदा क्रमेण परिपाट्या शकुनः अवश्यं निश्चयेन सप्तदिनांते ग्रामं निहन्ति मासान्ते पुरम।"पक्षौ पूर्वापरौ शुक्लकृष्णौ मासस्तु तावुभौ"। इत्यमरः। “द्वौ द्वौ मार्गादिमासौ स्याहतुस्तैरयनं त्रिभिः"॥इत्यमरः। अयनांते देशं ॥ भाषा॥ अंगारइति ॥ जलती लकडियां पडी होय, और राखपडी होय, वा पाषाण होय, वा वल्कल, और कीच, और खात पटकबेकेगर्त, और गुफा, और बाल, और धान्यकी तुष, और हाड, और विष्टा इनकू आदिले ये नीच देशहैं सो शुभके देवेवारे नहीं हैं ॥ ४२ ॥ सप्ताबोतिएकत्रदेशमें जो प्रदीप्त शकुन होय तो क्रमकरके वो शकुन निश्चयही सात दिनके अंतमें ग्रामकू नाश करै, और मासके अंतमें पुयकं नाश करै और अपनके अंतमें देशकू और वर्षके अं Aho ! Shrutgyanam Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४. ( ५५ ) सर्वेऽपि दुर्भिक्षकृतो भवति स्वजातिमांसानि समाहरतः ॥ मार्जारमाखं पृथुरोमसप मीनं च पंच प्रविहाय सत्त्वान् ॥ ॥ ४४ ॥ देशस्य भंगं परयोनियानात्कुर्वन्ति सत्त्वा नृखरौ विहाय ॥ सर्वे यथावस्थितविश्वरूपादन्यत्तदुत्पाततया वदति ॥ ४५ ॥ ॥ टीका ॥ errain वर्षा अवधीशं निर्हतीति सर्वत्र संबंध: 'संवत्सरो वत्सरोऽब्दो हायनोस्त्री शरत्समाः' इत्यथरकोशः॥४३॥ सर्वेऽपीति ॥ स्वजातिमांसानि समाहरत इति स्वस्यापेक्षया ये स्वजातीयाः तेषां मांसानि समाहरंतो मक्षयंतः दुर्भिक्षकृत इति दुर्भिक्षं जलदाभावेन धान्यमहर्षता तत्कृतः दुर्भिक्षकारकाः तत्प्रकाशका भक्तीत्यर्थः । किं कृत्वा विहाय कानू पंचसखात् प्राणिनः तान् कानू मार्जारमोतुम् आएं मूकं पृथुरोमसर्पाविति पृथुरोमा च सर्पवेत्यनयोर्द्धदः तत्र पृथुरोमा मत्स्यविशेषः सर्पो भुजंगमः मीनो मत्स्य एते सर्वदा स्वजातिमक्षका अत एतेषां हानं युक्तमेव ॥ ४४ ॥ देशस्येति ॥ परवोनियानात्परजातीय स्त्रीसंगात्सत्त्वाः प्राणिनः दिशस्य भं कुर्वत किं कृत्वा विहाय त्यक्त्वा की नुखरौ मनुष्यगर्दभी ना च खरश्च नृख रौ इतरेतरद्वंद्वः । मनुष्यखरयोः परयोनिगमनस्य सर्वदा सत्त्वान्नदोषः यथावस्थितविश्वरूपादन्यत्सर्वं तदुत्पातमुदाहरति कथयतीत्यर्थः ॥ ४५ 14 ॥ भाषा ॥ तमें राजाकूं नाश करैहै ॥ ४३ ॥ सर्वपीति ॥ बिल्ली मूसा और बहुतसे रोम जाके मच्छी जातमें पृथुरोम क हैं सो और सर्प और मीन ये पांचों अपने जातके मांस सदा भक्षण करें हैं यातें इनकूं छोडकरके इनविना और जो अपने जातिके मांस भक्षण करे तो वे दुर्भिक्षके करवारे जानने अवश्य दुर्भिक्ष अकाल पडेगो ॥ ४४ ॥ देशस्येति ॥ 'मनुष्य, और खर इनकं छोडकर के क्यों कि ये दोनों तौ परयोनिसं गमन सदा करें हैं यातें इनको तो दोष कहा इनविना और प्राणी परजातिकी स्त्रीको संग करें तो वो अवश्यही देशभंग करें हैं ॥ ४५ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) वसंतराजशाकुने चतुर्थो वर्गः । नीडप्रसक्तो रतमांसलुब्धो भीतः प्रमत्तः क्षुधितो रुगार्तः ॥ तथा नवाऽलोचनमंतरेण ग्राह्या न नद्यंतरितास्तथापः ॥ ॥ ४६ ॥ अश्वोष्ट्रमार्जारखंरो वराहः शशो मृगो वा शिशिरे व्यलीकाः || हेमंतकाले महिषर्क्षसिंहबिलेशयद्वीपिशिशुप्लवंगाः ॥ ४७ ॥ ॥ टीका ॥ नीडेति ॥ नीडः कुलायः तत्र प्रसक्तः निद्राप्रसक्त इत्यर्थः “कुलायो नीडमस्त्रिया म्" इत्यमरः । रते मैथुने मांसे च लुब्ध आसक्तः रतं च मांसं च रतमांसे तयोर्लुब्धः रतमांसलुब्धः पूर्व इंद्रः पश्चात्तत्पुरुषः भीतः भयाक्रांतः प्रमत्तः आलस्यवान्क्षुधितः बुभुक्षितः रुगार्तः रोगाक्रांतः एतादृक् शकुनो न च ग्राह्यः तथा आलोकनमंतरेण ग्राह्यः अनुमानादयमेव भविष्यतीति ग्रहणप्रतिषेधः तथा नद्यंतरितो नद्या अंतरिलः अंतरं प्रापितः न ग्राह्यः ॥ ४६ ॥ अश्वोष्ट्रेति ॥ शिशिरे ऋतौ एते शकुनाः व्यलीका व्यर्था ज्ञेया इति शेषः के ते इत्याह अश्वेति अश्वोष्ट्रमार्जारखरा अश्वश्च उष्ट्रश्च मार्जारश्च खरश्चेतरेतरद्वंद्वः । अवां हयः इः उष्ट्र: मरुस्थलीप्रसिद्धः मार्जारः ओतुः खरो गर्दभः वराहः मूकरः शशः मृदुलोमकः प्रतीतः मृगो हरिण एते हेमंतकाले महिषर्क्षसिंहविलेशयद्वीपिशिशुप्लवंगाः व्यलीका भवंति इत्यन्वयः तत्र महिषः कासारः ऋक्षः ऋच्छः सिंहः पंचास्यः विलेशयाः बिलवासि ॥ भाषा ॥ नीड इति ॥ जो निद्रामें आसक्त होय, और मैथुनमें मांसमें लुभायमान होय और भययुक्त होय आलस्यवान् होय मतवालो होय और भूखो होय रोगयुक्त होय ऐसे शकुन नहीं ग्रहण करने तैसे ही आंधरो होय तोभी नहीं ग्रहण करनो अनुमानते होय ही जायो ऐसे भी नहीं ग्रहण करनो और तैसे ही नद्यंतरित जल अर्थात् नदी करके अंतर प्राप्त हुयोजल नहीं ग्रहणकरनो ॥ ४६ ॥ अश्वोष्टइति ॥ अश्व, ऊंट, बिल्ली, खर, सूकर, शश नाम वर्गीस, हरिण ये शकुन शिशिरऋतुमें व्यर्थ हैं और महिष, ऋच्छ, सिंह बिलनमें रहैं हैं स - पदिक ते द्वीपनाम चित्रक ताको बालक अथवा कोई वनचर वानर ये शकुन हेमंतकाल में १ छंदोभंगभिया खरो वराहइति पाठ: यथार्थतस्तु खरवराहा इत्येव युज्यते पृषोदरादित्वं वा कल्प्यम् । Aho! Shrutgyanam Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४. (५७) स्यातां वृथा काकपिको वसंते वृथा वराहश्च वृको नभस्ये॥ स्युः श्रावणे वारणचातकाया अब्जादयः क्रौंचनिभा घनान्ते ॥४८॥ आतभीतरवजर्जरदीना भिन्नकंठलघुभैरवरूक्षाः॥ निंदनीयनिनदाः शुभशब्दाः शांतपूर्णमुदितप्रकृतास्तु ॥४९॥ ॥ टीका ॥ नः सर्पाद्या द्वीपी चित्रकस्तस्य शिशुवनेचरविशेषो वा प्लवंगः कपिः ॥ ४७ ॥ स्यातां वृथेति ॥ काकपिको वसंत ऋतौ वृथा स्यातां तत्र काकः प्रसिद्धः पिकः कोकिल: मत्तत्वेन शकुनानर्हत्वादित्यर्थः । तथा नभस्ये भाद्रपदे वराहः सूकरः वृकः वरगड इति लोके प्रसिद्धः भिठहा इति प्राच्या प्रसिद्धः वृथा स्यात् हेतुः पूर्वोक्त एव श्रावणे वारणचातकाद्याः वृथा स्युः तत्र वारणो हस्ती चातको बप्पीहः आदिशब्दादन्येषामपि ग्रहणं घनान्ते शरदि अब्जादयः पदार्थाः क्रौंचनिभाःौंचसदृशाः पक्षिणः वृथा स्युः ॥४८॥ आतेति ॥ रुगार्ता भीतरवाः जर्जराः परिपक्कवयसः दीना निःसंत्त्वाः भिन्नकंठाः घर्घरध्वनयः लघवः तुच्छाः भैरवाः रौद्राः रूक्षाः कांतिवर्जिताः निंदनीयनिनदाः निंद्यशब्दाः प्रकृताः सुशकुनावलोकनप्रतियासु वाः तथा शुभशब्दाः मनोहारिवाचः शांताः फलतृणाशनाः पूर्णाः मध्यव ॥भाषा॥ व्यर्य हैं ॥ ४७ ॥ स्यातां वृथति ॥ काक कोकिल ये वसंतऋतुमें वृथाहै और सूकर वृकनाम वरगडकोहै वा भिढहाकहै वा कई ल्यारी कहेहैं ये भाद्रपदमें वृथा है और हाथी चातककू आदिले श्रावणमें वृथाहै और कमल• आदिले पदार्थ क्रौंचकी सदृश पक्षी ये शरदऋतुमें वृथाहैं ॥ ४८ ॥ आतेति ॥ रोगात होय, भयवान् शब्द जाको होय, वृद्ध होय, दीन होय, कंठ जाके घर्घरबोलते लघु होय, रौद्र होय, कांतिहीन होय, निंदित जाको शब्द होय ये शकुनके अवलोकन क्रियानमें बार्जित हैं तैसे ही मनोहर जिनकी वाणी हैं शांत शकुन हैं और फल तृणको आहार करें हैं पूर्ण मध्य अवस्था जिनकी, प्रसन्न मन जिनके ऐसे शकुन ग्रहण करने योग्य है ॥ १९ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) वसंतराजशाकुने-चतुथों वर्गः। यद्यदंगमिह दक्षिणचेष्टो दक्षिणं स्पृशति कार्यविधाने ॥ तस्य तस्य शकुनः मुखकारी दुःखकृद्भवति तद्विपरीतः ॥ ॥५०॥ श्यामा शिवा पिंगलिकान्यपुष्टा पल्लीरवाः मूकरिका तथेह ॥ छुच्छंदरी चापि शुभाय वामा पुंनामधेयाः शकुनाश्च सर्वे ॥५१॥श्रीकंठछिकाररुरुप्लवंगाः श्रीकर्णचाषौ भषको मयूरः॥ श्येनः समं पिप्पिकया प्रशस्तास्त्री नामधेया अपि दक्षिणेन ॥५२॥ ॥ टीका॥ यसः मुदिताः संतुष्टमानसाः एवंविधा ग्राह्या इति तात्पर्यार्थः ॥ ४९ ॥ यद्यदंगमिति ॥ यदिति षष्ठयर्थे अव्ययं तेन यस्य यस्य अंगं दक्षिणं शकुनः स्पृशति कीग दक्षिणचेष्ट इति दक्षिणचेष्टा यस्य स तथा कार्यविधान इति कार्यस्य विधानं विलोकनं तस्मिन्नित्यर्थः । तस्य तस्य अंगस्य पुरुषस्य शकुनः शुभकारी स्यात् तद्विपरीतः वामचेष्टः वामांग गच्छन् वा स्पृशन् दुःखकृद्भवति ॥ ५० ॥ अथ यियासोथै वामपक्षे शकुनास्ते शुभास्तानाह ॥ श्यामेति श्यामा पोदकी शिवा शृगाली पिंगलिका चीवरी पूर्वोक्ता अन्यपुष्टा कोकिला पल्ली गृहगोधा तस्या रवाः शब्दाः सूकरिका प्रसिद्धा छुच्छंदरी गंधमूषिका एता वामाः शुभाय भवति तथा ये पुंनामधेयाः पुरुषसंज्ञकास्तेऽपि वामाः शुभदा भवंतीति तात्पर्यार्थः ॥५१॥ यियासोयें दक्षिणे भागे शकुना ते शुभास्तानाह ॥ श्रीकंठ इति ॥ श्री ॥भाषा॥ यद्यदंगमिति ।। सुंदर जाकी चेष्टा ऐसो शकुन जा जा दक्षिण अंगकू स्पर्श कर कार्यविधानमें ताता अंगको पुरुषकू शकुन शुभकारी होय है वामजाकी चेष्टा ऐसो शकुन वामांगकू गमनकरत दुःखकू करनेवालो होयहै ॥ ५० ॥ श्यामेति ॥ पोदकी, शृगाली, पिंगलिका. कोकिला, पल्ली जो छपकली ताको शब्द, सूकरी, चकचंदरये स्त्री संज्ञक नाम शकुन वांये शुभके देवेवारे हैं और पुरुषनामभी जे काक, कपोत, कारडंब, बंजुल, तित्तिर, हंसादिक ये सब वाये शुभके देबेवारे हैं ॥ ११ ॥ श्रीकंठइति ॥ श्रीकंठनाम खंजरीट और छिक्कर नाम मृगविशेष और रुरु नाम मृगविशेष और वानर और श्रीकर्णनाम पक्षिविशेष है और वनच Aho! Shrutgyanam Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् १. श्वेडारवाः स्फोटितगीतवाये पुण्याहशंखाध्ययनांबुकुंभाः॥ वामेन पुंवत्कथयति भद्रं स्त्रीवच्छुभा दक्षिणतश्च वाचः ॥ ॥५३॥ खंजनाजनकुलाः शिखिचाषौ कीर्तनेक्षणरुतैर्ददतीटम् ॥ जाहकाहिशशमूकरगोधाः कीर्तनेन न तु दृष्टरुताभ्याम् ॥१४॥ ॥ टीका ॥ कंठःखंजरीटः छिक्करो मृगविशेषः 'छिकारश्चित्तलः स्मृतः' इति जयः । रुरुमंगभेदःप्लवंगः कपिः श्रीकर्णः पक्षिविशेषःवनचटक इत्यन्ये चापः पूर्वोक्तः भषकः पक्षिविशेषो गृह्यते न शुनः वानव गतिरिष्टा तदुकम्"इदं मे सिद्धिदं कार्य भविता शुनकोत्तमः" इत्युक्ते दक्षिणा चेष्टा वामगतिमतेति । मयूरः शिखी श्येनः शमादनः पिप्पिश्या पक्षिविशेषेण समं सहार्थे तृतीश एते दक्षिणे न प्रशस्ताः अत्र पिपिकाशब्देन कोडिआलः यः जलोपरि कंपयमानस्तिष्ठति ये स्त्रीलानधेयाः स्त्रीनामानः सारिकाचटकाईलिकास्तेपि दक्षिणेनेत्यर्थः । दक्षिण भाणे प्रशस्ताः ॥५२॥ वेडाखेति ॥ वेडारवाः चेटिकाप्रभृतयः स्वभुजताडनमित्यन्ये स्फोटिलहस्ता स्फोटनं चडु इत्यन्ते । गीतवाद्यानि प्रसिद्धानि पुण्याह इत्याशीर्वादः शंखः अर्थाच्छंखध्वनिः अध्ययनं वेदध्वनिरित्यर्थः । अंबुकुंभः जलभृतकुंभः एते बामेन भद्रं कथयति किंवत् पुंवत् तथा वाचः दक्षिणतः शुभा भवंति किंवत् स्त्रीवत् यथा दक्षिणे स्त्री शुभा तथा शुभवाचोऽपि दक्षिणे शुभदा इत्यर्थः ॥ ५३ ॥ खंजनेति॥ खंजनः खंजरीटः अजः छागः नकुलः प्रसिद्धः शिखी मयूरः चापः किकीदिविः ए. ॥ भाषा ॥ टकभी कोई याकू कहह और चाप और श्वानकी बाई गति श्रेष्ठ है, और मयूर और शिखस और कोडियाल जलके ऊपर कंपायमान स्थित रह हैं ये सब और स्त्रीसंज्ञक जेहैं ते भी दक्षिण नाम जेमने प्रसिद्ध हैं ।। ५२ ॥ वेडारवति ॥ वेडारवनामसे चेटिकादिक कोई याकू स्वभुजताडन क हैं और स्फोटिनाम हाथको स्फोटन करेहैं, कोई चडु कहेहैं, और गीतबाजे पुण्याहवाचन अशीर्वाद शंखध्वनि वेदाध्ययन जलको भरोकुंभ ये बामकरके पुरुष की सी नाई शुभ हैं, और स्त्रीजैसे दक्षिणमें शुभ है तैसे ही वाणीभी दक्षिणमें शुभदेवेवारी है ॥ ५३॥ खंजनेति ॥ खंजन का खंजरीट, और छाग वा बकरिया, और न्योला, और Aho! Shrutgyanam Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) वसंतराजशाकुने-चतुर्थो वर्गः। अच्छभल्लकपिदर्शनशब्दौ सिद्धिदौ न परिकीर्तनमिष्टम् ॥ दक्षिणेन गमनं विषमाणां शोभनं नकुलपक्षिमगाणाम् ॥ ॥ ५५ ॥ पुरल्लिकाच्छिकरकूटपूराः प्रदक्षिणेनाह्नि भवंति शस्ताः ॥ दिनावसाने नकुलं च चापं वामेन याते भृगुराह शस्तम् ॥५६॥ ॥ टीका ॥ तेषामन्यतमः कीर्तनेक्षणरुतैरिति कीर्तनं नामोच्चारणम् ईक्षणमवलोकनं रुतं शब्दः पश्चादितरेतरद्वंद्वः । इष्टं दिशंति न तु दृष्टरुताभ्यां विलोकितशब्दाभ्यां शुभं ददतीय॑थः । जाहकः सेहल इति प्रसिद्धः।अहिः सर्पः शशःशशकः सूकरः वराहः गोधा गोहेति प्रसिद्धः एषामन्यतमः कीर्तनेन केवलनामोच्चारणेन इष्टं दिशति न तु दृष्टरुताभ्यां शुभं दिशंतीत्यर्थः ॥५४॥ अच्छेति॥अच्छः ऋच्छः उलूक इत्यन्ये । भल्लो मृगविशेषःकपिः वानरः एतेषां दर्शनशब्दौ सिद्धिदौ परं कीर्तनं नेष्टं तथा नकुलपक्षिमृगाणां विषमाणां विषमसंख्याकानामेव दक्षिणेन गमनं शोभनम् अत्र पक्षिशब्दे न चाषो गृह्यते ॥५५॥ पुरल्लिकेति ॥ पुरल्लिकाः पिदडीति प्रसिद्धिभाजः छिक्करो मृगविशेषः कूटपूराः पूर्वोक्ताः एते हि दिवसे प्रदक्षिणेन गताःशस्ताः भवंति भृगुराचार्यस्तु दिनावसाने दिवसस्य विरामे नकुलं च पुनश्चाषं वामेन याते शस्तं शोभ. ॥ भाषा॥ मयूर, और चाप, एभी नामोच्चारण, अवलोकन, शब्द इनकरके इष्ट जो वांछित ताय देबेवारे हैं, और जाहक सेहलनामकरके प्रसिद्ध हैं, सर्प शशानाम खर्गोस सूकर गोह ये केवल नामोच्चारणही करके इष्टः जो वांछित ताय देवें हैं, दीखवे करके शब्दकरके शुभ नहीं देवै हैं ॥ १४ ॥ अच्छेति ॥ ऋच्छ और भल्ल, वानर इनके दर्शन और शब्द ये दोनों सिद्धिके देबेवारे हैं और केवल नामलेनो इष्ट नहीं है तैसेही नकुल पक्षिनाम चाष, मृग ये विषम संख्या होंय तौ इनको दक्षिण गमन शुभ है ॥ ५५ ॥ पुरल्लिकेति ॥ पुरल्लिका नाम पिदडी और छिक्कर नाम मग खर्गोस और कूटपूर नाम कडछी ये दिवसमें दक्षिण माऊं शुभ होंय हैं और भृगुजी नाम ‘आचार्यहैं सो नकुल नाम न्योला और चाष नील वा no! Shrutgyanam Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४. सर्वागमैर्दष्ट्रिबिलाधिवासा वामन यांतो गदिताः प्रशस्ताः ॥ सर्वेऽबलानां नरवैपरीत्यादुक्तं समस्तं शकुनं प्रशस्तम् ॥५७॥ प्राच्यां प्रशस्तौ हयशुक्लवौँ शस्तौ तथा क्रव्यशवाववाच्याम् ॥ शस्ते च कन्यादधिनी प्रतीच्यां शस्ता उदीच्यां द्विजसाधुगावः ॥ ५८ ॥ प्रवर्तको यो गमनस्य पूर्व स एव पश्चात्प्रतिषेधकश्चेत् ॥ मृत्युं रिपुभ्यः समरं रुजं च गंतुस्तथान्यांश्च करोत्यनर्थान् ॥ ५९॥ ॥ टीका ॥ न माह कथयामासेत्यर्थः ॥५६॥ सर्वागमैरिति ॥ दंष्ट्रिणः दंष्ट्रायुक्ताः बिलाधिवासाः बिलवासिनः सर्वागमैः सर्वशास्त्रैः वामेन यांतःप्रशस्ता शोभना गदिताः कथिताः सर्वे इति समग्रा इत्यर्थः अवलानां नरवैपरीत्यात्समस्तं शकुनं शोभनमुक्तं पुंसां तारैव गतिः शोभना स्त्रीणां वामैव गतिः शोभनेति निर्णयः ॥५७ ।। प्राच्यामिति ॥ पूर्वस्यां दिशि हयशुक्लवर्णाविति हयोऽश्वः शुक्लवर्णोपेतं वस्तु च एतौ प्रशस्तौ शोभनावित्यर्थः । तथा अवाच्या दक्षिणस्यां क्रव्यशवाविति ऋव्यं मांसं शवः जीवनोज्झितं वपुस्तथेति पूर्वोक्तवत् प्रशस्तावित्यर्थः प्रतीच्या पश्चिमायां कन्यादधिनी प्रसिद्ध प्रशस्ते शोभने कन्या च दधिच कन्यादधिनी उदीच्यामुत्तरस्यां दिशि द्विजसाधुगावःशस्ताः शोभनाः दिजश्वसाधुश्च गौश्च द्विजसाधुगावः इतरेतरद्वंद्वः ॥ ५८ ॥ प्रवर्तक इति ॥ यः गमनस्य पूर्व प्रवर्तकः स एव शकुनः पश्चात्प्रतिषेधको निषेधकश्चेत्स्यात् तदा गंतुर्नरस्य रिपुभ्यो मृत्युं समरं रणं ॥ भाषा ॥ बैडरैच ये बाम माऊंकू शुभकहे हैं ॥ ५६ ॥ सर्वागमैरिति ॥ डोंढों करकेयुक्त होंय और बिलमें निवासके करबेवाले होंय ये बांये होय करके गमन करें तो शुभ कहे हैं संपूर्ण शास्त्रनमैं और स्त्रीन• मनुष्यनते विपतिभावते सब ले शकुन प्रशस्त कहहैं, स्त्रीन• बामशकुन शुभ हैं ॥ १७ ॥ प्राच्यामिति ॥ पूर्वादशामें घोडा और शुक्लवर्णकं लिये कोईवस्तु ये दोनों शुभ हैं तैसेही दक्षिणदिशामें मांस और शव कहिये मुरदा ये दोनों शुभ हैं और तैसेही पश्चिम दिशामें कन्या, और दही ये दोनों शुभ हैं और उत्तर दिशामें ब्राह्मण और साधु और गौ ये तीन शुभ हैं ॥ ५८ ॥ प्रवर्तकइति ॥• जो शकुन गमनके पहले प्रवर्तको Aho! Shrutgyanam Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) वसंतराजशाकुने - चतुर्थी वर्गः । स्वजातिभिः स्यात्समकालजातैः सव्यापसव्यैः शकुनैः सदैव ॥ सर्वार्थसिद्धिर्नियतं यतस्तानाहुर्बुधास्तोरणनामधे - यान् ॥ ६० ॥ चाषभासबक बंजुलकाकाश्चक्रवाकशिखिखंजनगृध्राः || पोदकीकपिकपिंजलकीराः श्येन वार्तिकखरा दिवसाटाः ॥ ६१ ॥ पिंगलाऽथ बलिभोजनवैरी छिप्पिका च सहचर्मचटेन ॥ लोमशीशशकवल्गुलिकाश्च प्राणिनः प्रविचरंति रजन्याम् ॥ ६२ ॥ टीका ॥ रुजं रोगमन्यांश्चानर्थान्करोति ॥ ५९ ॥ स्वजातिभिरिति ॥ सव्यापसव्यैः वाम दक्षिणगैः स्वजातिभिरेकजातीयैः समकालजातैः एककालोत्पत्रैः शकुनैः सर्वदैव सर्वकालं नियतं निश्चित्तं सर्वार्थसिद्धिः स्याद्यतः यस्मात्कारणाद्बुधाः विद्वांसस्ताञ्छकुनां स्तोरणनामधेयानादुः तोरणमिति नामधेयं येषां ते तथोक्तास्तान् ॥ ६० ॥ चाषेति॥ चाषः पूर्वोक्तः मासः कावरिः पक्षिविशेषः 'भासस्तु गोकुक्कुट : ' इतिजयः छूको वेति केचिद्वकः प्रसिद्धः बंजुलः पक्षिविशेषः सूत्रधार इत्यन्ये काकाः प्रसिद्धाः चक्रवाकः कोकः शिखी मयूरः खंजनः खंजरीटः गृध्रः दूरहक गीध इति लोके प्रसिद्धः पोदकी देवी कपिः वानरः कपिंजलो गणेशः कीरः शुकः श्येनः सिंचारक इति प्रसिद्धः वार्तिकः पक्षिभेद: वटेर इति प्रसिद्धः खरः गर्दभः एते दिवसाटा दिवसचारिणो भवतीत्यर्थः ॥ ६१ ॥ पिंगलेति ॥ पिंगला पेचकः बलिभोज ॥ भाषा ॥ करबे वारो होय, और वोही शकुन पीछे निषेधको करबेवारो होय तो गमनको करवेवारो जो मनुष्य ताकूं वैरीनते मृत्यु होय और संग्राम और रोग और जे अनर्थ तिन्हें करें हैं ॥ ॥ १९ ॥ स्वजातिभिरिति ॥ एक जातिके होंय वांए दक्षिण होय एककालमें होंय ऐसे शकुनकर के सर्वकालमें सर्व सिद्धि होंय याहीले विवेकी इने तोरण नामधेय कहैं हैं ॥ ६० ॥ चाषेति ॥ चाषभासनाम कारी पक्षी बगला बंजुलपक्षी नाम सूत्रधार काक चक्रवाक नाम कोक मयूर खंजन नाम खंजरीट गीध पोदकी वानर कपिंजल सूआ शिखरा वार्तिकपक्षी बटेर या ना कर प्रसिद्ध हैं गर्दभ ये सबदिवसचारी हैं अर्थात् दिनमें बिचर - वारे ॥ ६१ ॥ पिंगलेति ॥ पिंगलानाम पेचक, घुघू, छिपकली, चर्मचट नाम चामाचेडी Aho! Shrutgyanam Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रितप्रकरणम् ४. (६३) मानुषाश्च नकुलाश्च बिडालाश्छागगोमृगमृगारिशृगालाः ॥ द्वीपिसापकसारसहंसाः मूकराश्च निशि चाह्नि चरंति ॥ ६३॥ भवेदनल्पः प्रथमं ततोऽल्पः स्वरोऽनुकलोऽपि नरस्य यस्य ॥ मुष्णंति नूनं पथि तस्करास्तं यलेन तस्माच्छकुनं परीक्ष्यम् ।। ६४॥ ॥ टीका ॥ नवैरी घूकः छिप्पिका मरुस्थल्या छापो इति प्रसिद्धःयच्छब्दश्रवणाजनानां रुधिर प्रकोपो भवति चर्मचटेन चामाचेडि कानु इति प्रसिद्धेन सहेति साध लोमशी लूकडी शशकः प्रसिद्धः वल्गुलिका मुखविष्ठा वागुलि इति लोके प्रसिद्धा एते प्राणिनो निशि विचरंति रात्रिचारिण इत्यर्थः ॥६२॥ मानुषाश्चेति ।। मानुषा नराः नकुलाः सर्पन्नाः प्रसिद्धाः विडाला मार्जाराः छागः अजः गौः प्रसिद्धा मृगोहरिणःमृगारिः सिंहः शगालो गोमायुरेतेषामितरेतरबंदः । द्वीपी चित्रकः सर्पः भुजंगः पिकः कोकिल: सारसः प्रसिद्धः हंसश्चकांगः सूकरो वराहः एते लिशिरात्रौ अह्नि दिवसे चचरंति अहोरात्रचारिण इत्यथः॥ ६३ ॥ भवदिति ॥ यस्य नरस्य प्रथममनुकूलः शकुनः अनल्पस्वरो भवेत्ततोऽल्पस्वरो भवेत् यथा खरः प्रथमं महत्स्वरेण रौति प्रांते क्षीणस्वरो भवति कश्चिप्रथमं सूक्ष्मस्वरेण रौति तदनु महत्स्वरेण रौति तदर्थं वचनं नूनं निश्चितं जनं तस्करां मुष्णंति ॥ भाषा ॥ वा कानुइति प्रसिद्धः लोमशीनाम लुकडी शशक नाम खर्गोस बल्गुलिकानाम मुखविष्टा वागुल या नामकर प्रसिद्ध है ये सब रात्रिमें विचरै हैं ॥ ६२ ॥ मानुषाश्चेति ॥ मनुष्य नकुल, न्योला, बिलाव, बकरिया, गौ, मृग, सिंह, शृगाल, हस्ती, सर्प, कोकिल, सारस, हंस, सूकर, ये सब रात्रिमें और दिनमेंभी विचरै हैं ॥ ६३ ॥ भवेदिति ॥ जा मनुष्यकू प्रथम अनुकूल शकुन होय, और अनल्पस्वर अर्थात् थोडा स्वरजामें न होय, और ता पीछे अल्पस्वर होय जैसे खर प्रथम तो ऊंचे स्वरकर के रुदन करैहै तापीछ अंतमें क्षीणस्वर होय, और कोई कोई गर्दभ पहले सूक्ष्मस्वरकरके रुदन करै है ता पीछे महान् ऊंचे स्वर करके रुदन करैहैं तो निश्चयही मार्गमें चौर तापु Aho ! Shrutgyanam Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) वसंतराजशाकुने- चतुर्थो वर्गः । वामाः क्वचिद्दक्षिणतः क्वचिच्च देशे शिवाकाककरापिकाणाम् || शब्दाः प्रशस्ताः शकुनं तु तस्माल्लोकप्रसिद्धयाऽपि परीक्षणीयम् ॥ ६५ ॥ सदाध्वगैर्योजनमात्रशेषे कल्याणकामैर्नगरप्रवेशे ॥ ग्रामप्रवेशेऽपि च गीतहास्ये कोशावशेषे परिवर्जनीये ॥ ६६ ॥ सव्यापसव्याभिमुखी तथाऽन्या पराङ्मुखी चोर्द्धमधोमुखी च ॥ सव्यापसव्यार्धविवर्तने द्वेष्ट पुष्ट गतयश्च पृष्ठे ॥ ६७ ॥ ॥ टीका ॥ तस्माद्यत्नेन यत्नपूर्वकं शकुनं गवेषणीयं निरीक्ष्यमित्यर्थः ॥ ६४ ॥ वामेति ॥ शिवा कचिदेशे वामे प्रशस्ता क्वचिदक्षिणतः शुभेति करापिकाणां शब्दाः कचिदेशे दक्षिणतः कचिद्वामे वामभागे प्रशस्ताः तस्माल्लोकप्रसिद्धयापि शकुनं परीक्षणीयं निरीक्षणीयमिति करापिका महरीति लोके प्रसिद्धा ॥ ६५ ॥ सदा इति ॥ नगरप्रवेशे यो, 'जनमात्रशेषे क्रोशावशेषे ग्रामप्रवेशे तयोः प्रवेशे च कल्याणं श्रेयः वांछद्धिः पथिकः गीतहास्ये गानहसने परिवर्जनीये त्याज्ये इत्यर्थः कदा सर्वदा सर्वकालम् ॥ ६६ ॥ ॥ सव्यापसव्येति ॥ सव्या वामा दक्षिणतो या वामं याति अपसव्या दक्षिणा या वामतो दक्षिणं याति अभिमुखीति या संमुखमभ्येति पराङ्मुखीति अग्रत उत्थाय पराङ्मुखं याति ऊर्ध्वमिति या अग्रतः उर्द्ध गच्छति अधोमुखीति या उपरिष्टादधो मुखी पतति सव्यापसव्यार्धविवर्त्तने द्वे इति सव्यं वाममपसव्यं दक्षिणं तयोरर्धमर्ध 1 ॥ भाषा ॥ रुपकूं ठगलेँ, तातें यत्नपूर्वक शकुन देखबेकूं योग्य है ॥ ६४ ॥ वामेति ॥ शिवाकोई देशमें बाँई शुभ है, और कोई देशमें दाहनी शुभ है, और करापिकानको शब्द कहूं वामें शुभहै, कहूं दाहिने शुभहै, ताते लोकमें जो प्रसिद्ध शकुन हैं ते भी देखबेकूं योग्य हैं करापिका नाम महरि या नाम करके प्रसिद्ध है ॥ ६५ ॥ सदाध्वगैरिति ॥ चार 1. कोश नगर रहै, अथवा एक कोश ग्राम बाकी रहे, तब इन दोनोंनके प्रवेशमें अपने कल्याणकी वांछा करै, उन पुरुषनकूं गीत बाजे हास्य ये वर्जनो योग्य है ॥ ६६ ॥ सव्यापसव्येति ॥ सव्या नाम वामा दक्षिण भागते वांये माहूंकूं जाय, और अपसव्या नाम दक्षिणा Aho! Shrutgyanam Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्रित प्रकरणम् ४. (६५) जातोदये दीप्तककुब्विभागे प्रशांतद्विग्जेन कृतानुनादः || अनर्थशंकां शकुनो विधाय निःसंशयं निष्फलतां प्रयाति ॥ ॥ ६८ ॥ प्रशांतदिग्जो विहितानुनादो यदा भवेद्दीप्तदिगुत्थि - तेन ॥ श्रेयस्तदानीं शकुनः प्रदर्श्य प्रयाति वैफल्यमवश्यमेव ॥ ६९ ॥ पंचषाणि शकुनानि देहिनामुत्तरोत्तरकृतोदयानि चेत्। पूर्वपूर्वमभिबाध्य निश्चितं तद्ददाति शकुनोंतिमः फलम् ॥ ७० ॥ ॥ टीका ॥ . मार्गस्तस्मान्निवर्तनेन वर्तनेन द्वे गती भवतः । इत्थं शकुनानामष्टौ गतयः पुरः अग्रे अष्टौ गतयः पृष्ठे च तथा चाग्रपृष्ठाभ्यां षोडश गतयो निगदिताः ॥६७॥ जातोदय इति ॥ दीप्तककुब्विभागे जातोदये शकुने सति प्रशांत दिग्जेन कृतानुनाद इति प्रशांतदिक्षु जातः प्रशांतदिग्जस्तच्छकुनेन कृतोऽनुनादो येन स तथा एवंविधो भ. वेत् तदा शकुनः अनर्थशंकां विधाय निःसंशयं निश्चितं निष्फलं प्रयाति ॥ ६८ ॥ प्रशांत इति ॥ दीप्तदिगुत्थितेन शकुनेन विहितानुनादः प्रशांतदिग्जो यदा शकुनो भवति तदानीं श्रेयः प्रदर्श्य शकुनः अवश्यमेव वैफल्यं प्रयाति ॥ ६९ ॥ पंचषाणीति ॥ उत्तरोत्तरकृतोदयानि उत्तरमुत्तरमग्रे कृतो विहितः उदयो यै ॥ भाषा ॥ 7 तो वांथे माऊंते दक्षिणभाग माऊंकूं जाय, और जो सन्मुख आवे ताकूं अभिमुखी कहै है अगाडीसूं उठकरके पीछेकूं जाय, तांसूं पराङ्मुखी कहे हैं और अगाडीते उठकरके ऊर्ध्व नाम ऊपरकूं गमन करे याकूं ऊर्ध्वमुखी कहै हैं, और ऊपर नीचो मुख करके पडे ताकूं अधोमुखी कहे हैं, और वांयो जेमनो इनके अंतर द्वारमार्गस्तन वेष्टन करके अर्ध होय या प्रकार शकुननकी आठ प्रकारकी गति है और आगे पृष्ठ अंगाडी पिछाडी करके षोडशगती ॥ ६७ ॥ जातोदय इति ॥ दीप्तदिशामें शकुन उदय होय ता पीछे शांत दिशाकरके कियोहै शब्द जाने ऐसो शकुन अनर्थकी शंका करे है निश्चय निष्फलता प्राप्त होय ॥ ६८ ॥ प्रशांत इति ॥ दीप्तदिशामें नाद होय और शांतदिशामें शकुन होय तब कल्याण होय बो शकुन अवश्यही विशेष फलदाता होय ॥ ६९ ॥ पंचषाणीति ॥ जा पुरुषकूं उत्तरो Aho ! Shrutgyanam Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) वसंतराजशाकुने-चतुर्थों वर्गः। भूरयः खगमृगाः समाकुलास्तुल्यकालविहितारवास्तु ये ॥ ते भवंति परदेशयायिनां देहिनां मरणकारिणो ध्रुवम् ॥७॥ मिश्रकसप्ततिनावमिमां यो निर्मलधीरधिरोहति धीरः॥ शाकुनसागरपारयियासोाकुलता भवतीह न तस्य । ॥७२॥ ॥ इति श्रीवसंतराजशाकुने विचारितं मिश्रप्रकरणं नाम चतुर्थों वर्गः ॥४॥ ॥टीका ॥ स्तानि पंचषाणि पंच वा षट् वा पंचषाणि शकुनानि देहिनां मनुष्याणां चद्भवति पूर्व पूर्वमभिवाध्य निश्चितमंतिमः शकुनः फलं ददाति ॥ ७० ॥ भूरय इति ॥ ये खगमृगाः खगाः पक्षिणःमृगाः वन्यसत्त्वाःखगाश्च मृगाश्चेति वंद्वः। तुल्यकालविहितारवाः समकाले कृतशब्दाः समाकुलाः संघीभूताः स्युःते परदेशयायिनां देहिनांध्रवं मरणकारिणो भवंति ॥ ७१ ॥ मिश्रकोत ॥ इमां मिश्रकसप्ततिनावं मिश्रकस्य सप्ततिश्लोकसंख्याकां तरी यः निर्मलधीः विशुद्धबुद्धिः सद्यः अधिरोहति अध्यास्ते तस्य पुरुषस्य शाकुनसागरपारयियासोरिति शाकुनं तद्रूपो यः सागरः समुद्रः तस्य पारं यियासोर्गन्तुकामस्य इहात्र लोके शकुनशास्त्रे व्याकुलता व्यग्रता न भवतीत्यर्थः॥ ७२ ॥ वसंतराज इति ॥ मया विमिश्रिकं विचारितं विचारपथं नीतमन्यानि विशेषणानि पूर्ववत् ।। इति शत्रुजयकरमोचनादिसुकृतकारिभिः महोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिविरचितायां वसन्तराजटीकायां विमिश्रकश्चतुर्थो वर्गः॥४॥ ॥ भाषा॥ त्तर पांच छै शकुन होंय तब पहले हुये जो शकुन तिने बाधकरके निश्चय अंतिम कहिये पिछलो जो शकुन सो फल देवैहै ।। ७० ॥ भूरय इति ॥ जो खग, मृग ये एककालमें शब्द करें और समूह होय तो ते शकुन परदेश जायवेवारेनकू निश्चयही मरणके करवेवाले हैं ॥ ७१ ॥ मिश्रक इति ॥ निर्मल जाकी बुद्धि ऐसो जो धरिपुरुष या मिश्रक नामकर जो सत्तर श्लोक रूपी नाव तामें चढे शाकुन रूप जो सागर समुद्र ताके पार होयवेकू इच्छाकर रह्यो ता पुरुषकू व्याकुलता नहीं होय ॥ ७२ ॥ __ इति श्रीमन्जटाशंकरात्मजज्योतिर्विच्छ्रीधरकृतवसंतराजशाकुनभाषाटीकायां विमिश्रकश्चतुर्थो वर्गः॥४॥ Aho ! Shrutgyanam Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभाशुभप्रकरणम् ५.. । (६७) यत्नतः कृतमयत्ननिर्मितं मंगलं यदुभयात्मकं भवेत्।।अप्र- . यत्नविहितं च मंगलं तत्समस्तमुपदिश्यतेऽधुना ॥१॥कीतनाच्छ्रवणतो विलोकनात्स्पर्शनात्समधिकं यथोत्तरम् ॥ मंगलाय दधिचंदनादिकं स्यात्प्रवासभवनप्रवेशयोः॥२॥ दध्याज्यदूर्वाक्षतपूर्णकुंभाः सिद्धानसिद्धार्थकचंदनानि ॥ आदर्शशंखामिषमीनमृत्स्नागोरोचनागोमयगोमधूनि ॥३॥ ॥ टीका ॥ यनत इति ॥ अधुना तत्समस्तमुपदिश्यते कथ्यते तत् किं यन्मंगलमुभयात्मकमुभयं भवेदकं यत्नतः कृतं पुरुषप्रेरणया जन्तिमेकमयलनिर्मितं पुरुषप्रेरणं विनैव स्वभावतः समुपस्थितं समागतममंगलं तु अप्रयत्नविहितमेव न ह्यमंगले कस्यचि प्रयत्नो भवतीति ॥१॥ कीर्तनादिति ॥ यन्मंगलं यथोत्तरं समधिकं स्यात् जायते कस्मात्कीर्तनात्स्वयं नामग्रहणात् श्रवणतः परेभ्यः श्रवणात् वीक्षणात् स्वयं दृष्टयवलोकनात्तत् दधिचंदनादिकं प्रवासगमनप्रवेशयोरिति प्रवासगमनं परदेशगमनमित्यर्थः । अन्यथा पौनरुत्त्यं स्यात् प्रवेशः यामादौ प्रवेशनं प्रवासंभवनप्रवेशयोरिति पाठे गृहप्रवेशनम् अनयोदः। दधि प्रसिद्धं चंदनादिक चंदनप्रभृतिस्पर्शात् मंगलाय विघ्नध्वंसाय स्यात् ॥२॥ दध्याज्येति ॥ दधिक्षीरजमाज्यं सर्पिः दूर्वा दूब इति लोके प्रसिद्धाःअक्षताः तंडुलाः पूर्णकुंभाः पा ॥ भाषा ॥ यत्नत इति ॥ गमनकरवेवाल• एक मंगलयत्न करके कियो होय कोई पुरुषकी प्रेरणा करके शुभयुक्तपदार्थ लेके सन्मुख आनो ये और विना यत्न करेबिन अकस्मात् शुभ शकुन सन्मुख आनो और यत्न करके कियो मंगल हुयो, और वाई समय अकस्मात् विना यत्न . करेभी मंगल होय ये उभयात्मक मंगल, और अमंगलमें तो काहूको यत्न नहीं होय वो विना यत्न करे विना होय है सो ये सब अब पंचमवर्गमें कहै हैं ॥ १॥ कीर्तनादिति ॥ अपने मुखतूं ही नामले अथवा दूसरो उच्चारण कर आप सुनेही यातें, और आप सन्मुख आते देखे यातेभी परदेशगमन समयमें अथवा गृहप्रवेश ग्रामप्रवेश समयमें दही चंदनादिक मंगलके लिये हैं अर्थात् स्पर्शसूं विघ्ननिवारणके लियेहैं ॥ २ ॥ दध्याज्येति ॥ दही १ घृत २ दूब ३ Aho! Shrutgyanam Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) ... वसंतराजशाकुने-पंचमो-वर्गः। गीर्वाणवीणाफलभद्रपीठपुष्पांजनालंकरणायुधानि ॥ तांबूलयानासनवर्धमानध्वजातपत्रव्यजनांबराणि ॥ ४ ॥ अंभोजगारसमिद्धवह्निगजाजवायांकुशचामराणि ॥ रत्नानि चामीकरताम्ररूप्यं बढेकपादोषधयः सुरा च ॥५॥ ॥ टीका ॥ नीयेन पूर्णाः घटाः सिद्धानं सिद्धमन्नं सिद्धार्थकः सर्षपः चंदनं मलयजं आदर्शःमुकुरः शंख जलज आमिषं मांसं मीनो मत्स्य मृत्स्ना मृत्तिका गोरोचना गवामुदरासमद्भतं पीतवर्ण गोमयं छगणं गौः प्रसिद्धा मधुमधुमक्षिकामुखनिष्ठयूतम् ॥३॥ गीर्वाण इति ॥ गीर्वाणः देवप्रतिमा वीणा वल्लकी फलं प्रसिद्धं भद्रपीठं सिंहासनं पुष्पं कुसुममंजनं नेत्रांजनमलंकरणमलंकारः आयुधं शस्त्रं पश्चादितरेतरबंदः । तांबूलेति तांबूलं प्रसिद्धं यानं वाहनमासनं चतुष्किकादि वर्धमानः शरावसपुटः ध्वजो वैजयंती आतपत्रं छत्रं व्यजनं प्रसिद्धमंबराण्यकुंशान्यत्रेतरेतरःसमासः॥४॥ अंभोजेति॥अंभोज कमलं भंगारः कलशः झारीति प्रसिद्धः समिद्धवह्निः दीप्तवहिः गजो हस्तीअजश्छागः वायं भेयादि अंकुशं मृणिः प्रतीतं चामरं बालव्यजनं रत्नं प्रसिद्धं चामीकरं सुवर्ण रौप्यं रजतं तानं प्रसिद्ध बढेकपशुः बद्धश्चासौ एकपशुश्चेति विग्रहः पशूनां वृंदमेकः पशुर्वा ओषध्यः फलपाकांताः सुरा मद्यम् ॥५॥ ॥ भाषा॥ चावल ४ जलकोभन्यो कुंभ ५ सिद्ध हुयोअन्न ६ सर्षप-सरसों ७ चंदन ८ काच ९ शंख १० मांस ११ मत्स्य १२ मृत्तिका १३ गोरोचन १.४ गोबर १५ गौ १६ सहत १७ ॥ ३ ॥ गीवाणेति ॥ देवतानकी प्रतिमा १८ वीणा १९ फल २० सिंहासन २१ पुष्प २२ नेत्रनको अंजन काजल वा सुरमा २३ अलंकार भूषण २४ शस्त्र २५ तांबूल २६ वाहन २७ आसन--पालकी म्यानो २८ शरावसंपुट २९ ध्वजा ३० छत्र ३१ व्यजन पंखा३२ वस्त्र ३३ ॥ ४ ॥ अंभोजेति ॥ कमल ३४ कलश-झारी ३५ दप्तिहुई अग्नि ३६ गज ३७ बकरियां ३८ भेरीकू आदिलेके बाजे ३९ अंकुश ४० चमर ४१ रत्न ४२ सुवर्ण ४३ चांदी ४४ तामो ४५ बंधेहुये पशुनको समूह वा एकपशु पाँव जाको एक बंधो होय ४६ फलजामें पक गये होंय ऐसी औषधी ४७ मदिरा ४८ ॥ ५ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभाशुभप्रकरणम् ५. ( ६९ ) वनस्पतिर्नूतनशाकमेव मांगल्यपंचाशदिदं प्रसिद्धम् ॥ शुभेषु कार्येष्वशुभेषु चैव कार्योद्यतानां शुभदं सदैव ॥ ६ ॥ एतानि दृष्ट्वा शुभदर्शनानि कुर्वीत हृष्टः पथि दक्षिणेन ॥ सकृद्विलोक्य शुभावहानि त्यक्तानि वामेन शुभा भवंति ॥ ७ ॥ गांधारषड्जावृषभस्तथाऽन्यस्वरेषु गंभीरमनोये ॥ वादिवेदध्वनिनृत्यगीतमित्यादि शस्तं किल यन्न रौद्रम् ॥ ८ ॥ ॥ टीका ॥ वनस्पतिरिति ॥ वनस्पतिः प्रसिद्धः नूतनशाकं फलविशेषः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण मांगल्यपंचाशदिति मांगल्यस्य मंगलभूतस्य वस्तुनः इदं, पंचाशत् प्रसिद्धम् लोके प्रसिद्धिं प्राप्तमित्यर्थः । कार्योद्यतानां पुंसां शुभेषु कार्येषु तथा अशुभेषु कार्येषु सदैव सर्वकालं शुभदम् ॥ ६ ॥ एतानीति ॥ एतानि पूर्वोक्तानि शुभदर्शनानि शुभं दर्शनं येषां तानि तथा दृष्टा हृष्टः प्रमुदितः पुरुष इति शेषः पथि मार्गे दक्षिणेन कुर्यादशुभावहानि सकृदेकवारं विलोक्य वामेन त्यक्तानि शुभानि भवति ॥ ७ ॥ गांधार इति ।। तंत्रीकंठोत्थितेषु सप्तसु गांधारस्तृतीयः स्वरः षड्जः प्रथमः ऋषभः द्वितीयः स्वरः तथाऽन्येषु एतव्यतिरिक्तेषु स्वरेषु ये मनोरमाः मनोरंजकाः वादित्रं तुर्यं वेदध्वनिः वेदोच्चारः गीतं गानं नृत्यं नर्तनमित्यादि एतत्प्रभृति यन . ॥ भाषा ॥ वनस्पतिरिति ॥ वनस्पति वृक्ष ४९ नवीनशाकफल ९० ये पंचाश मंगलवस्तु लोकमें प्रसिद्ध हैं कार्यमें उयुक्त होय रहें जिन पुरुषनकूं शुभकार्यनमें तैसेही अशुभकार्यनमें ये सर्वकालमें शुभके देवेवारे हैं ॥ ६ ॥ एतानीति ॥ शुभ हैं दर्शन जिनके ऐसे ये कहे ज पदार्थ तिने मार्गमें देखकरके प्रसन्नहोयके इनकूं जमने भागमें लेके गमन करे और जर अशुभ पदार्थहैं उ एकपात देख करके उने वाम भागमें त्याग करके गमन करे फिर देखे नहीं तो शुभके देवेवारे होंय ॥ ७ ॥ गांधार इति ॥ सातों स्वरनमें तीसरो स्वर गांधार और प्रथमस्वर षड्ज और द्वितीय स्वर ऋषभ, और इनते न्यारे स्वर है तिनमें जे मनकुं प्रसन्न करवेवारे होंयते और बीजे वेदध्वनि गीतनृत्य इनकूं आदिले जो भयकूं प्रगट न क Aho! Shrutgyanam / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) वसंतराजशाकुने-पंचमो वर्गः। आदाय रिक्तं कलशंजलार्थी यदि ब्रजेत्कोऽपि सहाध्वगेन। पूर्ण समादाय निवर्ततेऽसौ यथा कृतार्थः पथिकस्तथैव ॥ ॥९॥ अंगारभस्मेंधनरज्जुपंकं पिण्याककासितुषास्थि. केशाः ॥ कृष्णायसा वल्कलकृष्णधान्यपाषाणविष्टाभुज गौषधानि ॥ १०॥ तैलं गुडश्चर्म वसाविभिन्नं रिक्तं च भांडं लवणं तृणं च ॥ तक्रार्गलाशृंखलवृष्टिवाताः कार्ये क्वचित्रिशदिदं न शस्तम् ॥ ११॥ - टीका ॥ रौदं न भयजनकं तच्छस्तं मन्तव्यमित्यर्थःn८॥ आदायेति ॥ यदि कोऽपिजलार्थी रिक्तं कलशमादाय अध्वगेन सह व्रजेत् गच्छेत् यथा पूर्ण कलशं समादाय असौ जलार्थी निवर्तते तथा पथिकः कृतार्थः कृतकार्यः स्वगृहमभ्येतीत्यर्थः ॥९॥ अय पुरतो यानि यानि न शुभानि तानि तान्याह ॥ अंगारेति ॥ अंगारः दग्धकाष्ठांशः भस्म क्षारमिन्धनमनपाका) काष्ठं रज्जुः प्रसिद्धा पंकः कर्दमः पिण्याकः पीडयमानतिलांशशेषः कार्पासः प्रसिद्धः तुषः धान्यत्वक् अस्थि प्रसिद्ध केशाः अलकाः कृष्णं वस्तु अयो लोहं वल्कलं वृक्षत्वक कृष्णधान्यं माषादि पाषाणः प्रस्तरः विष्ठा मलः भुजंगः सर्पः औषधं प्रतीतं सर्वेषामेवेतरेतरबंदः ॥ १० ॥ तैलमिति ॥ तैलं प्रसिद्धं गुडः इक्षुविकृतिः चर्म त्वक् वा अजिनं वसा स्नायुविशेषः वा मांसरसः विभिन्नं भमं रिक्तं वा भांडं भाजनं लवणं समुद्रादिप्रभवं तृणं शु - ॥ भाषा ॥ रे ते शुभ जाननो ॥ ८ ॥ आदायेति ॥ जो कोई जलको अर्थी खाली कलश लेके वाममार्गीके संग गमन करें फिर जल कलशमें भरके पीछो आवे तो गमन करवेवारो पथिकभी कृतार्थ होयके अपने घर आवे ॥ ९॥ अंगारेति ।। बिनाधूमको अंगार १ राख २ ईधन लकडी ऊपला ३ रज्जु ४ कीच ५ तिलकुटा ६ कपास ७ तुष ८ अस्थि ९ खुले हुये केश १० कालीवस्तु ११ लोह १२ वल्कल १३ वृक्षकी त्वचा छाल १४ काले तिल उडदादि १५ पाषाण १६ विष्ठा १७ सर्प १८ औषध १९ ॥ १० ॥ तैलमिति ॥ तैल २० गुड २१ चाम मजाहीन २२ खाली वा फूटो पात्र २३ लवण २४ Aho ! Shrutgyanam Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभाशुभप्रकरणम् ५. (७१) स्वपादजानुस्खलनं देशानां संगः कचिद्घातपलायनं च ॥ द्वाराभिघातध्वजवस्त्रपाताः प्रस्थानविघ्नं कथयति यातुः ॥ ॥ १२॥ मार्जारयुद्धारवदर्शनानि कलिः कुटुंबस्य परस्परेण ॥ चित्तस्य कालुष्यकरं च सर्व गंतुः प्रयाणप्रतिषेधनाय ॥१३॥ ॥ टीका ॥ प्कघासैकदेशःतकं प्रसिद्धम् अर्गला काष्ठविशेषःशृंखलः लोहमयःप्रतीतः वृष्टि वर्षा वातः वायुविशेष इदं त्रिंशत् कचित्कार्येषु न शस्तं सर्वत्र अशोभनमित्यर्थः क्वचिदृष्टिघाता इत्यपि पाठः॥११॥ स्वपादति ॥ स्वपादजानुनोः स्खलनं तथा दशानां वस्त्रप्रांतानां संगः कचिदिलनं घातेन युक्तं पलायनद्वाराऽभिघातः गच्छतः द्वारस्थकाष्ठादिना घातः ध्वजवस्त्रपाताः ध्वजवस्त्रयोः पातः पतनं नूनं निश्चितं एते पू. वोक्ताः प्रस्थानविघ्नं प्रस्थाने चलने विनमंतरायं कथयंति प्रतिपादयंति स्वपादयानस्खलनमित्यपि पाठः ॥१२॥ मारोित ॥ मार्जारयुद्धारवदर्शनानीति मार्जारयोर्युद्धमारवः शब्दः दर्शनं विलोकनं तानि तथा कुटुंबस्य परस्परेण कलिः क्लेशः यदन्यच्चित्तस्य मनसः कालुष्यकरं तत्सर्वं गंतुः प्रयाणप्रतिषेधनाय भवतीति तात्प ॥ भाषा॥ तृण-सूखी घास २५ छाछ २६ काष्ठ २७ लोहेकी सांकल २८ वर्षा २९ वायु ३० ये तीस वस्तु सब कार्यनमें शुभ नहीं हैं सदा अशुभ हैं ॥ ११ ॥ स्वपादति ॥ अपनो पाँव जानु इनको स्खलन होनो, और वस्त्रके पल्लेनको संग कहा लग जाय, काऊमें अटक . जाय, और कोई भाग्यौ जातो होय या जलदीही जातो होय वाके हाथको प्रहार लगजाय वा पाँवकी ठोकर लगजाय अथवा वस्त्र कीही फटकार लग जाय और ध्वजा पताकाको पतन होनो और वस्त्रको पतन होनो और चलती समयमें द्वारेमें कोई काष्टादिक करके घातहोनो ये सब निश्चयही चलती समयमें होंय तो विघ्न कहेहैं ॥ १२ ॥ माजोरेति ॥ मार्जार जे बिलाव तिनको युद्ध और इनको दर्शन और कुटुंबको परस्पर कलह होनो और बीजो मनकू मलिनताके करवेवाले हैं ये सब गमन करवेवाले पुरुषकू प्रयाणके निषेधके लिये जाननो ॥ १३ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) वसंतराजशाकुने-पंचमो वर्गः। दृष्टेः शवे रोदनशब्दहीने महार्थसिद्धिः कथितोद्यमेषु ॥ गृहप्रवेशे तु शवः शवत्वं रुजं सुदीर्घामथ वा ददाति ॥ ॥ १४ ॥ गंडूषमावर्तयतां नराणामंतर्जलं चेत्प्रविशत्यकस्मात् ॥ भवेत्तदाऽभीप्सितभोज्यलाभो यः कौतुकी तेन निरूप्यमेतत् ॥ १५ ॥ उज्झितं झटिति दंतधावनं संमुखं पतति यत्र वासरे ॥ भोजनं भवति तत्र वांछितं व्यासभाषितमिदं हि नानृतम् ॥ १६ ॥ इति श्रीवसंतराजशाकुने शुभाशुभनिर्णयो नाम पंचमो वर्गः॥५॥ ॥टीका॥ र्यार्थः ॥ १३ ॥ दृष्ट इति ॥ रोदनशब्दहीने शवे दृष्टे सति उद्यमेषु महार्थसिद्धिः कथिता बुधैरिति शेषः । प्रवेशे तु शवः शवत्वमथ वा सुदीर्घा रुजं ददाति ॥१४॥ गंडूषमिति ॥ गंडूषमावर्तयतां नराणां चदकस्मादतर्जलं प्रविशति तदा अभीप्सितभोज्यलाभः स्यात् । यः कौतुकी स्यात्तेनैतन्निरीक्ष्यं विलोकनीयम् ॥ १५ ॥ उज्झितमिति ॥ उज्झितं त्यक्तं दंतधावनं यत्र वासरे झटिति शीघ्र संमुखं पतति तत्र वासरे वांछितं भोजनं भवति हि यस्मादिदं व्यासभाषितं नानृतं सत्यमित्यर्थः१६ - वसंतराज इति ॥ मया शुभाशुभे विचारिते कस्मिन्वसन्तराजशाकुने ग्रंथे अन्यानि विशेषणानि पूर्ववव्याख्येयानि इति शत्रुजयकरमोचनादिसुकृतकारिभिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचितायां वसंतराजटीकायां पंचमो वर्गः ॥५॥ ॥भाषा ॥ दृष्ट इति ॥ संगमें कोई रोतो न होय ऐसो शव कहा मरो मुरदा दीखे तो सर्व उद्यमनमें ' महान् अर्थसिद्धि विवेकानने कहीहै और गहप्रवेश समयमें तो शव दीखे तो मृत्यु अथवा दर्घि रोग देवे ॥ १४ ॥ गंडूषमिति ॥ गंडूष जो कुल्ला कर रह्यो होय मनुष्य ताके अ. कस्मात भीतर जल प्रवेश करजाय तो वांछित भोजन पदार्थ लाभ होय जो कै न मानें उनकू या प्रकार देखलेनो योग्य हैं ॥ १५ ॥ उज्झितमिति ॥ जादिना दांतुन करतेमें दांतुन हाथमें सूं छूटके सम्मुख जाय पड़े तादिना बांछित भोजन होय निश्चय ये व्यासजी. को वचन है झूठो नहीं है सत्य है ॥ १६ ॥ - इति श्रीमजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचितायां वसंतराजशाकुन भाषाटीकायां शुभाशुभप्रकरणं नाम पंचमो वर्गः ॥५॥ Aho ! Shrutgyanam Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेंगिते आलोकनप्रकरणम् । (७३) अथाभिदध्मो द्विपदेषु तावत्प्रधानभावाच्छकुनं नराणाम् ॥ नैमित्तिको यत्परिभाव्य भाव्यं फलं शुभाशोभनयोर्ब्रवीति ॥ ॥ १ ॥ नरोऽभिरूपः सितवस्त्रमाल्यो वाचं प्रशस्तां मधुरां च जल्पन् ॥ एवंविधा योषिदपि प्रयाणे प्रवेशकाले च करोति सिद्धिम् ॥ २ ॥ वमद्विकेशा हतमानगर्वाश्छित्रांगनमांत्यजतैलदिग्धाः ॥ रजस्वला गर्भवती रुगात मलान्वितोन्मत्तजटाधराश्च ॥ ३ ॥ ॥ टीका ॥ अथाभिदध्म इति ॥ द्विपदेषु तावत्प्रधानभावात् प्राधान्येन नराणां शकुनं वयमभिदध्मः नैमित्तिकशाकुनिको यत्सम्यक्परिभाव्य सम्यग् ज्ञात्वा शुभाऽशोभनयोः शकुनयोः फलं ब्रवोति ॥ १ ॥ नर इति ॥ एवंविधो नरः प्रयाणे गमने प्रवेशकाले च सिद्धिं करोति कीदृग अभिरूपः योग्यरूपः सितवस्त्रमाल्य इति सिते वस्त्रमाल्ये यस्य स तथा किं कुर्वन् प्रशस्तां शोभनां मधुरां च वाचं जल्पन् एवंविधा योषिदपि तथाविधफलकर्त्रीत्यर्थः ॥ २ ॥ वमन्निति । एते सर्वसमीहितेषु सकलवांछितार्थेषु दुःखावहाः तानेव प्रतिपादयन्नाह वमदिकेशा हतमानगर्वा इति वमंत उद्भिरन्तः विकेशाः गतकेशाः हतौ मानगर्वी येषां ते तथा पश्चात्कर्मधारयः । छिन्नांगनमांत्यजतैलदिग्धा इति छिन्नमंगं येषां ते तथा नम्राः वस्त्ररहिताः अंत्यजाः शूद्रास्तैलदिग्धास्तैल ॥ भाषा ॥ अथाभिदध्म इति ॥ पंचमवर्गके कहे पीछे अब छठे वर्गमें दोय पावनके द्विपदजीवन में मनुष्य मुख्य हैं सो प्रथम मनुष्यनको शकुन कहैं हैं मनुष्यनको निमित्त करके शुभ अशुभनको फल क हैं ॥ १ ॥ नर इति ॥ सुंदर रूपवान् होय, श्वेतवस्त्र श्वेतमाला धारण करे होय, सुंदरवाणी बोलतो होय, ऐसो मनुष्य सन्मुख वा दक्षिण आतो होय तो गमनमें, और प्रवेशमें सिद्धि करैहैं अथवा स्त्री भी ऐसी दीखै तो पुरुषको सो फल करै ॥ २ ॥ वमन्निति ॥ सर्व कार्यनमें दुःखके देवेवारे तिनै कहै हैं वमनकरतो होय, केशविना मूंड मूंडाये हुयो होय, काऊ करके मानगर्व जाको दूर हुयोहोय, ऐसो होय अंग जिनको छिन्नहोय, नग्न होय, शूद्र होय, तैल करके लिप्त जाको अंग होय, रजस्वला स्त्री होय, गर्भिणी होय, रोगार्त होय, मलयुक्त होय, मद्यपाना Aho! Shrutgyanam Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुने - षष्ठो वर्गः । दीनद्विषत्कृष्णविमुक्तकेशाः क्रमेलकस्थाः खरसैरिभस्थाः ॥ संन्यासिसाक्रंदनपुंसकाद्या दुःखावहाः सर्वसमीहितेषु ॥ ॥ ४ ॥ युग्मम् ॥ पृथ्वीपतिर्ब्राह्मणहर्षयुक्तो वेश्या कुमारी सुहृदः सुवेषाः ॥ नार्यो नराश्वाश्ववृषाधिरूढाः शुभाय दृष्टा सकलोद्यमेषु ॥ ५ ॥ (७४) ॥ टीका ॥ स्विन्नाः पश्चादितरेतरद्वंद्वः रजस्वला इति स्त्रीधर्ममुपागता गर्भवतीति गर्भयुक्ता रुगर्ता इति रोगयुक्ता मलान्वितोन्मत्तजटाधराश्चेति मलेन अन्विताः सहिताः उन्मत्ता मद्यपानादिना क्षीबा जटाधारिणः अत्र कर्मधारयः द्वंद्वो वा ॥ ३ ॥ दीनद्विषदिति ॥ दीनाः दीनवदनाः द्विषतः कलहं कुर्वन्तः कृष्णाः कृष्णवर्णाः विमुक्तकेशा इति विमुक्ताः केशाः यैस्ते तथा असंयमितकेशा इत्यर्थः । क्रमेलकस्था इति उष्ट्राधिरूढाः खरसैरिभस्था इति खरो गर्दभः सैरिभो महिषस्तत्रस्थाः संन्यासिसाकंद - नपुंसकाद्या इति संन्यासिनः कुटीचराः आक्रंदैन रोदनाधिक्येन सहिताः साकंदा: नपुंसकाद्याः नपुंसकप्रभृतयः पश्चाद्वंद्वः ॥ ४ ॥ युग्मं, पृथ्वीपतिरिति ॥ सकलो. घमेषु सर्वकार्येषु एते दृष्टाः शुभाय भवंति तानेवाह पृथ्वीपतिरिति पृथ्वीपतिर्नृपतिः ब्राह्मणो विप्रः कीदृग्घर्षयुक्तः प्रमोदभाक् वेश्या वारांगना कुमारी अपरिणीता स्त्री सुहृदः सज्जनाः सुवेषाः शुभनेपथ्यधारिण्यो नार्यः स्त्रियः नराइच अश्ववृषाधिरूढाः अश्वो वाहः वृषो धवलः तयोरधिरूढाः स्थिता नरा इत्यर्थः तदुक्त ॥ भाषा H दिक करके उन्मत्त होय, जटाधारी होय || ३ || दीनद्विषदिति || दनि जाको मुख होय कलह कररहो होय, कृष्णवर्ण जिनको होय, खुले केश जिनके होयं, ऊंटपे बैठो होय, खरपै वेठो होय, महिषपैं बैठो होय, संन्यासी होय, अधिक रोवतो होय, नपुंसक होय, अर्थात् हीँजडागत राडे नाचवे वारे ये सब नपुंसकही हैं, ये सब संपूर्ण कार्यन के बीच दुःखके देवेवारे हैं ॥ ४ ॥ युग्मं, पृथ्वीपतिरिति ॥ राजा होय, हर्षयुक्त ब्राह्मण होंय, बेश्याहोंय, कुमारी कन्या होय, सज्जन पुरुष होय, सुंदर जिनके वेष ऐसे स्त्री पुरुष होय, घोडापे बैठे होंय, बैलपे बैठेहोय, ये दोनों श्लोकमें जे कहे हैं ते सब संपूर्ण कार्यनमें ये दीख जांय तो शुभ करवे - Aho! Shrutgyanam Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेंगिते आलोकनप्रकरणम्। (७५) कृष्णांबरा कृष्णविलेपनाढया कृष्णां स्रजं मूनि धारयंती॥ दृष्टा सकोपा यदि कृष्णवर्णा नारी नरैस्तद्विपदो भवंति ॥ ॥६॥ श्वेतांबरा श्वेतविलेपनाढया माल्यं सितं मूनि धारयंती॥ हृष्टा प्रकृष्टा यदि गौरवर्णा नारी नरैः स्यात्तदभीष्टसिद्धिः ॥७॥ धृतातपत्रः शुचिशुक्लवासाः पुष्पाचितश्चंदनचर्चितांगः ॥ निश्रावयुक्तः कृतभोजनो वा विप्रः पठन्यच्छात सर्वसिद्धिम् ॥ ८॥ ॥ टीका ॥ मन्यत्र "कन्यागोपूर्णकुंभं दधिमधुकुमुमं पावकं दीप्यमानं यानं वा गोप्रयुक्तं करिनपतिरथः शंखवीणाध्वनिर्वा ॥ उक्षिप्ता चैव भूमिर्नलचरमिथुनं सिद्धमन्नं घृतं वावेश्या स्त्री मद्यमांसं हितमपि वचनं मंगलं प्रस्थितानाम्॥” इति ॥ ५ ॥ कृष्णांबरेति ॥ नरैर्मानवैः एवंविधा नारी यदि संमुख मभ्येति वा आगच्छंती दृष्टा विलो. किताभवति तदा विपदो भवंति।कीदृशी कृष्णांवरा कृष्णमंबरं वस्त्रं यस्याः सा तथा कृष्णविलेपनाच्या इति कृष्णं विलेपनं तेन आढया दिग्धा किं कुर्वन्ती कृष्णां स्वजं मूर्द्धनि धारयंती कृष्णा इति अशुभाचरणैः कृष्णा ऽशुचिरित्यर्थः । सकोपा इति कोपयुक्ता कृष्णवर्णा इति स्वाभाविककृष्णशरीरवर्णेत्यर्थः ॥ एवंविधैः नरैश्च ताः विपदो भवंतीत्यर्थः॥ ६॥ श्वेतांबरा इति ॥ नरैः पुरुषैः एवंविधा नारी दृष्टा विलोकिता संमुखमायांतीति शेषः । तदा अभीष्टसिद्धिः स्यात् । कीदृशी श्वेतांबरा वेतवस्त्रपरिधाना श्वेतविलेपनाढ्यादिपूर्ववत् । प्रहृष्टति हर्षोपेता एवंविधैनरैश्चाभीसिद्धिः स्यादित्यर्थः ॥ ७ ॥ धृतातपत्र इति ॥ एवंविधो विप्रः सर्वसिद्धिं य ॥ भाषा ॥ .. बारे ॥ ५ ॥ कृष्णांचरेति ॥ काले वस्त्र पहरे होय काला विलेपन जाके लगरहा होय कालीमाला मस्तकमें धारण करे होय कोपसहित होय और कृष्णवर्णभी ज़ाको होय ऐसी स्त्री जो सम्मुख आवे तो दीखजाय तो मनुष्यनकू विपदकष्ट निश्चय होय ऐसो पुरुषभी सम्मुख आवतो दीखजाय तो भी कष्ट होय ॥ ६ ॥ श्वेतांबरा इति ॥ श्वेतवस्त्र धारण करे होय श्वेतही विलेपन करे हाय प्रसन्नतायुक्त होय श्वेतमाला मस्तकपै धारण करे गौर वर्ण जाको होय ऐसी स्त्री दीखे और सम्मुख आती होय तो मनुष्यनकू अभीष्टसिद्धि होय और ॥ ७ ॥ धुतति ॥ छत्र धारण करे होय पवित्र होय श्वेत वस्त्र धारण करे होय पुष्प करके अलंकृतहोय चं Aho! Shrutgyanam Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुने - षष्ठो वर्गः । अभ्युपगच्छति यस्य यियासोः स्त्रीपुरुषोऽप्यथ वा फलहस्तः॥ सर्वसमीहितसिद्धिरवश्यं तस्य नरस्य भवत्यचिरे ॥ ९॥इति वसंतराजशाकुने नरेंगिते प्रथममालोकनप्रकरणम् ॥ १ ॥ · (७६) ॥ टीका ॥ . च्छति कीदृग् धृतातपत्र इति धृतमातपत्रं छत्रं येनं स तथा । पुनः कीदृक्छुचिः पवित्रः पुनः कीदृक शुक्लवासाः श्वेतवस्त्रधारी पुनः कीदृक्पुष्पार्चित इति पुष्पादिभिरलंकृतः पुनः कीदृक चंदनचर्चितांग इति चंदनेन चर्चितमंगं यस्य स तथा । पुनः किंविशिष्टः निश्रावयुक्त इति निश्रावः भोजनार्थं तत्परिमितमात्रमन्नमदानं तेन युक्तः सहितः वाऽथवा कृतभोजन इति कृतं भोजनं येन स तथा । किं कुर्वन् पठन् ॥ ८ ॥ अभ्युपगच्छतीति ॥ यस्य यियासोः गन्तुकामस्य पुरुषस्य स्त्रीपुरुषः स्त्रिया युक्तः पुरुषः स्त्रीपुरुषः अभ्युपगच्छति सम्मुखमायाति अथ वा फलहस्तः केवलः पुमान् स्त्री वा संमुखमायाति तस्य नरस्य अचिरेण सर्वसमीहितसिद्धिः सकलवांच्छितनिष्पत्तिरवश्यं भवति । ग्रंथांतरे तु तपस्विनामादौ दर्शनं गच्छतां महत्फलप्रदं भवति यदुक्तं “श्रवणस्तुरगो राजा मयूरः कुंजरो वृषः ॥ प्रस्थाने वा प्रवेशे वा सर्वे सिद्धिकरा मताः ॥ १ ॥ पद्मिनी राजहंसाश्च निर्ग्रथाच तपोधनाः ॥ यं देशमुपसर्पति तस्मिन्देशे शुभं भवेत् ॥ २॥ यदुक्तमर्जुनं प्रति पुरुषोत्तमेन पुराणादौ 'आरोहस्व रथं पार्थ गांडीवं च करे कुरु ॥ निर्जितां मेदिनीं मन्ये निर्ब्रयो यदि संमुखः ॥ इति अत्र पूर्वमेव संन्यासिनाममंगलत्वेन प्रतिपादनान्निर्ग्रथशब्देन जैनमतानुसारिणो मुमुक्षवो गृह्यं ॥ ९ ॥ : वसंतराजेति ॥ अस्मिन् वसंतराजाख्ये शाकुनशास्त्रे नरेगिते आलोकनं प्रथमं प्रकरणं व्याख्यातम् ॥ १ ॥ ॥ भाषा ॥ दन करके चर्चित अंग जाको भोजनके अर्थ परिमाणमात्र अन्नके दान करके युक्त होय भोजन जाने कियो होय और पाठ करतो होय ऐसो ब्राह्मण होय तो सर्वसिद्धि देवे ॥ ८ ॥ अभ्युपगच्छतीति ॥ गमनकरो चाहे ता पुरुषके स्त्रीसहित पुरुष सम्मुख आवे अथवा फल हाथमें लिये होय केवल पुरुष होय वा स्त्री केवल होय तो वा पुरुषकूं शीघ्रही सर्व वांछित फल सिद्धि अवश्य होय ॥ ९ ॥ इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधरीयवसंतराजशाकुने: नरंगिते आलोai नाम प्रथमप्रकरणव्याख्या ॥ १ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेंगिते उपश्रुतिप्रकरणम् । (७७) अभीष्टदुष्टार्थफलं नराणामुक्तं समालोकनमत्र सम्यक् ॥ आलोकयामोऽथ सुनिश्चितार्थामुपश्रुतिं कार्यविनिश्चयाय || ॥ १ ॥ गच्छेति पृष्ठे पुरतस्तथैहि वागीदृशी केनचिदुच्यमाना ॥ सर्वाशिषश्चातिशयेन तेभ्यश्चित्तस्य तुष्ट्यर्थजयाय पुंसाम् ॥ २ ॥ सिद्ध्यै विरावा जहि छिंधि भिंधि चेत्यादयः शत्रुवधोद्यतानाम् ॥ क यासि मा गच्छ तथैवमाद्याः प्रयोजनारंभनिवारणार्थाः॥ ३॥ ॥ टीका ॥ अभीष्टेति ॥ अभीष्टः मनोहारी दुष्टस्तद्विपरीतः अर्थः प्रयोजन यस्यैतादृशं फलं नराणामुक्तं प्रतिपादितम् अत्र ग्रंथे सम्यकू तदालोकनफलं च अधुना कार्यविनिश्चयाय उपश्रुतिं लोके असोई इति प्रसिद्धामालोचयामः कथयाम इत्यर्थः । देवप्रश्न उपश्रुतिरिति हैमः । कीदृशीं सुनिश्चितार्थामिति सुनिश्चितो निर्णीतः अर्थोयस्याः सा तथा ताम् ॥ १॥ गच्छेति ॥ पृष्ठे पृष्ठभागे गच्छं इति पुरतः अग्रभागे एहि आगच्छ ईदृशी वाक्केनचिदुच्यमाना कथ्यमाना पुंसां पुरुषाणां चित्तस्य मनसः तुष्ट्यर्थं जयायेति तुष्टिरेव अर्थः प्रयोजनं यस्य तादृशो यो जयः तस्मै अन्यथा चतुर्थी - द्विवचनं स्यात् । तथा अतिशयेन तेभ्यो नरेभ्यः सर्वाशिषः सर्वाश्च ता आशिष आशीवचनानि तुष्ट्यर्थ जयाय स्युरित्यर्थः । तत्र तुष्टिर्हर्षः अर्थो धनंजयः शत्रुपराभवः २ सिघायिति॥ शत्रुवधोद्यतानां पुंसां जहि छिंधि भिंधि वेत्यादयो विरावाः सिद्ध्यै स्युः तथा क यासि मा गच्छ एवमाद्याः विरावाः प्रयोजनारंभनिवारणार्था इति प्रयोजनं ॥ भाषा ॥ अभीष्टेति ॥ मनुष्यनके वांछितफल और विपरीत फल आलोकन फल कहे अब कार्यके निश्चय करवेके लिये लोकमें असोई या नाम करके प्रसिद्ध ऐसी उपश्रुति क हैं ॥ १ ॥ गच्छति ॥ गमन कर्त्ता पुरुषके पीठ पीछे गच्छ नाम गमन करो ऐसी वाणी कही जाय, और वाके अगाडी एहि नाम आओ ऐसी वाणी काऊ पुरुष करके कहवेमें आवे तो वा पुरुषकं संपूर्ण भाशिष मनकी तुष्टिके अर्थ जयके कार्यमें उद्युक्त होय रहेहैं, उनकूं मार्गमें कोई अर्थ होय है ॥ २ ॥ सिद्धयै इति ॥ शत्रुके वधमें उद्युक्त होय रहेहोंय उनके Aho! Shrutgyanam Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) वसंतराजशाकुने - षष्ठो वर्गः । स्थैर्य स्थिरार्थागमनं तदर्थात्कार्यान्निवृत्तिं विनिवर्तनार्थात् ॥ लाभं जयं भद्रममंगलं वा बुध्येत तत्तत्प्रतिपादकार्थात् ॥ ॥ ४ ॥ लोके प्रसुप्ते विजने च मार्गे तिस्रस्तरुण्यः सहिताः कुमार्या ॥ स्रग्दीपनैवेद्यविलेपनाद्यैर्गणाधिनाथं विधिना -. ऽचयेयुः ॥ ५ ॥ ततोऽन्नमानं कुडवादिकं यत्तदक्षतैस्ताः परिपूरयेयुः ॥ ॐ चंडिकायै नम इत्यनेन मंत्रेण संमंत्र्य च सप्तवारान् ॥ ६ ॥ ॥ टीका ॥ कार्य तस्य आरंभः प्रारंभः तस्य निवारणं निषेधः तदेव अर्थः प्रयोजनं येषां ते तथा। ॥ ३ ॥ स्थैर्यनिति ॥ स्थिरार्थाद्वाक्यात्स्थैर्य भवति तदर्थादिति गमनार्थाद्वाक्या मनं भवति विनिवर्तनार्थाद्वाक्यानिवृत्तिर्भवति एवं लाभं जयं भद्रममंगलं च तत प्रतिपादनार्थात् बुध्येत तत्तदुपश्रुतिवाक्यार्थविचारणादित्यर्थः ॥ ४ ॥ प्र कारतरेणाह || लोके प्रमुप्त इति ॥ तिस्रस्तरुण्यः गणाधिनाथं गणेशं विधिना अर्चयेयुः कीदृश्यः तरुण्यः कुमार्या कन्यया सहिताः युक्ताः कस्मिन् सति लोके प्रसुप्ते सति निद्रां गते सति च पुनः कस्मिन्मति विजने लोकप्रचाररहिते मार्गे सति कैरचयेयुरित्याह स्त्रग्दीपनैवेद्यविलेपनाद्यैरिति पूर्व व्याख्यातम् ॥ ५ ॥ ततोन्नमानामिति ॥ ततः तदनंतर मात्रमानं यत् कुडवादिकं वर्तते तत्र गुडवः चत्वा ॥ भाषा ॥ जहि नाम मारो मारो वा छिंधि छेदन करो वा भिंधि भेदन करो ऐसे शब्द होंप तो कार्यसिद्धिके अर्थ जाननो और क यासि नाम कहां जायहे मा गच्छ मत जाय इनकूं आदिले ऐसे शब्द होंयं तो कार्यके प्रारंभको निवृत्तिके लिये जाननो ॥ ३ ॥ स्थैर्यमिति ॥ उपश्रुतीके विचार में स्थिर अर्थसूं स्थिरभाव जाननो, और गमन अर्थसूं गमन जाननो, और निवर्तन अर्थसूं कार्यकी निवृत्ति जाननो, जैसो उपश्रुती के विचारते अर्थ होय तैसा तैसो या प्रकार लाभ जय मंगल जाननो ॥ ४ ॥ अब और प्रकार करके कहैं हैं ॥ लोके प्रसुप्त इति ॥ सर्व जन सोय जांय मार्गमें भी मनुष्य गमन करते न होंय तब तीन स्त्री कुमारी कन्यानकरके सहित विधिपूर्वक चंदन, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्यादिक करके गणेशजीको पूजन करे ॥ ५ ॥ ततोन्नमानामिति ॥ पूजन करे Aho ! Shrutgyanam Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेगिते उपश्रुतिप्रकरणम् । ( ७९ ) संमार्जनीकांडकृताववेष्टे विनायकं तंत्र निवेशयेयुः ॥ ततो व्रजेयुर्गणनायकं तं स्त्रियो गृहीत्वा रजकालयांतम् ॥ ॥ ७ ॥ अग्रेऽथं तस्याक्षतमुष्टिमात्रं परिक्षिपेयुः शुचिभूमिभागे || प्रयोजनं भावि विभाव्य तूष्णीमाकर्णयेरत्रजकोदितानि ॥ ८ ॥ ईरितं रजकगेहवर्तिना यन्नरेण वचनं स्त्रियाऽथ वा ॥ तद्भवत्यवितथं प्रयोजने भाविनीति कथयंति सूरयः ॥ ९ ॥ ॥ टीका ॥ रिंशक प्रमाणः आदिशब्दात्मस्थादिपरिग्रहस्तन्मानं ताः स्त्रियः अक्षतैः पूरयेयुः किं कृत्वा ॐ चंडिकायै नमः इत्यनेन मंत्रेण सप्तवारं संमंत्र्य अक्षतानिति शेषः ॥ ॥ ६ ॥ संमार्जनीति ॥ तत्र कुडवे विनायकं निवेशयेयुः कीदृशे तस्मिन् संमार्जनीकांडकृताववेष्ट इति संमार्जनीकांडेन तृणेन कृतः अववेष्टः आवेष्टनं यस्य तथा । ततः तत्करणानंतरं तं विनायकं गृहीत्वा स्त्रियो योषितः रजकाळातं व्रजेयुः अत्रतिशब्दः समीपवाची ॥ ७ ॥ अग्रे थेति ॥ शुचिभूमिभागे पवित्रभूप्रदेशे तस्यः गणेशस्य अग्रे अक्षतं मुष्टिमात्रं परिक्षिपेयुः स्त्रिय इति शेषः । ततः प्रयोजनं कार्य भावीति मनसि विभाव्य विचित्य तद्रजकोदितानि रजकभाषितानि तूष्णीं यथा स्यात्तथा आकर्णयेरन श्रुतिगोचरी कुर्युः ॥ ८ ॥ ईरितमिति ॥ सुरयो वृद्धाः इति कथयंति प्रतिपादयन्ति इतीति किं यत् रजक ॥ भाषा ॥ पीछे चालीस टंक अथवा प्रस्थमात्र प्रमाणको कूंडो लेकर पीछे । ओं चंडिकायै नमः ॥ या मंत्रकरके सातबेर अक्षतनकूं अभिमंत्रन करके उन अक्षतनकरके वे स्त्री कूंडेकूं भर लेवें ॥ ॥ ६ ॥ समार्जनीति ॥ वा कुंडेमें गणेशजीकूं बैठाय देवे वा कुंडेकूं बुहारीसूं तृणसूं आवेष्टनकर फिर गणेशजीकूं लेकरके वे स्त्री रजक के घर के समीप जायँ ॥ ७ ॥ अग्रथेति ॥ रजकके घरके अगाडी पवित्र सुंदर पृथ्वीमें गणेशजीके आगे स्त्री एकमुट्ठी चावल फेंक दे तब अपनो कार्य मनमें विचारके चुप चाप होय रजक के कहे हुये वचन सुने ॥ ८ ॥ ईरितमिति ॥ बडे विवेकी या प्रकार कहे हैं कि रजकके घरमेंसूं पुरुषकरके या स्त्री करके Aho! Shrutgyanam Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) वसंतराजशाकुने - षष्ठो वर्गः । अत्रैव कार्ये पुनरेवमन्ये वदंति तत्प्राक्तनमानभांडम् ॥ भांडांतरस्योपरि संनिदध्युः पाषाणखंडेन ततोऽपिदध्युः ॥ ॥ १० ॥ विन्यस्य तस्योपरि मार्जनीं च तिस्रः कुमारीसहितास्तरुण्यः ॥ तत्सर्वमादाय जने प्रसुप्ते चांडालगेहांतिकमाश्रयेयुः ॥ ११ ॥ पूर्वोदितं तत्र विधिं विधाय दत्तावधानाः शृणुयुस्ततस्ताः ॥ चांडालगेहे यदि कोऽपि किंचिद्रवीति कार्येऽपि तथाऽवधार्यम् ॥ १२ ॥ ॥ 'टीका ॥ गहवर्तिना नरेण स्त्रिया वा वचनमीरितं भाषितंः भाविनि भविष्यति प्रयोजने कार्ये तदवितथं सत्यं भवति ॥ ९ ॥ अत्रेति ॥ अत्रैव कायें अन्ये सुरयः पुनरेवं वदंति ताः स्त्रियः तन्मानभांडं भांडांतरस्योपरि संनिदध्युः स्थापयेयुः ततः पाषाणखंडेन पिदध्युराच्छादयेयुः ॥ १० ॥ विन्यस्येति ॥ कुमारी सहितास्तिस्रस्तरुण्यश्चांडालगेहांतिकमाश्रयेयुः चांडालगेहस्य संनिधि गच्छेयुः किं कृत्वा तस्योपरि मार्जनीं विन्यस्य स्थापयित्वा पुनः किं कृत्वा तत्सर्वं पूर्वोक्तमादाय कस्मिन्सति प्रसुप्ते जने सति लोके निद्रां गते सतीत्यर्थः ॥ ११ ॥ पूर्वोदितमिति ॥ ततः पूर्वोदितं पूर्वप्रतिपादितं तत्र विधि विधाय कृत्वा दत्तावधाना इति दत्तमवधानमुपयोगो याभिस्ताः नार्यः गृणुयुः यदि चांडाल गेहे कोपि किंचिद्रवीति कार्येऽपि भाविप्रयोजनेऽपि तदा तदवधार्थी तथा फलं विचारणीयमित्यर्थः ॥ १२ ॥ ॥ भाषा ॥ कहे हुये वचन कार्य में सत्यही होय ॥ ९ ॥ अत्रेति ॥ याही कार्यमें, और आचार्य येत कहे हैं वैई स्त्री वो जो पात्र है ताकूं कोई और पात्रके ऊपर धरनो फिर वा पात्रकू पाषाणके टूकसूं ढक देनों ॥ १० ॥ विन्यस्येति ॥ फिर वाके ऊपर नवीन मार्जेनी बुहारी धरनी फिर तीनो स्त्री कुमारी कन्यासहित ये सर्व लेकरके मनुष्य सबसोयजाँय तब चांडालकें घरके समीप जायँ ॥ ११ ॥ पूर्वोदितमिति ॥ पूर्व कहा जो विधि ताय करके चुपचाप होय वाणी श्रवण करें जो चांडालके घरमें कोई कछू कहै ताय श्रवण करके अपने कार्यमें वि Aho! Shrutgyanam Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेंगिते उपश्रुतिप्रकरणम् (८१) प्रदोषकाले यदि वा प्रभाते लोके क्वचित्किंचन भाषमाणे॥ • उपश्रुतिः कार्यसमुद्यतेन सार्वत्रिकी वा परिभावनीया॥ ॥ १३॥ यदालकेनोक्तमनोदितेन तत्स्यादसत्यं न युगांतरेऽपि ॥ उपश्रुतेर्नान्यदिहास्ति किंचित्सत्यं सुबोधं शकुनं जनानाम् ॥ १४ ॥ वदंति वामं रुदितं प्रशस्तमदृश्यदेहो यदि रोदिता स्यात् ।। निंदंत्यवामं पथि सर्वकामाञ्छतं विधत्ते रुदितं रजन्याम् ॥ १५॥ . ॥ टीका ॥ प्रदोषकाल इति ॥ अथ कार्यसमुद्यतेन पुंसा सार्वत्रिकी उपश्रुतिः परिभावनीया विचारणीया जनश्रुतिरुपश्रुतिरिति हैमः । कस्मिन् प्रदोषकाले रात्रिभारंभसमये प्रदोषो रजनीमुखमित्यमरः । यदि वा प्रभाते क्वचित् किंचन भाषमाणे लोके सति उपश्रुतिः परिभावनीयेत्यर्थः ॥ १३ ॥ यदिति ॥ अनोदितेन अप्रेरितेन यदालकेन शिशुना प्रोक्तं तद्युगान्तरेऽपि असत्यं मृषा न स्यात् इहास्मिन् लोके जनानां सुबोधं शकुनमुपश्रुतेरन्यत्सत्यं किंचिन्नास्ति ॥ १४ ॥ केचित्त्वर्कदिने व्यवसायिनां गृहे सोमे भट्टानां गृहे भूसुते राजपुत्राणां गृहे बुधे वणिजां गृहे गुरौ विप्रसदने शुक्र म्लेच्छगृहे शनौ शूदाणां सदने गत्वोपश्रुतिर्विलोक्येत्याहुः । वदंतीति।वामं रुदितं प्रशस्तं वदंति यदि रोदिता रोदनकर्ता अदृष्टदेहः स्याद्तुः दृग्गोचरो न भवेदित्यर्थः । अवाम दक्षिणं रुदितं जिंदंति पथि रजन्यां श्रुतं रुदितं सर्वकामा ॥भाषा॥ चार करनो योग्य है ॥ १२ ॥ प्रदोषकाल इति ।। प्रदोषकालमें वा प्रभातकालमें वा कोई मनुष्य बोलै नहीं सब सोयजायँ वा समयमें कार्यवान् पुरुष करके सदा सर्वदा उपश्रुति विचार करने योग्य है ॥ १३ ॥ यदिति ॥ विना काऊ करके प्रेरो बालक ता करके कह्यो वचन युगांतरमें भी असत्य नहीं होय या लोकमें जनन। सुबोधपूर्वक शकुन उपश्रुतितें अन्यत् कहिये और सत्यकभी नहीं है रविदिनमें चांडालगृहे चंद्रवारकू नाऊके घर, मंगलवारकू धोबीके घर, बुधवारकू वैश्यके घर, गुरुवार• ब्राह्मणके घर, शुक्रवारकू म्लेच्छके घर, शनिवारकू शूद्रनके घर, वा दासीके घर इनमें जायके उपश्रुती शकुन देखनो यामें विशेष जाननो हो तब बृहज्यौतिषार्णवके प्रश्नस्कंधमें देखलेनो ॥ १४ ॥ वदंतीति ॥ वामभागमें रुदन सुनै, और रुदन कर्ताको देह तो दीखै नहीं शब्द सुनवेमें आवे तो शुभ कहनो, और नो जेमने भागमें रुदन सुनै तो कार्यकू नाश करै, और मार्गमें रुदन रात्रिमें श्रवण Aho ! Shrutgyanam Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) वसंतराजशाकुने-षष्ठो वर्गः। मृत्युः सुतानां रुदितेन पृष्ठे लाभो भवेत्तस्य निवर्तनेन।।मत्युस्तथाऽग्रेरुदितेन गंतुः सिद्धिं विधत्तेरुदितं रिपूणाम्॥१६॥ उग्रं भवेद्रोदनमग्रभागे भयं भवेदह्निविभागभूते ॥ नैर्ऋत्यकोणे रणमार्गरोधो वायव्यकोणे रुदितं समृद्ध्यै ॥१७॥ पृष्ठाग्रयोदक्षिणवामयोश्च सिद्धिः सदा तोरणरोदनेन ॥ शुभोप्यऽसम्यग्यदि रोदनार्थों ज्ञातो विभाव्यः स पुनस्तथापि ॥ १८॥ ॥ इति श्रीवसंतराजशाकुने नरेंगिते द्वितीयमुपश्रुतिप्रकरणम् ॥२॥ ॥ टीका ॥ विधत्ते ॥ १५ ॥ मृत्युरिति ॥ सुतानां पृष्ठे रुदितेन मृत्युः स्यात् तत्र निवर्त्तनेन लाभो भवेत् तथा ग्रे रुदितेन मृत्युः स्यात् रिपूणां वैरिणां रुदितं सिद्धिं विधत्ते॥१६ उग्रमिति ॥रोदनमग्रभागे उग्रं भवेत् किंचिचिताविधायके दुष्टमित्यर्थः । वह्रिविभागभूते अग्निदिगुद्भवे रुदिते भयं स्यात् नैर्ऋत्यकोणे रुदिते रणमार्गरोधः स्यात् रणं च मार्गरोधश्चेति द्वन्दः । वायव्यकोणे रुदितं समद्ध्यै स्यात् ।।१७ ॥ पृष्ठाग्रयोरिति।।पृष्ठाग्रयोः दक्षिणवामयोश्चेति तोरणरोदनेषु सदा सिद्धिः स्यात् यदि शुभः असम्यग्वा रोदनार्थी ज्ञातः स्यात्तदा सः रोदनार्थः पुनस्तथा विभाव्यः ॥ १८ ॥ . इति वसंतराजशाकुने व्याख्यायां नरेंगिते उपश्रुतिप्रकरणं द्वितीयम् ॥ २॥ ॥ भाषा ॥ कर तो संपूर्णकाम मनोरथ प्राप्त होय ॥ १५ ॥ मृत्युरिति ॥ पीठ पिछाडी रुदन होय तो पुत्रनकी मृत्यु होय निवर्तन हुयेते अर्थात् पीछो वगद आवे तो लाभ होय, और अगाडी रुदन होयतो गमन काकी मृत्यु होय, और जो वैरीनके रुदन होय ती सिद्धिकरै । ॥ १६ ॥ उग्रमिति ॥ और अग्रभागमें रोदन होय तो उग्रहोय कळूक चिताको करवेवारोहोय, और अग्नि कोणमें रुदन होय तो भय होय, और नैत्यकोणमें रुदन होय तो रग मार्गको रोध होय, और वायव्यकोणमें रुदन होय तो समृद्धिके अर्थहोय है ॥ १७ ॥ पष्टाग्रयोरिति ॥ तोरणभांगमें रुदन हो तो होय सो अगाडी पिछाडी जेमनो वायो सदासिद्धिको देनेवालोहै, और जो रुदनको अर्थ जानले शुभहै कि, अशुभ है तो फिर तैसोही विचारकरलेनोयोग्य है ॥ १८ ॥ इति श्रीमज्जटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचितायां वसंतराजशाकुनभा० नरेंगिते उपश्रुतिप्रकरणं द्वितीयम् ॥ २॥ Aho! Shrutgyaram Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेंगिते छिक्काप्रकरणम् । (८३) अथ क्षुताख्यं शकुनं क्रमेण महाप्रभावं प्रतिपादयामः ॥त्रस्यंति यस्माच्छकुनाः समस्ता मृगाधिनाथादिव. वन्यसत्त्वाः ॥ १ ॥ सर्वस्य सर्वत्र च सर्वकालं क्षुतं न कार्य कचिदेव शस्तम् ॥ जाते क्षुते तेन न किंचिदेव कुर्यात्क्षुतं प्राणहरं गवां तु ॥२॥ निषिद्धमग्रेऽक्षणि दक्षिणे च धनक्षयं दक्षिणकर्णदेशे। तत्पृष्टभागे कुरुतेऽरिवृद्धिं क्षुतं कृकाणां शुभमादधाति ॥ ३ ॥ भोगाय वामश्रवणस्य पृष्ठे कर्णे च वामे कथितं जयाय ॥ सर्वार्थलाभाय च वामनेत्रे जातं क्षुतं स्यात्क्रमतोऽष्टधैवम् ॥ ४॥ ॥ टीका ॥ अथेति ।। उपश्रुतिकथनानंतरं महाप्रभाव क्षुताख्य छिक्काभिधं शकुनं परिभावयामःवयं विचारयामः यस्माक्षुताख्याच्छकुनात् समस्ताःशकुनास्त्रस्यंतिभयं प्रानुवंति यथा मृगधिनाथाद्वन्यसत्वा वनोद्भवाःप्राणिनस्त्रस्यति ॥ १॥ सर्वस्यति ॥ सर्वजनस्य सर्वत्र सर्वस्मिन्देशे सर्वकालं सर्वस्मिन्काले क्वचित्कार्ये क्षुतं न शस्तं क्षुते जाते सति तेन कारणेन किंचिदेव कार्य न कुर्यात्तु पुनः गवां क्षुतं गोकृतं क्षुतं प्राणहरं भवति ॥२॥ निषेधमिति ॥ अग्रे जातं क्षुतं कार्यस्य निषेधं कुरुते तथा दक्षिणे अक्षणि नेत्रे च दक्षिणकर्णदेशे धनक्षयं कुरुते तत्पृष्ठभागे दक्षिणवामकर्णपृष्ठभागे अरिवृद्धिं कुरुते कृकाणां पृष्ठभागे शुभमादधाति ॥ ३ ॥ भोगश्चेति ॥ वामश्रवणस्य पृष्ठे तत्क्षुतं भोगाय भवति । वामे च कर्णे जयाय कथितम् । ॥ भाषा ॥ अथेति ॥ उपश्रुति कहे के अनंतर महान् प्रभावरूप छिकानाम शकुन कहहैं जा छिकाते समस्त शकुन त्रास... प्राप्त होइ हैं जैसे सिंहादिकनसूं और वनके जीव त्रास पवि हैं तैसे ॥ १ ॥ सर्वस्येति ॥ सर्वजननकू सर्व देशमें सर्वकालमें कोईकार्यमें छींक शुभ नहीं है छींकहोय तब कोई कार्य नहीं करनो योग्य · है, और गमनकी छींकतो प्राणकी ह खेवारीहै ॥ २ ॥ निषिद्धमिति ॥ अगाडी छींक होय तो कार्यकू निषेधकरै, और दक्षिण नेत्रपै भी होय तो निषेधजाननो, और दाग कर्णके पास छींक होय तो धनको क्षय कर और दक्षिणकर्णके पृष्ठभागमें छींक होय तो वैरीकी वृद्धिकरै और कृकादिका जो कंठको पृष्ठभाग तामें छींक होय, तो शुभकरै ॥ ३ ॥ भोगश्चेति ॥ वांये कर्णपै छींक होय तो जय होय वांये कर्णके पृष्ठभागमें होय तो भोग भोगें और बांये नेत्रके अगाडी होय Aho ! Shrutgyanam Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) वसंतराजशाकुने-पष्ठो वर्गः। क्रमानिषेधं गमनस्य विघ्नं कलिं समृद्धि क्षुधमुग्ररोगम् ॥करोति रोगक्षयमर्थलाभं दीप्तादिदिक्षु क्षुतमुद्गतं सत् ॥५॥ . प्रागन्यपुंसः परतः परस्मात्पुनः पुनर्वा तत एव जातम् ॥ वृद्धाच्छिशोर्वा कफतो हठादा जातं क्षुतं केऽपि वदंत्यऽसत्वम् ॥ ६॥ आयतयोर्न स्वपने प्रशस्तं क्षुतं प्रशंसंति न भोजनादौ ॥ भवेत्कथंचिद्यदि भोजनांते भवेत्तदान्याहनि भोज्यलाभः॥ ७॥ आदौ क्षुतं चेच्छकुनैस्ततः किं पश्चाक्षुतं चेच्छकुनैस्ततः किम् ॥ जातानुजाताञ्छकुनानिहंति क्षुतं क्षणेनाव न संशयोऽस्ति ॥८॥ ॥ टीका ॥ सर्वार्थलाभाय च वामनेत्रे क्षुतं स्यात् । अष्टमु दिक्षु क्षुतं जातं क्रमादष्टधा एवं फलं स्यात् ॥ ४॥क्रमादिति ॥ दीप्तादिदिक्षु उद्गतं क्षुतं, क्रमात् गमनस्य निषेधं कुरुते विनमंतरायं कलि केशं समृद्धिं क्षुधमुग्ररोगं रोगं स्वल्पमिति पूर्वस्माद्विशेषः रोगक्षयमर्थलाभं च करोतीति सर्वत्र संबध्यते ॥ ५ ॥ प्रागिति ॥ प्रथममन्यपुंसः ततः परस्मात ततोऽपि परस्मात् ततएव पुंसः पुनः पुनर्वाजातं वृद्धाच्छिशोर्वा कफतः हठाद्वाक्षुतं समुद्भूतं केपि प्रेक्षावंतः असत्त्वं वदंति प्रभावहीनं कथयंतीत्यर्थः॥६॥आyतयोरिति ॥ स्वपने शयने आयंतयोरादावंते च छिक्का न प्रशस्ता भोजनादौ क्षुतं न प्रशंसंति कथंचिद्यदिभोजनांते क्षुतं भवेत् तदा तदन्येहनीति तस्माद्यदन्यदहातस्मिभोज्यलाभः स्यात्॥७॥आदाविति॥आदौ प्रथमंक्षुतं चेच्छ कुनैः ततः किं स्यात् । ॥ भाषा ॥ तो सर्वार्थलाभ होय, ये क्रमते आठप्रकारकी छिक्काको फल कह्यो ॥ ४ ॥ क्रमादिति ॥ दग्धा, प्रदीप्ता, धूमिता इन दिशामें छिक्का होय तो गमनको निषेध करैहै और विघ्न, कलह उग्ररोग, अल्परोग, क्षय ये होय और शांता.दिशानमें छिका होय तो समृद्धि क्षुधा अर्थ लाभ ये करै ॥ ५ ॥ प्रागन्यति ॥ प्रथम अन्यपुरुषकी छींक होय ता पीछे औरने छीको ता पीछे और छीकै ताते परे और छौंक होय और वा वारंवार छीकै वा वृद्धकी होय अथवा बालककी होय वा कफते होय वा कोई हठते छींके तो कोई आचार्य इनकू असत्त्व नाम प्रभावहीन कहैहैं ॥ ६ ॥ आद्यंतयोरिति ॥ सोयवेके आदिमें और सोयवेके अंतमें छिका शुभ नहीं है, और भोजनके आदिमें छींक शुभ नहीं; और जो कदाचित् भोज. नके अंतमे छींक होय तो वाके दूसरे दिन भोज्यपदार्थको लाभ होय !! ७ ॥ आदा. Aho! Shrutgyanam Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. १लाभ २ धनलाभ ३ मित्रलाभ ४ अनिमय ४ मित्रसंगम नरेंगिते छिक्काप्रकरणम् । प्रयोजने यत्र कृतेऽपि जातंचतं क्षणात्तद्विनिहंत्यवश्यम्।।कायॊत्सुकेनापि मनागपीदं तस्मादुपेक्ष्यं न विचक्षणेन ॥९॥ .. ... ॥ टीका ॥ पश्चाच्छकुनानंतरं क्षुतं चेत्ततोऽपिशकुनैः किं स्यात् । तेनैव तेषां प्रतिषेधनात् यतः जातानुजाताञ्च्छकुनान्क्षुतं निहंति अत्र संशयो न कार्य इत्यर्थः॥८॥प्रयोजन इति॥कृतेपिप्रयोजने कृते कार्योदेशेयत्र क्षुतं जातं तदा क्षणात् क्षणमात्रेण तत्कार्यमवश्यं विनिहति कार्योत्सुकेनापि पुंसाक्षुते जाते मनाक्प्रतीक्ष्यं विचक्षणेन तस्मात् कार्योंत्सुक्यान उपेक्ष्यम्न उपेक्षाविषयीकार्यमित्यर्थः॥९॥मतांतरेतु पथिप्रस्थितस्य अभिमुखे छिक्का नरस्य मरणप्रदा भवति दक्षिणापिन शुभदावामा पृष्ठभागोद्भवाच शुभदा ग्रामप्रवेशे तु वामा अ-। अष्टसु दिक्षु प्रतिप्रहरं छिकायाः शुभाशुभसूचकं चक्रम् ॥ शुभदा दक्षिणाशुभा पृष्ठोद्भवा | ई० . १ लाम पराजयकरी संमुखा लाभप्र- २ नाश | २ मित्रदर्शन दा गृहोपविष्टस्य किंचित्कार्य | ३ व्याधि ३ शुभवार्ता ४ अग्निभय कर्तुकामस्य पुंसः दिग्विभाग-- जनित फलं यथा पूर्वस्यां ध्रुवं| १ शत्रुभय लाभः अग्नौ हानिः दक्षिणस्यां। २ रिपुसंग ३ लाभ मरणं नैर्ऋत्यामुढेगः पश्चिमा- ४ भोजन या सर्वसंपत् वायव्यां शुभवा नै श्रिवणम् उत्तरस्यां धन लाभ । २ मित्रभेट लाभः स्यात् ईशान्यां श्रीवि.] ३ मित्रलाभ ३ कलह ३ शुभवार्ता जयश्च तथा ब्रह्मस्थानेपियं. रमन थांतरेऽप्येवम॥"पूर्वे छिक्का भवेन्मृत्युरानेय्यां शोक एव च ॥ हानिश्च दक्षिणे भागे ॥ भाषा ॥ विति ॥ जो शकुनके आदिमें छींक होय फिर शकुन होय तो कुछनहीं, और शकुन हुये पीछे छींक होय तोभी शकुन करकै कुछ नहीं होय, छींक हायवेसू शकुनके फल मिटजायँ हैं यामें संदेह नहीं करनो योग्य है ॥ ८ ॥ प्रयोजन इति ॥ कोई कार्यको उद्देश करै वा समयमें छौंक होय तो कार्य नष्ट होय जाय कार्यवान् पुरुषकै छींक होय तो ठहर जाय फिरजाय, और छींक हुये पै कार्यकी जलदीसू चलो कहा होय है ऐसो नहीं करनो उचित है ।। ॥९॥ मतांतर कहैहैं ।। प्रयाण करवेवारे पुरुषकू मार्गमें सन्मुख छींक होय तो मनुष्यकू मरणदे गंता १ लाभ २ मत्युभय ३ नाश .४ कलि वा० १ स्त्रीलाभ १लाभ १दूरगमन २ हर्ष । ४.चोर Ahol.Shrutgyanam Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) . वसंतराजशाकुने-षष्ठी वर्गः। इति श्रीवसंतराजशाकुने नरेंगते तृतीयं क्षुतप्रकरणम् ॥३॥ ॥ टीका ॥ नैर्ऋत्यां प्रियसंगमः ॥१॥ पश्चिमे मिष्टमाहारं वायव्यां शुभसंपदः ॥ उत्तरे कलहं विद्यादीशान्यां च धनागमम् ॥ २॥ आकाशे सर्वसंहारं पाताले सर्वसंपदः।। दश क्षुतानि चैतानि आत्मक्षुत्तो महद्भयम् ॥ ३ ॥ नववस्त्राभरणभृतः क्षुतं तु तादृग्विधस्य लाभाय ॥ स्नानांते दीप्तायां दिशि दुष्टस्नानहेतुः स्यात्" ॥ ४ ॥ रोगिपृच्छायां वैद्यस्याकारणाय गच्छतां क्षुतं रोगिमृत्युदं भवति वैद्यस्य आगच्छतः भुतं रोगं क्षणात् हंति तदुक्तमन्यत्र “वैद्यस्याकारणाय गच्छतां रोगिमृत्युदम् ।। वैद्यस्यागच्छतो रोगं क्षुतं हंति क्षणादपि ॥ १॥ इति वसंतराजशाकुने व्याख्यायां नरेंगते तृतीयं क्षुतप्रकरणम् ॥ ३ ॥ ॥ भाषा॥ वेवाली है, और जेमनीभी शुभकी देवेवारी नहीं है, और बाई पीठ पीछेकी शुभदेवेवारी है, और ग्रामप्रवेशमें तो वामा अशुभदे- ई०१ हर्ष पू० १ लाभ १ लाभ आ01. वेवारी, और दक्षिणा शुभ देवे- । २ नाश २ धनलाभ २ मित्रलाभ वारी, और पीट पीछली | ३ व्याधि । ३ मित्रलाभ ३ शुभवार्ता पराजय करे, औरं सन्मुखकी | ४ मित्रसंगम ४ अग्निभय ४ अग्निभय छींक लाभ देवे, और घरमें बै- | १ शत्रुभय आठौ दिशानमै प्रहर १ लाभ ठो होय, और काम करिवेकी उ०२ रिपुभय प्रहरके छिक्काको शु. २ मृत्युभव द० ३ लाभ भअशुभको जिताय ३ नाश इच्छा जाकी होय ता पुरुषकू ४ भोजन बेवारो चक्रम् ४ कलि दिशानको फल जाननो, पूर्व छीं | १ स्त्रीलाभ १ दूरगमन १ लाभ क होय तो निश्चय लाभ होय, हाय, वा०२ लाभ प० २ हर्ष २ मित्रभेट नै और अग्निकोणमें हानि होय, | ३ मित्रलाभ ३ कलह ३ शुभवार्ता और दक्षिणमें मरण होय, नैर्ऋ- | ४ दूरगमन ४ चोर त्यमें उद्वेगहोय, और पश्चिममें |.. सर्व संपत् होय, वायव्यमें शुभवातसुने, और उत्तरमें होय तो धन लाभ होय; और ईशानमें छीकहोय तौ श्रीविजय होय, प्रस्थानसमयमेंभी -दिशानको फल और ग्रंथमें कह्यौहै ॥ पूर्वदिशामें छींक होय तो मृत्युहाय, और अग्निकोणमें शोक होय, दक्षिणमें हानि होय, नैर्ऋत्यमें प्रियसंगम. होय, पश्चिममें मिष्ट आहार होय, वायव्यमें श्रियसंपदा होय, उ.. त्तरमें कलह होय; ईशानमें धनको आगमन होय, आकाशनाम ऊपर छींक होय तो सर्व Aho! Shruigyanam Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेंगिते स्फुरणप्रकरणम् । (८७) मोऽवनागस्फुरणस्य सम्यक् प्रत्येकमध्यक्षफल प्रभावम् ॥सर्वस्य यत्रावगते स्वदेहादुत्पद्यते कर्मविपाकसंवित् ॥ १ ॥ मूर्ध्नि स्फुरत्याशु पृथिव्यवाप्तिः स्थानप्रवृद्धिश्व ललाटदेशे॥ भ्रूत्राणमध्ये प्रिय संगमः स्यान्नासाक्षिमध्ये च सहायलाभः २ ॥ ॥ टीका ॥ बूमोधुनेति ॥ अधुना अंगस्फुरणस्य अध्यक्षफलप्रभावमिति अध्यक्षः प्रत्यक्षोप लभ्यमानो हि फलस्य प्रभावो माहात्म्यं यस्य तं वयं ब्रूमः । कथं सम्यग् यथा स्यातथेति क्रियाविशेषणं प्रत्येकमिति फलस्य विशेषणमेकमेकं प्रति प्रत्येकं विशेषाकारेणेत्यर्थः । यस्मिन्नवगते ज्ञाते स्वदेहात सर्वत्र कर्मविपाकसंवित् कार्यविपाकस्य ज्ञानमुत्पद्यते ॥ १ ॥ मूङ्खति ॥ मूर्ध्नि मस्त स्फुरति सति आशु शीघ्रं पृथिव्यवाप्तिः भूमिप्राप्तिः स्यात् ललाटदेशे स्फुरति स्थानप्रवृद्धिः भूत्राणमध्ये स्फुरति प्रिय संगमः स्यात् नासाक्षिमध्ये स्फुरति जलाक दु.क्ष.न. ॥ भाषा ॥ संहार करे, पाताल में नीचे होय तो सर्व संपदा होय, ये दश छींक हैं. और गमनसमय में आपकूही छींक आवे तो महाभय जाननो, और नवीन वस्त्र आभरण धारण करतीसमयमैं छींक होय तो तैसोही लाभ होय, और जो स्नानके अंतमें दीप्ता दिशामें छींक होय तो दुष्टस्नान फिर करावे, और रोगीको पूछनी समयमें छींक होय तौ वैद्यके नहीं करवेके अर्थ जानना और वैद्यकू बुलावे जाय जिनकूं होय तो रोगीकूं मृत्युदेवेवारो होय, और घर आये वैद्यकूं छींक होयतो रोग नाश होय तत्क्षण ॥ इति श्रीमज्जटाशंकरतनयज्योतिविच्छ्रीधरविरचितायां वसंतराजशाकुनभाषाव्याख्यायां नरेंगिते तृतीयं छिक्काप्रकरणम् ॥३॥ मोऽधुनेति । अब एक एक अंगके स्फुरणको प्रत्यक्ष फलप्रभाव कहें हैं जाके हुये सूं अपने देहते सर्वकूं कर्मविपाकको वा कार्यफलको ज्ञान होय है ॥ १ ॥ मृति Aho ! Shrutgyanam Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) वसंतराजशाकुने-षष्ठो वर्गः। हगंतमध्ये स्फुरणेऽर्थसंपत्सोत्कंठितः स्यात्स्फुरणे हगादेः॥ जयो दृशोऽधः स्फुरणे. रणे स्यात्प्रियश्रुतिः प्रस्फुरित च कणे ॥३॥ योषित्समृद्धिः स्फुरिते च गंडे घ्राणे च सौरभ्यमुदौ भवेताम् ॥ भोज्येष्टसंगावधरोष्ठयोश्च स्कंधे गले . भोगविवृद्धिलाभौ ॥४॥ ॥ टीका ॥ सति सहायलाभ: स्यात् ॥२॥ दृगंत इति दृगंतमध्ययोः स्फुरणे अर्थसंपत्स्यात् । दृगादौ स्फुरणे सोत्कंठितः स्यात् । दृशोऽधः स्फुरणे रणे जयः स्यात् । ग्रंथांतरे त्वेवं “वामस्याधः स्फुरणमसकृत्संगभंगाय हेतोस्तस्यैवोर्द्ध हरति नितरां मानसं दुःखजालम् ॥ नेत्रप्रांते भवति च धनं वित्तनाशं च कोणे सर्वैश्चित्यं विपरितमथो दक्षिणाक्षिप्रचारे"॥१॥ सर्वत्र तदुपन्यासे त्वेवं सामान्यतः कर्णे प्रस्फुरिते जय. श्रुतिः स्यात् ॥ ३ ॥ योषिदिति ॥ गंडे स्फुरिते योषित्समृद्धिः स्यात् । गंडः कपोल: "गलात्परः कपोलश्च परो गंडः कपोलतः" इति हैमः।कचिद्योषित्समृद्धिः स्फुरिते कपोले इत्यपि पाठः। तत्र गलात्कपोल इत्यर्थः । प्राणे तु सौरभ्यमुदी भवेतामधरोष्ठयोश्च यथाक्रमं स्फुरणे भोज्येष्टसंगौ स्यातां भोज्यश्च इष्टसंगश्च भोज्येष्टसंगौ इतरेतरबंदः । “ओष्ठाधरौ तु रदनच्छदौ दशनवाससी" इत्यमरः ॥ ॥ भाषा ॥ मस्तक फडकै तो शीघ्र पृथ्वीप्राप्ति होय, और ललाट फडके तो स्थानवृद्धि होय, और भ्रुकुटी नासिकाके मध्यमें फडकन होय तो प्रियसंगम होय और नासिका और नेत्र इनके मध्यमें फडके तो सहायीको लाभ होय ॥२॥ दृगंत इति ॥ नेत्रके अंतमध्यमें फडकन होय तो अर्थ संपदा होय, नेत्रनके आदिमें फडकै तौ उत्कंठासहित होय, और नेत्रनके नांचे फडकन होय तो संग्राममें जय होय, और कर्ण फडके तो. जयको श्रवण होय ॥ ॥ ३ ॥ योषिदिति ॥ कपोल फडकै तौ स्त्रीकी समृद्धि होय और नासिका फडकै तो सुगंधवान् पदार्थ मिलें, अधरओष्ठनके फडकनसू भोज्य और इष्ट संग · होय, और कंध Aho! Shrutgyanam Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेंगिते अङ्गस्फुरणप्रकरणम्। (८९) स्पंदो भुजस्येष्टसमागमाय स्पंदः करस्य द्रविणाप्तिहेतुः॥ . स्पंदश्च पृष्ठस्य पराजयाय स्पंदो जयायोरास मानवानाम् ॥ ॥५॥ पार्श्वप्रकंपे भवति प्रमोदः स्तनप्रकंपे विषयस्य : • लाभः ॥ कटिप्रकंपे तु बलप्रमोदौ नाभिप्रकंपे निजदेशनाशः॥६॥धनद्धिरंत्रप्रभवे प्रकंपे दुःखं धनांतं हृदयस्य चान्तः ॥ स्फिक्पायुकंपेऽपि च वाहनाप्तिर्वरांगकंपे व-. रयोषिदाप्तिः ॥ ७॥ ॥ टीका ।। स्कंधे गले च स्फुरणे भोगविवृद्धिलाभौ यथाक्रम स्याताम् ॥ ४ ॥ स्पंद इति ॥ भुजस्य स्पंदः स्फुरणमिष्टसमागमाय स्यात् कराग्रे स्पंदः द्रविणाप्तिहेतुर्भवति स्वपृष्ठे स्पंदः पराजयाय भवति मानवानामुरसि हृदये स्पंदः जयाय भवति ॥ ५ ॥ पार्श्वप्रकंप इति ॥ पार्श्वप्रकंपे अर्थात्स्फुरणे प्रमोदः स्यात् । 'वाहुमूले उभे कक्षौपार्श्वमस्त्री तयोरधः' । इत्यमरः ॥ स्तनप्रकंपे स्फुरणे विषयस्य लाभः स्यात्.कटिप्रकप बलप्रमोदौ । बलं शक्तिःप्रमोदो हर्षः स्यातां नाभिप्रकंपेनिजदेशनाशः स्यात् ॥ ६ ॥ धनर्द्धिरिति ।। अंत्रप्रभवे प्रकंपे धनद्धिः स्यात् । च पुनः हृदयस्यांते प्रकंपे धनांतं दुःखं स्यात् स्फिक्पायुकंपे च वाहनाप्तिर्भवति स्फिको कटिमोथी पायुर्मुदं तयोः स्फुरणे वाहनाप्तिर्भवतीत्यर्थः वरांगकंपे वरयोषिदाप्तिर्भवति वरांग स्त्रीपुंसचिह्न । ‘वरांगं स्त्रीपुंसचिह्न वरांगं तु च्युतिर्बुलिः' इति हैमः ॥ ७ ॥ ॥ भाषा॥ फडके तो भोगवृद्धि होय और गलो फडके तो लाभ होय ॥ ४ ॥ स्पंद इति ॥ भुजाको फडकनो इष्ट समागमके अर्थ है, हस्तको अग्रभाग फडकै तो धनप्राप्ति होय. अपनी पीठ फडके तो पराजयके अर्थ होय. वक्षस्थलमें फडकन होय तो मनुष्यनके जयके अर्थ है ॥ ५ ॥ पाश्वप्रकंप इति ॥ पशवाडेनमें फडकन हुयेसू प्रमोद होय, स्तन फड़के तो विषयको लाभ होय, कमर फडके तो बल शक्ति प्रमोद हर्ष होय, नाभिफडके तो निजदेशको नाश होय ॥ ६ ॥ धनद्धिरिति ॥ आंते फडकैं तो धनकी ऋद्धि होय, कुंख और गुदा ये फडकैं तो वाहनकी प्राप्ति होय, वरांगफडके तो स्त्रीक पुरुषकी प्राप्ति Aho! Shrutgyanam Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९०). वसंतराजशाकुने-षष्ठो वर्गः। मुष्के सकंपे तनयस्य जन्म बस्तौ सकंपे युवतिप्रवृद्धिः । दोष्णः प्रकंपे पुनरूरुपृष्ठे उरोः पुरः स्यात्सुसहायलाभः ॥ ।।८ ॥ स्याज्जानुकंपे अचिरेण संधिर्जघाप्रकंपेऽपि च लाभनाशः॥ स्थानाप्तिरूर्द्ध चरणस्य कंपे यात्रा सलाभांघ्रितलप्रकंपे ॥९॥ पुंसां सदा दक्षिणदेहभागे स्त्रीणां च वामावयवेषु लाभः ॥ स्पंदाः फलानि प्रदिशंत्यवश्यं निहति चोक्तांगविपर्ययेण ॥ १० ॥ ॥ टीका ॥ मुष्क इति ॥ मुष्के वृषणे ॥ 'मुष्कोंडकोशो वृषणम्' इत्यमरः ॥ सकंपे तनयस्य जन्म भवति।मुष्कशब्देनाडौ।वस्तिः मूत्रपुटं नाभेरधोभागः। वस्तिमूत्राशयेपिच'। इति हैमः । तत्प्रकंपे युवतिप्रवृद्धिः स्यात् दोष्णः प्रकंपे बाहुस्फुरणे पुनः उरुपृष्ठस्फुरणे च ऊरोः पुरस्ताच स्फुरणे सुसहायलाभः स्यात् ॥ ८ ॥ स्यादिति ॥ जानुकंपे अरिणा प्रधानशत्रुणा अचिरेण संधिर्भवति जंघाप्रकंपे लाभनाशः ऊर्द्ध चरणस्य कंपे स्थानाप्तिर्भवति चरणतलस्फुरणे यात्रा सलाभां वदंति ॥९॥ पुंसामिति ॥ पुसां पुरुषाणां सदा सर्वकालं दक्षिणदेहभागे स्त्रीणां तु वामावयवेषु जातः स्पंदः अवश्यं फलानि प्रदिशति प्रदत्ते । उक्तांगविपर्ययेण जातस्पंदः फ. ॥ भाषा॥ और पुरुनकू स्त्री प्राप्ति होय, वरांगनाम स्त्री पुरुषके चिह्नको है ॥ ७ ॥ मुष्क इति ॥ अंडकोशफडकैं तो पुत्र जन्म होय और नाभिको अधोभाग फडकै तो ( स्त्रीकी प्रवृद्धि करै, भुजाको और ऊरूके पृष्ठभागको और ऊरूके अग्रभागको फडकनो ये तीनों सहायीको लाभकरैहैं ॥ ८ ॥ स्यादिति ॥ जानुफडके तो शीघ्रही वैरी करके संधि होय, और जंघा फडकै तो लाभको नाश होय, और चरणको ऊपरलोभाग फडके तो स्थानप्राप्त होय, चरणके नीचे तलुआ फडके तो लाभ सहित यात्रा होय ॥ ९ ॥ पुंसामिति ॥ पुरुषनके जेमने अंगमें, और स्त्रीनके वांये अंगमें, फडकवेको फल लाभ अवश्य होय, और पुरु• षनके वाये अंगमें स्त्रीनके जेमने अंगमें फडकवेके फल पहले कहे ते विपरीत करके कार्यना. Aho! Shrutgyanam Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेंगते अंगस्फुरणप्रकरणम् । (९१) मशकं तिलक पिटकं वापि व्रणमथ चिह्नं किमपि कदापि ॥ स्फुरति पदान्यधितिष्ठति यावत्स्यात्पूर्वोक्तं फलमपि तावत् ॥ ११ ॥ बिंदव उज्ज्वलवर्णा यस्य स्युर्यावन्नखरेषु नरस्य ॥ दुःखं तावन्नश्यति तस्य प्रतिदिनजातसुखातिशयस्य ॥ १२ ॥ त्यक्तदक्षिणापथे सदागतावुत्तरापथेन पंकजाकरम् || स्वेच्छया प्रसर्पति प्रसर्पतः सिध्यति क्षणादपेक्षितं ध्रुवम् ॥ १३ ॥ ॥ टीका ॥ लानि हंति पुरुषाणां वामे भागे स्त्रीणां दक्षिणे भागे चेत्यर्थः ॥ १० ॥ मशकमिति || मशकं मस इति प्रसिद्धम्। तिलकमिति तिलधान्यानुकृतिः शरीरे कृष्णबिंदुविशेषः पिटकमिति विस्तृतं वपुषि रक्तं कृष्णं वा चिह्नं लक्षणमिति लोके व्रणं प्रसिद्धं किमपि चिह्नं पूर्वोक्ताद्विपरीतमेतन्मध्यात्कदाचिदेकं स्फुरति यावत् कालं स पुमांस्तेषु पदेषु अधितिष्ठति तावत्कालं पूर्वोक्तं फलमपि तस्य स्यात् । केचित्तु अन्यथा व्याख्यानयंति पूर्वोक्तेषु मध्यादेकं यदि शरीरे स्फुरति प्रकटी भवति तद्यावत्कालं पदान्यंगविशेषाणि अधितिष्ठति तावत्कालं तस्य फलं भवतीत्यर्थः । मशकादीनां कालांतरेणाभावदर्शनादेतद्वचनम् ॥ ११ ॥ विंदव इति ॥ नखरेषु नखेषु यस्य यावदुज्ज्वलवर्णा बिन्दवः स्युः तस्य तावद्दुःखं न स्यात् कीदृशस्य प्रतिदिनजातसुखातिशयस्येति प्रतिदिनं जातः सुखातिशयः सुखाधिक्यं यस्य स तथा केचित्तु आगंतुकानां बिंदूनामेव सुखजनकत्वं प्रतिपादयंति तदुक्तमन्यत्र 'आगंतवः प्रशस्ता स्युरिति भोजनृपोऽभ्यधात्' ।। इति ।। १२ ।। व्यक्तदक्षिणापथ इति ॥ ॥ भाषा ॥ . शकरें ॥ १० ॥ मशकमिति ॥ नस्सो तिल दक्षण व्रण और कोई चिह्न होय इनमेंसूं एकभी प्रगट होय जितने काल अंगमें स्थित होय तब ताई ताको फल पूर्व कहे जे होंय ये चिह कालांतरमें मिट भी जायो करहैं ॥ ११ ॥ बिंदव इति ॥ जाके नखनमें उज्ज्वल वर्णकेश्व बिंदु जबतक होय ता प्राणीकूं तव ताई दुःख होय ॥ १२ ॥ व्यक्तदक्षिणापथ इति नहीं होय, दिनदिनप्रति सुखकी अधिकता ॥ दक्षिणमार्गकूं छोडके वायु उत्तर मार्ग करके Aho! Shrutgyanam Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) वसंतरा जशाकुने - षष्ठो वर्गः । लोकः शाकुनमिदमतिशस्तं शक्तोऽभ्यसितुं यदि न समस्तम् ॥ तज्जानातु नरेंगितमात्रं येन भवेन्नृषु कार्यसुपात्रम् ॥ ॥ १४ ॥ इत्यंग स्फुरणम् ॥ आद्ये प्रकरणे प्रोक्तं वृत्तैर्नवभिरीक्षणम् ॥ उपश्रुतो द्वितीये च वृत्तान्यष्टादशैव तु ॥ १ ॥ क्षुतमुक्तं तृतीये तु वृत्तैर्नवभिरेव च ॥ चतुर्दशभिराख्यातं तुर्येगस्फुरितं तथा ॥ २ ॥ ॥ टीका ॥ सदागतौ वायौ उत्तरापथेन पंकजाकरं पंकजसमूहं स्वेच्छया प्रसर्पति सति प्रसर्पतो गच्छतो नरस्यापेक्षितं वांछितं ध्रुवं क्षणात्सिध्यति कीदृशे वायौ त्यक्तदक्षिणापथ इति व्यक्तः उज्झितः दक्षिणापथो दक्षिणमार्गो येन स तथा क्वचिदुपेक्षितं पाठस्तत्रोपेक्षितमुपेक्षाविषयीकृतमित्यर्थः ॥ १३ ॥ लोक इति ।। लोको जनः अतिशस्तं शकुनं समस्तमभ्यसितुं यदि न शक्तः तत्तस्मान्नरेंगितमात्रं जानातु येन कार्येषु नृसुपात्रं स्यात् ॥ १४ ॥ . इति वसंतराजशाकुने नरेंगितस्फुरितं चतुर्थ प्रकरणम् ॥ ४ ॥ एतेषां चतुणी प्रकरणानां कस्मिन् वर्गे अन्तर्भावः इत्याकांक्षायां नरेंगिते वर्गे पूर्वोक्तानामंतभावं • सूचयन् वृत्तानां व्यस्तां समस्तां संख्यां प्रतिपादयन्नाह । आद्य इति ॥ आद्ये प्रथमे -प्रकरणे नवभिर्वृत्तेरीक्षणं प्रोक्तं द्वितीये प्रकरणे अष्टादशैर्वृत्तैरुपश्रुतिः तु पुनरर्थे ॥ ॥१॥क्षुतमिति ॥ तृतीये प्रकरणे नवभिर्वृत्तैरेव क्षुतमुक्तं तुयें चतुर्थे प्रकरणे व ।। भाषा ॥ - कमलके समूह प्रति गमन करे तो गमनकर्ता मनुष्यकूं वांछित निश्चयही तत्क्षण सिद्धि होय ॥ १३ ॥ लोक इति ॥ जो मनुष्य समग्र शाकुन शास्त्र अभ्यास करवेकूं समर्थ न होय तो नरेंगितमात्र जो छठोवर्ग ताय जानले तो या करके सर्वकार्यनमें और मनुष्यनमें पात्र होय ॥ १४ ॥ इति नरेंगते अंगस्फुरणं चतुर्थ प्रकरम् ॥ ४ ॥ प्रथम प्रकरण में नो श्लोकनकरके आलोकन को और द्वितीय प्रकरणमें अठारे लोकन करके उपश्रुति कही है फिर तृतीय प्रकर - में जो श्लोकन करके छिक्का प्रकरण को और चौथे प्रकरण में चौदह श्लोकन करके अंग Aho! Shrutgyanam Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते अधिवासनप्रकरणम्। . .(९३ ) एवं प्रकरणान्यत्र चत्वार्येव नरेंगिते ॥ सामस्त्येन च वृत्तानां पंचाशत्परिकीर्तिताः ॥३॥ इति वसंतराजशाकुने नरेंगितफलोपदेशनं नाम पष्ठो वर्गः॥६॥ वंदे शकुनदेवीदं तव ज्ञानं शुभास्पदम् ॥ कालत्रयसमुद्भूतसंशयोच्छेदकारकम् ॥ १॥ यतोऽखिलैः शाकुनशास्त्रविज्ञैः श्यामोदिता सर्वविहंगमानाम् ॥ प्रधानभूता प्रथमं प्रयत्नातेनाभिदध्मः शकुनानि तस्याः ॥२॥ ॥ टीका ॥ तुर्दशभिर्वृत्तैरंगस्फुरितमाख्यातं कथितम् ॥ २ ॥ एवमिति ॥ पूर्वोक्तप्रकारेण चत्वार्येव प्रकरणान्यत्र नरेंगिते भवन्ति सामस्त्येन समग्रसंख्यायां वृत्तानां पंचाशत्परिकीर्तिताः ॥ ३ ॥ वसन्तराजति ॥ वसंतराजाभिधाने ग्रंथे नरेंगितं विचारितं . विशदीकृतं शेषाणि ग्रंथविशेषाणि पूर्ववत्। इति शत्रुजयकरमोचनादिसुकृतकारिभिर्महोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचितायां वसंतराजटीकायां नरेंगते षष्ठों वर्गः समाप्तः ॥ ६॥ .. अथ शकुनदेवतायाः प्रथमं स्तुतिमाह ॥ वंदे शकुनदेवीति ॥ हे शकुनदेवि इदं तव ज्ञानं वंदे कीहक् ज्ञानं शुभास्पदं शुभस्य श्रेयसः आस्पदं गृहम् । पुनः कीदृक् कालत्रयसमुद्भूतसंशयोच्छेदकारकं भूतभविष्यदर्तमानलक्षणं कालत्रयं तत्र समुद्भूतः उत्पन्नो यः संशयः संदेहस्तस्योच्छेदो ध्वंसः तस्य कारक कर्तृकम् ॥ १ ॥ यतोखिलैरिति ॥ तेन कारणेन प्रथमं तस्याः श्यामायाः ॥ भाषा॥ स्फुरण कयो ये चार प्रकरण नरेंगित वर्गमें हैं समग्र संख्या पचाश.श्लोक कहे हैं । - इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधराविरचितायां वसंतराजशाकुनभा... - पाटीकायां नरेंगितं नाम षष्ठो वर्गः समाप्तः॥ ६॥ अब शकुनदेवीकू प्रथम स्तुति कहैहै ॥ हे शकुन देवी कल्याणको स्थान, और भूतभबिष्यदर्तमान इन तीनों कालनमें उत्पन्न हुयो संदेहकू दूर करवेवालो जो तुम्हारो ज्ञान ताय : मैं नमस्कार करूं हूं ॥ १ ॥ यतोखिलैरिति । समग्रशाकुन शास्त्रके वेत्ताने सर्वपक्षीनके मध्यमें श्यामा मुख्य श्रेष्ठ कहीहै ता कारणकर प्रथम माश्याके शकुन यत्नते कहै हैं । Aho ! Shrutgyanam Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । तत्र तावदधिवासने विधिः कथ्यते यदधिवासने कृते ॥ तोपमेति शकुनाधिदेवता तेन सा भवति सत्यवादिनी ॥ ३ ॥ ॥ टीका ॥ शकुनानि यत्नाद्वयमभिदध्मः कथयामः यतः कारणात् अखिलैः समग्रैः शास्त्रविज्ञैः सर्वविहंगमानां श्यामा प्रधानभूता प्रकृष्टा उदिता प्रतिपादिता इह त्रिविधं शकुनं भवति क्षेत्रिक मागंतुकं जांघिकं चेति तत्र यच्छकुनं क्षेत्रे तोरणकल्पनया अधिवासनाद्यं कृत्वेक्ष्यते तत्क्षेत्रिक कथ्यते यत्स्थानस्थानां पुरुषाणामकस्मात् दिग्विभागतो भवति तदागंतुकं वदंति तथा यद्गच्छतो जनस्य सव्यापसव्यसंमुखपृष्ठेषु ग्राम्यवन्यसत्त्वानां शकुनं जायते तज्जाधिकं कथयति । तदुक्तमन्यत्र " नरशर्माणि ग्रंथे त्रिविधमिह भवति शकुनं क्षेत्रिक मागंतुकं जांघि चान्यत् ॥ क्षेत्रेस्थाने वर्त्मनि शुभा - शुभागंतुफलं पिशुनम् ॥ १ ॥ शकुनक्षेत्रे तोरणकल्पनया प्रश्ननियतफलकालम् ॥ कृत्वाऽधिवासनाद्यं यदीक्ष्यते क्षेत्रिकं तत्स्यात् ॥ २ ॥ स्थानस्थानां शकुनं यदकस्माद्दिग्विभागतो भवति ॥ शांत प्रदीप्तभेदादव्यक्तफलं प्रथितमागंतुकम् ॥ ३ ॥ सव्यापसव्यसंमुखपृष्ठेषु ग्राम्यवन्य सत्त्वानाम् ॥ शकुनं स्वरगतिचेष्टाभावैः पथि जांधिकं नाम ॥ ४ ॥ क्षेत्रिक एव शकुने अधिवासनादिकं क्रियते नान्यत्र तथाप्यत्र सामान्योक्ता वप्ययं विशेषो ग्रंथांतरादवसेयः॥ २ ॥ तंत्रेति ॥ तत्र श्यामायाः देव्याः शकुनावलोकनविधौ तावत्प्रथममधिवासनमिति अधिवासनं नाम शकुनाव लोकनादवक ॥ भाषा ॥ ॥ १ ॥ यहां तीन प्रकारके शकुन हैं क्षेत्रिक १ आगंतुक २ जांबिक ३ इनमें जो शकुन क्षेत्र में जाय तोरण रचना कर फिर अधिवासनादिक करके देखें बाकू क्षेत्रिक कहैं हैं . जो स्थानमें बैठे मनुष्यकूं अकस्मात् दिशाके विभागते शकुन होय वाकूं आगंतुक कहे हैं, और जो गमन करनेबारे मनुष्यकं बांये जेमने सम्मुख पीठ पीछे ग्रामके वनके जीवनको शकुन होय ताकूं जांधिक कहें हैं, क्षेत्रिकही शकुनमें अधिवासनादिक करें हैं, और में नहीं कैरें ॥ २ ॥ तत्रेति ॥ ता श्यामाके शकुन देखवेमें प्रथम अधिवासन कहैं हैं अधिबासन नाम कायको है शकुनके अवलोकनतें पहले पूजा पूर्वक शकुननको निमंत्रण नाम नो तनो सो अधिवासन तामें विधि कहै हैं जा अविवासन करेते शकुनकी अधिष्टाता देवी Aho! Shrutgyanam Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते अधिवासनप्रकरणम्। (९५) निर्जना मगगवाश्ववर्जिता सर्वतश्च निरुपद्रवा सदा ॥ नातिभूरितरुपोदकीयुगा दृश्यते शकुनदर्शनेऽवनिः ॥ ४ ॥ एकपक्षियुगमग्निदृषितं छिनकंटकविशुष्कपादपम् ॥ दुष्टसत्त्वममनोरमं नरो भूमिभागमिह सर्वदा त्यजेत् ॥५॥ ॥टीका ॥ पूजापूर्वकं शकुनानां निमंत्रणं तस्मिन्विधिःप्रकारः कथ्यते प्रतिपाद्यते यस्मात्कारणादधिवासने कृते शकुनाधिदेवता शकुनाधिष्ठात्री तोषं संतोषमेति तेन सा देवता सत्यवादिनी भवति ॥ ३ ॥ निर्जनेति शकुनदर्शने एवंविधाऽवनिर्भूमिः प्रशस्यते कीदृशी निर्जना जनसंचाररहिता । पुनः कीदृशी मृगगवाश्ववर्जिता इति मृगैगोभिः अश्वैश्च वजिता।पुनः कीदृक सवतश्च निरुपवेति सदासर्वकालं सर्वतः सर्वस्मिन्क्षेत्रे निरुपवा उपद्रवरहिता । पुनः किंविशिष्टा नातिभूरितरुपोदकीयगा इति न विद्यते अतिभूरितरवः पोतकीयुगानि यस्यां सा तथा। अत्र नस्य निषेधार्थकत्वात्तस्मानुडचीति नुट् न लोपश्च न । अरण्यांनि स्थानं फलनमिति नैकदमवनम् । इतिवत् ॥ ४ ॥ एकपक्षियुगमिति ॥ इहास्मिच्छकुनावलोकने सर्वदा सर्वकालमीदृशं भूमिभागं नरस्त्यजेत् । कीदृशे एकपक्षियुगमिति एकस्यैव एकजातीयस्य पक्षिणः युगानि युगलानि यत्र तत्तथा यद्वा एकमेव पक्षियुगलं यत्र तत्तथेत्यर्थः पुनः कीदृशममिदूषिमिति अमिना वह्निना दूषितं भस्माद्युच्छेषीकृतम् । पुनः कीदृशं छिन्नकंटकितशुष्कपादम् छिन्नाः कीर्तिताः कंटकिताः कंटकाकुलाः शुष्काः पादपाः वृक्षाः यत्र तत्तथा । पुनः कीदृशं ॥ भाषा॥ प्रसन्न होय करके सत्यवादिनी होय है ॥ ३ ॥ निर्जनेति ॥ शकुन देखवमें ऐसी पृथ्वी होय मनुष्यनको डोलनो फिरनो जाजगहन होय और मृग गौ अश्व इन करके रहित होय सर्वदा सर्वकालमें उपद्रव कोईभी वहां न होय, और बहुत वृक्ष न होयऔर पोदकीको युगल जोडा जा जगह न होय; ऐसी पृथ्वी शकुनमें लीनी है सो योग्य है ॥ ४ ॥ एकपक्षियुगमिति ॥ या शकुनके अवलोकनमें सर्वकाल ऐसीभूमिकू मनुष्य त्याग कर एक जातिके पक्षीको युगलनाम जोडा जहां होय, और अग्निकरके दूषित जलीवली होय, और कटे हुये अथवा कांटेनके वा सूखे हुये ऐसे वृक्ष जहां हाय, और दु Aho! Shrutgyanam Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। स्निग्धपुष्पफलपल्लवद्रुमा शिष्टतोकसुखसंचरा समा ॥ सर्वतश्च सुतरां मनोरमा सा क्षमा शकुनदर्शने क्षमा ॥ ॥६॥ निवर्तनानीह च चक्रवर्तिप्रयोजने पंच दशोदितानि॥ सामन्तपृथ्वीभृदमात्यकार्येष्वाऽऽहुर्नव त्रीणि जनान्तराणि ॥ ७॥ ॥ टीका ॥ ढसत्त्वमिति दुष्टा मांसाशनाः सत्त्वाःप्राणिनो यत्र तत्तथा। पुनः कीहक अमनोरममिति न मनोरमं मनसो नाहादकमित्यर्थः ॥५॥ स्निग्ध इति ॥ शकनदर्शने शकुनावलोकने सा क्षमा वसुंधरा क्षमा समर्था कीदृशी स्निग्धपुष्पफलपल्लवमा इति स्निग्धाःसचिक्कणा नवीनत्वात् पुष्पफलपल्लवाः प्रतीता येष एवं विधा दुमा वृक्षाः यस्यां सातथा।पुनः कीदृशी शिष्टलोकमुखसंचरा इति शिष्टा मनःकालध्यरहिताःये जनाः तेषां मुखेनानायासेन संचरोसंचरणं यस्यां सा तथा पुनः कीदृशी समा इति अविषमा देवखातादिरहिता सुतरामतिशयेन सर्वतः सर्वस्मिन् प्रदेशे मनोरमा मनोहारिणीत्यर्थः॥६॥ निवर्तनानीति॥इह चक्रवर्तिप्रयोजनेचक्रवर्तिका. यदिशे पंचदशनिवर्तनानि उदितानि कथितानि सामंतपृथ्वीभृदमात्यकार्येष्विति स्वदेशनिकटवर्तिभूभृत्सामंतः पृथ्वीभद्राजा अमात्यः सचिवः सामंतश्च पृथ्वी. भच्च अमात्यश्चेति पूर्वमितरेतरद्वंद्वः ततः कर्मधारयः । एतेषां कार्येषु नव निवर्तनानि कथितानि जनांतराणामितरजनानां त्रीणि निवर्तनानि ॥ ७ ॥ ॥ भाषा ॥ . ष्टमांसके आहारकर्ता प्राणी जहां हायँ, और मनकू आलाद न करै भययुक्त होय ऐसी पृथ्वी जहां होय, तहां 'शकुन' देखनो नहीं ॥ ५ ॥ स्निग्ध इति ॥ चिक्कण नवीन पुष्प फल पल्लव जिनमें ऐसे वृक्ष जा जगह हायँ शुद्धमनके सजन मनुष्यन को सुखपूर्वक विचरनो जहां होय और समान होय, और सर्वदेशमें मन प्रसन्न करनेवाली होय ऐसी पृथ्वी शकनके देखनेमें योग्यहै ॥ ६ ॥ निवर्तनानीति ॥ या पृथ्वीमें चक्रवर्ती राजानके कार्यमें पंडद निवर्तन कहहैं, और अपने देशके निकटवर्ती ग्रामनको अधिपति होय सो सामंत और राजा, और मंत्री इनके कार्यमें नो निवर्तन कहेहैं, और मनुष्यनके कार्यमें तीन नि Aho! Shrutgyanam : i Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुतेअधिवासनप्रकरणम्। (९७) चतुर्गुणैः स्यादशभिः क्रमैस्तु निवर्तनं तत्र समे प्रदेशे॥ शिलेष्टिकापादपमृत्तिकाभिः कार्याणि चत्वार्यथ तोरणानि ॥ ८ ॥ भूमित्रयं तत्र निवेशनीयं चतुश्चतुर्मासविभागयुक्त्या॥ वर्षे विधेयं च ततश्चतुर्दा तिस्रोप्यवन्यः सुधिया क्रमेण ॥ ९॥ ॥ टीका ॥ चतुर्गुणैरिति ॥ चतुर्गुणैर्दशभिः क्रमैः समे प्रदेशे निवर्तनं स्यात् । अत्र क्रमशब्देन एकं पादमुक्षिप्य यावद्भूमिप्रदेशमुच्यते तावान्भूमिप्रदेशः क्रम उच्यते अत्र क्रमशब्देन किंचिदधिकं हस्तमात्रं विवक्षितमन्यत्र, परिमाणादौ क्रमशब्देन वंशार्धमुच्यते यदुक्तमन्यत्र। 'वंशार्धसंख्यैश्च क्रमोऽभियुक्तः' इति। अन्यत्र क्षेत्रपरिमाणादौ दशहस्तपरिमाणो वंशः विंशतिवंशैनिवर्तनमिति।तदुक्तमन्यत्र स्यायोजन कोशचतुष्टयेन तथा कराणां दशकेन वंशः॥ निवर्तनं विंशतिवंशसंख्यैःक्षेत्रं चतुर्भिश्च भनिवद्धम् इति तत्रनिवर्तने चतुरस्त्रं मंडलं कुर्यात् तत्र चतुर्दिक्ष चत्वारितोरणानि चत्वारि द्वाराणि कार्याणि कैः शिलेष्टिकापादपमृत्तिकाभिरिति पूर्वस्यां शिलाभिः दक्षिणस्यामिष्टिकाभिः ईट इति प्रसिद्धाभिः पश्चिमायां पादपैरुत्तरस्यां मृत्तिकाभिः॥ ॥८॥ भूमित्रयमिति ॥ चतुश्चतुर्मासविभागयुक्त्येति चतुर्णा चतुर्णा मासानां ॥ भाषा। वर्तन कहे हैं ॥ ७ ॥ चतुर्गुणैरिति । समानपृथ्वीमें चालीसक्रमनाम पेंड करके एक निवर्तन होय है कमनाम कछु अधिक एकहाथ यामें तो कह्यो है और शास्त्रमें क्रमनाम पांच हाथ कोहै, और दश हाथको वंश होय है, औरबीश वंशको एक निवर्तन होयहै, या रीति करके दायसै हाथको निवर्तन होयहै, जा शकुनमें जितने निवर्तन कहे हैं पूर्व उतनेही निवर्तनके परिमाणमें चतुरस्र मंडल करै तामें चार द्वारे या रीतसूं करें पूर्वमें शिलानकरके, और दक्षिणमें ईंटकरके, और पश्चिममें वृक्षनकरके, और उत्तरमें मृत्तिकाकरके ऐसे चारों दिशानमें द्वारे चार बनावे ॥ ८ ॥ भूमित्रयमिति ॥ चारचार महीनानके विभागकी रचनाकरके ता निवर्तनस्थलमें तीन भूमि करनी इन तीनभूमिनके चार विभाग करके वर्ष करनो बुद्धिमान् पुरुषकरके जादेशमें जहांते वर्षको प्रारंभ होय तासू आदिलेके क्रमकरके Aho ! Shrutgyanam Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। एवं नरोद्वादशधा विभज्य कुर्याचतुर्विंशतिधा ततस्ताःपुनर्यथेष्टं प्रविभज्य कार्य यावदिनं कालविनिर्णयाय ॥ १०॥ यत्र प्रदेशेशकुनोऽनुकूलः फलाय विज्ञैः कथितः स कालः।। यत्र प्रदेशे प्रतिकूलवर्ती भवेत्स कालः फलनाशनाय ॥ ॥११॥ यदा दिनसंग्रहलनशुद्धिस्ताराबलं चन्द्रमसो बलं च ॥ पुंसां तदाभीप्सितकार्यसिद्धयै प्रत्यक्षरूपं शकुनं निरीक्ष्यम् ॥ १२ ॥ ॥ टीका ॥ यो विभागः तस्य युक्तिः रचना तया तत्र निवर्तनस्थले भूमित्रयं निवेशनीयं तत स्तिस्रोवन्यश्चतुर्धा विभज्य वर्ष विधेयं मुधिया पंडितेन क्रमेणेति केचित्तु चतुश्चतुर्मासविभागेन तत्र निवर्तनस्थले वर्ष निवेशनीयं ततः मुधिया पंडितेन क्रमेण यस्मिन्देशे यतो वर्षप्रारंभस्तदादिकमेण तिस्रोप्यवन्यश्चतुर्धा विधेयाः विभजनीया इत्यर्थः॥९॥ एवमिति ।। नरो मनुष्यः एवमिति पूर्वोक्तप्रकारेण ताश्चतुर्विभक्ता अवन्यः द्वादशवा विभज्य मासनिर्णयं कुर्यात्ततस्ताश्चतुर्विंशतिधा विभज्य पक्षनि यं कुर्यात् पुनर्यथेच्छं स्वेच्छया प्रविभज्य यावदिनमिति यावदिनपर्यन्तं निर्णयो भवति तावत्कालविनिर्णयाय कार्यमग्रे प्रयोजनाभावात् न कर्तव्यमित्यर्थः॥१०॥ योति ॥ यत्र देशे शकुनो अनुकुलः स कालः विज्ञैः फलाय कथितः यत्र प्रदेशे प्रतिकूलवर्ती शकुनः स कालः फलनाशाय भवति ॥ ११ ॥ यदेति ॥ यदा दिनसंग्रहलमशुद्धिर्भवति तत्र दिनं दिवसः ऋक्षं नक्षत्रं ग्रहाश्चन्द्रार्यमादयः ॥ भाषा॥ वर्ष करनो ॥ ९ ॥ एवमिति. ॥ ता पीछे पूर्वप्रकारतूं ता पृथ्वीके द्वादश विभाग करके मास निर्णय करे, और तापीछे चौवीसको भाग देकरके पक्ष निर्णय करे फिर अपनी इ. च्छापूर्वक विभाग देकरके जितने दिन पर्यंत निर्णय करनो होय तितनेही काल निर्णयके अर्थ करनो योग्यहै ॥ १०॥ यत्रेति ॥ जादेशमें शकुन अनुकूल होय वो काल विज्ञपुरुपनकरके फलके अर्थ कह्यो है, और जा प्रदेशमें प्रतिकूल शकुन होय वो काल फलके नाशके अर्थ होय ॥ ११ ॥ यदेति ॥ ज्योतिष शास्त्रसूं विचारकरके जब दिन नक्षत्र ग्रह Aho! Shrutgyanam Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुतेअधिवासनप्रकरणम्। (९९) क्षीणचंद्रतिथिदुःसहानिलं दृषितं धरणिकंपनादिना ॥ पूर्वबजलदसंकुलांबरं वर्जयेच्छकुनदर्शने दिनम् ॥ १३॥ ॥ टीका॥ प्रतीताः लमं मेषप्रभृति तेषां शुद्धिःस्यात् । पुनः तारावलं यदा भवति तारास्वरूपं चैवम् “जन्मर्श गणयेदादौ चंद्रभक्षावधि पुनः। नवभिस्तु हरेद्भागं शेषास्तारा विनिदिशेत् ॥ तत्रोत्तमा वेदषण्मुखास्यांकप्रमिताःमध्यमाश्चन्द्रलोचनवमुप्रमिताः जघ- . न्याः वहिसागरकामवाणप्रमिताः। यदा पुनः चंद्रमसो बलं भवति तद्वलं त्वेवं स्वजन्मराश्यपेक्षया द्वादशराशिस्थचंद्रफलं यथा । “जन्मस्थः कुरुते पुष्टिं द्वितीये ना. स्ति निवृतिः। तृतीये राजसम्मानं चतुर्थे कलहागमम् ॥ १॥ पंचमे च पतिभ्रंशः षष्ठेप्यर्थसमागमः॥ सममे चातिपूजा स्यादष्टमे प्राणसंशयः॥२॥नवमे क्लेशबाहुल्यं दशमे कार्यसिद्धयः॥एकादशेजयोनित्यं द्वादशे मरणं ध्रुवम् ॥३॥शुक्लपक्षे द्वितीयश्च पंचमो नवमःशुभः॥इति ताराचंद्रादौ तथा कालचंद्रोऽपि त्याज्य तत्स्वरूपं त्वेवम्। "क्रमाचंद १ वाणां५क९ चल२ रसा ६श्व दशा१०ग्न्य ३ श्व७ वेदा४ष्ट ८रुदा११ श्वमासा:१२ करोत्यार्तिमत्र स्थितौमानवानामयं कीर्तितःकालचंद्रो मुनींदैः" इति स्थितं यदैतादृक्सामग्री पूर्णा भवति तदा पुंसाम् अभीप्सितकार्यसिद्ध्यै प्रत्यक्षरूपमिति प्रत्यक्षं दृश्यमानं रूपं यस्य तत्तथाशकुनं निरीक्ष्यं विलोकनीयम्॥१२॥क्षीणचंदेति ।। एवंविधं दिनं शकुनदर्शने वर्जयेत्। कीदृशं क्षीणचंदतिथिदुःसहानिलमिति क्षीणःचंद्रो यस्यामेवंविधा तिथिः दुःसहोनिलो वायुर्यस्मिंस्तत्तथा । पुनः कीहक् दूषितं दोषदुष्टं केन धरणिकंपनादिना आदिना आदिशब्दादुल्कापातादिनेत्यर्थः। पुनः कीदृ जलदसंकुलांबरमिति जलदेन मेघेन संकुलं कलुषीकृतमंवरं वियद्यस्मिस्तत्तथा पूर्ववदिति क्षीणचंद्रादिवत् अमावास्यावत् ॥ १३ ॥ ॥ भाषा ॥ . लायनकी शुद्धि होय, और चंद्रबल होय ता दिना वांछित कार्यकी सिद्धिके अर्थ प्रत्यक्षरूप शकुन तैसेंही देखबो योग्य है ॥ १२ ॥ क्षीणचंद्रति ॥ क्षीणचंद्रमा क्षीणतिथि होय दुःसहपवन जा दिन होयं पृथ्वी कंपन वज्रपात बिजली पातादिक करके दूषित होय, और मेघकरके आकुल आकाश जादिन होय ऐसो दिन शकुनके देखबेमें वर्जित करनो ॥ १३ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः स्नातःप्रशांतः कृतदेवकार्यः शुक्लांशुकः कल्पितमंगलाशीः ॥ मौनी समं शाकुनिकेन यायायामेंतिमे पश्चिमतोरणांतम् ॥ १४ ॥ शिलातले तत्र विधाय हेम्ना रौप्येण पिष्टैरथवा सुपिष्टैः ॥ निवेशनीयः कपिलो महर्षिः श्यामायुगं चाष्टदले सरोजे॥१५॥ ततोऽनुलिपेत्सहलोकपालैः क्रमेण सर्वानपि चंदनेन ॥ आच्छाद्य शुक्लाहतवस्त्रयुग्मैः शुक्लेन सूत्रेण विवेष्टयेत्तान् ॥१६॥ ॥ टीका ॥ स्नातइति ॥शाकुनिकेन समम् अंतिमे यामे तोरणपश्चिमांते यायाद्गच्छेत् । कीदृशः स्रात इति प्रथमं कृतस्नानः प्रशांत इतिक्रोधराहित्येन शीतलता प्राप्तः कृतदेवकार्य इति कृतं देवपूजाप्रभृति येन स तथा शुक्लांशुक इति शुक्कं श्वेतं अंशुकमंवरं यस्य सः। "वस्त्रमाच्छादनं वासश्चैलं वसनमंशुकम्"इत्यमरःतथा कल्पितमंगलाशीरिति कल्पिता रचिता मंगलार्थमाशिषो यस्य स तथा मौनीति मौनवान्पुरुष इति शेषः १४॥ शिलातल इति॥तत्रशिलातले शिलापीठेहेनासुवर्णेनरूप्येणरजतेन अथवा सुपिष्टैः गोधूमादिचणःकपिलमुनिमूर्ति विधाय तत्र कपिलमुनिरिति मत्ति मूर्तिमतोरभेदी. पचारात्ज्ञेयं निवेशनीयः स्थाप्यः। श्यामायुगं च निवेश्यं स्थापनीयं कस्मिन्पूर्वोक्तरीत्या शिलोपरि विहिते अष्टदले सरोजे कमले ॥१५॥ तत इति ॥ ततः स्थापनानंतरं सर्वानपि चंदनेन अनुलिंपेत्। कैः लोकपालैः सह पुनः किं कुर्यात् शुक्लाहतवस्त्रयुग्मैरिति शुक्लानि श्वेतानि अहतानि अखंडितानि सदृशानि वा यानि व ॥ भाषा॥ स्नातं इति ॥ म्रानकरके शांतरूप शील स्वभाववान् होय संध्योपासन पूजा सेवा कर क्षेतवस्त्र धारणकरके मंगलके अर्थ आशिषकर मौनधार जाको शकुन होय ताकू संगलेके दिनके पिछले प्रहरमें तोरणके पश्चिमद्वारके समीप जाय ॥ १४ ॥ शिलातल इति ॥ शिलाके ऊपर अष्टदलकमल करके ताकमलमें सुवर्णकी अथवा चांदीकी अथवा चूनकी अथवा कपिलमुनिकी मूर्ति बनायकरके स्थापन कर, और श्यामाको युगल ताम स्थापन करै ॥ १५ ॥ ततइति ॥ स्थापन किये पीछे लोकपाल देवतानकरके सहित चंदनकर लेपन Aho ! Shrutgyanam Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुतेअधिवासनप्रकरणम्। (१०१) बल्यर्घपुष्पाक्षतधूपदीपैरभ्यर्चयेदक्षिणया च सर्वान् ॥ होमो दशांशेन च मंत्रजापात्ततो विधेयो मधुना समिद्भिः॥ ॥ १७॥ मंत्रप्रतिष्ठार्चनजाप्यहोमेष्वावाहने चैवं नियोजनीयः ॥ पृष्ठे दिनेशं प्रविधाय कुर्यात्पूर्वोदितं सर्वमुदारचेताः॥१८॥ ॥ टीका ॥ स्त्रयुग्मानि तैस्तैराच्छाद्य तान्पूर्वोक्तान् शुक्लेन सूत्रेण विवेष्टयेत् ॥ १६ ॥ बल्यर्घति ॥ सर्वान् तानभ्यर्चयेत् पूजयेत् कैः बल्यर्घपुष्पाक्षतधूपदीपैरिति बलिः भक्ष्य वस्तुनः पुरो ढौकनम् । अर्घः जलभृतपात्रस्य पुरः स्थापनं पुष्पाणि प्रसिद्धानि अक्षताः तंडुलाः धूपः पूर्व प्रतिपादितः दीपः प्रसिद्धः दक्षिणया चेति दक्षिणा होमानंतरं ब्राह्मणेभ्यो दानाह द्रव्यं तथा ततः अभ्यर्चनानंतरं मंत्रजापात् मधुना क्षौदेण समिद्भिः होमो विधेयः केन दशांशेन दशमभागेनेत्यर्थः ॥ १७ ॥ मंत्र इति । एषःमंत्रः प्रतिष्ठार्चनजाप्यहोमेषु आह्वाने च नियोजनीयः तत्र प्रतिष्ठा सर्वेषां सम्यक्प्रकारेण स्थापनम् अभ्यर्चनं चंदनादिनाऽनुलिपनं जाप्यो जपः होमः पूर्वोक्तस्तेषु आवाहनं पूर्वोक्तानामाह्वानं तस्मिन्नर्थाद्विसर्जनेऽपि एतत्सर्वं पूर्वोदितं पृष्ठे पृष्ठभागे दिनेशं सूर्य विधाय कृत्वा कुर्यात् । कीदृक उदारचेता इति उदारं असंकुचितं चेतश्चित्तं यस्य स तथा पृष्ठे रविं विधायेति प्रतिपादनान् रजन्यामेव सर्व कुर्यादित्यर्थों लभ्यते अथवा दिवसस्य चतुर्थप्रहरपटिका चतुष्कमारभ्य रात्रिघटिकाचतुष्टयं यावत्पश्चिमादिशः प्रदीप्तवान्सूर्यस्तावत्सूर्यस्य पृष्टविधानत्वं युक्तमित्यर्थः । मंत्रश्चायम् । ॐ नमो भगवति पोदकि कृष्णशकुनिश्वेतपक्षिणि पांडवो ॥ भाषा॥ कर फिर अखंडित श्वेतवस्त्रनके युग्मलेके आच्छादनकरके फिर सबकू श्वेतसूत्रकर वेष्टन करे ॥ १६ ॥ बल्यपइति॥ फिर उनको अर्घ्य पुष्प अक्षत धूपदीप बलिभक्ष्य और दक्षिणा इन. करके पूजन करै ता पीछे जापते दशांश सहत और समिधाकरके हवन करनो ॥ ॥ १७ ॥ मंत्र इति ॥ मूलमें ऊपर कह्यो जो मंत्र तासूं प्रतिष्ठा देवतानको स्थापन और चंदनादिक करके लेपन करनो जप होम आवाहन या एकही मंत्रसूं सब करनो निर्जनव Aho! Shrutgyanam Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०२) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। मंत्रः॥ॐ नमो भगवति पोदकि कृष्णशकुनि श्वेतपक्षिणि पांडवोपकारिणि पांथोभयतटप्रचारिणिं वृक्षगुल्मलतावासिनि सर्वांगसुंदरि सर्वकार्यासाधिनि देवि दिव्यमूर्तिधरे सत्यवादिनि आगच्छ आगच्छ । मम चिंतितं कार्य सत्यं ब्रूहि ब्रूहि ॐ ह्रींफट्स्वाहा ॥ ॐ ह्रीं प्रजापतये स्वाहा ॥ अयं मंत्रः । ज्ञानमुद्रयैकमंकितं करं पुस्तकेन चिह्नितं तथापरम् ॥ बिभ्रती हिमेंदुकुंददीधिति पंकजासनां स्मरेत्सरस्वतीम् ॥ ॥१९॥ ततो गृहीत्वा खटिकां स्वकार्य शिलातले तत्र शुभे विलिख्य ॥ सिध्यत्विदं मे भगवत्यविनादुक्कोति देव्यै विनिवेदनीयम् ॥२०॥ ॥ टीका ॥ पकारिणि पाथोभयतटप्रचारिणि वृक्षगुल्मलतावासिनि सर्वांगसुंदरि सर्वकार्यसा धिनि देवि दिव्यमूर्तिधरे सत्यवादिन्यागच्छ आगच्छ मम चिंतितं कार्य सत्यं ब्रूहि ब्रूहि ॐ ह्रीं फट् स्वाहा ॐ ह्रीं प्रजापतये स्वाहा ॥ १८ ॥ ज्ञानमुद्रयति ।। पूर्वमेव व्याख्यातम् ॥ १९ ॥ तत इति ॥ ततः तदनंतरं इति देव्यै विनिवेदनीयं किं कृत्वा इत्युत्का इतीति किं हे भगवति ममेदं कार्यमविधासिध्यतु । किं कृत्वा खटिकां गृहीत्वा तत्र तस्मिञ्छुभे शिलातले स्वकार्य विलिख्य लिखित्वा ॥ २० ॥ ॥ भाषा॥ नमें सूर्य पश्चिममें जॉय जबसूं करै अर्थात् रात्रिमें संपूर्ण करे ॥ मंत्र ॥ ॐ नमो भगवति पोदकि कृष्णशकुनि श्वेतपक्षिणि पांडवोपकारिणि पांथोभयतटप्रचारिणि वृक्षगुल्मलतावासिनि सर्वांगसुंदर सर्वकार्यार्थसाधिनि देवि दिव्यमूर्तिधरे सत्यवादिनि आगच्छ आगच्छ मम चिंतितकार्य सत्यं ब्रूहिब्रूहि ॐ ह्रीं फट् स्वाहा ॐ ह्रीं प्रजापतये स्वाहा ॥ इस मंत्रका उच्चारण करै ॥ १८ ॥ एक हाथमें ज्ञानमुद्रा दूसरे हाथमें पुस्तक धारण कर चंद्रमा और कुंदके पुष्पकीसी कांति धारण करे और कमलासनमें स्थित ऐसी सरस्वती ताय स्मरण करै ॥ १९ ॥ तत इति ॥ खडियासू 'शिलाके तले अपनो कार्य लिख करके उनके अगाडी हे भगवति मेरो कार्य निर्विघ्रपूर्वक सिद्ध होय, ऐसे कहकरके देवीके अर्थ अपनो कार्य निवेदन Aho! Shrutgyanam Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) पोदकीरुते अधिवासनप्रकरणम् । ततोऽर्चयित्वाऽखिलतोरणानि विवेष्टयेत्पांडुरवस्त्रसूत्रैः ॥ उदीरयेन्मंत्रमथार्जुनस्य नामानि नामानि च कृष्णिकायाः ॥ ॥ २१ ॥ अर्जुनः फाल्गुनः पार्थः किरीटी श्वेतवाहनः ॥ बीभत्सुर्विजयः कृष्णः सव्यसाची धनंजयः ॥ २२ ॥ इत्यर्जुननामानि ॥ अथ पोदकीनामानि ॥ श्यामा वराही शकुनी कुमारी दुर्गा च देवी चटका तथोमा ॥ त्वं पोदकी पांविका त्वमेव त्वं कृष्णिका त्वं सितपक्षिणी च ॥ २३ ॥ त्वं ब्रह्मपुत्री शकुनैकदेवी धनुर्धरी पांथसमूहमाता ॥ प्रत्यक्षरूपा भगवत्यमोघे नमोऽस्तु तुभ्यं कुरु मेऽर्थसिद्धिम्॥२४॥ ॥ टीका ॥ ततइति ॥ ततः स्वकार्यनिवेदनानंतरं अखिलतोरणानि अर्चयित्वा पांडुरवस्त्र सूत्रैः श्वेतवसन सूत्रः विवेष्टयेत् ततः मंत्रमुदीरयेत् उच्चारयेत् अर्जुनस्य नामानि कृष्णिकायाश्च पोदक्या नामान्युच्चारयेदित्यर्थः ॥ २१ ॥ अथार्जुननामान्याह अर्जुनः फाल्गुनः पार्थः किरीटी श्वेतवाहनः । बीभत्सुर्विजयः कृष्णः सव्यसाची धनंजयः गतार्थान्यर्जुननामानि ॥ २२ ॥ अथ पोदकीनामानि श्यामा इति ॥ श्यामा वराही शकुनी कुमारी दुर्गा च देवी चटिका तथोमा ॥ त्वं पोदकी पांडविका त्वमेव त्वं कृष्णिका त्वं सितपक्षिणी च ॥ २३ ॥ त्वं ब्रह्मपुत्री शकुनैकदेवी धनुर्धरी पांथसमूहमाता || प्रत्यक्षरूपा भगवत्यमोघे नमोस्तु तुभ्यं कुरु मे सि ॥ भाषा ॥ करे ॥ २० ॥ तत इति ॥ ताछे सबतोरणनको अर्चनकरके श्वेतवस्त्र सूत्रकर वेष्टन करे फिर पूर्व कह्यो जो मंत्र और अर्जुन के कृष्णिकाके नाम तिनै उच्चारण करे ॥ २१ ॥ अर्जुन इति ॥ अर्जुनः फाल्गुनः पार्थः किरीटी श्वेतवाहनः । बीभत्सुर्विजयः कृष्णः सव्यप्ताची धनंजयः ॥ ये दशनाम अर्जुनके हैं ॥ २२ ॥ श्यामेति ॥ श्यामा वराही शकुनी कुमारी दुर्गा देवी चटिका उमा तुमही पोदकी तुमही पांडविका तुमही कृष्णिका हो, तुमही श्वेतपक्षिणी हो ॥ २३ ॥ त्वंबह्मपुत्रीति ॥ तुमही ब्रह्मपुत्री हो, तुमही शकुनकी एक देवी हो तुम धनुर्द्धरी पांथसमूहको माताहो तुमप्रत्यक्षरूपा हो हे भगवति Aho! Shrutgyanam Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) वसंतराजशाकुने- सप्तमो वर्गः । युग्मम् ॥ ग्राम्येण तुल्यश्चटकेन नीलो योऽसौ पुमान्पाडुरपुंडपक्षः ॥ लघ्वी ततो धूमनिभा च नारी तत्पोदकीयुग्ममुदाहरति ॥ २५ ॥ विलोकिते पक्षिणि तत्र तस्मै समंत्रकोऽर्वः शिरसा निवेद्यः ॥ दृश्येत चेत्पांडविका न तस्मिन्नर्घस्तदा तोरण एव देयः ॥ २६ ॥ भक्त्या ततः शाकुनिकं प्रपूज्य तां पक्षिपूजां विनिवेद्य तस्मै ॥ ध्यात्वा स्वकार्य हृदयेन सर्व गच्छेत्स्वगेहं विहितप्रणामः ॥ २७ ॥ ॥ टीका ॥ द्धिम् ॥ युगलं गतार्थम् ॥ २४ ॥ ग्राम्येणेति ॥ ग्राम्येण चटकेन तुल्यवर्णेन नीलः यः स पुमान् कीदृक् पांडुरौ पुंड्रपक्षौ यस्य स तथा पुंडूं तिलकस्य स्थानं गृह्यते यद्वा पुंड्रौ पुष्टावित्यर्थः । ततो लघ्वी धूमनिभा धूमसदृशवर्णा नारी तत्पोदकीयुग्ममुदाहरति कथयंतीत्यर्थः ॥ २५ ॥ विलोकितेति ॥ तत्र तस्मिन्प्रदेशे विलो - किते दृटे पक्षिणि तस्मै शकुनाय समंत्रकोऽर्धः मंत्रेण सह वर्तमानः मंत्रोच्चारणपूर्वर्वकम् अर्थः शिरसा प्रणम्येति शेषः। निवेद्यः निवेदनीयः चेद्यदि तस्मिन्प्रदेशे पांडविका पोदकी न दृश्येत तर्हि अर्धस्तोरणे एव देयः प्रदातव्य इत्यर्थः ॥ २६ ॥ भक्त्येति ॥ ततस्तदनंतरं पुनः सः स्वगेहं गच्छेत् । कीदृग्विहितप्रणाम इति विहितः कृतः प्रणामो येन स तथा । किं कृत्वा प्रपूज्य पूजां विधाय कं पूर्वोक्तं भक्त्या शाकुनिकं शकुनाचार्यम् । पुनः किं कृत्वा तां पक्षिपूजां तस्मै गुरवे निवेद्य । पुनः किं कृत्वा स्वकार्यं निकाममत्यर्थं हृदयेन मनसि ध्यात्वा विमृश्य ॥ २७ ॥ ॥ भाषा ॥ तुम्हारे अर्थ नमस्कार हो तुम मेरी अर्थ सिद्धि करो ॥ २४ ॥ ग्राम्येणेति ॥ ग्राममें चिडी होय इन को तुल्य होय नीलवर्ण जाको होय, और श्वेतवर्णके, और पुष्ट ऐसे जाके पंख होय जो ऐसो होय सो तो पुरुष जाननो, और जो छोटी होय धूम कोसो वर्ण जाको होय वा स्त्री जाननी इनकूं पादकीको युग्म कहैं हैं ॥ २९ ॥ विलोकिते इति ॥ ये पक्षी जो दखि तत्र ता पक्षीको अर्ध मंत्र बोलकर मस्तक नमाय अर्ध्य निवेदन करै वा इसमें तो - रणमेंभी अर्ध्य देनो योग्यहै ॥ ॥ २६ ॥ भक्तयेति ॥ तापीछे भक्तिकरके शकुन के आचार्यक Aho! Shrutgyanam Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुतअधिवासनप्रकरणम् । ( १०५ ) मन्त्रोऽर्जुनाख्याः शकुनेस्तथाख्याः सर्वत्र पूजादिविधौ प्रयोज्याः ॥ पूज ( विदध्याद्भवने वने च होमं दशांशेन जपाद्विदध्यात् ॥ २८ ॥ भोजयेदथ गुडाज्यपायसैः श्रद्धया कतिपयाः कुमारिकाः ॥ आत्मनापि विदधीत भोजनं तद्गुरु स्वजनबंधुभिः समम् ॥ २९ ॥ ततो रजन्यां समुदीर्य मंत्र ध्यात्वा च देवीं विधिनोदितेन | विचार्य कार्य मनसा समस्तं शयीत भूमौ विजने व्रतस्थः ||३०|| अथ प्रभातेऽभ्युदिते दिनेशे सहायवान्निर्मलशुक्कुवासाः ॥ भूयः समं शाकुनिकेन यायादनाकुलस्तोरणभूमिभागम् ॥ ३१ ॥ ॥ टीका ॥ मंत्र इति ॥ मंत्रः पूर्वोक्तः अर्जुनाख्या: अर्जुननामानि तथा शकने: पांडविकायाः आख्याः सर्वत्र पूजाविधौ प्रयोज्याः पूजां भवने गृहे विदध्यात् वने च जपात् दशशिन तदशमभागेन होमं विदध्यात् ॥ २ ॥२८॥ भोजयेदिति ॥ अथेति गृहपूजानंतरं कतिपयाः कुमारिकाः श्रद्धया भोजयेत् । कैः गुडाज्यपायसैरिति गुडः प्रसिद्धः आज्यं सर्पिः पायसं दुग्धं वा परमान्नं तैरित्यर्थः । आत्मनापि स्वयमपि तद्भोजनं विदधीत । कथं समं सह कैस्तद्गुरुस्वजनबंधुभिरिति स चासौ गुरुश्चेति तद्गुरुः शकुनाचार्यः स्वजनाः प्रतीताः बान्धवः भ्रातरः तैः सार्द्धमित्यर्थः ॥ २९॥ ॥ तत इति ॥ पूर्वमेव व्याख्यातम् ॥ २० ॥ अथेति ॥ अथानंतरं ॥ भाषा ॥ पूजा करके वो जो पक्षीकी पूजा गुरुनकूं निवेदन करके अपने हृदय में कार्य - चारके गुरुनकूं नमस्कारकर फिर अपने घरकूं गमनकरै ॥ २७ ॥ मंत्र इति ॥ घरमें वा वनमें पूर्व कह्यो जो मंत्र, और अर्जुनके नाम, और श्यामाके नाम ये सर्व पूजाविधि में उच्चारणकरै और जपते दशांश हवनकरे ॥ २८ ॥ भोजयेदिति || पूजा करे पीछे श्रद्धाकर गुड घृत पास इन करके कितनी कुमारी कन्या जिमावे फिर गुरु स्वजन भैया बंधु इनसहित आप भोजनकरै ॥ २९ ॥ तत इति ॥ इतनो करे पीछे व्रती रात्रि में मंत्र उच्चारण कर विधिपूर्वक देवीको ध्यानकरै मनमें सर्व कार्य विचारकरके वनमें वा घरमें पृथ्वी में शयन करै ॥ ३० अथेति ॥ प्रभातसमयमें सूर्यको उदय होय तब सहायी मनुष्य दो तीनलेके शुक्लवस्त्र Aho! Shrutgyanam Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) वसंतराजशाकुन-सप्तमो वर्गः। श्यामां पुरस्तादवलोक्य तस्मिन्नुदीर्य मंत्रं कुसुमाक्षताभ्याम् ॥ विधाय पजां प्रविधाय पृष्ठे दिनाधिनाथं शकुनानि पश्येत् ॥ ३२ ॥ तिरोहिते तत्र च तोरणा ते निरूप्य भद्राण्यशुभानि तद्वत् ॥ श्यामायुगस्यांगविचेष्टितानि कल्प्यं फलं तादृशमात्मकायें ॥३३॥ प्रश्न प्रशांते न निरीक्षते चेतपक्षी भवेत्तत्करणीयनाशः ॥ प्रश्न प्रदीप्ते न निरीक्षते चेत्पक्षी भवेत्तत्करणीयसिद्धिः ॥ ३४॥ ॥ टोका। भूयः पुनरपि शाकुनिकेन शकुनाचार्येण समं तोरणभूमिभागं यायात् । कस्मिन्प्रभाते अभ्युदिते उदयं प्राप्ते दिनेशे सूर्ये सति सहायवानिति स्वल्पपरिच्छदयुक्तः । पुनः कीदृशः निर्मलशुक्लवासा इति निर्मलं शुक्नं वासो यस्य स तथा । पुनः कीदृशः अनाकुलः स्थिरचित्तः ॥ ३१॥ श्यामामिति ॥ तस्मिंस्तोरणे श्यामां पुरस्तादग्रेऽव लोक्य मंत्रमुदीर्य कुसुमाक्षताभ्यां पुष्पतंडुलाभ्यां पूजां विधाय दिनाधिनाथं पृष्ठे पृष्ठभागे प्रविधाय कृत्वा शकुनानि पूर्वोक्तानि पश्येद्रिलोकयेत् ॥ ३२ ॥ तिरोहिते इति ॥ तिरोहिते वृक्षाच्छादिते तत्रेति तस्मिस्तोरणांते श्यामायुगस्य स्त्रीपुलक्षणपोदकीयुगलस्यांगविचेष्टितानि भद्राणि शुभानि अशुभानि तद्विपरीतानि निरूप्य ज्ञात्वा तद्वत् श्यामायुगस्यांगविचेष्टितवत् पुरुषेण आत्मनः कार्ये तादृशं फलं कल्प्यं कल्पनीयं कचित्तोरणेनेति पाठो दृश्यते तत्र तोरणेन कृत्वा तिरोहित इत्यर्थः कर्तव्यः ॥ ३३ ॥ प्रश्न इति ॥ प्रदीप्ते उग्रकार्यप्रश्ने सति ॥ भाषा। पहरके शकुनाचार्यकू संगलेके तोरणभागके वहां जाय ॥ ३१ ॥ श्यामामिति ॥ ता तोरणमें अगाडी श्यामाकू देख करके मंत्र बोलकरके पुष्प अक्षतनकर पूजा करके फिर सूर्यकू पश्चिमदिशामें करके पूर्व कहे जे शकुन तिन्हें विलोकन करे ॥ ३२ ॥ तिरोहित इति ।। वृक्षकर आच्छादन होय रह्यो ऐसो जो तोरणको समीप तहां श्यामा युगकी चेष्टा शुभ अशुभ विपरीत जानकरके फेरपुरुष ता श्यामायुगके अंग की चेष्टाकीसी नाई अपने कार्यमें फल जाननो ॥ ३३ ॥ प्रश्न इति ॥ धर्मसंबंधी प्रश्न होय और जो पक्षी न दीख Aho! Shrutgyanam Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते शतिप्रकरणं द्वितीयम् । ( १०७ ) इति पोदकीरुते अधिवासनप्रकरणं प्रथमम् ॥ १ ॥ शांतदीप्तककुभादिविशेषः कथ्यते च स किलायमशेषः ॥ ते भवति यत्र मनुष्यः सर्वथा शकुनसंविदधृष्यः ॥ ॥ ३५ ॥ दग्धा दिगैशी ज्वलिता दिगेंद्री संधुक्षिता चानिलदिक्क्रमेण || रात्र्यंतयामार्धमभिप्रवर्त्यस्याद्यावदर्धप्रहरो दिनस्य ॥ ३६ ॥ ॥ टीका ॥ पक्षी चेन्न निरीक्षते तदा तत्करणीयसिद्धिर्भवेत् । प्रशांते धर्मसंबंधिनि प्रश्ने पक्षी चेन्न निरीक्षते तदा तत्करणीयनाशो भवेत् ॥ ३४ ॥ इति श्री शत्रुंजयकरमोचनादिसुकृतकारि महोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचितायां वसंतराजटीकायां पोदकीरुते अधिवासनप्रकरणं प्रथमम् ॥ १ ॥ शांतदीप्तति ॥ अथास्माभिः किल इति सत्ये अपमशेषः समस्तः शांतदीप्त ककुभादिविशेषः कथ्यते प्रकटीक्रियते । यत्र यस्मिन्नियं शांता दिक् इयं प्रदीप्तादिक इत्यादिको यो विशेषः तस्मिन् हृगते मनसि धृते मनुष्यो मानवः सर्वथा शकुन संविच्छकुनज्ञानं तस्या अधृष्यः धषितुं तिरस्कर्तुमशक्यो भवतीत्यर्थः ॥ ३५ ॥ दग्धा दिगैशीति ॥ लोकद्वयं पूर्वमेव व्याख्यातं तथाप्यत्र व्याख्यायते ॥ ३६ ॥ भाषा ।। तो कार्यको नाश होय, और जो उग्रकार्यको प्रश्न होय पक्षी जो न दीखे तो कार्यकी सिद्धि होय ॥ ३४ ॥ इति श्रीजटाशंकर तनूजन्मज्योतिर्विद्वर श्रीधर विरचितायां वसंतरा - जशाकुन भाषाटीकायां पोदकीरुते अधिवासनप्रकरणं प्रथमम् ॥ १॥ शांतदीप्नेति ॥ शांता दीप्तादिक आठ दिशा अब कहैं हैं जो मनुष्य इनकूं मनमें जानतो रहे तो सर्वथा शकुनवेत्तानमें योग्य होय ॥ ३५ ॥ दग्धा दिगैशीति ॥ चार घडीके तडकेंस लेकर दिनको अर्द्ध प्रहर होय तावत् ईशान दिशा दग्धा, और ऐंद्री दिशा Aho! Shrutgyanam Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। ईदृशं विषुवतोभवेद्दयादेक्षिणायनदिने तु शांकरी ॥ पावकी ज्वलति चोत्तरायणे भस्मधूमसहिते तु पार्श्वयोः॥३७॥ ॥ टीका ॥ ईदृशमिति ॥ रात्र्यंतयामार्धादारभ्य यावत्प्रभाते घटिकाचतुष्टयं तावदग्धा दिगैशी ज्वलिता दिगन्द्री संधुक्षिता अनलदिग्भवति ततः द्वितीयमहरे पूर्वदिग्दग्धा अमिकूणिर्दीप्ता दक्षिणदिग्धूमिता तृतीयप्रहरे अमिंदिग्दग्धा दक्षिणदिग्दीप्ता नैर्ऋति धूमिता अन्याः पंच शांताःततश्चतुर्थप्रहरे दक्षिणदिग्दग्धा नैऋतिकूणिर्दीप्ता पश्चिमदिग्धूमिता अन्योः पंच शांताः पंचमप्रहरे नैऋतिर्दग्धा पश्चिमदिग्दीप्ता वायव्य कूणिचूंमिता अन्याः पंच शांताः षष्ठे यामे पश्चिमदिग्दग्धा वायव्यकूणिर्दीप्ता उत्तर दिग्धूमिता अन्याःपंच शांताः सप्तमे प्रहरे वायव्यकूणिर्दग्धा उत्तरदिग्दीताईशानकूणि मिता अन्याःपंचशांताः अष्टमेप्रहरे उत्तरदिग्दग्धा ईशानकूणिर्दीप्ता पूर्व दिग्धूमिता अन्याः पंच शांताः पुनः प्रभाते पूर्वोक्तमेव ईदृशं दग्धादिस्वरूपं विषुवतोईयोमषतुलयोर्भवेत्। “समरात्रिंदिवे काले विषुवद्विषुवंचतत्" इत्युक्तेस्तत्रैव तत्सं, ॥ भाषा ॥ ज्वलिता, और अग्निदिशा संधुक्षिता ॥ ३६ ॥ ईदृशमिति ॥ रात्रिके अंतयामको अर्द्ध प्रहरते लेकर जबतक प्रभातकी चार घडी तब ताई ईशानदिशा दग्धा, और इंद्रकी पूर्वदिशा ज्वलिता, और अग्निदिशा संधुक्षिता होय है ता पीछे दूसरे प्रहरमें पूर्वदिशादग्धा और अग्निकोण दप्तिा दक्षिणदिशा धूमिता, और तृतीय प्रहरमें अग्नि कोण दग्धा, दक्षिणदिशा दीप्ता, नैरृति दिशा धूमिता और जे पांचों दिशाते शांता हैं, और ता पीछे चतुर्थ प्रहरमें दक्षिणदिशा दग्धा, नैति दिशा दीप्ता पश्चिम दिशा धूमिता, और पांचो दिशा शांता, और पंचम प्रहरमें नैति दिशा दग्धा, पश्चिम दिशा दीप्ता दग्धा, वायव्य कोण धूमिता, और पांचों दिशा शांता छठे प्रहरमें पश्चिम दिशादग्धा, वायव्यदिशा दीप्ता, उत्तर दिशा धूमिता, और पांचों दिशा शांता हैं और सातवें प्रहरमें वायव्य कूणदग्धा, उत्तर दिशा दीप्ता, ईशानदिशा धूमिता, और पांचों दिशा शांता आठवें प्रहरमें उत्तर दिशा दग्धा, ईशानकूण दीप्ता, पूर्वदिशा धूमिता, और पांचों दिशा शांता, मेष तुलाके सूर्यहोय तब Aho! Shrutgyanam Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते शांतप्रकरणं द्वितीयम्। (१०९) अर्धे दिनस्य प्रहरेऽवशिष्टे यावनिशायाः प्रहरार्धमाद्यम् ॥ स्यात्पश्चिमाशा रविणात्र गूढा गम्योज्झिते धूमितभस्मवत्यौ ॥ ३८ ॥ प्रत्येकमेवं सततं सुमेरोः प्रदक्षिणाभ्यागमनेन सर्पन ॥ दिवारजन्योः प्रहराष्टकेन भुंक्ते दिशोऽष्टौ सविता क्रमेण ॥ ३९॥ ॥ टीका ॥ भवात्तु पुनः दक्षिणायनदिने काय दिने शांकरी ईशानदिक् ज्वलति तथा उत्तरायणदिने मकरायदिने पावकी वहिदिग्ज्वलति । तत्पार्श्वयोर्भस्मधूमसहिते भवतः अयमर्थः यदा शांकरी ज्वलिता तदा उत्तरा भस्मिता पूर्वा धूमिता यदा पावकी ज्वलिता तदा पूर्वा भस्मिता दक्षिणा धूमिता स्यात् ॥ ३७॥ तदेव दर्शयति अर्धे इति ॥ गतार्थम् ॥ ३८ ॥ प्रत्येकमिति ।। एवं पूर्वोक्तप्रकारेण प्रत्येकं दिग्विभागं प्रहरमात्रावस्थायित्वेन सविता सूर्यः क्रमेण परिपाट्या अष्टौ दिशः भुक्ते केन दिवारजन्योःप्रहराष्टकेन । किंकुर्वन् सर्पन् गच्छन्मुमेरोः प्रदक्षिणाभ्यागमनेनेति प्रदक्षिणया अभ्यागमनं पर्यटनं तेन सुमेरोः प्रदक्षिणां कुर्वत्रित्यर्थः ॥ ३९ ॥ ॥ भाषा ॥ दक्षिणायन उत्तरायण काल होय है दाक्षिणायन दिनमें ईशान दिशा ज्वलति कहे दग्धा, और उत्तरायण दिनमें अग्नि दिशा ज्वलति कहे दग्धा, इनके पसबाडेनकी दिशा भस्मा धूमवती अर्थात् जब शांकरी जो ईशान दिशा ज्वलिता होय तब उत्तर दिशा भस्मिता, और पूर्व दिशा धूमिता, और जब अग्निदिशा ज्वलिता होय तब पूर्वदिशा भस्मिता, और दक्षिण दिशा धूमिता, होय या प्रकार जाननो ॥ ३७ ॥ अर्द्ध इति ॥ दिनके प्रहरको अर्द्धवाकी रहै और जबताई रात्रिके आद्यप्रहरको अर्द्ध तबताई पश्चिमादिशा सूर्यकरके व्याप्त होय और जो सूर्य जाकू छोडिआये और जा दिशाकू अगाडी जायगे ये दोनों दिशा धूमिता भस्मवती कहेंहैं ॥ ३८ ॥ प्रत्येकमिति ॥ एक एक दिशानमें एक एक प्रहरस्थित होय कर सूर्य क्रमकरके सुमेरुपर्वतकू दक्षिणावर्त करत रात्रिदिनके आठ प्रहर Aho! Shrutgyanam Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । दुग्धा दिगुक्ता दिननाथमुक्ता विवस्वदाप्ता भवति प्रदीप्ता ॥ सा धमिता यां सवितां प्रयाता शेषा दिगंताः खलु पंच शांताः ॥ ४० ॥ दग्धप्रदीतोद्गतधूमशांतदिशां यदा सांस्थितमन्तराले ॥ शेषं तदाशायुगलं विमिश्रमाहुर्यथासन्नफलं फलज्ञाः ॥ ४१॥ यस्यां स्थितोऽर्कस्तदुपक्रमेण दिग्ज्वालिनी धमवती तदन्या ॥ छाया जला कर्दमिता धरित्री भस्मान्वितांगारवती तथेति ॥ ४२ ॥ ॥ टीका ॥ ई० दग्धेति॥पूर्व व्याख्यातम् ॥ ४० ॥ दग्ध इति ॥ आसां दग्धप्रदीप्तोद्गतधूमशांत दिशां यदतराले आशायुगलं तत्फलज्ञाः विमिश्रमा- ॥ इदं प्रभात यंत्रम् ॥ दुः । कीदृग्यथासन्नफलमिति यथा येन प्रकारेण यदासन्नमिति पाठे पूर्वोक्त अंगारवती दिशां तत्सदृशं फलं यस्य स तथा ॥ ४१ ॥ यस्यामिति ॥ यस्यामर्कः स्थितः उदयं भस्मान्विता प्राप्तस्तदुपक्रमेण तत्परिपाट्या इमा दिशो ज्ञेयाः । यस्यां रविः स्थितः सा दिग्ज्वालि नी । तदनंतरं धूमवती ततोन्या छाया उ० ॥ भाषा ॥ करके आटो दिशानकूं भांगे हैं ॥ ३९ ॥ दग्धेति ॥ सूर्य जा दिशाकूं छोडदे है वाकी दग्धा संज्ञा है, और सूर्य जा दिशामें प्राप्त होय वो दिशा प्रदीप्ता कहें हैं, और सूर्य जा दिशामें अगाडी जायोचाहे हैं वो दिशा धूमिता, और पांचों दिशा की शांता संज्ञा है ॥ ४० ॥ दग्ध इति ॥ दग्धा, प्रदीघा, धूमा, शांता इन दिशानके मध्य में स्थित जो दोनों दिशानको शेष रह्यो दिशानको युगल ताकूं फल जानवेवाले विमिश्रनामपूर्व दिशानकी सदृशफल जाको नाम सो विमिश्र कहें ॥ ४१ ॥ यस्यामिति ॥ जा दिशामें सूर्य स्थित होय वो दिशाज्वालिनी ताते अगाडी धूमवती ताते अगली छाया ताते अगली जला ताते अगली कर्दमिता ताते अगली धरित्री ताते अगली भस्मान्विता तांते अगली अंगारवती ॥ ४२ ॥ Aho ! Shrutgyanam वा० धरित्री पू ज्वालिनी 4. द्रष्टा कर्दमिता आ० धूमवती द० छाया ने० जला Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते शांतमकरणं द्वितीयम् । (१११) उक्तानि नामानि दिशामिमानि फलान्यथासां प्रतिपादयामः ॥ दिशि ज्वलंत्यां मरणं रणे स्यात्संधुक्षितायां सकलार्थनाशः ॥ ४३ ॥ छायाजलाकर्दमितासु दिक्षु जयो धरित्र्यां कथितोऽर्थलाभः॥स्याद्भस्मितांगारितयोर्दिशोस्तुजीवप्रणाशः शकुनोदयेन ॥४४॥ अन्यत्र सक्रांतिचतुष्टयात्तु भेदः स्वबुद्ध्या ककुभां विभाव्यः ॥ चलो रविः शश्वदुपैति याति तस्मादसौ सोमयमाधिवासे ॥४५॥ ॥ टीका ॥ ततः अन्यथाजला। ततः कर्दमिता। ततो धरित्री।ततो भस्मान्विता तथा अंगारवती ॥४२॥ उक्तानीति ॥ दिशामिमानि नामानि उक्तानि कथितानि अथासां फलानि वयं प्रतिपादयामः कथयामः।ज्वलंत्यां दिशिशकुनोदयेन रणे मरणं स्यात् संक्षिः तायांशकुनोदयेन सकलार्थनाशः स्यात् ॥ ४३॥ छायति ॥ छायाजलाकर्दमितासु दिक्षु शकुनोदयेन जयः स्यात् । धरित्र्यामर्थलाभः कथितःभस्मितांगारितयोर्दिशोः शकुनोदयेन जीवप्रणाशः स्यात् ॥ ४४ ॥ अन्यत्रेति ॥ संक्रांतिचतुष्टया पूर्वोक्ता दन्यत्र अष्टम संक्रांतिषु ककुभां दिशां भोगः रवेरिति शेषः । स्वबुद्धया विभाव्य विचार्य यस्माचलो रविःशश्वनिरंतर सोमयमाधिवासे सोमश्चंद्रो यमः कृतांतः अनयोद्धः एतयोरधिवसनं अधिवासो ययोस्ते तथोक्ते दिशौ उत्तरदक्षिणे ॥भाषा॥ उक्तानीति ॥ दिशानके नाम कहे अब दिशानके फल कहै हैं ज्वालिनी दिशामें शकुन को उदय होय तो रणमें मरे, और संधुक्षितादिशामें शकुन होयतो सकल अर्थको नाश होय ॥ ४३ ॥ छायेति ॥ छाया जला कर्दमिता इन दिशानमें शकुन होय तो जय होय, और धरित्रीमें होयतो अर्थ लाभ होय, और भस्मिता अंगारिता इन दिशानमें शकुनको उदय होय तो जीवको नाश होय ॥ ४४ ॥ अन्यत्रेति ॥ पूर्व कह्या ये चार संक्रांति इनते और जो आठ संक्रांति तिनमें दिशानको भेद सूर्यसूहै सो अपनी बुद्धिसूं विचारकरके सूर्य चलै है सो निरंतर उत्तर दक्षिणमें प्राप्त होय है ताते और दिशानमें फिर एतेही Aho! Shrutgyanam Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। दिकालचेष्टागतिभावशब्दस्थानैः शुभैः सप्तविधःप्रशान्तः॥ भवेत्पुनस्तैरशुभैः समस्तैः सप्तप्रकारःशकुनः प्रदीतः॥४६॥ अभस्मितायाः ककुभः प्रशस्ता विष्टयादिदोषै रहितश्च कालः ॥ अवामचेष्टागतिरप्यवामा भवेत्प्रसन्नो मधुरो विरावः ॥४७॥ स्थानं मनोहारि तदेतदेवं सप्तप्रकारं कथयंति शांतम् ॥ सप्तप्रभेदं पुनरेतदेव वदन्ति दीप्तं विपरीतभावात् ॥४८॥ । टीका ॥ उपैति आगच्छति याति ततोऽन्यत्र दिक्षु यांतीति भावः॥४५॥अथ दशप्रकारेषु शांतदीप्तेष सप्तानामेवात्र सोपयोगित्वात् तानेवाह ॥ दिक्कालेति ॥ दिक्कालचेष्टाः गतिभावशब्दस्थानः शुभैः सप्तविधः प्रशांतः स्यात्पुनस्तैरशुभैः समस्तैः सप्तविधः शकुनः प्रदीप्तो भवेत् ॥ ४६॥ अभस्मिताद्या इति ॥ भस्मितादिवर्जिताः ककुभः पंच दिशः सर्वकालं सदैव प्रशस्ताः शांता इत्यर्थः ।विष्टयादिदोषैः रहितश्च काला. प्रशांत इत्यर्थः। विष्टिस्वरूपं त्वेवम्। 'कृष्णे च त्रिदशा रात्रौ दिवा सप्त चतुर्दशी॥ एकैकतिथिवृद्ध्या तु शुक्ले विष्टिः प्रकीर्तिता' ॥ इति । आरंभसिद्धयादी अवामा चेष्टा दक्षिणा चेष्टा प्रशांता गतिरप्यवामा दक्षिणां प्रशांता भावोऽध्यवसायः प्रसन्नः प्रशांतः विरावो ध्वनिः मधुरः अक्रूरः प्रशांतः ॥ ४७ ॥ स्थानमिति ॥ मनोहारि स्थानं शांतं तदेवं पूर्वोक्तप्रकारेण सप्तविधं शांतं कथयंति ॥ भाषा ॥ जाननो ॥ ४५ ॥ दिक्कालेति ॥ दिशा काले चेष्टा गति भाव शब्दस्थान ये शुभ होय तो इन करके सात प्रकारको प्रशांत होयहै औरः पुनः ते अशुभ होय तो इंन करके सात प्रकारको शकुन प्रदीप्त होय है ॥ ४६॥ अभस्मिताद्या इति ॥ भस्मितादिक करके वर्जित पांचों दिशा तिनकी शांतासंज्ञाहै, और भद्रादिक दोष करके रहित काल सो प्रशांत है, और दक्षिणा चेष्टागति ये दोनों शांता हैं, और नधुरशब्द होय तो प्रशांत शकुन जाननो ॥ ४७ । स्थानमिति ॥ मनकू हरै ऐसा सुंदरस्थान सोभी शांतहै या ग्रकारकर सात प्रकार को शांत कहैं हैं, फिरविपरतिभावते याही सातप्रकारकरके दीप्त कहैं हैं ॥ ४८ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते शांतप्रकरणम् । ( ११३ ) एषां च मध्यात्कुकुबादिकानां जातेषु शांतेष्वधिकाधिकेषु ॥ शुभं नराणामधिकाधिकं स्यात्तद्वत्प्रदीप्तेष्वशुभं प्रदिष्टम् ॥ ॥ ४९ ॥ एवंविधं शांतमथ प्रदीप्तं जानाति यः शाकुनिकः स एव ॥ शान्तप्रतिस्यच यो विशेषं न वेत्ति नो वेत्ति स किंचिदेव ॥ ५० ॥ इति पोदकीरुते शान्तप्रकरणं द्वितीयम् ॥ २ ॥ ॥ टीका ॥ पुनः एतदेव पूर्वोक्तं सप्तप्रकारं विपरीतभावादीप्तं कथयति ॥ ४८ ॥ एषामिति ॥ एषां सप्तानां ककुवादिकानां मध्यादधिकाधिकेषु शांतेषु जातेषु तदा नराणामधिकं शुभं स्यात् । सप्तसु शांतेषु का गणना । तद्वत्प्रदीप्तेषु अधिकाधिकेषु जातेष्वशुभमधिकं प्रदिष्टं कथयति ॥ ४९ ॥ एवंविधमिति ॥ एवंविधं पूर्वप्रतिपादितं शांतमथ च प्रदीप्तं यो जानाति स एव शाकुनिकः शकुनज्ञाता । यः शांतप्रदीप्तस्य विशेषं न वेत्तिस न किंचिदेव वेत्ति किमपि न जानातीत्यर्थः ॥ ५० ॥ इति श्रीमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचितायां वसंतराजटीकायां पोदकीरुते द्वितीयं शांतप्रदीप्तं प्रकरणम् ॥ २ ॥ ॥ भाषा ॥ एषामिति ॥ ये दिक्कालादिक सात कहे इनके मध्यमें अधिक अधिक शांत शकुन होय तो मनुष्यनको अधिक शुभ होय, और जो ये सातोन में प्रदीप्त अधिकाधिक होय तो अशुभ अधिक कहनो ॥ ४९ ॥ एवंविधमिति ॥ याप्रकार कहे जे शांत प्रदीप्त तिन जो जाने सोही शकुनी श्रेष्ठ है, और शांतप्रदीप्तके भेदकूं नहीं जाने है सो पुरुष कछुभी नहीं जाने है ॥ ५० ॥ इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधर विचितायां वसंतराजभाषाटीकाय पोदकीरुते शांतप्रकरणं द्वितीयम् ॥ २ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। ॥ टीका॥ "शकुनार्णवे दिग्विभागस्त्वेवं यथा|उदयास्तौ मूलाख्यौ उत्तरयाम्यौ ध्रुवनिवासनामानौ । नैर्ऋतवायव्यौ च प्रमाणखरकाहयौ चेति ॥ १॥ रूढे एव भवेता ई. शानामेयकोणयोरभिधे॥सहजं रविगतिजनितं चैषां देधा प्रशांतदीप्तत्वम्॥२॥इति वदति । एतासां फलं त्वेवम्-प्राच्ये मूले दीप्तान शकुनानाकस्मिकान्समाकर्ण्य । बयान ममेत्येते मत्तो महतस्तु वार्तायै ॥ १॥ पश्चिममूले दीप्ता पश्चिमसंध्यासमुस्थिताः शकुनाः । शस्त्रामिचौरभूपप्रभृतिभयोत्पादकाः सद्यः॥२॥ यस्योटजेपि वसतो निवासमासाद्य जायते शकुनः। मासार्धमस्यन चिरात्पुंसः सौधानि साधयति ॥ ३ ॥ ग्रामारामामरगृहपरिखा च प्रदिशास्वनारंभात् ॥ सिद्धिं निवासशकुनो नयति मखोद्वाहमुख्यांश्च ॥ ४ ॥ प्रमाण नित्यप्रामाण्यं प्रमाणं कुरुतेतरम्।पदस्थस्य पदावाप्तिनाशकृत्त्वरितं च तत् ।। ५॥प्राप्य प्रमाणकोणं यस्य स्वस्थस्य जायते शकुनः॥ तस्याकस्मात्किंचित्सत्वरमुत्पद्यते कार्यम् ॥६॥ न प्रारब्धं सिद्ध्यति न प्रस्थानं प्रमाणमायाति ॥ जाते प्रमाणकोणे विघटेत समागता ॥भाषा॥ "अब शकुनार्णवके प्रकारसे दिशापरत्वकरके फल कहते हैं.उसमें प्रथम जो शकुन देखनेवाला है उसके स्थानसे जो अष्टदिशा हैं उनके नाम कहते हैं. उदयास्तौ इति ॥ पूर्वदिशा, और पश्चिमदिशा यह दोनों दिशाकी मूल संज्ञा है. और उत्तर दिशाकी ध्रुवसंज्ञा दक्षिगदिशाकी निवास संज्ञा नैर्ऋत्यदिशाकी प्रमाणसंज्ञा वायव्य दिशाकी खाक संज्ञा है. ॥ १ ॥ और ईशानदिशा आग्नेयदिशा यह दोनोंकी रूढ संज्ञा है ऐसे आठ दिशाके आठ नाम हैं उसमें भी सूर्यके गमन परसे शांत और प्रदीप्त ऐसे दोभेद दिशाके होते हैं वो स्पष्ट दिखाते हैं. रात्रिके अंतिमभागकी दो घडी और सूर्योदयानंतर दो घडी ऐसी चार घडीको मूल संज्ञा पूर्वदिशाज्वलित जाननी. उसके पीछेकी चार घडी वो दग्ध जाननी, और मूलदिशा ज्वलितके आगे चार घडीतक धूम्र जाननी. ऐसा चार चार घडीका दग्ध अलित धूम्रभेद दिशाका जानना. जैसा प्रातःकालकू मूलदिशा ज्वलित है मध्याह्नकू निवास दिशा ज्वलित है. संध्याकालकू पश्चिमदिशा अलित है. मध्यरात्रिकू ध्रुवदिशा ज्वलित है. तब जो दग्ध ज्वलित धूमितदिशा वो प्रदीप्त जाननी, और बाकीकी पांच दिशा प्रशांत जाननी और दिशाका भोग Aho! Shrutgyanam Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिग्विभागचक्रम् | ॥ टीका ॥ सिद्धि: ( ॥ ६ ॥ ) विघटितमर्थं घटयति संशितं वस्तु साधयत्यचिरात् ॥ प्रस्थानयति च नीतं प्रमाणकोणोदयः शकुनः ॥ ७ ॥ प्रत्यूहोपहतानां दिग्मूढानामतिभ्रमार्तानाम् । प्रायः प्रमाणशकुनः साधीयान्कांदिशीकानाम् ॥ ८ ॥ रिक्तीकरोति पूर्ण रिक्तं पूर्ण करोति नियमेन ॥ प्रायः स्वरूपदीप्तः शकुनः खरकमदेशोत्थः ॥ ९ ॥ उत्साहोज्झितमनसां राज्ञां परिमोषिणां जि- || दिग्विभागचक्रम् || ईशान गीषूणाम् । निरुपायोद्विमानां साधुः खरके सदा शकुनः ॥ १० ॥ चौर्यावर कंदाहृतपरस्वसंभृतप्रदेशानाम् । सद्यो रिक्तीकरणं खरके शकुनं समुद्भूतम् ॥ ११ ॥ भूमिं गतोपि जीवति निगडैरपि संयतो विमुच्येत ॥ युध्यते सन्नद्धाः क्रोधात्रोदायुधा योधाः ॥ १२ ॥ शकटारोपित भांडोप्युच्चलति नैव जातुकामोपि ॥ ध्रुव खरक मूल 3:21 ( ११५ ) मूल अभि निवास प्रमाण ॥ भाषा ॥ चार चार घडीका कहा है सो बत्तीसके दिनमानसें कहा है, दिनमान रात्रि कमजास्ती होवे तो सूर्यभोग चार घडी में कमजास्ती करना ऐसा अहोरात्रमें दग्धादिविभाग जानना, और विशेष यह है कि, देखनेवालेका मन चञ्चल व्यग्र होवे तो प्रदीप्त दिशाका शकुन शुभ फल देवेगा, और देखनेवालेका चित्तस्थिर शांत होवे तो शांत दिशाका शकुन शुभ फल देवेगा. अब उदाहरण बताते हैं- कोई शकुन देखनेवाला पुरुष खेदयुक्त अपने स्थान पै अप्रसन्न चित्त बैठा है इतनेमें दक्षिणदिशा में श्यामापक्षिणीका शब्द भया तब सूर्योदयादिष्टवटी १३ प. १५ थे, उस ऊपरसे वो दिशा निवास संज्ञा, और सूर्य के आगमन होनेके लिये धूमित भई तब दिशा प्रदीप्त भई और देखनेवाला चिंतायुक्त है तो शकुन शुभफल दायक होवेगा, भयचिन्तादूर होवैगी, रोगीकी चिन्ता होत्रे तो मृत्युं जानना, और शकुन देखनेवालेका चित्त शांत होवे तो बिलंबसे कार्यसिद्ध होवेगा, सो श्लोक ॥ यस्पोटजेपि वसतौ ॥ इत्यादि स्पष्टार्थ आगे दिखाते हैं इति ॥ २ ॥ अब मूलादिक दिशाका फल लिखते हैं प्राच्येति पूर्वमूल दिशामें प्रदीप्त शकुन सुनै तो कार्य अपने हाथ से गया जानना ॥ १ ॥ पश्चिममूलेति ॥ प Aho! Shrutgyanam Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) . वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। ॥ टीका॥ ध्रुवदेशोत्थे शकुने किं त्वेकः प्रवसति स्वस्थः ॥ १३ ॥ कारातिकारभाजां पदच्युतानामुदारोगाणाम् ॥ अभियुक्तानां बलिनां ध्रुवशकुनः सर्वदा सुखदः॥ १४ ॥ ईशानोत्थैः शकुनैश्चौरा ग्रामं प्रविश्य न वलंते॥ न च रोगातों जीवति स्वस्थोऽप्यस्वास्थ्यमामोति ॥ १५ ॥ ईशानोत्थे शकुने विशेषतः शूरमंडलाक्रांते ॥ रिपुचेष्टित इव दूरं मुक्त्वा स्थानं पलायंते ॥ १६ ॥ मरुस्थल्यामित्थमेव दिग्विभागः।मूलं शांतं सदा भव्यं परं स्थिरं बद्धमूलमुन्मूलयति । चञ्चलं च स्थिरयति प्रातः शांते कार्येऽभव्यं तप्तत्वात् । सुदृढभयादौ तदपि भाव्यम् ॥१॥ २॥ आमेयं सदा भव्यं दृढभयादौ तु भव्यम् ॥ ३॥तोरणिके सदा लाभकर लाभेच्छेद्य इदमितिकेचित्। निवासासन्नलाभस्यामेयासनं च च्छेदस्य करणात्॥४॥निवासःशांतश्चितितसिद्धिकरो विलंबेन या वार्ता क्रियते तां स्थापयति । भयादावभव्यः मध्याह्ने तु शुभे विरूपे दीप्तत्वाद्भयादौ तु भव्यः रोगिणस्तु सदा निवासो मृत्युदः।।५।। लुंबकं मृत्युदं विरूपे तु भव्यम् ॥ ६॥ प्रमाणे प्रारब्धं न सिध्यति संदेहारूढं प्रमाणयति सप्रमाणं चाप्रमाणयति वृष्टिकार्ये तु तां कुरुते ॥७॥पंचाराद्धिकं पंचद्रमकमल्पलाभदामतिभावः ॥८॥ पश्चिममूलं शांतं चिंतितसिद्धिकरं दीप्तं च भव्यं भयादौ पुनस्तद्विपरीतम् ॥९॥ पंचत्वं वृद्धरक्ताख्यं क्लेशकरं दीप्तं तु विशेषेण ॥१०॥वायव्यं चिंतितं वायुचं. चलं करोति तत्सिद्धावपि खरखराटः स्यात् । उन्मनस्कतायां तु भव्यं नष्टं लभ्यते ॥ भाषा॥ श्चिममूलदिशामें प्रदीप्त शकुन शस्त्र अग्निचोर राजा इनोंका भय उत्पन्न करते हैं ॥ २॥ यस्योटजेति ॥ जिसके घरसे दक्षिणनिवास दिशामें शकुन भया तो वो थोडेक कालमें शांत हुवा तो कार्यसिद्धि करैगा प्रदीप्त शकुन भय करेगा ॥ ३ ॥ग्रामेति ॥ शांत निवास शकुन होवे तो घर बगीचा देवालय किला यज्ञ विवाहादिक कार्य सिद्ध होवें ॥ ४ ॥ प्राप्येति ॥ प्रमाणनैर्ऋत्य कोणमें शांत पुरुषकू शांत शकुन भये तो अकस्मात् कोई कार्य सिद्ध होवेगा ॥५॥ न प्रारब्धेति ॥ प्रमाण नैर्ऋत्य कोणमें प्रदीप्तशकुन भये तो प्रारंभितकार्य सिद्ध नहीं होनेका, संदेहयुक्त कार्य सिद्ध होवेगा ॥ ६॥ विघटितमर्थमिति ॥ प्रमाणकोणका शांत शकुन शांत पुरुषकू उत्तमफल देवेगा जो अर्थ न होवे वो अर्थ सिद्धि क. रैगा संशययुक्त कार्यकू थोडे कालमें साधन करेगा ॥ ७ ॥ प्रत्यूहति ॥ अतिभ्रमिष्ठ व्यग्र पुरुषको प्रदीप्त प्रमाणको शकुन बहुत करके कार्यसिद्ध करेगा ॥ ८ ॥ रिक्तेति ॥ वाय Aho ! Shrutgyanam Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिग्विभागचक्रम् । (११७) ॥ टीका ॥ क्षणेन ॥ ११ ॥ पंचारके भयादौ भव्यः शुभे त्वभव्यः आवर्तयति तं कार्य सिद्धि नयति सिद्धिं तु क्षणाद्भुनक्ति॥१२॥ध्रुवः शांतःसदा शुभः अन्ये च शांतमपि प्रातः प्रथमपहरे मध्याह्ने चाभव्यं अन्यदा तु भव्यमित्याहुः ॥ध्रुवे च संदिग्धं ध्रुवं भवति निश्चितं तु संदिग्धयति ध्रुवा अध्रुवाः स्युः अस्थिराश्च ध्रुवाः स्युः स्वभावेन तु शुभामशुभांवा वार्ता स्थापयति ।। १३ ॥ भरिहीराभं ददाति अनिवृत्तौ तु रिक्तं क पूर्व. रा७८. ९०८७१७८७ स्वा.उ.फा.ऽश्वि.श्र. पु.फा.म.श.रो. a.५३आ.नु.ज्ये ७०५०1४११३८ उभा चि ५० ईशान्य. ४१५ अभि.७७ वि.८२भर पष्य८० आग्नया. २.पा. उ.षा."1x. "०/ ५. मा. धनि, साबरमा मूल. उदय विष्णुपदोदय आचातरीसानु (मले अग्नेय/नौर भरि ईशान अमात ऊवं णी / उत्तर, ध्रुव. दिग्विभाग चक्रमिदम्. निवासः ११ अगस्त्या तोडातारा दक्षिण. अधः पंचार ऋषिअस्त ऽस्त खरक/पंच vie तोढातामा Lileklike /22 INE PR/DIKH अगस्त्य गस्त्यऽस्त । अमूलस्तारा BLUE weed t /RIS Ils 'ain ॥ भाषा ॥ न्य कोणमें दीप्तशकुन शांत पुरुषके हीनकार्यकं पूर्ण करेगा ॥ ९ ॥ उत्साहति ॥ और जो आनंदरहित उद्विग्नचित्त जयाभिलाषी पुरुष हैं उनोकू वायुकोणके खरक शकुन फलदीयक होवेंगे ॥ १० ॥चौर्येति ॥ चोरी करनेवालेकू और परधनकी अभिलाषा करनेवालवू खरक शकुन नष्ट जानना ॥ ११ ॥ भूमिमिति ॥ कंठप्राण जिसके आये हैं परंतु खरक शकु नसे वो रोगी जीवंत होवेगा पावमें बेडी पडी होवें तोभी इस शकुनसे मुक्त होवेगा युद्धचिंतामें Aho! Shrutgyanam Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुने--सप्तमो वर्गः । ॥ टीका ॥ रोति || १४ || ईशाने शुभेऽशुभं तप्तं त्वत्यंतमभव्यम् । अशुभे तु शुभं पोतारांहनृपसेवादौ तु भव्यं सदागतं नष्टं च लभ्यते ।। १५ ।। माईहरं लक्ष्मीकरं शांतम् ॥ ॥ १६ ॥ ऊर्ध्वं शकुनः समाधिस्थस्यासमाधिं करोति मध्याह्ने तप्तं तु विशेषेण अतस्तदा स्थानं त्याज्यं असमाधौ तु समाधिं करोति ॥ १७॥ अधः शकुनेपि स्थानं त्याज्यं स्थानभ्रंशादौ तु भव्यम् ॥ १८ ॥ इत्यष्टादशकूण फलाफलम् ॥ १८ ॥ रात्रिपश्चात्यघटीयानुचतुर्घटी यावत् मूलाग्रेसरं ज्वलन्मूलं दग्धम् आग्नेयं तु धूम्रमेवं समस्ताहोरात्रेपि चतसृषु चतमृषु घटीषु दग्धादिभागो ज्ञेयः । तथा च. सति प्रातर्मूलं ज्वलत् मध्याह्ने निवासो ज्वलन् संध्यायां पश्चिममूलं ज्वलन् मव्यमरात्रे तु ध्रुवो ज्वलति मूले निवासलघुमूलघुवाख्याश्चतस्रोपि दिशः शांताः सदा शुभाः ईशानाय प्रमाणवायव्याख्याः विदिशः॥४॥ चतस्रः शांता अपिन शुभाः किं ( ११८ ) काण उत्तर: १३. कोण * ईशा न्य Ak वाय ke कोण १६ रूठ खरक संज्ञा हे क ज्ञ मूल संज्ञा दिग्विभागचक्रमिदम् ED 然 ि संज्ञा रूढ कोण IED > प्रमाण क अग्नि Aw ર 69 - कोण ༦ ལྦུ སྐྱ दक्षि कोण ॥ भाषा ॥ शस्त्रास्त्रयुक्त योद्धे इसशकुनसें युद्ध नहीं करनेके || १२ || शकटारोपित इति ॥ उत्तरदिशाका ध्रुव शकुन यात्राचितः यात्रागमन होवे शांत शकुन होवे तो सदा शुभ जानना ॥ १३ ॥ बंदी - खानेमैं बद्ध होके पडे होवें, या कोई पदच्युत हो गया होवे या कोई बडा रोगी होवे इनकी चितामें और स्वजनचिन्तामें ध्रुवदिशाका शकुन शुभफलदायक जानना संदिग्ध कार्यकूं सिद्धि Aho! Shrutgyanam Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते स्वरप्रकरणम् । (११९) पोदकारुतविचारमिदानी कुर्महे यमधिगम्य मनुष्यः ॥ भाविकर्मफलपाकपरीक्षासु क्षमो भवति योगिसहक्षः ॥५१॥ लाभदश्चिलिचिलीति निनादः शूलिशूलिनिनदोऽपि तथैव।। कंचिकूचिनिनदोऽपि जलार्थेव्याहृतौचिकुचिकूस्वर उक्तः५२ कीतुकीतु इति यो मधुरोऽसौ कामतस्तु निनदःस्खलिताख्यः। स्याद्भयाय नियमेन चिचीति निःस्वनश्चिलिकुनाद इहार्थः५३।। ॥ टीका॥ पुनः प्राप्ताः कूणानि तु॥५॥यथास्वंभव्याभन्यानि अन्य वाहुः यत्र रखौ चतस्रोऽपि दिशस्तप्ताः अन्यदा यथायोगे शांतास्तप्ताश्च प्राग्वत् । अस्वस्थे मनसि तप्तदिशि शुभः शकुनः स्वस्थे मनसि तु इताया शकुनः शुभः दीप्तायां दिशि शकुने तत्रैव प्रतीक्ष्य तस्यां दिशि शांताया जातायामग्रतो गमनं भव्यमेव ज्ञेयम् ॥ इति ग्रंथातरीयदिग्विभागचक्रं समाप्तम् ॥" ___ पोदकीरत इति ॥ पूर्व व्याख्यातत्वात्पुनः न व्याख्यायते॥५१॥ लाभद इति ॥ चिलिचिलीति निनादः लाभदो भवति तथैव शूलिशूलि निनदोऽपि तथैव । लाभद उक्त इत्यर्थः । कूचिकूचीति च शब्दः जलार्थो भवति सा तृषार्ता इमं शब्दं प्रयुक्त इत्यर्थः आहूतौ चिकुचिकुस्वर उक्तः आहतिराह्वानमित्यर्थः ॥ ५२ ॥ कीविति॥ कीतुकीतु इति यो मधुरः शब्दः असौ कामतो भवति तु पुनरर्थे ॥भाषा॥ करेगा ॥ १४ ॥ ईशानोत्थैरिति ॥ ईशानकोणके रूढशकुन करके चोर लोग गांवमें जायेंगे तथापि चौर्यधनकी प्राप्ति नहीं होने की, रोगीजनकी चितासमयमें यह शकुन मृत्यु सूचक फंल देवेगा शुभ कार्यमें अशुभफल देवेगा ॥ १५ ॥ ईशेति ॥ प्रश्नचितामें ईशानकोणका शकुन होवे तो युद्धस्थान छोडके सेनापलायन करेगी ॥ १६॥" पोदकीरुतेति ॥ पादकीके शब्दमें विचार करूंहूं, मनुष्य जाय प्राप्त होय कर होन हार कर्मफलकी परीक्षाकू सुगम जान जाय ॥ ११ ॥ लाभदेति ॥ चिलिचिलि ऐसो शब्द करै तो लाभको देवेवारो होय, और शूलिशूलि ये शब्दभी लाभकू देवेहै और कूचि कूचि ऐसो शब्द पक्षी तृषार्त होय जब करे है याते, जलके अर्थ जाननो और चिकुचिकु ऐसो स्वर कहै तो आह्वानके अर्थ अर्थात् बुलायवेके अर्थ जाननो ॥ ५२ ॥ कात्विति ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। कष्टदश्चिरिचिरीति विरावश्चीकुचीकु इति दैन्यविधायी ॥ एवमीदृशफला दश नादाः प्रस्फुटा निगदिता भगवत्या ॥ ॥५४॥ प्रत्येकमाख्यातफलं नराणां योऽस्मिन्दशानांशकुनीस्वराणाम् ॥ जानात्यमीषां पुरुषो विशेष प्रयोजनं भावि स वेत्त्यशेषम् ॥५५॥ वामो निनादः फलदः प्रवासे स्यादक्षिणेऽनर्थफलाप्तिहेतुः ॥ संप्रस्थितानां फलदस्तु पृष्ठे निषेधकारी पुनरग्रभागे ॥५६॥ ॥ टीका॥ स्खलिताख्यः शब्दः कामतो भवतीत्यर्थः । चीचीति शब्दः नियमेन भयाय स्यात् चिलिकुनाद इहार्थों भवति ॥५३ ॥ कष्टद इति ॥ चिरिचिरीति विराव: कष्टदो भवति चीकुचीकु इति दैन्यविधायी भवति । सा दीना चीकुचीकुशब्दं प्रयुक्त इत्यर्थः। एवं पूर्वोक्तप्रकारेण भगवत्याः पोदक्या दश नादाः शब्दाःप्रस्फुटा निगदिताः प्रतिपादिता ईदृशफला इति यदर्थे यः शब्दो विहितः तदेव फलं येषां ते तथा ॥ ५४॥ प्रत्येकमिति ॥ यः पुरुषोऽमीषां दशानां शकुनिस्वारणां देवीशब्दानां प्रत्येकमाख्यातफलं नराणामिति प्रत्येकं प्रतिशब्दमाख्यातं कथितं फलांतरं पृथक्पृथक्फलं येषां तथोक्ताः अस्मिन् कार्य वा लोके तेषाम् अर्थात्स्वराणां विशेषं जानाति स भावि प्रयोजनं भविष्यत्कार्यमशेषं समस्तं वेत्ति जानाति॥५५॥ वामो निनाद इति ॥ प्रवासे गमने वामो निनादः शुभदो भवति दक्षिणः अ. ॥ भाषा॥ कीतुकीतु ऐसो जो मधुर शब्द होय तो कामनाके अर्थ है, फेर अखंड शब्द होय तो भी कामनाके अर्थ और चिची ऐसो शब्द होय तो नियमकरके भयके अर्थ होय, और चिलिकु ऐसो शब्द होय तो अर्थलाभ होय ॥ ५३ ॥ कष्ट इति ॥ चिरिचिरि ऐसो शब्द होय तो कष्ट देबेवारो होय और चीकु चीकु ऐसो शब्द दीनता करैहै या प्रकार फल देवेवारें पोदकीके दश नाद कहेहैं ॥ १४ ॥ प्रत्येकमिति ॥ मैंने मनुष्यनके लिये स्वरनके फल कहे जो पुरुष इन दशप्रकारके स्वरनके फलनकू विशेष जाने सो भावी समग्र प्रयोजन अर्थात -भविष्यकू जानै ॥ ५५ ॥ वामो निनाद इति ॥ गमनमें वायों शब्द शुभको दे Aho! Shrutgyanam Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरते स्वरप्रकरणम्। (१२१) युद्धप्रवेशेऽथ गृहप्रवेशे श्रेयःप्रदः स्यानिनदोऽपसव्यः॥ वामः पुनः पांडुरपुंड्रवत्या भवत्यभीष्टः प्रतिकूलवर्ती॥२७॥ पार्थिवश्चिलिचिलिस्वर उक्तः शूलिशूलि इति यः स तथैव।। कूचिकूचिचिकुचिकितिशब्दो द्वाविमौ निगदितौ पुनराप्यौ ॥ ॥ ५८॥कीतुकीतु इति तैजससंज्ञस्तैजसास्तु निनदाः स्वलिताख्याः ॥ मारुतौ तु चिलिकुस्वरचीचीनिस्वनौ निगदिती मुनिमुख्यैः ॥ ५९॥ ॥ टीका ॥ नर्थफलाप्तिहेतुः स्यात् । पृष्ठे निनादः पृष्ठे स्थितानां फलकृद्भवति । अग्रभागे शब्दः निषेधकारी स्यात्। ग्रंथांतरे तु पृष्ठरवागमननिषेधक/ति प्रोक्तं तद्यथा। संमुखमा. यांती वा पृष्ठरवा वा तिरो भवति वाचा।अत्यंतदुष्टचेष्टा या वा सा वारयेद्गमनम्।। इति ।। ५६ ॥ युद्धप्रवेश इति । युद्धप्रवेशे तथा गृहप्रवेशे अपसव्यो दक्षिणः शब्दः श्रेयाप्रदः स्यात् । पुनः पांडुरपुंडूवत्याः पांडुरं धवलं पुंडू तिलकं विद्यते यस्याः सा पोदक्या इत्यर्थः । वामो निनादः अभीष्टोऽपि प्रतिकूलवर्ती भवति प्रतिकूलो वर्तते इत्येवंशीलः अशुभकारी स्यादित्यर्थः ॥ ५७ ॥ पार्थिव इति । चिलिचिलिस्वरः पार्थिवः उक्तः पृथिव्या अयं पार्थिवः शूलिशूलि इति यः सोऽपि तथैवेति पार्थिवे इत्यर्थः । पुनः कूचिकूचि चिकुचिकिति शब्दौ दावाप्यौ धनप्रापको निगदितौ प्रतिपादितौ ॥ ५८ ॥ कीत्विति ॥ कीतुकीतु इति ॥ भाषा॥ वेवालो, और जेमनो शब्द अनर्थफलको करकेवालो, और पीठ पिछाडी शब्द होय तो पीट पीछे स्थित होय तिनकू फलको करवेवालो होय, और अग्रभागमें शब्द होय तो निषेधकरवेवारो जाननो ॥ १६ ॥ युद्धप्रवेश इति ॥ युद्धप्रवेशमें अथवा गृहप्रवेशमें जेमनो शब्द होय तौ कल्याणको देवेवारो हाय और फिर श्वेतवर्ण होय और तिलक जाके विद्यमान होय ऐसी पोदकीको वायों शब्द अभीष्टहै तौहू अशुभ करबेवारो होय ॥ ५७ ॥ पार्थिव इति ॥ चिलिचिलि या स्वरकी पार्थिवसंज्ञाहै और शूलिशूलि या स्वरकीभी पार्थिवसंज्ञा है और कृचि कृषि चिकुचिकु ये दोनों स्वरनकी आप्यसंज्ञा कहीहै ॥५६॥ कीत्वीति ॥ की Aho ! Shrutgyanam Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः । • आंबरश्चिरिचिरीति निनादश्चीकुचीकु इति तादृश एव ॥ पं चधैवमुदिता दश नादा भूतपंचकनिवासवशेन ॥ ६॥ क्रमादमी वार्थिवनादपूर्वाः पंचापि शब्दाः शकुनैकदेव्याः॥ भवंति चेत्तन्नियतं भवंति फलानि पूर्णान्यचिरेण पुंसाम् ।। ॥ ६१ ॥ क्रमेण पृथ्वीजलपावकानां भवंति शब्दा यदि कृष्णिकायाः ॥ मनोरथेभ्योऽभ्यधिकानि तूर्ण तदा फलानि ध्रुवमुद्भवति ॥ ६२॥ ॥ टीका ॥ स्वरः तैजससंज्ञः स्यात् । च पुनरर्थे । स्खलिताख्या निनदास्तैजसाः स्युरित्यर्थः । चिलिकुचिलिकुस्वरौ चीचीचीचीति निःस्वनौ मुनिमुख्यैर्मारुतौ निगदितौ । मारुतस्य इमौ मारुतौ ॥ ५९ ॥ आंबरेति ॥ चिरिचिरीति निनादः आंबरः प्रोक्तः अंबरस्याकाशस्यायमांवरः चीकुचीकु इतिशब्दस्तादृशः आंबर एवेत्यर्थः। एवं पूर्वोक्तप्रकारेण भूतपंचकनिवासघशेनेति भूतानां पृथ्व्यप्तेजोवाय्वाकाशानां पंचकं तस्य यो निवासः तद्वशेन तदधीनत्वेनेत्यर्थः । दश नादाः पूर्वोक्ता पंचधैव उदिताः पंचधा प्रतिपादिता इत्यर्थः॥ ६० ॥ क्रमादिति ॥ शकुनैकदेव्याः पोदक्याः पार्थिपनादपूर्वाः पार्थिवनादः पूर्वः प्रथमो येषां ते तथोक्ताः क्रमा पंचापि अमी शब्दा यदि भवति तदा नियतं नियमेन अचिरेण स्वल्पकालेन पुंसां सर्वाणि फलानि पूर्णानि भवंति ॥ ६१॥ क्रमेणेति ॥ यदि कृष्णिकायाः कृष्णदेव्याः क्रमेण पृथ्वी जलपावकानां शब्दा भवंति तदा मनोरथेभ्योऽप्यधिकानि फलानि तूर्ण ॥ भाषा॥ तुकांतु ये स्वर तैजससंज्ञक हैं, दूसरे स्खलित जे शब्द है ते तैजस संज्ञक कहे हैं और चिलिकु चिलिकु ये स्वर चीचीचीची ये स्वर मुनिने मारुतसंज्ञक कहे हैं ॥ १९ ॥ आंबरेति ॥चिरिचिार या स्वरकी आंबरसंज्ञा कहींहै और चीकु चीकु या स्वरकीमी आंबरसंज्ञा है याप्रकार पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश ये पंच महाभूत हैं इनके आधीनता करके पूर्व कहे जे दशनाद ते या क्रमते पांचप्रकारके प्रतिपादन करे हैं ॥ ३० ॥ क्रमादिति ॥ पोदकीके पार्थिव नादकू आदिले क्रमते ये पांच शब्द होय तो शीघ्रही थोडे काल करके पुरुषनकू पूर्ण फल होय ॥ ६१॥ क्रमेणेति ॥ जो पोदकीके क्रमकर पृथ्वी, जल Aho! Shrutgyanam Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते स्वरप्रकरणम् । ( १२३ ) अनंतरं पार्थिवनादतश्चेद्वह्निस्वरस्तत्फलमक्षतं स्यात् ॥ वायव्यशब्दो यदि नाभसो वा भूत्वा फलं नश्यति तत्समस्तम् ॥ ६३ ॥ शांती निनादौ पृथिवीजलाख्यौ दीप्तौ समीरांबरनामधेयौ ॥ तेजःप्रधानो द्वितयावलंबी भवेत्समं येन फलेऽपि तादृक्॥६४॥शुभेषु कार्येषु शुभाय शांतोदीप्तो भयादो भयनाशनाय॥विपर्ययावावपिन प्रशस्तावस्तित्वनास्तित्वफलौ यतम्तौ ॥ ६५ ॥ ॥टीका ॥ शीनं ध्रुवं निश्चयेन उद्भति ॥ ६२ ॥ अनंतरमिति ॥ पार्थिवनादतः अनंतरं वहिस्वरश्चेत्तस्मात् तदा फलं अक्षतं स्यात् । यदि पार्थिवादनंतरं वायव्यशब्दो मारुतशब्दः नाभसो वा आंबरो निनादो भवति तदा फलं भूत्वा तत्समस्तं नश्यति ॥६३॥ शांताविति ॥ पृथिवीजलाख्यौ शांती निनादौ भवतः। समीराबरनामधेयौ दीप्तौ भवतः। द्वितयावलंबी द्वितयं युगलं अवलंबते इत्येवंशीलस्तेजःप्रधानः शब्दः येन शब्देन समं सह भवेत्फलेनापि तादृक्स्यात् । शांतेन समं शांतं फलं ददाति दीप्तेन समं दीप्तं फलं ददातीत्यर्थः ॥ ६४ ॥ शुभेष्विति ॥ शुभेषु कार्येषु शांतः शुभाय भवति भयादौ दीप्तः भयनाशनाय भवति । विपर्ययादिति शुभकायें ॥ भाषा ॥ अग्नि इनके शब्द होय तो मनोरथनतभी अधिकफल शीघ्र होय ॥ १२ ॥ अनंतरमिति॥ पार्थिव नादके अनंतर जो वह्रिस्वर होय तो फल अक्षत नाम क्षय न होय और जो पाविनादके अनंतर वायव्य शब्द अथवा नाभस शब्द होय तो फल होय करके फिरवो समन नाशकू प्राप्त होय ॥ १३ ॥ शांताविति ॥ पृथिवी, जल ये दोनों शांत शब्द होय और वायु, अंबर ये दोनों दीप्तशब्द होंय और शांतदीप्तकू अवलंबन करवेवारो तेजशब्द है सो ये तेजःप्रधान शब्द शांतकरके सहित होय तो शांतफल देवे और दीप्तकरके सहित होय तो दीप्तफल दवे ॥ ६४ ॥ शुभेष्विति ।। शुभकार्यनमें शांत होय तो शुभ करें और भयादिकनमें दप्ति होय तो भयके नाशके अर्थ होय और शुभ कार्यमें दीप्त होय और Aho! Shrutgyanam Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। इति पोदकीरुते तृतीयं स्वरप्रकरणम् ॥३॥ अथ शुभचेष्टाफलमपि तासां युगपद्रूमः खलु सर्वासाम् ॥ उक्त्वा पृथगथ युगपत्कथितं यैस्तैरबुधैर्मथितं मथितम् ॥ ॥ ६६ ॥ या संमुखी नाभिमुखं समेति विलोकयेच्चाऽभिमुखं विशंका ॥ प्रोत्फुल्लवका शकुनी मनुष्यैः सा वेदितव्या परितुष्टभावा ॥ ६७ ॥ मनःप्रसत्तिं सुमनस्कभावात्प्रीता मुदं वांछितलाभतश्च ॥ इष्टं फलं संमुखमाभिमुख्यादुत्फुल्लववेष्टफलं ददाति ॥ ६८॥ ॥ टीका ॥ दीप्तः दीप्तकार्ये शांतः इति वैपरीत्याबावपि न प्रशस्तौ न श्लाघनीयौ यतस्तौ अस्तित्वनास्तित्वफलौ ॥ ६५ ॥ इति श्रीमहोपाध्याय भानुचंद्रविरचितायां वसंतरानटीकायां पोदकी. रुते तृतीयं स्वरप्रकरणम् ॥ ३ ॥ अथेति ॥ स्वरकथनानंतरं शुभचेष्टास्तासां सर्वासां चेष्टानां च फलमपि खलु निश्चयेन युगपदेकदैव वयं ब्रूमः कथयामः। चेष्टाः उक्त्वायैः फलं पृथगुक्तं तैरबुधैः मथितं मथितं पिष्टपेषणं कृतमित्यर्थः।। ६६॥ येति ॥ या शकुनी देवी संमुखी भवति न अभिमुखं संमुखं समेति आयाति च पुनः विशंका भयरहिता अभिमुखं सं मुखे विलोकयेत्पश्येताकीदृशी प्रोत्फुल्लवक्रोति।प्रोत्फुल्लं विकसितं वक्त्रं मुखं यस्याः सा तथा मनुष्यैः सा परितुष्टभावा सानंदा वेदितव्या ज्ञातव्येत्यर्थः ॥ ६७ ॥ मन इति ॥ सुमनस्कभावा सुप्रन्नचित्ता मनःप्रसत्तिं चित्तप्रसन्नतां यच्छति ॥ भाषा॥ दीप्त कार्यमें शांत होय या रीतसूं विपरीत होय तो दोनोंही शुभ नहीं अर्थात् फल होयभी वा नहीं भी होय ॥ ६५ ॥ ... इति श्रीवसंतराजशाकुनभाषाटीयायांपादकीरुतेस्वरप्रकरणंतृतीयम् ॥ ३ ॥ अथेति ॥ स्वर कहेके अनंतर शुभचेष्टानके फल कहै है ॥ ६६ ॥ येति ।। जो शकुनीदेवी सन्मुखी होय अथवा सन्मुख न होय प्रसन्नमुख होय निःशंक सन्मुख देखती होय तो मनुष्यनकू आनंदसहित जाननो योग्य है ॥ ६७ ॥ मन इति ॥ पोदकी प्रसन्नमन होय तो Aho ! Shrutgyanam Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते शुभचेष्टाप्रकरणम्. (१२५) प्रसन्नहष्टिर्यदि सर्वदिक्षु निरीक्षते पांडविका कदाचित् ॥ लाभस्तदानी खलु सर्वदिक्षु कार्योधतानां भवति क्षणेन ॥ ॥ ६९॥ कंडयनादक्षिणपक्षभागे वदंत्यमित्रक्षयमित्रलाभौ।। पक्षं पुनर्दक्षिणमुत्क्षिपंती समुन्नति वक्ति जयं च युद्धे ॥ ॥ ७० ॥ पक्षद्वयोत्क्षेपणतो जयी प्रोत्साहमुत्साहवती बवीति ॥ चंच्चा पदा वावयवेऽपसव्ये स्पृष्टे तदंगोचितभूषणाप्तिः ॥७१॥ ॥ टीका ॥ ददाति प्रीता हृष्टा सानंदेति यावत् । मुदं हर्ष यच्छति लाभदा च भवति आभिमुख्यादिष्टफलं संमुखं भवति उत्फुल्लवका विकसितवदना इष्टफलं ददाति ॥ ६८॥ प्रसत्रेति ॥ कदाचिद्यदि पांडविका देवी प्रसन्नदृष्टिः सर्वदिक्षु निरीक्षते विलोकयति तर्हि कार्योधतानां पुंसां खलु निश्चयेन सर्वदिक्षु तदानीं लाभः क्षणेन भवति ॥ ६९॥ कंडूयनादिति ॥ दक्षिणपक्षभागे कंड्यनाद्धर्षणाबुधाः अमित्रक्षयमित्रलाभौ वदंति कथयति अमित्रक्षयश्च मित्रलाभश्च अमित्रक्षयमित्रलाभावितरेतरइंदः । पुनः दक्षिणं पक्षमुरिक्षपंती ऊर्ध्वं नयंती समुन्नति वक्ति जयं च युद्धे । ॥७० ॥ पक्षेति ॥ पक्षद्वयोत्क्षेपणतः पक्षद्वितयोद्विकिरणात् जयर्डी ब्रवीति कथयति उत्साहवती प्रोत्साहं ब्रवीति चंच्वा पदा वापसव्येन वामे अवयवे स्पृष्टे तदं ॥ भाषा॥ और सन्मुख होय तो इष्ट फल सन्मुखही प्राप्त होय और प्रफुल्लित मुख होय तो इष्टफलकू देवै है ॥ ६८ ॥ प्रसन्नेति ॥ और जो पांडविका प्रसन्नदृष्टि होय, सर्व दिशानमें देखै तो कार्यवान् पुरुषनकू सर्वदिशानमें तत्क्षण लाभ होय ॥ ६९॥ कंड्रयनादिति ॥ जो पोदकी जेमनेमाऊंके पंखनकू खुजावे तो शत्रुको नाश और मित्रको लाभ जाननो और फिर जेमने पंख• ऊपर माऊकू उठायके लावे तो ऊंचे पदपै प्राप्त करै और युद्धमें जय होय ॥ ७० ॥ पक्ष इति ॥ और जो दोनों पंखनकू ऊंचे करै वा फैलाय दे तो जयकी ऋद्धि होय और उत्साहवान् होय तो उत्साह कर और चोंचकरके पावनकरके वाम अंगमें स्पर्श करें तो वा मनुष्यके अंगके उचित भूषणकी प्राप्ति होय ॥ ७१ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । भक्ष्याभिलाषे निकटार्थसिद्धिर्भक्ष्यग्रहे स्यात्त्वरिता ततोपि ॥ भक्ष्योपयोगे तु फलंति कामा रिरंसया स्यात् प्रिययोषिदाप्तिः ॥ ७२ ॥ स्थाने प्रशस्ते गमनात्प्रशस्तमवाप्यते स्थानमवश्यमेव ॥ स्थानस्थितानां भवति प्रसिद्धिः सुस्थानसंस्थे विहगे नराणाम् ॥ ७३ ॥ शांतप्रदेशाभ्युपसर्पणेन प्र दक्षिणाभ्यागमनेन तद्वत् || भवेत्प्रवासेऽभिमतार्थसिद्धिः सुखं भवेत्खेलनचेष्टितेन ॥ ७२ ॥ ॥ टीका ॥ गोचितभूषणाप्तिः शरीरयोग्याभरणलाभं वदति ॥ ७१ ॥ भक्ष्याभिलाष इति ॥ भक्ष्यस्याभिलावे स्पृहाकरणे निकडा समीपस्था अर्थसिद्धिः स्यात् भक्ष्यग्रहे ततोऽपि निकटापि त्वरिता शीघ्रा अर्थसिद्धिः स्याद्भवेत् भक्ष्योपयोगे च कामा अभिलषितार्थाः फलंति रिरंसया रंतुमिच्छा रिरंसा तया प्रिया इष्टा या योषित्स्त्री तस्याः प्राप्तिः स्पात् ॥ ७२ ॥ स्थान इति ॥ प्रशस्ते स्थाने गमनादवश्यमेव स्थानमवाप्यते सुस्थान संस्थे विहगे स्थानस्थितानां नराणां प्रसिद्धिर्भवति ।। ७३ ।। प्रशांत इति ॥ देव्याः प्रशांत देशाभ्युपसर्पणेन प्रशांतप्रदेशे गमनेन प्रवासे अभिमतार्थसिद्धिभवेत् प्रदक्षिणाभ्यागमनेनापि तद्वत्पूर्वोक्तवज्ज्ञेयं खेलन चेष्टितेन सुखं भवेत् । ॥ भाषा ॥ भक्ष्याभिलाषे इति ॥ जो पोदकी पंखमाऊं, खुजालवेकी अभिलाषा करती होय तो निकटही अर्थसिद्धि जाननी और जो भक्ष्य पदार्थ ग्रहण करे होय तोभी शीघ्रही कार्यसिद्धि जा. : और जो रमणकर वेकूं इच्छा ननी और भक्ष्य पदार्थ वाके समीप होय तो वांछित कार्य फले कररही होय तो वांछित स्त्रीकी प्राप्ति करे ॥ ७२ ॥ स्थान इति ॥ जो पोदकी उत्तम सुंदरस्थानमें गमनकरती होय तो प्राणीकूं अवश्य उत्तम स्थान मिले और जो पक्षी उत्तम स्थान में बैयो होय तो स्थान में बैठे मनुष्यकूं बहुत वृद्धि करे ॥ ७३ ॥ प्रशांत इति ॥ पोदकी शांत देशके सन्मुख जाती होय तो परदेशमें मनुष्यकूं वांछित अर्थसिद्धि होय और जेमने भा गर्मे सन्मुख आवती होय तोभी वांछित अर्थसिद्धि होय और गमनकरवेवारेकूं खेलनचेष्टाकर Aho! Shrutgyanam Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) पोदकीरुते शुभचेष्टाप्रकरणम् । स्यान्मित्रलाभाय सजातिसंगादतुल्यजातेर्विजयो जयाय ॥ पादेन नेत्रस्य च दक्षिणेन कंडूयनादीप्सितदर्शनाय ॥ ७५ ॥ वध्वागमाभीप्सितकार्यसिद्धिं करोति पुच्छं पुनरुत्क्षिपंती ॥ नृत्येत्यभीक्ष्णं परमप्रमोदान्महोत्सव मंगलमादिशंती ॥७६॥ उरो वा गुह्यमभिस्पृशंती पीनस्तनीभिः सह संगमाय ॥ श्रियेऽधिरोहंत्यवनीरुहं स्याद्विभूषणात्यै गलमुल्लिखती ॥७७ ॥ आहारदानादितरेतरस्य कंडूयनाद्वा जठरस्य चंच्वा ॥ अवामपादेन तथाननस्य कंडूयनाद्वांछित भोगलाभः ॥ ७८ ॥ ॥ टीका ॥ गन्तुरिति शेषः ॥ ७४ ॥ स्यादिति ॥ सजातिसंगात्सजातेः संगः संबंधस्तस्मा - मित्रलाभाय देवी स्यात् अतुल्यजातेर्विजयो जयाय भवति सुदक्षिणेन पादेन नेत्र कंडून कंडूतिकरणादीप्सितदर्शनाय देवी स्यादित्यर्थः ॥ ७५ ॥ वध्वागम इति ॥ पुच्छं पुनरुत्क्षिपती ऊर्ध्वं कुर्वेती वध्वागमाभीप्सितकार्यसिद्धिं वध्वागमश्च अभीप्सित कार्य चेतरेतरद्वंद्वः तयोः सिद्धिस्तां करोति परमप्रमोदादभीक्ष्णं वारंवारं नृत्यंती नर्तनं कुर्वती महोत्सवं मंगलमादिशंती कथयंती भवति ॥ ७६ ॥ उर इति । उरो हृदयमथवा गुह्यमभिस्पृशंती पीनस्तनीभिः सह संगमाय भवति अवनीरुहमधिरोहंती वृक्षमारूढा श्रियै स्यात् गलमुल्लिखती विभूषणात्यै स्यात् ॥ ७७ ॥ आहार इति ॥ इतरेतरस्य आहारदानाचंच्वा जठरस्य कंडूयनाद्वा तथा अवाम॥ भाषा ॥ के अर्थात् चौपड सतरंज इत्यादिक करके सुख होय ॥ ७४ ॥ जातीकी पक्षीकी संग होय तो प्राणी मित्रको लाभ करै, और तो विजय करै और नेत्रकूं अपने जेमने पाँवकर के खुजारही होय पोदकी तो वांछितफलकूं करे, ॥ ७५ ॥ वध्वागम इति । फेर पूंछकूं ऊंची उठावती होय तो स्त्रीके आगमनकर वांछित - कार्यकी सिद्धि करे और परमहर्षते नृत्य कररही होय तो महोत्सव मंगल करे ॥ ७६ ॥ उर इति ॥ और हृदय गुह्य इनें स्पर्श कर रही होय तो पुष्टस्तनवारी स्त्रीसूं संग करावे और पै चढती होय तो श्री जो लक्ष्मी धनशोभा प्राप्त करावे और गलो जो कंठ ताकूं खुजायही होय स्पर्श कर रही होय तो भूषणनकी प्राप्ति कराये ॥ ७७ ॥ और परस्पर आ वृक्ष Aho! Shrutgyanam स्यादिति ॥ पोदकी अपनी जातिकी पक्षीकी संगमें होय Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वगः । श्यामा शरीरारचनेन पुसां भोगानभीष्टान् प्रदिशत्यशेषान।। निमजनेनांभसि निर्मनुष्ये राज्याभिषकं कथयत्यवश्यम् ॥ ॥७९॥ पुंसां भवेदक्षिणपृष्ठभागे कंडूयनाद्वारणवाजिलाभः॥ सर्वाधिपत्यं तु विनिश्चयेन पदा शिरःस्पर्शनचेष्टिते स्यात् ॥ ॥८॥ईदृशैविहगचेष्टितैर्नृणां कार्यिणां भवति सर्वमीप्सितम्यादृशैः पुनरुपैति संक्षयं तादृशानि शृणुताधुनाजनाः८१ ॥ टीका ॥ पादेन दक्षिणपादेन आननस्य कंडूयनाच्चवांछितभोगलाभः स्यात् कचिद्भोज्यलाभ इत्यपि पाठो दृश्यते ॥७८॥ श्यामेति ॥ श्यामा पोदकी शरीरारचनेन शरीरसंस्कारकरणेन पुसा पुरुषाणामभीष्टान् भोगानशेषान्प्रदिशति तु पुनः निर्मले अंभसि निमज्जनन अवश्यं राज्याभिषेकं कथयति ॥ ७९ ॥ पुंसामिति ॥ दक्षिणपृष्ठभागे कंडूयनात्पुंसां वारणवाजिलाभो भवेत् वारणो हस्ती वाजी हयः वारणश्च वाजी चेति ददः तयोभिः प्राप्तिः स्यादित्यर्थः इहास्मिन् लोके निश्चयेन पदा चरणेन शिरःस्पशनचेष्टिते निश्चयेन सर्वाधिपत्यं स्यात् ॥ ८० ॥ ईदृशैरिति ॥ ईदृशैः पूर्वोक्तैः विहगचेष्टितैः कार्यिणां नृणां सर्वमाप्सितं वांछितं भवति यादृशैश्चेष्टितैः पुनः संशयं विनाशमुपैति गच्छति तादृशानि चेष्टितान्यधुना जनाः शृणुत श्रुतिगोचरी कुरुत इत्यर्थः ॥ ८१ ॥ ॥ भाषा॥ हार मुखमें देरही होय और चोंचकरके ऊपरकू खुजायरही होय तो वांछित भोगलाभ देवे ॥ ७८ ॥ श्यामेति ॥ श्यामा जो पोदकी सो शरीरकी रचना अर्थात् संस्कार कररही होय तो पुरुषनकू अभीष्ट भोग संपूर्ण देवैहै फेर निर्मल जलमें स्नान कर रही होय तो अवश्य राज्याभिषेककू कहैं हैं ॥ ७९ ॥ पुंसामिति ॥ जेमनी पीठमें खुजायरही होय तो पुरुषनकू हाथी घोडानको लाभ होय और पाँवकरके मस्तककू स्पर्श करत चेष्टा करै तो निश्चय कर संपूर्णको अधिपतीपनो करै ॥ ८०॥ ईदृशैरिति ॥ ये कही जे पक्षीनकी चेष्टा इन करके कार्यवान् पुरुषनकू संपूर्ण वांछित फल होय है और अब जिन चेष्टानकर कार्यक्षीण होय हैं उन चेष्टानकू हम कहें हैं सो श्रवण करो॥ ८१ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुतेऽशुभचेष्टाप्रकरणम्। (१२९) इति पोदकोरुते शुभचेष्टाप्रकरणम् ४ अथाऽशुभचेष्टाफलविचारः कथ्यते॥ वक्रीकृतास्या रुपितेव पश्येत्पलायते त्रस्यति लीयते वा ॥ पराङ्मुखस्था परुषं रटंती भवेदसौम्योतिषिता वराही ॥ ८१ ॥ आलस्यतो व्याधिभयं कुमार्याः प्रोत्साहभंगाकरणीयभंगः॥ भयं परेभ्यः प्रविजृभमाणाध्यानात्समस्तार्थविनाशमाहुः ॥ ८२॥ गानेषु शैथिल्यवशादधस्तान्मुतेषु चोक्तः परिवारघातः ॥ शोकाकुलत्वं विमनस्कतायां मूत्रे पुरीषे वमनेऽर्थनाशः॥ ८३॥ ॥ टोका ॥ इति वसंतराजटीकायां पोदकीरते शुभचेष्टाप्रकरणं चतुर्थम् ॥ ४ ॥ अथाऽशुभचेष्टाफलविवारः॥ वक्रोति॥या वराही देवीरुषितेवरोष प्राप्तेव पश्यति विलोकयति कीदृशी वक्रीकृतास्येति वक्रीकृतं तिर्यग्विहितमास्यं मुखं ययेति सा वा अथवा पलायतेनश्यति त्रस्यति त्रासंप्रामोति लीयते वा कापिलीनाभवतिपराङ्मुखस्थति पराङ्मखं यथा स्यात्तथा तिष्ठतीति पराङ्मुखस्था किं कुर्वती रटंतीजल्पंतीकि परुषं कठोरमेवंविधा वराही असौम्योद्विषिता कोपाभिभूता भवेत् ॥८॥आलस्यत इति।कुमार्या देव्या आलस्यतःव्याधिभयं भवति कुमार्या प्रोत्साहभंगात्प्रयत्नभंगाक रणीयभंगास्यात् प्रविजृभमाणात्परेभ्योभयं ब्रवीतिध्यानात्समस्तार्थविनाशहेतुर्भवति॥८॥गात्रेष्विति॥शथिल्यवशादधस्तान्मुक्तेषु गात्रेषुपरिवारघातःस्यात् ॥ विमन ॥भाषाः॥ इतिश्री जटाशंकरसुत ज्योतिर्विच्छीपरविरचितायां वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां पोदकीरते शुभचेष्टाप्रकरणं चतुर्थम् ॥ ४ ॥ अब अशुभ चेष्टा कहै हैं । वक्रीति ॥ टेढो मुख करे क्रोधसूं देखै अथवा भागजाय वा त्रासकू प्राप्त होय वा कहूं वृक्षादिकनमें लीन होजाय वा पीठ फेर अपने भाऊ सं कठोर वाणी बोलती हुई चली जाय ऐसी पोदकी अशुभकर्ता जाननी काहू पुरुषको अपुनपै कोप करावे ॥ ८१ ॥ आलस्यति ।। जो कुमारी आलस्यवान् दखे तो व्याधि भय करावै और जो उत्साह भंग दीखै तो कार्यको भंग करे और हृभाई लेती देखे तो शत्रुते भय करावे ध्यान करती दीखे तो समस्त अर्थको नाश कर्ता जाननी ॥ २॥ गात्रेष्विति ।। और जो पोदकी शिथिल होय और नीचे स्थानपै ही कहूँ होय तो देहकूँ भग्न करै Aho! Shrutgyanam Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । भयं प्रकंपादतिमात्रमत्र स्वगात्रपीडा स्वजनस्य भीर्वा ॥ उत्पाटनात्पुच्छपतत्रयोश्च बंधुक्षयो वा मरणं भवेद्वा ॥८४॥ प्रत्यक्षदेव्या निकटस्थभक्ष्यत्यागाद्भवत्यभ्यवहारहानिः ॥ गृही भक्ष्यत्यजनेन पुंसां हस्तस्थितस्यापि धनस्य नाशः ॥ ॥ ८५ ॥ स्वजातियुद्धे समजातियुद्धं परेण युद्धे परजातियुद्धम् ॥ भंगो भवेत्पूजितपक्षिभंगे जये तदीये विजयो जनस्य ॥ ८६ ॥ ॥ टीका ॥ स्कतायां शोकाकुलत्वं स्यात् । मूत्रे पुरीषे वमने च अर्थनाशः स्यात् ॥ ८३॥ भयमिति ॥ प्रकंपाद्भयमतिमात्रं भूयस्तरं भवेत्। स्वगात्रपीडा स्वजनस्य भीर्वाभवति । पुच्छपतत्रयो रुत्पाटनाद्वंधुक्षयो मरणं वा भवेत् ॥ ८४ ॥ प्रत्यक्षेति ॥ प्रत्यक्षदेव्या निकटस्थभक्ष्यत्यागात् अभ्यवहारहानिरिति अभ्यवहारोऽशनं तस्य हानिरभावः भवेत् । गृहीतभक्ष्यत्यजनेन पुंसां हस्तस्थितस्यापि धनस्य नाशः स्यात् ॥ ८५ ॥ स्वजातीति ॥ स्वजातिना आत्मीयेन समं युद्धे समजातिभिः समं युद्धं भवति । परेण अन्यजातीये समंयुद्धे परजातिभिः सह युद्धं भवति । पूजितपक्षिभंग इति अधिवासितपक्षिभंगे भंग:प ॥ भाषा ॥ और कुटुंब में घातकरे और जो उदास होय तो शोक कर व्याकुल करे और मूत्र कर रही होय वा वीट करती होय वा घमन नाम उलटी करती होय तो अर्थ नाश करे |॥ ८३ ॥ भयमिति ॥ पोदकी कांप रही होय तो बहुत भय करे अपने देहमें पीडा करें और स्वजन जननकू भय करे और पूंछ पंख इनकं धरती में पटक मारे फड फडावे उखाड़े तो बंधुको क्षय अथवा मरण करें || ८४ ॥ प्रत्यक्षेति || और पोदकी के निकटमें भक्षण हैं। और त्याग कर राखो होय न खाय तो मनुष्यकूँ भोजनकी हानि करावे और जो भक्षण ग्रहण कर राख्यो होय फिरवाये ते छूट जाय तो हाथमें आयो हुयो धननाशकूं प्राप्त होय || ८९ || स्वजातीति ॥ पोदकी अपने समान जातिकरके युद्ध कर रही होय तो मार्गीकूं भी समान जातिके करके युद्ध करावे और जो परजातिकरके युद्धकर रही होय तो प्राणी कुंभी परजातिकरके युद्ध होय और बैठे बैठे पंखकूं फटकारण लगे तो भंग नाश करें Aho! Shrutgyanam Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरतेशुभचेष्टाप्रकरणम्। अन्यत्र यानादधिवासितस्य सिद्धयुन्मुखं यात्यपरत्र कार्यम् ॥ प्रदीप्तयानात्पुनरापतंति संग्रामवित्तक्षयकार्यनाशाः॥ ॥ ८७॥ दीप्तस्थिते पक्षिणि देशभंगो दुष्टप्रदेशोपगते च दुःखम् ॥ आसीनपक्षिप्रपलायिते तु भवेदिमिश्रः सुखदुःखभावः ॥८८॥ स्त्रीनाशचित्तस्थितकार्यनाशौ स्यातां रिम्सापरिहारभावात् ॥ भुजंगवह्निप्रभवे कुमार्या भये भयं' भावि कुतोप्यवश्यम् ॥ ८९ ॥ ॥ टीका ॥ राजयः स्यात् । तदीये विजये जनस्य विजयः स्यात् ॥८६॥अन्यत्रेति ॥ अधिवासितस्य शकनार्थ निमंत्रितस्य अन्यत्र यानात् सिद्धान्मुखं कार्यमपरत्र यातिापुनःप्रदीतयानासंग्रामवित्तक्षयकार्यनाशा आपतंति समुपतिष्ठते संग्रामश्च वित्तक्षयश्च कार्य नाशश्च संग्रामवित्तक्षयकार्यनाशाःइतरेतरद्वंद्वः।।८७॥दीप्तेति॥पक्षिणि विहंगे दीप्त. स्थिते देशभंगः स्यात् दुष्टप्रदेशोपगते पक्षिणि दुःखं स्यात्।आसीनपक्षिपविलंबिते च पक्षेवाप्रपलायितेअथवा आसीन उपविष्टोय पक्षीतस्यप्रपलायनेनसुखदुःखयोविमि श्रभावौभवतः॥८॥स्त्रीति॥रिरंसापरिहारभावादितिरंतुमिच्छा रिसातस्या परि हारभावःपरित्यागभावस्तस्मात्परित्यागात्स्त्रीनाशचित्तस्थितकार्यनाशौस्यातांभवेतां स्त्रीनाशश्चचित्तस्थितकार्यनाशश्वस्त्रीनाशचित्तस्थितकार्यनाशौइतरेतरद्वंद्वः।कुमार्याः देव्याःभुजंगवह्निप्रभवेभुजंगश्च वह्निश्चइतरेतरद्वंद्वातयोःप्रभवेसंजातेभयेकुतोऽप्यव ॥ भाषा ॥ और संग्राममें जय पोदकीको होय तो मनुष्यको भी जय होय ॥ ८६॥ अन्यत्रेति ॥ पोदकी कहूं बैठी होय और वहांसे उडके अन्यत्र गमन करजाय तो मार्गी जहां जातो होय वहांसूं और जगह जाय तब कार्यसिद्धि होय और प्रदीप्तदिशामें जायकर फिर पीछे आवे तो संग्राम करावे धनको क्षय करावे कार्यको नाश करे ॥ ८७ ॥ दीप्तति ॥ पक्षी दीप्तादिशामें स्थित होय तो देशभंग होय और दुष्टदेशमें बैठी होय तो दुःख होय और जो पक्षी बैठी होय फिर पंख लंबे कर दे अथवा भाज जाय तो सुख दुःख मिलवां होय ॥ ८ ॥ स्त्रीति ॥ और कुमारी जो पोदकी ताके रमणकी इच्छा होय किर परित्याग कर दे तो स्त्रीको नाश करै और चित्तमें स्थित जो कार्य ताको नाश करै और सर्प अग्नि इत्यादिकन करके अवश्य भय हो Aho! Shrutgyanam Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । वामानि चंच्वा चरणेन कामं कंडूयतेंगानि च यानि देवी ॥ तदंगघातं कुरुते नराणां कुलक्षयं चोच्छ्रितवामपक्षा ॥ ९० ॥ अर्शास्यतीसारभयं भवेद्वा स्पर्शाद्वदस्य ग्रहणीभयं वा ॥ निंद्यप्रदेशाभ्युपसर्पणेन भवत्यवश्यं पतनं नराणाम् ॥ ९१ ॥ रोगो यदि स्यादधिवासितस्य स्यातां तदा कार्यविनाशरोगौ ॥ रोमांचिताशेषतनौ विहंगे रोगो भवेद्वाथ भयं भुजंगात् ॥ ९२॥ स्नानेन धूल्यां विपदं विदुष्टे स्नाती जले स्नानमनिष्टमाह ॥ पंके रुजं भस्मनि जीवनाशं यद्वा परिव्राजकतां विधत्ते ॥९३॥ ॥ टीका ॥ श्यं भयं भावि॥८९॥ वामानीति ॥ यदि देवी यानि वामान्यंगानि चंच्वा चरणेन च कंडूयते तदंगघातं नराणां कुरुते उच्छ्रितवामपक्षा ऊद्धीकृतवामपक्षा कचिदुद्धृतवामपक्षेति पाठस्तत्र चंच्वात्रोटितवामपक्षा कुलक्षयं कुरुते ॥ ९० ॥ अशांसीति ॥ अशांसि गुर्दाकुराणि कंडूयते तदा अतीसारभयं भवेत् । वाऽथवा गुदस्य स्पर्शात्संग्रहिणीभय भवेत् । निंद्यप्रदेशाभ्युपसर्पणेन जुगुप्सितप्रदेशे गमनेन अवश्यं नराणां पतनं मरणं स्यात् ॥ ९१ ॥ रोग इति अधिवासितस्य विहंगस्य यदि रोगः स्यात्तदा कार्यविनाशरोगी स्यातां।रोमांचिताशेषतनाविति रोमांचिता उद्गतरोमचिह्निताशेषा तनुर्यस्य स तथा तस्मिन् एवं विधे विहंगे सति रोगो भवेत् वा पक्षांतरद्योतनार्थः । भुजंगाद्भयं भवेदित्यर्थः ॥ ९२ ॥ स्नानेनेति ॥ धूल्यां स्नानेन विपदं विपत्तिं विदधाति ब्रवीति विदुष्टे जलैनाती स्नानं कुर्वती अनिष्टं स्नानमाह कथयतीत्यर्थः । पंके स्नाती रुजं रोगं ब्रवीति । ॥ भाषा ॥ य ॥ ८९ ॥ वामानीति ॥ जो पोदकी चोंचकरके अथवा पाँवकरके वांये अंगनकूं खुजा तो मनुष्यनके अंग घात करै और चोंचकरके वांये पंखनकूं तोड़डारे तो कुलको क्षय करे ॥९०॥ अशसीति ॥ जो पोदकी गुदाके अंकुरनकूं खुजाय रही होय तो अतीसारको भय करे और जो गुदाको स्पर्श कररही होय तो संग्रहणीको भय करे और निंदितस्थानकूं जाती होय तो अवश्य मनुष्यनकूं पतन करावे ॥ ९१ ॥ रोग इति ॥ बैठीके रोग होय जाय तो कार्यको नाश और रोग करै और जो पक्षीके देहमें रोमांचित होवे तो भी रोग करै अथवा सर्प भय करे ॥ ९२ ॥ स्नानेनेति ॥ और जो धूलमें स्नान कररही होय तो आपदा क और दुष्ट जलमें स्नान करती होय तो मनुष्यकं मरेको स्नान वा कोई नीचके स्पर्शसूं कार ऐसे ऐसे खोटे स्नान करावे और जो कीचमें न्हाय रही होय तो रोग Aho! Shrutgyanam Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुतेऽशुभचेष्टाप्रकरणम् । ( १३३ ) शास्थिवा मरणं नराणां काष्ठानना कष्टमुपादधाति ॥ अंगारका क्षयकृत्कुलस्य बंधाद्भयं जल्पति रज्जुक्का ॥ ॥ ९४ ॥ तनुं धुनाना फलहा निरोगौ ब्रवीति चंच्चा हनेनन घातम् ॥ त्रोट्य पत्राणि भुवि क्षिपती स्यात्पोदकी कार्यविनाशयित्री ॥ ९५ ॥ नश्यंति सर्वाणि समीहितानि धनुमूर्द्धविधूननेन ॥ शत्रूद्भव भीतिमुपादधाति श्यामा प्रविस्तारितवामपक्षा ॥ ९६ ॥ ॥ टीका ॥ भस्मनि स्त्राती जीवनाशं परिव्राजकर्ता संन्यासं वा विधत्ते ॥ ९३ ॥ केशास्थीति ॥ केशास्थीनि वक्रे मुखे यस्याः सा नराणां मरणमुपादद्धाति करोति । काष्ठानना काष्ठमान ने सुखे यस्याः सा पुनः कष्टं कुरुते । अंगारवत्रा कुलस्य क्षय क्रुद्भवति । रज्जुवक्राधाद्भयं जल्पति ॥९४॥ तनुमिति ॥ तनुं शरीरं भुनाना कंपयंती फलहानिरोगौ फलस्य हानि: 'फलहानिः फलहानिश्व रोगश्चफलहानिरोगावितरेतरद्वंद्वः । त्रवीति कथयति । चंच्चा हननेन कुट्टनेन शरीरस्येति शेषः । घातं शस्त्रघातं ब्रवीति पत्राणि पिच्छानि संत्रोटय भुवि क्षिपती पोदकी कार्यविनाशयित्री कार्यविनाशकर्त्री स्यात् ॥९५॥ नश्यंतीति ॥ धनुर्धरीमूर्द्धविधूननेन मस्तकविकंपनेन सर्वाणि समीहितानि वांछितानि नश्यति नाशं प्राप्नुवंति। श्यामा प्रविस्तारितवामपक्षा प्रकर्षेण विस्तारितो विस्तारं प्रापितो वामः सव्यः पक्षो गरुत् यया सा तथोक्ता गरुत्पक्षच्छदाः पत्र पतत्रं च तनूरुहम् ॥ भाषा ।। करे और राख में न्हाय रही होय तो जीवनाश करै अथवा संन्यासी कर दे ॥ ९३ ॥ केशास्थीति ॥ केश हाड ये बाके मुखमें होंय तो मरण करें और काष्ट मोडेमें होय तो कष्ट करावे और अंगार वाके मोढेमें होय तो कुलको क्षय करावे वारी जाननी और रज्जु जो जे -वडी मुखमें होय तो बंधनते भय करावे ॥ ९४ ॥ तनुमिति ॥ जो शरीरकूं कंपायमान कररही होय तो फलकी हानि करे और रोग करे और चोंच करके शरारकूं प्रहार करती होय तो घात करावे पोदकी अपने पंखनकूं काटके उखाडके धरती में पटके तो कार्यकी विनाशकर्ता जाननी ॥ ९५ ॥ नश्यंतीति ॥ पोदकी मस्तक कंरायमान करती होय तो संपूर्ण कार्य नाश करे और वायें पंखकूं फैलाय दे लंबोकरदे तो शत्रुते भय प्रगट करे Aho! Shrutgyanam Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। निश्चेष्टकाया परतंत्रभावमूर्द्धानना प्रेतपुरीनिवासम् ॥ वृक्षावतीर्णा द्रविणप्रणाशं स्थानाभिघातं कुरुते प्रसुप्ता ॥९७ ॥ अधोगताधोगतमाह कार्य पराङ्मुखी चापि पराङ्मुखत्वम्।। ॥वियुज्यमाना कुरुते वियोगं कर्तव्यनाशं प्रपलायमाना॥ ॥ ९८ ॥ रोगाभिघातस्तनुचर्वणेन तिरोहितत्वेन भयं प्रभूतम् ॥ प्रसारणात्पक्षयुगस्य देव्याः कलिः कुटुंबस्य परस्परं स्यात् ॥ ९९॥ ॥ टीका ॥ इत्यमरः । शत्रूद्भवां भीतिमुपादधाति प्रकरोतीत्यर्थः ॥ ९६ ॥ निश्चेष्टेति ॥ निश्चेटकाया निश्चेष्टश्चेष्टारहितः कायो देहो यस्याः सा देवी परतंत्रभावमिति दासत्वमित्यर्थः । पराधीनत्वं कुरुते ऊर्द्धानना ऊर्द्धमुखी प्रेतपुरीनिवासं प्रेतपुर्या संयमन्यां निवासो वसनं प्रेतपुरीनिवासं मरणं कुरुते वृक्षावतीर्णा वृक्षात् भूमानुपागता द्रविणस्य धनस्य नाशं कुरुते प्रसुप्ता निद्रां गता स्थानाभिघातं कुरुते ॥ ९७ ॥ अधोमुखीति ॥ अधोमुखी ननवदना अधोगतं कार्यमाह ब्रवीति पराङ्मुखी कार्यस्य पराङ्मुखत्वं ब्रवीति वियुज्यमाना स्वभर्तुः सकाशादिति शेषः । वियोगं कुरुते प्रपलायमाना कर्तव्यनाशं कुरुते ॥ ९८ ॥ रोगेति ॥ तनुचर्वणेन रोगाभिषातः स्यात् तनोदेहस्य चर्वणेन दत्ताभिघातेनत्यर्थः । तिरोहितत्वेन क्षणमात्रं दृग्गोचरीभूय पश्चाददृश्यतां गतत्वेन प्रभूतं भयं भवति देव्याः पक्षयुगस्य प्रसारणात् ॥ भाषा॥ ॥ ९६ ॥ निश्चेष्टकायेति ॥ चेष्टा कछू न कररही होय वैसेही वैठी होय तो पराधीनता करावे और ऊंचो मुख करे बैठी होय तो मरणकरे और वृक्ष पैते उतरके नीचे पृथ्वी पै आय बैठी होय नो द्रव्यको नाश करै और सूती होय तो स्थानको नाश करें ॥ ९७ ॥ अधोमुखीति ॥ जो नीचे ही बैठी होय वा नीचो मुख करे होय तो कार्यकुंभी नीचो करदे और विमुख बैठी होय तो कार्यकभी विमुख करें और अपने भरिते त्रियोग करती बैठी होय तो मनुष्यकुंभी वियोग करावे और जो भागती दीखै तो करवेके योग्य कार्यको नाश करै ॥ ९८ ॥ रोगा इति ॥ जो अपने देहळू चोंचकर चर्वणकरती होय तो रोग करके दुःखी करै, और क्षणमात्र तो दीख जाय फिर दीखतेतूं बंध होय जाय तो बहुत भय करै, और दोनों पंखनकू फैलाय दे तो कुटुंबको परस्पर कलह करावे ॥ ९९ ।। Aho! Shrutgyanam Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुतेशुभवेष्टाप्रकरणम् । ( १३५) मुखस्य काष्ठादिषु घर्षणेन कष्टं कुमारी वितरत्यनंतम् ॥वामेन यांती बिलमाविशंती प्रस्थापयत्यंतकसंनिवेशम् १००॥ अदृश्यतामेत्यधिवासितश्चेत्पक्षी निमित्तेऽधिगवेष्यमाणे ॥ मृत्युभवेत्तयदि वान्यजातिःप्रदक्षिणं गच्छति तच्छुभाय ॥ ॥१०१॥उत्तानपादस्य तलं स्पृशंतीपद्भ्यां च काष्ठोपगता चलंती ॥ कंडूयमाना चरणौ नराणां विदेशयानं कुरुते कुमारी॥१०२ ॥ भयातरोगाविधादिकार्यान्वित्यादिचेष्टाः कथिताः प्रशस्ताः॥ अन्यत्र चैता विदधत्यवश्यं भीरोगधातेप्सितकार्यनाशान् ॥ १०३॥ ॥ टीका ॥ कुटुंबस्य परस्परं कलिः स्यात् ॥९९॥ मुखस्येति|काष्ठादिषु मुखस्य घर्षणेन अनंतं कष्टं कुमारी वितरति ददाति वामेन यांती बिछमाविशंती अंतकसनिवेशं प्रस्थाप. यति यमसन्निधिं प्रस्थापयति प्रापयतीत्यर्थः ॥ १०० ॥ अदृश्यतामिति ॥ निमित्ते शकुनावलोकनसमये पतत्रिणि गवेष्यमाणे अधिवासितः पूर्व निमंत्रितः पक्षी चेदहश्यतामेति गच्छति तर्हि मृत्युभवेत् यदि वा अन्यजातिः प्रदक्षिणं गच्छति तदा शुभाय भवति ॥ १.१॥ उत्तान इति ॥ उत्तानपादस्य ऊर्वीकृतपादस्य तलमधः प्रदेशंचंच्वेति शेषः। स्पृशंती काष्ठोपगता पद्भयां चलंती काष्ठोपरि पद्भयां बजतीत्यर्थः । चरणौ कंडूयमाना कुमारी नराणां विदेशयानं परदेशगमनं कुरुते ॥ ॥ १०२ ॥ भयार्त इति ॥ भयार्तरोगाविधादिकार्येष्वतिभयेन आर्तः पी ॥ भाषा ॥ मुखस्येति ॥ पोदको अपने मुखकू काष्टादिकन घिसे तो अनंत कष्ट करै, और बांये भागपर होय बिलमें प्रवेश करजाय तो यमराजके पास पहुंचावे ॥ १०० ॥ अदृश्यतामिति ॥ शकुनदेखतसिमय पक्षीकू देख रहे होय और बैठो होय न दीखै तो मृत्यु करै और वासमें जो और जातको पक्षी जेमने माऊं होयकर गमन करे तो शुभ होय ॥ १०१ ॥ उत्तानं इति ॥ पाँवकू ऊंचो कर तलुआकू स्पर्श करती होय, और काष्ठके ऊपर पाँवनकर चलरही होय अथवा पाँवनकू खुजाय.रही होय तो पोदकी मनुष्यनकू विदेश चलावे ।। १ ०२॥भयार्त इति । भयकर. पीडित. होय, रोग कर पीडित होय, स्वामीकरके वा समर्थ पुरुषकरके वधके लिय आज्ञा जाकू हुई होय, इन कार्यनमें और वा दीप्तकार्यनमें ये पूर्वकही जे Aho ! Shrutgyanam Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। ग्रंथविस्तरभयान बहूनिकरचेष्टितफलान्युदितानि ॥ आत्मनैवसुमतिर्ननुतस्मादीदृशान्यनुसरेदपराणि॥ १०४॥ दुष्टचेष्टितफलाभिधायिनी पंचविंशतिमिमामवैति यः॥ पूरुषः पुरुषकारतत्परःसक्षमो भवति देवलंघने॥ १०५॥ इति पोदकीरुते अशुभचेष्टाफलप्रकरणं पंचमम् ॥५॥ ॥ टीका ॥ डितः रोगातः रुक्पीडितःप्रभुणा वधाय आदिष्टः आदिशब्दादन्येषां दीप्तकार्याणां ग्रहणं एषु कार्येषु इत्यादिकाश्चेष्टाः प्रशस्ताः कथिताः । अन्यत्र शांतकार्ये एताः पूर्वोताःभीरोगघातेप्सितकार्यनाशान् भीश्च रोगश्च घातश्च ईप्सितकार्यनाशश्चेतरेतर बंदः । तानवश्यं विदधति कुर्वन्ति ॥१०३॥ ग्रंथेति ॥ ग्रंथविस्तरभयादहूनि कूर चेष्टितफलानि नोदितानि कथितानि तस्मात्कारणाननु निश्चयेन सुमतिः प्रेक्षावानात्मनैव स्वबुद्धयैव ईदृशान्यपराणि अनुसरेत् ॥ १०४ ॥ दुष्ट इति ॥ यः पुरुषः इमा दुष्टचेष्टितफलाभिधायिनी पंचविंशतिमवैति जानाति स पुरुषः दैवलंघने क्षमो भवति समर्थः स्यात् । कीदृक् पुरुषकारतत्पर इति पुरुषकारः उद्यमस्तत्र तत्परः 'मर्त्यः पंचजनोभस्पृक् पूरुषः पुरुषो नरः' इति ॥ १०५॥ इति श्रीमहोपाध्यायभानुचंद्रविरचितायां वसंतराजटीकायां पोदकीरुते पंचमं प्रकरणम् ॥५॥ ॥ भाषा॥ चेष्टा पक्षीकी ते शुभ जाननी और शांतकार्यनमें ये पूर्वकही हुई चेष्टा ते भयरोगघात वांछित कार्यको नाश इहें अवश्य करै ।। १०३ ॥ ग्रंथ इति ॥ ग्रंथके विस्तारके भयते बहुत क्रूर चेष्टानके फल नहीं कहे हैं ताते निश्चयही बुद्धिमान् पुरुष अपनी बुद्धिकरके ऐसे ऐसे और क्रूर चेष्टानके कार्यनकू या रीतिसंही विचारले ॥ १०४ ॥ दुष्ट इति ॥ दुष्टचेष्टानको फल जामें को ऐसी ये पंचविंशतिक जो जाने, और उद्यममें तत्पर होयरह्यो होय सो पुरुष दैवकू उलंघन करवेमें योग्य होय ॥ १०५ ।। इति श्रीजटाशंकरसुतज्योतिर्विच्छीधरविरचिते वसंतराजशाकुने भाषाटी कायां पोदकीरते अशुभचेष्टाफलं नाम पंचमप्रकरणम् ॥५॥ Aho! Shrutgyanam Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरते गतिप्रकरणम् । (१३७) अनेकरूपं गमनस्वरूपं निरूप्यते पांथसमूहमातुः॥ यत्पारमार्थ्यादधिगम्य गम्यो देवस्य न स्यात्पुरुषः कदाचित् ॥ १०६॥ उड्डीय या वामककुब्बिभागाधनुर्धरी यात्यपसव्यदेशम् ॥ तारानुलोमाथ तथापसव्या प्रदक्षिणा सा खलु दक्षिणा च ॥ १०७॥ या पांडवी दक्षिणदिग्विभागादुड्डीय वामं श्रयति प्रदेशम् ॥ अदक्षिणा साथ तथोद्धृताख्या वामा वितारा प्रतिकूलनानी ॥ १०८॥ तारोद्धृताख्याभिमुखी तथान्या पराङ्मुखी चोर्द्धमधोमुखी च ॥ द्वे दक्षिणादक्षिणवेष्टनाख्ये अष्टौ पुरोऽष्टौ गतयश्चपृष्ठे ॥ १०९ ॥ टीका ॥ अनेकरूपमिति ॥ पांथसमूहमातुः पाथाः पथिकास्तेषां समूहः श्रेणिः तस्य माता जननी तस्याः देव्याः अनेकरूपं गमनस्वरूपं मया निरूप्यते कथ्यतेोयत्पारमार्थ्यादधिगम्य ज्ञात्वा पुरुषः कदाचिदैवस्य गम्यो न भवति ॥ १०६ ॥ उड्डी येति ॥ या धनुर्धरी वामात्ककुभो विभागादिशः प्रदेशात् उड्डीय अपसव्यदेशं दक्षिणप्रदेशं याति मा धनुर्धरी तारा अनुलोमा अपसव्या प्रदक्षिणा दक्षिणा चेति नामभिः कथ्यते ॥ १०७ ॥ या पांडवीति ॥ या पांडवी देवी दक्षिणदिग्विभागादुड्डीय वामं प्रदेशं श्रयति प्रामोति सा अदक्षिणा उद्धृताख्या वामा वितारा प्रतिकूलनाम्नीति नाम्रा प्रतिकूला प्रतिकूलनाम्रीति नामभिः कथ्यते ॥ १०८ ॥ अथ देव्याः अष्टौ गतयः पुरः अष्टौ गतयश्च पृष्ठे भवंति ताः प्रदर्शयन्नाह ।। तारेति ॥ ॥ भाषा ॥ अनेकरूपमिति ॥ पोदकीके अनेक प्रकारके गमनके स्वरूप निरूपग करे हैं याके भेदस्वरूप जानकरके पुरुष कदाचित् दैवकेभी गम्य नहीं होय ॥१०६॥ उड्डीयेति ॥ जो पोदकी बाई दिशा ते उडकै जेमने भागमें जाय ताकी अनुलोमा अपसव्यप्रदक्षिणा दक्षिणा ये संज्ञा नाम कहे हैं।।१०।। या पांडवीति ।। पांडवी जो पोदकी जेमने भागते उडकर वामभागमें आय जाय वाकोनाम अदक्षिणा उद्धता वामावितारा प्रतिकूला कहै हैं ॥ १०८ ॥ तार इति ॥ ताराउद्धृताख्या. ये पहले कही हैं और जो पोदकी सन्मुख आती होय ताकी अभिमुखी संज्ञा, और आप गमनकर्ताके आगे आगे चले जाकी पराङ्मुखी संज्ञा, और ऊपर उछलकै चले वाकी ऊर्ध्वमुखी संज्ञा, और नीचो मुखकर पृथ्वीमें पडै ऊपरतूं वाकी अधोमुखी संज्ञा, और एक Aho ! Shrutgyanam Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) वसंतराजशाकुने- सप्तमो वर्गः । ताराभिधा पांथसमूहमाता या कीर्तिता शाकुनशास्त्र विज्ञैः ॥ विशेषतो द्वादश सान्वयानि नामानि तस्याः प्रतिपादितानि ॥ ११० ॥ ऋज्वी कपाटा स्खलिता तथांधा वक्रा च दूरा गुलिकस्तथोर्द्धा ॥ कांडाभिधा पष्ठगतार्द्धतारा स्याद्रिप्रकारा पुनरर्धतारा ॥ १११ ॥ वामप्रदेशात्सरलं प्रयाति या दक्षिणं सा कथितवितारा || तारा व्रजत्यर्धपथप्रदेशात्पुननिवर्तेत कपाटसंज्ञा ॥ ११२ ॥ ॥ टीका ॥ पूर्वोक्ते तारादेतख्ये अभिमुखीतिसन्मुखमायांती परोङ्मखीतिअग्रेव्रजंती ऊर्ध्वम्खीति ऊर्ध्वमुत्पतंती अधार्मुखीति अधोमुखं भूमौपतंतीदक्षिणाऽदक्षिणवेष्टनाख्ये इति दक्षिणवेष्टनाख्या अदक्षिणवेष्टनाख्याच द्वेगती वामतो दक्षिणतश्च अवेष्टनादित्यर्थः एवं पृष्ठेऽष्टौ पुरश्च अष्टौ गतयो भवति ॥ १०९ ॥ ताराभिधेति । शाकुनशास्त्रविज्ञैः : या पाथसमूहमाता ताराभिधा कीर्त्तिता प्रोक्ता तस्यास्ताराभिधायाः सान्वयानि यथार्थानि द्वादश नामानि प्रतिपादितानि कथितानि । कचिन्नामानि तस्याः प्रतिपादयामः इत्यपिपाठः । तत्र प्रतिपादयामः कथयाम इत्यर्थः ॥ ११० ॥ ऋज्वीति ॥ ऋज्वी १ कपाटा २ स्खलिता ३ अंधा ४ वा ५ दूरा ६ गुलिकिः ७ ऊर्द्धा ८ कांडा ९ पृष्ठगता १० अर्धतारा द्विप्रकारा स्यात् ११ पुनः अर्धतारा १२ क्वचित् कांडाता पृष्ठगता तथान्येत्यपि पाठः । इति ताराया द्वादश नामानि ॥ १११ ॥ अथैतस्याः नाम्नां लक्षणान्याह || वामप्रदेशादिति ॥ सा ऋज्वीनाम्नी तारा कथिता प्रतिपादिता सा का या वामप्रदेशादक्षिणं विभागं सरलं प्रयाति या तारा व्रज ॥ भाषा ॥ दक्षिणा पूर्व कह आये दूसरी दक्षिण वेष्टना जो वांयेमाऊंते और जेमने माऊते वेष्टनकरे वो वेष्टना आगेकी पीठ पीछेकी आठ आठ प्रकारकी गति जिनकी ऐसी ये आठहैं ॥ १०९ ॥ ताराभिधेति ॥ शकुनशास्त्र के जानवे वारेनने ये तारा जो पोदकी सो कार्यवान् पुरुषनकी और यात्रीनकी माता कही है ताके द्वादशनाम यथायोग्य विशेषकरके कहे हैं ॥ ११० ॥ ऋज्वीति ॥ ऋज्वी १ कपाटा २ स्खलिता ३ अंधा ४ वा ५ दूरा ६ गुलिकी ७ ऊर्ध्वा ८ कांडा९पृष्ठगता १० द्विप्रकारा ११ अर्द्धतारा १२ ॥ १११ ॥ वामप्रदेशादिति ॥ वांये देश दक्षिणदेशमें सरल चली जाय वाकूं ऋच्ची कहें हैं, और जो आधी दूर मार्ग में चलके फिर पी Aho! Shrutgyanam Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते गतिप्रकरणम् । ( १३९) उत्लुत्य या दर्दुरवत्प्रयाति पथि स्खलंती खलिता मता सा॥ तारापि भूत्वा तरुकोटरादौ निलीयते सा पुनरंधतारा॥ ॥११३॥ गोमूत्रिकासर्पवदंबरे या वक्र व्रजेत्सा खलु वक्रतारा॥सा दूरताराकथितेह पूर्व तारा भवेद्याति ततोऽतिदरम्।। ॥११४॥ लुठंत्यवन्यां गुलिकेव तारा या याति पद्भयां गुलिकिर्मता सा।।गत्वोर्द्धदेशं गगने ततो या तारा भवेत्सा कथितोर्द्धतारा ॥ ११५ ॥ अच्छिन्नवेगा शरवत्प्रयाति निवृत्य नायाति च कांडतारा ॥ पृष्ठप्रदेशेन नरस्य वामादवाममागच्छति पृष्ठतारा ॥ ११६॥ ॥ टीका ॥ ति । अर्धपथप्रदेशात्पुनर्निवर्तेत सा कपाटसंज्ञा स्यात् ॥ ११२ ॥ उत्प्लुत्येति ।। या द१रवदुत्प्लुत्य स्खलंती प्रयाति सा स्खलिता मता। या तारा भूत्वापि तरुकोटरादौ निलीयते सा अंधा भवति ॥ ११३ ॥ गोमूत्रिकेति ॥ या गोमूत्रिकावत्सपंवच्च अंबरे वकं ब्रजति साखलु निश्चयेन वक्रतारा । या पूर्व तारा भवेत्ततोऽतिदूरं याति साइह दूरतारा कथिता प्रतिपादिता ॥११॥लुठंतीति ॥ या गुलिकेल पद्भयां लुठंती अवन्यां याति सा गुलिकिर्मता।या ऊर्द्धदेशं गगने गत्वा ततः तारा भवेत्सा ऊर्द्धतारा ॥ ११५॥ अच्छिन्नेति ॥ या शरवद्वाणवदच्छिन्नवेगा प्रयाति ततो निवृत्य नायाति सा कांडतारा । या पृष्ठप्रदेशे वामादवाममागच्छति ॥ भाषा ॥ छी निवर्त हो आबे ताकी कपाटसंज्ञा है ॥ ११२ ॥ उत्प्लुत्येति ॥ मेढकीनाई उछलकरके गिरत पडत चले वाळू स्खलिता कहै हैं, और जो तारा दीखके फिर वृक्षकी कोटरादिकमें लीन होजाय बाकी अंधा संज्ञा है ॥ ११३ ॥ गोमूत्रिकात ॥ जो तारा जैसे मार्गमें गो मूत्र कर है, जैसे सर्प टेटो चलैहै तैसे आकाशमें टेढी चले वाकू बक्रतारा कहैं हैं, और जो प्रथम दीखकरके फिर अतिदूर चली जाय वाकू दूरा कहै है ॥ ११४ ॥. लुठंतीति॥ जो गुलिकाकीसीनाई पाँवनकर लोटती हुई पृथ्वीमें चलै चाकू गुलिकी कहे हैं और जो तारा ऊंची आकाशमें जायकरके दीखे ताईं ऊतारा कहैहैं ॥ ११५ ॥ अच्छिन्नति ॥ जो तारा बाणकीसी नाई अखंड वेग चली जाय और पछिी बगदके नहीं आवे वाकू कांडतारा कहै हैं, और जो पीठपीछे वामभागसूं जेमने भागकू गमन करे वा Aho! Shrutgyanam Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( १४० ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । उड्डीय या याति तथार्धमार्गात्प्रदक्षिणं सा कथितार्धतारा ॥ उड्डीय या तिष्ठति चार्धमार्गे साप्यर्धतारा कथिता द्वितीया ॥ ॥ ११७ ॥ एषैव विज्ञैर्गतिवैपरीत्याद्वामोदिता द्वादशनामधे - या ॥ उत्पादिताकस्मिकविस्मयानि फलान्यथासामनुकीर्तयामः ॥ ११८ ॥ ऋज्वी फलं शोभनमाह पुंसां फलेन हीना भयदा कपाटा ॥ फलं विधत्ते स्खलितातितुच्छं फलोज्झिता कर्णसुखप्रदांधा ॥ ११९ ॥ वकाऽतिवक्राभिमतार्थसिद्धयै दूरप्रदेशे फलदा च दूर: । कार्यस्य नाशं गुलिकः करोति युद्धं विधत्ते पुनरुवतारा ॥ १२० ॥ ॥ टीका ॥ -सा पृष्ठतारा भवति ॥ ११६ ॥ उड्डीयेति ॥ या उड्डीयार्धमार्गात्प्रदक्षिणमायाति सातारा कथिता । या उड्डायार्धमार्गे तिष्ठति सापि द्वितीयार्धतारा कथिता । बुधैरिति शेषः ॥ ११७ ॥ एषैवेति ॥ एषैव तारा गतिवैपरीत्यादिति दक्षिणतः वाममदेशाभ्युपसर्पणेन वामप्रदेशे गमनेन विज्ञैर्द्वादशनामधेया वामोदिता अथासां फलानि वयमनुकीर्तयामः कथयामः । कीदृशानि । उत्पादिताकस्मिक विस्मयानीति उत्पादितआकस्मिकः विस्मयो यैस्तानि तथा ।। ११८।। ऋज्वीति ।। ऋज्वी गतिः पुंसां शोभनं फलमाह कपाटा फलेन हीना भयदा च भवति । स्खलिता अतितुच्छं फलं विधत्ते फलोज्झिता फलरहिता कर्णसुखप्रदा च अंधा गतिर्भवति ।। ११९ ॥ वक्रेति ॥ ॥ भाषा ॥ आय जाय वाकूं पृष्ठतारा कहै हैं ॥ ११६ ॥ उड्डीयेति || जो तारा आधे मार्गमें सूं उडकरके जेमने मार्गकूं चलीजाय वाकूं अर्थतारा कहे हैं, और जो आधी दूरमें जाय करके स्थित होय तो वाकूं विवेकी अर्द्धतारा क हैं ॥ ११७ ॥ एवैवेति ॥ ये तारा की विपरीत करके धाम कही हैं अब इनके अकस्मात् आश्चर्यके देवारे फल कहूं हूं ॥ ॥ ११८ ॥ ऋज्वीति ॥ पोदकीकी ऋज्जी नाम सरलगति पुरुषनकूं शोभन फल करे और कपाटा गति फलकरके हीन भयके देवेवारी हैं, और स्खलिता अतितुच्छ फल करें, और अंधागति फलकरकै रहित कर्णसुखके देवेवारी है ॥ ११९ ॥ वक्रेति ॥ वा तारा वांछित सिद्धिके अर्थ है, और अतिवकाभी सिद्धिके अर्थ होय हैं, और दूरा तारा दूरदेशमें वा दूर स्थानमें फलकी देवेवारी है, और गुलकी तारा कार्यको नाश करे फिर ऊतारा Aho! Shrutgyanam Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते गतिप्रकरणम् । ( १४१ ) स्यात्कांडतारा रहिता फलेन नष्टार्थलाभाय च पृष्टतारा ॥ या त्वर्धतारा शकुनैकदेवी सा द्विप्रकारापि फलार्धदात्री || ॥ १२१ ॥ यावत्प्रकारा फलमत्र तारा या च व्यथां यच्छति मानवानाम् ॥ तावत्प्रकारा पुनरत्र वामा भयं तथा तावदुपादधाति ॥ १२२ ॥ जानुप्रदेशे वरवाहनाप्तिस्तथोरुदेशे परिधानलाभः ॥ रम्यासनावाप्तिस्थापि कव्यामिष्टान्नभोज्यं जठरप्रदेशे ॥ १२३ ॥ कंठे च कंठाभरणस्य लाभो ललाटदेशेऽपि च पट्टबंधः ॥ छत्रस्य लाभः शिरसि प्रयाणे स्यात्तारया वामगता प्रवेशे ॥ १२४ ॥ ॥ टीका ॥ अभिमतार्थसिद्धयै वक्रा अतिवचैव भवति दूरा दूरप्रदेशे दूरस्थाने फलदा भवति गुलिकः कार्यस्य प्रणाशं करोति पुनरुर्द्धतारा युद्धं विधत्ते ॥ १२०॥ स्यादिति ॥ फलेन रहिता कांडतारा स्यात् । पृष्ठतारा नष्टार्थलाभाय गतवस्तुनः प्राप्त्यै स्यात् या द्विप्रकारा अर्धतारा शकुनैकदेवी भवति सा फलार्धदात्री स्यात् ॥ १२१ ॥ यावदिति ॥ अत्र यावत्प्रकारा तारा यावत्फलं यथा येन प्रकारेण मानवानां यच्छति ददाति । पुनरत्र तावत्प्रकारा श्यामा वामा सती तथा तेन प्रकारेण तावद्भयं उपादधाति । कुरुते ॥ १२२ ॥ जान्विति ॥ जानुप्रदेशे सक्थिप्रदेशे चेत्तारा प्रयाति तदा वरवाहनाप्तिर्भवति । तथोरुदेशे याति तदा परिधानलाभः स्यात् । अथ कट्यारम्पासनावाप्तिर्भवति तत्रासनं रथतुरंगादीत्यर्थः । क्वविद्रम्यांगनावाप्तिरथापि कंट्यामित्यपि पाठः । जठरप्रदेशे मिष्टान्नभोज्यं स्यात् ॥ १२३ ॥ कंठेचेति ॥ ॥ भाषा ॥ युद्ध कराये ॥ १२० ॥ स्यात्कांडेति ॥ कांडतारा फल करके रहित है और पृष्ठ तार नष्ट हुये अर्थके लाभ करनेवाली और द्विप्रकारा तारा गई वस्तुकी प्राप्तिके अर्थ है और अर्द्धतारा आधे फलकी देवेवारी है ॥ १२१ ॥ यावदिति ॥ यामें जितनी तारा हैं फल जा प्रकारकर मनुष्यनकूं देवे हैं फिर वोही तारा वा माता प्रकारकर उतनेही भय करे. है ॥ १२२ ॥ जान्विति ॥ जो तारा जानुप्रदेश में प्राप्त होय तो उत्तम वाहनकी प्राप्ति करें है, और उरुदेश में होय तो वस्त्रप्राप्ति करे है, और कटिदेशमें होय तो सुंदर आसन, रथ और उदरदेशमें प्राप्त होय तो मिष्टान्न भोजन कंठाभरणको लाभ होय और ललाट में पट्टबंधन Aho ! Shrutgyanam तुरंगादिक अथवा सुंदर स्त्रीको प्राप्ति करै, करावे ॥ १२३ ॥ कंठे चेति ॥ कंठदेशमें Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ) . वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। वामेऽग्रतो दक्षिणतश्च यांती प्रत्यक्षदेवी पथिकेन साकम् ।। वरिष्ठमध्याधमसंज्ञकानि ध्रुवं फलानि क्रमतो विधत्ते ।। ॥ १२५ ॥ दक्षिणमध्यमवामविभागाद्या व्रजतेऽभिमुखी समुपैति ॥ सा क्रमतो बहुमध्यममल्पं दुष्टफलं कुरुते पुरुपाणाम् ॥ १२६ ॥ प्रदक्षिणेन प्रविवेष्टयंती यथेष्टलाभं कुरुते कुमारी ॥ वामेन भागेन पुनः पुमांसमावेष्टयंती मरणं करोति ।। १२७॥ ॥ टीका ॥ कंठे च कंठप्रदेशे गमनेन कंठाभरणस्य लाभः स्यात्।ललाटदेशेऽपि च तारागमनेन पट्टबंधः स्यात् । शिरसि छत्रलाभः स्यात् । कया प्रयाणे यात्रायां जान्वादिपमितया तारया तारागमनेन ग्रामप्रवेशे वामयावामप्रदेशगमनेन पूर्वोक्तलाभः स्यादित्यर्थः॥ १२४ ॥वामेग्रत इति ॥ प्रत्यक्षदेवी पथिकेन साकं पांथेन साधू वामेऽग्रतो दक्षिणतश्च यांती वामे वामभागे अग्रतःपुरस्तादक्षिणतश्च दक्षिणस्यामिति दक्षिणत इति सार्वविभक्तिकस्तसिल् । यांतीत्यस्य प्रत्येकमनुषंगः। तथा च वामे यांती दक्षिणतश्च यांतीत्यर्थः । वरिष्ठमध्याधमसंज्ञकानि फलानि क्रमतः अभिधत्ते कथयति वरिष्ठं च मध्यं च अवमसंज्ञकं च वरिष्टमध्याधमसंज्ञकानीतरेतरबंदः ॥ १२५ ॥ दक्षिणेति॥ या कुमारी बजतः गमनं कर्तुः पुरुषस्य दक्षिणमध्यमवामविभागात् दक्षिणमध्यमवामप्रदेशात् अभिमुखी संमुखी समुपैति आयाति सा क्रमतःअनुक्रमेण वहु मध्यममल्पं बहुप्रचुरं मध्यमं ततः किंचिन्न्यूनमल्पं मध्यमस्वल्पं पुरुषाणांदुष्टफुलं कुरुते ॥ १२६ ॥ प्रदक्षिणेनेति ॥ प्रदक्षिणेन भागेन पुरुषमावेष्टयंती यथेष्ट ॥ भाषा ॥ मिले और मस्तकमें छत्रको लाभ होय यात्रा समयमें तो जानुकू आदिलेके तारा कहीं सो दक्षिणगमन करके फलक देवेवारी जाननी. और ग्रामप्रवेश समयमें तारा वामभागकरके पूर्व फलकी देवेवारी जाननी ॥ १२४ ॥ वामेग्रत इति ॥ तारामार्गी करके सहित बांये माऊं वा अगाडी वा जेमने माऊं जाय तो श्रेष्ठ मध्यम अधम संज्ञा जिनकी ऐसे फल कमकरके करे है ॥ १२५ ॥ दक्षिणेति ॥ तारागमन करवेवारे पुरुषकं दक्षिण मध्यम वामभागते सम्मुख आयजाय तो क्रमते मनुष्यनकू बहुत मध्यम अल्प दुष्ट फल करै ॥ १२६ ॥ प्रदक्षिणनोति ॥ . कुमारी मार्गमें जेमने. माऊं होय कर पुरुष आवेष्टन कर ले तो यथेष्ट लाभ करै. और Aho! Shrutgyanam Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते गतिप्रकरणम् । ( १४३ ) पराङ्मुखी गच्छति या च पृष्ठात्पृष्ठस्थितं साकरणीयमाह ॥ आयाति पृष्ठाभिमुखं पुनर्या प्रयोजनं सा कथयत्यतीतम् ॥ १२८ ॥ निर्गच्छतो गच्छति पृष्टवामा पृष्टप्रकोपार्थविनाशनाथ | आहोर्द्धगाधोवदना पतंती वामे मृतिं दक्षिणतोऽरिनाशम् ॥ १२९ ॥ वामावर्ता पोदकी पृष्ठभागान्नेष्टानिष्टे सा भयादौ प्रशस्ता । या स्यात्पृष्ठाद्दक्षिणावर्तिनी सा कार्येऽभीष्टे शस्यते न त्वनिष्टे ॥ १३० ॥ इति पोदकीरुते गतिप्रकरणं षष्ठम् ॥ ६ ॥ ॥ टीका ॥ लाभ कुमारी कुरुते । पुनः वामेन भागेन पुमांसं पुनःपुनः आवेष्टयंती नरस्य मरणं करोति ॥ १२७ ॥ परान्मुखीति ॥ या च पृष्ठात्पराङ्मुखी गच्छति सा पृष्ठे स्थितं करणीयमाह । या पुनः पृष्ठाभिमुखमायाति सा प्रयोजनं कार्यमतीतं कथयति ॥ ॥ १२८ ॥ निर्गच्छत इति । यदि निर्गच्छतः पुंसः पृष्ठवामा गच्छति पृष्ठे वामा भवति । तदा पृष्ठप्रकोपार्थविनाशनार्था इति पृष्ठस्थितो जनसमुदायः नृपो वा तेषां प्रकोपः अर्थविनाशश्च तावेव अर्थः प्रयोजनं यस्याः सा तथेत्यर्थः । ऊद्धगा अधोवदना पती च वामे वामभागे मृतिमाह मरणं ब्रवीति । दक्षिणे दक्षिणभागे पुनः ऊर्द्धगा अधोवदना पतंती अरिनाशमाह ॥ १२९ ॥ वामेति ॥ पोदकी देवी पृष्ठभा ॥ भाषा ॥ जो बांये भागकरके पुरुषन आवेदन करें तो पुरुषको मरण करे है || १२७ ॥ पराङ्मुखीति ॥ जो तारा पीठ पीछे ते मोढो फेर करके गमन करे तो कार्यकूं पीछे होयगों ऐसो क हैं ये जाननो फेर पीठ माऊंते सम्मुख आय जाय तो कार्यव्यतीत होय गयो ताय कहे है ॥ ॥ १२८ ॥ निर्गच्छत इति ॥ जो पुरुष यात्राकर के निकस्यो ताके तारों पृष्ट बामा होय - तो अर्थात् पीठमाऊं कूं बांई गमन करे तो पिछाड़ी कोई मनुष्यनको समूह होय अथवा राजा होय तो उनको कोप, और अर्थनाश होय, और ऊपर गमन कररही होय वाको नीचो मुख होय नीचेकूं पड़ती होय, और वामभाग में होय तो मृत्युकी करवेवारी जाननी और जो ऐसे आचरण करत जेमने भाग में होय तो वैरीको नाश करें ॥ १२९ ॥ वामेति ॥ पीठमा अंसूं बांई होय कर मनुष्यकूं आवेष्टन करे तो वांछित कार्यमें योग्य नहीं वो भयादिक कार्य में योग्य है और जो पोदकी पीछेहूं जेमनी माऊं होय कर मनु Aho! Shrutgyanam Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः।। यात्राप्रवेशादिचिकीर्षितानां ज्ञातुं निदानं नितरामिदानीम् ॥ गतिस्वरादीनि कुमारिकाया विमिश्ररूपाणि निरूपयामः१३१॥ एका भयेभ्यः परिपाति तारा सर्वार्थलाभं कुरुते द्वितीया ॥ भवेत्तृतीया यदि तन्नराणामदुर्लभं राज्यमपि प्रदिष्टम् ॥ १३२ ॥ ॥टीका॥ गात्पृष्ठप्रदेशाद्वामावर्ता वामेनावेष्टयंती अभीष्टकार्ये नेष्टा सा भयादौ प्रशस्ता स्यात् या पृष्ठादक्षिणावर्तिनी दक्षिणेनावेष्टयंती साऽभीष्टे कार्ये शस्यते न त्वनिष्टे अशुभे कार्ये ॥ १३० ॥ इति श्रीमहोपाध्यायभानुचंद्रगणिविरचितायां वसंतराजटीकायां । पोदकीरुते गतिप्रकरणं षष्ठम् ॥ ६ ॥ यात्रेति ॥ इदानी कुमारिकायाः गतिस्वरादीनि विमिश्ररूपाणि वयं निरूपयामः।यात्राप्रवेशादिचिकीर्षिताना यात्रा परदेशे प्रवासः प्रवेशादि ग्रामगृहादौ प्रविशनादि यात्रा च प्रवेशादिश्च यात्राप्रवेशादी तयोः कर्तुमिच्छा चिकीर्षासा विद्यते येषां ते तथोक्तास्तेषां पुंसां नितरामतिशयेन निदानमिति हेतुः अर्थात् सुखदुःखयोरिति शेषः । ज्ञातुमन्येषां ज्ञापयितुमित्यर्थः॥ १३१ ॥ एकेति ॥ एका तारा भयेभ्यः परिपाति रक्षति । द्वितीया तारा सर्वार्थलाभं कुरुते। यदि तृतीया तारा - ॥ भाषा॥ प्या आवेष्टन करले तो वांछित कार्यमें बहुत योग्य है. और अशुभ कार्यमें अच्छी नहीं नेष्ट है ॥ १३० ॥ इति श्रीमज्जटाशंकरतनयज्योतिवच्छीधरविरचितायां वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां पोदकीरुते गतिप्रकरणं षष्ठम् ॥ ६॥ यात्रेति ॥ अब यात्रागमन प्रवेश इत्यादि करवेवारे पुरुषन• अधिक करके शुभ अशुभ जानवेकू, अथवा औरनके जितायवेकू पादकीकै गति स्वरादिक मिलवां निरूपण करै हैं ॥१३१॥ एकति॥ एक तारा अर्थात् पहले कहे मंडलके तीन तोरण तामें प्रथम तोरणकी एक तारा दूसरे तोरणमें होय सो दूसरी तीसरेमें होय सो तीसरी एक तारा भयनते रक्षा करैहै, दूसरी तारा सर्व अर्थको लाभ करैहै, जो तीसरी तारा होय तो राज्यभी दुर्लभ नहीं है Aho! Shrutgyanam Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते यात्राप्रकरणम् । (१४५ ) आद्यद्वितीयांतिमसंज्ञकेषु तारा यदि त्रिष्वपि तोरणेषु ॥ भवेत्तदा मत्तमतंगजाश्वस्त्रीरत्नरत्नोपचिता समृद्धिः॥१३३॥ याचापि भूमित्रितयस्य मध्ये पुनःपुनर्गच्छति वामभागे । प्रारब्धकार्यस्य विनाशनेन सा वक्रतारा कथितेह दुर्गा ॥ ॥१३४ ॥ एका भयं संविदधाति वामा करोति मृत्योर्वशगं द्वितीया । भवेत्कथंचियदि सा तृतीया भवेत्तदानीं धमजीवनाशः॥ १३५॥ ॥ टीका ॥ तत्र भवेत्तदा राज्यमप्यदुर्लभं प्रदिष्टं कथितम् ॥ १३२ ॥ अथ क्षेत्रिकमाश्रित्य चाह आयेति ।। आद्यद्वितीयांतिमसंज्ञकेषु इदमाचं प्रथम द्वितीयमिदमंतिमंचरममिति संज्ञकं स्वार्थे कः । नाम विद्यते येषां तथोक्तास्तेषु त्रिष्वपि तोरणेषु यदि तारा भवेत्तदा मत्तमतंगजाश्वस्त्रीरत्नरत्नोपचितेति मत्ताः मतंगजाः मत्तहस्तिनः अश्वाः प्रतीताः स्त्रीरत्नं सर्वोत्कृष्टा स्त्रीरत्नानि हीरकादीनि प्रतीतानि मत्ताश्च ते मतंगजा. . श्वेति पूर्व कर्मधारयः। ततो मत्तमतंगजाश्च अश्वाश्च स्त्रीरत्नं च रत्नानि चेतरेतरद्धं न्द्वः । तैरुपचिता व्याप्ता समृद्धिः संपत्स्यात् ॥ १३३ ॥ या चापीति॥ या भूमित्रितयस्य मध्ये पुनःपुनः वामभागे गच्छति सा इह प्रारब्धकार्यस्य विनाशनेन दुर्गा वक्रतारा कथिता ॥ १३४ ॥ एकति ॥ एका वामा भयं संविदधाति करोती. त्यर्थः। द्वितीया वामा मृत्योर्वशगं करोति यमवशवर्तिनं विदधाति कयंचियदि सा वामा तृतीया भवेत्तदानीं धनजीवनाशः धनं च जीवश्चेतिद्वंदः। तयो शो वि ॥भाषा॥ राज्यभी देवे ॥ १३२ ॥ आयोति ॥ पहलो दूसरो तीसरो इन तीनों तोरणनमें जो तारा होय, तो मतवाले हाथी, घोडा, स्त्रीरूपी रत्न, और रत्नकरके बढी ऐसी ऋद्धिवान् "सं पदा होय ॥ १३३ ॥ या चापीति ॥ जो तारा तीनो भूमिमें वारंवार वामभागमें "आवे . वो तारा सर्वकार्यकी विनाश करवेवारी वक्रतारा कही है ॥ १३४ ॥ एकेति । एताय वामा होय तो भय करे, और दूसरीमी वामा होय तो मृत्युके वशीभूत करे, और जो कई 5 .4 'Aho! Shrutgyanam Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) वसंतराजसाकुने-सप्तमो वर्गः। तारा भवेद्यद्यधिवासनस्य स्यादह्नि वामा शकुनेक्षणस्य ।। शुभं नराणामुपदर्य सर्वतद्ब्रह्मपुत्री सहसा निहंति ॥१३६॥ . प्रदक्षिणा यद्यधिवासने स्यानिरीक्ष्यमाणे शकुनेऽपि सैव ॥ तनिश्चित्तं चित्तगतं समस्तं समीहितं सिद्धयति मानवानाम् ॥१३७ ॥ पूजादिने वामगतिर्यदि स्याद्वामैव चेत्स्याच्छकुनेक्षणेऽपि ॥ चिकीर्षितं वस्तु तदा समस्तं ब्रवीत्यसौ सिदिमुखादपास्तम् ॥ १३८॥तारागतियद्यधिवासने स्यानिवर्तमानस्य च याति वामा ॥ मनोरथाः शाकुनिकस्य तस्य प्रयांति सिद्धिं सकलास्तदानीम् ॥ १३९ ॥ . ॥टीका ॥ . नाशों भवेत्स्यात् ॥ १३५ ॥ तारेति ॥ यदि अधिवासनस्य दिने तारा भवति पुनः शकुनेक्षणस्याहि वामा भवति तदा ब्रह्मपुत्री नराणां शुभमुपदर्य दर्शयित्वा सर्व सहसा निहंति विनाशयतीत्यर्थः ॥ १३६ ॥ प्रदक्षिणेनेति ॥ यदि अधिवासने शकुनस्यामंत्रणे प्रदक्षिणा भवति निरीक्ष्यमाणे शकुनेपि सैव भवति मानवानां चित्तगतं समस्तं समीहितं वांछितं तनिश्चितं सिध्यति सिद्धि प्राप्नोति ॥ १३७ ॥ पूजादिन इति ।। यदि पूजा दिने अधिवासनदिने वामा गतिः स्यात् । शकुनेक्षणेऽपिवामैव चेत्स्यात्तदा चिकीर्षितं कर्तुमिष्टं समस्तं वस्तु सिद्धिमुखादपास्तं निरस्तमसौ ब्रवीति कथयति ॥ १३८॥ तारेति ॥ यद्यधिवासने तारागतिः स्यात् पुनः निवर्तमानस्य वामा याति तदानीं तस्य शाकुनिकस्य मनोरथाः सकलाः सिद्धि ॥ भाषा॥ तीसरीमी वामा होय तो वाई समय धनजीवको नाश करै ॥ १३५ ॥ तारेति ।। पूजन कर रह्यो होय वाकू दिनमेंही तारा दीखजाय फिर शकुनदेखती बिरियां वामा होय दिनमेही तो ब्रह्मपुत्री जो पोदकी सो मनुष्यनकू शुभ दिखाय करके फिर सर्व कार्य शीघ्रही नाश 'कर है ॥ १३६ ॥ प्रदक्षिणेति ॥ जो पूजा करती समयमें जेमने माऊं दीखे, और फिर शकुनदेखती समयमें भी जेमनी दीखे तो मनुष्यनके चित्तमें जो वांछित होय सो निश्चयही सिद्ध होय ॥ १३७ ॥ पूजादिन इति ।। जो पूजाके दिन तारा वामगति होय और शकुन देखती समयमें जो वाम होय तो. कार्यकी सिद्धि नहीं होय ॥ १३८ ॥ तारोत ॥ जो पूजा समयमें तारागति दक्षिणा होय, फिर पूजासू निबटे पीछे वामा होजाय, तो शकुनीके Aho! Shrutgyanam Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकी यात्राप्रकरणम् । ( १४७ ) भूत्वानुलोमा यदि याति वामा कार्य तदा सिद्धमपि प्रणश्येत् ॥ भूत्वोद्धृता दक्षिणगामिनी चेद्विनाश्य कार्य तदुपादधाति ॥ १४० ॥ एका द्वितीया शकुनी तृतीया निवर्तमानस्य नरस्य यस्य ॥ अदक्षिणा स्यादुररीकृतानि सिध्यंति कार्याण्यखिलानि तस्य ॥ १४१ ॥ श्मामात्रयं गच्छति . यस्य तारं चेष्टा प्रदेशस्वरशांतरूपम् || निवृत्तिकालेऽभ्युपयाति वामं प्राप्नोत्यसावक्षयभूपतित्वम् ॥ १४२ ॥ तारात्रयं स्यात्प्रथमं निवृत्तौ तारा समृद्धयै विपदे च पश्चात् ॥ वानिवृत्तौ वामा पुरस्ताद्विपदे समृद्धयै ॥ १४३॥ पूर्व ॥ टीका ॥ प्रयति ॥१३९ ॥ भूत्वेति ॥ अनुलोमा तारा भूत्वा यदि वामा याति तदा कार्य सिद्धमपि प्रणश्येत् । उद्धता वामा भूत्वा दक्षिणगामिनी चेद्भवति तदा कार्य विनाश्य पुनस्तदेव कार्यमुपादधाति ॥ १४० ॥ एकेति ॥ शकुनी देवी एका द्वितीया तृतीया यस्य निवर्तमानस्य नरस्य अदक्षिणा स्याद्वामविभागे याति तस्य नरस्य उररकृितानि अंगीकृतानि अखिलानि समस्तानि कार्याणि सिध्यति ॥ १४१ ॥ श्यामेति ॥ यस्य नरस्य चेष्टाप्रदेशस्वरशांतरूपमिति चेष्टा शरीरव्यापारः प्रदेशः स्थानं स्वरः शब्दः एते शांता यत्रैतादृशं रूपं स्वरूपं यस्य एवंविधं श्यामात्रयं तारं दक्षिणप्रदेशं गच्छति निवृत्तिकाले पुनः श्यामात्रयं वाममभ्युपयाति असौ अक्षयं भूपतित्वं प्राप्नोति ॥ १४२ ॥ तारेति ॥ प्रथमं प्रवृतौ प्रवर्तनकाले तारात्रयं स्यानि ॥ भाषा ॥ संपूर्ण मनोरथ सिद्धि प्राप्त होय १२९ ॥ भूत्वेति ॥ तारा अनुलोमा होय करके जो वाम आय जाय तो सिद्धहुयो कार्यनाशकूं प्राप्त होय जाय और जो तारा बाम होय करके फिर जेमने माऊं चली जाय तो कार्यकूं विनाशकरके फिर कार्यकूं करे ॥ १४० ॥ एकेति ॥ पूजासूं निवृत्तहुये पीछे वाकूं जो तारा पहली दूसरी तीसरी वामविभाग में प्राप्त होय तो वा पुरुषके समस्त कार्य सिद्ध होय ॥ १४१ ॥ श्यामेति ॥ चेष्टा स्थान शब्द ये जामेँ शांत होयँ ऐसो स्वरूप जाको ऐसी श्यामाको त्रय पहली दूसरी तीसरी सो दक्षिणभागर्मे होय फिर पूजासूं निवृत्तकालमें वामभाग में आय जाय तो वो प्राणी, अक्षय पृथ्वीपति होय ॥ १४२ ॥ तारेति ॥ प्रथमपूजाकालमें तो तीनों तारा होय और पूजासूं निवृत्त Aho! Shrutgyanam Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। ताराथ वामा पुनरेव तारा वामा पुनर्मिश्रफलं ब्रवीति ॥ . अंते भवेद्या बहुधापि भूत्वा निर्वाहमाहुः किल तत्फलस्य॥ ॥ १४४॥ अग्रेसरी स्त्री मिथुनस्य मध्यात्तत्पृष्ठयायी पुरुषो यदि स्यात् ॥ सर्व फलं सिद्धयति तावत्यां स्यात्किचिदूनं नरपृष्ठगायाम् ॥ १४५॥ निरीक्षितादौ युवतिर्वरिष्ठा स्यात्पूर्वदृष्टः पुरुषस्तदूनः ॥ वामां गतिं प्रत्यधिका विहंगी प्रदक्षिणां प्रत्याधिको विहंगः।। १४६॥ ॥ टीका ॥ वृत्तौ चैकताराभवति तदा प्रथमंतारात्रयं समृदयै भवति पश्चात्तारा विपदे भवति अथवा निवृत्तौ निवर्तनकाले वामात्रयं पूर्व भवति पश्चानिवृत्तौ वामा भवति तदामात्रयं पुरस्ताद्विपदे भवति पश्चात्समृद्ध्यै स्यादित्यर्थः ॥१४३ ॥ तारेति ॥ यदा प्रथमं तारा अथ च पुनर्वामा भवेत् पुनरेव तारा पुनर्वामा तदा मिश्रफलं ब्रवीति । तथा बहुधापि भूत्वा या अंते भवेत् सा किल इति सत्ये । तत्फलस्य निर्वाहमाह यद्यते वामा स्यात् तदा फलस्य निर्वाहः यद्यते निवृत्तौ तारा तदा फलंप्राप्तेरनिर्वाहः॥ १४४ ॥ अग्र इति ॥ यदि मिथुनस्य स्त्रीपुरुषस्य मध्यादग्रेसरी स्त्री स्यात्तस्पृष्ठयायी तस्याः स्त्रियाः पृष्ठगामी पुरुषः स्यात्तदा सर्व फलं सिध्यति तावत्यां नरपृष्ठगायां सत्यां किंचिदूनं फलं स्याद्भवति ॥ १४५ ॥ निरीक्षितादाविति ॥ आदौ निरीक्षिता युवतिः वरिष्ठा स्यात्। पूर्व दृष्टः पुरुषः तदूनो भवति तस्याः किं ॥ भाषा॥ .. हुये पीछे एक तारा होय तो पहली तारा समृद्धिके अर्थ है; और पिछली तारा आपदाके अर्थ है; और तैसेही पहली तीनों तारा वामा होय पीछे पूजासू निवृत्तिकालमें वामा होय तो पहली वामा आपदाके अर्थ होय, पीछेकी वामा समृद्धिके अर्थ है ॥ १४३ ॥ तारेति ॥ प्रथम तारा नामदक्षिणा फिर वामां फिर तारा नाम दक्षिणा फिर वामा होय तो मिश्रित फल जाननो जो अंतमें वामा होय तो फलको निर्वाह जाननो और जो अंतमें पूजा निवृत्तिमें दक्षिणा होय तो फलप्राप्तिको निर्वाहभी न जाननो ॥ १४४ ॥ अग्र इति ॥ जो पोदकीका मिथुन कहिये जोडा होय और वा जोडामेंसू अगाडी स्त्री होय पिछाडी पुरुष होय तो सर्व कार्य सिद्ध होय; और पुरुष अगाडी होय और स्त्री पुरुषके पिछाडी होय तो. कछुक न्यून फल होय ॥ १४५ ॥ निरीक्षितादाविति ॥ जो प्रथम स्त्रीदीखे तो Aho ! Shrutgyanam Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरते यात्राप्रकरणम् । (१४९) प्रदक्षिणश्चेद्गमने विहंगो निवर्तने वामगतिविहंगी । अत्युतमा स्यात्तदभीष्टसिद्धिः स्यान्मध्यमाजल्पति वैपरीत्यात्।। ॥१४७ ॥ तारा भवत्यादिमतोरणांते वामा ततश्चेन्न गुणो न दोषः॥ तारोद्धृते द्वे अपि ते विहाय तस्मान्मनुष्यैरपरा गवेष्या ॥ १४८॥ आलोक्यते कापि न तोरणांते श्यामा निवृत्तौ यदि चोग्रतारा॥ तत्स्यादनथैकफला नराणांकामात्वभीष्टार्थफलं ददाति ॥ १४९॥ टीका॥ चिदूनं फलं ददातीत्यर्थःीयतः वामां गतिं प्रत्यधिका विहंगी वर्तते प्रदशिणां गति प्रत्यधिको विहंगो वर्तते ॥ १४६ ॥ प्रदक्षिणेति ॥ चेद्गमने शकुनावलोकने प्रदक्षिणस्तारः विहंगमः स्यात् । पुनर्निवर्तने विहंगीवामगतिर्भवति तदाभीष्टसिद्धिरत्युत्तमा स्याजल्पति । पुनःवपरीत्यादभीष्टसिद्धिर्मध्यमा स्यादिति जल्पति कथयति। वैपरीत्यं तु प्रथमं तारा विहंगी स्यात् ततो निवृत्तो वामः विहंगः स्यादिति१४७॥ ॥ तारेति॥ आदिमतोरणांते तारा भवति ततश्चेद्वामा भवति तदा न गुणः न दोषः तारवृते दक्षिगवामेते द्वे विहाय त्यक्त्वा तस्मान्मनुष्यैरपरा गवेष्या गवेषणीया विलोकनीया स्यात् ॥ १४८॥ आलोक्यत इति ॥ कापि तोरणांते श्यामा ॥ भाषा॥ श्रेष्ठ और जो प्रथम पुरुष दीखे तो वा स्त्रीसू कक न्यून फल देव है, और जो स्त्रीको वामभागसे गति अधिक होय और पुरुषकी गति जेमने भागमें अधिक वर्तती होय तो पूर्व कह्यो फल योग्य जाननो ॥ १४६ ॥ प्रदक्षिणति:॥ जो गमनसमयमें शकुन देखती समयमें पुरुषपक्षी दक्षिणावर्त होय और फिर निवर्त होती समयमें स्त्री विहंगी वाई. होय तो वांछित सिद्धि अतिउत्तम होय. और जो विपरीत करके होय अर्थात् गमनमें तो प्रथम विहंगी स्त्री होय जेमनी, ओर वहांसे निवृत्त होती · समयमें पुरुष पक्षी बांयों होय तो मध्यमा जाननो ॥ १४७ ॥ तारेति ॥ जो प्रथम तोरणके अंतमें तारा दक्षिणवर्ती होय तापीछे वामा होय वाको गुणभी नहीं, और दोषभी नहीं, तातें मनुष्य उन दोनोंनकू छोडकरके और तारा शकुनकू ढूंढनो योग्य है ॥ १४८ ॥ आलोक्यत इति ॥ शकुनदेखती Aho ! Shrutgyanam Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) • वसंतराजशाकुने- सप्तमो वर्गः । निम्नतो व्रजतिया समुन्नतं पोदकी भवति सा महाफला ॥ व्यत्ययाल्लघुफला समात्समं याति या समफला भवेत्तु सा ॥ १५० ॥ भयापहा वामरवा वराही प्रदक्षिणा भूरिफलं ददाति ॥ भयप्रदा दक्षिणतः सशब्दा कुर्यान्मृतिं वामगतिः प्रयातुः ॥ १५१ ॥ सव्यापसव्ये युगपल्लयंत्यौ श्यामे प्रशस्ते खलु तोरणाख्ये।। वामस्थिता दक्षिणका यचेष्टा, वृद्धयै फलस्य द्रुममाश्रयंती ॥ १५२ ॥ ॥ टीका ॥ देवी नालोक्यते यदि निवृत्तौ चेत्तारा स्यात्तदा अनर्थैकफलेति अनर्थः कष्टं तदेकं फलं यस्याः सा तथा केषां नराणां तु पुनरर्थे वामा यदि एति तदा अभीष्टार्थं फलं ददाति ॥ १४९ ॥ निम्नत इति ॥ या पोदकी निम्नतः नीचप्रदेशात् समुन्नतं उच्चप्रदेशं व्रजति सा महाफला भवति व्यत्ययाद्याति वैपरीत्यात्समुन्नतात्स्थानानिम्नं गच्छतीत्यर्थः । सा लघुफला तुच्छफला भवति । तु पुनः या समात्समं स्थानं याति सा समफला भवेत् ॥ १५० ॥ जांघिकशकुनमाश्रित्याह ॥ भयेति ॥ प्रयातुः वराही देवी वामरवा वामशब्दा भयापहा भयहर्त्री स्यात् । सा चेत्प्रदक्षिणां तारा वराही भूरिफलं ददाति । पुनर्दक्षिणतः सशब्दा भयप्रदा भवति । सा चेद्वामगतिस्तदा प्रयातुर्मरणं कुर्यात् ॥ १५१ ॥ सव्यापसव्य इति ॥ यदि सव्यापस ॥ भाषा ॥ समयमें कहूं भी तोरण भागमें पोदकी नहीं दीखे और निवृत्त होती समयभी न दीखे तो अनर्थ कष्ट होय. फिर वामा होय तौभी अभीष्ट अर्थ फल देवे ॥ १४९ ॥ निम्नत इति ॥ ॥ जो पोदकी नीचे स्थलसूं ऊंचेपे गमन करे वो महाफलकी देनेवाली है और जो ऊंचेपै ते नीचे को गमन करै तो तुच्छफलकी देबेवाली जाननी फेर जो समस्थान ते समस्थानकूं जाय तो सफल होय ॥ १५० ॥ भयेति ॥ गमनकरबेवाले पुरुषकूं पोदकी बांई बोले तो भयकूं दूर करे. और जयं करे, और वो दक्षिण भागमें होय तो बहुत फल देवे. फिर दक्षिणमाऊं ते शब्द करे तो भयकी देबेवारी होय. और वोही वामगति होय तो गमनकर्ताकूं मरणकरे ॥ १५१ ॥ सव्यापसव्येति ॥ जेमनेमाऊं और बांई माऊं भी संग बोलती होय तो बहुत शुभ जानना, जो तोरणमें बोलती होय तो और वामभागमें स्थित हो जेमने अंग में चेष्टा करती होय और वृक्ष पै बैठी होय तो कार्य फलकी वृद्धि करे ॥ ११२ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते यात्राप्रकरणम् । (१५१ ) तारा जित्वा शकुनैकदेवी स्थितिं विधत्ते यदि कुप्रदेशे ॥ स्यात्क्षेममात्रं गमनोधतानां फलं तु किंचिन भवत्यभीष्टम् ॥ १५३॥ भक्ष्यमुखी यदि वामविभागं याति रटत्यधिरोहति वृक्षम् ॥ तद्विपदा सह वांछितमर्थ पांडविका वितरत्यचिरेण ॥ १५४॥ उन्नतदक्षिणपक्षविभागा मक्ष्यमुखी कृतपार्थिवशब्दा॥शांतदिशं भगवत्यनुलोमा गच्छति गच्छ. ति तन्नृपतित्वम् ॥१५॥तारोपविष्टापि शुभप्रदेशे गवेषयंती लभते न भक्ष्यम् ॥ किंचित्तदोनं विदधाति लाभं संप्राप्तभक्ष्या कुरुते तु पूर्णम् ।। १५६॥ ॥टीका ॥ व्ये सव्यं वामं अपसव्यं दक्षिणं सव्यं चापसव्यं च सव्यापसव्ये युगपत्समकालं लयंत्यौश्यामे खलु निश्चयेन तदा प्रशस्तेशोभने भवतः । यतः ते तोरणाख्ये भवतः यदिवामस्थिता दक्षिणकायचेष्टा स्यात् । द्रुममाश्रयंतीश्यामा फलस्य वृद्धयै स्यात् ॥१५२॥ तारेति ॥ शकुनैकदेवी ताराबजित्वा यदि कुप्रदेशे स्थितिं विधत्ते करोति तदा गमनोद्यतानां क्षेममा स्यादभीष्टं फलं न किंचिच्च भवति ॥ १५३ ॥ भक्ष्यमुखीतिभिक्ष्यमुखी यदि वामविभागंयाति रटति शब्दं कुरुते वृक्षमधिरोहति तदा अचिरेणकालेन पांडविका विपदासह वांछितमर्थ वितरति ददाति॥१५॥उन्नत इति अनुलोमा तारा भगवतीचेत् शांतदिशंगच्छति तदा नृपतित्वंयच्छतीत्यर्थः कीदृशी उन्नतदक्षिणपक्षविभागा इति उन्नतः उच्चैः कृतः दक्षिणं पक्षविभागोयया सा तथा कीदृशी भक्ष्यमुखी भक्ष्यं मुखे यस्याःसा तथा पुनःकीदृशी कृतार्थिवशब्दा इति कृतः पार्थिवःशब्दो यया सा तथेति ॥१५५॥ तारेति ॥ शुभप्रदेशे तारोपविष्टापीति पूर्व भाषा॥ तारेति ॥ शकुनकी एकही देवी तारा जो गमनकरके कुत्सितजगह कहिये निदि तस्थानमें जाय बैठे तो गमनकर्तापुरुषको कल्याणमात्र तो होय, परंतु वांछितफल कछभी नहीं होय ॥ १५३ ।। भक्ष्यमुखीति ॥ भक्षण जाके मुखमें होय ऐसी पांडविका वामभागमें जाय शब्द करै वृक्षपे चढ़जाय तो शीघकालमें विपदासहित वांछित अर्थ देवे ॥१५॥उन्नत इति॥ जो जेमने पंख• ऊंचे करे हुये भक्षण जाके मुखमें होय. पार्थिवशब्द करती शांतदिशाकू पोदकी गमनकर तो नृपतिभावकरै ॥ १५५ ॥ तारेति ॥ जो तारा प्रथम Aho! Shrutgyanam Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । भक्ष्यं जिघृक्षौ शकुने पतंगः पलायते पूर्वमथाभियोगात् स्याद्गोचरश्चेत्स तदा प्रदिष्टः कष्टादभीष्टस्य फलस्य लाभः ॥ १५७ ॥ भक्ष्यं जिघृक्षुर्यदि वांतराले भक्ष्यांतरं विंदति कृष्णपक्षी || अवांतरे तत्र फलांतरं स्यात्फलद्वयं भक्ष्ययुगस्य लांभे ॥ १५८ ॥ कृष्णा कृमिं वांछति यं ग्रहीतुं पलायतेऽसौ लभते ततोऽन्यम् ॥ स्यादिष्टलाभादपरार्थलाभो भक्ष्यानवाप्तौ तु फलावाप्तिः ॥ १५९ ॥ ॥ टीका ॥ तारा भूत्वा शुभप्रदेशे कृतस्थितिरित्यर्थः। भक्ष्यं गवेषयंती किंचिन्नलभते तदोनं लाभ फलं विदधाति संप्राप्तभक्ष्या पुनः पूर्ण फलं कुरुते ॥ १५६ ॥ भक्ष्यमिति ॥ भक्ष्यं जिघृक्षौ ग्रहीतुमिच्छुः जिवृक्षुस्तस्मिञ्छकुने विहंगे सति पूर्वमेव पतंगः भक्ष्याभिसुखीभूतः कीटः पलायते नश्यति अथाभियोगात्प्रयत्नतः दृग्गोचरश्चेत्स स्यात् तदा कष्टादभीष्टस्य फलस्य लाभः प्रदिष्टः ॥ १५७ ॥ भक्ष्यमिति ॥ यदि च भक्ष्यं जिघृक्षुरंतराले मध्ये कृष्णपक्षी श्यामा भक्ष्यांतरं विंदति प्राप्नोति । तत्रेति प्रस्तुतकार्यस्य अवांतरे मध्ये फलांतरं स्यात् भक्ष्यंयुगस्य लाभ फलद्वयं स्यादित्यर्थः ॥ १५८॥ कृष्णेति ॥ कृष्णा वराही यं कृमिं ग्रहीतुं वांछति असौ चेत्पलायते नश्यते ततोन्यं कृमि लभते तदेष्टलाभादपरोऽन्योऽर्थलाभः स्यात् । तु पुनः भक्ष्यान ॥ भाषा ॥ दक्षिणा होय कर उत्तमस्थानदेशमें जाय बैठे और भक्ष्यकूं ढूंढ रही होय और भक्ष्य वाकूं न मिलै कभी तो न्यूनफल देवे और जो भक्ष्य वाकूं मिलजाय तो फिर पूर्ण वांछित फल करे ॥ ॥ १९६ ॥ भक्ष्यमिति ॥ प्रथम तो भक्ष्यपदार्थकं ग्रहणकरबेकी इच्छा करतो होय फिर पतंग पक्षी भक्ष्य के सम्मुख भागजाय और फिर आंखनके अगाडी दीखजाय तो कष्टते वांछित फलको लाभ होय || १५७ ॥ भक्ष्यमिति ॥ जो पोदकी कोई भक्ष्यवस्तुकूं ग्रहण करती हो और बीच में दूसरो भक्ष्य प्राप्त होय जाय तो मनुष्यकूं भी कार्यके बीच में औरभी दूसरो फल मिलजाय वा पक्षीकूं दोफल भक्ष्यकी प्राप्तिके हुयेसूं फल भी दोय मिलें ॥ १५१ ॥ कृष्णेति ॥ कृष्णा जो पोदकी जा कीडाकूं ग्रहण करवेकी इच्छा करे वो कीडा, तो भाग मनुष्यकुंभी वांछित फलते दूसरो अर्थलाभ होय और जाय वाते और प्राप्त होय जाय तो • Aho ! Shrutgyanam Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते यात्राप्रकरणम्। (१५३) गवेषयंत्या शलभादिभक्ष्यं गतिः कुमार्या इह यादृशी स्यात् । तथाविधैव प्रविभावनीया विपश्चिता निश्चितमात्मकार्ये ॥ १६० ॥ मौनेन वा वामकृतस्वरा का तारा गता यच्छति वित्तकीर्ती ॥वामप्रदेशे त्वपसव्यशब्दा स्यान्मौनिनी वा कथितार्थसिद्धये ॥ १६१ ॥ वांच्छत्येका वामभागं प्रयातुंताराचान्यायातिलाभस्तदाल्पः॥लब्धाहारावामगा पादपस्था दत्वानर्थ लंभयत्यर्थसिद्धिम् ॥ १६२ ॥ एकातारा स्याद्वितारा द्वितीया ताराचान्यास्याच्चतुर्थीच वामा ॥ सर्वा एवं स्वं स्वमात्मानुरूपं कार्य कुर्युः शुक्लपक्षाःक्रमेण।।१६३॥ . ॥ टीका ॥ वाप्तौ भक्ष्यस्याप्राप्तौ फलानवाप्तिर्भवति फलस्य अप्राप्तिः स्यात् ॥ १५९ ॥ गवेषयंत्या इति ॥ शलभादि भक्ष्यं गवेषयंत्याः विलोकयन्त्याः कुमार्याः इह यादृशी गतिः स्यात् आत्मकायें विपश्चिता पंडितेन तथाविधैव गतिः प्रविभावनीया विचारणीया ॥१६० ॥ मौनेनेति ॥ मौनेनं वा वामकृतस्वरा वा वराही तारा गता सती वित्तकीर्ती पच्छति।वामप्रदेशे इति तु पुनः अपसव्यशब्दा मौनिनी वावामप्रदेशे गता सती अर्थसिद्ध्यै कथिता ॥ १६१ ॥ वांछतीति ॥ एका वामभागंप्रयातुं गंतुं वांछति अन्यातारायाति तदालाभोऽल्प: स्यात् यदि वामगालब्धाहारा पादपस्था भवति तदानर्थ दत्त्वा इष्टमर्थ लंभयति ददाति ॥ १६२ ॥ एकेति ॥ ॥भाषा ॥ भक्ष्यकी प्राप्ति न होय तो फलकी भी प्राप्ति नहीं होय ॥ १५९ ॥ गवेषयंत्या इति ॥ भक्ष्या ढूंढ रही होय पोदकी और वाकी वा समयमें गति होय तैसीही गति अपने कार्यमें विद्वान् पुरुषकू विचार करनो योग्य है ॥ १६० ॥ मौनेनेति ॥ जो तारा मौन धारे हुये अथवा वामभागमें शब्दकर दक्षिणभागमें चली जाय तो धन कीर्ति देवे. और वामप्रदेशमें होय जेमने माऊं शब्द करै अथवा मौन धारे होय फिर वामगति होय तो अर्थ सिद्धिके अर्थ जाननी ।। १६१ ॥ वांछतीति ॥ एक तारा तो वामभागमें जायबेकू इच्छा कर है और दूसरी तारा चली जाय तो अल्पलाभ होय जो वामभागमें होय लघु आहार जाकेपास होय और वृक्ष पै. स्थित होय तो अनर्थ देकरके इष्ट जो अर्थ ताकू लाभ करै ॥ १६२ ।। ॥ एकेति ॥ जो प्रथम तारा होय और दूसरी अर्धतारा होय, फिर तारा होय, और ता Aho! Shrutgyanam Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । किंचिद्रजित्वा पथिकेन साकं तारा ततो गच्छति याथ वा•मा || विश्रम्य विश्रम्य शनैः प्रयाति फलप्रदा सा चटिका क्रमेण ॥ १६४ ॥ गत्वोर्द्धमागच्छति यधस्तात्तारा ततश्वेद्भयदा तदानीम् ॥ एवंविधा वामगतिर्यदि स्याइनुधेरी तत्कुरुतेऽवसानम् ॥ १६५ ॥ चापच्युता या गुलिकेव दूरं धनुर्धरी व्योम्नि जवेन याति ॥ तारा ततः स्याद्यदि सारणाय वामा त्ववश्यं मरणाय गंतुः ॥ १६६ ॥ ॥ टीका ॥ याद एका तारा स्थात् ततो द्वितीया अर्धतारा अथवा वितारा वामा भवति अन्या तृतीया पुनस्तारा ततश्चतुर्थी वामा स्यात् एवं शुक्लपक्षाः सर्वाः स्वं स्वमात्मा - रूपं कार्य क्रमेण कुर्युः ॥ १६३ ॥ किंचिदिति ॥ किंचित्पथिकेन सार्धं व्रजित्वा गत्वा ततस्तारा गच्छति ततो विश्रम्य विश्रम्य विलंबं कृत्वा कृत्वा शनैः शनैः वामां प्रयाति सा चटिका क्रमेण फलप्रदा भवति । क्वचिञ्चिरेणेत्यपि पाठो दृश्यते तत्र चिरेण चिरकालेनेत्यर्थः ॥ १६४ ॥ गत्वेति ॥ या ऊर्द्धं गत्वाऽधस्तादागच्छति ततश्चेतारा भवति तदा भयदा स्यात् । तदानीमिति। तत्कालं न कालांतरे एवंविधा वामगतिर्यदि स्यात्तदा धनुर्धरी अवसानं मरणं कुरुते || १६५॥ चापच्युतेति ॥ या धनुधरी चापच्युता चापं धनुस्तस्माच्च्युता प्रक्षिप्ता गुलिकेव व्योम्निगगनपथे जवेन वेगे न दूरं याति । जवो वेगस्त्वरस्तूणिरिति हैमः ॥ यदि ततस्तारा स्यात्तदा सा ॥ भाषा ॥ . पीछे चौथीवाम होय शुद्ध हैं पंख जाके ऐसी ये संपूर्ण तारा अपने अपने योग्य कार्य क्रम करके करैं हैं १६३ ॥ किंचिदिति ॥ तारामार्ग में गमन करबेवारेकी संग थोडी दूर चल करके फिर बांई चली जाय अथवा विश्राम लेलेके शनैः शनैः वामभागकूं गमन करे वो शीघ्रही वांछित फलकी देबेबारी जाननी ॥ १६४ ॥ गत्वेति ॥ जो पोदकी ऊपर जाय करके फिर नीचेकूं चली आवे और ता पीछे दक्षिणा होय तो भयकी देबेवारी है तत्काल और जो ऊपर जाय नीचे उतर वाम भाय जाय तो मरण करे ॥ १६५ ॥ चापच्युतेति ॥ जो धनुर्धरी धनुषमें सूं निकसी हुई गुलिका ताकी सीनाई आकाशमें वेगकरके दूर चली जाय फिर वहांसे दक्षिण भागमें होय जाय तो युद्धके अर्थ जाननी और जो वामभागमें Aho! Shrutgyanam Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , पोदकीरुते यात्राप्रकरणम्। (१५५) या ब्रह्मपुत्री गमनोधतानामग्रे वजित्वाऽभिमुखी समेति ।। अदक्षिणा कार्यविनाशनाय स्यादक्षिणा सा द्रविणाप्तिहेतुः॥ ॥ १६७ ॥ भूत्वा वितारा परिगृह्य भक्ष्यं प्रदक्षिणेनाभ्युपगम्य देवी । मनोरमं स्थानकमाश्रयंती हत्वापदं संपदमादधाति ।। १६८ ॥ निमज्य धूल्यां यदि शुक्लपक्षा विधाय चेष्टां यदि वा विदुष्टाम् ॥ प्रयाति तारा विपदं विधाय क्षणेन लक्ष्मी तदुपादधाति ॥ १६९॥ दिकालचेष्टानिनदस्थितीनां मध्याद्भवेदेकतरेण दीप्ता ॥ भयंकरी दक्षिणगापि दुर्गा स्यादामगा मृत्युविधायिनी तु ॥ १७० ॥ ॥ टीका ।। रणाय युद्धाय स्यात् । एवंविधा वामा अवश्यं गंतुर्मरणाय स्यात् ॥ १६६ ॥ या ब्रह्मपुत्रीति ॥ या ब्रह्मपुत्री देवी गमनोधतानामग्रे वजित्वा अभिमुखी समेति ततः अदक्षिणा वामा स्यात्तदा कार्यविनाशनाय भवति सा चेदक्षिणा स्यात्तदादविणाप्तिहेतुःस्यादित्यर्थः॥ द्रविणंधनं तस्य प्राप्तिः तस्या हेतुः कारणम्। 'स्वमुक्थं दविणं धनम्' इति हैमः॥ १६७ ॥ भूत्वेति॥प्रथमं वितारा वामा भूत्वा भक्ष्यं परिगृह्य गृहीत्वा पुनः प्रदक्षिणेनाभ्युपगम्य मनोरमं स्थानकमाश्रयन्ती देवी आपदं हत्वा संपदमादधाति ।। १६८ ॥ निमज्येति ।। यदि शुक्लपक्षा धूल्यां निमज्य 'स्नात्वा यदि वा दुष्टां चेष्टां विधाय तारा प्रयाति तदा विपदं विधाय क्षणेन लक्ष्मीमुपादधाति ॥ १६९ ।। दिक्कालेति ॥ यदि दिकालचेष्टानिनदस्थितीनां पूर्वोक्तानां ॥भाषा ॥ होय तो अवश्य गमनकर्ताकू मृत्यु करै ॥ ११६ ॥ या ब्रह्मपुत्रीति ॥ ब्रह्मपुत्री जो पोदकी गमनकरनेवाले पुरुषके अगाडी जायके फिर पीछे वाके सम्मुख आय फिर वामा होय जाय तो कार्यको नाश करे. और जो दक्षिणभागमें आय जाय तो धनप्राप्ति करावे ॥ १६७ ॥ भूत्वति।। प्रथम वाम होय कर भक्ष्यग्रहण करके फिर दक्षिणभागमें जाय सुंदर स्थानमें जाय बैठे तो आपदा दूर करके संपदा करे ।। १६८॥ निमज्येति ॥ श्वेत जाके पंख ऐसी पोदकी धूलमें स्नान करके बुरी चेष्टाकरके जो दक्षिणमें चली जाय तो आपदा दे करके क्षणमें ही लक्ष्मी प्राप्त करे ॥ १६९ ॥ दिक्कालेति ॥ जो दिशा काल चेष्टा नाद स्थिति ये. पहले कहे हैं, इनमेंसू एकप्रकारकी दीप्ता होय फिर वो दक्षिणभागमें भी होय तो भय करे . Aho! Shrutgyanam Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । शुष्क भनकटुकंट किवृक्षाच्छीर्णपर्णमथवाप्यधिरुह्य | दक्षि णा प्रकुरुते ऽल्पकमर्थ वामगा त्वपरिहार्यमनर्थम् ॥ १७१ ॥ प्रत्यक्षरूपा वरमुद्धृतापि मनोरमं स्थानमधिश्रयंती ॥ न सा प्रशस्तादितरप्रदेशमधिष्ठिता दक्षिणगापि शस्ता ॥ ॥ १७२ ॥ यांती व्रजित्वा यदि वा विरौति व्यावर्तते वा गमनं विधाय ॥ जुगुप्सिते चोपविशेत्प्रदेशे दुर्गा फलं हन्ति गतेस्तदानीम् ॥ १७३ ॥ ॥ टीका ॥ मध्यादेकतरेण एकेन दीप्ता दक्षिणगापि दुर्गा भयंकरी स्यात् । दिक्च कालश्च चेष्टाच निनदश्च स्थितिश्च दिक्कालचेष्टानिनदस्थितयः इतरेतरद्वंद्वः तासाम् । तु पुनः वामगा सामृत्युविधायिनी स्यात् । गंतुरिति शेषः ॥ १७० ॥ शुष्केति ॥ शुष्क भकटुकं वृिक्षान् शुष्काश्च भग्नाश्च कटवश्च कंटका विद्यते येषु ते कंटकिनश्च शुकभम कटुकंटकिनः इतरेतरद्वंद्वः । पश्चात्ते च ते वृक्षाश्चेति कर्मधारयः । तान् अथ वाशीर्णपर्ण पतितपर्णमपि वृक्षमिति शेषः । अधिरुह्य दक्षिणा भवति तदा अल्पकम प्रकुरुते एवंविधा वामगा अपरिहार्य परिहर्तमशक्यमनर्थं कुरुते कचिद्रावखंड प्रस्तरशफलमित्यपि पाठः ॥ १७१ ।। प्रत्यक्षेति ॥ प्रत्यक्षरूपा देवी उद्धृता सती वामापि मनोहरं स्थानमाश्रयंती वरं शुभा स्यात्प्रशस्ताच्छुभप्रदेशादितरप्रदेशं दुष्टप्रदेशमधिष्ठिता दक्षिणगापि शस्ता न ॥ १७२ ॥ यांतीति ॥ यांती गच्छंती व्र ॥ भाषा ॥ और जो याप्रकार दीप्ता वामभाग में आवे तो गमनकर्त्ताकूं मृत्यु करवेवारी जाननी ॥ १७० ॥ शुष्केति ॥ सूखो भग्न हुयो कडुबो कांटेको ऐसे वृक्षपै बैठकरके अथवा पाषाणकोटूक होय वा बैठकरके वामभागतें उड़कर दक्षिणभाग में आय जाय तो अल्प अर्थ करे, और इनपे बैठके वामभागमें आयजाय तो जाके दूर होयत्रेको उपायही नहीं ऐसो अनर्थ करे ॥ १७१ ॥ प्रत्यक्षेति ॥ जो प्रत्यक्ष देवी पोदकी उद्धृता होय अर्थात् दक्षिणभागते उडकरके वामप्रदेशमें आयकर मनोहर स्थानमें स्थित होय तो उत्तम जाननी. फिर वोही पोदकी उत्तमस्थानमेंसूं उड़कर फिर और स्थानपै जाय बैठे तो फिर जेमने माऊंभी होय तोभी श्रेष्ठ नहीं जाननी ॥ १७२ ॥ यांतीति ॥ जो पोदकी चलती चलती शब्द करें अथवा जाय करकै शब्द करे अथवा गमन करके फिर पीछी बगद करके निंदितदेशमें स्था Aho! Shrutgyanam • Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते यात्राप्रकरणम् । ( १५७ ) कृत्वा स्वरं गच्छति कृष्णपक्षी पुनः स्वरं चेदुपविश्य कुर्यात् ॥ गतेः फलं तद्विनिहत्य तुच्छं फलं ददाति प्रथमस्वरस्य ॥ १७४ ॥ प्रदक्षिणा वा यदि वाथ वामा गत्वोपविष्टा स्वफलं ददाति ॥ निवर्तते योपविशेन्न या वा कृत्वा फलं संप्रति हृत्यवश्यम् ॥ १७५ ॥ विधाय शब्द यदि दक्षिणा स्यात्कृत्वा पुनः शब्दमुपैति वामा ॥ पुनः स्वरं चेत्कुरुते तदानीं स्याद्ब्रह्मपुत्री फललाभकत्र ॥ ॥ १७६ ॥ ॥ टीका ॥ जित्वा वा यदि कुमारी विरौति शब्दं कुर्यात् वा अथवा गमनं विधाय व्यावर्तते व्याघुटय समायाति जुगुप्सिते निंदिते प्रदेशे चोपविशेत्तदानीं दुर्गा पूर्वगतेः फलं निति ॥ १७३ ॥ कृत्वेति ॥ कृष्णपक्षी स्वरं शब्दं कृत्वा गच्छति प्रयाति पुनः उपविश्य चेत्स्वरं कुर्यात् तदा गतेः गमनस्य फलं विनिहत्य प्रथमस्वरस्य तुच्छं फलं ददाति ॥ १७४ ॥ प्रदक्षिणेति ॥ देवी प्रदक्षिणा तारा यदि वामा गत्वोपविष्टा सा स्वफलं स्वानुरूपं फलं ददाति तयोर्मध्यात् या निवर्तते अथवा तत्र गत्वा नोपविशेत् सा स्वानुरूपं फलं कृत्वा अवश्यं प्रतिहन्ति ॥ १७५ ॥ विधायेति ॥ विधाय शब्द यदि कुमारी दक्षिणा तारा स्यात् पुनः शब्दं कृत्वा वामा उपैति आगच्छति तत्रागत्य पुनः स्वरं चेत्कुरुते तदानीं तद्ब्रह्मपुत्री देवी फललाभकर्त्री ॥ भाषा ।। • नमें प्रवेश करे तो पूर्वगति के फलकूं दूर करे है ॥ १७३ ॥ कृत्वेति ॥ कृष्णपक्षी जो पोदकी शब्द करके गमन करें फिर बैठकरके जो शब्द करे तो गतिके फलकूं दूर करके पूर्वे क्रियो जो शब्द ताको तुच्छ फल देवे ॥ १७४ ॥ प्रदक्षिणेति ॥ जो प्रदक्षिणा तारा वामा जायकरके बैठ जाय तो अपने योग्य वामको फल देवे. और जो प्रदक्षिणा और वांमा इनके मध्यमेंसूं बगद आवे अथवा प्रदक्षिणामूं वामभागमें जायकै बैठे नहीं तो वो पोदकी प्रदक्षिणाको फल देकरके फिर अवश्य फलकूं नाश करे है ॥ १७५ ॥ विधायेति ॥ शब्द करके जो दक्षिणा होय फिर शब्द करके वामा चली आवे और वाम आय करके Aho! Shrutgyanam Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। भूत्वानुलोमा विदधाति शब्दं श्यामा विलोमा पुनरेव चागे। निर्वाहयेत्सैव यदा तदानीं किंचिचिरात्कार्यमुपैति सिद्धिम् ॥ ॥ १७७॥ दृष्टोपविष्टा प्रथमं सशब्दा तारा ब्रजंती तदनुप्रविष्टा ॥ पुंसामनल्पं फलमल्पकालायच्छत्यभीष्टं विनिहंत्यनिष्टम् ॥ १७८॥ करोति विष्ठां विधुनोति गात्रं शब्दं विधत्ते श्रयति प्रदीप्तम् ॥ तारापि या नश्यति लीयते वा सा स्यादनिष्टैकफलप्रदात्री ॥ १७९॥ कृत्वा शब्दं वामतो मौनिनी वा ऋज्वी तारा ब्रह्मपुत्री भवेद्वा॥आशाचेष्टास्थान शांता नराणामाशापूर्तिः सा करोति क्षणेन ॥ १८० ॥ ॥ टीका ॥ स्यात् ॥ १७६ ॥ भूत्वेति ॥ यद्यनुलोमा तारा भूत्वा श्यामा शब्दं विदधाति पुनः . सा एव विलोमा वामा यदा अग्रे निर्वाहयेत् तदा किंचित्कार्य चिरात् चिरकालेन सिद्धिमुपैति ॥१७७॥ दृष्टा इति ॥ बामभागे प्रथमं सशब्दा उपविष्टा दृष्टा तारा वजंती तदनु कुत्रचित्स्थले उपविष्टा संस्थिता पुंसामनल्पमभीष्टं फलम् अल्पकालादचिरादेव यच्छति अनिष्टमनभीप्सितं निहंति दूरीकरोतीत्यर्थः ॥१७८॥ करोतीति ॥ या तारापि भूत्वा विष्ठां करोति गात्रं शरीरं धुनोति कंपयति शब्दं विधत्ते दीप्तं विचित्रं शब्दं श्रयति नश्यति नष्टा याति कुत्रचिल्लीयते वा लीना भवति सा अनिष्टैकफलदात्री स्यात् ॥ १७९ ॥ कृत्वेति ॥ वामतः शब्दं कृत्वा मौनिनी वा या ब्रह्मपुत्री ऋज्वी तारा भवेत् । कीदृशी आशाचेष्टास्थानशांतेति आशादिक्वेष्टा ॥ भाषा ॥ फिर शब्द करे तो वाई समय ब्रह्मपुत्री फल लाभ करै ॥ १७६ ॥ भत्वति ॥ जो अनुलोमा होय करके शब्द करै, फिर वोही विलोमा होय तो कछुक विलंब करके कार्यकी सिद्धि होय ॥ १७७ . ॥ दृष्टाइति ॥ तारा वामभागमें प्रथमशब्द करती बैठी हुई दीखे फिर उडकरके कई स्थलमें जाय बैठे तो पुरुषनकू वांछित फल शीघ्रही देवे अनिष्ट फल दूर कर है ॥ १७८ ॥ करोतीति ॥ जो पोदकी तारा होय कर विष्ठा कर और देहकू . कंपायमान कर और दीप्त शब्द कर और नाशकू प्राप्त होय .या कहूं लीन होय जाय तो वो एक अनिष्टही फलकी देबेवारी है ॥ १७९ ॥ कृत्वेति ॥ बाँये माऊं शब्द करके मौन भारे हुये जो ऋज्वी तारा होय जाय और दिशा, चेष्टा, स्थान ये शांता होय तो मनुष्य Aho! Shrutgyanam Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते यात्राप्रकरणम् । ( १५९ ) गुणाश्व दोषाश्च यदा विमिश्रा निरूप्यमाणे शकुने भवति ॥ ह्यास्तदा तेष्विह भूरयो ये यान्वा वराही विदधाति पश्चात् ॥ १८१ ॥ भाषितचेष्टितगमनादीनां यः समुदायो भवति बहूनाम् ॥ सोऽधिकमधिकं शुभमाचष्टे बहु पुनरशुभं तत्र विदुष्टे ॥ १८२ ॥ त्वरितं गच्छति यच्छति तूर्ण लाभं पांडविका परिपूर्णम् ॥ किंचित्त्वरिता त्वरितादर्ध मंदगतिः सुचिरेण तदर्धम् ॥ १८३ ॥ ॥ टीका ॥ पूर्वोक्ता शरीरव्यापारः स्थानमुपवेशनस्थलम् एतानि शांतानि यस्याः सा तथा आशा च चेष्टा च स्थानं च आशाचेष्टास्थानानीतरेतरद्वंद्वः । सा देवी नराणामाशापूर्ति क्षणेन करोति ॥ १८० ॥ गुणा इति यदा निरूप्यमाणे शकुने गुणाश्च दोषाश्च विमिश्रा भवति तदा तेषु ये भूरयस्ते इह ग्राह्याः । वा अथवा यान्गुणान्वादोषान्वा बराही देवी पश्चाद्विदधाति ते प्रांतवर्त्तिनों ग्राह्या इत्यर्थः ॥ १८१ ॥ भा षित इति ॥ भाषितचेष्टितगमनादीनां बहूनां शुभानां यः समुदायो भवति सः अ -धिकमधिकं शुभमाचष्टे कथयति । तत्रेति तस्मिन्समुदाये विदुष्टे बहु पुनः अशुभं भवति ॥ १८२ ॥ त्वरितमिति ॥ पांडविका या त्वरितं गच्छति सा परिपूर्ण तूर्ण शीघ्रं लाभं यच्छति ददाति किंचित्वरिता त्वरितात्पूर्वोक्तगमनादर्द्ध फलं ददा-. ति मंदगतिः सुचिरेण तदर्द्ध किंचित्त्वरितगमन फलादर्द्ध फलमित्यर्थः ॥ १८३ ॥ ॥ भाषा ॥ नकी आशापूर्ति क्षणमात्रमें करे ॥ १८० ॥ गुणा इति ॥ जो आरंभ शकुनमें गुणदोष मिलवां होय तो उनमेंसूं जो गुण बहुत होय तो गुणप्रहण करने, जो दोष बहुत होंय तो दोष ग्रहण करने अथवा जो गुण दोषकूं देवी पीछे करे तो अंतके ग्रहण करने ॥ १८१ ॥ भाषित इति ॥ भाषित कहिये शब्द चेष्टा गमन इनकूं आदिले शुभनको समूह बहुतनको होय तो अधिक अधिक शुभ कहनो. और वाही समुदायमें दूषित बहुत होंय तो फिर अशुभ होय ॥ १८२ ॥ त्वरितमिति ॥ जो पोदकी शीघ्र गमन करे तो परिपूर्ण शीघ्र लाभ देवे, और कछूक कछूक शीघ्र गमन करे तो वासू आधो फल देवे. और मंद Aho! Shrutgyanam Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.६० ) वसंतरा जशाकुने - सप्तमो वर्गः । आदौ नतिं दर्शयति प्रयाति समुन्नतिं व्योनि करोति चान्ते ॥ आसन्नमप्याह तदा वराही दूरेऽल्पमूरीकृतमिष्टमर्थम् ॥ ॥ १८४ ॥ उड्डीयमानोन्नतिमादितो या ततो नतिं दर्शयते कुमारी ॥ स्वल्पं चिरं प्राप्यमपीह यत्स्यात्तत्सा प्रयच्छत्यचिरेण भूरि ॥ १८५ ॥ नीचोच्चमध्यैर्गमनैः क्रमेण नीचोच्च मध्यानि फलानि देव्याः ॥ प्रदक्षिणायाः कथयंति याने गृहप्रवेशे पुनरुद्धृतायाः ॥ १८६॥ शिरः कटीजानुसमं . व्रजंती मासायनाब्दैः फलदा क्रमेण ॥ अकल्पिते कालविभाग एवं प्रकल्पिते कल्पित एवं मानः ॥ १८७ ॥ ॥ टीका ॥ आदाविति ॥ आदौ व्योम्नि नतिं दर्शयति परं समुन्नतिं प्रयाति प्रांते च नति करोति तदा वराही देवी ऊरीकृतं स्वीकृतमिष्टमर्थमासन्नमपि दूरे अल्पमाह १८४ ॥ ॥ उड्डीयमानेति ॥ या उड्डीयमाना आदित उन्नतिं दर्शयते ततः कुमारी नति दर्शयते सा इह लोके स्वल्पं चिरं प्राप्यं यत्स्यात्तदचिरेण स्तोककालेन भूरि प्रयच्छति ददाति ॥ १८५ ॥ नीच इति ॥ देव्या नीचोच्चमध्यैर्गमनैः क्रमेण नीचो मध्यानि फलानि स्युः । तत्र प्रदक्षिणायास्तारायाः पूर्वोक्तानि फलानि याने गमने कथयति । उद्धृताया वामायाः पुनः गृहप्रवेशे फलानि प्रतिपादयंतीति तात्पर्यार्थः ॥ १८६ ॥ शिर इति ॥ शिरःकटीजानुसमं व्रजंती कुमारी क्रमेण मासाय ॥ भाषा ॥ आधो फल करे ॥ दाख फिर अंतमें १८३ || आदाविति ॥ प्रनीची दखि तो देवी स्वीकार कार्यकूं दूर और अल्प कहन गति दिखावै फिर नांची गति मंद चले तो बहुत कालमें वा आधेसूं भी थम आकाशमें नीची दीखे फिर ऊंची कियो जो वांछित अर्थ वो निकटमें होनहार होय तोभी वा ॥ १८४ ॥ उड्डीयमानेति ॥ जो प्रथम उडती हुई ऊँची दिखावे तो वो कुमारी अल्प और बहुत कालमें प्राप्त होयबेके योग्य जो वस्तु ताय थोडें कालमें बहुत वस्तु देवे ॥ १८५ नीच इति ॥ पोदकीकी नीची गति मध्यगति ऊंची गति इन तीनों गतिनकरके तीन प्रकारके नीच ऊंच मध्यफल होय हे तामें प्रदक्षिणा ताराके फल पहले कहें हैं गमन समयमें तेही फिर उद्धृताके फलं गृहप्रवेशसमय में प्रतिपादन करें हैं • ॥ १८६ ॥ शिर इति ॥ जो पोदकी शकुनीके मस्तक के समदेशमें होयकर गमन करे तो Aho! Shrutgyanam Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पोदकीरुते यात्राप्रकरणम् । (१६१) लाभो महान्दंडमितप्रदेशे स्यान्मध्यमो दंडयुगप्रमाणे।। त्रिदंडमाने तु भवेज्जघन्यः प्रदक्षिणात्पांथसमूहमातुः॥३८८॥ मासैश्चतुर्भिः प्रथमेऽर्थलाभस्ततो द्वितीये पुनरष्टभिःस्यात्।। वर्षात्तृतीये वसुधाविभागे प्रदक्षिणायां शकुनैकदेव्याम् ॥ ॥ १८९ ॥ आये महत्तोरणभूमिभागे स्वल्पं द्वितीयेऽल्पतरं तृतीये ॥ फलं तु भूमित्रितये प्रभूतं प्रदक्षिणा पांडक्किा ददाति ॥ १९ ॥ ॥ टीका ॥ . नाब्दैः फलदाभवति अकल्पिते कालविभागे एवंमानो ग्राह्यः प्रकल्पिते कालविभागे तु कल्पित एव मानो ग्राह्यः ॥१८७॥ लाभ इति ॥ पांथसमूहमातुः देव्याःदंडमितप्रदेशे प्रदक्षिणान्महाँल्लाभोभवेतादंडयुगप्रमाणे प्रदक्षिणान्मध्यमोलामास्यात्। त्रिदंडमाने प्रदक्षिणानपन्यो लाभः स्यात् ॥ १८८ ॥ मासैरिति । शकुनैकदेव्याः प्रदक्षिणायाः प्रथमे वसुधाविभागे मासैश्चतुर्भिरर्थलाभः स्यात्। द्वितीये भूविभागे अष्टभिर्मासैरर्थलामः स्यात् । तृतीये वसुधाविभागे वर्षाल्लाभः स्यात्॥१८९॥ आद्य इति ॥ आये तोरणभूमिभागे प्रदक्षिणा पांडविका महत्फलं ददाति । द्वितीये स्वल्पफलं ददाति । पुनस्तृतीये अल्पतरं भूमित्रितये प्रभूतं फलं दत्ते॥१९॥ "भाषा।। मासभरमें कल देवै. और कटिभागके समान देशमें होय गमन करें तो छः महीनामें फल देवे. और जानुझी समानदेशमें होयकर गमनकर तो वर्ष दिनमें फल देवे. यामें प्रवृत्ति निवृत्तिकाल विभाग विना या प्रकार फल करे है ॥ १८७ ॥ लाभ इति ॥ पोदकी दंडके प्रमाण देशमें प्रदक्षिणा होय जाप वाते महान् लाभ होय. और जो दोय दंडके प्रमाणमें प्रदक्षिणा हो जाय वाते मध्यम लाभ होय. और तीन दंडके प्रमाण देशमें प्रदक्षिणा होय जाय तो वाते निकृष्ट लाभ होय ॥ १८८ ॥ मासैरिति ॥ शकुनकी देवी पादकी पूर्व कही जो शकुनकी पृथ्वी ताके प्रथमभाग प्रदक्षिणा होय, तो चारमासकरके लाभ होय. और पृथ्वीके दूसरे भागमें प्रदक्षिणा होय तो आठ मास करके अर्थ लाभ होय. और पृथ्वीके तीसरे भागमें प्रदक्षिणा होय तो एकवर्षमें लाभ होय ॥ १८९ ॥ आद्य इति ।। प्रथम जो पृथ्वीको तोरण भाग तामें प्रदक्षिणा होय तो महान् फल देवैः और दूसरे तोरण भागमें प्रदक्षिणा होय तो अल्प फल देवे. और तीसरे तोरण भागमें प्रदक्षिणा होय तो बहुत अल्पफल Aho ! Shrutgyanam Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( . १६२ ) वसंतराजशाकुने- सप्तमो वर्गः । अब्दायनर्तनुत मासपक्षदिनानि यामानथ नाडिका वा ॥ नरस्य भूमेरथवा विभागे प्रकल्पयेत्कालविनिर्णयाय १९१॥ चेष्टानिनादागमनस्थितानामेकेन पादो द्वितयेन चार्द्धम् ॥ फलस्य पादत्रितयं त्रिभिः स्याद्भवेत्समस्तैर्विहितैः समस्तम् || १९२ ॥ चेष्टादिकं नाचरति क्षुधार्त्ताऽग्रहेण गृह्णाति तु भक्ष्यमेव ॥ प्रत्यक्षदेवी यदि किंचिदूनं भवत्यभिप्रेतफलं तदानीम् ॥ १९३ ॥ प्रशस्तचेष्टादिचतुष्टया चेद्रह्णाति भक्ष्यं चटिका तदानीम् ॥ अनंजितामित्रकलत्रनेत्रामेकातपत्रां कुरुते धरित्रीम् ॥ १९४ ॥ ॥ टीका ॥ अब्दायनेति ॥ अथवा पक्षांतरे नरस्य कालविनिर्णयाय भूमेर्विभागे अच्छायनतूनिति अब्दं वर्षम् अयने दक्षिणोत्तरायणे ऋतवः षट् वसंत प्रभृतयः मासपक्षदिनानिप्रसिद्धानि यामाः प्रहराः नाडिकाः घटिकाः प्रकल्पयेत्मकल्पनां कुर्यात् ॥ १९१ ॥ चेष्टेति ॥ चेष्टानिनादागमनस्थितानां चतुर्णा शांतानां मध्यादेकेन पादः चतुर्थीशः फलं स्यात् । समीहितस्येति शेषः । द्वितयेन अर्द्ध फलं स्यात् । त्रिभिः पादत्रितयं पादोनं फलं स्यात् । समस्तैश्चतुर्भिः समस्तं फलं स्यादित्यर्थः ॥ ९९२ ॥ चेष्टादिकमिति ॥ चेद्यदि प्रत्यक्षदेवी क्षुधार्ता पूर्वोक्तं चेष्टादिकं नाचरति तु पुनरर्थे आग्रहेण भक्ष्यमेव गृह्णाति तदा तदानीमभिप्रेतफलं किंचिदूनं भवति ॥ १९३ ॥ प्रशस्तेति ॥ प्रशस्तचेष्टादिचतुष्टयाच्चेच्चटिका भक्ष्यं गृह्णाति तदानीम् एकातपत्रां ॥ भाषा ॥ देवें. और भूमिके तीनों तोरणभागनें पांडविका प्रदक्षिणा दग्नि तो बहुत फल देवै ॥ १९० ॥ अन्दायेति ॥ मनुष्यके कालनिर्णय के अर्थ भूमिभाग में अर्थात् पृथ्वीभाग में वर्ष दक्षिणायन उत्तरायण और छ: ऋतु मास पक्ष दिन घटी इनें कल्पना करे ॥ १९१ ॥ चेष्टेति ॥ चेष्टा नादगमन स्थान ये चारों शांत होंय इनमेंसूं एक होय तो कार्यकोभी एक पाद होय . और जो दोय होय तो कार्य आधो होय और जो तीन होय तो कार्यके तीन पाद होयँ. और जो समस्त चारों होय तो समस्तकार्य फल होय. ॥ ९९२ ॥ चेष्टादिकमिति ॥ जो प्रत्यक्ष देवी भूखी होय, और चेष्टादिक कछू भी न चांछित कार्य कछुक न्यून करै ॥ १९३ ॥ करें, फिर आग्रह करके भक्ष्यग्रहण करे तो प्रशस्तेति ॥ जो चारों चेष्टा करके भय Aho! Shrutgyanam Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते यात्राप्रकरणम्। (१६३) वामं स्वरं दक्षिणतश्च यानं यात्रादिकार्येषु शुभं वदंति॥वा- . मा गतिं दक्षिणतश्च शब्दं ग्रामप्रवेशादिसमीहितेषु ॥१९॥ ॥ गवेषयन्पांडविकां मनुष्यो निरीक्षते तां यदि नो कदाचित् ॥ खगांतरं पश्यति चेत्स पृष्ठं श्यामैव सर्व शकुनं ब्रवीति ॥ १९६॥वामा गतिर्यापि च वामचेष्टा शब्दस्थिती दक्षिणतस्तथा ये ॥ दीप्तं च यत्तानि भयादिकाये शुभानि चान्यानि निषेधकानि ॥ १९७॥ सकंटकोत्पाटितशुष्कभनवृक्षेषु शूले मृतके च संस्था ॥ अंतर्विनिद्रा भयमोहशोकं श्वभ्राश्रयाधः पतनात्मघातान् ॥ १९८॥ ॥टीका ॥ धरित्री कुरुते।कीदृशीम् मनंजितामित्रकलत्रनेत्रामिति अनंजितानि कज्जलशून्यानि अमित्राः शत्रवः तेषां कलत्राणि योषितः तासां नेत्राणि यस्यां सा तथा ॥ १९४ ॥ वाममिति ॥ यात्रादिकार्येषु वामं स्वरं दक्षिणतश्च यानं शुभं वदंति ग्रामप्रवेशादि समीहितेषु वामां गतिं दक्षिणतश्च शब्दं शुभं वदंति ॥ १९५ ॥ गवेषयन्निति ॥ मनुष्यः पांडविकां गवेषयन्यदि कदाचित् न निरीक्षते चेत् खगांतरं पृष्ठे पश्यति तस्य श्यामैव सर्वान् शकुनान् ब्रवीति ॥ १९६ ॥ वामेति ॥ वामा गतिर्यापि च वामचेष्टा ये शब्दस्थिती दक्षिणतः चादन्यद्यत्पुनः दीप्तं तानि भयादौ कार्य शुभानि। अन्यानि अन्यत्र निषेधकानि भवंति ॥ १९७ ॥ सकंटकति सकंटकोत्पाटितशुष्कभमवृक्षेष्विति सकंटकः कंटकाकुलः उत्पाटितःगजादिना शुष्कः स्वभावत: ॥ भाषा ॥ ग्रहण करे तो सर्व वैरीनको नाशकर एकही छत्र जामें ऐसी पृथ्वी करै ॥ १९४ ॥ वाममिति ॥ यात्रादिक कार्यमें पोदकीको वाम शब्द और दक्षिणगति ये शुभ कहैं हैं ग्रामप्रवेशादिकमें वाम गति और दक्षिण शब्द ये शुभ कहैं हैं ॥ १९५ ॥ गवेषयविति ॥ जो मनुष्य पांडविकाकू शकुनके लिये देख रह्यो होय जो कदाचित् नहीं दीखे जो और कोई पक्षी पीठमाऊं दीखे तो ये जाननो श्यामाही सब शकुननकू कहे है ॥ १९६ ॥ वामेति ॥ जो श्यामाकी वामगति और वामचेष्टा होय और दक्षिणमाऊं शब्द और स्थिति होय और जो फिर दीप्ता होय तो ये भयादिककार्यमें तो शुभ हैं. और कार्यमें निषिद्ध हैं ॥ १९७ ॥ सकंटकेति ॥ कांटेको वृक्ष होय वा गजादिक करके उखडो होय शुष्क होय या पवनसं Aho! Shrutgyanam Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। इत्यादिका यद्यपि कृष्णकाया भयाद्यनिष्टं शमयंति चेष्टाः॥ अत्यंतदुष्टत्ववशात्तथापि प्रायेण न स्युः सुखदावसानाः ॥१९९॥ चेष्टानिनादाटनभक्ष्यलाभाः क्रमाद्भवंत्यत्यधिका बलेन ॥ भवेच्चतुभ्यॊ बलवान्स एको या ब्रह्मपुत्री विदधाति पश्चात् ॥२०॥ क्षेत्रे ग्रामो ग्रामधाने पुरी स्यात्पुया सत्यां मण्डलं मंडले तु ॥ उर्वी सर्वामुर्विमत्रातिमात्रो यो लाभस्तद्राज्यमित्यामनंति ॥२०१॥ ॥ टीका ॥ . भनो वाय्वादिना एवंविधेषु वृशेषु पादपेषु स्थिता तथा शूलं शूलिकायां मृतके पतितकरंकादौ स्थिता अंतर्विनिद्रेति पूर्णितेक्षणा भयमोहशोकश्वभ्राश्रयेतिभयं प्रसिद्ध मोहशोको प्रतीतो यस्यां सा अर्शआदित्वादच् । श्वभ्रमवदं स एव आश्रयो यस्याः सातथा पश्चात्कर्मधारयः। अधःपतनमात्मघातान्करोतीतिशेषः॥१९८॥ इत्यादि. केति ॥ यद्यपि कृष्णिकायाःइत्यादिकाश्चेष्टाःभयाद्यनिष्टं शमयंति तथाप्यत्यंतदंष्टत्ववशात्मायेण सुखदावसानाःनस्युरत एव न गृहीताः॥ १९९ ॥ चेष्टेति ॥ चे. ष्टानिनादाटनभक्ष्यलाभाबलेन अधिकाःक्रमाद्भवति। एभ्यःचतुर्व्यः स एक बलवाभवेयं ब्रह्मपुत्री देवी पश्चाद्विदधाति ॥२००॥ क्षेत्र इति । एवमत्रातिमात्रो यो यो लाभः तदाज्यमामनंति तदेव दर्शयति क्षेत्र इति क्षेत्रे सति प्रामप्राप्तिः ग्रामधाने सति पुरी प्राभिः पुर्या सत्यां मंडलं देशप्राप्तिः मंडले सति कियत्युस् तस्या भाषा॥ भग्न होयगयो होय ऐसे ऐसे वृक्षनपे बैठी होय तैसेही शूलीपे बैठी होय वा नुरदा मरे हुवै पै बैठी होय निद्रामें घूर्णितनेत्र होय रहे होय भय मोह शोफवान् होय नोचे गढेलेमें बैठी होय अधः पतन करती होय और आत्मघात कर रही होय ॥ १९८ ॥ इत्यादिकति ॥ कृष्णिकाकी ये चेष्टा भयादिक अनिष्टनकू शांत कर है पर तो भी अत्यंत दुष्टभावनके वशन आये सूं अधिक करके अंतमें सुखकी देवेवारी नहीं है या ऐसी शकुनमें नहीं ग्रहण करनी ॥ १९९ ॥ चेष्टेति ॥ चेष्टाशब्द गमन भक्ष्य लाभ ये बलकरके अधिक होय तो ब्रह्मपुत्री जो पोदकी वा पुरुषकू इकलेकूही बलवान् कर दे ॥ २०० ॥ क्षेत्रइति ॥ जो क्षेत्राधीश होय वाकू त्रामप्राप्ति होनो. प्रामाधीश होय वाक पुरी प्राप्ति होनो. और पुरीके अधिष्ठाताकू देशप्राप्ति होनो और जो मंडल नामदेशके अधिष्ठाताकू कछुक पृथ्वी प्राप्ति Aho! Shrutgyanam Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते हंसचार प्रकरणम् । (१६५) पुंपक्षिणश्चेष्टितया न शब्दाः पुंसां विशेषात्फलदाभवंतिस्त्रिीपक्षिणी चेष्टितयान शब्दाःस्त्रीणांविशेषात्फलदा भवन्ति२०२॥ इति पोदकीरुते यात्राप्रवेशादिप्रकरणं सप्तमम् ॥७॥ एकत्र सार्थे व्रजतांबहूनांतुल्येऽपि जाते शकुने फलानि ॥ नानाप्रकाराणि भवंति येन तं हंसचारं प्रविचारयामः॥२०३॥ तारावहंत्यां विधुनाडिकायां क्षेमंकरी वामगतार्कनाड्याम् ॥ प्राणे प्रपूर्णे फलदानुलोमा वामापि रिक्त रहिता फलेना॥२०॥ ॥टीका ॥ सत्यां सर्वोवामिति॥२०१॥ पुमिति॥ पुंपक्षिणः चेष्टितया न शब्दाः विशेषात्पुंसां फलदाः भवति । स्त्रीपक्षिणी चेष्टितया न शब्दा विशेषास्त्रीणां फलदा भवंति॥२॥ इति शत्रुजयकरमोचनादिसुकृतकारिभिः महोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचितायां वसंतराजटीकायां पोदकीरुते यात्राप्रवेशादिप्रकरणं सप्तमं समाप्तम्॥४॥ एकत्रेति ॥ तमिति तं हंसचारं वयं प्रविचारयामः विचारगोचरीकुर्मः । येन तुल्येपिजाते शकुने नानाप्रकाराणि फलानि भवंति । केषाम् जनानां किं कुर्वतां बजतां कस्मिन् एकत्र साथै ॥२०३ ॥ तारेति ॥ विधुनाडिकायां चंद्रनाडिकायां वहंत्यां वायुना परिपूर्णायां तारा क्षेमंकरी भवति । अर्कनाड्या दक्षिणनाडयां वहंत्यां वामाक्षेमंकरी भवति । पूणे घ्राणे अनुलोमा फलदा भवति। रिक्ते वामा फ ॥ भाषा॥ हानो. और पृथ्वीपतिकू समग्र पृथ्वी मिलनो याप्रकार अत्यंत लाभ जो जो होय ताही राज्य कहै हैं ॥ २०१ ॥ पुमिति ॥ पुरुषपक्षीकी चेष्टा गमन शब्द विशेषकरके पुरुषन कालके देवेवारे होयहैं. और स्त्रीपक्षीकी चेष्टा गमन शब्द ये स्त्रीनकू फलके देबेवारे होय हैं।।२०२॥ इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचितायां संतराजशाकुने भाषा कायां पोदकारुते यात्राप्रवेशादिप्रकरणं सप्तम समाप्तम् ॥ ७ ॥ एकत्रेति ॥ जो तीर्थयात्राकू सो पचासमनुष्यनको संग जाय ताको नाम सार्थ है बहुतसे मनुष्यनको एकसार्थमें शकुन सबनकू बराबर होय हैं. फिर जाकरके नानाप्रकारके फल होयहैं वो हंसचार ताय हम विचारकरें हैं । २०३ ॥ तारेति ॥. चंद्रनाडी. बहती Aho! Shrutgyanam Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । शशांकना ड्यामथवार्क नाडयामतः समीरे प्रविशत्युशंति ॥ यशः समृद्धिं कुशलं जयं च निर्गच्छति स्यात्फलवैपरीत्यम् ॥ २०५ ॥ ऐंदवी वहतिं नाडिका यदा स्वेच्छया प्रविशति प्रभंजनः ॥ पोदकी व्रजति दक्षिणा यदा स्यात्तदा सकलमीप्सितं फलम् ॥ २०६ ॥ नाडिका वहति तापिनी यदा निस्सरत्युदरतः समीरणः ॥ अप्रदक्षिणगतिर्धनुर्धरी स्यादनिष्टफलमक्षयं तदा ॥ २०७ ॥ ॥ टीका ॥ लेन रहिता स्यात् ॥ २०४ ॥ शशांकेति ॥ शशांकनाड्यामश्रवा अर्कनाड्यां अंतः समीरे वायौ प्रविशति सति पुंसः यशः कीर्ति समृद्धिं संपदं कुशलं श्रेयः जयं प्रतीतं मुशंति कथयंति वायोर्निर्गच्छतः सतः पुनः वैपरीत्यं कथयति ॥ २०५ ॥ ऐंदवीति यदा नाडिका ऐंदवी चांद्री वहति प्रभंजने वायौ स्वेच्छया प्रविशति सति अंतरितिशेषः । पोदकी देवी दक्षिणा व्रजति तदा ईप्सितं सकलं फलं स्यात् ॥ २०६ ॥ ॥ नाडिकेति ॥ यदा तापिनी दक्षिणा नाडिका वहति तथोदरतः समीरणे निःसरति सति अप्रदक्षिणा गतिः वामा धनुर्धरी देवी भवति तदा अक्षयं फलमनिष्टं ॥ भाषा ॥ होय और वायुकरके पूर्ण होय तो दक्षिणतारा कल्याणकी करवेवारी है, और सूर्यनाडी चलरही होय तो वाम तारा कल्याणकी करबेवारी होय. और दोनों स्वर चलरहे होंय तो अनुलोमा फलकी देबेवारी होय. दोनों स्वर खाली होय तो बामा तारा फलकरके रहित होय ॥ ॥ २०४ ॥ शशांकेति ॥ और चंद्रनाडी में वा सूर्यनाडीमें भीतर वायु प्रवेशकरे और दक्षिण तारा होय तो पुरुषनकूं यश, कीर्ति, समृद्धि, संपदा, कुशल, श्रेय, जय होय और जो पवन निकसतो होय तो विपरीत फल कहनो ॥ २०५ ॥ ऐंदवीति ॥ जो चंद्रनाडी बह 1 रही होय और पवन स्वेच्छा करके प्रवेश करे फल संपूर्ण होय ॥ २०६ ॥ नाडिकेति पवन निकलतो होय और धनुर्धरी वामभागमें भीतर और पोदकी दक्षिणा होय तो वांछितजो दक्षिणनाडी वहती होय तैसेही उदरमेंसूं होय तो अक्षय अनिष्ट होय ॥ २०७ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते हंसचार प्रकरणम् । ( १६७ ) मारुते विशति दक्षिणनाडीं दक्षिणा यदि गतिर्भगवत्याः ॥ अल्पकं तदुदितं शुभमस्य व्यत्ययादशुभमल्पमुशंति २०८ निःसरत्युदरतो यदीडया मारुतो भगवती च दक्षिणा || यात्यभीप्सितफलं भवेत्तदा व्यत्ययात्पुनरशोभनं तथा ॥ ॥ २०९ ॥ प्रयाति वामा पवनोऽप्यकस्मादभ्यंतरं सोमपथेन याति ॥ तत्रापि जाप्यं नियमेन भद्रं व्यत्यासतो जाप्यमभद्रमाहुः ॥ २१० ॥ तारा यांती सोमनाड्यां वहत्यां शस्ता श्यामा शोभने कार्यभागे || संत्रासादौ शस्यते वैपरीत्यात्संमिश्रत्वे स्यात्फलं मिश्रमेव || २११ ॥ ॥ टीका ॥ भवति ॥ २०७ ॥ मारुतेति || दक्षिणनाडीं मारुते विशति सति यदि भगवत्या दक्षिणा गतिर्भवति तदा फलं अल्पकमुदितं व्यत्ययात्पुनः अशुभं अल्पमुशंति क थयंति ॥ २०८ ॥ निःसरतीति ॥ इडया इति इडया वामनाड्या उदरतः मारुते निःसरति सति भगवती च दक्षिणा याति तदा अभीप्सितफलं भवेत् । व्यत्ययात्पुनः अशोभनं भवेत् ॥ २०९ ॥ प्रयातीति ॥ यदा देवी वामा प्रयाति सोमपथेनाकस्मात्पवनोऽपि अभ्यंतरं याति तत्रापि जाप्यं नियमेन भद्रं भवति तत्र जाप्यं नाम जापेन परावर्तयितुं शक्यं व्यत्यासतः अभद्रं जाप्यमाहुः || २१० ॥ तारेति ॥ सोमनाड्यां वहत्यां तारा यांती शोभने कार्यभागे शस्ता संत्रासादौ भयादौ वैप ॥ भाषा ॥ मारुतेति ॥ पवन जेमनी नाडीमें प्रवेश करतो होय और जो भगवती पोदकीकी दक्षिण गती होय तो फल अल्प होय ये पूर्व को जो विपरीतहुये ते अशुभ फल कहैं हैं ॥ २०८ ॥ निःसरतीति ॥ वामनाडी करके उदरमेंसूं पवननिकसे और पोदकी दक्षिणा होय तो वांछितफल प्राप्त होय, और जो ये विपरीत होय तो अशुभफल करे ॥ २०९ ॥ प्रयातीति ॥ जो देवी वामा होय और वाही समय अकस्मात् चंद्रनाडीकरके पवनभी भीतर जाय तो पीडा होय. जपादिक करेसूं कोई काम वा पीडा निवृत्तकरो चाहे तो होय . और जो विपरीत होय तो जपादिककरके भी शुभ नहीं होय, अशुभ होय ॥ २१० ॥ तारेति ॥ चंद्रनाडी वही समय बायेंसूं जो श्यामा जेमने भाग में आयजाय तो शुभ कार्यमें तो योग्य है. और भयादिककार्य में विपरीत होय तो योग्य है. और मिश्रित होय तो मिश्रितही फल होय ॥ २११ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । तेनैकस्मिन्सर्वजाते निमित्ते यादृग्येषां प्राणचारोऽभ्युदेति ॥ तादृक्तेषां स्यात्फलं मानवानां नैकाकारो हंसचारस्तथा हि || ॥२१२॥ कस्यापीडा कस्यचिद्भानुनाडी कस्याप्येते नाडिके द्वे वते ॥ कस्याप्यंतयति कस्यापि बाह्यं घोणायंत्रप्रेरितो मातरिश्वा ||२१३ || श्यामाचारे हंसचारेण साकं यस्याभ्यासो वेच्यसौ कर्मपाकम् | जानात्येकं यो द्वयस्यास्य मध्यातस्मिन्नास्ते शाकुनज्ञानसंपत् ॥ २१४ ॥ इंति पोदकीरुते हंसचारप्रकरणमष्टमम् ॥ ८ ॥ ॥ टीका ॥ रीत्यं शस्यते मिश्रत्वे फलं मिश्रमेव स्यात् ॥ २११ ॥ तेनेति ॥ तेन कारणेन एकस्मिन्नेव निमित्ते जाते यादृङ्मानवानां प्राणसंचारः अभ्युदेति तेषां मानवानां तादृक्फलं स्यात् । यस्मात्कारणात् हंसचारो नैकाकारोऽस्ति तथाहीति तदेव दर्शयति ॥ २१२ ॥ कस्यापीति ॥ कस्यापि इडा वहति कस्यचिद्भानुनाडी वहति कस्याये द्वे वहेते घोणायंत्रप्रेरितो नासिकाप्रेरितः मातरिश्वा कस्याप्यंतर्याति कस्यापि बाह्यम् ॥ २९३ ॥ श्यामेति ॥ हंसचारेण साकं श्यामाचारे यस्याभ्यासो वर्तते असौ कर्मपाकं वेत्ति अस्य द्वयस्य मध्याद्य एकं वेत्ति तस्मिन् शाकुनज्ञानसंपदास्ते तिष्ठतीत्यर्थः ॥ २१४ ॥ इति शत्रुंजयकरमोचनादिसुकृतकारिभिर्महोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विचितायां वसंतराजटीकार्या पोदकीरुते हंसचारप्रकरणमष्टमम् ॥ ८ ॥ ॥ भाषा ॥ तेनेति ॥ एककार्य में मनुष्यनको प्राण वायु जैसो जैसो चलतो होय तैसोही फल होय जासूं ये प्राणवायु सबनको एकसो नहीं चलै है ॥ ११२ ॥ कस्यापीति ॥ काऊपुरुषकी चंद्रनाडी वह है काऊकी सूर्यनाडी चलैहै काऊकी दोनों नाडी चलें हैं नासिकायंत्रकरके प्रेरोहुयो पवन काऊपुरुष के भीतर प्रवेशकर है काऊके बाहर निकसे है यह श्वास सबनको एकसोनहीं चलैहै ॥ २१३ ॥ श्यामेति ॥ हंसचार जो इडा पिंगलाको चलनो या करके सहित जो श्यामा चारमें जाको अभ्यास होय वो कर्मपाककूं जाने है और जो पुरुष इन दोनोंनमेंस एकहीकूं जानतो होय तो वो पुरुष शाकुनमें यथार्थपूर्ण नहीं होय ॥ २१४ ॥ ॥ इति श्रीवसंतराज भाषाटीकायां पोदकरुिते हंसचारप्रकरणमष्टमम् ॥ ८ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोंदकीरुते राज्याभिषेकप्रकरणम् । : (१६९ ) स्यान्मर्यादा नैव वर्णाश्रमाणां मात्स्यो न्यायश्चापलादुःखदायी ॥ राज्ञो भावात्तेन राज्याभिषेकं सम्यग् मो ब्रह्मपुत्रीरुतेऽस्मिन् ॥ २१५ ॥ वामस्वरा दक्षिणगा सुचेष्टा स्थानं दिशं च श्रयति प्रशांतम् ॥ यस्याभिषेके शकुनैकदेवी स सार्वभौमो भवतीह भूपः ॥ २१६ ॥ निवर्तमानस्य च तोरणांताद्वामं व्रजेद्दक्षिणनिःस्वना चेत् || दिग्भागचेष्टास्थितिशांतरूपं चिरं स्थिरं तद्भवतीह राज्यम् ॥ २१७ ॥ ॥ टीका ॥ स्यादिति ॥ राज्ञोऽभावे वर्णाश्रमाणां मर्यादा न भवति । तत्र वर्णाः ब्राह्मण क्षत्रियवैश्यशूद्राः चत्वार आश्रमाः ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुरिति क्रमात्तेषां मर्यादा स्वस्वानुष्ठान विधिर्न भवति । तथा मात्स्यो न्यायः मत्स्यगलांगुलिइति लोके प्रसिद्धः आपतेत् न्यायकर्तुरभावेन दुर्नीतिपथप्रवृत्तेः न्यायः कीदृग्दुःखदायी प्रांते दुःखप्रद इत्यर्थः । राज्ञो लाभे तन्न स्यात् तेन कारणेन ब्रह्मपुत्रीरुते सम्यग्राज्याभिषेकं ब्रूमः ॥ २१५ ॥ वामेति ॥ यस्याभिषेके शकुनैकदेवी वामस्वरा सती दक्षिणगा भवति कीदृशी सुचेष्टा शुभचेष्टा । पुनः प्रशांतं स्थानं दिशं च श्रयति स भूपः सार्वभौमो भवति ॥ २१६ ॥ निवर्तमानस्येति ॥ यदा तोरणांतानिवर्तमा नस्य दक्षिणविना चेद्वामं व्रजेत् । वामं कीदृशं दिग्भागचेष्टास्थितिशांतरूपमिति ।। भाषा ॥ स्पादिति ॥ जो राजा राज्यमें नहीं होय तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये चारों वर्ण और ब्रह्मचारी, गृहस्थी, वानप्रस्थ, संन्यास ये चारों आश्रम और इनकी मर्यादा नष्ट होय जाय न्याय कर्ता नहीं होय तब दुर्नीतिके न्याय दुःख के देबेवारे होय. ताकारणकर पोदकीके शब्द में राज्याभिषेक हम कहें हैं ॥ २१५ ॥ वामेति ॥ जा राजाके अभिषेक शकुनकी एकही देवी जो पोदकी सो वामभागमें शब्दकर दक्षिणभागमें आय जाय और शुभचेष्टा करे शांतस्थानमें वा शांतदिशामें स्थितहोय तो वो राजा चक्रवर्ती होय ॥ २१६ ॥ निवर्तमा नस्येति ॥ जो शकुन देखबेवालो तोरणके अंतमेंसूं बगदके आवे तब चाके पोदकी जेमने भागमें शब्दकरे फिर वामभागमें आय शांतदिशा में वा शांत चेष्टाकरै वा शांतस्थानमें स्थित Aho! Shrutgyanam Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७०) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। राज्ञो राज्यं कुर्वतः कृष्णिकाया एताश्चेष्टाः सौख्यदा दुःखदास्तु॥ स्युर्व्यत्यासान्मिश्रभावात्तु तासां मिश्रीभूते सौ ख्यदुःखे भवेताम् ॥ २१८ ॥ श्यामानुलोमा यदि तोरणांते वामा च तारा न तथा निवृत्तौ ॥ ददाति राज्यं सुचिरं तदानीं युद्धान्वितं सापि च युध्यमाना ॥ ॥२१९ ॥ वामा न तारा न च तोरणांते निवृत्तिकाले यदि चोद्धृता तत् ॥ स्याद्राज्यमन्यावनिपालमौलिमालारजोभूषितपादपीठम् ॥ २२० ॥ ॥ टीका ॥ दिक्चेष्टास्थितिभिः शांतं तदा इह लोके तदाज्यं स्थिरं भवति ॥२१७॥ राज्ञो राज्यमिति ॥ राज्यं कुर्वतः राज्ञः एताः श्रेष्ठाः चेष्टाः सौख्यदाः स्युः । तु पुनः आसां व्यत्यासादुःखदाः स्युः। तथा तासां मिश्रभावातु मिश्रीभूते सौख्यदुःखे भवे. ताम् ॥ २१८ ॥ श्यामेति ॥ यदि तोरणांते अनुलोमा तारा भवति तथा निवृत्ती वामा न तारा तदानी राज्यं सुचिरं भवति । अपि च सा युध्यमाना चेद्युद्धान्वितं राज्यं यच्छति ॥ २१९ ॥ वामेति ॥ तोरणांते तोरणसंबंधिनी वामा न च तारापिन तथा निवृत्तिकाले चेदुद्धता स्यात्तदा राज्यं भवेत् । कीदृग् अन्यावनिपालमौलिमालारजोभ्यर्चितपादपीठमिति अन्येवनिपालाः राजानः तेषां मौलयः शिरांसि तेषां मालाः सजः तासां रजांसि परागाः तैरभ्यर्चितं पूजितं पादपीठं यत्र ॥ भाषा। होय तो वा राजाको राज्य चिरकाल तांई स्थिर होय ॥ २१७ ॥ राज्ञो राज्यामिति ॥ राज्यकरबेवाले राजाकू ये कही हुई चेष्टा सुखकी देबेवाली है इनते विपरीत चेष्टा होय तो दुःखकी देबेवाली. होय और जो ये चेष्टा मिलवां होय तो सुखदुःख दोनों होय ॥ ॥ २१८ ॥ श्यामति ।। जो तोरणके अंतमें अनुलोमा तारा होय और तहांसू निवृत्त होती समय. वामा भी न होय और ताराभी न होय तो चिरकालपर्यंत राज्य होय. और जो पादको युद्ध करती दीखै तो युद्धसहितराज्यदेवै ॥ २१९ ॥ वामेति ॥ तोरणांतमें वामा भी नै होय और तारा भी न होय और निवृत्तिकालमें जो उद्धृता तारा होय तो पृथ्वीपति राज Aho ! Shrutgyanam Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते संधिविग्रहजयादिप्रकरणम्। (१७१ ) स्यात्तोरणांते प्रतिलोमगा चेत्तारा यदिस्यादथवा निवृत्तौ।सतांगसंवृद्धसमृद्धराज्यमाज्यं यथानौ प्रविलीयते तत्॥२२१॥ राज्यं चिकीर्षोंर्यदितोरणांते प्रदक्षिणं याति खगोऽन्यजातिः।। विश्वंभरायामुररीकृतायां तदाधिपत्यं लभते नृपोऽन्यः२२२॥ इति पोदकीरते राज्याभिषेकप्रकरणं नवमम् ॥ ९॥ संधिविग्रहसपत्नसंगमात्सांप्रतंजयपराजयौ तथा॥बमहे शुभपथप्रवर्तिनां भूभृतां शकुननीतिवर्तिनाम् ॥ २२३ ॥ ॥ टीका ॥ . तत्तथा ॥२२०॥ स्वादिति ॥ सप्तांगैःस्वामिजनपदामात्यकोशदुर्गबलमुहृद्भिः संवृद्धं वृद्धि प्राप्त समृद्धमृद्धिमदाज्यं तत्तोरणांते प्रतिलोमगा चेत्स्यात् । अथवा निवृत्तौ यदि तारा स्यात्तदा विलीयते समागतमपि विलयं यातीत्यर्थः किमिव आज्यं यथा अग्नौ प्रविलीयते ॥ २२१ ॥ राज्यमिति ॥ यदि राज्यं चिकीर्षोः तोरणांतेऽन्यजातिः खगः प्रदक्षिणं याति तदा विश्वंभरायामुररीकृतायां अन्यो नृपः आधिपत्यं लभते ॥ २२२॥ इति शत्रुजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रविरचितायां वसंतराजटीकायां पोदकीरुते राज्याभिषेकप्रकरणं नवमम् ॥ ९॥ संधीति ॥ शुभपथप्रवत्तिनां भूभुजां संधिविग्रहसपत्नसंगमात तथा जयपराजयौ ॥ भाषा॥ मस्तकनकू नमाय नमाय जाके सिंहासनकू नमस्कार करें ऐसो राज्य होय ॥ २२० ॥ स्यादिति ॥ जो तोरणांतमें प्रतिलोमा होय. अथवा निवृत्ति समयमें जो तारा होय तो स्वामी १ जनपद २ अमात्य ३ कोश ४ दुर्ग ५ बल ६ सुहृद ७ ये राज्यके सातों अंगनकरके वृद्धिकू प्राप्त होय रह्यो और ऋद्धिवान् ऐसोभी राज्यनाशकू प्राप्त होय कौन किसीनाई. जैसे अग्निमें घृत लीन होय जाय तैसेही राज्य लीन होय जाय ॥ २२१ ॥ राज्यमिति ॥ राज्यकरो चाहे ताके जो तोरणांतमें और जातिको पक्षी प्राप्त होय, और, तारा कहूं चलीगई होय नहीं दीखै तो और राजा अधिपति होय ॥ २२२ ॥ इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छीधरविरचितायांवसंतराजभाषा टीकायांपोदकीरुते राज्याभिषेकप्रकरणं नवमंम् समाप्तम् ॥ ९॥ संधीति ॥ शुभमार्गमें प्रवर्त हाय रहे और शकुनमार्गमें वर्त रहे ऐसे राजानको मि Aho ! Shrutgyanam Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। वामस्वरो दक्षिणगः सुचेष्टो यः खेशयस्तेन समं मिलंति ॥ उत्कंठिता यद्यपरे विहंगाः संधानमिच्छंति तदा द्विषतः॥ ॥२२४ ॥ वियुज्य ते यांति समागतं चेदुर्गायुगं तद्विघटेत संधिः॥ संगच्छते चेत्पृथगाश्रितं सत्संधिं चिकीर्षन्त्यरयस्तदानीम् ॥ २२५ ॥ खगेन वामां दिशमाश्रितेन सार्ध खगो दक्षिणतोऽभ्युपेत्य ॥ संगच्छतेऽन्यो यदि सौहृदेन संधि विधातुं तदुपैति दूतः॥२२६॥ अवामशब्दा प्रतिकूलयाना कलिं तथान्येन समं करोति ॥ निषेवते दीप्तमनाप्तकल्पा या पोदकी विग्रहमाह सेह ॥२२७॥ ॥ टीका । भूमहे । कीदृशां शकुननीतिवर्तिनामिति शकुनानां या नीतिः मार्गः तत्र वर्तिनां शकुनमार्गानुगामिनामित्यर्थः ॥२२३॥ वाम इति ॥ वामस्वरो दक्षिणगः मुचेष्टो यः खेशयो वर्तते तेन समं उत्कंठिता यद्यपरे विहंगा मिलंति तदा द्विषतः संधातुमिच्छति ॥ २२४ ॥ वियुज्यत इति ॥ यदि ते पक्षिणः वियुज्य यांति चेदुगायुगं समागतं वियुज्यते तत्संधिः विघटेत चेत्पृथगास्थितं दुर्गायुगं सत्संगच्छते तदानीं अरयः संधि चिकीर्षति ॥ २२५ ॥ खगेनेति ॥ वामा दिर्श आश्रितेन खगेन सार्ध दक्षिणतः खगः अभ्युपेत्य यदि सौहृदन सुहृद्भावेनान्यः संगच्छते तदा संधि विधातुं दूत उपैति आगच्छति ॥ २२६ ॥ अवामेति ॥ अवामशब्दा प्रतिकूलयाना अन्येन समं कलिं करोति । तथा अनाप्तकल्पा अनाप्तभोजना दीप्तं स्थानं ॥ भाषा ॥ लाप विग्रह वैरिनके संगमते भय और जयपराजय ये अब कहै हैं ॥ २२३ ॥ वामेति ॥ चाममें स्वरकरके दक्षिणमाऊं आय जाय सुंदर चेष्टा करे और आकाशमें स्थित होय फिर और पक्षी उत्कंठावान् होय आकाशमें पोदकी करके सहित मिलतो वैरी अपने मिलापकी इच्छा करै है ऐसो जाननो ॥ २२४ ॥ वियुज्य इति ॥ जो वेही पक्षी पोदकीको जोडा आयेकू वियोगकरके चले जाय तो संधिहोय. और जो पोदकीको जोडा न्यारो होयके स्थितहोय सब मिलजाय तो ये जाननो वैरी मिलापको इच्छा करैहै ॥ २२५ ॥ खगेनेति ॥ बाईदिशामें स्थितपक्षी होय वाकू संगलेकर दक्षिणदिशामें पक्षी प्राप्त होय और जो स्नेहकरके और पक्षी आयमिलें तो जाननो मिलाप करवेकू दूत आवैहै ॥ २२६ ॥ अवामेति ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते संधिविग्रहजयादिप्रकरणम्। (१७३) उत्पन्नसंधी रिपुणा समानं समागमं दक्षिणया विदध्यात् ॥ करोति राज्यं प्रतिकूलगा चेद्भवेद्भवं तत्प्रतिकूलमेव ॥ ॥ २२८ ॥ आशंकमानस्य समं द्विषद्भिः समागमं दक्षिणया भवेत्सः ॥ वामं व्रजेत्याः नियतं द्विपंतः समागमाहुःख्यति राजकीयात् ॥ २२९ ॥ तारातिघोरं समरं विधत्ते वामा तु तस्य प्रतिषेधनाय ॥ वामस्वरा दक्षिणतः प्रयाति या पोदकी सा महते रणाय ॥ २३० ॥ यांती प्रदीप्तं श्रयतीह तारा कुर्वति युद्धं यदि वा विहंगाः ॥ तत्स्याच्छिवाफेत्कृततालबन्धनृत्यत्कबन्धः समरोतिघोरः ॥ २३१॥ ॥टीका ॥ निषेवते तदा विग्रहमाह ॥ २२७ ॥ उत्पनेति ॥उत्पन्नः संधिर्यस्याः सा तथा एवं विधा इह सा पोदकी दक्षिणया गत्या रिपुणा समानं समागमं विदध्याव-मतिकूलगा चेत्तदा राजा तत्मतिकूलमेव करोति ॥ २२८ ॥ आशंकमान इति ॥ द्विषद्भिःसमंसमागमम् आशंकमानस्य दक्षिणया समागमोभवेत्पुनः वामं व्रजेत्या तया राजकीयात्समागमाविषंतः दुःख्यति दुःखं प्रामोतीत्यर्थः ॥२२९ ॥ तारेति ॥ तारा अतिधोरं समरं विधत्ते । वामा तु तस्य प्रतिषेधनाय भवति या पोदकी वामस्वरा नकचन प्रयाति तत्रैव स्थिति विधत्ते सा पोदकी महते रणाय भवति ॥ २३०॥ ॥ यांतीति ॥ यदि तारा यांती दीप्तं स्थानं श्रयति यदि वा विहंगाः युद्धं कुर्वन्ति ॥ भाषा॥ वायों शब्द कियो नहीं एढीटेढी चलरही होय और पक्षी करके कलह कररही होय भोजन जाळू प्राप्त नहीं हुयो होय, दीप्तस्थानकू सेवन करती होय तो विप्रह करावे ॥ २२७ ॥ उत्पनेति॥ पूर्व कलह करती होय, फिरसंधी जाके होय गई होय, ऐसी पोदकी दक्षिणमाऊं बैरीनकरके सहित समागमकर तो राज्यकरे. प्रतिकूलगनन करती होय तो राजाके राज्या. प्रतिकूल करै ॥ २२८ । आशंकमान इति ॥ वैनिकरके सहित समागम कियो चाहे ताकू दक्षिण तारा होयतो समागम होय फेर बाई गमन करती होय ता करके राजानके समागमतें दुःख होय ॥ २२९ ॥ तारेति ॥ और जो पोदकी ताराहोय तो अतिधोरसंग्रामकरै, और जो वामा होय तो संग्रामके निषेधके अर्थ होय जो पोदको वाममाऊं स्वस्करके फिर दक्षिण माऊते बोई मांऊ जायकर शब्द करतो महान् संग्राम करावे ॥ २३० ॥ श्रयंतीति ॥ जो तारा गमनकरत दीप्तस्थानमें बैठ जाय और जो पक्षीहैं ते युद्ध करतेहाय तौ. श्यारिया Aho! Shrutgyanam Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । वामे बाह्यं दक्षिणे आंतरं स्वपुच्छोत्पाटे पोदकी हंति से - न्यम् ॥ चंच्या सर्व चर्वयंती स्वमंगं वक्ति श्यामा स्वामिनो गात्रभंगम् ॥ २३२ ॥ युद्धप्रश् नोद्धृता नापि तारा स्याव्यावृत्तौ वामगा पांडवी चेत् ॥ मूर्ध्ना सार्धं श्रीजयश्रीपणं तत्प्राणद्यूतं स्यादवश्यं भटानाम् ॥ १३३ ॥ प्रयाति तारा यदि तोरणांते निवृत्तिकाले प्रतिलोमगा चेत् ॥ तद्धांक्षवैतालशृगालमृधरक्षःक्षुधार्त्तिक्षपणं रणं स्यात् ॥ २३४ ॥ ॥ टीका ॥ तदा समरः अतिघोरः स्यात् । कीदृग् शिवाफेत्कृततालबंधनृत्यत्कबंध इति शिवाफेत्कृतमेव ' तालबंधः हस्तास्फोटः तेन नृत्यंतः कबंधा यत्र स तथा ॥ २३९ ॥ वामइति ॥ वामे स्वपुच्छोत्पाटे पोदकी बाह्यं सैन्यं इति । दक्षिणे स्वपुच्छोत्पाटे आंतरस्थां हंति । चंच्वा स्वमंगं चर्वयंती पोदकी युद्धे स्वामिनो गात्रभंगं वक्ति ॥ २३२ ॥ युद्धेति ॥ चेद्यदि युद्धप्रश्ने सति उद्धृता न स्यात् तारा अपि न स्यात् व्यावृत्तौ वामगा पांडवी स्यात्तदा मूर्ध्ना सार्द्ध श्रीजयश्रीपणं स्यात् भटानां प्राणद्यूतमवश्यं तत्स्यात् ॥ २३३ ॥ प्रयातीति । यदि तोरणांते तारा प्रयाति चेत्रि• वृत्तिकाले प्रतिलोमगा भवेत्तदा रणं स्यात् । कीदृग् ध्वांक्षेति ध्वांक्षवैतालशृगाल रक्षांसि तेषां क्षुधार्तिः क्षुत्पीडा तस्याः क्षपणं दूरीकारकम् ।। २३४ ॥ ॥ भाषा ॥ जामें शब्द करते होंय हजारन कबंध जामें पडे होंय ऐसो अत्यंत घोर संग्राम करावे ॥ ॥ २३१ ॥ वामइति ॥ वामभागमें पूंछकूँ उत्पाटनकरें तो पोदकी बाहरकी सेनाको नाश करे. और जेननेमांऊंकी पूंछको उखाडे तो भीतरकी सेनाको नाश करें, और जो चोंचकर अपने अंगकूं चर्वण करैतो पोदकी युद्ध में स्वामीके देहको भंगकरै ॥ २३२ ॥ युद्धेति || युद्ध के शकुनमें पोदकी उद्धृता न होय और ताराभी न होय वगदतीसमय वामभाग में होय ती मस्तक करके `सहित राज्यश्रीकूं आदिले सब निवेदन करे और जो योद्धानके प्राणको नाश अवश्य होय ॥ २३३ ॥ प्रयातीति ॥ जो तोरणके अंतमें तारा होय वगदतीसमय प्रतिलोमगा होय "तो काक, वैताल, हागाल, गीव, राक्षस इनके क्षुधाकी पीडाकूं दूरकरबे Aho Shrutgyanam Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते संधिविग्रहजयादिप्रकरणम् । ( १७५ ) अभ्यचितं पांडविकायुगं चेद्रियुज्यते तोरणसन्निवेशे ॥ तदा जयश्रीर्हठतस्कराणां रणो न भावी रणदीक्षितानाम् ॥ २३५ ॥ वामे स्वरं दक्षिणतश्च यानं शांते स्थिति तोरणभूमिकायाम् ॥ करोति वामां च गतिं निवृत्तौ श्यामा यदा तत्सुलभा जयश्रीः ॥ २३६ ॥ कृतापसव्यध्वनिरुद्धृता चेद्दीप्तं श्रयेत्तोरणसंनिवेशे ॥ प्रदक्षिणं याति निवृत्तिकाले तदा युयुत्सोर्मरणं रणे स्यात् ॥ २३७ ॥ तारस्य दुर्गायुगलस्य मध्यानि - वृत्य चेद्गच्छति वाममेका ॥ वामानिवृत्तावपि चेत्तदा स्यात्सशस्त्र वातो विजयो नृपस्य ॥ २३८ ॥ ॥ टीका ॥ अभ्यर्चितामेति॥ यदि अभ्यर्चितं पांडविकायुगं चेतोरणसंनिवेशे वियुज्यतेत दाहठतस्कराणां जयश्रीर्भवति रणदीक्षितानां रणो न भवति ॥ २३५ ॥ वामे इति ॥ तोरणभूमिकायां यदि पांडविका वामे स्वरं कृत्वा दक्षिणतः यानं शांते स्थिति क. रोति च पुनः निवृत्तौ वामां गतिं विधत्ते तदा जयश्रीः सुलभा भवति ॥ २३६ ॥ कृतेति ॥ यदि तोरणसंनिवेशे कृतापसव्यध्वनिरुद्धृता दीप्तं श्रयेत्तथा निवृत्तिकाले प्रदक्षिणं याति तदा युयुत्सोः रणे मरणं स्यात् ॥ २३७ ॥ तारस्येति ॥ यदि तारस्य दुर्गायुगलस्य मध्यादेका निवृत्य चेद्वामं गच्छति निवृत्तावपि वामैका भव ॥ भाषा ।। चारो संग्राम होय ॥ २३४ ॥ अभ्यर्चित इति ॥ जो पूजन कियो हुयोपोदकीको जोडा जो तोरणमें लीन होय जाय तो हठ नाम बलात्कारी तस्कर इनकी जयश्री होय. और रणवालेनको संग्राम नहीं होय ॥ २३९ ॥ वामेति ॥ तोरणकी पृथ्वीमें जो पोदकी चामभागमें स्वरकरके फिर दक्षिण भाग में शांतस्थान में स्थिति करे फिर निवृत्ति होती समय वामगति करे तो जयश्री सुलभ होय ॥ २३६ ॥ कृतेति ॥ जो पोदकी तोरणमें जेमने मांऊ शब्द करे और उद्धृता होय दीप्तस्थान में वा दप्तिदिशामें में दक्षिणभागमें होय तो युद्ध कर्ताको ताराके युगलमें एक निवृत्त होय करके स्थित होय फिर वगदती समरणमें मरण होय ॥ २३७ ॥ तारस्येति || वाममांऊंकूं गमन करे और निर्वृत्तिमें भी वाम Aho! Shrutgyanam Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। प्रदक्षिणं तोरणभूमिकासां निवृत्तिकाले प्रतिलोमगं वा ॥ तिरोभवेत्पांडविकायुगं चेत्तयुद्धकामस्य पराजयः स्यात् ॥ ॥ २३९ ॥ समीपयुद्धे कृतवामशब्दा श्यामानुलोमा च पराजयाय ॥ अवामशब्दा यदि याति वामं भवेत्तदा भूमिभुजो जयश्रीः ॥२४० ॥ सद्यो रणे वामरवेण भंगो जयो भवेदक्षिणवासितेन ॥ कृते ध्वनौ तोरणनामधेये युग्मेस्य शब्दाच जयोऽजयो वा ॥२४१॥ वामेन गत्वा यदि याति तारा युद्धोद्यमे हंति तदा युयुत्सुम् ॥ भूत्वापि तारा प्रतिलोमगा चेत्तदा जयश्रीर्वसुधाधिपस्य ॥ २४२॥ ॥टीका ॥ ति तदा नृपस्य सशस्त्रघातो विजयो भवेत् ॥ २३८ ॥ प्रदक्षिणमिति ॥ यदि तोरणभूमिकायां प्रदक्षिणं भवेत् निवृत्तिकाले प्रतिलोमगं भवेत् । कीदृशं अंतर्हित मिति अनुलोमप्रतिलोमो भूत्वा क्वापि लीयते तदा योद्धुकामस्य पराजयः स्यात्।। ॥ २३९ ॥ समीपयुद्ध इति ॥ आसन्ने युद्धे कृतवामशब्द अनुलोमापि श्यामा पराजयाय स्यात् यदि अवामशब्दा वामं याति तदा भूमिभुजोजय श्रीभक्त२४०॥ ॥ सद्य इति ॥ सद्योरणे वामरवेणभंगोभवेत् । दक्षिणवासितेन जयोभवेत् । तोरणनामधेये कृतध्वनौ युग्मे सति अस्य शब्दाजयोजयो वा भवेत् ॥ २४१ ॥ वामेनेति ॥ युद्धोद्यमे वामेन गत्वा यदि तारा याति तदा युयुत्सु हति । भूत्वापि ॥ भाषा॥ होय तो राजाकू शस्त्रघात सहित विजय होय ॥ २३८ ॥ प्रदक्षिणमिति ॥ तोरणकी एथ्वीमें पोदकी प्रदक्षिणा होय और वगदती समय प्रतिलोमगा होय अनुलोम प्रतिलोम होय करके कहूं लीन होय जाय तो युद्धकी कामना जाकू होय ताको पराजय होय ॥ २३९ ।। ॥समीपयुद्ध इति ।। राजाके युद्धनिकटमें होनहार होय जो पोदकी शब्द बांयों कर और • अनुलोमा होय तो पराजयके अर्थ जाननी जो दक्षिणमांऊं शब्दकरै वामभागमें जायतो पृथ्वीपति राजाकू जयश्री होय ॥ २४० ।। सद्य इति ॥ संग्राममें पोदकीने वामशब्दकरके रणभंग होय और दक्षिणा होय तो जय होय और तोरणमें शब्दकरै युग्म पोदकीको जोडा होय तो याके शब्दते जय होय वा अजय हेय ॥ २.४१ ॥ वामेनेति ॥ युद्धको उद्यम होय रह्यो होय और पोदकी वाम होयकरके जो दक्षिणा आयजाय तो युद्ध . . Aho! Shrutgyanam .. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते संधिविग्रहजयादिप्रकरणम् । (१७७ ) स्थिरे विहंगद्वितये स्थिरं स्याधुदं भवेत्तत्र वियुज्यमाने ॥ भवेद्धनिर्वोभयतो द्वयस्य संधिर्भवेत्पार्थिवयोस्तदानीम् ॥ ॥२४३॥ योद्धव्यमद्योति विचिंत्यमाने यात्राविरुद्धः शकुनः शुभाय ॥ दिनांतरे स्यात्समरो यदा भवेत्क्षेमंकरो यात्रिक एव नान्यः॥२४४ ॥अंगानि यानि स्पृशति प्रयत्नाद्वामांघ्रिणा पांथसमूहमाता ॥ सुशिक्षितस्यापि भटस्य तेषु द्वंद्वप्रयुद्धे नियतं क्षतानि ॥२४५ ॥ अभ्यर्च्य मंत्रेण विहंगयुग्मं विन्यस्य भूपद्धयनामधेयम् ॥ संधिविरोधः समरो जयो वा भंगोऽथवेत्यादि विकल्प्य पृच्छेत् ॥ २४६॥ ॥टीका ॥ तारा प्रतिलोमगा चेत्स्यात्तदा वसुधाधिपस्य जयश्रीन स्यात् ॥ २४२ ॥ स्थिर इति ॥ स्थिरे विहंगद्वितये स्थिरं युद्धं भवेत् वियुज्यमाने तत्र तदोभयतो द्वयस्य ध्वनिर्भवेत्तदानीं पार्थिवयोः संधिर्भवेत् ॥ २४३ ॥ योद्धव्यमिति ॥ योद्धव्यं मया. घेति विचित्यमाने यात्राविरुद्धः शकुनः शुभाय भवति । यदा तु दिनांतरे समरः स्यात्तदा यात्रिक एव क्षेमकरः नान्यः ॥ २४४ ॥ अंगानीति । वामांघ्रिणा पां. थसमूहमाता यानि अंगानि प्रयत्नात् स्पृशति सुशिक्षितस्यापि भटस्य द्वंद्वयुद्धे तेषु नियतं क्षतानि स्युः॥२४५॥ अभ्यच्येति ॥ पूर्वोक्त विहंगयुग्मम् अभ्यर्च्य भूपद्रयनामधेयं विन्यस्य च संधिःविरोधासमरः जयः भंगः इति विकल्प्य पृच्छेत् ॥२४६॥ ॥ भाषा॥ करने वालेकू नाशकर जो ताराहोयकरके प्रतिलोमगाहोय तो राजाके जयश्री होय ॥ २४२ ॥ ॥ स्थिर इति ॥ दोनोंपक्षी स्थिर होय.तो युद्ध भी स्थिर होय और दोनों वियोगकरे होय तो भी युद्धकरै. और दोनों एक होय मिलजाँय अथवा दोनोनको माऊंसूं शब्द होय तोभी राजानको मिलापहोय ॥ २४३ ॥ योद्धव्यमिति ॥ मोकू अब युद्ध करनोहै ऐसी मनमें चिंतमनकरत यात्राते विरुद्ध शकुन होयं तो शुभके अर्थ होय और जो बहुत दिनमें संग्राम होय तो यात्राके शकुन हैं सोई कल्याण करबेवारे हैं और नहीं हैं ॥२४४ ॥ ॥ अंगानीति ॥ पोदकी बाय पाँवकरके जो अंगकू स्पर्श करे तो बहुत सुंदर सीखेहुये योद्धानरनको इंद्वयुद्धमें नाश होय ॥ २४५ ॥ अभ्यति ॥ पहले कहेपक्षीको युग्म ताको पूजन करके दोनों राजानको नाम धरकरके फिर संधिविरोध संग्राम जय भंग इनळू Aho! Shrutgyanam Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७८), वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। यत्तत्र किंचिच्चरितं विधत्तः खगौ भवेत्तनपयोरवश्यम्।।सुबुद्धिनेत्यादिकमूहनीयं नातार्किकःशाकुनसंविदहः॥२४७॥युग्मम्॥अश्वमेषककलासलावका द्वंद्वयुद्धकुशला यतः सदा ॥ तत्कृतेऽपि विहगद्वयं ततः पूर्ववच्छकुनविद्विभावयेत्॥२४८॥ इति पोदकीरुते संधिविग्रहजयादिप्रकरणं दशमम् ॥१०॥ गृही समस्ताश्रमिणांवरिष्ठश्चारित्रवत्या स भवेयुवत्या|तस्या विवाहाय पतेः परीक्षामाचक्ष्महेपांडविकारुतेऽस्मिन् ॥२४९॥ . ॥ टीका ॥ यत्तत्रति ॥ खगौ यदत्र चरितं विधत्तः तन्नृपयोरवश्यं भवेत् । सुबुद्धिनेत्यादिकमूहनीयम् । यतः शाकुनसंविदर्हः अतार्किको न भवेत् ।। २४७ ॥ अश्वेति । तत्कृते. ऽपि भंगादिज्ञानार्थ पूर्ववद्विहगद्वयं शकुनवित् विभावयेत् । यतः अश्वमेषकृकलासलावकाः सदा द्वंद्वयुद्धकुशलाः स्युः ॥२४८ ॥ इति श्रीशQजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्याय श्रीभानुचंद्रगणिविरचि. तायां वसंतराजटीकायां पोदकीरुते संधिविग्रहजयादिप्रकरणं दशमम् ॥ १० ॥ गहीति ॥ समस्ताश्रमिणां ब्रह्मचारिवानप्रस्थभिक्षणां मध्ये वरिष्ठः गृहीस्यात्। तेषां तदधीनत्वात् स चारित्रवत्या युवत्या भवेत् । अस्मिन्पांडविकारते तस्या वि ॥ भाषा ॥ आदिलेके जो भेद तिनै पूछे ॥ २४६ ॥ यत्तत्रेति ॥ दोनों पक्षी जो कछु आचरण करें सो दोनों राजान• अवश्य होय बुद्धिमानपुरुषकरके विचार करनो योग्य है. शाकुनवेत्तानमें योग्य होय सो तर्क ना करै ।। २४७ ॥ अश्वेति ॥ अश्व मेष कृक्लास लावक नाम तित्तर ये द्वंद्वयुद्धमें कुशल होंय हैं. सो भंगादि ज्ञानके लिये पूर्व कहे जो युग्मपक्षी उनकी सी नाई शकुनवेत्ता इन चारोंनको विचार करनो योग्यहै ॥ २४८ ॥ ___ इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छीधरविरचितायोवसंतराजभाषाटीकायां पोदकीरुते संधिविग्रहजयादिप्रकरणं दशमं समाप्तम् ॥ १० ॥ गृहीति ॥ ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी इनमें गृहस्थी श्रेष्ठ है. जो शुभ आचरण धर्ममें वर्ते ऐसी स्त्रीकरके युक्त होय तब वो उत्तम है. यातें या पोदकीके शब्दमें स्त्रीके Aho! Shrutgyanam Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरते स्वरमकरणम् । (१७९) पुंसः कुमारीवरणाय तारा प्रशस्यते वामगतिविरुद्धा॥ स्त्रियाश्च पत्युवरणाय वामी श्यामा प्रशस्ता नतु यानुलोमा ॥ ॥२५० ॥ पाणिग्रहप्रश्रविधिप्रसंगे दुर्गायुगं गच्छति दक्षिणं चेत् ॥ परस्परं सौहदवृद्धिभाजःस्त्रीपुंसयोस्तदिवसाः प्रयांति ॥२५१॥ मध्यादयोः शोभनचेष्टयोर्यः प्रभूतचेष्टो यदिवोनतस्थः । खगः खगी वा वरकन्ययोः स आत्मीयपक्षे कुरुते प्रभुत्वम् ॥२५२॥ खगी खगस्याशनदायिनी चेत्तदा पतिः स्त्रीधनमाददाति ॥ खगोऽशनं यच्छति चेद्विहंग्यै ददाति वित्तं पुरुषः स्त्रियै तत् ॥ २५३ ॥ ॥टीका ॥ वाहार्थ पतेः परीक्षामाचक्ष्महे ॥२४९ ॥ पुंस इति ॥ कुमारीवरणाय पुंसः प्रश्ने तारा प्रशस्यते वामगतिविरुद्धाभवति । पत्युवरणाय स्त्रियाः प्रश्ने वामा श्यामा प्र. शस्ता न त्वनुलोमाँ ॥ २५० ॥ पाणीति ॥ पाणिग्रहप्रश्नविधिप्रसंगे चेदुर्गायुगं दक्षिगं गच्छति तदा स्त्रीपुंसयोर्दिवसाः परस्परं सौहृदवृद्धिभाजः प्रयाति ॥२५१।।. मध्यादिति ॥ द्वयोः पूर्वोक्तयोर्मध्यायः कश्चित्खगः खगी वा शोभनचेष्टया याति यदि वा प्रभूतचेष्टो भवति उन्नतस्थो भवति तदा वरकन्ययोर्मध्ये स आत्मीयपक्षे प्रभुत्वं कुरुते ॥ २५२ ॥ खगीति ॥ यदि खगी खगस्याशनदायिनी स्यात् तदा पतिः स्त्रीधनमाददाति ॥ चेत्खगः विहंग्या अशनं यच्छति तदा पुरुषः स्त्रियैः धनं ॥ भाषा॥ विवाहके अर्थ पतिकी परीक्षा कहेंहैं ॥ २४९ ॥ पुंस इति ॥ कन्याके वरबेके अर्थ पुरुषकू शकुनमें तारा होय तो शुभ है. जो वामगति होय तो विरुद्ध होय. और पतिके घरबेके लिये स्त्रीकू प्रश्नमें वामा शुभ हैं अनुलोमा निषेध है ॥ २५० ॥ पाणीति ॥ पाणिग्रहण करबेके शकुनविधिमें जो पोदकीको जोडा दाक्षणमांऊ गमन करे तो स्त्रीपुरुषके दिवस परस्पर स्नेहकी वृद्धिपूर्वक व्यतीत होय ॥ २५१ ॥ मध्यादिति ॥ पूर्व कहे जो २ दोनों जोडा जोडी उनमेंसू जो कोई पक्षी पुरुष वा पक्षिणी स्त्री ये सुदर चेष्टा करते होंय. और ऊंचे पै बेठे होय जो पोदकी पुरुषके ये शकुन होय तो वरकं प्रभुताई करै. और जो पक्षिणीको शकुन ऐसो होय तो स्त्री प्रभुता होय ॥ २५२ ॥ खगीति ॥ जो पक्षिणी पुरुष पक्षीकू भोजन देरही होय तो पति स्त्रीको धन ग्रहण करे. और जो पक्षी पक्षिणीकू भोजन Aho! Shrutgyanam Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। यत्प्रीतिदानादि निजैः परैर्वा खगी खगो वा कुरुते प्रयत्नात् तत्प्रीतिदानादि निजैः परैर्वा समं विधत्ते दयिता पति॥ १५४॥ धनुर्धरी चेद्बहुभिर्विहंगैरावेष्टयते स्वैः परजातिभिर्वा ॥ तत्कन्यका स्वैः परजातिभिर्वा व्यूढा सती काम्यत इत्युशन्ति ॥१५॥ पोदकीमिथुनमैथुनक्षणे वाम तो भवति कन्यका सती ॥ तादृशं तु यदि दक्षिणे तदा निश्चयेन कुलटा भवत्यसौ ॥ १५६॥ तारा जित्वा भगवत्यकस्मा-, दधिष्ठिता पादपवृन्दकं चेत् ॥राज्ञी भवेत्सा परिणीयते या भवेन्नृपत्वं द्वितये व्यस्य ॥ १५७ ॥ ॥ टीका॥ ददाति ॥ २५३ ॥ यदिति ॥ यत्प्रीतिदानादि निजैः परैः वा खगः खगी वा प्रयत्नात् कुरुते । तत्प्रीतिदानादि निजैः परैर्वा समः दयिता पतिर्वा कुरुते ॥२५४॥ धनुधरीति ॥ चेद्नुर्धरी स्वैः परजातिभिः बहुर्भािवहंगैरावेष्टयते तदा कन्यका व्यूढा सती स्वैः परैर्वी काम्यत इति उशंति कययंति । वृद्धा इति शेषः ॥२५५॥ पोदकीति ॥ पोदकीमिथुनमैथुनेक्षणे पोदकीमिथुनस्य मैथुनं संभोगः तस्य ई. क्षणं दर्शन तस्मिन्समये यदि पोदकी वामतो भवति तदा कन्यका सती भवति यदि दक्षिणे भवति तदा असौ स्त्री कुलटा भवति ॥ २५६ ॥ तारेति ।। यदि भगवती तारा जित्वा अकस्मात्पादपदकमधिष्ठिता भवति तदा या परिणीयते सा राज्ञी ॥भाषा॥ देरह्यो होय तो पुरुष स्त्रीकू धन देवै ॥ २९३ ॥ यदीति ॥ पक्षी का पक्षिणी प्रयत्नतें प्रीति दानादिक निज अपनेनकरके या परायनकरके करें तो पुरुष वा स्त्री येभी दोनों निज अपनेनकर वा परायेनकरके प्रीतिदानादिक समान धारन करें ॥ २५४ ॥ धनुर्धरीति ॥ जो धनुर्धरी अपनी जातिके वा परजातिके पक्षीनकरके आवेष्टन होय रही हो तो कन्या वि. वाहहुये पीछे अपनेन करके परायेनकरके चाहना करबमें आवे ॥ २५५ ॥ पोदकीति ॥ स्त्रीतूं संभोग करबेको शकुन देखती समयमें जो पोदकी वामभागमें होय तो कन्या सतीशील होय. जो दक्षिणभागमें होय तो बो स्त्री कुलटा होय ॥ २५६ ॥ तारेति ॥ जो श्यामा तारा होय करके अकस्मात् वृक्षनके समूह पै जायबैठे तो जाको व्याह हुयो है सो राणी होय वाके Aho ! Shrutgyanam Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • पोदकीरुते विवाहप्रकरणम् । ( १८१) तारस्य पक्षिद्वितयस्यमध्याद्यत्संज्ञकोऽभ्येति निवृत्य वामम्।। मध्यात्कुमारीवरयोरवश्यं तत्संज्ञकः पूर्वमुपैति मृत्युम् ॥ ॥२५८ ॥ श्यामायुगे दक्षिणगे विहंगी विहंगमश्चेत्परिहत्य याति ॥ त्यक्त्वा स्त्रियं तत्पुरुषः प्रयाति नारी नरं मुंचति वैपरीत्यात् ॥२५९॥ निमज्य धूल्यामुपगम्य तारा तारां शुभे तिष्ठति चेत्प्रदेशे ॥ तनिश्चितं पांथसमूहमाता वोढः परिव्राजकतां ब्रवीति ॥२६०॥ चंचपुटांतास्थिलवानुलो मायद्याश्रयेदेशमनिंदनीयम् ॥ ब्रूते कपालवतधारणं तत्वगी कुमार्या विहगो नरस्य ॥ २६१ ॥ ॥ टीका॥ भवेत् द्वितयं च तथाविधं भवति तदा द्वयस्य राज्यं स्यात् ॥ २५७ ॥ तारस्येति ॥ तारस्य पक्षिद्वितयस्य मध्याद्यसंज्ञकः निवृत्य वाममभ्येति तदा कुमारीवरयोर्मध्यात्तत्संज्ञकः पूर्व मृत्युमुपैति ॥ २५८ ॥ श्यामेति ॥ श्यामायुगे दक्षिणगे सति विहंगी विहंगमः परिहत्य याति तदा तत्पुरुषः स्त्रियं त्यक्त्वा याति वैपरीत्यानारी नरं मुंचति ॥२५९॥ निमज्येति ॥ धूल्यां निमज्य ततः तारामुपगम्य चेच्छु/ प्रदेशे तिष्ठति तदा निश्चितं पांथसमूहमाता वोढः परिव्राजकतां ब्रवीति ॥२६॥ चंचिति ॥ यदि चंचूपुटातास्थिलवा अनुलोमा अनिंदनीयं देशमाश्रयेत् तदा खगी ॥ भाषा॥ . पुरुषकू भी राज्य होय ॥ २५७ ॥ तारस्येति ॥ पोदकीके युगलमेंसे स्त्रीसंज्ञक वा पुरुषसंज्ञक पीछेकू वगदकर वामभागमें आय जाय तो कन्यावर दोनोंनमें सूं वोही संज्ञक पूर्व मरै स्त्रीसंज्ञक पक्षी वाम आवे तो कन्या पहले मरै जो पुरुषसंज्ञक आवे तो वर पहले मरै ॥३५८॥ ॥ श्यामेति ॥ श्यामाको युगल दक्षिणभागमें होय पुरुष पक्षी पक्षिणी छोडके चलो जाय तो वो पुरुषस्त्रीकू छोडके चल्यो जाय जो वामभागमें आय विहंगी विहंगमकू छोड़ चली जाय तो स्त्रीपुरुषकू छोडके चलीजाय ॥ २५९ ॥ निमज्येति ॥ पोदकी धूलमें स्नानकरके तारा होयकर जो शुभस्थानमें स्थित होय तो निश्चयही कन्याको भर्तार संन्यासी होय ॥ २० ॥ चंध्विति ॥ जो चोंचमें हाडको टूकलिये अनुलोमा होयकर शुभदेशमें स्थित होय तो जो खगी होय तो कन्याकू, और खग होय तो पुरुषकुँ कपाल ब्रतधारण करै Aho! Shrutgyanam Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८२) . वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। प्रदक्षिणं गच्छति पक्षियुग्मं ततः समारोहति पादपं चेत् ॥ फलप्रसूनांकुरपत्रहीनं जायापती चेद्भवतो दरिद्रौ ॥२६२॥ कृत्वा वं दक्षिणतश्च गत्वा श्यामागुमं शुष्कमधिष्ठिता चेत् ॥ तद्वंध्यतां जल्पति कन्यकायाः षंढत्वमाख्याति खगो नरस्य ॥२६३॥ उभे विहंग्यौ विहगस्तथैको यदि त्रयं दक्षिणभागमेति ॥ सौभाग्यसौहार्दमहानिधानं वोढुस्तदा द्वे भवतो युवत्यौ ।। २६४ ॥ तारस्य पक्षिद्वितयस्य मध्यात्खमांतरं चेच्छ्रयते विहंगी ॥ तदा कुमारी परिणीयते या सा निश्चितं दुश्चरिता भवित्री ॥ २६५॥ ॥ टीका॥ कुमार्याः कपालव्रतधारितां ब्रूते खगश्चेन्नरस्य तद्भूते ॥ २६१ ॥ प्रदक्षिणमिति ॥ पक्षियुग्मंप्रदक्षिणं गच्छति ततः फलप्रसूनांकुरपत्रहीनं पादपं चेत्समारोहति तदा तज्जायापती दरिद्रौ भवतः॥२६२॥ कृत्वेति यदि रवं कृत्वा दक्षिणतः गत्वा चेच्छामा शुष्कटुमं अधिष्ठिता स्यात् तदा कन्यकायास्तद्वंध्यतां जल्पति खगोनरस्य पंढत्वमाख्याति ॥ २६३ ॥ उभे इति ।। उभे विहंग्यौ तथैको विहंगः यदि त्रयं दक्षिणमार्गयायी भवति तदा वोढुः द्वे युवत्यौ भवतः सौभाग्यसौहार्दमहानिधानं यथा स्यात्तथेति क्रियाविशेषणम् ॥ २६४ ॥ तारस्यति ॥ तारस्य पक्षिद्वयस्य मध्यात् खगांतरं चेद्विहंगी श्रयते तदा या कुमारी परिणीयते सा निश्चितं दुश्चरिता ॥भाषा॥ अर्थात् भ्रष्ट होय जाय ॥ २६१ ॥ प्रदक्षिणमिति ॥ जो पोदकीको युग्म दक्षिणभागमें गमन करे ता पीछे फल, पुष्प, अंकुर, पत्र, इनकरके हीनसूखे वृक्ष पै चढजाय तो स्त्रीपुरुष दोनों दरिद्री होय ॥२६२ ॥ कृत्वति ॥ जो पोदकी शब्दकरके दक्षिणते जायकरके सूखे वृक्ष पै जाय बैठे तो कन्याकू बंध्या करे और जो पुरुष पक्षी या रीतिसं स्थित होय तो वरकू नपुंसकता कहैहैं ॥ २६३ ॥ उभे इति ॥ दोय पोदकी एक विहंग ये तीनों दक्षिणमार्गमें गमन करे तो वरके सौभाग्य सुहृद महान् धन इनसहित दोय स्त्री होय ॥ २६४ ॥ तारस्पति । पोदकीके युगलमेंसू जो पोदकी और पक्षीको आश्रय करे तो ल्याही कन्या Aho | Shrutgyanam . Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते विवाहप्रकरणम्। (१८३) अन्यो यदा पांडविकायुगस्य मध्ये विहंगी श्रयते विहंगः ॥ भवत्यसाध्वी वनिता यदा नु श्यामा सपत्नी नियतं तदा स्यात् ॥२६६॥ वामस्वरं मैथुनसेवनं वा भक्ष्यप्रदानं यदि वा विधाय॥ वामे ततस्तारमदीप्तसंस्थं साध्वी स्त्रियं जल्पति पक्षियुग्मम् ॥२६७॥ आहारदानस्वरमैथुनानि पक्षिद्वयं दक्षिणतः करोति ॥ यदा तदानी नियतं कुमार्या अहारि कौमारिकमन्यपुंसा ॥२६८॥ भूत्वानुलोमं यदि कृत्तशाखे श्यामा तरौ तिष्ठति कोटरे वा॥ तदाकुमारी क्षतयोनिमुद्रागृहीतभक्ष्या यदि गर्भिणी स्यात् ॥२६९॥ ॥ टीका ॥ भवित्री ॥ २६५ ॥ अन्य इति ॥ यदा पांडविकायुगस्य मध्ये अन्यः विहंगः विहंगों श्रयते तदा असाध्वी वनिता भवति । यदा श्यामा श्रयति तदा नियतं सपत्नी स्यात् ॥ २६६ ॥ वामस्वरमिति ॥ वामे वामस्वरं मैथुनसेवनं वा भक्ष्यप्रधानं कृत्यांतरं विधाय यदि ततस्तारमदीप्तसंस्थं पक्षियुग्मं स्यात् तदा स्त्रियं साध्वीं ज. ल्पति ॥ २६७ ॥ आहारेति ॥ यदा आहारदानस्वरमैथुनानि पक्षिद्वयं दक्षिणतः करोति तदानीं नियतं कुमार्याः अन्यपुंसा कौमारिकमहारि ॥ २६८॥ भूत्वेति॥ यदि अनुलोमा भूत्वा कृत्तशाखे तरौ श्यामा तिष्ठति तदा कुमारीक्षतयोनिमुद्रास्यात् ॥भाषा॥ निश्चयही कुत्सित आचरण कर्ता होय ॥ २६५ ॥ अन्य इति ॥ जो पोदकांके युगलमें और पक्षी विहंगी पोदकीके पास आय स्थित होय तो वो कन्या असाधुनी होय जो ये पोदकी दूसरे पक्षीके पास चली जाय तो निश्चयही कन्याके दूसरी सौत होय ॥ २६६ ॥ वामस्वरमिति ॥ पादकीको युगल वामभागमें वामत्सर वा मैथुनसेवन वा भक्ष्य दान करके ता पीछे जेमने भागमें दीप्त दिशामें वा दीप्त स्थानमें नहीं होय ऐसो पक्षीको युग्म होय तो स्त्रीकू साध्वी कहैं हैं ॥ २६७ ॥ आहारेति ॥ जो पक्षीद्वय आहार, दान मैथुन ये दक्षिणमांऊं करें तो निश्चयही कुमारी कन्याके और पुरुषकरके कुमारीपनो हरण होय ॥ २६८ ।। ॥ भूत्वेति ॥ जो अनुलोमा होयकर श्यामा शाखा कट रही जाकी ऐसे वृक्षमें स्थित होय वा कोटामें स्थित होय तो कुमारी कन्या क्षत है योनि जाकी ऐसी होय और जो तारा Ahol Shrutgyanam Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । वामा गतिर्वामशरीर चेष्टा संस्थानमादावपसव्यभागे ॥ पतिं - वरायाः कथयंति लाभमन्याबलादुर्लभवल्लभस्य ॥ २७० ॥ श्यामानिवृत्तौ यदि याति वामा स्त्रीं प्राप्य तत्स्यात्पुरुषः कृतार्थः ॥ तारानिवृत्तौ यदि तत्प्रविष्टा सीमंतिनी वल्लभलाभतुष्टा ॥२७१॥ इति पोदकरुते विवाहप्रकरणमेकादशम् ॥ ११ ॥ आधानजन्मायतिकर्मपाकाञ्जानाति गर्भस्य यथा मनुष्यः॥ उत्पादिताशेषजनप्रतीतौ तथाभिदध्मः शकुने कुमार्याः २७२॥ ॥ टीका ॥ यदि गृहीतमक्ष्या भवति तदा गर्भिणी स्यात् ।। २६९ ॥ वामेति ॥ यदि वामगतिः वामशरीरचेष्टा भवति आदौ अपसव्यभागे संस्थानं स्यात् तदा पतिंवरायाः अन्याऽ बला दुर्लभवल्लभस्य लाभं कथयति ।। २७० || श्यामेति ॥ निवृत्तौ यदि श्यामा वामा याति तदा स्त्रियं प्राप्य पुरुषः कृतार्थः स्यात् । यदि तारा भवति तदा वल्लभलाभतुष्टा सीमंतिनी स्यात् ॥ २७१ ॥ इति श्रीशत्रुंजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्याय श्री भानुचंद्रविरचितायां वसंतराजटीकायां पोदकीरुते विवाहप्रकरण मेकादशम् ॥११॥ आधानेति ॥ कुमार्याः शकुने वयं तथा अभिदध्मः यथा मनुष्यः गर्भस्य आधानजन्मायतिकर्मपाकं जानाति तत्राधानं गर्भस्य स्थितेराद्यसमय संबंधः जन्मप्रसवः आयतिः उत्तरः कालः तस्मिन्कर्मपाकः सुखदुःखोपभोगः कस्यां सत्याम् उत्पादिताशेषजनप्रतीताविति उत्पादिता अशेषजनानां समस्तजनानां या ॥ भाषा !! भक्ष्यस्तु ग्रहण करे होय तो कन्या गर्भिणी होय ॥ २६९ ॥ वातेति ।। जो वामागति होय घामशरीरकी चेष्टा होय प्रथम अपसव्य भागमें स्थित होय पीछे पूर्वको सो होय तो पतिकूं घर लाई जो कन्या ताके और स्त्रीको दुर्लभ बल्लभ ताको लाभ कहे हैं ॥ २७० 11 श्यामेति ॥ निवृत्ति में जो श्यामा वामा आवे तो स्त्री प्राप्त होय कर पुरुष कृतार्थ होय जो निवृत्तिमें तारा होय तो कन्या भर्तारके लाभकरके प्रसन्न रहे. और पुत्रवती होय " २७१ ॥ इति श्री शकुनवसंतराज भाषाटीकायां पोदकीरुते विवाहप्रकरणमेकादशम् ॥ ११ ॥ आधानेति । जैसे मनुष्य सर्वजननकी प्रीति जामें ऐसे गर्भको आधान, और जन्म, और मृत्यु इनमें कर्मविपाकको फल जो सुखदुःखको उपभोग इन संपूर्णकूं जान हैं और Aho! Shrutgyanam Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते गर्भप्रकरणम् । ( १८५ ) पक्षी गर्भसंभूतिहेतुर्यद्वा गृह्णन्पुष्पपत्रे फलं वा ॥ गर्भस्राव वामयायी विधत्ते यद्वा मुंचन्पुष्पपत्रं फलं वा ॥ २७३॥ अधःप्रपातो वमिमूत्रविष्ठागर्भप्रणाशं विदधात्यवश्यम् ॥ सम्मार्ष्टि वामेन यदा यदंगं भवेत्स गर्भावयवो विहीनः ॥ २७४ ॥ गर्भप्रश्न यावतो दक्षिणेन श्यामा शब्दानुचरत्युच्चवाचा ॥ नार्या गर्भास्तावतस्तानपास्यगर्भाधानं तारया स्यात्तदूर्द्धम् २७५ प्रदक्षिणे पुंसि सुतस्य जन्म जन्मस्त्रिया योषिति दक्षिणस्याम् || जन्मद्वये दक्षिण द्वयस्य किं गर्भवत्या भवितेति पृष्टे ॥ २७६ ॥ ॥ टीका ॥ प्रीतिर्यस्यां सत्यामित्यर्थः ॥ २७२ ॥ तारेति तारापक्षी गर्भसंभूतिहेतुर्भवति । यद्वा पुष्पपत्रे फलं वा गृह्णस्तद्धेतुः स्यादित्यर्थः । वामयायी गर्भस्रावं विधत्ते । यद्वा पुष्पपत्रे फलं वा मंचन्गर्भस्रावं कुर्यादित्यर्थः ॥ २७३ ॥ अथ इति ॥ पक्षिणोऽधः प्रपातः वमिर्वमनं मूत्रं प्रस्रावः विष्ठा विद् वमिमूत्राभ्यां सहिता विष्ठेति मध्यमपदलो पीतत्पुरुषः समासः । इत्यादिकाश्चेष्टाः गर्भप्रणाशं विदधति । यदा वामेन पदा अंग सम्माष्टि तदा स गर्भावयवो हीनः स्यात् ॥ २७४ ॥ गर्भ इत्यादि ॥ गर्भप्रश्ने यावती दक्षिणेन उच्चावाचा श्यामा शब्दानुञ्चरति नार्या गर्भाः तावंतः स्यु तानपास्येति तान् शब्दान् अपास्य त्यक्ता तदूर्द्ध तारया गर्भाधानं स्यात् ॥ २७५ ॥ प्रदक्षिणेति गर्भवत्याः किं भविता इति पृष्ठे पुंसि प्रदक्षिणे सुतस्य जन्म भवति यो ॥ भाषा ॥ तैसेही कुमारीके शकुनमें हम जानें हैं ॥ २७२ ॥ तारेति ॥ जो पक्षी तारा होय तो गर्भकूं प्रगट करे और पुष्पफल इनै ग्रहणकरे तो गर्भके ग्रहण करबेकी हेतु जाननी जो वामभाग में गमन करे तो गर्भस्राव करे अथवा पुष्पपत्रफल इन्हें त्याग करै तोभी गर्भको स्वाव करे ॥ २७३ ॥ अध इति ॥ पक्षीको अधःपात होय या चमन करे मूत्रस्त्राव करे चिटू करे इनकूं आदिले चेष्टा करे तो गर्भको नाश करे. जो बाँयें पाँवकरके अंगकूं मार्जन करे तो गर्भ अवयव करके हीन होय ॥ २७४ ॥ गर्भ इत्यादि || गर्भके प्रश्नमें शकुन देखें तो श्यामादक्षिणमाऊं आयकरके ऊंचे स्वरकरके जितनेशब्द उच्चारणकरे तितनेही गर्भ स्त्री होयँ और उनशब्दनकूं छोडकरके बाई होय जेमनी आजाय तो गर्भाधान होय ॥ २७५ ॥ प्रदक्षणति ॥ गर्भवती कहा होयगो ऐसी प्रश्नकरै तब पुरुषविहंग दक्षिणभाग में होय Aho! Shrutgyanam Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। ध्रुवं सुतोऽस्या भवितेति पृष्ठे योषापि तारा सुतजन्महेतुः॥ कन्या भवित्रीति तु पृच्छयमाने प्रदक्षिणे पुंस्यपि कन्यको स्यात् ॥२७७॥ पुंनामानं पादपं पांडवी चेत्तारा भूत्वा रोहति स्यात्सुतस्तत् ॥ स्त्रीनामानं पादपं पुस्खगश्वेत्तारा भूत्वारोहति स्यात्सुता तत् ॥ २७८॥ प्रदक्षिणीभूय नपुंसकाख्यं तारा यदारोहति यद्यकस्मात् ॥ खगः खगी वाप्यथ गर्भिणी तन्नपुंसकाख्यं जनयत्यपत्यम् ॥ २७९ ॥ कन्या . भवेच्चेद्विहगी सुचेष्टा स्यादात्मजश्चेद्विहगः सुचेष्टः॥ चेष्टाप्रदीप्ता प्रतिलोमयानाद्गर्भस्य पित्रोरंथवा क्षयाय ॥२८॥ ॥टीका ॥ षिति दक्षिणायां सत्यां स्त्रिया जन्म स्यात् । द्वये दक्षिणगे व्यस्य जन्म भवति ॥ ॥२७६॥ ध्रुवमिति ध्रुवं सुतोऽस्याभविता इति पृष्टे योषापि तारामुतजन्महेतुर्भवति कन्याभवित्री इतिपृछ्यमानपुंस्यपिप्रदक्षिणे कन्यका स्यात् ॥२७७॥ पुनामानमिति पांडवी चेत्तारा भूत्वापुनामानं पादपमारोहति तदा सुतः स्यात् पुंखगश्चत्तारो भूत्वा स्त्रीनामानं पादपंमारोहति तदा सुतास्यात्॥२७॥प्रदक्षिणीति ॥ यदिखगः खगी वा प्रदक्षिणीभूयनपुंसकाख्यं तरुमकस्मात्समारोहति तदाभिणी नपुंसकाख्यं सुतं जनयति॥२७९॥कन्येति॥ कन्या भवेच्चेद्रिहगी सुचेष्टास्यात् । चेद्विहगः सुचेष्टः तदात्मजः स्यात्। यदिंचेष्टा प्रदीप्ता प्रतिलोमयानाद्भवति तदा गर्भस्य अथवा पित्रोः ॥ भाषा ॥ तो पुत्रको जन्म होय और स्त्री जो पोदकी दक्षिणभागमें आय जाय तो कन्याको जन्म होय. जो युगल दोनों दक्षिणभागमें आवे तो पुत्र कन्या दोनोंनको जन्म कहनो ॥ २७६ ॥ ध्रुवमिति ॥ याके पुत्र निश्चय होयगो ऐसो प्रश्नकरे तो स्त्री जो पोदकी भी ताराहोय तो पुत्रजन्म होय याके कन्या होयगी ऐसो प्रश्न करै तो पुरुषभी प्रदक्षिणभागमें होय तोभी कन्या होय ॥ २७७ ॥ पुत्रामानमिति ॥ पांडवी तास होय करके पुरुषनामके वृक्षपै चढ जाय तो पुत्र होय और जो पुरुषपक्षी ताराहोयकरके स्त्रीनामके वृक्षपे चढ जाय तो कन्या होय ॥ ॥ २७८ ॥ प्रदक्षिणीति ॥ जो खग वा खगी दक्षिणावर्ती होय करके अकस्मात नपुंसक नाम वृक्षपे चढजायँ तो गर्भिणी नपुंसक पुत्र प्रगट करै ॥ २७९ ॥ कन्येति ॥ पोदकीको शुभचेष्टा होय तो कन्या होय और विहगकांचेष्टा शुभ होय तो पुत्र होय. जो . Aho! Shruigyanam Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरते गर्भप्रकरणम्। (१८७) यावत्संख्यास्तारगाः पुंविहंगाः स्युस्तावंतोप्यर्भका गर्भवत्याः ॥ यावन्त्यस्तु स्त्रीविहंग्योऽनुलोमाः स्युस्तावत्यः कन्यका निश्चयेन ॥ २८१॥ यावत्संख्याः पक्षिणो दक्षिणेन भ्रांत्वा वामं व्याघुटते प्रदेशम् ॥ तावत्संख्यान्यप्यपत्यानि नार्या भूत्वा भूत्वा निश्चयेन म्रियते ॥ २८२ ॥ दीप्तं श्रयेदक्षिणमेत्य पक्षी यद्वा निवर्तेत तदा युवत्याः ॥ गों विपद्यत भवेविहंगे दुःस्थानसंस्थे सति दुःखभागी॥२८३॥ कृतस्वरो दक्षिणगो विहंमः शुष्कं तरं संस्रयते यदा तत्॥म्रियेत जातोयदिकीटजग्धमाई भवेदयाधिवशस्तदानीम्२८४॥ ॥ टीका ॥ क्षयाय भवति ॥ २८० ॥ यावदिति ॥ यावत्संख्याः यावंतः विहंगास्तारगाः स्युः गर्भवत्याः तावंतः अर्भकाः स्युः । यावत्यः अनुलोमाः स्त्रीविहग्यः स्युः निश्चयेन तावत्यः कन्यकाः स्युः॥ २८१ ॥ यावदिति ॥ यदि यावत्संख्याः पक्षिणः दक्षि: णेन भ्रात्वा वामं प्रदेश व्याघोटते तदा नार्याः निश्चयेन तावत्संख्यान्यपि अपत्यानि भूत्वा भूत्वा म्रियते ॥ २८२ ॥ दीप्तमिति यदि दक्षिणमेत्य पक्षी दीप्तं स्थानं श्रयेत यद्वा ततो विवर्तेत तदा युवत्याः गर्भो विपद्येत । तस्मिन्दुःस्थानसंस्थेसति दुःखभागी भवति गर्भः ॥ २८३ ॥ कृतवर इति ॥ यदि पूर्व वामे कृतस्वरो विहंग: दक्षिणगःसंन्शुष्कं तरं संश्रयते तदा जातःसुतः म्रियते। यदा कीटजग्ध-' मार्दै तरुं श्रयते तदानी स व्याधिवशः स्यात् ॥ २८४ ॥ ॥भाषा॥. . प्रदीप्ता चेष्टा होय और प्रतिलोमा गमनकर तो गर्भको अथवा मातापिताको क्षय करै ॥ २८० ॥ यावदिति ॥ जितने पुरुष विहंग वाम होंय दक्षिणकू आ जाय तो उतनेही गर्भवतीके बालक होय और जितने स्त्रीपक्षी पोदकी अनुलोमा होय तितनीही कन्या होय ॥ २८१ ॥ यावदिति ॥ जितने पक्षी जेमने मांऊं भ्रमण करके वामभागमें भ्रमणकरें तो उतनेही नारीके अपत्य होय होयकै मर जायें ॥ २८२ ॥ दीप्तमिति ॥ जो पक्षी पोदकी दक्षि. णमाऊं आयकरके दीप्तस्थानमें स्थित होय अथवा दक्षिणतूं पीछी वगदजाय तो स्त्रीको गर्भ नष्ट होय जाय, जो विहंग ऐसे आवे और फिर कुत्सितस्थानमें स्थित होय तो गर्भ दुःख भागीहोय ॥ २८३ ॥ कृतस्वर इति ॥ जो पहले वामभागमें शब्दकर दक्षिणभागमें जाय सूखे वृक्षपै स्थित होय तो उत्पन्नहुयो पुत्र मरजाय और जो वृक्ष कीडानने खायो होय १ अत्र गुण उचितः। - - Aho ! Shrutgyanam Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः । विधूय गात्राणि विधाय विष्ठां तारस्तरुं चेच्छ्रयते विहंगः॥ तद्गर्भनाशो यदि कृत्तशाख शस्त्रेण जातस्य तदा विपत्तिः ॥ २८५ ॥ गत्वानुलोमं यदिविहंगः स्थिति विधत्ते प्रचले पदार्थे ॥ तदा स जातो भ्रमणक्षमः सन्प्रयाति भूराणि दिगंतराणि॥२८६॥ निमज्य धूल्यामनुलोमयायी शुभं प्रदेशे श्रयते खगश्चेत् ॥ गर्भाद्विमुक्तो नियतं तदानीं भवेत्परिव्राजकमुख्यभूतः ॥ २८७ ॥ कृत्वा निनादं फलपुष्पपत्रविवर्जिते भूरुहि याति तारा ॥ ततः श्रयेत्तादृशमेववृक्षं तदा ध्रुवं स्यात्कृपणस्वभावः ॥२८८॥ ॥ टीका॥ विधूयेति ॥ यदि गात्राणि विधूय वर्चः विधाय तारः संस्तरं श्रयते तदा तदर्भस्य नाशो भवति । यदि शस्त्रेण कृत्तशाखं तरं श्रयते तदा जातस्य विपत्तिः स्यात् ।। २८५ ॥ गत्वेति ॥ यदि 'विहंगः अनुलोमं प्रदक्षिणं गत्वा चपले पदार्थ स्थिति विधत्ते तदास जातः भ्रमणक्षमः सन्भूरीणि दिगंतराणि प्रयाति ॥ २८६ ॥ निमज्येति ॥ धूल्यां निमज्य अनुलोमयायी सन् खगः शुभं प्रदेशं श्रयते तदा स गर्भाद्विमुक्तः परिव्राजकमुख्यमतः भावी ।। २८७॥ कृत्वेति॥ यदि फलपुष्पपत्रविवर्जिते भूरुहि निनादं कृत्वा तारः याति तादृशमेव दृशं यद्याश्र ॥ भाषा ॥ और गीलो होय तो व्याधिके वशीभूत होय ॥ २८४ ॥ विधूयेति ॥ जो विहंगदेहकू कंपायमानकर वीट करके कामसूं दक्षिण आय जाय फिर वृक्षपै बैठ जाय तो गर्भको नाश करे और जाकी शाखा कटी होय ता वृक्षपैं बैठ जाय तो उत्पन्नहुये बालककू शस्त्रकरके विपत्तिहोय ॥ २८५ ॥ गत्वेति ॥ जो पुरुष विहंगवामसू दक्षिणदिशामें जायकर चपलपे अथवा चलरहै ऐसेपदार्थ गाडी, घोडा, ऊंट इत्यादिकनपै स्थिति करै तो उत्पन्नहुयो बालक बहुतसे देशदेशांतरनमें भ्रमण करवे वालो होय ॥ २८६ ॥ निमज्येति ॥ जो खग में स्नानकरके वामते दक्षिणमें आय शुभदेशमें स्थित होय तो गर्भमेंसू प्रगट हुयो बालक निश्चयही संन्यासीनमें मुख्य होय ॥ २८७ ॥ कृत्वेति ॥ जो वाममें फल, पुष्प, पत्रं इनकरके रहित वृक्षपै शब्दकरके फिर दक्षिणमें आय जाय और वैसेही वृक्षपै जो स्थित होय तो Aho ! Shrutgyanam Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते गर्भप्रकरणम् । ( १८९) सुस्वरो व्रजति दुक्षिणभागं शोभनं श्रयति देशविशेषम् ॥ वाममाश्रयति वाथे निवृत्तौ बालको भवति तचिरजीवी ॥ ॥२८९॥ पुंखगो विततदक्षिणपक्षस्तारगः श्रितमनोहरदेशः दर्शितप्रचुरशोभनचेष्टो मंक्षु यच्छति शिशोर्नृपतित्वम् ॥ ॥२९० ॥ पूर्वोक्तरूपेण यदा विहंगी प्रयाति तज्जन्मभवेकुमार्याापूर्वोदितैः पुत्रगुणैर्युताया इत्याहुरार्याः कृतलोककार्याः ॥ २९१॥ इति पोदकीरुते गर्भप्रकरणं द्वादशम् ॥ १२॥ ॥ टीका॥ येद्रुवं तदा स कृपणस्वभावो भवेत् ॥ २८८ ॥ सुस्वर इति ॥ सुस्वरः दक्षिणभाग व्रजति पुनः शोभनं देशविशेषं श्रयति अथ निवृत्तौ वामं श्रयति तदा बालकः तचिरजीवी स्यात् ॥ २८९ ॥ पुंखग इति ॥ यदि पुंखगः विततदक्षिणपक्षः संस्तारगो भवति । कीदृग् आश्रितमनोहरदेशः पुनः कीदृग दर्शितप्रचुरशोभनचेष्ट इति दर्शिता प्रचुरा शोभनचेष्टा येन स तथा। स शिशोर्नृपतित्वं मंक्षु यच्छति॥२९०॥ पूर्वोक्तेति ॥ यदा विहंगी पूर्वोक्तरूपेण पूर्वोक्तप्रकारेण प्रयाति तदा कुमार्याः जन्म भवेत् । कीदृश्याः पूर्वोदितैः पूर्वप्रतिपादितैः पुत्रगुणैः युतायाः कृतलोककार्याः आर्या इत्याहुः ॥ २९१ ॥ इति शत्रुजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रविरचि तायां वसंतराजटीकायां पोदकीर्ते गर्भप्रकरणम् ॥ १२ ॥ ॥ भाषा॥ निश्चयही वो बालक कृपण होय ॥ २८८॥ सुस्वर इति ॥ सुंदरशब्दकर दक्षिणभागमें गमनकर फिर शुभदेशमें स्थित होय अथवा निवृत्तिसमयमें वामभागमें स्थित होय तो बालक चिर जीवी होय ॥ २८९ ॥ पुंखग इति ॥ जो पुरुषपक्षी जेमने पंखकू फैलायकर जेमनो होय सुंदरस्थानपे बैठकर शुभचेष्टा करे तो बालककू समूहको राजाकरे ।। २९० ॥ पूर्वोक्तेति ॥ जो विहंगी पूर्व कहेहुये प्रकारकरके गमन करे तो पूर्व कहे जे पुत्रगुण उनकरके युक्त कुमारीके पुत्रको जन्म होयपे लोकनके कार्य करबेवाले आर्यपुरुषनको कथनहै ॥ २९१ ॥ इति वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां पोदकीरुते गर्भप्रकरणं द्वादशम् ॥ १२ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ( १९० ) वसंतराजशाकुने- सप्तमो वर्गः । यात्रा स्थितस्यागमनं गतस्य भविष्यतः संप्रति किं न वेति ॥ प्रत्यक्ष देवीविरुते क्रमेण निरूप्यते निश्चितकार्यभागम् २९२ यात्रा भवित्री मम किं न वेति प्रश्रे कृते स्याद्गमनाय तारा ॥ शाखां चलंतीमथवाधिरूढा वामा तु यात्रां प्रतिषेधयित्री ॥ ॥ २९३ ॥ दूरं गतस्यागमनाय तारा यद्वोपविष्टा प्रचले प्रदेशे ॥ पुंसः स्वगेहागमनोत्सुकस्य श्यामांतरायं विदधाति वामा ॥ २९४ ॥ विधाय शब्दं यदि दक्षिणास्यादायाति पांथस्तदवाप्तवित्तः ॥ श्यामास्थिरा तिष्ठति मौनिनी या सा वक्त गत्यागमयोः स्थिरत्वम् ॥ २९५ ॥ ॥ टीका ॥ यात्रेति ॥ स्थितस्य यत्रागतस्यागमनं संप्रति भविष्यतः नवेति प्रश्ने प्रत्यक्षदेवी विरुते निश्चित कार्यजातं तन्निरूप्यते ॥ २९२ ॥ यांत्रेति ॥ मम यात्रा भवित्री न वेति प्रश्नद्वयं एकवारमन्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रश्ननिर्णेतुः संदेहास्पदत्वं स्यादिति प्रश्ने कृते चेत्तारा स्यात्तदागमनाय यदि वेति पक्षांतरे चलंती शाखामधिरूढा तारा भूत्वा तदा शीघ्रं गमनं वामा तु यात्रां प्रतिषेधयित्री स्यात् ॥ २९३ ॥ दूरमिति ॥ कदागमिष्यतीति प्रश्ने यदि तारा स्यात्तदा दूरगतस्यागमनाय भवति । यद्वा तारा भूत्वा प्रचले पदार्थे उपविष्टा तदा शीघ्रगमनं स्वगेहागमनोत्सुकस्य पुंसः वामा श्यामा अंतरायं विदधाति ॥ २९४ ॥ | विधायेति ॥ यदि शब्दं विधाय ॥ भाषा ॥ ॥ यात्रेति ॥ यात्राकूं गयो ताको आगमन और घरमें स्थित ताको गमन होयगो वा नहीं होयगो वा कब होयगो ऐसो प्रश्नपोदकी के शब्द में निश्चय होय है सो निरूपण करें ॥ ॥ २९२ ॥ यात्रेति ॥ मेरी यात्रा होयगी वा नहीं होयगी ये दो प्रश्न करे तब जो श्यामा तारा होय तो गमनके अर्थ होय और पवनादिक करके चलरही वा हलरही शाखा ता पै चढजाय तारा होयकरके तो शीघ्रगमनकरे. और वामा तो यात्रामें निषेधकर्ताहै ॥ २९३ ॥ दूरमिति ॥ कब आवेगो ऐसो प्रश्नकरे तब जो पोदकी तारा होय तत्र दूरगयेको आगमन होय अथवा तारा होयकरके हलते चलते पदार्थपे बैठजाय तो शीघ्र आगमन होय. जो अपने घरकूं आयबेमें उत्साह करतो होय वा पुरुषके श्यामा वामा होय तो विघ्न वा ढील जानमो ॥ २९४ ॥ विधायेति ॥ जो पोदकी शब्दकरके दक्षिणा होय तब देशगयो धन Aho! Shrutgyanam Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते गमनागमनप्रकरणम्। । (१९१) शुभप्रदेशे सह भार्यया चेत्संगच्छते दक्षिणगो विहंगः ॥ आगत्य देशांतरतोऽध्वनीनः स्वगेहसौख्यान्युपलप्सते तत् ॥२९६॥ कृत्वा शब्दं पृच्छतो वामभागे पक्षी वृक्षं हृद्यमेवाधितिष्ठन् ॥ आगच्छंत साधिताशेषकार्य पथिं जल्प. त्यर्धमार्गावतीर्णम् ॥२९७॥ वामस्वस्तारगतिर्विहंगः शुष्कं समारोहति पादपं चेत् ॥ रुजादितो वाप्यथ लुंठितो वा दिगंतरात्तत्पथिकोऽभ्युपैति ॥ २९८ ॥ विशय नादं यदि वामभागे तिरोहितत्वं भजते सुदेशे ॥ तत्रैवं पाथः कुशली तदास्ते दुःखी समायाति पुनः कुदेशे।।२९९ ॥ ॥ टीका ॥ श्यामा दक्षिणा स्यात्तदा पांथस्तदवाप्तवित्त इति स चासाववाप्तवित्तश्चेति समासः। अन्यथा तच्छब्दस्यानर्थक्यं स्यात् । आयाति स्वगृहमिति शेषः। या प्रश्ने कृते स्थिरा मौनिनी वा तिष्ठति सा यत्यागमयोः स्थिरत्वं वक्ति ।। २९५ ॥ शुभ इति ॥ यदि दक्षिणो विहंगः सहभार्यया शुभप्रदेशे संगच्छते तदा अध्वनीन देशांतरतः आगत्य स्वगेहसौख्यानि उपलप्स्यते ॥ २९६. ॥ कृत्वति ॥ पृच्छतः पुंसः यदि शब्दं कृत्वा पक्षी वामभागे दक्षिणभागस्थ हृद्यमेव वृक्षमधितिष्ठन् तदा आगच्छेते पाथम् अर्धमार्गावतीर्ण जल्पतिाकीदृशं साधिताशेषकार्यमिति साधितं निष्पादितमशेषं कार्य येन स तथा ॥२९७ ॥ वाम इति ॥ चेदामस्वरः तारगतिविहंगः शुष्क पादपं समारोहति तदा रुगार्दितःलुंठितो वा देशांतरात्तत्पथिकः अभ्युपैति ॥२९८ ॥ विधायेति ॥ यदि वामभागे नादं विधाय सुदेशे तिरोहितत्वमदृश्यत्वं ॥ भाषा ॥ प्राप्त होयकरके अपने घर आवे. जो श्यामा शकुनमें स्थिरा वा मौनिनी होय तब गमनमें और आगमनमें स्थिरता कहनो ॥ २९५ ॥ शुभ इति ॥ जो विहंग दक्षिणभागमें शुभदेशमें स्त्री पोदकीकरके मिलापकरै तब परदेशगयो पुरुष परदेशते आयकरके अपने घरके सौख्य भोगे ॥ २९६ ॥ कृत्वेति ॥ पृच्छक पुरुषके जो पोदकी वामभागमें शब्दकरके दक्षिणभागमें मनोहरसुगंधवान् वृक्षपै स्थित होयं तो परदेशगयो संपूर्णकार्यकर आधे मार्गमें आयो कहैहै ॥ २९७ ॥ वामस्वरेति ॥ जो विहंग वामस्वरकर दक्षिणगति होय शु. कक्षौ चढ जाय तो परदेश गयोपुरुष देशांतरते रोगादित होयकर आवे ॥२९८॥ विधायेति Aho! Shrutgyanam Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००२ ( १९२) . . वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। कृतस्वरा दक्षिणतः सितांगी प्रयाति वामं श्रयनिक प्रतिमा यस्याध्वगस्यागमनार्थमुक्ते प्रों गतोऽस्पत नगरी यमस्य ॥ ॥३०॥ नष्टे विहंगे पथिको न तंत्र कृतस्थितिर्यत्र विचिंतितोऽसौ ॥ करोति शब्द यदि दक्षिणेन श्यामा तदासी विपदा गृहीतः॥३०१ म स्यादूरतारा यदि तत्प्रयातुर्विदूरमावेदयते वराही । तारा प्रयाणागमयोः प्रशस्ता प्रवृत्तये वामगता निवृत्त्या ३०२॥ ॥ टीका ॥ भजते तदा तत्रैव पाथः कुशली आस्ते । यदा पुनः कुदेशे तिरोहितत्वं भजते तदा दुःखी समायाति ॥२९९ ॥ कृतस्वरा इति ॥ यदि दक्षिणतः सितांगी कृतस्वरा वामं प्रयाति पुनः प्रदीप्तं स्थानं श्रयति तदा यस्याध्वगस्यागमनार्थ प्रश्न उक्तः असौ यमस्य नगरी गतः इति वक्तीति शेषः ।। ३००॥ नष्टेति ॥ प्रश्ने कृते सति नष्टे स्वस्थानादन्यत्र गते विहंगे पथिको विवक्षितग्रामे न भवति क्वापि गत इत्यर्थः यत्र विहंगः कृतस्थितिस्तत्रैवासौ पथिको विचितितः। यदि श्यामा दक्षिणेन समागत्य शब्दं करोति तदासौ पांथो विपदा गृहीतो वेदितव्यः ।। ३०१॥ स्यादिति ॥ यदि प्रश्नकाले दूरतारा स्यात् तत्प्रयातुः वराही दूरं समावेतयते यतः प्रयाणागमयोःप्रवृत्तये तारा प्रशस्ता स्यात् पुनरेतयोनिवृत्ती वामा शुभा स्यात् ॥ ३०२ ॥ ॥ भाषा ॥ जो वामभागमें शब्द करके शुभदेशमें जाय अंतर्धान होय जाय तो पायकू कुशल कहनो जो निंदित देशमें जाय लुप्त होय तो दुःखी आवे ॥ २९९ ॥ कृतस्वरेति ॥ जो दक्षिणमाऊं शब्दकर वामभागमें आय फिर प्रदीप्तस्थानमें स्थित होय तो जाके आगमनके लिये प्रश्न होयं वो यमकी नगरीकू गयो ऐसो कहती है ॥ ३०० ॥ नष्टेति ॥ जो पोदकी अपने स्थानते और जगह चलीजाय तो परदेश गये• जा ग्राममें पृथक् पूछे वामें नहीं है और ग्राममें गयो कहनो. जहां पोदकी स्थित होय तहां पथिककू चिंतमनकरके कहनो और जो श्यामा दक्षिण आयकरके शब्द करें तो आपदा करके युक्त है ऐसो जानलेनो ॥ ३०१ ॥ स्यादिति ॥ जो शकुनकालमें श्यामा दूर चली जाय तो परदेशगये... भी दूर गमन जाननो. याते जामनो आमनो इन दोनोंनके शकुनकी प्रवृत्तिमें तो. जेमनी तारा शुभ और दोनोंनके शकुनझू निवृत्ति कालमें वामा शुभ है ॥ ३०२ ॥ १ कर्मणः शेषत्वविवक्षया भजे शम्भोश्चरणयोरितिवत्कर्मणि षष्ठीति भावः। २ गमनमिति शेषः । Aho! Shrutgyanam Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते यात्राप्रकरणम् । ( १९३ ) इति गमनागमनप्रकरणं त्रयोदशम् ॥ १३ ॥ अनागतोद्भावित भाविकार्यमा यैर्विचार्योद्धृतसारमेतत् ॥ चे - ष्टादिकं पांथसमूहमातुराख्यायते पांथसमूहतुष्टयै ॥ ३०३ ॥ प्रायेण गृह्णन्त्यधिवासनेन विनापि पांथाः शकुनं व्रजंतः ॥ तात्कालिकं जांघिकनामधेयं ब्रूमस्ततः संप्रति तादृशं तत् ॥ ३०४ ॥ वरं श्रयेदुर्जन कृष्ण सपवरं क्षिपेत्सिंहमुखे स्वमंगम् ॥ वरं तरेद्वारिनिधि भुजाभ्यां नोल्लंघयेदुः शकुनं तथापि ॥ ३०५ ॥ ॥ टीका ॥ इति शत्रुंजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानु चंद्रविरचितायां वसंतरा टीकायां पोदकीरुते गमनागमनप्रकरणं त्रयोदशम् ॥ १३ ॥ अनागत इति ॥ पांथस मूहतुष्टये पांथसमूहमातुः चेष्टादिकमाख्यायते । कीदृशमनागतद्भाविकभाविकामिति अनागते काले उद्भावितं चेतस्यवधारितं यद्भाविकार्य तद्विचार्य सारमेतदुतम् ॥ ३०३ ॥ प्रायेणेति ॥ अधिवासनेन विनापि पांथाः व्रजतः प्रायेण शकुनं गृह्णति ततस्तस्मात्कारणात्तादृशं जांघिकनामधेयं यः जंघावलेन जीवति स जांघिकस्तत्र द्वयं तात्कालिकं वयं ब्रूमः ॥ ३०४ ॥ वरमिति ॥ यः पुमान् दुर्जनकृष्णसर्पो श्रयेत् तद्वरं सिंहमुखे यः स्वमंगं क्षिपेत् तद्वरं यः भुजाभ्यां वारिनिधिं तरेत् ॥ भाषा ।। इतिश्री जटाशंकरतनय ज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचितायां शकुनवसंतरा जभाषाटीकायां पोदकीरुते गमनागमनप्रकरणं त्रयोदशं ॥ १३ ॥ अनागत इति ॥ मार्गमें यात्रीनके समूहकी तुष्टि के लिये पांथ समूहकी माता पोदकीकी होनहार कार्यके जानबेकूं चेष्टादिक कहैं हैं ॥ ३०३ ॥ प्रायेणेति ॥ पूजाविना शंकुन ग्रहण करै ता गमन करनेवालेकूं जांघिकनाम कहें हैं अर्थात् ऊंट अथवा डाक लेजाय बे बारो इनकीसी नाईं जाननो ॥ २०४ ॥ वरमिति ॥ जो पुरुष दुर्जन और कृष्णसर्प इनकूं आश्रय ले सो और सिंहके मुखमें अपनो अंग पटकदे वोभी उत्तम. जो अपनी भुजानकर समुद्रकूं तिर जाय सोभी उत्तम. जो कदाचित् दुःशकुनकूं उल्लंघन करे तो श्रेष्ठ नहीं ॥ १३ Aho! Shrutgyanam Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। वामस्वरा दक्षिणकायचेष्टा तारागतिः शांतसमाश्रयश्च ॥ यातुः प्रयच्छंति समस्तकामानिनंति तानुक्तविपर्ययेण३०६॥ पुनः पुनर्वर्त्मनि यः प्रवासी विचेष्टयते पांथसमूहमात्रा॥असंशयं तस्य समापतेतां समस्तवित्तव्ययजीवनाशौ ॥३०७॥ श्यामानुलोमा प्रथमं ततो नु स्यादध्वगस्य प्रतिलोमगा चेत॥ आस्तां तदाभीष्टफलाप्तिवार्ता मन्येऽतिकष्टं निपतत्यरिष्टम् ॥३०८॥ वामे रटित्वा यदि याति तारा भवंति कामाः सफलास्तदानीम् ॥ कृत्वापसव्यध्वनिमध्वगस्य वामं प्रयांती प्रति हन्ति सिद्धिम् ॥ ३०९॥ ॥ टीका॥ तदरं परं कदाचिदुःशकुनमुल्लंघयेत् तत्र वरम् ॥ ३०५ ।। वाम इति ॥ वामस्वरा दक्षिणकायचेष्टा तारागतिःशांतसमाश्रयश्च यातुः समस्तकामान् प्रयच्छंति उक्तविपर्ययेण तानिनन्ति॥३०६॥पुनरिति ॥ यः प्रवासी पुनःपुनः पांथसमूहमात्रा विचेष्टयते तस्य असंशयं समस्तवित्तव्ययजीवनाशौसमं भवेताम् ॥३०७॥ श्यामेति॥ यदि प्रथमं श्यामा अनुलोमा स्यात् ततो नु अध्वगस्य प्रतिलोमगा चेत्स्यात् तदा अभीष्टफलाप्तिवार्ताआस्तां मन्ये अहमिति शेषः। अनिष्टमतिकष्टं निपतति ॥३०८॥वाम इति ॥ यदि वामे रटित्वा तारा याति तदानी कामाः सफला भवंति अध्वगस्य अपसव्ये ध्वनि कृत्वा वामे प्रयोती सिद्धिं विनिहंति ॥ ३०९ ॥ ॥ भाषा॥ ॥ ३०५ ॥ वाम इति ॥ वामस्वर होय, दक्षिण अंगमें चेष्टा करती होय. जेमने मांऊं गति होय, शांतस्थानमें स्थित होय तो गमन कर्ताकू सर्व कार्य देवे. और जो विपरीत होय तो सर्वकामनकू नाश करै ॥ ३०६ ॥ पुनरिति ॥ जो परदेशमें बारंबार पांथसमूहकी सं. गमें यात्रा चेष्टा करो करै तो ताके निःसंदेह समस्त द्रव्यको व्यय और जीवको नाश होय ॥ ३०७ ॥ श्यामेति ॥ जो श्यामा प्रथम तो अनुलोमा होय ता पीछे मार्गीकू प्रतिलोमा होय तो अभीष्टफलकी प्राप्तिकी वार्ता होय ये अनिष्ट और अरिष्ट दूर करै हैं ॥ ३०८ ॥ ॥ वाम इति ॥ जो पोदकी वामभागमें शब्दकरके दक्षिणा होयजाय तो सबले काम सफल होय. और जो जेमने मांऊं शब्दकरके वामभागमें चली जाय तो सिद्धिकू नाशकरे ॥३०९॥ Aho! Shrutgyanam Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरते यात्राप्रकरणम् । (१९५) वामे प्रदेशे यदि वापसव्ये विहंगयुग्मं समभूमिभागे ॥ क्रीडारसव्याकुलितं नराणामव्याकुलत्वेन करोति सिद्धिम् ॥ ॥३१० ॥ वामदक्षिणविभागनिविष्टं तुल्यकालकृतशोभनशब्दम् ॥पक्षियुग्ममिह तोरणसंज्ञं सर्वकामदमुशंति मुनींद्राः ॥ ३११ ॥ उद्धृता भगवती यदि गंतुर्मातृतोऽपि न भवत्यभयं तत् ॥ दक्षिणा यदि पुनः कुशली तत्सिंहसर्पकरिवैरिवशोऽपि ॥३१२॥ताराप्रशस्ता गमनेऽध्वगानां महागुणा सैव यदि प्रशांता ॥ तारैव दीप्ता यदि वा तदानी लाभक्षतिः स्यान तु कापि भीतिः ॥३१३॥ ॥ टीका ॥ वाम इति ॥ यदि वामे प्रदेशे वापसव्ये समभूमिभागे सति क्रीडारस व्याकुलितं पक्षियुग्मं भवति तदा नराणां सिद्धिमव्याकुलत्वेन करोति ॥ ३१० ॥ वामेति ॥ इहास्मिन्छास्त्रे तोरणसंज्ञं पक्षियुग्मं सर्वकामदं मुनयः उशंति प्रतिपादयति । कीदृशं वामदक्षिणविभागनिविष्टं पुनः कीदृशं तुल्यकालकृतशोभनशब्दम् ॥ ३११ ॥ उद्धृतेति ॥ यदि गंतुर्भगवती उद्धृता भवति तदा मातृतोऽभयं न भवति किमन्येभ्यः । यदि पुनः दक्षिणा भवति तदा सिंहसर्पकरि. वैरिवशोऽपि कुशली स्यात् ॥ ३१२ ॥ तारेति ॥ गमनोद्यतानां तारा प्रशस्ता भवति यदि सैव प्रशांता स्यात् तदा महागुणा यदि सा तारैव दीप्ता ॥ भाषा॥ चाम इति ॥ वामभागमें और जेमने भागमें समान पृथ्वी होय तहां पक्षीको युगल होय तो मनुष्यनकू क्रीडारूपी रस करके व्याकुल सिद्ध करै ॥ ३१० ॥ वामेति ॥ वामभागमें और दक्षिणभागमें पक्षीको युगल बैठो होय एक संग दोनों माऊं शब्दकरते होंयँ तो मुनि या शास्त्रमें सर्वकामको देबेवारो तोरण संज्ञा याकी कहैं हैं ॥ ३११ ।। उद्धतेति ॥ जो गमन करबेबारेके भगवती उद्धृता होय तो माताते भी अभय नहीं होय. और ते तो कहा अभय होय जो फिर दक्षिणा होय तो सिंह, सर्प, हाथी, वैरी इनके वशमें पड जाय तो हूं कुशलही होय बिगाड नहीं होय. ।। ३१२॥ तारेति ॥ गमनमें दक्षिणा शुभ है जो वोही शांता होय तो बहुत गुणदायिक होय. और जो वो दक्षिणाही दीप्ता झेय तो लाभकी Aho! Shrutgyanam Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः । भूत्वोद्धृता भक्ष्यमथो गृहीत्वा प्रदक्षिणा क्षीरतरौ निविष्टा ॥ प्रत्यक्षदेवी यदि तत्प्रयातुर्भवत्यवश्यं महती धनदिः॥३१॥ उन्मूलितच्छिन्नविशीर्णशुष्कवृक्षेषु भस्मोपलकर्परादौ ॥ तारोपविष्टा फलहानिकी भवेच्च वामा नियमेन हंत्री ॥ ॥३१५॥ गत्वातिदूरं पुरतःप्रयातुरदृश्यतां गच्छति यस्य तस्य ॥ क्षेमकरी सम्मुखमभ्युपैति यस्य ध्रुवं तस्य पराजयः स्यात् ॥ ३१६॥ यदि प्रियं पांथमनुव्रजित्वा निवर्तमानस्य भवेद्वितारा॥ शुभावहा तद्यदि चेति तारायुक्तं तदा तेन समं प्रयातुम् ॥ ३१७॥ ॥टीका ॥ स्यात् तदानीं लाभक्षतिः न तु कापि भीतिः॥ ३१३ ॥ भूत्वति ॥ यदि उद्धता भूत्वा भक्ष्यं गृहीत्वा प्रदक्षिणा क्षीरतरौ निविष्टा प्रत्यक्षदेवी स्यात्तदा प्रयातुरवश्यं महती धनर्द्धि: स्यात् ॥ ३१४ ॥ उन्मूलितेति ॥ उन्मूलितच्छिन्नविशीर्णशुष्कवृक्षेषु भस्मोपलकपरेषु तारोपविष्टा फलहानिकी भवेत् तु पुनः वामा नियमेन हंत्री भवेदित्यर्थः ॥ ३१५॥ गत्वेति ॥ यदि पुरतः अतिदूरं गत्वा पोदकी यस्याऽहश्यतां गच्छति तस्य क्षेमंकरी स्यात् यस्य सम्मुखमभ्युपैति तस्य पराजयः स्यात् ॥. ३१६ ॥ यदीति ॥ यदि प्रियं पांथमनुव्रजित्वा निवर्तमानस्य वितारा भवेत्तदा शुभावहा । यदि तारा एति तदा तेन समं प्रयातुं युक्तमन्यथा तद्रक्षा न स्यादित्यर्थः ॥ ३१७॥ ॥ भाषा॥ क्षति करे और कोई भय भी करै ।। ३१३ ॥ भवेति ॥ जो प्रत्यक्ष देवी उढ्ता होयकर भक्ष्य ग्रहण करके दक्षिण भागमें दूधके वृक्षों जाय बैठे तो गमनकर्ताकू अवश्य महान् ऋद्धि होय ॥ ॥ ३१४ ॥ उन्मूलितेति ॥ जो दक्षिणमांऊंकी जड जाकी उखड रही होय कव्यो होव सूत्रको होय ऐसे वृक्षनमें वा भस्म पाषाण ठीकरा इनमें बैठी होय तो फलकी हानि करै, और जो वो वामा होय तो निश्चयही फलकी हानि करै ॥ ३१५ ॥ गत्वेति ॥ जो पोदकी गमनकर्ताक अगाडी अत्यंत दूर जायकरके अदृश्य होय जाय तो ता पुरुषकू कल्याणके करबेबारी जाननी. और जाके सन्मुख आवे ताको पराजय करै ॥ ३१६ ॥ यदीति ॥ जो अपने प्यारे पांथकू पहुंचायबे जाय फिर वासू बोलके छोडके पीछकू बगदै Aho! Shrutgyanam Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते परीक्षाप्रकरणम्। (१९७) इति वसंतराजविरचिते शकुनशास्त्रे यात्राप्रकरणं चतुर्दशम् ॥१४॥गार्हस्थ्यमूलं गृहिणी नराणां सा चेत्सुलीला सफलं तदातत्॥दोषस्तु तस्या नरकाय तत्स्यान्मस्ततःसत्यसतीपरीक्षाम् ॥३१८॥ आलिख्य पत्रे वरवर्णिनी तां स्फुरत्सदृक्षाकृतिवर्णरूपाम् ॥ यस्यामसाध्वीति भवेद्वितों व्यक्तं ततो नाम लिखेल्ललाटे ॥ ३१९ ॥ आदाय तच्छाकुनिकोऽथ पत्रं गत्वा ततस्तोरणसंनिवेशम् ॥ अभ्यर्थ्य मंत्रेण करे निधायापृच्छेत्वगद्वंदमियं सतीति॥३२० ॥ ॥ टीका॥ इति शत्रुजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रविरचितायां वसंतराजटीकायां पोदकीरुते यात्राप्रकरणं चतुर्दशम् ॥ १४ ॥ गार्हस्थ्येति ॥ ततः तस्मात्कारणात् सत्यसतीपरीक्षां वयं ब्रूमः यतः नराणां गृहिणी गार्हस्थ्यमूलं सा चेत्सुशीला तदा तद्गार्हस्थ्यं सफलं स्यात् । तस्यास्त्रियाः दोषैस्तु तन्नरकाय स्यात् ॥ ३१८॥ आलिख्योति ॥ तां वरवर्णिनी स्फुः रत्सदृक्षाकृतिवर्णरूपामिति स्फुरति सदृक्षाणि आकृतिवर्णरूपाणि यस्याः सा तथा पत्रे आलिख्य यस्यामसाध्वीति वितर्को भवेत् ततः तन्नाम ललाटे लिखेत्।। ॥ ३१९ ॥ आदायेति ॥ तच्छाकुनिकः पत्रमादाय ततः गृहीत्वा तोरणसंनिवेशं गत्वा तत्पत्रं मंत्रण अभ्यर्च्य करे निधाय पृच्छेद्यूयं वदध्वं किमियं सतीति॥३२०॥ ॥ भाषा ॥ तब वाकू जेमने माऊंसे उडकर वाम आयजाय तो शुभ करे. और जो वामते दक्षिण आयजाय तो येभी वाके संग चल्यो जाय नहीं तो सुख नहीं होय ॥ ३१७ ।। इतिश्री जटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छीधरविरचितायां वसंतराजभाषाटी कायां पोदकीरुते यात्राप्रकरणं चतुर्दशम् ॥१४॥ गार्हस्थ्यति ॥ मनुष्यनके स्त्री गृहस्थाश्रमको मूल है वो स्त्री सुशीला होय तो गृहस्थाश्रम सफल है. जो दुःशीला स्त्री होय तो ताके दोषनकरके पुरुषनक नरक होय. ताते सत्यसतीकी परीक्षा हम कहैहैं ॥ ३१८ ॥ आलिख्यति ॥ सुंदरनेत्र आकृति रूप वर्ण जाको ऐसी स्त्री पत्रमें लिखकरके यह असाध्वी है ऐसी तर्कना जामें होय ता स्त्रीको नाम चाके ललाटमें लिखै ॥ ३१९ ॥ आदायेति ॥ शकुनी वा पत्रकू लेके पीछे तोरण रच १ सती चासती च तयोः परीक्षेति द्वन्द्वगर्भतत्पुरुषः सा ताम् ॥ . Aho! Shrutgyanam Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । आहारदानग्रहणाशनानि कुर्वन्ति खेलति कलं ध्वनंति ॥ वामे खगी यद्यबला सुशीला निर्मैथुनं कर्म करोत्यवा मे ॥ ३२१ ॥ वामरवा यदि वाप्यनुलोमा पांडविकां तदभीष्टचरित्रा || वाम गतिर्यदि दक्षिणशब्दा योषिदसौ नियतं तदसाध्वी ॥ ३२२ ॥ दक्षिणतो यदि मैथुनसंस्थं पांडविकायुगलं कुलटा तत् ॥ वामंदिशित्वथ तादृशचेष्टं स्यात्तदसो युवतिः पतिभक्ता ॥ ३२३॥ यद्यपसव्यविभागनिनादा वामदिशं भगवत्युपगम्य ॥ पुंविहगेन समं मिलति स्यात्तद्युवतेः स्वजनाव्यभिचारः ॥ ३२४ ॥ ॥ टीका ॥ ( १९८ ) आहारेति ॥ यदि वामे खग्यः आहारदानग्रहणाशनानि कुर्वति खेलंति क्रीडति कलं मधुरं ध्वनंति शब्दं कुर्वति तदा अचला मुशीला यदि केवल मवामा गतिर्भवति तदा सा स्त्री निर्मथुनं कर्म हास्यादिकं करोतीत्यर्थः ॥ ३२१ ॥ वामेति ॥ यदि वामरवा यदि वाप्यनुलोमा पांडविका याति तदाभीष्टचरित्रा स्यात् यदि दक्षिणशब्दा वामगतिर्भवति तदेयं योषिन्नियतमसाध्वी स्यात् ॥ ३२२ ॥ दक्षिणत इति ॥ दक्षिणतो यदि मैथुनसंस्थं पांडविकायुगलं स्यात्तदा सा कुलटा स्याद अथ यदि तादृक्चेष्टं वामदिशि स्यात्तदासौ युवतिः पत्यनुगामिनी स्यात् ॥ ३२३॥ यदीति । यदि अपसव्यविभागनिनादा भगवती वामदिशमुपगम्य पुंविहगेन समं ॥ भाषा ॥ नामें जायकरके वा पत्रकूं मंत्रकर पूजनकरके पक्षीके युगलको पूजन कर फिरं हाथमें घर करके युगलसूं पूछे यह स्त्री सती है? तुम कहो ! ऐसे पूछै || ३२० || आहारेति ॥ जो वामभागमें खगी आहार देनों ग्रहण करनो भोजनकरनो ये चेष्टा करती होय, क्रीडा करती होय, मधुर शब्द करती होय तो अबला सुशीला होय. और जो केवल दक्षिणा होय तो वो स्त्री अतिमैथुन और हास्यादिक करें ॥ ३२९ ॥ वामेति ॥ जो पांडविका वामशब्द कर जो जेमनें भागमें आय जाय तो वांछित सुंदर चरित्र जाके ऐसी होय. जो दक्षिण शब्दकर वामगति होय तो वो स्त्री निश्चय असावी होय ॥ ३२२ ॥ दक्षिणत इति ॥ जो दक्षिणभागमें पांडविकाको युगल मैथुन करतो होय तो वो स्त्री कुलटा जाननी और जो येही चेष्टा वामदिशा में होय तो स्त्री पतिकी आज्ञा करनेवाली होय ॥ ३२३ ॥ यदीति ॥ जो जेमने भागमें शब्दकर वामदिशामें आयकरके पुरुष विहंगकरके सही Aho! Shrutgyanam Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते वृष्टिप्रकरणम्। (१९९) कृष्णविहंगयुगं सरवं चेद्वाममुपैत्यथ निर्वहतेऽग्रे ॥ यस्य नरस्य वदत्यपवादं गच्छति तद्वनिता सह तेन ॥३२५॥ सौम्यरवौ यदि वामविभागादक्षिणमेत्य खगौ खलु शांतम् ॥ आश्रयतो न तदान्यमनुष्यं ध्यायति योषिदसौ मनसापि॥ इति सत्यसतीपरीक्षाप्रकरणम् ॥ १५॥ प्राणत्यमी प्राणभृतोऽशनेन तस्यांबुना जन्म तदंबु मेघात्।। मेघो भवेत्प्रावृषि तेन तस्याः श्यामारुतेऽस्मिन्क्रियते विमर्शः ॥ ३२७॥ ॥ टीका ॥ मिलति तदा तस्या युवतेः स्वजनाद्यभिचारः स्यात् ॥ ३२४ ॥ कृष्णेति ॥ यदि कृष्णविहंगयुगं सरवं वाममुपैत्यथाग्रे निर्वहते तदा यस्य नरस्य अपवादं वदति तेन सह तद्वनिता गच्छति ॥ ३२५ ॥ सौम्यरवाविति ॥ यदि सौम्यरवौ खगौ वामविभागादक्षिणमेत्य शांतं स्थानं आश्रयतः तदासौ योषिन्मनसाप्यन्यमनुष्यं न ध्यायति ॥ ३२६ ॥ इति श्रीशजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभा. नुचन्द्रविरचितायां वसंतराजटीकायां पोदकीरुते सत्यसतीपरीक्षाप्रकरणं पंचदशम ॥ १५ ॥ प्राणंतीति ॥ अमी प्राणभृतः अशनेन प्राणंति तस्य अशनस्य अंबुना जन्न स्यात् तदम्बु मेघाद्भवति । मेघश्च प्रावृषि भवेत् तेन कारणेन तस्याः प्रावृषः || भाषा॥ मिले तो ता स्त्रीकू स्वजनते व्यभिचार होय ॥ ३२४ ॥ कृष्णेति ॥ कृष्ण विहंगको युगल शब्द करत वामभागमें आय करके अगाडी अगाडी चलै तो स्त्री सहित गमन करै ता पुरुषको अपवाद करै ॥ ३२५ ॥ सौम्यरवाविति ॥ जो सुन्दर शब्द करत दोनों पक्षी वामभागते दक्षिण भागमें आय करके शांतस्थानमें स्थित होयँ तो स्त्री मनकरके भी अन्य मनुष्यकू चिंतमन न करै ।। ३२६ ॥ इति श्रीवसंतराजभाषाटीकायां पोदकरते सत्यसतीपरीक्षाप्रकरणम् पंचदशम् १५ प्राणंतीति ॥ प्राणधारी भोजनकरके पुष्ट होयँ हैं. ता अन्नको जन्म जल करके होय है. वो जल मेघते होय है. और मेघ वर्षाऋतुमें होय है, ताकारणकरके मेघको विचार पोदकीके Aho ! Shrutgyanam Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। आद्यस्त्रिधा त्रैधमथ द्वितीयस्ततस्तृतीयश्च चतुर्विभागः॥ एवं त्रयस्तोरणभूमिभागारेखादिभेदैर्दशधा विधेयाः ३२८॥ आर्द्रादिकं स्वात्यवसानमेतनक्षत्रवृंदे दशकं यदस्ति। तत्सनिवेश्यं दशसु क्रमेण विपश्चिता तोरणभूदलेषु ॥ ॥३२९॥ मध्यादेषामत्र भानांदशानां किंधिष्ण्यस्थे भास्करे वर्षणं स्यात् ॥ एवं पृष्टे यत्र नक्षत्रभागे तारा गच्छेत्तद्गतेबु पातः॥३३०॥श्यामा वामा याति नक्षत्रभागे यस्मिन्न स्यादपणं तद्गते ॥ सर्वा वृष्टिं निश्चितार्थी विपश्चित्कुर्वीतैवं वासराणां त्रयेण ॥ ३३१॥ ॥ टीका॥ अस्मिन् श्यामारुते विमर्शः क्रियते मयेति शेषः ॥ ३२७ ॥ आद्य इति ॥ आद्यः प्रथमः तोरणभूविभागः त्रिधा कार्यः द्वितीयस्त्रिधैव तृतीयश्चतुर्विभागः कार्यः एवममुना प्रकारेण त्रयस्तोरणभूमिभागाः रेखादिभेदैः दशधा विधेयाः ॥ ३२८॥ आप्र॒दिकमिति ॥ यन्नक्षत्रवृंदे आर्दादिकं स्वात्यवसानं नक्षत्रदशकं यदस्ति तत्कमेण दशम तोरणभू दलेषु विपश्चिता संवेश्यम् ॥ ३२९ ॥ मध्यादिति ॥ अथ एषां भानां दशानां मध्यात्किधिष्ण्यस्थे भास्करे वर्ष स्यादिति पृष्टे यत्र नक्षत्रभागे तारा गच्छेत् तद्गते अम्बुपातः स्पात् ॥ ३३० ॥ श्यामेति ॥ यस्मिनक्षत्रभागे श्यामा वामा याति तद्गते वर्षणं न स्यात् । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण विपश्चित्पंडितः ॥ भाषा॥ रुतमें करें हैं ॥ ३२७ ॥ आद्य इति ॥ पहले तोरणकी पृथ्वीके तीन विभाग करने. दूसरी तीसरो चौथो ये तीनों विभाग करके इनकू फिर रेखादिक करके दशदल करने ॥ ३२८ ॥ आादिकमिति ॥ सत्ताईस नक्षत्रमेंसू आ नक्षत्रते लेकर स्वातीनक्षत्र तक नक्षत्र हैं इन दश नक्षत्रनकू तोरणकी पृथ्वीके दशदलनमें क्रम करके स्थापन करै ॥ ३२९ ॥ मध्यादिति॥ इन दश नक्षत्रनके मध्यमेंसूं कौन नक्षत्रप सूर्य स्थित होयँ तब वर्षा करें, ऐसो प्रश्न कर, तब जा नक्षत्रभागमें श्यामा तारा होय ता नक्षत्रपै सूर्य आत्रे तब वर्षा होय ॥ ३३० ॥ श्यामेति ॥ जा नक्षत्रभागमें श्यामा वामा होय वा नक्षत्रौ सूर्य आवें तब वर्षा न करें. और पूर्व प्रकारके विवेकी तीन दिन ताई सर्ववृष्टि निश्चय करें ऐसो कहैं हैं ॥ ३३१ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरते वृष्टिप्रकरणम् । (२०१) कृत्वापसव्यं ध्वनितं कुमारी भूत्वोद्धृता तिष्ठति दीप्तमाता॥ झपस्य यस्याभ्युपगम्य भागंस प्रावृडंशोरहितोजलेन ३३२ श्यामा विशुष्कं यदि वा विशीर्ण वृक्षसमारोहति दक्षिणेऽपि॥ आसाद्य यामृक्षभुवं भवंति तत्रस्थितेऽर्के विरलाः पयोदाः ॥ ॥३३३॥ वामतो रटति याति दक्षिणं पोदकी तदनु यावतः करान् ॥उन्नतं श्रयतिपादपादिकं तावतः पतति वारि वासरान् ॥३३४॥ यावत्संख्यान्वामतोवारिशब्दान्कृत्वा श्यामा दक्षिणं याति शांता ॥ तावत्संख्यान्वासरान्वारिवाहो नौसंचार्या भूतधात्री करोति ॥ ३३५ ॥ ॥ टीका ॥ वासरत्रयेण सर्वा वृष्टि निश्चितार्थी कुर्वीत ॥ ३३१ ॥ कृत्वेति ॥ अपसव्यं ध्वनितं कृत्वा उद्धृता भूत्वा यस्य ऋक्षस्य देशम् अभ्युपगम्य दीप्तभागे तिष्ठति स प्रावृदंशो जलेन रहितो भवति ॥ ३३२ ॥ श्यामेति ॥ यामृक्षभुव मासाद्य श्यामा विशुष्कं यदि वा विशीर्ण वृक्षं समारोहति तत्रस्थितेऽर्के विरलाः पयोदाः भवंति ॥ ३३३॥ वाम इति ॥ यदि पोदकी वामतो रटति दक्षिणं याति तदनु यावतः करान् गत्वा उन्नतं पादपादिकं श्रयति तावतः वासरान् वारि पतति॥३३४॥ यावदिति॥ पोदकी वामतो यावत्संख्यान्वारिशब्दान्कृत्वा दक्षिणं याति शांतेति शांतस्थान स्थितेत्यर्थः । तावत्संख्यान्वासरान्वारिवाहो मेघः नौसंचार्या नावा तरीतुं योग्यां भूतधात्रीमिति भूताः प्राणिनः तेषां धात्री निवसनस्थानं विधत्ते करोति ॥ ३३५ ।। ॥ भाषा॥ कृत्वेति ॥ जेमने मांऊं शब्द करके उद्धृता होय जा नक्षत्रके देशमें सन्मुख आयकर दीप्तमार्गमें स्थित होय वो वर्षाऋतुको अंश जलकरके रहित होय ॥ ३३२ ॥ श्यामेति ॥ जो श्यामा जा नक्षत्रकी दक्षिणपृथ्वीमें आयकरके सूखेवृक्षपै चढजाय तो ता नक्षत्रमें स्थित सूर्य होय तब मेघ जलके वर्षायबेवारे विरलेही होंय हैं ॥ ३३३ ॥ वाम इति ॥ जो पो. दकी वामभगिमें शब्दकरै दक्षिणमें चली जाय ता पीछे जितने नक्षत्रपर्यन्त ऊंचे वृक्षादिकनपै चढजाय तितने दिवस पर्यंत जलवर्षे ॥ ३३४ ॥ यावदिति ॥ पोदकी बामभागते जितने संख्या वारिशध्द करके दक्षिणभागमें जाय शांतस्थानमें स्थित होय तो Aho! Shrutgyanam Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । खगा खं वारुणमुच्चरंतो यद्यंतरिक्षं प्रविलोकयंति ॥ तथाविधास्ते यदि वा प्रभूता विशंति नीडं तदुशंति वृष्टिम् ॥ ३३६ ॥ प्राग्भूमिकायां जलपातमादौ द्वितीयभूमौ यदि मध्यभागे ॥ तृतीयभूमावथ चेत्तदंते प्रदक्षिणं पांडविका करोति ॥ ॥ ३३७ ॥ दीप्तं स्वरं वा यदि याति तारा वंध्यांगनाया इव वा च दीप्तिः ॥ तत्प्रावृषः पीनवनोन्नतानां पयोधराणामपयोधरत्वम् ॥ ३३८ ॥ प्रदक्षिणं भूत्रितयाद्बहिश्च कुवैति दुर्गाः कृतवारिशब्दाः || वर्षास्वतीतासु तदातिबही स्याहष्टिरल्पापि न चांतराले ॥ ३३९ ॥ ॥ टीका ॥ खगा इति ॥ यदि खगाः वारुणमाप्यं रवं शब्दमुचरतः अंतरिक्षं व्योम प्रविलोकयति यदि वा प्रभूतास्तथाविधाः नीडं विशंति तदा वृष्टिमुशंति कथयंति ॥ ३३६ ॥ प्रागिति ॥ प्राग्भूमिकायां यदि पांडविका प्रदक्षिणं करोति तदा आदौ जलं स्यात् । यदि द्वितीयभूमौ प्रदक्षिणं करोति तदा मध्यभागे जलं स्यात् अथ चेत्तृतीयभूमौ प्रदक्षिणं करोति तदा प्रांते जलं स्यात् ॥ ३३७ ॥ दीतमिति ॥ यदि पोदकी दीप्तस्वरं तारा याति तदा वंध्यांगनाया इव दीप्तिर्भवति तत्प्रावृषः पीनघनोन्नतानां पयोधराणामभ्राणाम् अपयोधरत्वं स्यात् ॥ ३३८ ॥ प्रदक्षिणमिति भूत्रितयाद्बहिश्चेदुर्गाः कृतवरिशब्दाः प्रदक्षिणं कुर्वति तदा वर्षासु अतीतामु बह्वी वृष्टिः स्यात् । अंतराले अल्पापि न स्यात् ॥ ३३९ ॥ ॥ भाषा ॥ उतनेही दिवसपर्यंत मेघ पृथ्वीकूं नौकासूं तिने लायक करदेवे ॥ ३३५ ॥ खगा इति ॥ जो पक्षी आप्य नाम जलशब्द उच्चारण करत आकाशमें देखे, अथवा बहुत होजाग, वा नीड ( घूसुंआला में ) प्रवेश कर जाय तो वृष्टि करै ॥ ३३६ ॥ प्रागिति ॥ प्रथमभूमिमें जो पांडविका दक्षिणा होय तो आदिमें जलकी वर्षा होय. जो द्वितीय भूमिमें प्रदक्षिणा होय तो मध्यमभागमें जलवर्षै. और जो तृतीयभूमिमें प्रदक्षिणा होय तो अंतमें जलकी वर्षा होय. ॥ ३३७ ॥ दीप्तमिति ॥ जो पोदकी दीप्तस्वरकर तारा आय जाय तो बंध्या स्त्रीकी सी नाई दीप्तस्वर निष्फल है. याते वर्षाऋतु में पुष्ट और ऊंचे मेघनको आगमन तो होय परंतु जल नहीं वर्षे ॥ ३३८ ॥ प्रदक्षिणमिति ॥ जो दुर्गा तीनों भूमिनते बाहर जलशब्द कर प्रद-" Aho! Shrutgyanam Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकरुिते वृष्टिप्रकरणम् । ( २०३ ) अदक्षिणा या विनिवृत्तिकाले सा संमता प्रावृषि वर्षणार्थम् ॥ प्रदक्षिणं याति तु या निवृत्तौ सा ब्रह्मपुत्री घनविघ्नकर्त्री ॥ ॥ ३४० ॥ विमुच्य शब्दं यदि भूत्रयेऽपि भवेद्वितारा विनि-वर्तते तु ॥ तारा तदा स्यात्तपनांशुमालाकरालदाहाकलिता धरित्री ॥ ३४१ ॥ संमृत्र्य वांस्त्वा यदि वा विहंगः स्याद्दक्षिणो वर्षति नितांतम् ॥ पूर्वोक्तकारी यदि चोद्धृतः स्यात्तद्वारिदो वारि ददाति तुच्छम् ॥ ३४२ ॥ श्यामा सुदेशे कृतमूत्रवतिर्महीयसीं शुष्कतरौ तु तुच्छाम् ॥ पाषाणखंडे सतुषारखंड त्रवीति वृष्टि जलदस्य काले || ३४३ ॥ ॥ टीका ॥ अदक्षिणेति ॥ या विनिवृत्तिकाले पोदकी अदक्षिणा वामा स्यात्सा प्रावृषि वर्षणार्थं संमता । तु पुनः या निवृत्तौ प्रदक्षिणं याति सा ब्रह्मपुत्रो घनविघ्नकर्त्री स्यात् ॥ ३४० ॥ विमुच्येति ॥ यदि भूत्रयेऽपि शब्दं विमुच्य वितारा भवेद्यदा पुनः विनिवर्तते तारा स्यात्तदा तपनांशुमालाकरालदाहाकलितेति तपनः सूर्यः तस्य अंशुमाला किरण श्रेणिः तेन यः करालः कठिनो दाहः तापाधिक्यं तेनाकलिता व्याप्ता धरित्री पृथ्वी स्यादित्यर्थः ॥ ३४१ ॥ संमूत्र्येति । यदि विहंगः संमूत्रय वांवा वा प्रदक्षिणः स्यात्तदा नितांतमत्यर्थं वर्षति । यदि पूर्वोक्तकारी उद्धृतः स्यात्तदा वारिदो मेघः तुच्छं वारि ददाति ॥ ३४२ ॥ श्यामेति ॥ यदि वर्षाकाले श्यामा सुदेशे कृतमूत्रवतिर्भवति तदा महीयसीं वृष्टिं ब्रवीति । यदि शुष्कतरौ कृतमूत्रवांतिःस्यात्तदा तुच्छ वृष्टिं ब्रवीति । पाषाणखंडे पुनः सतुषारखंडां वृष्टिं ब्रवीति ॥ ३४३ ॥ ॥ भाषा ! क्षिणा करै तो वर्षा व्यतीत हुये पै बहुत वृष्टि होय. और बीचमें अल्पभी वर्षा न होय ॥ ॥ ३३९ ॥ अदक्षिणेति ॥ जो शकुनसूं निवृत्ति कालमें पोदकी वामा होय तो वर्षाकाल में वर्षा बहुत होय और जो निवृत्तिकाल में दक्षिणा होय तो ब्रह्मपुत्री मेघमें विघ्न करनेवाली होय ॥ ३४० ॥ विमुच्येति ॥ जो पोदकी तीनों भूमिमें शब्दकरके वामा होय और निः वृत्तिकालमें तारा होय. तो सूर्यके किरणोंकी बहुत तापकरके व्याप्त पृथ्वी होय ॥ ३४१ ॥ संमूत्र्येति । जो विहंग मूत्रकरके वा वमनकरके दक्षिण में होय तो अत्यंत वर्षा करे. जो मूत्र करके वमनकरके उद्धृत होय तो मेघ तुच्छ जल देवें ॥ ३४२ ॥ श्यामेति ॥ जो Aho! Shrutgyanam Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। विधाय विष्ठां यदि कृष्णपक्षी तारो भवेत्तद्विनिहंति वृष्टिम् ॥ उत्सृज्य वर्षों यदि याति वाममवग्रहं तत्सुमहांतमाह ॥३४४॥करोति नीडंभुवि चेहराही समान्यपत्यानि विजायतेवा॥ समुद्भवद्भानुमयूखवह्निर्जाज्वल्यते तज्जगतीं समस्ताम्॥३४५॥द्वारादिदेशेषु गृहस्य यस्य प्रत्यक्षरूपा कुरुते कुलायम् ॥ अंभोधरो वर्षति चेत्तथापि तच्छन्यतां याति च भज्यते वा ॥३४६॥ गर्ते सरिद्रोधसि वा वराही शावानयुग्मानपि चेत्प्रसूते ॥ नांभोधरो मुंचति तावदंभो यावत्समुज्झय्य न ते व्रजंति ॥ ३४७॥ ॥ टीका ॥ विधायेति ॥ यदि कृष्णपक्षी विष्ठां विधाय तारो भवेत्तदा वृष्टि विनिहंति । यदि वर्चः उत्सृज्य वामं याति तदा सुमहांतमवग्रह,जलदप्रतिबंधकम् आह कथयतीत्यर्थः ॥ ३४४ ॥ करोतीति ॥ चेद्यदि वराही भुवि नीडं कुरुते यदि वा समान्यपत्यानि विजायते तदा जगती समस्ता समुद्भवद्धानुमयूखवह्निभिः जाज्वल्यते ॥ ३४५ ॥ द्वारादीति ॥ यस्य गृहस्य द्वारादिदेशेषु प्रत्यक्षरूपा कुलायं पक्षिनिवासस्थानं कुरुते तदा चेद्यदि अंभोधरो वर्षति तथापि तद्गृहं शून्यतां गच्छति भन्यते वा ॥ ॥ ३४६ ॥ गर्तेति ॥ गर्ते खाते सरिद्रोधसि वा यदि वराही शावानयुग्मान्विषमसंख्याकान्प्रसते तदा तावदंभोधरोन वर्षति यावत्ते समुज्झय्य नः व्रजति३४७॥ ॥भाषा। श्यामा वर्षासमयमें सुंदेशमें मूत्र करै वमन करे तो महान् वृष्टि करै. जो शुष्कवृक्षों मूत्र वमनकरै तो तुच्छ वर्षा होय और जो पाषाणके ऊपर करै तो तुषारकी खंड खंड वृष्टि होय ॥ ३४३ ॥ विधायेति ॥ जो कृष्णपक्षी वीटकरके जेमने भागमें आय जायतो वष्टिकू नाश करै. जो वीट करके वामभागमें आय जाय तो महान् मेघको प्रतिबंधक कहेहैं ॥ १४४ ॥ करोतीति ॥ जो वराही पृथ्वीमें अपनो स्थानकरके समान अपत्य प्रगट करै तो सूर्यकी किरणरूप अग्नि समस्त पृथ्वीकू तापकरै ॥ ३४५ ॥ द्वारादीति ॥ जा घरके द्वारकू आदिलेके कोई स्थानमें पोदकी अपनो निवास स्थान करे तो मेघवर्षा तो करै परंतु वा घरकू वा स्थानकू सूनो करदे अथवा फूट जाय गिरपडै ॥ ३४६ ॥ गर्तेति ॥ गर्तमें नदीकी तटपै विषम ऊनसंख्या बालक प्रगट करै तो जब ताई वे बच्चा उड़करके नहीं चलन १ समुत्पूर्वकादुझेगुरोश्चहल इत्यप्रत्यये तत्करोतीति णिचिं समासेऽनजिति ल्यपि सिद्धं तदपेक्षया समुस्लुज्येति पाठः सुगमः । २ अन्तर्भावितण्यर्थोऽत्र ज्वलिः । Aho! Shrutgyanam Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते धान्यनिष्पत्तिप्रकरणम् । ( २०५ ) प्रासादशैलद्रुमकोटरेषु तुंगेषु चान्येषु विधाय नीडम् ॥ प्रसूयते यद्यसमैर पत्यैः श्यामा तदंभो भवति प्रभूतम् ॥ ॥ ३४८ ॥ इति वृष्टिप्रकरणम् ||१६|| आख्यास्यामो धान्यनिष्पत्तिहेतोयद्यादृक्षं प्रोक्तमाद्यैर्निमित्तम् ॥ ज्ञाते तस्मि ब्रह्मपुत्रीरुतेऽस्मिन्कर्तुं शक्यः केन कस्योपकारः ॥ ३४९ ॥ धान्यानाहुः केचिदष्टादशास्मिंस्तेषां मध्याद्यस्य यावंति संति ॥ तावद्भेदाः कुडयरेखादिभिर्यैस्तिस्रोऽप्युर्व्यस्तेन सम्यग्विधेयाः ॥ ३५० ॥ ॥ टीका ॥ प्रासादेति । प्रासादशैलकुमकोटरेष्विति प्रासादो देवभूपानां गृहं शैलः पर्वतः मकराणि प्रसिद्धानि एषु अन्येष्वपि च तुंगेषु नीडं विधाय यदि श्यामाअसमैः अपत्यैः प्रसूयते तदा प्रभूतमंभः स्यात् ।। ३४८ ॥ इति शत्रुंजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रविरचितायां वसंतराजटीकायां पोदकीरुते वृष्टिप्रकरणम् ॥ १६ ॥ आख्यास्याम इति ॥ ब्रह्मपुत्रीरुते धान्यनिष्पत्ति हेतोराद्यैः सुनिभिः यादृशं निमित्तं प्रोक्तं तादृग्वयं आख्यास्यामः । तस्मिञ्ज्ञाते सति कैः कस्योपकारः कर्तुं न शक्यः नेतिशेषः ॥ ३४९ ॥ धान्यानीति ॥ अस्मिँल्लोके केचिदष्टादश धान्यान्याहुः तानि ॥ भाषा ॥ लगे तब तांई मेघ नहीं वर्षे ॥ २४७ ॥ प्रासादेति ॥ देवमंदिर, राजनको घर पर्वत, वृक्षी कोटरा इनमें औरभी ऊंचे स्थान तिनमें अपनो घर करके पोदकी जो विषमपुत्र प्रकट करे तो बहुत जल वर्षे ॥ ३४८ ॥ इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचितायां वसंतराजभाषाटीकाय पोदकीरुते वृष्टिप्रकरणं षोडशम् ॥ १६ ॥ आख्यास्याम इति ॥ ब्रह्मपुत्री के शब्द में धान्यकी सिद्धिके कारण आयमुनिनने जैसो निमित्त कह्यो है तैसोही हम कहे हैं. ताकूं जाननेसे सबको उपकार करबेकूं योग्य होय है ॥ || ३४९ ॥ धान्यानीति ॥ या लोकमें कोई अठोर धान्य कहैं हैं, कौनसे हैं सो कहें हैं Aho! Shrutgyanam Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। प्रत्येकमुशिकलेषु तेषु मुख्यक्रमेणाखिलधान्यमुष्टिम्॥क्षिपेत्ततोगच्छति यत्र तारी निष्पद्यते तनियमेनधान्यम्३५१॥ त्रिषु क्षिपेदेकमिलातलेषु धान्यं ततो दक्षिणगे विहंगे ॥पूर्वोतमध्योप्ततदुत्तरोप्तधानस्य वृद्धिःप्रथमादिभूषु॥३५२॥शुभस्वरा तारगतिवराही भस्माथवारोहति दग्धवृक्षम्॥सुरक्षितस्यापि भवेत्कुतोऽपि पकस्य धान्यस्य तदग्निदाहः ॥३५३॥ ॥टीका ॥ चेमानि चपलः १ हरिमंथकः २ तुरिः ३ मसूरिः ४कुलत्थः ५गोधूमः ६ वल्ल: ७ शालिः ८ जवः ९ कोद्रवः १० रालः ११ तिलः १२ मुद्गः १३ माषः १४ अतसिः १५ त्रिपुटकं १६ मुकुटः १७ कंगुः १८ कापि चतुर्विंशतिधान्यान्युक्तानि वनोद्भवान्यन्यानि बहूनि संति तेषां मध्याद्यस्य पुरुषस्य यावंति तेन शाकुनिकेन तावद्भेदाः तिस्रोप्युर्व्यः कुडयरेखादिचिकैरिति कुड्यं नाम भित्तिः रेखा प्रतीता आदिशब्दादन्येषां परिग्रहः चिह्नः तल्लक्ष्मभिः सम्यग्विधयाः॥३५०॥ प्रत्येकमिति तेष पृथ्वीशकलेषु मुख्यक्रमेण प्रत्येकं धान्यमुष्टिं क्षिपेत्ततो यत्र तारा गच्छति तन्नियमेन धान्यं निष्पद्यते ॥३५१॥ त्रिष्विति ॥ इलातलेषु त्रिषु एकं धान्यं क्षिपेत्ततःतदनंतरं दक्षिणगे विहंगे प्रथमादिभूषु पूर्वोप्तमध्योप्ततदुत्तरोप्तधान्यस्य वृद्धिरिति पूर्वमुप्तं भूमौ क्षिप्तं मध्ये यदुप्तमेवं तदुत्तरोप्तं यद्धान्यं तस्य वृद्धिः ज्ञेया । प्रथमभूमौ तारया प्रथमोप्तं द्वितीयभूमौ मध्योप्तंतृतीयभूमौ तदुत्तरोप्तं धान्यं भवतीति तात्पर्यार्थः ॥ २५२ ॥ शुभ इति॥ यदा शुभस्वरा तारगतिवराही भस्म यदि वा ॥भाषा॥ चपल १ हरिमंधक २ तुवरि ३ मसार ४ कुलत्थ ५ गोहूं ६ बल्ल७ शालि । जव ९ कोद्रवा १० राल ११ तिल १२ मुद्ग १३ माष १४ अतसी १५ त्रिपुटक १६ मकुट १७ कंगु १८ ये अठारे हैं कोई चौवीसधान्य कहेहैं. और वनमें हुये धान्य बहुत हैं. उनके मध्यमें पुरुषके जितनेहैं उतने शकुनी करके भेद तीनों पृथ्वीकी भीतमें रेखा वा और चिह्नकरनो योग्य है ॥ ३५० ॥ प्रत्येकमिति ॥ वा सब पृथ्वीमें एक एकमें धान्यको मुष्टी डालै ता पीछे जहां तारा होयकर गमन करे तहां तहां तो नियमकरके धान्य होय ॥ ३५१ ॥ त्रिष्विति ॥ पृथ्वीके तीनों भागमें एक धान्य डालै ता पीछे विहंग दक्षिणमें गमन करे तो प्रथमभूमिमें बीजवो यो होय और श्यामा तारा होय तो प्रथमधान्य प्रथममें होय और दूसरी भूमिमें वोयेपछि दक्षिणा होय तो दूसरेमें दूसरे होय तीसरेमें बातें पीछे होय ॥ ३५२ ॥ शुभ इति ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते धान्यनिष्पत्तिप्रकरणम् । (२०७) तारापि भूत्वोपदि याति दीप्तं विरुद्धभावा शकुनैकदेवी ॥ तदेति पृथ्वीशहुताशपरैरुत्साद्यतेशस्यमवाप्तवृद्धि ॥३५४॥ कीटजग्धमफलांकुरशाख माखिनं श्रयति दक्षिणगापि ॥ पोदकी यदि तदा खलु धान्य क्षयंति शलभाखुशकाद्याः ॥३६५॥ दक्षिणेरटतिगच्छति वाम एपमाश्रयतिकर्मवि पाकात् । पांडवी यदि तदा नियमेन ब्रीहयः पयति । पाकम् ॥ ३५६॥ पूर्णोत्पत्तिः पूर्णया तारया स्याद त्वर्द्रतारा ब्रवीति ॥ धान्यस्य स्याद्रामया सर्वनाशस्तस्य त्वद्धनाशयत्यर्द्धवामा ॥३५७ ॥ ॥ टीका ॥ दग्धवृक्षमधिरोहति तदा मुरक्षितस्यापि पक्वस्य धान्यस्य अमितो दाहः स्यात् ।। ॥ ३५३ ॥ तारापीति ॥ यदि विरुद्धभावा शकुनैकदेवी तारापि भूत्वा दीप्त स्थलं याति पृथ्वीशद्वताशचौरैः अवाप्तवृद्धि शस्यमुत्साद्यते दूरीक्रियते ॥ ३५४ ॥ कीट इति ।। यदि दक्षिणगापि पोदकी कीटजग्धं अफलांकुरशाख फलांकुरशाखा वर्जितं शाखिनं श्रयति तदा शलभाखुशुकाद्या इति शलभाः तीडी इति प्रसिद्धाः आखवः मूषकाः शुकाद्याः प्रतीताः खलु निश्चयेन धान्यं भक्षयंति ॥ ३५५ ॥ दक्षिण इति ॥ यदि पोदकी दक्षिणे रटति कर्मविपाकादीप्तं वामं स्थानं आश्रयति तदा नियमेन ब्रीहयः न पाकं समुपयाति ॥ ३५६ ॥ पूर्णति ॥ पूर्णया तारया पूर्णोत्पत्तिः धान्यस्य स्यात् । अर्थोत्पत्ति अर्धतारा ब्रवीति वामया धान्य ॥ भाषा॥ जो शुभ शब्दकर जमनी चली जाय और भस्मा होय दग्धवृक्षके ऊपर जाय बैठे तो खूब रक्षा जाकी होय रही होय पकोहुयो धान्य होय तो अग्निकर जर जाय ॥ ३५३ ॥ तारापीति ॥ जो पोदकी विरुद्धभाव होय फिर तारा भी होय करके दीप्तस्थानमें आय जाय तो राजा करके अग्निकरके चौर करके धान्यकी बृद्धि नाश करै ॥ ३५४ ॥ कीट इति ॥ जो पोदकी जेमनी भी होय कीडाको खायो फल अंकुर शाखा रहित वृक्षपै स्थित होय तो टीडी मूसासू या इनकू आदिले जन्तु निश्चयही धान्यकू भक्षण करें ॥ ३६५ ॥ दक्षिण इति ॥ जो पोदकी जेमने भागमें शब्द करै कोई कर्म फलसूं वाममें होय दीप्तस्थानमें स्थित होय तो नियम करके चावल परिपक्क नहीं होय ॥ ३५६ ॥ पूर्ण इति ॥ जो श्यामा दक्षिणभागमें Aho ! Shrutgyanam Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०८). वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः । सौम्यारवा भूत्रितयेऽपि भूत्वा तारा नितान्तं रम्त्रयति प्रशा न्तम् ॥ स्यादुद्धतकापि यदा निवृत्तौ श्यास्यं भवेद्भरिफलं तदानीम् ॥ ३५८ ॥ स्यादुद्धृता यायवनित्रयेऽपि निवृत्तिकाले यदि दक्षिणातत्॥ सिद्धोऽपि यतार्थतया परार्थों त्रीहिर्बत्रीहिसमासवपस्यात् ॥ ३५९॥ इति धान्यनिष्पत्तिप्रकरणं सप्तदशम् ॥ १७॥ पण्यं मामर्घ यपि वामहर्घभावीति यस्मादवगम्यमेतत्॥ ब्रूमोऽथ यत्रावगते समस्ता कृतार्थतास्यादणिजां गृहेऽपि ॥३६०॥ ॥टीका॥ स्य सर्वनाशः स्यात् । अर्द्धवामा पुनः अर्द्धशस्यं नाशयति ॥ ३५७ ॥ सौम्यारवेति ॥ यदि भूत्रितयेपि सौम्यारवा भूत्वा तारा नितांतं प्रशांतं श्रयति यदा निवृत्तौ उतैकापि स्यात् तदा शस्यं भूरिफलंभवेत् ॥ ३५८ ॥ स्यादिति ॥ पद्यवनित्रयेपि उद्धृता स्यात् यदि पुनः निवृत्तिकाले दक्षिणा स्यात् तदा युक्तार्थतयापि सिद्धोऽपि बीहिः पदार्थः स्यात् । किंवत् बहुव्रीहिसमासवत् ॥ ३५९ ॥ इति शत्रुञ्जयकरमोचनादिमुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रविरचितायां वसंतराजटीकायां पोदकीरुते धान्यनिष्पत्तिप्रकरणं सप्तदशम्॥१७॥ पण्यामिति ॥ पण्यं क्रयाणकं समर्घ स्वल्पमूल्यं यदि वा महर्घ बहुमूल्यं भावाति यस्मादवगम्यते तद्भूमः ॥ यथाति अस्मॅिल्लोके यस्मिन्नवगतेसति वणिजां गृहेऽपि ॥ भाषा। पूर्ण होय तो धान्यकी पूर्ण उत्पत्ति होय.जो अर्द्धतारा हाय तो अर्धधान्यकी उत्पत्ति होय और वाम होय तो सर्व धान्यको नाश होय. और अर्द्धवामा होय तो अर्ध अन्नको नाश होय ॥ ३५७ ॥ सौम्यारवेति ॥ जो तीनों पृथ्वीमें सौम्य शब्द कर निरन्तर शांतस्थानमें स्थित होय जो निवृत्तिमें उद्धृता होय तो अन्न बहुत फलवान् होय ॥ ३५८ ॥ स्यादिति ॥ जो श्यामा तीनों पृथ्वीमें उद्धृता होय जो फिर निवृत्तिकालमें दक्षिणा होय तो योग्यतासू सिद्ध भी होय गयो ब्रीहि अन्न चावल तोभी परार्थही होय स्वार्थमें नहीं होय ॥ ३५९ ॥ इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छीधरविरचितायां वसंतराजभाषारीकायां पोदकीरुते धान्यनिष्पत्तिप्रकरणंसप्तदशम् ॥ १७ ॥ पण्यमिति ॥ जो वस्तु खरीदनी है वो वस्तु महँगी होयगी वा सस्ती होयगी के Aho! Shrutgyanam Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते समप्रमहर्षप्रकरणम्। (२०९) पण्यस्य यस्योच्चरितेऽर्थवाक्ये प्रदक्षिणीभूय विहाय दीप्तम् ।। श्यामा समारोहति पादपायं महर्घता तस्य भवत्यभीष्टम् ।। ॥३६१ ॥ अदक्षिणायां शकुनैकदेव्यां समर्घतां पण्यधनं प्रयाति ॥ सा चेत्प्रदीप्तं श्रयते कथंचित्पण्यं तदानी लभते न किंचित् ॥ ३६२ ॥ प्रदक्षिणानां गणना भवेद्या भांडस्य तावद्गणमर्घमाहुः ॥ ब्रजंति तावद्गणनास्तु वामा वदंति तावद्गुणमर्चपातम् ॥ ३६३ ॥ विण्मूत्ररूक्षध्वनिकायकंपस्वपिच्छसंत्रोटनकारिणी या ॥ सा पांडवी दुर्लभमप्यवश्यं धान्यं समर्ध कुरुतेऽतिमात्रम् ॥ ३६४॥ || टीका ॥ समस्ता कृतार्थता स्यात् ॥ ३६० ॥ पण्यस्येति ॥ यस्य पण्यस्य अर्थवाश्ये उ. चारते पोदकी प्रदक्षिणीभूय दीप्तं विहाय पादपाग्रं समारोहति तस्य महर्षताअभीष्टं भवति ॥ ३६१ ॥ अदक्षिणायामिति ॥ अदक्षिणायां शकुनैकदेव्यां पण्यधनं समर्घता प्रयाति । सा चेत्प्रदीप्तं प्रदेशं श्रयते तदानीं न किंचित्पण्यं लभ्यते॥३६२॥ प्रदक्षिणानामिति ॥ या गणना प्रदक्षिणानां भवेत् तावद्गुणं भांडस्य अर्घमाहुः । तु पुनः यदि तावद्गणना वामा व्रजति तदा तावद्गुणम् अर्घपातमाहुः ॥ ३६३ ॥ विण्मूत्रति ॥ विण्मूत्ररूक्षध्वनिकायकंपस्वपिच्छसंत्रोटनकारिणी या पांडवी सा ॥ भाषा ।। जासे जानेजाय है सो ये हम कहेहैं. और या लोकमें ये जाननेसे वणिआन के घरमें कृतार्थता होयहै ॥ ३६० ॥ पण्यस्यति ॥ जा वस्तुको अर्थवाक्य उच्चारण करै फिर पो. दकी दक्षिणावर्त होयकर दीप्तस्थानकू छोड वृक्षके अग्रभागमें जाय बैठे तो वो वस्तु महँगी होय. ॥ ३६१ ॥ अदक्षिणायामिति ॥ जो वामा होय जाय तो वो वस्तु सस्ती होय. वोही जो प्रदीप्तदेशमें स्थित होय, तो महँगी भी न होय सस्तीभी नहीं होय ॥ ३६२ ॥ प्रदक्षिणानामिति ॥ दक्षिणावर्त पक्षीनके शब्दकी जितनी गणना होय तितने ही गुण वा वस्तुमें होय और वामा पोदकीको जितनी गणना होय उतनेही गुण वा वस्तुमें पात कहेहैं ॥ ३६३ ॥ विण्मूत्रति ॥ विटू मूत्र रूखो शब्द देहको कंपन अपनी पूंछको उखाडनो इन आचर Aho! Shrutgyanam Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१०) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। विभज्य भूमित्रितयं क्रमेण तेषु क्षिपेत्पण्यलवान्समस्तान् ॥ तस्याघहानिः खलु यत्र वामा महर्घता तस्य तु यत्र तारा ॥३६९ ॥वामारवा दक्षिणतः प्रयाति श्यामा शांत सेवते चेत्प्रदेशम् ॥ पुंसां यस्मिन्संगृहीते हृदिस्थे तं क्रीणीयाद्विक्रयार्थ पदार्थम् ॥ ३६६॥ इति पो० समर्घम० प्र० ॥१८॥ आयुवर्षशतं हि विंशतियुतंप्रायो नराणां भवेन्न्यस्तं तद्धरणीत्रयं त्रिगणितं यत्रावनौ दक्षिणा ॥ तावद्वत्सरमायुरिष्टमुदितं दीतेऽत्र दुःखप्रदंभूमौ यत्र गता परत्रमरणं वर्षेषु तेष्वादिशेत् ३६७ ॥ टीका ॥ दुर्लभमपि धान्यमवश्यं समर्थी कुरुते अतिमात्रमतिशयेनेत्यर्थः ॥ ३६४ ॥ विभज्येति ॥ भूमित्रितयं विभज्य क्रमेण तेषु पण्यलवान्समस्तान क्षिपेत खलु निश्चयेन यस्य वामा तस्याहानिः । यस्य तारा तस्य महर्षता स्यात् ॥ ३६५ ॥ वामेति ॥ या पोदकी वामारवा दक्षिणेन प्रयाति चेत्प्रदेशं शांत सेवते तदा पुंसां नृणां संगृहीते हृदिस्थे यस्मिन्पदार्थ तं विक्रयार्थ पदार्थ क्रिणीयात् ॥ ३६६ ॥ इति शत्रुजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रविरचितायां वसंतराजटीकायां पोदकीरते समर्घमहर्घप्रकरणमष्टादशम् ॥ १८॥ आयुरिति ॥ प्रायो मानुषे विंशतियुतं वर्षशतमायुर्भवेत् तत्रिगणितं धरणीत्रयं न्यस्तं भवति यत्रावनौ दक्षिणा स्यात् तावद्वत्सरमायुरिष्टमुदितम् । दीप्ते अत्र ॥ भाषा॥ णकं करती होय ऐसी पोदकी दुर्लभ धान्यकू अवश्य अत्यंत सस्तो करैहै ॥ ३६४ ॥ वि. भज्येति ॥ तीन भूमीनको विभाग करके उन भूमीनमें सब वस्तुनके कणा लेकर डाल दे फिर जाके पोदकी वामा होय ता वस्तुकी हानि होय और जाके श्यामा जेमनी होय ताकी महर्षता होय ॥ ३६५॥ वामेति ॥ जो पोदकी वाममें शब्दकर दक्षिणमें आय जो शांतदेशमें स्थित होय तो पुरुषनके संग्रह कियो पदार्थ मनमें बेचवेकू करतो होय तो बेचदेवै ॥ ३६६ ॥ इतिश्रीवसंतराजभाषाटीकायांपोदकीरुतेसमप्रमहर्षप्रकरणमष्टादशम् ॥१८॥ ॥ आयुरिति ॥ मनुष्यकी एकसौ वीसवर्षकी आयुहै ताकी तीन पृथ्वी चालीसचालीस वकी करनी, जा पृथ्वीमें तारा दक्षिण होय उतने वर्षकी आयु जाननी और दप्तिभूमिमें होयतो दुःख Aho! Shrutgyanam Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते जीवितमरणप्रकरणम् । (१११) रुक्शस्त्रघातादिनिपीडितानां बूमोऽधुना जीवितजीवनाशौ ॥ यथादिशेत्पांडविकाप्रसादादाश्चर्यमुत्पादयते मनुष्यः३६८॥ किमेष जीविष्यति पृच्छयमाने प्राणी चिरं जीवति दक्षिणायाम् ॥ मरिष्यतीत्येष तु पृच्छयमाने प्राणी चिरं जीवति चोद्धतायाम् ॥३६९॥ या वामगा तोरणसंनिवेशे तारा नु या याति निवृत्तिकाले ॥ जिजीवि मारयते ध्रुवं सा सैव ध्रुवं जीवयते मुमूर्षुम् ॥ ३७० ॥ वामा चेष्टा वामतो यानमस्या दीप्तं स्थानं भाषणं दक्षिणेन ॥ भक्ष्योत्सर्गों वृक्षतश्चावरोहो विष्टामूत्रं पक्षिणा विप्रलंभः ॥ ३७१॥ ॥ टीका ॥ दुःखप्रदं भवति । यत्रापरत्र भूमौ गता तेषु वर्षेषु मरणमादिशेत् ॥३६७॥ गिति यथा पांडविका आदिशेत् तथा रुक्शस्त्रघातादिनिपीडितानां जीवितजीवनाशी वयं ब्रूमः यत्प्रसादान्मनुष्यः आश्चर्यमुत्पादयते ॥ ३६८ ॥ किमेषेति ॥ किमेष जीविष्यतीति पृच्छयमाने पोदकी दक्षिणायां तदा प्राणी चिरं जीवति । तु पुनः एष मरिष्यतीति पृच्छयमाने पोदकी उद्धृतायां तदा प्राणी चिरं जीवति ॥३६९॥ या पामेति ॥ तोरणसंनिवेशे या वामगा भवति तु पुनः निवृत्तिकाले या तारा याति सा ध्रुवं जिजीविषु मारयते सैव ध्रुवं मुमूर्षु जीवयते ॥ ३७० ॥ वामेति ॥ वामचेष्टा वामतोयानमस्या देव्याः दीप्ते स्थले स्थानं स्थितिः दक्षिणेन भाषणं शब्दः ॥ भाषा॥ की देनेवारी जाननी इनते न्यारीबची भूमिमें तारा होय तो उनवर्षनमें मरण कहनो ॥ ३६७ ॥ रुगिति ।। जैसो पांडविका कहैंहैं तैसोही रोगशस्त्रवातादिकनकर पीडायमान होय रहै तिनको जीवननाश हम कहैहैं जाकी कृपाते मनुष्य आश्चर्य प्रगटकरै ॥ ३६८ ॥ किमेषइति ॥ ये कहा जीवेगो ऐसे पूछे तब पोदकी दक्षिणा होय तो प्राणी चिरकालताई जीवे ये मर जायगो ऐसो प्रश्न करै तब पोदकी उद्धृता होय तो प्राणी चिरकाल ताई जीवै ॥ ३६९ ॥ या वामगेति ॥ तोरणके प्रवेशमें जो वामगा होय और निवृत्ति होतीसमयतारा होय तो निश्चयही जीवेकी इच्छा जाकू होय ताय तो मारै ओर वोही श्यामा मरबेकू. जाकू इच्छा होय ताय जिवावे ॥ ३७० ॥ वामेति ॥ पोदकीकी बामचेष्टा होय, वाममाऊं दीप्तस्थानमें Aho ! Shrutgyanam Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) वसंतराजशाकुने - सप्तमो वर्गः । नाशत्रासौ मूर्द्धदेहप्रकं पादधोमुखं वेत्यमूनि क्रमेण || शांताशेषव्याधिबाधानुबंधं दीर्घं कालं जीवयंते मुमूर्षुम् ३७२ ॥ युग्मम् ॥ तारा स्त्रीणां व्याधिनाशं विधत्ते वामा मृत्युं दीर्घतां वा गदस्य || शांते प्रश्न शांतिदं शांतमेव प्रश्ने दीप्ते शोभनं स्यात्प्रदीप्तम् ॥ ३७३ ॥ आमयनाशनमौषधमेतत्पृष्ट इति प्रतिलोमगतिर्या ॥ हंति रुजं सरुजोऽचिरतः सा प्रश्नविपर्ययतस्त्वनुलोमा ॥ ३७४ ॥ ॥ टीका ॥ . भक्ष्योत्सर्गी वृक्षतश्चावरोहः विष्ठामूत्रं पक्षिणा विप्रलंभः वियोगः ॥ ३७१ ॥ नाशेति ॥ नाशत्रासौ मूर्धदेहप्रकंपौ अधोमुखं वेत्यमूनि चेष्टाविशेषाणि स्युः तदा शांताशेषव्याधिवाधानुबंधमिति शांताः अशेषाः समस्ताः व्याधिवाधायाः अनुबंधाः परंपरा यत्र स तथा असौ मुमूर्षुः विदीर्घ कालं जीवति ॥ ३७२ ॥ युग्मम् ॥ तारेति ॥ तारा स्त्रीणां व्याधिनाशं विधत्ते वामा मृत्युं वा गदस्य दीर्घतां शांतप्रश्ने शांतिदं शांतमेव स्याद्दीप्ते प्रश्ने दीप्तमेव शोभनम् ॥ ३७३ ॥ आमयेति ॥ आमयनाशनमौषधमेतत् इति पृष्ठे या प्रतिलोमगतिः सा सरुजोऽपि अचिरतः रुजं हंति प्रश्नविपर्ययतस्तु अनुलोमा शुभा ॥ ३७४ ॥ ॥ भाषा ॥ जाय और दक्षिणमाऊं शब्दकरे और भक्ष्यवस्तुको त्यागकरै और वृक्षपेसूं उतरती होय और विट्त्रकरे और पक्षी करके वियोग होय ॥ ३७१ ॥ नाशेति ॥ मस्तक और देहकंपा नाश और त्रास ये होंय और नीचो मुख होय और पहले श्लोक में चेा कही ते होय तो मरवालाकी सब व्याधि और बाधा अनेक प्रकारकी शांत होम करके दीर्घकालपर्यंत जीवे || ३७२ || तारेति ॥ श्यामा तारा होय तो स्त्रीनकी व्याधि नाश करे. और वामा होय तो मृत्यु वा रोगकी वृद्धि होय और शांतप्रश्नमें तो शांतशकुन शांतिको देबेवारो है. और दीप्तप्रइनमें दीप्तशकुन शुभ है ॥ ३७३ ॥ आमयेति । ये औषय रोगकुं नाश करबेवारो है ऐसो प्रश्नकरे तब जो श्यामा प्रतिलोम गमन करे तो रोगी के रोगकूं शीघ्रही दूर करे. और जो विपरीत प्रश्नकरे तो इयामा अनुलोमा होय तो शुभ करे. नहीं तो अशुभ जाननो ॥ ३७४ ॥ . १ फलितार्थकथनमिदम् । Aho! Shrutgyanam Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते सुखादिप्रकरणम् । (२१३) इति पोदकीरुते जीवितमरणे एकोनविंशतितमंप्रकरणम् १९॥ अथ कथ्यते शकुनिरुते सौख्यादीनि बहुनि प्रकरणमधि ॥ कृत्यैकमिदं यस्मात्तानि लघूनि द्विपथिकः ॥३७९॥ सुखावहा मैत्रि भविष्यतीति प्रकृते दक्षिणगा सुखाय ॥ दुःखात्ययो मैत्रि भविष्यतीतिप्रश्श्रेऽपि दुःखं विनिहंति सैव ॥ ॥३७६॥ केशोऽधुना मंच विनंक्ष्यतीति प्रश्रेऽनुलोमा सुखदान वामा॥ अद्यापि मे दुःखमुदेष्यतीति प्रों वितारा सुखदा न तारा ।। ३७७॥ ॥ टोका ॥ इति शत्रुजयकरमोचनादिमुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचद्रविरचितायां वसंतराजदीकायां पोदकीरुते जीवितमरणप्रकरणमेकोनविंशतितमम् ॥ १९ ॥ ___ अथेति ॥ पूर्वप्रकरणकथनानंतरं एकप्रकरणमधिकृत्य शकुनिरुते सौख्यादीनि बहूनि कथ्यते यस्मात्तानि पूर्वोक्तानि लघूनि प्रकरणानि द्विपथिक छंदः ॥३७५ ॥ सुखावहेति॥इदं वस्तु मे मुखावहं भविष्यतीति प्रश्ने दक्षिणगा सुखाय भवति दुःखात्ययो दुःखाभावो मम भविष्यतीति प्रश्ने सैव प्रदक्षिणा दुःखं विनिहन्ति॥३७६॥ क्लेश इति ॥ अधुना मम क्लेश: मंक्ष शीघ्रं विनश्यतीति प्रश्ने अनुलोमा मुखदा भवति न वामा अद्यापि मे दुःखमुदेष्यतीति प्रश्न वितारामुखदा न तारा३७७॥ ॥ भाषा ॥ इति श्रीजटाशंकरतनयश्रीधरविरचितायां वसंतराजभाषाटीकायां पोदकीरते जीवितमरणमेकोनविंशतितमं प्रकरणम् ॥ १९ ॥ अथेति ॥ या पोदकी रुतनाम प्रकरणमें बहुतसे सौख्यादिक कहै हैं, अब पहले कहआये जे सुखादिक तेही लघुप्रकरण ॥ यह श्लोकमें द्विपथिक छंदकरके कहें हैं ॥ ३७५ ॥ सुखावहति ॥ ये वस्तु वा मैत्री मोकू सुखकी देबेवारी होयगी ऐसो प्रश्न करै. तब जो श्यामा दक्षिणमें होय तो सुख करे, और मोकू दुःखको अभाव होयगो ऐसो प्रश्नकरै तो भी प्रदक्षिणा होय तो दुःखकू दूरकरै ॥ ३७६ ॥ केश इति ॥ अब मेरो क्लेश शीघ्रही मिटैगो ऐसो प्रश्न करै तब अनुलोमा श्यामा सुखकी देबेवाली है. और, वामा सूखकू नहींदेवैहै और अभी मोकू दुःख होयगो ऐसो प्रश्न करे तो पोदकी वितारा होय तो सुख देवे. और जो तारा होय तो सुख नहीं देवे ॥ ३७७ ॥ 'Aho! Shrutgyanam Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४) वसंतराजशाकुन-सप्तमो वर्गः। लाभोऽभीष्टं स्यादवश्यं ममेति प्रश्ने तारा लाभदा नैव वामा ॥कार्येऽमुष्मिन्नास्ति लाभो ममेति प्रश्ने वामा लाभदा नानुलोमा ॥३७८॥वामस्वरा दक्षिणगा निजेन संयुज्य: माना शकुनिः पुमांसम् ॥ जनेन संयोजयति प्रियण वियोजयत्युक्तविपर्ययेण ॥३७९॥ स्याद्वाणिज्ये तारया भूरिलाभो लाभाभावोवामया तत्र चस्यात् ॥तारा लब्ध्यै सेवयाद्रव्यलिप्सोर्वामा श्यामा निष्फलां वक्ति सेवाम्।।३८०॥वामारवा शोभनचेष्टिता च करोति ताराभिमतार्थलाभम् ॥ दुश्चेष्टिता दक्षिणनादिनी च वामा चकामान्विनिहति सर्वान् ॥३८॥ ॥ टीका ॥ लाभ इति ॥ ममाभीष्टो लाभः अवश्यं स्यादिति प्रश्ने तारा लाभदा भवति नैव वामा।तथा अमुष्मिन्कार्येमम लाभो नास्तीति प्रश्ने वामा लाभदा नानुलोमा॥३७८॥ वामस्वरेति ॥ वामस्वरा दक्षिणगानिजेन पुंसासंयुज्यमाना शकुनिः पुमांसं प्रियेण जनेन संयोजयति उक्तविपर्ययेण वियोजयति ॥ ३७९॥ स्यादिति ॥ वाणिज्यप्रश्ने तारया भूरिलाभो वाणिज्ये स्यात् वामया तत्र लाभाभावःस्यात् सेवाप्रश्ने सेवया द्रव्यलिप्सोः पुंसः तारा लब्ध्यै स्यात् वामाश्यामा निष्फलां सेवां वक्ति ॥३८०॥ वामारवेति ॥ वामारवां शोभनचेष्टिता वा तारा अभिमतार्थसिद्धिं करोति दुश्चेष्टिता ॥ भाषा ॥ लाभ इति ॥ मोकू अभीष्ट लाभ अवश्य होयगो ऐसा प्रश्नकरै तो तारा सुख देवे वामा होव तो नहीं कर और या कार्यमें मोकू लाभ नहीं है ऐसो प्रश्नकरै वामा लाभ देवे और अनुलोमा नहीं देवे।। ॥ ३७८ ।। वामस्वरेति ॥ वामस्वरादक्षिणमें गमनकर अपने पुरुषकरयुक्त होय तो पुरुषा प्यारे जननकरसंयोग करावे और दक्षिणस्वरा वामा होय तो निजजननको वियोग करावे ॥ ॥ ३७९ ॥ स्यादिति ॥ जो वाणिज्यको प्रश्न होय और पोदकी तारा होय तो बहुत लाभपूर्वक वाणिज्य होय. जो वामा होय तो लाभको अभाव होय जो सेवाके प्रश्नमें सेवाकरके द्रव्यकी वाञ्छावान् पुरुषकू तारा होय तो लाभ करै. जो वामा होय तो सेवा निष्फल होय ॥ ३८० ॥ वामारवति ॥ वामारवा होय और सुंदर चेष्टाकरती होय Aho! Shrutgyanam Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते मुखादिप्रकरणम् । श्यामानुकूल्याय परस्परस्य प्रदक्षिणां स्वामिसहाययोः स्यात् ॥ तयोश्च भिन्ने हृदि शंक्यमाने भेदाय तारा न पुनर्वितारा ॥ ३८२ ॥ प्रदक्षिणायां परचक्रमुग्रमायाति नायाति तदुद्धृतायाम् || स्यादक्षिणायामपि सुस्वरायां वार्तेव नवागमनं रिपूणाम् ॥ ३८३ ॥ तारा भवेत्तोरणसंनिधाने निवर्तने वामगतिस्ततश्च ॥ श्यामा यदि स्यात्पुनरेव तारा स्तोकं तदागत्य निवर्ततेऽरिः ॥ ३८४ ॥ (२१५) ॥ टीका ॥ दक्षिणनादिनी वा वामा सर्वान्कामान्विनिर्हति ॥ ३८१ ॥ श्यामेति ॥ परस्परेण प्रदक्षिणा श्यामा स्वामिसहाययोरानुकूल्याय भवति तयोः स्वामिसहाययोः हृदि भिन्ने शंक्यमाने तारा भेदाय भवति पुनर्वितारा अभेदाय स्यादित्यर्थः ॥ ३८२ ॥ प्रदक्षिणायामिति ॥ परचक्रागमनपृच्छायां मुग्रं परचक्रं प्रदक्षिणायामायाति उ तायां पुनः नायाति सुस्वरायां दक्षिणायामपि वार्तेव स्यात् रिपूणां नत्वागमनम् ॥ ॥ ३८३ ॥ तारेति ॥ रिपुनिवर्तनपृच्छायां तोरणसन्निधाने तारास्यात्ततश्च निवर्तने वामगतिः यदि पुनरेव तारा स्यात्तदा स्तोकं मार्गमागत्य रिपुः निवर्तते ॥ ३८४ ॥ ८ ॥ भाषा ॥ वा तारा होय तो वांछित अर्थकी सिद्धि होय और दुष्टचेष्टा करती होय दक्षिणमाऊं शब्द करती होय वा वामा होय तो संपूर्ण कामनकूं नाश करै ॥ ३८१ ॥ श्यामेति ॥ श्यामा परस्पर दक्षिणा होय तो स्वामी और सहायी दोनोंनके अनुकूलके अर्थ होय और स्वामी सहायीके मनमें भेदकी शंका होय. जो श्यामा तारा होय तो भेद जाननो जो वितारा होय तो अभेद जाननो ॥ २८२ ॥ प्रदक्षिणायामिति ॥ शत्रुनके चक्र के आगमन में प्रश्न होय और जो श्यामा प्रदक्षिणा आयजाय तो उग्रशत्रूनकी सेनाको आगमन कहनो. और जो उद्धृता होय तो फिर नहीं आवेगी ऐसो कहनो और सुंदरस्वर करती होय और दक्षिणा - होय तोभी कोरी वार्त्ताही जाननी और शत्रूनको आगमन नहीं होय ॥ ३८३ ॥ तारेति ॥ वैरी निवृत्त होयवेके प्रश्न में श्यामा तोरणके पास तारा होय फिर वगढ़ती बिरियां वामगति होय फिर तारा होयजाय तो बैरी मार्गमें आयकरके पीछो बगद जाय || ३८४ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। द्विषद्भये सत्यरिनाशमाह विरुद्धचेष्टास्थितियानशब्दैः ।। त्रासं च सर्व द्विषदागमोत्थं धनुर्धरी हंति धनुर्धरीव॥३८५॥ कृत्वा स्वरं यद्यपसव्यभागे सव्यं च गत्वा श्रयतिप्रदीप्तम्॥ धनुर्धरी चौर्यसमुद्यतानां तत्तस्कराणां कुरुतेऽपकारम् ॥ ॥ ३८६॥ग्रामादिघातोयमगोग्रहादिकायतिकस्थेसतितस्कराणाम् ॥ पूर्वोदितं सिद्धिविधायि तस्मादन्यादृशं स्यादसमीपगे तु ॥ ३८७ ॥ अदक्षिणां दक्षिणतो रटंती पृष्टे च तारांशकुनैकदेवीम् ॥ विपश्चितश्चौरहते गवादौ प्रत्यागमाय प्रतिपादयति ॥ ३८८ ॥ ॥ टीका ॥ द्विषद्भय इति ।। द्विषद्भये सति विरुद्धचेष्टास्थितिवामशब्दैः पोदकी रिनाशमाह द्विषदागमोत्थं सर्व त्रासं पूर्वोक्तचेष्टादिभिः धनुर्धरीव हंति ॥३८५॥कृत्वेति ॥ य. दि अपसव्यभागे स्वरं कृत्वा सव्यं च भागं गत्वा प्रदीप्तमाश्रयति एवंविधा धनुर्धरी चौर्यसमुद्यतानां तस्कराणामपकारं कुरुते ॥ ३८६ ॥ ग्रामादिति ॥ ग्रामादिधातोद्यमगोग्रहादिकार्ये अंतिकस्थे समीपस्थे सति तस्कराणां पूर्वोदितं सिद्धिविधायि भवति असमीपगे तु कार्ये अन्यादृशं सिद्धिविधायि स्यात् ॥ ३८७ ॥ अदक्षिणमिति ॥ दक्षिणतो रदंतीमदक्षिणां पृष्टे च तारां शकुनैकदेवी चौरहते गवादौ वि ॥ भाषा॥ द्विषद्भय इति ॥ वैरीनके भयके प्रश्नमें श्यामा विरुद्धचेष्टा करै विरुद्धस्थानमें होय वामशब्द करै तो वैरीनको नाश करें, और वैरीकी आयबेकी सुनके हुयो जो सब त्रास ताकं नाश करै है ॥ ३८५ ॥ कृत्वेति ॥ जो जेमने भागमें शब्दकरके वामभागमें जायकरके दप्तिस्थानमें स्थित होय तो चोरीमें उद्युक्त होयरहै. तिन चौरनको अपकार करै ॥ ३८६ ॥ प्रामादिति ॥ प्रामादिक घात उद्यम गोशालादिक कार्यमें जो श्यामा पासमें स्थित होय तो चौरनकी सिद्धि करे. और जो पास नहीं होय तो कार्यमें चोरविना औरनकी सिद्धि करै ॥ ३८७ ॥ अदक्षिणामिति ॥ दक्षिणमें शब्द करती होय और वामा होय ओर पीठपीछे तारा होय तो चौर लेगयो होय गौ कू आदिले पशु तिने पीछे आयबेके लिये कहनो ॥ ३८८ ।। Aho! Shrutgyanam Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) पोदकीरुते सुखादिप्रकरणम् । तत्कालनीतेषु गवादिकेषु क्षेमाय लाभार्थमयात्रिकः स्यात् ॥ भवेच्च कालांतरितापहारे प्रस्थानशंसी शकुनः शुभाय ३८९ ॥ 'वामतः सृजति यावतः स्वरांस्तावतो बलवतोऽथ तस्करान् ॥ दक्षिणा भगवती नु यावतस्तावतस्त्वभिदधाति दुर्बलान् ॥ ॥ ३९० ॥ मार्गभ्रमेऽरण्यगतस्य जाते धनुर्धरीं पश्यति येन यांतीम् ॥ मार्गेण तेनानुसरेन्मनुष्यः पंथानमासादयते पुरस्तात् ॥ ३९१ ॥ नायं चौरो निश्चित्तं देवदत्तः साधुः शुद्धिं लप्स्यते चेति पृष्टे ॥ कृत्वा शब्दं दक्षिणा ब्रह्मपुत्री यायाच्चेतद्दह्यतेसौ न दिव्ये ॥ ३९२ ॥ ॥ टीका ॥ पश्चितः प्रत्यागमाय प्रतिपादयंति ॥ ३८८ ॥ तत्कालइति ॥ तत्कालनीतेषु गवादिकेषु क्षेमार्थं लाभार्थं च अयात्रिकः स्यात् च पुनरर्थे कालांतरितापहारे प्रस्थानश सी शकुनः शुभाय भवति ॥ ३८९ ॥ वामत इति ।। भगवती यावतः स्वरान्वामतः सृजति करोति तावतो बलवतः तस्करान् अभिदधाति दक्षिणेन पुनः यावत: स्वरान्करोति तावतः दुर्बलांस्तस्करानभिदधाति ॥ ३९० ॥ मार्गभ्रम इति ॥ अरण्य गतस्य पुंसः मार्गभ्रमे जाते सति पुमान् धनुर्धरी यांती येन पथा पश्यति तेन पथा मनुष्यः अनुसरेद्गच्छेत् पुरस्तात् पंथानमासादयते ॥ ३९१ ॥ नायमिति ॥ नायं चौरः निश्चितं देवदत्तः साधुः शुद्धिं लप्स्यते चेति पृष्ठे यदि शब्दं कृत्वा दक्षिणा ॥ भाषा ॥ ॥ तत्काल इति ॥ जो चोर गवादिकनकूं तत्काल हर करके लेगयो होय तो क्षेमके लिये लाभके लिये औरविना गये विना आय जाय ऐसो कहनो और जो कालांतर में हरण हुये होय तो गये ते आवे शकुन शुभ जाननो ॥ २८९ ॥ वामत इति ॥ पोदकी जितने स्वर वामभागते करे उतने ही चौर बलवान् कहे. और दक्षिणभाग में जितने स्वर करे तितनेही दुर्बल तस्कर कहै || ३९० || मार्गभ्रम इति ॥ वनमें गमन करे ताकूं जो मार्ग में भ्रम होय जाय तब धनुर्धरी जा मार्ग कर गमन करती दीखै ताही मार्गमें पीछे पीछे चल्यो जाय तो अगाडी मार्ग मिलजाय ॥ ३९९ ॥ नायमिति ॥ ये निश्चय चौर है वा साधु हैं ऐसो प्रश्न "करे तब जो श्यामा शब्दकरके दक्षिणा होय तो दिव्य शुद्ध जाननो ॥ ३९२ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१८) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। मुक्तारावा यातिवामा यदर्थं चौरस्य स्यादिव्यशुद्धिर्न तस्य॥ वामा हंतुं नीयपानस्यतस्य श्यामा मुक्त्यै स्यात्तु तारा वधाय ॥३९३ ।। आखेटकार्थ गमने नृपाणामगोचरस्थेषु मृगेषु तारा ॥ वामांतिकस्थेषु यदा तदानी पतत्त्यवन्यां न शरप्रहारः॥३९४ ॥ वामरवा समुपैत्यपसव्यं पांडविकायदितत्प्रविविक्षोः ॥ स्युर्वधबन्धनशोकरुगार्तिद्रव्यविनाशमृतिप्रभृतीनि ॥३९५ ॥ सव्यमुपैति रटत्यपसब्ये पांडविका यदि शोभनचेष्टा ॥ ग्रामपुरस्वगृहं प्रविविक्षुर्नृत्यतु पथिकस्तत्कृतकृत्यः ॥ ३९६॥ ॥टीका ॥ ब्रह्मपुत्री चेद्यायात् तदासौ दिव्येन दह्यते ॥ ३९२ ॥ मुक्तारावेति ॥ यदर्थमिति चौरशुद्धिप्रश्ने यदि मुक्तारावा वामा याति तस्य चौरस्य दिव्यशुद्धिर्न स्यात् प्रश्नांतरे यदि हतुं नीयमानस्य तस्य वामा श्यामा मुक्त्यै स्यात् तारा पुनः वधाय भवति ॥ ३९३ ॥ आखेटक इति ॥ आखेटकार्थ मृगयार्थ नृपाणां गमने अगोचरस्थेषु मृगेषु तारा स्यात् यदा अंतिकस्थेषु मृगेषु वामा स्यात्तदानीमवन्यां शरप्रहारः न पतति ॥ ३९४ ॥ वामरवेति ॥ यदि वामरवा अपसव्यं दक्षिणं समुपैति तत्प्रविविक्षोः वधबंधनशोकरोतिद्रव्यविनाशमृतिप्रभृतीनि स्युः ॥ ३९५ ॥ सव्यमिति यदि शोभनचेष्टा पांडविका अपसव्ये दक्षिणे रटति सव्यमुपैति तदा ग्रामपुरस्वगृहं ॥भाषा॥ मक्तारावति ॥ चौरकी शुद्धि प्रश्नमें जो शब्दकर वामा गमन करे तो ता चौरकी दिव्यशुद्धि नहीं जाननी. और प्रश्नांतरमें जो काऊकू मारवे ले जाते होय ताके श्यामा वामा आय जाय तो वो आवश्यक छूटजाय और जो श्यामा तारा होय जाय तो वधके अर्थ जाननी ॥ ३९३ ॥ आखेटकार्थमिति ॥ शिकारके लिये राजा गमन करे और मृग तो नहीं दीखते हाय और श्यामा तारा होय और जो समीप मृग होय और श्यामा वामा होय तो पृथ्वीमें बाणनको प्रहार नहीं पडै ॥ ३९४ ॥ वामरवेति ॥ जो श्यामा वामरवा होय जेमने भाग आय जाय तो प्रवेशकरनेवालेकू वध बंधन शोक रोग अति द्रव्यको नाश मृत्यु इनकू आदिले सब होयें ॥ ३९५ ॥ सव्यमिति ॥ जो श्यामा शुभचेष्टा करती होय और दक्षिणमें शब्द करत वामभागमें आय जाय तो ग्रामपुर अपनो घर इनमें प्रवेश Aho ! Shrutgyanam Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते यात्राप्रकरणम् । (२१९). एकोद्धता स्याच्छुभदा प्रवेशे भवेद्वितीया तु धनर्दिकर्ती ॥ सा चेत्तृतीया शुभकर्मपाका दुर्गा तदा यच्छति भपतित्वम् ॥३९७॥ या वासित्वा दक्षिणेन प्रयाति श्यामा शतिं स्थानमासेवते च ॥ योगक्षेमं कर्तुमिच्छन्मनुष्यः शीघ्र तस्यामीश्वरं संश्रयेत ॥३९८॥ विद्यातडागालयधातुवादविवादवश्यांजनखन्यवादान् ॥ प्रस्थाननिक्षेपनिधानमंत्रद्यूतादिकान्साधयतेनुऽलोमा॥३९९॥ प्रश्ननिश्चयकृतः पुरुषा ये प्राप्नुवंति शकुनस्य फलं ते ॥ प्रष्टुमेव न वदन्ति पुनर्ये ते फलं न शकुनस्य लभते ॥ ४०॥ ॥ टीका ॥ प्रविविक्षुः कृतकृत्यः पथिकः नृत्यतु ॥ ३९६ ॥ एकोति ॥ एकोद्धृता प्रवेशे शुभदा स्यात् । तु पुनः द्वितीया धद्धिक: स्यात् । यदि शुभकर्मपाका तृतीया स्यात्तदा भूपतित्वं यच्छति ॥३९७॥ या वासित्वेति ॥ या श्यामावासित्वा दक्षिणेन प्रयाति शांतं स्थानं वा सेवते योगक्षेममिति अप्राप्तस्य प्राप्तिःयोगः प्राप्तस्य परिपालनं क्षेम: तं कर्तुमिच्छन्मनुष्यः शीघ्रं तस्यां गतौ सत्याम् ईश्वरं संश्रयेत् ईश्वरस्मरणं कुर्यादित्यर्थः॥ ३९८ ॥ विद्येति ॥ विद्यातडागालयधातुवादविवादवश्यांजनखन्यवादान प्रस्थाननिक्षेपनिधानमंत्रद्यूतादिकान् पदार्थान् अनुलोमा साधयते ॥३८९॥ प्रश्न इति ॥ अन्वयमुखेन व्यतिरेकमुखेन वा प्रश्नः कार्यः । न त्वेक ॥ भाषा॥ करे वो पुरुष कृतकृत्य होय नृत्य करै ॥ ३९६ ॥ एकेति ॥ जो प्रवेशमें श्यामा एकानाम पहली उद्धृता होय तो शुभकी देबेवाली होय. फिर द्वितीया उद्धृता होय तो धनऋद्धिी करबेवाली होय. और जो शुभकर्मके फलते तृतीयाभी उद्धृता होय तो पृथ्वीपतिपनो देवे ॥ ३९७ ॥या वासित्वति ॥ जो श्यामा निवासकरके दक्षिणा होकर चली जाय वा शांतस्थानमें सेवन करै तो अप्राप्तवस्तुको प्राप्ति और प्राप्तवस्तुकी पालन करनो इनदोनोंनकी इच्छा करबेवाला पुरुष शीघ्रही ईश्वरको स्मरण करै ।। ३९८ ॥ विद्योति ॥ विद्या, तालाब, स्थान, धातुवाद, विवाद, वश्य, अंजन, पृथ्वी खोदनो, वाद, प्रस्थान, निक्षेप, निधान, मंत्र, द्यूत इनकू आदि लेकर पदार्थ तिने श्यामा अनुलोमा होय तो साधन करै ॥ ३९९ ॥ प्रश्न इति । प्रश्नकरके निश्चय करे हैं जे पुरुष ते शकुनको फलप्राप्त होंयहैं. जो नहीं Aho! Shrutgyanam Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२०) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। वैराग्यकष्टाश्रयणेन तात्रैकालबोधाय भवेन योगः ॥ यदृच्छया भोगभुजां सुखेन यादृराणां शकुनाभियोगः ॥ ॥४०१॥अभ्यूह्य सवै शकुनं विपश्चित्तदन्वयाच्च व्यतिरेकतश्च ॥ अतींद्रियो यः परिनिश्चिनोति स स्वर्णपुष्पां विचिनोति पृथ्वीम् ॥ ४०२॥ इति वसंतराजशाकुने पोदकीरुते सुखादिप्रकरणं विंशतितमं समाप्तम् ॥ २० ॥ प्रतिप्रकरणं वृत्तसंख्येदानीमुदीर्यते ।। सर्वप्रकरणानां च प्रोच्यते क्रमतोऽभिधाः॥१॥ ॥टीका ॥ कालमन्वयव्यतिरेकाभ्यामितिये प्रश्ननिश्चयकृतः पुरुषास्ते शकुनस्य फलं प्राप्नुवंति ये प्रष्टमेव न विदंति ते शकुनस्य फलं न लभते ॥४०॥ वैराग्य इति ॥ वैराग्यकष्टाश्रयणेन तादृक् त्रैकालबोधाय न भवेत् । यादृक् यदृच्छया भोगभुजा नराणांशकुनाभियोगः त्रैकालबोधाय स्यात् ।। ४०१॥ अभ्यूह्येति ॥ सर्व शकुनमभ्यूह्य अतींद्वियो यो दिव्यचक्षःविपश्चित् तदन्वयात् व्यतिरेकतश्च कार्य परिनिश्चिनोति स स्वर्णपुष्पां पृथिवीं चिनोति ॥ ४०२॥ इति शत्रुजयकरमोचनादि-मुकृतकारि-महोपाध्याय-श्रीभानुचंद्रविरचितायां वसन्तराजटीकायां पोदकीरते मुखादिप्रकरणं विंशतितमं समाप्नम् ॥२०॥ प्रतिप्रकरणमिति ॥ इदानी प्रतिप्रकरणं वृत्तसंख्या उदोर्यते तथा सर्वप्रक ॥ भाषा॥ प्रश्नकरके निश्चय करैहैं ते शकुनको फल नहीं प्राप्त हो हैं ॥ ४०० ॥वैराग्यं इति ॥ वैराग्य करके कष्ट पाय पाय करके भूत भविष्य वर्तमानको ज्ञान नहीं होय है यदृच्छाकरके भोगभोगे, तिन मनुष्यनकू शकुनयोग त्रैकालिकज्ञानके जानबेके लिये हैं ।। ४०१ ॥ अभ्योति जो संपूर्ण शकुननकू जानकरके दिव्यचक्षु होयं सर्वकार्यकू निश्चय कर है वो विद्वान् पुरुष शकुननके प्रभावसूं स्वर्णके पुष्प जामें ऐसी पृथ्वीकू ढूंढ लेहै ॥ इति श्रीजटाशंकरतनय-श्रीधरविरचितायां श्रीवसंतरानशाकुने भाषाटी कायां पोदकीर्ते मुखादिप्रकरणं विंशतितमं समाप्तम् ॥ २० ॥ प्रतिप्रकरणामिति ॥ या सप्तमवर्गमें जे बीस प्रकरण तिनके नाम और प्रकरण प्रकरणके Aho! Shrutgyanam Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते वृत्तप्रकरणम् । ( २२१ ) वृत्तद्वात्रिंशता पूर्वमधिवासनसंज्ञकम् ॥ द्वितीयं शांतदीताख्यं वृत्तैः षोडशभिः स्मृतम् ॥ २ ॥ स्यात्पंचदशभिर्वृत्तैस्तृतीयं च स्वराभिधम् ॥ चतुर्थे शुभचेष्टाख्ये वृत्तान्युक्तानि षोडश ॥ ३ ॥ वृत्तान्यशुभचेष्टाख्ये पंचमे पंचविंशतिः ॥ गतिप्रकरणं षष्टं पंचविंशतिवृत्तकम् ॥ ४ ॥ उक्ता यात्राप्रवेशादौ सप्तमे च द्विसप्ततिः॥ उक्तानि हंसचाराख्ये वृत्तानि द्वादशाष्टमे ॥ ५ ॥ राज्याभिषेकसंज्ञेऽष्टौ वृत्तानि नवमे तथा ॥ दशमे विंशतिः षट् च संधिविग्रहनामके ॥ ६ ॥ एकादशे विवाहाख्ये प्रोक्ता त्र्यधिकविंशतिः ॥ गर्भप्रकरणे प्रोक्ता द्वादशे वृत्तविंशतिः ॥ ७ ॥ ॥ टीका ॥ रणानां क्रमतः अभिधाः प्रोच्यते ॥ १ ॥ वृत्तेति ॥ आद्यमधिवासनसंज्ञं प्रकरणं वृत्तद्वात्रिंशता स्यात् द्वितीयं शांतदीप्ताख्यं षोडशभिः वृत्तैः स्मृतम् ॥ २ ॥ स्यादिति ॥ तृतीयं स्वराभिधं पंचदशभिः वृत्तैः स्यात् शुभचेष्टाख्ये चतुर्थे प्रकरणे षोडश वृत्तान्युक्तानि ॥ ३ ॥ वृत्तानीति च अशुभचेष्टाख्ये पंचमे प्रकरणे पंचविंशतिवृत्तानि स्युः गतिप्रकरणं षष्ठं पंचविंशतिवृत्तकं भवति ॥ ४ ॥ उक्तेति ॥ यात्राप्रवे शादौ सप्तमेद्विसप्ततिः वृत्तानाम् उक्ता अष्टमे हंसचाराख्ये द्वादश वृत्तानि उक्तानि ॥ ॥ ५ ॥ राज्येति ॥ राज्याभिषेक संज्ञाख्ये नवमे अष्टौ वृत्तानि स्युः संधिविग्रहनामनि दशमे प्रकरणे विंशतिः षट् च वृत्तानि स्युः॥ ६ ॥ एकेति ॥ एकादशे विवाहाख्ये वृ ॥ भाषा ॥ श्लोकनकी संख्या अब कहें हैं ॥ १ ॥ वृत्तेति ॥ प्रथम अधिवासननाम प्रकरण वामें बत्तीस श्लोक हैं. दूसरी शांतदतिनाम प्रकरण तामें सोलह श्लोकं कहे हैं ॥ २ ॥ स्यादिति ॥ तीसरी स्वरनामप्रकरण तामें पंद्रह श्लोक हैं. चौथो शुभचेष्टानाम तामें सोलह श्लोक हैं ॥ ३ ॥ वृत्तानीति ॥ अशुभ चेष्टा नाम पंचमप्रकरण तामें पच्चीस श्लोक हैं. छठो गतिप्रकरण ता पच्चीस श्लोक हैं | ४ ॥ उक्तेति ॥ सातमो यात्राप्रवेशादि प्रकरण तामें बारह श्लोक हैं ॥ ५ ॥ राज्योति ॥ नौमो राज्याभिषेक नाम विवाहप्रकरण तामें आठ श्लोक हैं दशमो विग्रहनाम तामै छब्बीस श्लोक हैं ॥ ६ ॥ एकादश इति ॥ ग्यारमो प्रकरण तामें तेईसश्लोक हैं Aho ! Shrutgyanam. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। गमनागमनाहाने त्वेकादश त्रयोदशे ॥ दशपंच च वृत्तानि यात्रासंज्ञे चतुर्दशे ॥ ८॥ वृत्तानि सत्यसत्याख्ये नव पंच दशे तथा॥ वृष्टिप्रकरणे विंशत्यथै द्वौ षोडशे पुनः ॥९॥ एकादश सप्तदशे धान्यनिष्पत्तिनामनि ॥ अर्घप्रकरणे सप्त वृत्तान्यष्टादशे तथा ॥ १० ॥ वृत्तान्येकोनविंशे तु सप्त जीवितसंज्ञके ॥ स्युर्विंशतितमे त्वष्टौ विंशतिश्च सुखाभिधे ॥११॥ ॥ टीका। त्तानां व्यधिकविंशतिः प्रोक्ता द्वादशे गर्भप्रकरणे वृत्तविंशतिर्भवति ॥ ७॥ गम नेति ॥ गमनागमनाख्ये त्रयोदशे प्रकरणे एकादशवृत्तानि स्युः यात्रासंज्ञे चतुर्दशे प्रकरणे पंचदश वृत्तानि स्युः ॥ ८॥ वृत्तानीति ॥ सत्यसत्याख्ये पंचदशे नव वृत्तानि तथा षोडशे वृष्टिसंज्ञे वृत्तानां द्वाविंशतिः स्यात् ॥ ९॥ एकादश इति ॥ धान्यनिष्पत्तिसंज्ञे सप्तदशे चैकादश वृत्तानि स्युः ॥ तथा अर्घाख्यके अष्टादशे सप्त वृत्तानि सन्तीति शेषः ॥ १० ॥ वृत्तानीति ॥ जीवितसंज्ञके एकोनविंशे सप्त वृत्तानि स्युः शुभाभिधे विंशतितमे अष्टाविंशतिश्च वृत्तानि स्युः॥ ॥ भाषा॥ बारमो गर्भप्रकरण तामें बीस श्लोक हैं ॥ ७ ॥ गमनेति तरवों गमनाऽऽगमन प्र. करण तामें ग्यारह श्लोक हैं चौदवों यात्रा संज्ञा नाम तामें पन्द्रह श्लोक है ॥ ८ ॥ वृत्तानीति ॥ पंद्रमो सत्यसत्याऽऽख्यनाम प्रकरण तामें नौ श्लोक हैं. सोलवों वृष्टिप्रकरण तामें बाईस श्लोक हैं ॥ ९ ॥ एकादशेति ॥ सत्रमो धान्यनिष्पत्तिनामप्रकरण तामें ग्यारह श्लोक हैं और अटारमा अर्घप्रकरण तामें सात श्लोक है ॥ १० ॥ वृत्तानीति ॥ उन्नीसमो जीवितसंज्ञानाम प्रकरण तामें सात वृत्तहैं और बीसमो सुखादिप्रकरण तामें अट्ठाईस श्लोकहैं ।। १ अत्र च्छन्दोभङ्गाभिया गुरुत्वन्न । २ असाध्वेव । Aho! Shrutgyanam Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) पोदकीरुते भूपालमततथ्यादिप्रकरणम् । एवं प्रकरणानीह विंशतिः पोदकीरुते ॥ शतान्येषु च चत्वारि वृत्तानां सर्वसंख्यया ॥ १२ ॥ इति वसंतराजशाकुने पोदकीरुते सप्तमो वर्गः ॥ ७ ॥ बहिर्गृहे वाथ कृतास्थितीनां पुंसां यदाख्याति फलं वराही ॥ दिक्कालमानादुपशांतदीप्ता निगद्यते तत्प्रकटं समस्तम् ॥ ॥१॥चिलिचिलिरिति शांतः शूलिशूलिनैिनादश्चिकुचिकुरिति शब्दः कूचिकूचिस्तदर्थम् ॥ चिरिचिरिरिति दीत श्रीकुचीकुश्व चोचीचि लिकुरिति विरावस्तादृशः कृष्णिकायाः ॥ २ ॥ ॥ टीका ॥ एवमिति । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण इहास्मिन् पोदकीरुते विंशतिः प्रकरणानि भवंति एषु संख्यया वृत्तानां चत्वारि शतानि भवंति ॥ १२ ॥ इति वसंतराज इति ॥ इति समाप्तौ वसंतराजशाकुने इह पोदको विचारिता अन्यानि विशेषणानि पूर्ववत् ॥ १३ ॥ इति शत्रुंजयकर मोचनादिमुकृतकारि महोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचितायां वसंतराजटीकायां पोदकीरुते सप्तमो वर्गः ॥ ७ ॥ बहिरिति ॥ यद्वराही बहिर्वाथ गृहं कृतस्थितीनां पुंसां फलमाख्याति तदिक्कालमानादुपशांत दीप्तात्समस्तं प्रकटं निगद्यते ॥ १॥ चिलीति ॥ कृष्णिकाया चिलिचिलि-' रिति शब्दः शांतः शूलिशूलिरिति निनादः चिकु चिकुरिति शब्दः कूचिकूचिरिति शब्दस्तदर्थं नाम शांताः स्युः चिरिचिरिरिति शब्दः दीप्तो भवति च पुनश्ची ॥ भाषा ॥ एवमिति । या पोदकीरुत में वीसप्रकरण हैं इनमें समग्र संख्या करके चारसौ श्लोक हैं ॥ १२ ॥ इति श्री जटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचितायां वसंत राजशाकुनभाषाटीकायां वृत्तकारणम् ॥ इति सप्तमो वर्गः समाप्तः ॥७॥ ॥ बहिरिति ॥ बाहर स्थित होंय वा घरमें स्थित होयें उन पुरुषनकूं वराही जो फल कहै है सो दिशा कालके प्रमाणसूं हुये जो शांत दीप्त तिनें समस्त प्रकट कहैं हैं ॥ १ ॥ चिलीति ॥ कृष्णिकाकें चिलिचिलिः शूलिशूलि: चिकुचिकुः कूचिकूचि: ये शब्द शांत हैं और १ कथयतीति शेषः २ फलितार्थोऽयम् । Aho! Shrutgyanam Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) वसंतराजशाकुने-अष्टमो वर्गः। कीलिकीलिस्तथा नादः कीतुकीतुरिति स्वरः ॥ प्रदीप्तो दीप्तसंयोगाच्छांतः शांतप्रसंगतः ३॥ पूर्वस्यां प्रथमे यामे दुर्गा शांता भयप्रदा ॥ दीप्ता तु मरणं कुर्यादित्युक्तंपूर्वसूरिभिः ॥ ४॥ द्वितीये प्रहरे प्राच्यां शांता लाभप्रदा मता ॥ प्रदीप्तस्वरसंयुक्ता दुर्गा स्वस्यार्थकारिणी ॥५॥ तृतीयप्रहरे प्राच्यांशांता सर्वार्थदायिनी ॥ दीप्तस्वरा पुनः कु र्यादुर्गा हीनफलं नृणाम् ॥६॥ चतुर्थप्रहरे दुर्गा शांता पूर्वदिगाश्रिता निश्चौरत्वं समाख्याति दीप्ता तस्करतो भयम्॥ ॥ टीका ॥ कुचीकुरिति चीचीचिलिकुरिति विरावास्तादृशाः नामतो दीप्ताः स्युः ॥ २ ॥ की लिरिति ।। कीलिकीलिरिति नादस्तथा कीतुकीतुरिति स्वरः दीप्तसंयोगात्प्रदीप्तो भवति शांतप्रसंगतः शान्तो भवति ॥ ३ ॥ पूर्वस्यामिति ॥ पूर्वस्यां दिशि दुर्गा प्रथमे यामे शांताभयप्रदा भवति तु पुनः दीना मरणं कुर्यादिति पूर्वसूरिभिः उक्तम् ॥ ४ ॥ द्वितीयेति ॥ दुर्गा प्राच्यां दिशि द्वितीयप्रहरे शांता लाभप्रदा मताप्रदीसस्वरसंयुक्ता सती दुर्गा स्वस्यार्थकारिणी भवति ॥ ५॥ तृतीयेति ॥ प्राच्यां दिशि तृतीये प्रहरे शांतासर्वार्थदायिनी भवति पुनः दीप्तस्वरा दुर्गा नृणां हीनफलं कुर्यात् ॥ ६॥ चतुर्थति ।। दुर्गा चतुर्थे प्रहरे पूर्वदिगाश्रिता सती निश्चौरत्वं समाख्याति ॥ भाषा॥ चिरिचिरिः चीकुचाकुः चीचीचिलिकुः ये शब्द दीत है ॥ २ ॥ कीलिकोरिति ।। की . लिकीलि: ये नाद और कीतुकीतु ये स्वर दीप्तदिशादिकनके संयोगते प्रदीप्तहोयहैं. और शांतके प्रसंगते शांत होय हैं ॥ ३ ॥ पूर्वस्यामिति ॥ जो दुर्गा प्रथम प्रहरमें पूर्वदिशामें शांता होय तो भयकी देबेवारी होय. जो दीप्त होय तो मरण करै ये पूर्व कविनके वाक्य हैं ॥ ४ ॥ द्वितीयेति ॥ जो दूसरे प्रहरमें दुर्गा पूर्व दिशामें शांता होय तो लाभ देवै और दीप्तस्वरकरके संयुक्त होय तो आपके अर्थकी करबेवाली होय ॥ ५ ॥ तृतीयति ॥ दुर्गा तीसरे प्रहरमें पूर्वदिशामें शांता होय तो सर्व अर्थकी देबेवारी होय. और जो दीप्तस्वरा होय तो मनुष्यन कू हीन फल करे ॥ ६ ॥ चतुर्थेति ॥ चौथे प्रहरमें दुर्गा पूर्व दिशा में स्थित होयकर शांतत Aho! Shrutgyanam Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते भूपालमततथ्यादिप्रकरणम् । (२२५) आग्नेय्यां प्रथमे यामे शांता स्वल्पानिभीतिदा ॥ दीप्तस्वरा यदा दुर्गा रिपुणा दह्यते पुरम् ॥ ८॥ द्वितीयप्रहरे शांता कुर्यादग्निपरिक्षयम् ॥ दुर्गा दीप्तस्वरा मृत्युं करोत्यग्निदिशाश्रिता ॥९॥ तृतीयप्रहरे शांता धनवानेति बांधवः ॥ दुर्गाप्रदीप्ता चाग्नेय्यां मित्रमायाति याचकः ॥१०॥ चतुर्थप्रहरे शांता चाख्याति सुहृदागमम् ॥ दीप्ता पांडविका नृणामग्निस्था व्याधितो भयम् ॥११॥ प्राताम्यामुमा शां ता प्रथमपहरे नृणाम् ॥ लाभं कुर्यात्प्रदीप्ता च ध्रुवंशंसति ... गोगृहम् ॥ १२॥ ॥ टीका॥ दीप्ता तस्करतो भयं करोति ॥ ७॥ आग्नेय्यामिति ॥ आनेय्यां दिशि प्रथमे यामे दुर्गा शांता सती स्वल्पामिभीतिदा भवति तु पुनः दीप्तस्वरा यदा दुर्गा तदा रिपुणा पुरं दह्यते ॥ ८॥ द्वितीयति ॥ द्वितीयप्रहरे यदि अग्निदिशाश्रिता सती दुर्गा शांता भवति तर्हि अग्निपरिक्षयं कुर्यात् यदि दीप्तस्वरा भवति तर्हि मृत्युं करोति ॥ ९ ॥ ॥ तृतीयेति ॥ तृतीयप्रहरे यदा दुर्गा आग्नेय्यां दिशि शांता भवति तदा बांधवः धनवानेति प्रदीप्ता सती चेद्याचकः मित्रमायाति ॥१०॥ चतुर्थेति॥चतुर्थप्रहरे पां. डविका अमिस्था सती शांता भवति तदा सुहृदागममाख्याति च पुनः प्रदीप्ता दुर्गा नृणां व्याधितो भयं करोति ॥ ११ ॥ प्रातरिति ॥ याम्यां दिशि उमा पांडविका प्रथमप्रहरे शांता चेद्भवति तदा नृणां लाभं कुर्यात् पुनःप्रदीप्ता सती गोगृहं ध्रुवं शं ॥ भाषा॥ होय तो निश्चौरता करै. जो दीप्ता होय तो चौरते भय करै ॥ ७ ॥ आनेय्यामिति ॥ प्रथ. म प्रहरमें अग्निकोणमें दुर्गा शांता होय तो अल्पाग्नि करके भय देवै. जो दीप्तस्वरा होय तो वैरीकरके पुर जरजाय ॥ ८ ॥ द्वितीयेति ॥ दूसरेप्रहरमें दुर्गा अग्निदिशामें शांता होय तो अग्निको क्षय करै. जो दीप्तस्वरा होय तो मृत्यु करै ॥ ९ ॥ तृतीयति ॥ तीसरे प्रहरमें अग्निदिशामे शांता होय तो धनवान् बांधव आवै और प्रदीप्ता होय तो मित्र याचना करबे आवे ॥ १० ॥ चतुर्थेति ॥ चौथे प्रहरमें अग्निकोणमें स्थित पांडविका शांता होय तो सुहृदजननको आगमन कहै है. और दीप्ता होय तो मनुष्यनकुँ व्याधिते भयकर ॥ ११ ॥ ॥ प्रातरिति ॥ प्रातः काल प्रथम प्रहरमें पांडविका दक्षिणदिशामें शांता होय तो मनुष्य १५ Aho ! Shrutgyanam Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) वसंतराज शाकुने - अष्टमो वर्गः । द्वितीeप्रहरे शांता रुजं जल्पति पांडवी || प्रदीप्तध्वनिनावाच्यां मृत्युं वाथ धनक्षयम् ॥ १३ ॥ राजप्रासादमाख्याति शांता यामे तृतीयके || दीप्तस्वरेषु दुर्गाया भूपतिर्याचते धनम् ॥ १४ ॥ शांता कांचनरत्नानि प्रदत्ते दक्षिणाश्रिता ॥ चतुर्थे प्रहरे दीप्ता स्वजनैरल्पकं कलिम् ॥ १५ ॥ पथिकः पीडितोऽभ्येति प्रातः शांतकरैः स्वरैः || दीप्तस्वरैस्तु नैर्ऋत्ये कुर्यात्तस्यैव पंचताम् ॥ १६ ॥ द्वितीयप्रहरे शांता चौराणां भयमादिशेत् ॥ दुर्गहानिकरी दीप्ता दुर्गा रक्षोदिगाश्रिता ॥ १७ ॥ ॥ टीका ॥ सति ॥ १२ ॥ द्वितीयेति ॥ पांडवी द्वितीयप्रहरेऽवाच्यां दक्षिणस्यां शांता स्यात्तदा रुजं जल्पति प्रदीप्तध्वनिना मृत्युं वाथ धनक्षयं करोति ॥ १३ ॥ राजेति ॥ तृतीयके या दक्षिणस्यां दिशि शांता दुर्गा राजप्रासादं राजगहमाख्याति कथयति दुर्गायाः दीप्तस्वरेषु सत्सु भूपतिः धनं याचते ॥ १४॥ शांता इति ॥ चतुर्थे प्रहरे दक्षिणाश्रिता शांता पदकी कांचनरत्नानि प्रदत्ते दीप्ता स्यात्तदा स्वजनैरल्पकं कलिं करोति ॥ १५ ॥ पथिकेति ॥ प्रातः प्रथमप्रहरं नैर्ऋत्ये दुर्गा शांत करैः स्वरैः पथिकः पीडितोऽभ्येति आगच्छति तु पुनः दीप्तस्वरैस्तस्यैव पथिकस्यैव पंचतां मृत्युं कुर्यात् ॥ १६ ॥ द्वितीयेति ॥ द्वितीयप्रहरे रक्षोदिगाश्रिता शांता दुर्गा चौरा ॥ भाषा ॥ नकूं लाभ करे. प्रदीप्ता होय तो निश्चय गोगृह करे ॥ १२ ॥ द्वितीयेति ॥ दूसरे प्रहरमें दक्षिणदिशा में पांडवी शांता होय तो रोग करै प्रदीप्तध्वनिकरके मृत्यु वा धनको क्षय करे ॥ १३ ॥ राजेति ॥ तीसरे प्रहरमें दक्षिणदिशामें दुर्गाशांता होय तो राजगृहकी प्राकरे और दुर्गाके प्रदीप्तस्वर होंय तो राजा धनकी याचना करे ॥ १४ ॥ शांता इति ॥ चौथेप्रहरमें दक्षिणदिशा में शांता दुर्गा होय तो सुवर्ण रत्न देवे और दीप्ता होय तो स्वजननकरके अल्पकलह करावे ॥ १५ ॥ पथिकेति ॥ प्रथम प्रहरमें नैऋत्यकोणमें दुर्गाशांतस्वर करे तो मार्गीपीडायमान होय घर आवे और दीप्तस्वर करती होय तो ता मार्गीकी मृत्यु करे ॥ १६ ॥ द्वितीयेति ॥ दूसरे प्रहर में नैऋत्य में शांतादुर्गा चौरनको भयकरै और दीक्षा Aho! Shrutgyanam Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते भूपालमततथ्यादिक्प्रकरणम् । ( २२७ ) शांता तृतीययामे तु रोगभीतिप्रवर्धिनी ॥ चिरसंस्थायिनं गं दुर्गा वदति सुस्वरा ॥ १८ ॥ चतुर्थप्रहरे शांता चिरं वियुक्त संगमम् । दीप्तस्वरा पुनर्ब्रूते वार्तामक्षेमकारिणीम् ॥ १९ ॥ दुर्गा शुभस्वरा ते पश्चिमायां जलागमम् ॥ प्रातर्दीप्तस्वरा नूनं निवारयति वारिदान ॥ २० ॥ अर्थलाभा भवेद्यामे द्वितीये मधुरस्वरैः ॥ प्रदीप्तधूमितैरल्पं लाभं जल्पति पोदकी ॥ २१ ॥ तृतीयप्रहरे शांता वारुण्यामायुधक्षितिम् ॥ प्रदीप्तध्वनिसंयुक्ता वराही वक्ति पंचताम् ॥ २२ ॥ ॥ टीका ॥ णां भयमादिशेत् । नैर्ऋत्ये दीप्ता दुर्गा हानिकरी भवति ॥ १७॥ शांतेति ॥ तृतीयया नैर्ऋत्ये शांतादुर्गा रोगभीतिप्रवर्धिनी भवति तु पुनः सुस्वरा दीप्ता दुर्गा चिरं चिरकालपर्यंत संस्थायिनं रोगं वदति ॥ १८ ॥ चतुर्थेति ॥ चतुर्थमहरे नैर्ऋत्यकोणे शांता पोदकी चिरं चिरकालेन वियुक्तसंगमं करोति वियुक्तस्य पुरुषस्य संगम मित्यर्थः पुनः दीप्तस्वरा पोदकी अक्षेमकारिणी वार्त्ता ब्रूते ॥ १९ ॥ दुर्गेति ॥ प्रातः प्रथमप्रहरे पश्चिमायां दिशि शुभस्वरा शांता पोदकी जलागमं ब्रूते च पुनः दीप्तस्वरा नूनं वारिदान्मेघान्निवारयति ॥ २० ॥ अर्थेति ॥ द्वितीये यामे प्रहरे पश्चिमायां दिशि शांता पोदकी मधुरस्वरैरर्थलाभा भवेत् । प्रदीप्ता सती प्रदीप्तधूमितैः स्वरैरल्पं लाभं जल्पति कथयतीत्यर्थः ॥ २१ ॥ तृतीयेति ॥ वराही तृतीयप्रहरे वारुण्यां दिशि शांता स्यात् तदा आयुधक्षितिं करोति आयुधानां क्षितिमित्यर्थः । ॥ भाषा ॥ होय तो हानि करै ॥ १७ ॥ शांतेति ॥ तीसरे प्रहरमें नैर्ऋत्यकोणमें शांता दुर्गा होय तो रोगभयइनकीवृद्धिकरै. और दीप्तस्वरा होय तो चिरकालताई स्थिर रहै ऐसो रोग होय ॥ ॥ १८ ॥ चतुर्थेति ॥ चौथे प्रहर में पोदकी नैर्ऋत्यकोणमें शांता होय तो बहुतकालसूं वियोग होयरह्यो होय ता पुरुषको समागमकरावे. फिर वोही पोदकी दीप्तस्वरा होय तो अक्षेमकरबेवारी वार्त्ताकूं कहे ॥ १९ ॥ दुर्गेति ॥ जो दुर्गा प्रथमप्रहरमें पश्चिम दिशा में शुभ होय तो जलको आगमन करे और दीप्तस्वरा होय तो मेघनकूं निवारण करै ॥ २० ॥ अथेति ॥ जो पोदकी द्वितीयप्रहर में पश्चिमदिशा में शांता होय मधुरस्वरनकरके अर्थ लाभ करे फिर प्रदीप्ता होय और प्रदीप्त धूमितस्वरन करके अल्पलाभकरे ॥ २१ ॥ तृतीयेति ॥ ती Aho! Shrutgyanam Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) वसंतराजशाकुने-अष्टमो वर्गः। तुरीयप्रहरे शांता प्रतीच्यां मंगलप्रदा॥अशुभध्वनिना दुर्गा गृहहानिकरी मता ॥२३॥अत्यागमागमं ब्रूते वायव्ये मधुरस्वरा|प्रातःप्ता मृतस्यास्य वार्ता जल्पति पांडवी ॥२४॥ द्वितीयप्रहरे शांता वक्ति रामासमागमम् ॥ प्रदीप्तध्वनिना दुर्गा वायव्यां कलहं स्त्रिया ॥ २५॥ तृतीयप्रहरे शांता कन्यायाः कुरुते रुजम् ॥ तस्या एवं भवेन्मृत्युारुते विकृतस्वरैः ॥२६॥ चतुर्थप्रहरे शांता स्त्रियाः परनरार्थिताम् ॥ दीप्ता पांडविका ब्रूते परपुंसा समागमम् ॥ २७॥ ॥टीका॥ पुनः प्रदीप्तश्चासौ ध्वनिश्च प्रदीप्तध्वनिः प्रदीप्तध्वनिना संयुक्ता प्रदीप्तध्वनिसंयुक्तावराही पंचतां मृत्यु वक्ति ॥२२॥ तुरीयेति ॥ तुरीयप्रहरे प्रतीच्या पश्चिमायां दिशि शांतादुर्गा मंगलप्रदा भवति अंशुभध्वनिना दीप्तस्वरा दुर्गा गृहहानिकरीमता २३॥ अत्यागमागममिति ॥ प्रातः प्रथमप्रहरे वायव्यां मधुरस्वरा शांतस्वरा पांडविका अत्यागमागमं ब्रूते,दीप्ता दीप्तस्वरा सा अस्य मृतस्य वार्ती जल्पति॥२४॥द्वितीयेति ॥ द्वितीयप्रहरे वायव्यां दिशि शांता दुर्गा रामासमागमं वक्ति प्रदीप्तध्वनिना प्रदीप्तस्वरा स्त्रिया कलहं वक्ति ॥२५॥ तृतीयेति ॥ तृतीयप्रहरे मारुते कोणे शांता पोदकी कन्यायाः रुजं रोगं कुरुते विकृतस्वरैः प्रदीप्तस्वरैः तस्याः कन्यायाःमृ. त्युभवेत् ॥ २६ ॥ चतुर्थेति ॥ चतुर्थप्रहरे वायव्यकोणे पांडविका शांता भवति ॥ भाषा ॥ सरे प्रहरंभ पश्चिमदिशामें शांता होय तो आयुधनकी क्षति करै. और फिर प्रदीप्तध्वनि करके युक्त पादकी होय तो मृत्यु करै ॥ २२ ॥ तुरीयोत ॥ चौथे प्रहरमें पश्चिमदिशामें शांता दर्गा मंगलकी देबेवारीहै और दीप्तस्वरा होयतो घरकीहानि करबेवारी ॥ २३ ॥ अत्यागमागममिति ॥ प्रथमप्रहरमें वायव्यकोणेमें शांतस्वरा पांडविका होय तो पुरुषको गमनागमन कहेहै और दीप्तस्वरा होय तो वाकू मरेकी वार्ता कहै ॥ २४ ॥ द्वितीयेति ॥ दूसरे प्रहरमें वायव्य दिशामें दुर्गा शांता स्त्रीको समागम कहै और प्रदीप्तस्वरा होयतो स्त्रीकरके सहित कलह करावे ॥२६॥ततीयेति ॥ तृतीयप्रहरमें वायव्य कोणमें पोदकी शांता होय तो कन्याकू रोग कर. प्रदीप्तस्वरकरके ता कन्याकी मृत्यु होय ॥२६॥ चतुर्थेति ॥ चतुर्थ प्रहरमें वायव्यकोणमें पांडविका शांता होय तो स्त्रीकू परपुरुषकरकी प्रार्थना होय. जो दीप्ताहोय तो परपुरुष करके समागम होय ॥ २७ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते भूपालमततथ्यादिक्प्रकरणम् । (२२९) सौम्यायां मधुरालापा लाभं कथयति प्रगे | अर्थनाशं समाख्याति कुमारी परुषस्वरा ॥ २८ ॥ द्वितीयप्रहरे शांता लाभकरी मंता ॥ विरूपध्वनिना दुर्गा वस्त्रनाशाय कथ्यते ॥ २९ ॥ प्रधानलाभदा शांता तृतीयप्रहरे मता ॥ धनहानिकरी दीप्ता धनदस्य दिशि स्थिता ॥ ३० ॥ चतुर्थ प्रहरे शांता कुरुते भुजगाद्भयम् || दुर्गा दीप्तस्वरा कुर्यात्सौम्यायां मरणं विषात् ॥ ३१ ॥ प्रातरीशानगा शांता भयवार्ता प्रजल्पति || प्रदीप्तध्वनिना दुर्गा परचक्रसमागमम् ॥ ३२ ॥ ॥ टीका ॥ तदा स्त्रियः परनरार्थित यांति यदि दीप्ता भवति तदा परपुंसा समागमं ब्रूते २७ ॥ ॥ सौम्पायामिति ॥ सौम्यायामुत्तरस्यां दिशि प्रगे प्रभाते प्रथमे प्रहरे कुमारी मधुरालापा भवति तदा लाभं कथयति परुषस्वरा अर्थनाशं समाख्याति ॥ २८ ॥ द्वितीयेति ॥ द्वितीयप्रहरे उत्तरस्यां दिशि शांता दुर्गा वस्त्रलाभकरी मता विरूपध्वनिना दीप्तशब्देन वस्त्रनाशाय कथ्यते ।। २९ ।। प्रधानेति । तृतीयप्रहरे धनदस्य दिशि स्थिता कुमारी यदा शांता स्यात्तदा प्रधानलाभदा मता भवति दीप्ता-सती धनहानिकरी भवति ॥ ३० ॥ चतुर्थेति ॥ चतुर्थमहरे सौम्यायां दिशि शांता पोदकी भुजगात्सर्पाद्भयं कुरुते दीप्तस्वरा दुर्गा विषान्मरणं कुर्यात् ॥ ३१ ॥ प्रातरिति ॥ प्रातः प्रथमप्रहरे ईशानगा शांता पोदकी भयवात्ती प्रजल्पति प्रदी ॥ भाषा ॥ ॥ सौम्यायामिति ॥ उत्तरदिशामें प्रथमप्रहरमें कुमारी मधुर आलाप करती होय तो ला-. भकरे और कठोर शब्द करती होय तो अर्थको नाश करै ॥ २८ ॥ द्वितीयेति दूसरे प्रहरमें उत्तरदिशामें दुर्गा शांता होय तो वस्त्रको लाभ करे. दप्तिध्वनि करती होय तो `चस्त्रके नाशके अर्थ जाननी ॥ २९ ॥ प्रधानेति ॥ तृतीय पहरमें कुबेरकी दिशामें स्थित होयकर शांता होय तो पोदकी प्रधान लाभके देबेवारी जाननी और प्रदीप्ता होय तो धनकी हानि करै ॥ ३० ॥ चतुर्थेति ॥ चौथे प्रहरमें उत्तरदिशा में पोदकी शांता होय तो सर्पते भय करे और दीप्ता होय तो विषते मरण करे ॥ ३१ ॥ प्रातरिति ॥ प्रथम प्रहरमें ईशानदिशा में पोदकी शांता होय तो भयकी बार्ता करै. और प्रदीप्त ध्वनि करती होय Aho! Shrutgyanam Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) वसंतराजशाकुने-अष्टमो वर्गः। द्वितीयप्रहरेशांताकन्यालाभविधायिनी ॥ प्रदीप्ता कलहोटेगौ ब्रूते शाकुनिका ध्रुवम् ॥३३॥ तृतीयप्रहरे शांता दुर्गायच्छति कन्यकाम् ॥दीप्ता कन्या परिक्वेशं ब्रूते हरदिगाश्रिता॥३४॥शांता रोगभयं स्वल्पमीशानी वक्ति पोदकी। दीप्तस्वरा महाव्याधि चतुर्थप्रहरे नृणाम् ॥ ३९ ॥ब्रह्मप्रदेशगा शांता प्रथमप्रहरे नृणाम् ॥ लाभं कुर्यात्प्रदीप्ता च गृहस्य स्वामिनो रुजम् ॥३६॥ द्वितीयप्रहरे शांता ब्रह्मपुत्री धनप्रदा ॥ प्रदीप्ता च विनाशाय जायते ब्रह्माणि स्थिता ॥ ३७॥ ॥ टीका ॥ तध्वनिना दुर्गा परचक्रसमागमं करोति ॥३२॥ द्वितीयेति ॥ द्वितीयप्रहरे ईशानदिशि स्थिताशाकुनिका शांता कन्यालाभविधायिनी भवति प्रदीप्ता चेकलहोटेगौ ध्रुवं ब्रूते ॥ ३३ ।। तृतीयेति ॥ तृतीये प्रहरे हरदिगाश्रिता शांता दुर्गा कन्यकां यच्छति प्रदीप्ता सती कन्यायाः परिक्लेशं ब्रूते ॥ ३४ ॥ शांतेति ॥ चतुर्थप्रहरे ई• शानी ईशानकोणे स्थिता शांता पोदकी स्वल्पं रोगभयं वक्ति दीप्तस्वरा नृणां महाव्याधि करोति ॥३५॥ ब्रह्मेति ॥ प्रथमप्रहरे ब्रह्मप्रदेशगा शांता पोदकी नृणां लाभं कुर्यात् च पुनःप्रदीप्ता दुर्गा गृहस्य स्वामिनो रुजं रोगं करोति ॥ ३६॥ द्वितीयति ॥ द्वितीयप्रहरे ब्रह्मणि आकाशे स्थिता ब्रह्मपुत्री शांता सती धनप्रदाभ ॥ भाषा। तो शत्रूनको समागम करै ॥ ३२ ॥ द्वितीयेति ॥ दूसरे प्रहरमें ईशानदिशामें पोदकी शांता होय तो कन्याको लाभ करै, जो प्रदीप्ता होय तो निश्चयही कलह उद्वेग करावै ॥३३॥ तृतीयेति तीसरे प्रहरमें ईशानदिशामें दुर्गा शांता होय तो कन्या प्राप्त करै और जो दीप्ता होय तो कन्याको क्लेश करै ॥ ३४ ॥ शांतेति ॥ चौथे प्रहरमें ईशानदिशामें स्थित पोदकी शांता होय तो अल्परोगको भय कहै है. दीप्तस्वरा होय तो मनुष्यनकू महाव्याधि करै ।। ३५ ॥ ब्रह्मोत ॥ प्रथम प्रहरमें आकाशमें स्थित पोदकी शांता होय तो लाभ करै. प्रदीप्ताहोय तो गृहके स्वामीकू रोग करै ॥ ३९ ॥ द्वितीयेति ॥ दूसरेप्रहरमें आकाशमें स्थित ब्रह्मपुत्री शांता होय तो धन देवै और प्रदीप्ता होय तो बिनाशके अर्थ Aho ! Shrutgyanam Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते हंसादिकप्रकरणम्। (२३१ ) तृतीयप्रहरे शांता लाभं कुर्यात्कुमारिका ॥ प्रदीप्तार्थपरिभ्रंशं ब्रह्मस्थाने समाश्रिता ॥ ३८ ॥ चतुर्थप्रहरे शांता चौरेभ्यः कुरुते भयम् ॥ दीप्ता राजभयं कुर्यात्पोदकी ब्रह्मसंस्थिता ॥३९॥ इति पोदकीरुते भूपालमततथ्यादिक्प्रकरणम् ॥ .. उदीरयामो द्विपदेष्विदानी विहंगमाना शकुनानि सम्यक् ॥ प्रवर्तते यान्यधिगम्य लोकः कार्येष्वसंदिग्धमनाः सदैव ॥ ॥१॥ जाताः स्थ यस्माद्विनतासुतस्य कुले ततः पत्ररथा भवंतः ॥ दिव्यप्रभावा हृदयप्सितज्ञा नमोस्तु वो मे कियतां प्रसादः॥२॥ . ॥ टीका ॥ वति च पुनः प्रदीप्ता विनाशाय जायते ॥ ३७ ॥ तृतीयेति॥तृतीयप्रहरे ब्रह्मस्था ने आकाशे समाश्रिता शांता कुमारिका लाभं कुर्यात् प्रदीप्ता स्यात्तदा अर्थपरिभ्रंशं करोति ॥३८॥ चतुर्थेति ॥ चतुर्थप्रहरे ब्रह्मसंस्थिता आकाशे स्थिता पोदकी शांता चेत्तदा चौरेभ्यः भयं कुरुते दीप्ता सती राजभयं कुर्यात् ॥ ३९ ॥ इति पोदकीरते भूपालमततथ्यादिप्रकरणम् ॥ उदीरयामेति ॥ इदानी द्विपदेषु विहंगमानां शाकुनानि सम्यक् उदीरयामःलोकः यानि शकुनानि अधिगम्य दैव कार्येषु असंदिग्धमना प्रवर्तते॥१॥जाताःस्थेति ॥ यूयं विनतासुतस्य कुले जाताःस्थ ततोभवंतः पत्ररथाः दिव्यप्रभावा हृदयेप्सितज्ञाः अतः वः युष्माकंनमः अस्तु मे ॥भाषा॥ जाननी ॥ ३७॥ तृतीयेति ॥ तृतीय प्रहरमें आकाशमें स्थित कुमारी शांता होय तो लाभ करै प्रदीप्ता होय तो कार्यमें नाश करै ॥ ३८ ॥ चतुर्थेति ॥ चौथेप्रहरमें आकाशमें स्थितपोदकी शांता होय तो चौरनते भय करै और दीप्ता होय तो राजभयकरै ॥ ३९ ॥ ॥ इति भूपालमततथ्यादिप्रकरणम् ॥ ॥ उदीरयामेति ॥ अब द्विपदनमें विहंगमनके शकुन कहैं हैं. ये मनुष्य जिन शकुनकुं जानकरके सदा कार्यनमें निःसंदेह मन प्रवर्त्त होय ॥ १ ॥ जाताः स्थेति ॥ तुम विनताके बेटा गरुडके कुलमें प्रगट हुये हो, ताते तुम पक्षी हो.दिव्यप्रभाव जिनके ऐसे और हृदयमें कछुक ज्ञानवान् और तुमकू नमस्कार हो, मेरे ऊपर अनुग्रह करो ॥२॥ Aho ! Shrutgyanam . Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२) वसंतराजशाकुने-अष्टमो वर्गः। योमुनार्चयति मंत्रवरेण श्रद्धया परमया कुसुमायैः ॥ पक्षिणः प्रमुदिताः किल पुंसस्तस्य सत्यशकुनानिवदन्ति ॥३॥ काष्टासु सास्वपि दर्शनेन हंसस्य शब्दन च सर्वसिद्धिः ।। नामानि हंसस्य शृणोति यस्तु प्रयांति नाशं दुरितानि तस्य ॥४॥चौरैः समं दर्शनमायशब्दे निधि द्वितीये च भयं तृतीये ॥ युद्धं चतुर्थे नृपतिप्रसादः स्यात्पंचमे हंसरखे नराणाम् ॥५॥ ॥ टीका ॥ ममोपरि प्रसादःक्रियताम्॥२॥ य इतिायः पुमान् अमुना मंत्रवरेण पक्षिणःपरमया श्रद्धया कुसुमाद्यैरर्चयति पुनःप्रमुदिताःमक्षिणातस्य पुंसःसत्यशकुनानिवदंति३ . तत्र द्विपदेषु हंसानां तावन्मुख्यत्वेन प्रथमम्हंसानाम् शकुनं प्रदर्शयत्राह तत्र हंसानां चत्वारो भेदाः चंचुचरणैरतिलोहितः राजहंसाः तैर्मलिनैः मल्लिकाख्यः सितेतरैस्तैः धार्तराष्ट्राः अतिधूसरैः पक्षः कादंबा शकुनेषु सर्वेषां समफलत्वेनसामान्येन प्रदर्शनं काष्ठास्विति सर्वास्वपि काष्ठासु हंसस्य दर्शनेन सर्वसिद्धिः स्यात् यः हंसस्य नामानि शृणोति तस्य दुरितानि नाशं प्रयोति अत्र दुरितशब्देन विनो गृह्यते नत्वघम्।। ॥४॥ चौरिति ॥ सस्य आद्यशब्दे नराणां चौरैः समं दर्शनं भवति द्वितीयशब्दे निधिप्राप्तिःतृतीये शब्दे भयं चतुर्थे युद्धं पंचमेनृपतेःप्रसादः अत्रायं भावार्थः ॥ भाषा ॥ ॥ य इति ॥ जो पुरुष या मंत्र करके पक्षीनकू परमश्रद्धाकर पुष्पादिकन करके अर्चन करें फिर प्रसन्न हुये पक्षी ता पुरुषः सत्य शकुन कहैहैं ॥ ३ ॥ द्विपदपक्षीनमें हस मुख्यह यातें प्रथम हंसनको शकुन कहैं हैं तामें हसनके चार भेद हैं ॥ लाल चोंच और लाल पांव जिनके ते तो राजहंस, और मैले मैले होंय उनकी मल्लिका संज्ञा है और श्वेतवर्णते इतर वर्ण जिनको वे धार्तराष्ट्र संज्ञा हैं और अति धूसर पंख जिनके उनकी कादंब संज्ञा है ये चारों प्रकारके हंस शकुननमें संपूर्णन] समान फल देवें हैं सो समानफल कहैं हैं काष्ठास्विति ।। संपूर्ण दिशानमें हंसके दर्शनकरके सर्वसिद्धि होयहै जो हंसके नाम श्रवण करै हैं उनके विघ्न नाशकू प्राप्त होंय हैं ॥ ४ ॥ चौरैरिति ॥ हंसके प्रथम शब्दमें मनुध्यनकू चौरदर्शन होय और द्वितीय शब्दमें निधिप्राप्ति होय, और तृतीय शब्दमें भयहोय और चतुर्थमें युद्ध होय और पंचममें रानाको अनुग्रह और विचार Aho ! Shrutgyanam Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरते हंसादिकमकरणम् । ॥ इति हंसः॥ वामांघ्रिणैकेन बकः स्थितः सन्धनदिपत्नीविषयाप्तिहेतुः॥ पुनःपुनः पश्यति भूमिपांथौ यो वा स विघ्नानपहंति सर्वान् ॥६॥त्रस्तो बको यः ककुभश्चतस्त्रः पश्यन्कृतं चौरभयं ब्रवीत्ति ॥ निरूपयन्नात्मवपुर्विशंकः स्त्रीरत्नलाभाय दिनत्रयेण ॥ ७॥ ॥ इति बकः॥ ॥ टीका ॥ यदा प्रथमं शब्दं कृत्वैव विरमते तदा तस्य शब्दस्य फलं विचारणीयमेवमन्यत्रापि ॥५॥ ॥ इति हंसः॥ वाम इति ॥ वामांधिणा एकेन बकः स्थितः सन् धनर्द्धिपत्नीविषयाप्तिहेतुर्भवति यः पुनःपुनः भूमिपथौ पश्यति स सर्वान्विनानपहंति ॥६॥त्रस्तइति ॥ यः बकस्त्रस्तः सन् चतस्त्रः ककुभः पश्यञ्चौरकृतं भयं ब्रवीति सएव विशंकः आत्मवपुर्निरूपयन् दिनत्रयेण स्त्रीवित्तलाभाय भवेत्॥७॥ ॥ इति बकः॥ ॥ भाषा॥ ऐसे शब्द करत जा शब्दपै चुप होजाय वाकोही फल विचारनो ॥ ५ ॥ ॥ इति हंसः ॥ वाम इति ॥ बगुला एक बांये पाँवकरके स्थित होय तो धन ऋद्धिः स्त्री विषय प्राप्ति करै. अथवा दूसरी स्त्रीकी प्राप्तिकरै. और जो वारंवार पृथ्वीमाऊं और मार्गीमाऊं देखै तो सर्व विघ्ननकू दूर करै ।। ६ ।। त्रस्त इति ॥ जो बगुला त्रासपाय रह्यो होय फिर चारों दिशानमें देखतो होय तो चौर करके कियो हुयो भय कहै है ये जाननो और वोही विशंक होयकर अपने देहकू निरूपण करत तीन दिनकरकेही स्त्रीरूपी रत्नवित्त इनको करै ॥ ७ ॥ ॥ इति बकः॥ Aho ! Shrutgyanam Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४) वसंतराजशाकुने-अष्टमो वर्गः। स्थानेषु सर्वेष्वपि चक्रवाकयुग्मंसमृद्धयै खवीक्षणाभ्याम्।। विच्छद्यमानं सविषादचेष्टमार्तस्वरं स्याद्विपदे तदेव॥८॥ ॥ इति चक्रवाकः॥ इष्टार्थसिद्धिः सकलासु दिक्षु ससारसबंदविलोकनेन ॥ श्रुत्वास्य पृष्ठे निनदं न गच्छेत्सिद्धयत्यभीष्टग्रह एव यस्मात् ॥९॥ वामन योषिद्धनलाभकारिशब्दस्तथाग्रे नृपतोऽर्थलब्ध्यापार्श्वद्वये सारसयुग्ममेकं कृतारवं जल्पति कन्यकाप्तिम् ॥ १०॥ यः सारसाभ्यां युगपद्विरावः कृतोऽचिरेण क्रमतोपि वामः ॥ स वेदितव्यः कथितोऽर्थकारी क्रौंचद्वयस्याप्ययमेव मार्गः॥ ११॥ ॥टीका ॥ . स्थानेष्विति ॥ सर्वेष्वपि स्थानेषु रववीक्षणाभ्यां चक्रवाकयुग्मंसमृद्ध्यै भवति . तदेव विक्षिप्यमानं सविषादचेष्टं आर्तस्वरं विपदे स्यात् ।। ८॥ ॥इति चक्रवाकः ॥ इष्टार्थ इति ॥ सकलासु दिक्षु सारसबंदविलोकनेन इष्टार्थसिद्धिः स्यात् । पृष्ठे अस्य निनदं श्रुत्वा न गच्छेत् यस्मात् गृहे एव अभीष्टं सिध्यति ॥९॥ वामेनेति ॥ वामेन सारसबंदं योषिद्धनलाभकारि स्यात् तथाने शब्दः नृपतेः अर्थलब्ध्यै स्यात् पार्श्वद्वये एकं सारसयुग्मं कृतारवं कन्यकाप्ति जल्पति ॥ १० ॥ य इति ॥ ॥ भाषा ॥ ॥ स्थानेष्विति ॥ चक्रवाकको युगल सर्व स्थानमें देखे वा शब्द करै तो समृद्धि करे वोही जो दुःखी होय चेष्टा कर रह्यो होय आर्तस्वर करतो होय तो मनुष्यकू बिपदा करै ॥ ८॥ ॥ इति चक्रवाकः ॥ ॥ इष्ठार्थ इति ॥ सारसको जोडा सर्व दिशानमें देखतो होय तो इष्टार्थ सिद्धि करै और जो पीठपीछे सारसके युगलको शब्द श्रवणकरके गमन न करै याते घरमेंही अभीष्टसिद्धि होय ॥९॥ वामेनेति ॥ सासरको युगल वामभागमें शन्द करै तो स्त्री धन इनको लाभ करै तैसेही अगाडी प्रश्न करै तो राजाकी प्रशांतिके अर्थ होय और दोनो पसवाडे. नमें शन्द करै एकही सारसको युगल तो कन्या प्राप्त करै ॥ १० ॥ य इति ॥ जो Aho ! Shrutgyanam Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीस्ते हंसादिकप्रकरणम् । ॥ इति सारसः॥ कार्यक्षतिमिगते च ढेके मृत्युः पुरो दक्षिणपृष्ठगे च ॥ रुवन्वियत्स्थः समरे पुरोगो यदीयतंत्रस्य जयेत्स शत्रून्॥१२ ॥इति ढेकः॥ ॥ टीका ॥ सारसाभ्यां युगपद्विरावः कृतःस अचिरेण स्तोककालेन क्रमतोऽपियः शब्दः कथितोऽर्थकारीवेदितव्यः क्रौंचद्यस्यापिअयमेव मार्गःपंथाज्ञेयःयथासारसद्वंद्वस्य शकु नानि तथा क्रौंचव्यस्येति तात्पर्यार्थः यदि सारसः पथि युद्धं प्रकुर्वाणो दृश्यते तदा तत्र कलहमाख्याति यदुद्दिश्य प्रयाति तदभावेऽपिच एकोऽपि यदि दृश्यते तदा वियोगं कुर्यात कार्यहानिश्च स्यात् अभीष्टसमागमाभावश्च ग्रंथांतरेप्येवम् ॥ ११ ॥ ॥ इतिः सारसः ॥ कार्य इति ॥ वामगते ठेके कार्यक्षतिर्भवति पुरोदक्षिणपृष्ठगे च मृत्युर्भवति यदीयतं-, त्रस्य समरे वियत्स्थः पुरोगो रुवन् भवति स शत्रन् जयेत् ॥ १२॥ ॥ इति ढेकः॥ ॥ भाषा॥ सारसको युगल दोनो एकसंगही शब्द करें तो शीग्रही क्रमसू अर्थकारी जाननो और क्रौंचद्वयको भी यही मार्ग है, जैसे सारसके जोडाके शकुन हैं तैसेही कौंचके जोडाको जाननो. जो सारसमार्गमें युद्ध करतो दीखे तो कलह कहै और जाको उद्देशकरके जातो होय ताको अभाव जाननो और जो एकही दीखै तो वाकोभी वियोग करें और कार्यकी हानि करै अभीष्ट समागमको अभाव करै ये ग्रंथांतरको मतहै ॥ ११ ॥ ॥ इति सारसः॥ ॥ कार्य इति ॥ ढेंक पक्षी जो वामगति होय तो कार्यक्षति करै और अगाडी जेमने भाऊं पिछाडी गमन करे तो मृत्युकू देवे. और संग्राममें आकाशमें स्थित होय अगाडी आय शब्द करै तो शत्रुनकू जीतले ॥ १२॥ ॥ इति ढेकः ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६) वसंतराजशाकुने-अष्टमो वर्गः। वामं प्रवासे रटितं हिताय तथोपरिष्टादपि टिट्टिभस्य ॥ टिटीति शांतं टिटिटीति दीप्तं शब्दद्वयं चास्य बुधा वदन्ति ॥ १३॥ ॥ इति टिट्टिभः॥ कारंडवाटीजलवायसानामुपस्थिताभ्यां रखवीक्षणाभ्याम् ॥ बहूनि दुःखानि भवंति गंतुर्मुहुः प्लवाद्यास्त्वपरे प्रश- . स्ताः ॥ १४ ॥ ॥ इति कारंडवादयः॥ ॥ टीका ॥ . वाममिति ॥ प्रवासे टिट्टिभस्य वामं रटितं हिताय भवति तथोपरिष्टादपि अस्य शब्दद्वयं बुधा वदंति एकं टिटीति शांतं एकं टिटिटीति दीप्तम् ॥ १३ ॥ ॥ इति टिट्टिभः ॥ ॥ कारंडवाटीति ॥ कारंडवः करेडुआ इति लोके प्रसिद्धः आटिः आडि इति प्रसिद्धः जलवायसाः जलोद्भवाः काकाः एतेषां रखवीक्षणाभ्यां बहूनि दुःखानि भवंति अपरे ये जलद्विजाः जलपक्षिणः ते प्रशस्ताः॥ १४ ॥ ॥ इति कारंडवादयः ॥ ॥ भाषा॥ ॥वाममिति ॥ मार्गमें टिट्टिभ पक्षीको बायो शब्द हितके अर्थ जाननो, और जो ऊपर शब्द करै तो भी हितके अर्थ जाननो. एक तो टिटि ये शब्द शांतहै और टिटिटि ये शब्द दीप्त जाननो ॥ १३ ॥ ॥ इति टिट्टिभः॥ कारंडवाटीति ॥ कारडव करेडुआ या नामकर प्रसिद्ध है. और आटिवा आडी या नामकर प्रसिद्ध है, और जलकौआ काक इनके समीपमें शब्द और देखनो ये दोनों बहुत दःखके देबेवारे हैं. और जो मेंडका जलकूकूडाकू आदिले जलके पक्षी हैं ते शुभ हैं ॥ १४ ॥ ॥ इति कारंडवादयः ॥ . Aho ! Shrutgyanam Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते हंसादिकप्रकरणम्। (२३७ ) वामे पठन्राजशुकः प्रयाणे शुभो भवेद्दक्षिणतः प्रवेशे ॥ वनेचराः काष्ठशुकाः प्रयाणे स्युः सिद्धिदाः सम्मुखमापतंतः । ॥ १५ ॥ अग्रे रटंतो वधबंधनादीन्कुर्वन्ति कीटाः सुबहू-. ननान् ॥ आचक्षतेकाष्ठशुकैः सहक्षान्विचक्षणाः पत्रशुकानपीह ॥ १६॥ ॥ इति शुकाः ॥ कलिः समं दस्युभिरग्रदेशे पृष्ठे च मित्रैः सह वामतश्च ॥ स्त्रीभिः समं दक्षिणतश्च पित्रा स्यात्सारिकायां चविलोकितायाम् ॥ १७ ॥ ॥ टीका ॥ वाम इति ॥ प्रयाणे वामे पठनाजशुकः शुभो भवेत् प्रवेशे दक्षिणतः शुभः स्यात् यः नृभाषया जल्पति स राजशुक इत्युच्यते सम्मुखमापतंतः वनेचरा काष्ठशुकाः सिद्धिदाः स्युः॥ १५॥ अग्र इति ॥ अग्रे रटंतः वधवन्धनादीन् कुर्वन्ति सुबहूननश्चिइह काष्ठशुकैः सदृक्षान्विचक्षणा पत्रशुकानाचक्षते तत्र काष्ठशुकः काष्ठवज्जडो भवति वक्तं न जानाति पत्रशुकस्तु दीर्घपुच्छः किंचिन्नृभाषया वक्ति ॥ १६ ॥ ॥ इति शुकाः॥ कलिरिति ॥ अग्रदेशे अवलोकितायां सारिकायां दस्युभिः समं कलिः स्यात् पृष्ठे त्ववलोकितायां मित्रैः सह कलिः स्यात् वामतस्तु स्त्रीभिः समं कलिः ॥ भाषा ॥ वाम इति ॥ प्रयाणसमयमें राजशुक जो सूआ वामभागमें बोले तो शुभ होय. और प्रवेशसमयमें दक्षिणमाऊं बोले तो शुभ होय. जो मनुष्य भाषाकरके बोल है वाकू राजशुक कहै हैं. और वनमें विचरै हैं उनकू काष्ठशुक कहैं हैं. ते काष्ठशुक सम्मुख चलो आधे वो सिद्धिदेवे बोले है ॥ १५ ॥ अग्र इति ॥ अगाडी बोले तो वधबंधनादिक करे. और बहुत अनर्थ करै, ये काष्ठकी सी नाई जड होय है वो काष्ठशुक कहनो. बोलनो नहीं जाने है. और जाकी दीर्घलंबी पूंछ होय. और मनुष्यकीसी कछू भाषा नाम वाणी बोले वों राजशुक है ॥ १६ ॥ ॥ इति शुकाः ॥ __ कलिरिति ॥ सारिका अगाडीकू देखती होय तो चोरनसूं कलह करावे. पीठमाऊं देखती होय तो मित्रनकरके सहित कलह करावे, और वाममाऊं देखै तो स्त्रीनकरके Aho! Shrutgyanam Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३८) वसंतराजशाकुने-अष्टमो वर्गः । कावमायै रटितैस्तथास्याः श्रुतैः सुतिः स्यादसृजोऽचिरेण ॥न सारिकायाः शकुनेन कार्य कार्य मनुष्यैः किमपीह तस्मात् ॥ १८॥ ॥ इति सारिका ॥ सदा भरद्वाजचकोरयोः स्युनिनादनामग्रहणेक्षितानि ॥ सर्वव सर्वाभिमतार्थसिद्धयै हारीतमप्येवमुदाहरंति ॥ १९॥ ॥ इति भारद्वाजादयः॥ ॥ टीका ॥ स्यात् दक्षिणतश्च पित्रा कलिः स्यात् ॥ १७ ॥ क्रावमारिति ॥ तथा अस्याः क्रावमाद्यैः रतिः श्रुतैःअचिरेण असृजःस्रतिः स्यात् तस्मात्तस्याः सारिकाया: शकुनेन मनुष्यैः दानादि किमपि कार्य न कार्यम् ॥ १८॥ ॥ इति सारिका ॥ सदेति ॥ भरद्वाजचकोरयोः सदा सर्वकालं सर्वत्र सर्वस्मिन् कार्ये निनादनामग्रहणेक्षणानि अभिमतार्थसिद्धयै स्युः हारीतमप्येवमुदाहरंति तत्राद्यस्य नामवयं मरुस्थल्यां रूपारेल इति उग्रपुरादौ लाट इति अन्यत्र मागधादौ भारद्वाज इति चकोरः प्रसिद्धः हारीतः हारिलः इतिलोके प्रसिद्धः॥ १९ ।। ॥ इति भारद्वाजादयः॥ ॥ भाषा॥ कलह होय. और दक्षिणमाऊं देखे तो पिता करके कलह करावे ॥ १७ ॥ कावमा. चैरिति ॥ सारिकाके काका ये आदिशब्द सुनै तो शीघ्रही रुधिरको स्त्रवण करै याते सारिकाके शकुन करके कोई कार्य नहीं करनो योग्य है॥ १८ ॥ ॥ इति सारिका ॥ सदेति ॥ भरद्वाज चकोर इनको शब्द नाम ग्रहण देखनो ये वांछित अर्थसिद्धिके अर्थ हैं. सदा सर्व कार्यमें और या प्रकार ही हारीतकुंभी कहैहैं. ये तीननके नाम मरुस्थलीमें हैं. रूपारेल लाट और मागधादिक देशनमें भारद्वाज इननामनकरके प्रसिद्ध हैं. और चकोर तो प्रसिद्धही है और हारीत हारिल ये प्रसिद्ध है लोकमें ॥ १९॥ ॥ इति भारद्वाजादयः॥ Aho ! Shrutgyanam Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते हंसादिप्रकरणम् । (२३९) भासा वनांते बहवः समेताःप्रयांति चेदृष्टिपथं तदानीम् ॥ ज्ञेयं लवं तस्करसंप्रवृत्तं यात्रासु भासः शुभदोऽपसव्यः ॥ ॥२०॥ भासस्य शब्दादवलोकनाद्वा प्रदक्षिणाद्वा भवने वने वा॥ लाभोऽस्य शब्देषु बहुष्वरण्ये श्रुतेषु संगः सह राजपत्न्या ॥२१॥ ॥ इति भासः॥ मयूरशब्दे प्रथमर्थलाभः स्त्रियं द्वितीये लभते तृतीये ॥ नृपाद्भयं चौरभयं चतुर्थे भीः पंचमे सिध्यति कर्म षष्ठे ॥२२॥ ॥ टीका ॥ · भासा इति ॥ वनांते बहवो भासाः समेताः दृष्टिपथं प्रयांतिचेत् तदानी लवं लवमानं तस्करसंप्रवृत्तं ज्ञेयम् यात्रासु भासपक्षी अपसव्यः शुभदो भवति।॥२०॥ भासस्येति ॥ भवने भासस्य शब्दादवलोकनात प्रदक्षिणाद्वा लाभः स्यात् । अरण्ये बहुषु शब्देषु श्रुतेषु राजपन्यासह संगःस्यादव भासशब्देन गौर्जरप्रसिद्धा कावरिः मध्यदेशे गुडशिल: पश्चिमायां गोगलः स्मृत्यादौ गोष्ठकुक्कुरः इतिप्रसिद्धः॥२१॥ ॥ इति भासः॥ मयूरोत ॥ मयूरशब्दे प्रथमे अर्थलाभः स्यात् । द्वितीये स्त्रियं लभते तृतीये नृपाद्भयं स्यात् चतुर्थे चौरभयं भवति पंचमे भीः स्यात् षष्ठे कर्म सिद्धयति ॥ २२ ॥ ॥ भाषा॥ ॥भासा इति ॥ वनमें बहुत से भासपक्षी इकडे होयजाँय वे देखवेमें आवें कछुक चौरनकर उपाधि होय और यात्रानमें भासपक्षी अपसव्य शुभको देबेवारो है ॥ २० ॥ ॥भासस्येति ॥ घरमें भासके शब्दते अवलोकनते वा प्रदक्षिणाते लाभ होय. और अरण्यमें बहुतसे शब्द श्रवण करवेमें आवे तो राजाकी स्त्रीको समागम होय. भासनाम करके गौर्जरदेशमें प्रसिद्ध है. और कावार या नामकर मध्यदेशमें विख्यात है और पश्चिम देशमें गुडशिल या नामकर प्रसिद्ध है. और स्मृत्यादिकनमें गोगल नामकर प्रसिद्ध है और गोष्ठकुर्कुट ये प्रसिद्ध नाम हैं ॥ २१ ॥ ॥ इति भासः॥ भयरेति ॥ मयूरको शब्द प्रथम होय तो अर्थलाभ होय. द्वितीयशब्दमें स्त्रीलाभ होय. तृतीयशब्दमें राजाते भय होय चतुर्थ शब्दमें चौरको भय होय पंचममें भय होय. Aho! Shrutgyanam Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४०) वसंतराजशाकुने-अष्टमो वर्गः। अन्यान्क्षुधा विदधातिनादान्मिष्टान्नदो वाममुपैति केकी। मांगल्यदो नृत्यति भाषितेन प्रीतिः शुभं तस्य विलोकितेन ॥२३॥ .. ॥ इति मयूरः॥ संकीर्तनालोकननादयानरूहेत दात्यूहगतैर्मनुष्यः ॥ सिद्धि सदा सर्वमनोरथानां दात्यहवत्कुक्कुटमामनंति ॥ २४ ॥ ॥ इति दात्यूहकुक्कुटौ ॥ ॥ टीका ॥ अन्यानिति ॥ अतिक्षुधातः अन्यान् नादान् विदधाति यदा वाममुपैति केकी तदा मिष्टान्नदः स्यात् । यदा पुनः नृत्यति तदा मांगल्यदः तस्य भाषितेन प्रीतिः स्यात् । तस्य विलोकनेन शुभं स्यात् ॥ २३ ॥ ॥ इति मयूरः॥ ॥ संकीर्तनेति ॥ संकीर्तनालोकननादयानैः मनुष्यः दात्यूहगतिमूहेत तदा सर्वमनोरथानां सिद्धिः स्यात् दात्यूहवत्कुक्कुटमप्यामनंति तत्र दात्यूह इति नाम्ना मध्यदेशे प्रसिद्धः कुत्रचिदांतुल इति जलजंतः कुक्कुटःजलकुक्कुटःकुक्कुटकुंभारोवा गुर्जरदेशे प्रसिद्धः ॥ २४ ॥ ॥इति दात्यूहकुक्कुटौ ॥ ॥ भाषा ॥ छठे शब्दमें कर्म सिद्धि होय ॥ २२ ॥ अन्यानिति ॥ अत्यंतक्षुधात होय और शब्दकर वामभागमें आयजाय तो मयूर मिष्टान्नकू देवे जो फिर नृत्य करे तो मांगल्य देवे. मयूरके शब्दकरके प्रीति होय और याके देखवेकरके शुभ होय ॥ २३ ॥ ॥इति मयूरः॥ ॥ संकीर्तनति ॥ संकीर्तन आलोकन शब्द गमन इनकरके मनुष्य दात्यूहकी गति ताय प्राप्त होय तो सर्व मनोरथकी सिद्धि होय और दात्यूहकी सी नाई कुक्कुटकुंभी कहेहैं ।। दात्यूह नाम करके मध्यदेशमें प्रसिद्ध है. कहूं वाकू दांतुल कहैं हैं. जलजंतु है कुक्कुट नाम जलकुक्कूडा वा कुक्कुट नाम कुंभारो गुर्जरदेशमें प्रसिद्ध है ॥ २४ ॥ ॥ इति दात्यूहकुक्कुटौ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकारते हंसादिकप्रकरणम् । (२४१) कपिंजलः कूजति दक्षिणश्चेत्पुनःपुनः स्यात्कृतकृत्यता च ॥ वामे विभागे विफलं प्रयाणं हानिर्भवेत्तंस्करदर्शनं च॥२५॥ लाभो भवेद्दक्षिणपृष्ठभागे कार्याणि सिध्यति न वामपृष्टे । पृष्ठे क्षतिश्चौरभयं तथा भवेनिनादेन कपिजलस्य ॥२६॥ आत्मीयकं नाम कपिजलेति पुनः पुनर्योऽनुकरोति जल्पन।। सोत्साहमुत्साहितचित्तवृत्तिः सतित्तिरिः साधयतीष्टमर्थम् ॥ २७ ॥ अयुग्मसंख्याः कथिताः परस्यै कृतारवास्तित्तिरयः समृद्ध्यै ॥ करोति वा व्योम निरीक्ष्यमाणे निरीक्षितस्तित्तिरिरर्थनाशम् ॥२८॥ ॥ टीका॥ ॥ कपिंजल इति ॥ यदि दक्षिणेन कपिजलः पुनःपुनः कूजति तदा कृतकृत्यता स्यात् वामे विभागे प्रयाणं विफलं भवति हानिर्भवेत्तस्करदर्शनं च अत्रायं विशे. षः यो दरदेशकार्याणि कृत्वा स्वगहं प्रति स्थितस्तस्य प्रथमं वामो विलोक्यते तदुतं यः कृत्वा विनिवृत्तः कार्याणि स दूरदेशकार्याणि “वामरवस्तद्देश्मनि कपिंजल: कुशलमाख्याति"॥२५॥ लाभ इति ॥ दक्षिणपृष्ठभागे लाभो भवेदामपृष्ठेन कार्याणि सिध्यंति कपिंजलस्य निनादेन पृष्ठे क्षतिर्भवेत् तथाग्रे चौरभयम् ॥२६॥आमीयकमिति ॥ आत्मीयकं नाम कपिजल इति पुनःपुनः जल्पन्योऽनुकरोति स तित्तिरिः इष्टमर्थ साधयति कीहक सोत्साहं यथा स्यात्तथा उत्साहितचित्तवृत्तिः ॥ २७ ॥ अयुग्मेति ॥ अयुग्मसंख्याः कृतारवास्तित्तिरयः परस्यै समृद्ध्यै स्युः च ॥ भाषा ॥ ॥कपिजल इति ॥ जो जेमने माऊं कपिजल बारंबार शब्द करें तो कृतकृत्य होय. जो कपिंजल वामभागमें होय तो गमनयात्रा निष्फल होय. हानि होय चौरदर्शन होय. जो दुरदेशके कार्यकरके अपने घरमें आयस्थित होय वाके घरमें कपिंजल वामभागमें शब्द करे तो कुशल करै ॥ २५ ॥ लाभ इति ॥ कपिंजल दक्षिणपृष्ठभागमें शब्द करै तो लाभ होय. और वामपृष्ठभागमें बोले तो कार्यसिद्धि नहीं होय. और पीठपीछे बोले तो क्षति होय. तैसेही अग्रभागमें बोले तो चौरभय होय ॥ २६ ॥ आत्मीयकमिति ॥ उत्साह सहित उत्साहमें चित्तकी वृत्तिजाकी ऐसो कपिंजल अपनो नाम काजल कपिजल या प्रकार बारंवार उच्चारण करै वो तित्तिरि इष्टअर्थकं साधन करै ॥ २७ ॥ अयुग्ममिति ॥ Aho! Shrutgyanam Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२ ) वसंतराजशाकुने - अष्टमो वर्गः । शब्दायमानौ यदि तुल्यकालं कपिंजलौ दक्षिणवामसंस्थौ ॥ गंतुर्भवेतां पथि तोरणं तत्सर्वार्थसिद्धिप्रदमुद्यमेषु ॥ २९॥ कृष्णतित्तिरिरितीह पतत्री वृत्ततित्तिरिरिति प्रथितो यः ॥ यश्व पक्षिषु मतोऽधिपमल्लो गौरतित्तिरिसमः शकुनेन ॥ ३०॥ ॥ इति कपिंजलादयः ॥ खगोऽत्र यौ लावकनामधेयः खगौ चकोर क्रकराभिधानौ ॥ त्रयोऽपि ते तित्तिरितुल्यचेष्टाः पुरो व्रजंतो बहवोऽर्थसिद्धयै ॥ ३१|| ॥ इति लावकादयः ॥ ॥ टीका ॥ पुनः व्योम निरीक्ष्यमाणः निरीक्षितः तित्तिरिः अर्थनाशं करोति ॥ २८ ॥ शब्दायमानेति ॥ यदि कपिंजलौ वामदक्षिणसंस्थौ तुल्यकालं शब्दायमानौ गंतुर्भवेत तत्पथि तोरणं स्यात् उद्यमेषु सर्वेषु सिद्धिप्रदं भवति ॥ २९ ॥ कृष्ण इति ॥ इह यः पतत्री कृष्णतित्तिरिरिति यः वर्तते सः वृत्ततित्तिरिरिति प्रथितः यश्च पक्षिषुमतोऽधिपमल्लो गौरतित्तिरिः एते त्रयोऽपि शकुनेन समाः भवति ॥ ३० ॥ ॥ इति कपिंजलादयः ॥ ॥ खग इति ॥ अत्र यः खगः लावकनामधेयः वर्तते यौ खगौ चकोरककराभिधानौ त्रयोऽपि ते तित्तिरितुल्यचेष्टा भवंति पुरो ब्रजेतो बहवः अर्थसिद्धयै स्युः ३१ ॥ इति लावकादयः ॥ ॥ भाषा ॥ अयुग्मनाम ऊना संख्या शब्दकरे तित्तिरी समृद्धि करें फिर आकाशमें देखतो होय तो अर्थनाश करे ॥ २८ ॥ शब्दायमानाविति ॥ गमनकर्त्ता के जो दोय काजल वामदक्षिण दोनों भागमें स्थित होयँ एकसंगशब्दकरें मार्गमें तोरण होय संपूर्ण उद्यमनमें अर्थसिद्धि होय ॥ २९ ॥ कृष्ण इति ॥ जो कालो तित्तर है वाकूंही वृत्ततित्तिरि कहें है. जो पक्षी - में अधिपहै. मल हैं. वो गौरतित्तिरि है ये तीनों शकुनमें समहैं ॥ ३० ॥ ॥ इति कपिंजलादयः ॥ ॥ खग इति ॥ जो लावकपक्षी चकोर कृकरपक्षीकर ढोंक करक करेदु ये करके भेद हैं ये तीनों पक्षी तित्तरकीसी इनकी चेष्टा है. ये अगाडी गमन करें तो बहुत अर्थ सिद्धिकरें ॥ ३१ ॥ ॥ इति लावकादयः ॥ Aho! Shrutgyanam Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरते हंसादिकमकरणम् । (१४३) याती नृणां दक्षिणतोऽनुलोमं स्यादतिका पक्षिषु छिप्पिका चा|सर्वार्थसिद्धिप्रतिपादयित्री तद्वैपरीत्येन पुनःप्रवेश॥३२॥ ॥इति वर्तिकाछिप्पिके ॥ वामोऽपसव्यः पुरतोऽथ पृष्ठे युद्धं विभेदं मरणं श्रियं च ॥ गृध्रः स्थितः सन्कुरुते क्रमेण शब्दोऽपसव्योऽस्य विपत्तिहेतुः ॥३३॥ ॥ इति गृध्रः॥ प्रदक्षिणीकृत्य नरं व्रजंतो यात्रासु वामेन गताः प्रवेशे ॥ श्येनाःप्रशस्ताः प्रकृतस्वरास्ते शांताः प्रदीप्तादिकृतस्वरास्तु ॥३४॥ ॥टीका ॥ यांतीति ।। नृणामनुलोमं यस्य स्यात्तथा दक्षिणतः यांती वर्तिका वटेर इति प्र. सिद्धा छिप्पिका च छापो इति मरुस्थल्यांप्रसिद्धः यच्छब्दश्रवणाजनानां रुधिर प्रकोपः स्यात् सा सर्वार्थसिद्धिप्रतिपादयित्री प्रवेशे पुनः वैपरीत्येन ज्ञेयम् ॥ ३२ ॥ ॥ इति वर्तिकाछिप्पिके ॥ वाम इति।गृध्रः वामे अपसव्ये पुरतः पृष्ठे स्थितः सन्यथाक्रमं युद्धविभेदं मरणं श्रियं च तथापसव्यशब्दः विपत्तिहेतुर्भवति ॥ ३३॥ ॥ इति गृध्रः॥ ॥ प्रदक्षिणीकृत्येति ॥ यात्रासु नरं प्रदक्षिणीकृत्य व्रजंतः प्रवेशे वामेन गताः ॥ भाषा ॥ ॥ यांतीति ॥ वर्तिकाके नाम वटेर वा वटई वा वनचटक इन नामनकर वनचिडी है. और नप्पिका वा छप्पिका याको छाप मारवाडमें नाम प्रसिद्ध है. ये दोनों अनुलोमाहोय दक्षिणमाऊं गमन करें तो सर्वार्थसिद्धि करें. फिर ये प्रवेशमें फल करैं हैं ॥ ३२ ॥ ॥ इति वर्तिकानप्पिकौ वा छिप्पिको॥ ॥ वाम इति ॥ गीध बायो जेमनो अगाडी पिछाडी इन चारों जगह स्थित होय तो क्रमकरके युद्ध १ भेद २ मरण ३ श्री ४ ये करे और जो गीध जेमनो बोले तो मृत्यु• देवे ॥ ३३ ॥ ॥ इति गृध्रः॥ ॥ प्रदक्षिणी कृत्येति ॥ यात्रामें मनुष्यकू प्रदक्षिणा करके गमन करें और प्रवेश Aho! Shrutgyanam Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४ ) वसंतराजशाकुने - अष्टमो वर्गः । श्येनो नृणां दक्षिणवामपृष्टभागेषु भाग्यैः स्थितिमादधाति ॥ तिष्ठन्पुरस्तान्मरणं करोति युद्धे जयेच्छत्ररथध्वजस्थः ॥ ३५ ॥ ॥ इति श्येनः ॥ फेटः शुभो दक्षिणभागसंस्थो वामः प्रहारं मरणं पुरस्तात् || करोति गच्छन्पुरतो बलानां ध्वजस्थितो वा विजयं नृपाणाम् ॥ ३६ ॥ ॥ इति फेटः ॥ ॥ टीका ॥ श्येनाः प्रशस्ताः प्रकृतिस्वराः शांता आसते । तु पुनः विकृतस्वराः प्रदीप्ता आसते ॥ ३४ ॥ श्येन इति ॥ श्येनः सिंचाणा इति लोके प्रसिद्धः नृणां दक्षिणपृष्ठवामभागेषु भाग्यैः स्थितिमादधाति पुरस्तात्तिष्ठन्मृति करोति छत्ररथध्वजस्थः युद्ध जयं वक्ति ॥ ३५ ॥ ॥ इति श्येनः ॥ फेट इति ॥ फेटः पक्षिविशेषः स दक्षिणभागसंस्थः शुभः वामः अपहारं करोति पुरस्तात् मरणं करोति बलानां पुरतः गच्छन् ध्वजस्थितो वा नराणां विजयं करोति ।। ३६ ।। इति फेटः ॥ ॥ भाषा ॥ वामहोकर गमन करै ऐसे शिखरा शुभ जानने अपनी प्रकृतिकूँ लिये स्वर बोले ते तो शांता और विकारयुक्तस्त्रर बोलै ते प्रदीप्ता जानने || ३४ ॥ श्येन इति ॥ श्येननाम शिखरा वा शचाणा इति लोके प्रसिद्धा ये मनुष्यनके दक्षिणपृष्ठवामभाग इनमें स्थित होय तो होय तो मृत्युकरे, और छत्र रथ ध्वजापे स्थित होय: भाग्य वढावे. और जो अगाडी स्थित तो युद्धमें जय करे || ३५ ॥ इति श्येनः ॥ ॥ फेट इति ॥ फेट जो पक्षी सो जेमने भाग में स्थित होय तो शुभ होय शुभकरे, जो बामभाग में हाय तो प्रहार करै, और अगाडी होय तो मरण करें, वहनके अगाडी गमन करत ध्वजापे बैठे जाय तो मनुष्यको जय करै ॥ ३६ ॥ ॥ इति फेटः ॥ Aho! Shrutgyanam Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते हंसादिकप्रकरणम् । (२४५) संमुखी शबलिकाथ वामिका श्रेयसी यदि च भाससंगता॥ तद्विशेषशुभदा तु सामिषा यस्य मूनि पतेत्स भूपतिः॥३७॥ ॥ इति शबलिका ॥ अलोकशब्दौ निशि कौशिकस्य वामौ शुभौ दक्षिणतो विनियौ ॥ पृष्ठेन यानं विदधाति तस्य समीहितं सिद्धिफलं यियासोः ॥३८॥ करोति हुहुहुमिति ध्वनि यो नेष्टो न दुष्टः स यतो रतार्थी ॥ चलस्वरःस्यात्कलहाय शब्दः कीकीति शब्दो गुरुलस्तु शांतः ॥ ३९॥ ॥टीका॥. संमुखीति ॥ शवलिका संमुखी अथवा वामिका श्रेयसी श्रेयाप्रदा भवति यदि भाससंगता भवति तत्रस्था सामिषा विशेषशुभदा भवति सां यस्य मूनि पतेत्स भूपतिर्भवति ॥ ३७ ॥ ॥ इति शबलिका ॥ आलोक इति॥निशि कौशिकस्य आलोकशब्दौ वामी शुभौ दक्षिणतः अतिनिद्यौ भवतः । अस्य पृष्ठे न यानं गमनं यियासोः समीहितं सिद्धिफलं विदधाति। ॥ ३८ ॥ करोतीति ॥ हुँहुंहुमिति ध्वनि यः करोति स नेष्टः न दुष्टः यतः सरतार्थी । अस्य चलस्वरः कलहाय स्यात् । अस्य कीकीति शब्दः दीप्तः गुरुल इति शब्दः शान्तः ॥ ३९॥ ॥भाषा॥ ॥ संमुखीति ॥ शबलिका संमुखी होय अथवा वामभागमें होय तो श्रेयकी करबेवाली होय. और जो भासपक्षी सहित मांससहित होय तो विशेष शुभदेवे. वो शबलिका जाके -मस्तकपै आयबैठे वो राजा होय ॥ ३७॥ ॥ इति शवलिका॥ ॥ आलोक इति ॥ रात्रिमें धूवूको बायोशब्द और आलोकन ये दोनों शुभ हैं. और जेमने माऊं ये दोनों अति अशुभ हैं और पीठपीछे गमन करे तो वा गमनकर्ता पुरुषकू बांछित सिद्धि फलक देबेवारो है ॥ ३८ ॥ करोतीति ॥ जो हुई या प्रकार ध्वनिकरै तो नेष्ठजाननो वो संभोगको अर्थी होय तो दुष्ट नहीं जाननो. बोलतो हुयो चले तो कलहके अर्थहै, और कीकी ऐसो शब्द बोलें तो दीप्त और गुरुल ये शब्दबोले तो शांत है ॥ ३९ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४६) वसंतराजशाकुने-अष्टमो वर्गः। रात्रौ गृहस्योपरि भाषमाणो दुःखाय घूकः सुतमृत्यवे च ॥ गृहस्य नाशाय च सप्तरात्रानाशाय राज्ञो द्विगुणानुबंधी ॥ ॥४०॥ त्र्यहं गृहद्वारि रुदनलूको हरंति चौरा द्रविणान्यवश्यम् ॥ तस्मिन्प्रदेशे निशि मांसयुक्तस्तदोषनाशाय बलिः प्रदेयः ॥४१॥ पृष्ठे पुरो वा पथिकस्य शब्दं कुवन्सदा सूचयति प्रणाशम् ॥ विशेषतो वायसवैरिशब्दो दुष्टः प्रदिष्टोऽहनि सर्वदिक्षु ॥४२॥ ॥ इत्युलूकः॥ ॥ टीका॥ रात्राविति ॥ गृहस्योपरि रात्रौ भाषमाणः घूकः दुःखाय सुतमृत्यवे च भवति सप्तरात्रं गृहस्य नाशाय भवति । द्विगुणानुबंधी चतुर्दशदिनानि यावद्गहोपरि जल्पन राज्ञो नाशाय स्यात् ॥ ४०॥ व्यहमिति ॥ व्यहं दिनत्रयं गृहद्वारि धूके रुदन् स्यात्तदा चौरा द्रविणान्यवश्यं हरति । निशि तस्मिन्प्रदेशे तदोषनाशाय मांसयुक्तः बलिः प्रदेयः ॥४१॥ पृष्ठे इति । पथिकस्य पृष्ठेऽथवा पुरः शब्दं कुर्वन्नु लूकः सदा प्रणाशं सूचयति तथा विशेषतः वायसवैरिशब्दः सर्वदिक्षु अहनि दुष्टः प्रदिष्टः ॥ ४२ ॥ ॥ इत्युलूकंः ॥ ॥ भाषा॥ ॥रात्राविति ॥ वरके ऊपर रत्रिमें बोले तो दुःखके अर्थ है, और सुतके मृत्युके अर्थ है, और जो सातरात्रिपर्यंत घरके ऊपर बोले तो घरके नाशके अर्थ जाननो. और जो चौथी रात्रि ताई बोले तो राजाके नाशके अर्थ है ॥ ४० ॥ ॥ व्यहमिति ॥ तीन. दिनताई घरके द्वारपै घुघू शब्द करै तो चौर अवश्य द्रव्य हरण करें, याते जहां बैठके बोले वाई स्थानमें वाके दोष दूर होयबेके लिये मांस सहित बलिदान देनो योग्य है ॥ ४१ ॥ ॥ पृष्ठेइति ॥ मार्गमें गमनकर्ताके अगाडी वा पिछाडी शब्द करत घूधू नाशकू सूचना करे. और विशेषकरके दिनमें तो चारों दिशानमें दुष्टफलकू देवै है ॥ ४२ ॥ ॥ इत्युलूकः ॥ Ayo Shrutgyanam Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरते हंसादिक प्रकरणम् । (२४७) अवामगोभ्रातृविनाशनाय वामाग्रतो धान्यधनस्य लब्ध्यै॥ पृष्ठे प्रयातो भवति प्रयातुप्रभूतभीत्यै नियतं कपोतः॥४३॥ शस्तानि संज्ञारववीक्षणानि कचित्कदाचिन कपोतकस्य । करोत्यसौ मूनि यस्य विष्टां तमाशु निर्णाशयते मनुष्यम् ॥४४॥ पर्यकयानासनसंनिविष्टो गृहे प्रविष्टः कुरुते कपोतः॥ दुःखं त्रिभेदोऽपि विपांडुरः स्यादर्धेन चित्रो दिवसेन धूम्रः॥४५॥ ॥ इति कपोतः॥ वामा शुभावम॑नि पुष्पभूषी शुभो भवेत्पोटियकोऽपि वामः।। पर्यदिका स्यात्तु शुभापसव्या सर्वे शुभाव्यत्ययतःप्रवेशे॥४६॥ ॥ टीका ॥ अवाम इति ॥ कप र होलाख्यः अवामः भातृविनाशाय स्यात् । वामाग्रतो धान्य धनस्य लब्ध्यै स्यात् । पुनः पृष्ठे प्रयातः महत्यै प्रचुरभीत्यै प्रयातुर्भवति ॥ ४३ ।। शस्तानीति॥कपोतस्य संज्ञारववीक्षणानि कचित् कदाचिन शस्तानि यस्य मूर्ति विष्ठाम् असौ करोति तमाशु शीघ्रं मनुष्यं निर्णाशयते ॥४४॥ पर्यकेति ॥ पर्यकयानासनसन्निविष्ट इति पर्यकः पल्यंकः यानमश्वादि आसनं प्रतीतं तत्र सन्निविष्टः स्थितः गृहप्रविष्टश्च त्रिभेदोऽपि दुःखदः स्यादित्यर्थः॥४५॥ - इति कपोतः ॥ वामेति ॥ वर्त्मनि पुष्पभूषी वामा शुभा भवतीत्यर्थः इति पुष्पभूषीपर्यदिके ॥भाषा ॥ ॥ अवामग इति ॥ कपोतके नाम होला पिंडुकिया पारावत ये हैं सो कपोत जेमने भागमें होय तो भ्रातृको विनाश करै. और वामभागमें वा अग्रभागमें होय तो धान्य धनकी प्राप्ति करै. फिर पीठभागमें होय तो महान् भीति करै ॥ ४३ ॥ शस्तानीति ॥ कपोतकी चेष्टा शब्द देखनो ऐक देवी कदाचित् भी शुभ नहीं है. और जाके मस्तकपे बीट करे ताकू शीघ्र ही नाश करै है॥ ४४ ॥ ॥ पर्यकेति ॥ पर्यंक नाम पलका यान नाम अश्वादिक और आसन इनमें जो कपोत स्थित होय और घरमें प्रवेश करे तो दुःखको देवै है ॥ ४५ ॥ ॥ इति कपोतः ॥ ॥ वामेति ॥ मार्गमें पुष्पभूषीवामा होय तो शुभ देवे. पोटियकभी वामशुभहै. Aho! Shrutgyanam Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४८) वसंतराजशाकुने-अष्टमो वर्गः। ॥ इति पुष्पभूष्यादयः॥ वामः श्रियं यच्छति पृष्ठतश्च पारावतो दक्षिणतोऽतिभीत्यै ॥ शस्तौरलाकर्णियकौ च वामौसवल्गुला चर्मचटौ प्रयाण।।४७॥ ॥ इति पारावतादयः॥ वामेऽथ पृष्ठे फलमादधाति युद्धं पुरो दक्षिणतश्च हानिम् ॥ गोवत्सको दर्शननिस्वनाभ्यां क्रूरस्वरोसौ कलिकृत्सदैव॥४८॥ ॥ टीका॥ देशांतरप्रसिद्ध पुष्पभूषी कृष्णवर्णा सूक्ष्मबिंदुयुक्ता लघुचटिका पर्यदिका कोकिलसदृशा अन्यत्र डांपुल इति कुत्रचिद्भुजंग इति ॥ ४६ ॥ इति पुष्पभूषीपर्यदिके । ॥ वाम इति ॥ पारावतः पारेवो इति लोके प्रसिद्धः वामः पृष्ठतश्च श्रियं यच्छति दक्षिणतः अतिभीत्यै भवति तथा रलाकर्णियको सवल्गुलाचर्मचटौ प्रयाणे शस्तौ शोभनौ स्तः तत्र रलाकर्णियको परदेशप्रसिद्धौ वल्गुलिका बागलि इति लोके प्रसिद्धा चर्मवटः कनुर इति प्रसिद्धः ॥४७॥ इति पारावतादयः ॥वामे इति॥ गोवत्सकः वामे च पृष्ठे फलमादधाति फलं करोतीत्यर्थः पुरः ॥ भाषा॥ और पर्यदिका जेमनी होय तो शुभ है. और प्रवेशमें संपूर्ण विपरीत करके शुभ है. और पुष्प भूषी नाम लघुचटिका कृष्णवर्णा छोटे छोटे बूंद करके युक्तहोय है. और पर्यदिका कोकिलकी तुल्य होयहै. कहूं वाकू डांपुल नाम कहैहैं. कोई भुजंग कहेंहैं ॥ ४६॥ ॥इति पुष्पभूषीपर्यदिके। ॥वाम इति ॥ पारावत नाम पारेब कबूतर इति प्रसिद्धं पारावत वामभागमें और पिछाडी होय तो स्त्री देवे और जेमने भागमें होय तो अति भीति करै. और रला कार्णयक ये दोनों वामभागमें शुभहैं. और वल्गुला याकूबागुलभी कहै हैं. और चर्मचट ये चलती पोत प्रयाण समयमें शुभ हैं ॥ ४७ ॥ ॥ इति पारावतादयः ॥ ॥ वामेइति ॥ गौको बछडा बायो वा पीठपीछे दीखै या शब्द करै तो शुभफल करें और अगाडी होय तो युद्ध करावै. और जेमनेमाऊं होय तो हानि करै. जो क्रूरशब्द करें Aho! Shrutgyanam Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते हंसादिकप्रकरणम् । ॥ इति गोवत्सकः ॥ लङ्का भवत्युच्चरवा प्रयातुः पुरः स्थिता वांछित साधयित्री ॥ यात्रा प्रवेशादिषु च प्रशस्ताः श्यामा यथा दक्षिणवामगेयम् ॥ ४९ ॥ देव नीलश्वटकः प्रदिष्टः शुभाय कालश्चलकोपि तद्वत् ॥ वामोऽथवा दक्षिणतो निनादः श्रेयः प्रदः स्यात्किल कोकिलायाः ॥ ५० ॥ ॥ इति लट्वादयः ॥ कपेक्षुकोऽभीष्टफलाय वामे पृष्ठे शुभो दक्षिणतश्च शस्तः ॥ श्रीकर्णशब्दः पथि दक्षिणेन क्षेमाय वामोऽर्थविनाशनाय ॥ ५१॥ ॥ टीका ॥ युद्धं दक्षिणतश्व हानिं करोति असौ दर्शननिस्वनाभ्यां क्रूरस्वरः सदैव कलिकद्भवति ॥ ४८ ॥ ( २४९ ) ॥ इति गोवत्सः ॥ ॥ लट्टेति ॥ प्रयातुः पुरः स्थिता लटा उच्चरवा वांछित साधयित्री भवति यथा - श्यामा यात्राप्रवेशादिषु दक्षिणवामगा प्रशस्ता तथेयमपि ॥ ४९ ॥ लङ्केति ॥ ल 'टेव नीलश्वटकः प्रदिष्टः कथितः मुनिभिरिति शेषः कालश्चटकोपि तद्वच्छुभाय 'भवति तथा कोकिलायाः निनादः वामः अथवा दक्षिणतः श्रेयःप्रदः स्यात् ॥ ५० ॥ ॥ इति लङ्कादयः ॥ ॥ कपेक्षुक इति ॥ वामः कपेक्षुकः पक्षिविशेषः अभीष्टफलाय स्यात् पष्ठे शुभः ॥ भाषा ॥ - तो सदा कलह करबेवारो होय ॥ ४८ ॥ ॥ इति गोवत्सकः ॥ || लद्वेति || उटा गमनकर्त्ता पुरुषके अगाडी स्थित होय ऊंचो शब्द करे तो वांछित अर्थकूं • साधन करै. जैसे श्यामा यात्रा प्रवेशादिकमें जेमनी बाई प्रसिद्ध है तैसेही ये प्रसिद्ध है ॥ ४९ ॥ लट्टेति ॥ मुनिनने लट्ठाको नीलचटक नाम कह्योहै. और कालाचटकभी ताकी सी नाई शुभ करे है. और कोकिलाको शब्द बांयो होय अथवा जेमनो होय तो कल्याणको ही करनेवा जाननेो ॥ ५० ॥ ॥ इति लङ्कादयः ॥ ॥ कपेक्षुक इति ॥ कपेक्षुकपक्षी बांयो होय तो अभीष्ट फल करे. पीठपीछे होय तो Aho! Shrutgyanam Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) वसंतराजशाकुने-अष्टमो वर्गः। ॥ इति कपेक्षुश्रीकौँ ॥ दक्षिणेन शुभदः पथि फेंचो वासितेन खलु तस्य विशेषः। दक्षिणोदहियकस्त्वनुकूलःशेषदिक्षु कथितः प्रतिकूलः॥५२॥ ॥ इति फेंचदहियकौ ॥ अवामभागे पथिकस्य शस्तौ चालोकशब्दौ किल कुकुटस्य। भीतोपिशब्दंकुकुकूइतीममसौ विमुंचन भवत्यभीष्टः॥५३॥ ॥ टीका ॥ दक्षिणतश्च शस्तः स्यात् तथा श्रीकर्णस्य शब्दः पथि दक्षिणेन क्षेमाय स्यात् वामः . शब्दः अर्थविनाशाय स्यात् अत्र श्रीकर्णः वनचटक इत्यन्ये ॥५१॥ ॥ इति कपेक्षुश्रीकर्णौ ॥ ॥ दक्षिणेति ॥ फेंच: बुलबुल इति लोके प्रसिद्धः पथि दक्षिणेन शुभदः स्यात् वासितेन तस्य शुभस्य विशेषः स्यात् दहियकः दहियट इति लोके प्रसिद्धः दक्षिणेन अनुकूलः स्यात् शेषदिक्षु प्रतिकूलः कथितः॥५२ ॥ ॥ इति फेंचदहियकौ ॥ ॥ अवामेति ॥ पथिकस्य अवामभागे कुकुटस्य आलोकशब्दौ शस्तौ असौ.भी. ॥ भाषा॥ शुभ करै. और दक्षिण होय तो अशुभ करे. और तैसेही श्रीकर्ण जो वनचटक ताको शब्द मार्गमें दक्षिण होय तो कल्याण करै, और वाम शब्द होय तो अर्थको विनाश करै ॥ ११ ॥ ॥ इति कपेक्षुश्रीकर्णी ॥ ॥ दक्षिणेति ॥ फेंचको नाम बुलबुल ये प्रसिद्ध है. फेंचमार्गमें दक्षिणमाऊं होय तो शुभदेवे, और वाममें होय तो विशेष शुभकू करै, और दहियकपक्षी याकू दाहियटभी कहैं है सो ये दक्षिणदिशामें होय तो अनुकूल होय. और बाकीकी दिशानमें होय तो प्रतिकूल होय. ॥ ५२॥ इति फेंचदहियकौ ॥ ॥ अवामेति ॥ मार्गीकू कक्कुडाको देखनो और शब्द ये दक्षिणभागमें शुभ हैं. और ये Aho ! Shrutgyanam Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोदकीरुते हंसादिकप्रकरणम् । (२५१) तारो गभीरः कथितो विरावो निशावसाने नृपराष्ट्रवृद्ध्यै ॥ यो वा सयाम प्रति यामिकस्य पादस्य शब्दस्त्वपरो विरुद्धः ॥५४॥ ॥ इति कुक्कुटः ॥ प्राप्य स्थिरत्वं चिरमन्तंरिक्षे नानाप्रकारं मधुरं स्वनंती॥ आश्चर्यमुत्पादयते यियासोः सा भारती यच्छति भूपतित्वम् ॥ ५५॥ ॥ इति भारती॥ ॥ टीका ॥ तेपि कुकुकूइतीमं शब्दं विमुंचनभीष्टो न भवति ॥ ५३ ॥तार इति ॥ निशावसाने अस्य गभीरस्तारो विरावः नृपराष्ट्रवृद्ध्यै कथितः यो वा सयाम प्रति यामिकस्य शब्दः सोऽपि शुभः अपरो विरुद्धः स्यादित्यर्थः ॥ ५४ ॥ ॥इति कुक्कुटः॥ ॥प्राप्यति ॥ अंतरिक्षे चिरं स्थिरत्वं प्राप्य नानाप्रकारं मधुरं स्वनंती यिया. सोः या आश्चर्यमुत्पादयते सा भारती भूपतित्वंयच्छति ददाति मध्यदेशे भारहीति प्रसिद्धःगौर्जरे रेव इति प्रसिद्धा चटिका भारतीत्युच्यते ॥ ५५ ॥ ॥ इति भारती ॥ ॥ भाषा॥ भयवान् होय. और कुकुक या प्रकार ये शब्इकरे तो अभीष्ट नहीं होय ॥ ५३ ॥ तार इति ॥ प्रात:कालमें कुक्कुडाको गंभीर शब्द जेमनो होय तो राजा देश इनकी वृद्धि करै. और बायोशब्द करै तो भी शुभकरै.और जो शब्दहै सो विरुद्ध कर्ता हैं ॥ ५४॥ ॥ इति कुक्कुटः ॥ प्राप्यति ॥ भारतीको मध्यदेशमें भारही नामकर प्रसिद्ध है. और गुर्जरदेशमें रेव नाम कर प्रसिद्ध है. और चटिकाभी नाम है. भारती चिडैया आकाशमें बहुतदेर स्थित होय. करके अनेक प्रकार शब्द करत गमनकर्ता पुरुषकू आश्चर्य प्रगट करै है वो भारती राजा-- पनो देवे ॥ ५५ ॥ ॥ इति भारती। Aho! Shrutgyanam Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२) वसंतराजशाकुने-नवमो वर्गः। प्राक्पार्श्वपृष्ठे शुभदः सशब्दो निरीक्ष्यमाणः कलविकपक्षी॥ स्त्रीराजयोगः सुरतेन पष्टे स्त्रीलाभमाहापरदिक्कमेऽसौ ॥५६॥ ॥ इति कलविंकः ॥ ग्रामेयकारण्यजलेचराणां स्वयं विभेदो वयसां विरावे ॥ नास्माभिरुक्तःसुखबोधभावाच्चाषादिकान्संप्रति वर्णयामः॥१७॥ इति श्रीवसंतराजविरचिताः पतत्रिणः ॥ इत्यष्टमो वर्गःसमाप्तः॥८॥ स्वर्णचूड मणिकंठविशोकं स्वस्तिकाख्यमपराजितसंज्ञम् ॥ नंदिवर्धनमशोकमहं त्वा नौमि चाप सकलाभिमतार्थम् ॥१॥ ॥ टीका ॥ ॥ प्रागिति ॥ प्राक्पार्श्वपृष्ठे सुशब्दो निरीक्ष्यमाणः कलविकः गहचटकः शुभदः -स्यात् सुरतेन स्त्रीराजयोगः स्यात् स्त्रिया राज्ञा चेत्यर्थः ॥ ५६ ॥ ग्रामेयकेति॥यामेयकारण्यजलेचराणां वयसां विरावे विभेदः अस्माभिःन उक्तः ग्रंथवाहुल्यत्वात्सुखबोधभावाच्चाषादिकान्संप्रति वर्णयामः ॥ ५७ ॥ ॥ इतिः कलविंकः॥ इति शत्रुजयकरमोचनादिमुकृतकारिभिर्महोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचितायां. वसंतराजशाकुनटीकायां विचारितपतत्रिवर्णनं नाम अष्टमो वर्ग:समाप्तः ८ ॥ स्वर्णचूडति ॥.हे चाष अहं त्वां नौमि किमर्थं सकलाभिमतार्थमिति सकलं ॥भाषा ॥ प्रागिति ॥ कलविक नाम गृहचटकको है. ये पुरुषसंज्ञक चिडाको नाम है. कलविंक अगाडी और पसवाडेनमें और पीठपीछे शब्द कर तो देखै तो शुभ करे. और चिडियासूसंभोग करतो होय तो स्त्रीकरके और राजा करके योग करावे ॥५६॥ ॥ इति कलविकः॥ ग्रामेयकेति ॥ ग्रामके वनके बहुत पक्षीनके भेद शब्द हैं. याते हमने कहे नहीं हैं. अब सुखपूर्वक बोध जिनके ऐसे चापक आदिले पक्षी तिनमें वर्णन करै हैं ॥ ५७ ॥ ॥ इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचितार्या वसंतराजभाषाटीकार्या विचारितपतत्रिवर्णनं नाम अष्टमो वर्गः समाप्तः ॥ ८॥ स्वर्णचूडेति ॥ हे चाष संपूर्ण वांछाके लिये स्वर्णकी चूड जामें ऐसी माण जाके कंठमें Aho! Shrutgyanam Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षिविचारप्रकरणम् । (२५३) • दृष्ट्वाअनेन मन्त्रेण विधाय सम्यक्पूजोपहारैः पुरुषो यियासुः॥ अमत्रणाभ्यर्चयेदुद्यतकार्यसिद्धिं ज्ञातुं विशेषाद्विहगेषु चाषम् ॥ । ५२॥७॥ प्रदक्षिणं स्वस्तिकमध्यगत्या गृहीतभक्ष्यो विदधाति चापः ॥ ॥ अभीष्टलाभाय यदा तदास्य सर्वत्र शस्तं रुतमीक्षणं च ॥३३॥॥ चापं व्रजंतं यदि दक्षिणेन काको जयेत्पांथपराजयः स्यात् ।। ।। चाषोऽथ काकं जयति प्रदिष्टस्तदाध्वगानां विजयो विदेशे । समा ४॥ गामा टीका॥ यदभिमतं तदर्थमित्यर्थः कीदृश त्वा स्व चूडमाणिकंठविशोकमिति स्वर्णस्य चूडा यस्य स तथा मांणः कठ यस्य स तथा सांगतः शोको यस्मात्स तथा पश्चात्कर्मधारयः। स्वस्ति काख्यमिति स्वस्तिक इति । विदध्याख्या यस्य स तथा अपराजितसंज्ञमपराजिता संज्ञा यस्य सः तं नंदिवर्धनं नन्दि सात् इरानंदस्तेन वर्धते यः स तथा अशोकमिति शोकवर्जितम् ॥ १॥ अनेनेति ॥ "जनकः यियासुः पुरुषः उद्यतकार्यसिद्धिं ज्ञातुं विशेषाद्विहगेषु चापम् अभ्यचयत् का मतदुष्वन पूर्वोक्तेन मंत्रेण सम्यक् स्तुतिं विधाय पूजोपहारैरिति पूजा चंदनादिः उपहारापोत बलिस्तैरित्यर्थः ॥ २॥ प्रदक्षिणमिति ॥ यदि चाषः स्वस्तिकमध्यगत्या गृहात पिक्ष्यः सन्प्रदक्षिणं विदधाति तदाऽभीष्टला. भाय स्यात् । एतस्य सर्वत्र रुतमातामणि च शस्तम् ॥ ३ ॥ चाषमिति ॥ यदि दक्षिणन चाषं व्रजतं काको जयत् तद द्विती पांथपराजयः स्यात् यदि चाषः काकं जयति तदा ॥भाषा ॥ और शोककर रहित अपराजितजनकू जाकी संज्ञा आनंदकरके बढ रह्यो ऐसे जो तुम ताय नमस्कार करूं हूं. चाष नाम न. इ'लकंठको है. ॥ १॥ अनेनेति ॥ गमनकर्ता पुरुष कार्यकी सिद्धि जानबेकू विशेषकर पक्षीनमें जाके श्रेष्ठ चाष ताय पूर्व मन्त्रकर स्तुति करके फिर चन्दनादिक उपहार बलिकरके पूजन करे न करै ॥ २ ॥ प्रदक्षिणमिति ॥ जो चाष स्वस्तिकगति करके भक्ष्य पदार्थ ग्रहण करे हुये ॥' प्रदक्षिणा करै तो अभीष्टफलको लाभ करै. याको शब्द और देखनो सर्व दिशानमें शुभकरे. भारी है ॥ ३ ॥ चामिति ॥ जो दक्षिणमाऊं चाष गमन करतो होय वाकू काक जीतले तो॥ पांथ पुरुषकं भी पराजय. करै और जो चाष काकवं जीतले Aho! Shrutgyanam Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५४) वसंतराजशाकुने-दशमो वर्गः । अरण्यमध्ये व्रजतः पुरस्ताद्यो रौति चाषः कलहावहोऽसौ॥६॥ केंकें तु दीप्तो निनदोऽस्य शांतः केके इतीहक्कुशलाय वामः। ९॥ इति वसंतराजशाकुने विचारितोऽपराजितो नवमो वर्ग: ॥ अथ खंजनः॥ शिखोद्गमेन ॥ त्वं योगयुक्तो मुनिपुत्रकस्त्वमदृश्यताम्रश्चिर्यमयो नमस्ते ॥१॥ विलोक्यसे प्रावृषि निर्गतायां त्वं खं . ॥ टीका ॥अरण्यमध्ये व्रजतः पुंसः पुरस्तात् 'ऽध्वगानां विदेशे विजयः प्रदिष्टः॥४॥ अरण्स्य केंकें इति निनादः सदा दीप्तो भवति । यश्चाषः रौति असौ कलहावहो भवति। अवामः कुशलाय भवति ॥५॥ इतीति ॥ अस्य शांतः केके इति ईदृक् निनादयुक्तः अन्यानि विशेषणानि पूर्ववत् ॥ वसंतराजशाकुने पराजितो विचारितः आरिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचि इति श्रीशत्रुजयकरमोचनादिमुक्तकको नाम नवमो वर्गः ॥९॥ तायां वसंतराजटीकायामपराजितसंज्ञकासि । कीदृक् योगयुक्तः त्वं शिखोद्गमेन ___ त्वमिति ॥ हे खंजन त्वं मुनिपुत्रकः ॐोक्यसेशिखाहगाश्चर्यमयः अतस्ते तुभ्यं अदृश्यतामेषि । प्रावृषि निर्गतायां त्वं विलभिम ॥ भाषा तित्रियति ॥ बनके मध्यमें गमन करे जा तो मार्गीपुरुषकू विदेशमें विजय कहनो ॥ ४ ॥ अकमको केंकें या प्रकार जो शब्द होय पुरुषके अगाडी जो रुदन करे तो कलहकं प्राप्त करे. और य त जाननो. यह शांतस्वर वामभागमें तो दीप्तस्वर जाननो. और केके या प्रकार जो स्वर करे सो शालिको होय तो कुशलके अर्थ जाननो ॥ ५ ॥ ॥ वसंतराजभाषाटीकार्या इति श्रीजटाशंकरपुत्रज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचिताया अपराजितसंज्ञिको नाम नवमो वर्गः ॥ ९॥ शब्द व ॥ अथ खंजनः॥ युक्त हो. और शिखा तुम्हारे त्वमिति ॥ हे खंजन ! तुम मुनिपुत्र हो और योगकरके जब निकस जाय है तब प्रगट होय है. तब तुम अदृश्य होय जाओ हो. और वर्षाऋचावंजनके नाम खजराट तुम आश्चर्यमय दीखो हो. याते तुम्हारे अर्थ नमस्कार हो.।। "रुषस Aho ! Shrutgyanam Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंजनप्रकरणम् । .(२५५) दृष्ट्वोदितेऽगस्त्यमुनौ सुदेशे सुचेष्टितं खंजनकं विदध्यात् ॥ मंत्रेण पूजां शिरसा प्रणामं तत्सूचितस्येष्टफलस्य सिद्ध्य ॥२॥ कुचेष्टितो यः कुवपुः कुदेशे निरीक्ष्यते खंजनकः कदाचित् ॥ दृष्ट्वा विशेषात्परितोषयेत्तं घाताय तत्मचितदुकृतस्य ॥३॥ मांसं न भुंजीत शयीत भूमौ स्त्रियं न येन दिनानि सप्त ॥ स्नायाजपेत्संजुहुयाद्विधाय पैष्टं पुमानद्यादियेच्च ॥४॥ समंतभद्रस्तदनु प्रभद्रस्ततोनुभद्रांबरबालफलः एषां चतुर्णामपि खंजनानामाचक्ष्महे संप्रति शिखोद्गमेनेति ॥टीका ॥ शिखोद्गमेनाहर नकः तस्य श्रित ॥ अगस्त्यमुनौ उदिते सति सुदेशे सुचेष्टितं खंजनकं दृष्ट्वा मश्वानां च श्वेदध्यात् । यतः तत्पूजां विदध्यात् । शिरसा प्रणामं च । यतः बरेष्विति प्रारचितस्येष्टफलस्य वृद्ध्यै स्यात् ॥ २ ॥ कुचेष्टित इति ॥ यः भांड इति दध्या कुदेशे निरीक्षितः खंजनकः कदाचित्स्यात् तदा तं दृष्ट्रा लिभमाविति । किमर्थ तत्सूचितदुष्कृतस्य घाताय ॥ ३ ॥ मांस. सुवर्ण प्रतीतं राजा भुञ्जीत भूमौ शयीत सप्तदिनानि यावस्त्रियं न सेवेत । सच्छायद्यांकुरपुष संजुहुयात्पैष्टं पिष्टमयं खंजनकं विधाय, पुमानर्चयेत् मनोहराः अंकरपुष्ते ॥ एषां चतुर्णामपि खंजनानां संप्रति लक्षणानि च आदीति ॥ नदीप्रभृतिंतभद्रः तदनु द्वितीयः प्रभद्रः ततस्तृतीयचतुर्थी अनुभद्रांबर ॥ भाषा॥ हे ये जाननो ॥ ९॥ जो घरके समीपवन । है ॥ १॥ दृष्ट्वेति ॥ अगस्त्यमुनिको उदय होय तब सुंदरदेशमें और दही, दूध, घ य ऐसे खंजनकुं देखकर मंत्रपूर्वक पूजा करै फिर मस्तक नमायकरके पूजन कर्ताकू इष्टफलकी वृद्धिके अर्थ है ॥ २ ॥ कुचेष्टित इति ॥ ॥ चमर, पंखा अथः पूजन त्य दखि जो शिखा तो होय कुत्सित जाको अंग होय निंदित देशमें देखतो होय तो ऐसे खं IN विशेषकर प्रसन्न करै क्योंकि ऐसेके देखे सूं अशुभ फल होय. ताकी निवृसो वजन लेय पूजनकर 'लिये पूजनकर प्रसन्न करे ॥ ३ ॥ मांसमिति मांस भोजन न करे. पृथ्वीमें शयन करें. सातदिनपर्यंत स्त्रीसेवन न करे. नित्यप्रति स्नान करै. जपकरै, हवन करे. पुरुष चूनको खंजन बनायके फिर वाको पूजन करै ॥ ४ ॥ समंतभद्र इति ॥ समंतभद्र १ प्रभद्र २ Aho! Shrutgyanam Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निभर्ति स समंत ( २५६) । वसंतराजशाकुने-दशमो वर्गः। यः कंधरोरशरसा समंताद्विभर्ति कार्य स समंतभद्रः ॥ कृष्णेन युक्तः शिरसोरसा च भवेत्प्रभद्रः सितकंठपृष्टः॥६॥ कंठोरसी यस्य तु खंजनस्य कृष्णे भवेतां स मतोऽनुभद्रः॥ कृष्णा भवेत्कंठगतैव रेखा यस्य त्वसौ चांबरभद्रनामा॥७॥ मध्यादमीषांशुभकार्यसिद्धयै यो यो भवेत्पूर्वतरःस मुख्यनीय आकाशभद्रो गलमात्रकृष्णः सिताननः कार्यविना : ॥ ८॥ स्यायो हरिद्रारससंनिकाशो गोमूत्रनामामं शंसति खंजरीटः ॥ निरीक्षितः प्राग्दिवसे प्रभूतं रोगो यावदब्दम् ॥ ९॥ ॥ टीका ।। भदसंज्ञौ ॥५॥ य इति ॥ यः कंधरोरः शिरसा समंतात्काय न सितकंठपष्ट .. भद्रः स्यात् । शिरसोरसा च कृष्णेन युक्तः स प्रभद्रः भवेत् । कीनस्य कंठोरमी इति सितं कंठपृष्ठं यस्य स तथा ॥ ६॥ कंठोरसीति ॥ यस्य खंज्सौ अंबरभद्रनाकृष्णेभवेतां सः अनुभद्रो मतः यस्य कंठगतैव रेखा कृष्णा भवेत् यः पूर्वतराभमा भवति ॥ ७ ॥ मध्यादिति ॥ शुभकार्यसिद्ध्यै अमीषां मधाननःस कार्यवेत्स स मुख्यः । य एतद्यतिरिक्तः आकाशभदः मलमात्रकृष्ण पनामा खंजरीटः विनाशनाय स्यात्।।८॥स्याद्य इति।यः हरिदारससंनिकाशः दृशं प्रभूतम९ स्यात् सःप्राक प्रथमं दिवसे निरीक्षितः यावदब्दंदुःखोद्गमंशंसर . . ॥भाषा ॥ ॥ य इति ॥ अनुभद्र ३ अंबरभद्र ४ खंजननके ये चार प्रकारके लक्षण कहे है " और जो मस्तक जो कंधा वक्षःस्थल मस्तक इनमें श्यामवर्ण धारण करै वो समंतभद् संज्ञप्रभद्र नाम खंऔर वक्षःस्थल इनमें श्यामवर्ण होय पीठ और कंठपै जाके श्वेत होय नाम होय वो अनजन है ॥ ६ ॥ कंठोरसीति ॥ जा खजनके कंठ और वक्षःस्थलपै जाननी ॥७॥ भद्र संज्ञक जाननो. और जाके कंठमें श्यामरेखा होय वाकी अंबरभद्र संज्ञा वो वो मुख्य मध्यादिति ॥ शुभकार्यकी सिद्धिके अर्थ इनके मध्यमें जो जो पूर्व होय को सो जाननो, जाके श्यामता कंठमें होय वो आकाशभद्र जाननो और श्वेतमुखडे.....। कार्यके विनाशके अर्थ जाननो ॥ ८ ॥ स्याद्य इति । जो हलदीके रसकी समान होय के गोमत्रनाम खंजरीटं जाननो वो प्रथमदिवसमें दीखै तो वर्षतांई बहुत दुःखके प्रगटकूकहै. Aho! Shrutgyanam Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंजनप्रकरणम् । ( २५७) शिखोद्गमेनाथ अदृश्यतां गतो योऽदृष्टपूर्वः पुनरेव यदिने ॥ एतेषु सद्यः स खगो यदा भवेदृग्गोचरः खंजनकः स्थलेषु ॥१०॥ गजाश्वशालोपवनांतरेषु प्रासादहाग्रसितांबरेषु ॥ दध्यादिभांडेऽप्युपलितभूमौ सुवर्णराजांतिकचामरेषु ॥ ११ ॥ सच्छायद्यांकुरपुष्पपत्रफलावनमेषु शुभद्रुमेषु ॥ येनोपविष्टः प्रथमेऽह्नि दृष्टस्तस्य श्रियं खंजनको ददाति॥१२॥ नद्यादिनीरांबुजगोपुरीषं गोपृष्ठदूर्वानृपमंदिरेषु ॥ अडालजंबालफलप्रवालक्षीरद्रुमोपस्कृततोरणेषु ॥ १३॥ ॥ टीका ॥ शिखोद्गमेनेति ॥ येन एतेषु स्थलेषु खंजनकः प्रथमेहि दृष्टः अवलोकितः यः शिखोद्गमेनादृश्यतां प्राप्तः पुनः यस्मिन्नेव दिने दृग्गोचरी भवति अदृष्टपूर्वः स खंजनकः तस्य श्रियं ददाति ॥ १० ॥ तेषु केष्वित्यपेक्षायामाह गजाश्वेति ॥ गजानामश्वानां च शाला बन्धनस्थानमुपवनं गृहसमीपवर्ति वनं तेषु प्रासादहाग्रसितांबरेष्विति प्रासादः देवभूपानां गृहं हाग्रं सौध,गं सितांबरं श्वेतवस्त्रं तेषु दध्यादि । भांड इति दध्यादिना भृतं भांडं भाजनम् । आदिशब्दाद्धृतादीनां परिग्रहः । उपलिप्तभूमाविति उपलिप्ता छगणादिना या भूमिस्तस्यां सुवर्णराजांतिकचामरोग्विति सुवर्ण प्रतीतं राजांतिकं राज्ञः समीपंचामरं बालव्यजनं तेषु ॥११॥ सच्छायति॥ सच्छायद्यांकुरपुष्पपत्रफलावनम्रष्विति छायया सह वर्तमानाः सच्छायाः हृद्याः मनोहराः अंकुरपुष्पपत्रफलैरवनम्राः शुभद्रुमाः सहकारप्रभृतयः तेषु ॥१२॥ नद्यादीति ॥ नदीप्रभृति यत्स्थलं नीरं पानीयमम्बुजें कमलं गोपुरीष छगणं गोपृष्ठंप्रतीतं ॥ भाषा॥ हे ये जाननो ॥ ९॥ शिखोद्गमेनेति ॥ हाथी, घोडा इनके बंधनके स्थान और उपवन जो घरके समीपवन, देवमंदिर, राजमहल इनके ऊपर शिखरपै जो ध्वजादिकको श्वेतवस्त्र और दही, दूध, घतादिकनकर, भरे पात्रादिक और गोवरकर लिपी पृथ्वी और सुवर्णकी दंडीके चमर, पंखा अथवा राजाके समीप चमर, पंखा इनस्थलनमें स्थित खंजन प्रथम दिवसमें दीख जो शिखा प्रगट हुयेपै अदृश्य होय फिर जा दिना नेत्रनसू दखैि वाको नाम अदृष्टपूर्व खंजन है सो वो जा पुरुषकू दखै ता पुरुषकू श्री देवे ।। १० ।। . ११ ॥ सच्छायेति ।। छायासहित सुन्दर होय, पुष्पफल अंकुरपत्र इनकरके नम्र होय, शुभ होय, ऐसे वृक्षनपै बैठो होय प्रथमदिबसमें दखै तो वो खंजन ता पुरुषकं श्रीदेवे ॥ १२ ॥ नद्यादीति ॥ नदीक Aho! Shrutgyanam Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८ ) वसंतराजशाकुने - दशमो वर्गः । एतेषु चाद्येऽहनि खंजरीटो दृष्टोऽतिदृष्टः सहसोपविष्टः ॥ भोज्यान्नपानप्रियगोऽश्ववस्त्रलाभाय रोगोपशमाय चेष्टः ॥ ॥ १४ ॥ तुरंगमातंग महोरगेषु सरोजगोच्छत्रवृषेषु येन ॥ पूर्वे च दृष्टोऽहनि खंजरीटो निःसंशयं तस्य भवेन्नृपत्यम् ॥ १५ ॥ धान्यार्थलब्ध्यै महिषीध्वजादौ स्याद्गोमये गोरसलाभमाह || वस्त्रस्य लाभाय च शाद्वलादौ लाभाय गेहस्य च नावि दृष्टः ॥ १६ ॥ ॥ टीका ॥ दूर्वा दूव इति प्रसिद्धा नृपमंदिरं राज्ञः सौधं तेषु अट्टालगृहोपरि गृह जंबालः फलं प्रसिद्धं प्रवालं किसलयं क्षीरद्रुमः क्षीरवृक्षः वटादिः उपस्कृततोरणं नवीनं यत्तोरणं तेषु ॥ १३ ॥ एतेष्विति ॥ आद्येऽहनि एतेषु स्थलेषु सहसोपविष्ट इति अकस्मादागत्योपविष्टः अतिहृष्टः प्रमोदवान् खंजरीट इष्टः सन्भोज्यान्नपानप्रियगोऽश्ववस्त्रलाभाय रोगोपशमाय च बुधैरिष्टं वांछितम् ॥ १४ ॥ तुरंग इति ॥ तुरंग: अश्वः मातंगो गजः महोरगः सर्पः तेषु सरोजगोच्छत्रवृषेष्विति सरोजं कमलं गौः प्रतीता छत्रमातपत्रं वृषः धवलः तेषु येन एतेषु स्थलेषु पूर्वत्राऽहनि खंजरीटो दृष्टः तस्य निःसंशयं नृपत्वं भवेत् ॥ १५ ॥ धान्यार्थ इति ॥ महिषीध्वजादौ स्थितः खंजरीटः धान्यार्थ लब्ध्यै स्यात् गोमये स्थितः गोरसलाभहेतुः स्यात् स एव शाइलादौ स्थितः वस्त्रस्य लाभाय स्यात् नावि दृष्टः गेहस्य लाभाय ॥ भाषा ॥ घरके ऊपर, आदिले स्थान होय, जल होय, कमल, गोवर, गौकी पीठ दूर्वा राजाके महल, अटाली, कीचफलकूं फल, दूधके वृक्ष, वडकूं आदिले तिनमें और नवीन तोरणपै ॥ १३ ॥ एतेष्विति ॥ प्रथम दिवसमें इन स्थलनमें सहज बैठजाय वा अकस्मात् आयकरके बैठ जाय अतिप्रसन्न ऐसो खंजरीट भोज्यान्नपान, अपनो प्यारोगी, अश्ववस्त्र, इनको लाभादि करै. और रोगकी शांति करै ॥ १४ ॥ तुरंग इति ॥ जा पुरुषकूं घोडा, हाथी, सर्प, कमल, गो, छत्र, वृष इनपै बैठो हुयो पूर्वदिन में खंजरीट दीखे तो ता पुरुषकूं निः संदेह राजापनो होय ॥ १५ ॥ धान्यार्थ इति ॥ भैंस और ध्वजादिकनपे खंजरीट बैठो होय तो धान्य अर्थकी प्राप्ति होय. और गोबरपै स्थित होय तो गोरसकी प्राप्ति करे. जो हरी घासादिक Aho! Shrutgyanam Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंजनप्रकरणम् । ( २५९ ) संदर्शितेऽन्येन च खंजरीटे स्यादन्यनार्या सह संगमाय ॥ विवादलाभो हलखातभूमौ धान्यस्य राशावपि धान्यलाभः ॥ १७ ॥ भवेत्प्रभाते प्रियसंगमाय स्याद्वंधुसंगाय तथांतरिक्षे ॥ भूमौ धनायावतरन्नभःस्तः खादन्पिबन्खादनपानलब्ध्यै ॥ १८ ॥ एवं प्रकारेषु मनोरमेषु स्थानांतरेविष्टफलांतराणि ॥ इच्छानुरूपाणि ददात्यवश्यं पूर्वत्र दृष्टोऽहनि खंजरीटः ॥ १९ ॥ वल्लीदृषत्कंट किशुष्क वृक्ष दग्धास्थिशूलामृतभाजनेषु ॥ शून्यालये लोमस गेहकोणे से पलाशे सिकतासु यूपे ॥ २० ॥ ॥ टीका ॥ स्यात् ॥ १६ ॥ संदर्शित इति ॥ अन्येन संदर्शिते खंजरीटे अन्यनार्या सह संगलाभः स्यात् हलखातभूमौ दृष्टे विवादलाभः स्यात् धान्यस्य राशावपि दृष्टे धान्यलाभः स्यात् ॥ १७ ॥ भवेदिति ॥ प्रभाते दृष्टः प्रियदर्शनाय भवेत् तथांतरिक्षे गाय भवेत् भूमौ दृष्टः धनाय स्यात् नभस्तः अवतरन्खादन्भोजनपानलब्ध्यै स्यात् ॥ १८ ॥ एवमिति ॥ एवंप्रकारेषु मनोरमेषु स्थानांतरेषु पूर्वत्र अहाने दृष्टः खंजरीटः इच्छानुरूपाणि फलांतराणि अवश्यं ददाति ॥ १९ ॥ वल्लीति ॥ वल्ली व्रततिः दृषत्प्रस्तरः कंटकी कंटकाकुलः शुष्कः एवंविधो वृक्षः दग्धं ज्वलितं यदस्थि शूला प्रतीता मृतं कलेवरं भाजनं मद्यप्रभृतीनामिति शेषः पश्चाद्वंद्वः तेषु तथा भाषा ।। नपै स्थित होय तो वस्त्रको लाभ करै जो नावमें दीखे तो घरको लाभ करे ॥ १६ ॥ संदशित इति ॥ जो खंजरीट और करके सहित दीखे वा औरने अपनी दृष्टियूँ दिखायो होय तो अन्य स्त्री करके संगको लाभ होय. हलकरके खोदी हुई पृथ्वीमें दीखे तो विवादको लाभ करें. धान्यकी राशिपे दीखै तो धान्यको लाभ करै ॥ १७ ॥ भवेदिति ॥ खंजन प्रभातसमय में दीखे तो अपने प्यारेको दर्शन करावे. जो अंतरिक्ष में दीखे तो बंधुको समागम करात्रे. और जो भूमिमें दीखे तो धनको लाभ करावे. और जो आकाशसूं उत्तर तो चा खातो वा जलादिक पान करतो वा भोजन करतो दीखे तो प्राप्तिके अर्थ जाननो ॥ १८ ॥ ॥ एवमिति ॥ या प्रकारके मनोरम और स्थानमें प्रथमदिवसमें दीखे तो अपनी इच्छाके योग्य फळांतर अवश्य देवे ॥ १९ ॥ वल्लीति ॥ लता पाषाणको टूक, कांटेको सूखो वृक्ष और Aho! Shrutgyanam Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) वसंतराजशाकुने - दशमो वर्गः । एषु प्रदेशेषु तथापरेषु यदीदृशेषुपहतेषु दृष्टः ॥ कुमूर्तिचेष्टः स तदा करोति न्यक्कारभीरुक्कलहाद्यनर्थान् ॥ २१ ॥ ॥ युग्मम् ॥ बंधो वरत्रास्वशुचौ च रोगो गृहच्छदेऽस्य द्रविणस्य नाशः॥ निरीक्ष्यते वानास देशभंगो निद्राभिभूतोऽभिभवोऽतिरोगान् ॥ २२ ॥ ॥ टीका ॥ शून्यालये जनवजिते गृहे लोमस अलकेषु गेहकोणे प्रतीते बुसे तुम इति लांके प्रसिद्धे पलाशे धान्यवर्जिते तृणसमूहे सिकतासु रजस्सु यूपे यज्ञस्तंभे ॥२०॥ ष्विति ॥ एषु प्रदेशेषु तथा ईदृशेषु अपरेषु उपहतेषु निन्द्येषु यदि कुमूर्तिचेष्ट इति कुत्सिते मूर्तिचेष्टे यस्य स तथा खंजरीटः दृष्टः सन्न्यक्कार भीरुक्कलहाद्यनर्थान्सतत करोति ॥ २१ ॥ ॥ युग्मम् ॥ बंध इति ॥ वरत्रासु दृष्टः बन्धः स्यात् अशुचौ स्थाने रोग: गृहच्छदे गृहस्थच्छदे तृणरूपे आच्छादने भाषायां छप्पर इति प्रसिद्धे अस्य दर्शने द्रविणस्य नाशः स्यात् अनसि शकटे निरीक्ष्यते तदा देशभंगः स्यात् निद्राभिभूते अभिभवः पराभवः ॥ भाषा ॥ दग्ध नाम जलोहुयो हाड होय, शूली मरेको देह, मदिराको पात्र, मनुष्यनकरके रहित शून्यस्थान होय केशनमें घरके कोणनमें, धान्यरहित तृणनको समूह होय तामें, रजमें, यज्ञस्तम्भमें ॥ २० ॥ एष्विति ॥ इन देशन में वा ऐसे ऐसे और निंदित जगह में निंदित मूर्तिचेष्टा जाकी ऐसो खंजन दीखे तो धिक्कारी, भय, रोग, कलह इनकूं आदिले जे अनर्थ तिने करै ॥ २१ ॥ ॥ युग्मम् ॥ ॥ बंध इति ॥ वस्त्र जो चरसको रस्सा लाव जाकूं कहें हैं तापै दीखै तो बंधन करे. और अपवित्र जगहमें दीखे तो रोग करे. और छप्परपै दीखै तो धनको नाश करे. और गाडीपे दीखे तो देशभंग करै, निद्रामें भरो दीखे तो अपनो तिरस्कार करावे और अति Aho! Shrutgyanam Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंजनप्रकरणम् । ( २६१ ) खरोष्ट्रकौलेयकपृष्टपाते छिंदन्स्वपक्षं विदधाति मृत्युम् ॥ पक्षौ विधुन्वन्दिवसस्य चांते बद्धो मृतो वा न शुभः कदाचित् ॥ २३ ॥ यादृश्यवस्था शकुनैरमुष्य शुभाशुभा स्यात्प्रथमेऽह्निदृष्टा ॥ तस्यापि तादृश्युपलक्षणीया तद्विस्तरेणालमिहापरेण ॥ २४ ॥ पूर्वोक्तमेतच्छकुनं समस्तं यात्रादिकार्येष्वपि तुल्यमाहुः || प्रत्यक्षमाश्चर्यमन्यद्विहाय सर्वो जनः पश्यतु खंजनस्य ॥ २५ ॥ अंगारखण्डे किल भमिभागे तस्मिन्भवेद्यत्र करोति विष्टाम् ॥ यत्रावनौ खंजनको विधत्ते रतं भवेत्तत्र महानिधानम् ॥ २६ ॥ ॥ टीका ॥ स्यात् अतिरोगांश्च करोतीत्यर्थः ।। २२ ।। खरेति ।। खरो गर्दभः उष्टः करभः कौलेयकः श्वा तेषां पृष्ठे पातः पतनमुपरिगमनमिति यावत् पक्षं छिंदन्मृत्युं विदधाति दिवसस्य चांते पक्षौ विधुन्वंस्तंपश्यञ्जनः बद्धो मृतो वा भवति अतः कदाचिच्छुभो न भवति ॥ २३ ॥ यादृशीति ॥ अमुष्य शकुनैः यादृशी शुभाशुभा वा अवस्था प्रथमेऽदृष्टा स्यात् स्वस्यापि तादृशी उपलक्षणीया ।। २४ ।। पूर्वोक्तमिति ॥ यात्रादिकालेष्वपि एतत्पूर्वोक्तं शकुनं तुल्यमाहुः अन्यद्विहाय खंजनस्य सर्वो जनः प्रत्यक्षमाश्चर्य पश्यतु ।। २५ ।। अंगारेति । यत्रासौ विष्ठां करोति तस्मिन् किल भूमिभागे अंगारखंडं भवेत् यत्रावनौ खंजनको रतं विधत्ते तत्र महानि ॥ भाषा ॥ -रोग करें ॥ २२ ॥ खरेति ॥ गधा, ऊंट, श्वान इनकी पीठऊपरि आय बैठो दीखे और अपने पंखनकूँ छेदन करतो होय तो मृत्यु करे. और दिवसके अंत में पंखनकूं कंपायमान करे तो जनबंधन और मत्युकं प्राप्त होय. याते कदाचित् भी शुभ नहीं होय ॥ २३ ॥ यादृशीति ॥ खंजनके शकुननकरके जैसी अवस्था शुभ वा अशुभ प्रथम दिवसमें दीखे तार्कु तैसीही उपलक्षणा करनो योग्य है ॥ २४ ॥ पूर्वोक्तमिति ॥ यात्रादिक कार्यमें पूर्व सब शकुन तुल्य कहें हैं. सो और सब छोडके खंजनके शकुन प्रत्यक्ष आश्चर्यवान् देखो ॥ २९ ॥ अंगारेति ॥ जहां बैठकै वीटकरै ता पृथ्वी में अंगारको खंड होय. और जा पृ Aho! Shrutgyanam Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६२ ) वसंतराजशाकुने - एकादशोवर्गः । खंजनस्य परिकीर्तनं शुभं दर्शनं भवति मंगलप्रदम् ॥ यात्यसौ यदि पुनः प्रदक्षिणं तत्करोति पथिकस्य वांछितम् ॥ २७ ॥ वसंतराजशाकुने सदागमार्थशोभने || समस्तसत्यकौतुके विचारितोऽत्र खंजनः ॥ ॥ इति दशमो वर्गः ॥ १० ॥ यथार्थलाभं स्वरचेष्टितेन रुतांतरभ्योभ्यधिकं प्रभावम् ॥ रुतं त्विदानीमुभयप्रकारं करापिकायाश्च विभावयामः ॥ १॥ गणाधिपं चाथ कुमारसंज्ञं करापिकां कार्तिकनामधेयाम् ॥ दुर्गा तथा सौमटिकाभिधानां त्वां सर्वहेमंतगते नमामि ॥२॥ ॥ टीका ॥ धानं भवेत् ॥ २६ ॥ खंजनेति ॥ खंजनस्य परिकीर्तनं शुभं भवति तथा दर्शन मंगलप्रदं भवति यदि प्रदक्षिणमसौ याति तदा पथिकस्य वांछितं करोति ॥२७॥ वसंतराजेति ॥ वसंतराजशाकुने विचारितोत्र खंजनः अन्यानि विशेषणानि पूर्ववत् ॥ शत्रुंजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहेोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचि इति तायां वसंतराजटीकायां खंजनकवर्णनं नाम दशमो वर्गः ॥ १० ॥ 1 यथार्थेति ॥ स्वरचेष्टितेन यथार्थलाभं रुतांतरेभ्यः अधिकप्रभावम् ॥ इदानीमुभयप्रकार रुतं करापिकायाः वयं विभावयामः मनसि विचारयामः तत्र करापि - कालंबपुच्छा उपरि श्यामवर्णा महरि इति लोके प्रसिद्धा ॥ १ ॥ गणाधिपमिति ।। ॥ भाषा ॥ थ्वीमें खंजन संभोग करे तामें महान् धनको स्थान जाननो ॥ २६ ॥ खंजनेति ॥ खंजनको नाम लेनोही शुभहै. तैसेही याको दर्शन मंगलको देबेवारो है. जो ये दक्षिणभाग में आय जाय तो मार्गचलबेवारेकं वांछित फल करे ॥ २७ ॥ इति श्रीजटाशंकर पुत्रज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचितायां वसंतराजभाषाटीकायां खंजनवर्णनं नाम दशमो वर्गः ॥ १० ॥ ॥ यथार्थेति ॥ स्वरकी चेष्टा करके शब्दनकर जधिक प्रभाव होय है. अब हम ॥ गणाधिपमिति । गणेशजीकूं अथवा यथार्थ लाभ होय है, और एक शब्दते और दोनों प्रकारको करापिकाको शब्द कहे हैं ॥ १ ॥ स्वामिकार्तिकजीकूं मैं नमस्कार करूँहूं. कार्तिक Aho! Shrutgyanam Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रापिकाप्रकरणम् । ( २६३ ) करापिकां वीक्ष्य बहिस्तरुस्थामनेन मंत्रेण तदेकचित्तः॥ अभ्यर्च्य भक्त्या कुसुमाक्षताभ्यां पृच्छेदभिप्रेतामिह स्वकार्यम् ३ दक्षिणं किल करापिकारुतं पश्चिमोत्तरानिवासिनां नृणाम् ॥ श्रेयसे भवति वामतः पुनः पूर्वदक्षिणदिगंतवासिनाम् ||४|| वामतः किल करापिका शुभा दक्षिणेन कुरुकुंचितानघा॥ अग्रतो भवति सर्वसिद्धिदा पृष्ठतोऽपि जयदा करापिका ॥ ५ ॥ पक्षद्वयस्याभिमुखो गणेशः कंडूयनाच्छंसति नास्तिभावम्॥भंगं रणे वर्त्मनि चौरभीतिं कस्याप्यवश्यं मरणं विवाहे ॥ ६ ॥ ॥ टीका ॥ गणाधिपमथ कुमारसंज्ञं करापिकां कार्तिकनामधेयां दुर्गा तथा सोमटिकाभिधानां हेमंतगते त्वां नमामि अन्यानि सर्वाण्यपि एतस्या अभिधानानि ॥ २ ॥ करापिकामिति ॥ बहिस्तरुस्थां करापिकां वीक्ष्य अनेन कुसुमाक्षताभ्यां भक्त्या - ऽभ्यर्च्य तदेकचित्तः सन्नभिप्रेतं स्वकार्यं पृच्छेत् ॥ ३ ॥ दक्षिणमिति ॥ पश्चिमो तरनिवासिनां नृणां कर पिकारुतं दक्षिणं श्रेयसे भवति पूर्वदक्षिणदिगंतवासिनां पुनः वामतः श्रेयसे भवति || ४ || वाम इति ॥ वामतः किल करापिका शुभा भवति तथा दक्षिणेन कुरुकुंचिता करापिकेत्यर्थः शुभाशुभप्रदेत्यर्थः अग्रतः सर्वसिद्धिदा भवति पृष्ठतोऽपि जयदा भवति पुनः पुनः तस्या ग्रहणं अत्यादरख्यापनार्थम् ॥ ५ ॥ पक्ष इति ॥ पक्षद्वयस्य कंडूयनादभिमुखो गणेशः कृत्यस्य नास्तिभावं रणे भंग ॥ भाषा ॥ नाम दुर्गा और करापिका सोमटिका ये नाम जाके ऐसी जो तुम हो ता तुम्हें नमस्कार करूं - हूं. औरभी याके संपूर्ण नाम हैं जाकी लंबी पूंछ होय ऊपरसूं श्यामवर्ण जाको होय वाकूं करापिका कहैंहैं. और मल्लारी महंरी या नामकर प्रसिद्ध है ॥ २ ॥ करापिकामिति ॥ बाहरवृक्षपे बैठी होय ता करापिकाकूं देखकर पूर्व या मंत्रकूं बोलकर पुष्प, अक्षत कर भक्तिपूर्वक पूजनकरके एकाग्रचित्त होकर वांछित जो अपनो कार्य ताकूं पूंछै ॥ ३ ॥ दक्षिणमिति || पश्चिमउत्तरवासीनकूं करापिकाको शब्द दक्षिणकल्याणकारी है. और पूर्व दक्षिण दिगंतवाशीनकूं फिर वामकरके कल्याण करे है || ४ || वाम इति वाममाऊं करापिका शुभ होय है. और दक्षिण माऊं करापिका शुभकी देनेवाली है. और अगाडीमाऊं सर्वसिद्धिकी देवाली है और पीठपीछे की विजयकी देवेवाली है. बारंबार याको ग्रहण अति आदरके लिये है ||५|| पक्ष इति ॥ Aho! Shrutgyanam Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) वसंतराजशाकुने - एकादशी वर्गः । कंडू यनाद्दक्षिणपृष्ठभागे त्रायास हानिं मरणं विवाहे || कंडूयतेऽसौ यदि वामपक्षं वृद्धिर्विवाहे विजयोऽर्थलाभः ॥७॥ कंडूयमाने हृदयप्रदेशे मित्रेण पत्न्या च समागमः स्यात् ॥ इष्टार्थसिद्धिश्व मिलत्यभीष्टो गुह्यस्य कंड्रयनतो हि पत्नी ॥८॥ कंडूयते मूर्द्धनि सर्वलाभः स्वगोत्रसंगो जठरे प्रदिष्टः ॥ प्रदक्षिणं वा कुरुते कदाचिदिष्टागमो हस्तगता च सिद्धिः॥९॥ अग्रे तथा दक्षिणतः प्रशस्ता करापिका स्याद्विजयाय पष्ठे ॥ वामा प्रणाशं कुरुते प्रयाणे ग्रामप्रवेशे फलदा तु वामा ॥ १० ॥ ॥ टीका ॥ वर्त्मनि चौरभीतिं विवाहे कस्यचिदवश्यं मरणं शसति || ६ || कंडूयनादिति ॥ दक्षिण पृष्ठभागे यात्रासु हानिं विवाहे मरणं शंसति यद्यसौ वामपक्षं कंडूयते तदा विचाहे वृद्धिः स्यात् विजयः अर्थलाभश्च स्यात् ॥ ७ ॥ कंडूयमाने इति ॥ हृदयप्रदेश कंडूयमाने मित्रेण पत्न्या च समागमः स्यात् दृष्टार्थसिद्धिश्च अभीष्टः मिलति तथा गुह्यस्य कंडूनतो हि पत्नी स्यादित्यर्थः ॥ ८ ॥ कंडूयत इति ॥ मूर्द्धनि कंडूयते यदितदा सर्वलाभः स्यात् जठरे कंडूयते तेन स्वगोत्रसंगः स्यात् वा कदाचित्प्रदक्षिणं कुरुते तदा इष्टागमः हस्तगता च सिद्धिः स्यात् ॥ ९ ॥ अग्रे इति ॥ अग्रे तथा दक्षिणतः करापिका प्रशस्ता स्यात् पृष्ठे विजयाय भवति प्राणप्रणाशं वामा प्रयाणे कुरुते तु पुनः वामा पुरप्रवेशे फलदा भवति ॥ १० ॥ ॥ भाषा ॥ करापिका संमुख होय दोनों पंखनकूं खुजाय रही होय तो कार्यको नास्तिभाव कहें है. और रण में भंग क है है. और मार्ग में चौरभीति कहे है. और विवाहमें काहूको अवश्य मरण क है. ॥ ६ ॥ कडूयनादिति ॥ और दक्षिणभाग में और पृष्टभाग में खुजानती होय तो यात्रामें हानि कहै. और विवाह में मरण क है. जो बांई पंखकूं खुजाये तो विवाह में वृद्धि होय विजय होय . और अर्थलाभ होय ॥ ७ ॥ कंडूयमान इति ॥ हृदयमें खुजावे तो मित्रकरके और स्त्रीकर के समागम होय. और इष्टार्थसिद्धि होय. और अभीष्ट मिले और गुह्यस्थानके खुजायवेसूं गुणकरके पत्नी प्राप्त होय ॥ ८ ॥ कंटूयत इति ॥ मस्तकमें खुजावे तो सर्व लाभ होय और उदरमें खुजावे तो अपने गोत्रको संग करावे. और दक्षिणअंगमें खुजावे तोकोई अपने इष्टजनको आगम और हस्तमें सिद्धि आई ऐसो जाननो ॥ ९ ॥ अग्रे इति ॥ Aho! Shrutgyanam Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते दिक्चक्रप्रकरणम् सूर्योदयः । ( २६५ ) शब्देन सिद्धिर्लघुना प्रदिष्टा भयं भवेन्निष्ठुरजल्पितेन ॥ कायद्यमे सोमटिकां विहाय सत्यं कुतस्त्यं शकुनांतरेषु ॥ ११॥ वसंतराजशाकुने विचारिता करापिका ॥ इत्येकादशो वर्गः समाप्तः ॥ ११ ॥ अथोच्यते काकरुतं रुंतानां मूर्ध्नि स्थितं शाकुनभाषितानाम् ॥ अचिंतित वेदितभूरिकार्य पूर्वादिकाष्टाप्रहरक्रमेण ॥ १ ॥ ॥ टीका ॥ शब्द इति ॥ लघुना शब्देन सिद्धिः प्रदिष्टा कथिता निष्ठुरजल्पितेन भयं भवेकायद्यमे सोमटिकां विहाय शकुनांतरेषु सत्यं कुतस्त्यम् ॥ ११ ॥ इति वसंतराज इति ॥ वसंतराजशाकुने करापिका विचारिता अन्यानि विशेषणानि पूर्व★वत् ॥ ११ ॥ इति श्री शत्रुंजयकर मोचनादिसुकृतकारि महोपाध्यायश्रीभानुचन्द्रविरचितायां वसंतराजटीकायां करापिकासंज्ञकः एकादशी वर्गः समाप्तः ॥ ११ ॥ अथेति ॥ करा पिकारुतकथनानंतरं काकरुतमुच्यते कथ्यते कीदृशं शाकुनभापितानां रुतानां मूर्ध्नि स्थितं सर्वेभ्योऽप्यधिकमित्यर्थः पुनः कीदृशमचिन्तितावेदि - तभूरिकार्यमिति, अचिन्तितमावेदितं भूरिकार्य येन तत्तथा केन पूर्वादिकाष्ठामहर क्रमेणेति पूर्वादिकाः दिशः तासु प्रहरादिक्रमः प्रथममहरे कीटक फलं द्वितीयप्रहरे ॥ भाषा ॥ अंगाडी और जेमनें मांउं करापिका शुभ जाननी और पीठपीछे विजयके अर्थ और वामा प्राणनाश करै प्रयाणसमय में फिर पुरग्रामप्रवेशसमय में वामा शुभ फलकी देबेवारी जाननी ॥ १० ॥ शब्द इति ॥ लघुशब्द करे तो सिद्धि कहनो, कठोर शब्द करें तो भय होय. कार्यके उद्यममें या करापिकाकूं छोड़करके और शकुनमें सत्यता नहीं ॥ ११ ॥ ॥ इति श्री जटाशंकरपुत्र श्रीधरविरचितायां शकुनवसंतराजभाषाटीकायां करापिकावर्णनं नाम एकादशो वर्गः समाप्तः ॥ ११ ॥ अथेति ॥ करापिका के शब्दके अनंतर शकुनीनने कहे जे शब्द तिनके ऊपर संपूर्णत अधिक और बिना चिंतमन करे और जानोहुयो बहुतसो कार्य ताय पूर्वादिक दिशान में प्रहर प्रहरके क्रमकरके अर्थात् प्रथमप्रहरमें कैसोफल द्वितीय प्रहर में कैसोफल Aho! Shrutgyanam Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) वसंतराजशाकुने-द्वादशोवर्गः । ये ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः काका भवत्यंत्यजपंचमास्ते ॥ वर्णाकृतिभ्यामृषिभाषिताभ्यां सदाभियुक्तैरभिलक्षणीयाः॥ ॥ २ ॥ बृहत्प्रमाणो गुरुदीर्घतुंडो दृढस्वरः कृष्णवपुः स विप्रः ॥ पिंगाक्षनीलास्यविमिश्रवर्णः स्यात्क्षत्रियो रुक्षरवोऽतिशूरः ॥३॥ आपाण्डुनीलः सितनीलचंचुर्नात्यंतरूक्षोरटितैश्च वैश्यः ॥ भस्मच्छविभूरिककारशब्दः शूद्रः कृशांगश्वपलातिरूक्षः॥४॥ ॥ टीका ॥ कीदृगित्यादिकस्तेन ॥ १॥ ये इति ॥ ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः अंत्यजपंचमी काका भवंति ते ऋषिभाषिताभ्यां वर्णाकृतिभ्यामभियुक्तैः पंडितैः अभिलक्षणीयाः ॥ २ ॥ बृहदिति ॥ स काकः विप्रः स्यात् कीदृक बृहत्प्रमाणमस्यति तथा सः गुरुदीर्घतुंड इति गुरु मांसोपचितं दीर्घ लम्बायमानं तुंडं वक्रं यस्य स तथा दृढस्वर इति दृढः गम्भीरः स्वरो यस्य स तथा कृष्णवपुरिति कृष्ण वपुः शरीरं यस्य स तथा सवषां काकानां कृष्णत्वेऽपि कृष्णवपुरिति विशषणमत्यन्तकायॆख्यापन परम् एवंविधः क्षत्रियः स्यात् कीदृक् पिंगाक्षनीलास्यविमिश्रवर्ण इति पिंगे अक्षिणी यस्य स तथा नीलमास्यं यस्य स तथा विमिश्री किंचिच्छयामः किंचिच्छेत: वर्णों यस्य स तथा पश्चात्कर्मधारयः पुनः कीदृक् रूक्षरव इति रूक्षः अस्निग्धो रखो यस्य स तथा अतिशूर इति अत्यंतं शूरः क्षत्रियत्वादित्यर्थः॥३॥ आपांडुनील इति ॥ आ ईषत्पांडुनीलः सितनीलचंचुरिति सिता श्वेता नीला चंचुर्यस्य स तथा ॥ भाषा॥ या रीतकरके काकरुत कहें हैं ॥ १ ॥ ये इति ॥ जे ब्राह्मण, क्षत्रिय. वैश्य, शूद्र और पांचमें अन्त्यज ये पांच प्रकारके ऋषिननें वर्ण आकृतिनकरके काक कहैंहैं. सो योग्य पंडितनकर लक्षणा करना योग्य है ॥ २ ॥ बृहदिति ॥ लंबो होय, देहतूं भारी होय और लंबी चोंच आर मुख जाको लंबो होय और गंभीर शब्द जाको होय और अत्यन्त श्यामवर्ण जाको होय वो काक ब्राह्मण जाननो. और जो पीलेनेत्र जाके नील मुख जाको और कछूक श्याम कछुक श्वेतवर्ण जाको और रूखो शब्द जाको होय अत्यन्त शूर होय वो काक क्षत्रिय जाननो ॥ ३ ॥ अपांडनील इति ॥ कळूक श्वेत नीलवर्ण जाको होय और श्वेत और श्याम चोंच जाकी होय नहीं है अत्यन्तरूखो शब्द जाको वो काक वैश्य जाने Aho! Shrutgyanam Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते दिक्चक्रमकरणम् सूर्योदयः । ( २६७ ) विरूक्षसूक्ष्मास्य तनुर्विशंको यः कन्धरां दीर्घतरां विभर्ति || स्थिराननः स्थैर्यसमेतबुद्धिः काकत्यजातिः स तु पंचमोऽ ॥ ५ ॥ द्रोणाभिधः कृष्णवपुर्द्विजो यो ग्राह्यः स काकः खलु मुख्यवृत्त्या ॥ तस्मादृते श्यामगलो निरीक्ष्यः श्वेतस्तु निद्योद्भुतदर्शनोऽसौ ॥ ६ ॥ विप्रः स्फुटं जल्पति पृछयमानो न्यूनं ततः क्षत्रियजातिराह ॥ आख्याति वैश्यस्त्वधिवासनेन वीति शूद्रो बलिदानलोभात् ॥ ७ ॥ ॥ टीका ॥ नाभ्यंत इति रटितैः शब्दितैः अत्यंत रूक्षो यः स वैश्यः तथा यः भस्मच्छविः भूरिककारशब्दः सः शूद्रः कृशांगश्चपलः अतिरूक्षः ॥४॥ विरूक्षेति ॥ विरूक्षं सूक्ष्ममास्पं तनुश्च यस्य स तथा विशंक इति शंकारहितः यः कंधरां दीर्घतरां विभक्ति स्थिरानन इति स्थिरमाननं मुखं यस्य स तथा स्थैर्यसमेतबुद्धिरिति स्थैर्यसमेता बुद्धिर्यस्य स तथा स त्वत्र पंचमः काकोंत्यजातिर्भवति ।। ५ ।। द्रोणाभिध इति ॥ मुख्यवृत्त्या स काकः ग्राह्यः यो द्विजः द्रोणाभिधः कृष्णवपुः तस्मादृते तदभावे श्यामगलो निरीक्ष्यः श्वेतस्तु निद्यः यतोऽसौ अद्भुतदर्शनः यदा जंगति किश्चिदद्भुतं भवति तदा श्वेताको दृग्गोचरी भवति ॥ ६ ॥ विप्र इति ॥ विप्रः पृछ्यमानः स्फुटं जल्पति क्षत्रियजातिः ततः न्यूनमाह वैश्यस्तु अधिवासनेन ॥ भाषा || और जो भस्मको सो वर्ण जाको बहुत ककार शब्द बोलतो होय कृश जाको अंगा होप चपल और अतिरूखो होय वो काक शूद्र जाननो || ४ || विरूक्षेति ॥ विशेषकर रूखो और सूक्ष्म है मुखशरीर जाको और शंका रहितहोय और जो लबीकंधरा धारणकरे स्थिर जाको मुख वा स्थिर जाको शब्द होय और स्थिर समेत जाकी बुद्धि होय वो काक पांचमो अंत्यज जाति जाननो ॥ ५ ॥ द्रोणाभिध इति ॥ जो पक्षी द्रोणनामकर श्याम वपु जाको होय बो मुख्य वृत्तीकरके काकग्रहण करनो. और ताको अभाव होय तो श्याम जाको कंठ होय सो देखनो योग्य है. श्वेत तो निंदित है. जब श्वेत काक नेत्रन देखेहै तब वाकूं अद्भुत बतावे है. याते वो शकुनमें निंदित है ॥ ६ ॥ विप्र इति ॥ विप्रसंज्ञक काकसूं पूछे तो सर्व योग्य कहै और क्षत्रियजाति काक वाते न्यून कहे है. और वैश्य तो पूजन करेसूं यथार्थ कहे हैं. और शूद्रकाक बलिदान के लोभसूं कहैहै ॥ ७ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) वसंतराज शाकुने - द्वादशो वर्गः । प्रश्नं कृतं जल्पति सार्ववर्ण सदा समस्तं विहगोंत्यजातिः ॥ सद्यस्त्रिसप्ताहदशाहपक्षैः पंचापि काकाः फलदाः क्रमेण ॥८॥ शांते च दीप्ते च सदा विहंगः शुभप्रदो दीप्तपराङ्मुखः सन् ॥ न क्वापि रौद्रो रटितः प्रशस्तः सर्वत्र शस्तो मधुरस्वरश्च ॥ ॥ ९ ॥ दीप्तां स्थितो यः परुषस्वरेण विरौति दीप्ताभिमुखः स कार्यम् ॥ निष्पाद्य निर्णाशयते निशायां दीप्तोन्मुखः शांतरवोऽपि सिद्धयै ॥ १० ॥ शांते प्रदीप्ताभिमुखोऽभिधाय शब्दं प्रविश्याथ पुनः प्रदीते ॥ यो रौति काको मधुरस्वरेण कृत्वा विरुद्धं विदधाति सिद्धिम् ॥ ११ ॥ ॥ टीका ॥ आख्याति वलिदानलोभाच्छूद्रः ब्रवीति ॥ ७ || प्रश्नमिति ॥ विहगोंत्यजातिः सार्ववर्ण सर्वसंवंधिप्रश्नं कृतं समस्त जल्पति सद्यस्त्रिसप्ताहदशाहपक्षैः क्रमेण पंचापि काका: फलदा भवंति तत्र विप्रः सद्य- स्तत्कालं ददाति क्षत्रियः त्रिभिर्दिनैः वैश्यः सप्तभिर्दिनैः शूद्रः दशदिनैरंत्यजातिः पक्षेण फलप्रदो भवतीत्यर्थः ॥ ८ ॥ शांते चेति || दीप्तः पराङ्मुख इति दीप्तदिशि यस्य मुखं नास्तीत्यर्थः । शांते च दीप्ते च स्थितो विहंगः सदा शुभदो भवति तथा रौद्रः रटितः कापि न प्रशस्तः मधुरस्तु सर्वत्र शस्तः ॥ ९ ॥ दीप्तामिति ॥ यः दीप्तां स्थितः दीप्ताभिमुखः परुषस्वरेण विरौति स कार्य निस्पाद्य निर्णाशयते निशायां दीप्तोन्मुखः शांतरवोऽपि सिद्ध्यै स्यात् ॥ १० ॥ शांत इति ॥ शांते स्थितः ॥ भाषा ॥ ॥ प्रश्नमिति ॥ अंत्यजाती पक्षी सर्वसंबंधी प्रश्न कियोहुयो सर्व कहे हैं. त्रिप्रकाक तो तत्काल फल देवे है. और क्षत्रिय तीनदिनकरके फल देवेहै. वैश्यजाति सात दिनमें फल देवे है. - और शूद्रजातिकाक दशदिनमें फल देवे और अत्यजाति काक पक्षभर में फल देवे है. ॥ ८ ॥ शतिति ॥ दीप्तदिशा में जाको मुख न होय और शांत दिशामें वा दीप्तदिशामें स्थित काक सदा शुभकूं देवे है. तैसेही रौद्र शब्दयाको कदापि शुभ नहीं देवे और मधुरशब्द सर्वत्र शुभ करेहै ॥ ९ ॥ दीप्त इति ॥ जो काक दीप्त दिशा माऊं मुख कर दीप्तदिशा में स्थित होय कठोर शब्द करै वो कार्यकूं बनायकर फिर नाश करै, और जो रात्रिमें दीप्तदिशामा ॐ मुखकर शांत शब्द करे तो सिद्धि करें ॥ १० ॥ शांत इति ॥ शांतदि Aho! Shrutgyanam Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते दिक्चक्रप्रकरणम् सूर्योदयः। (२६९), विधाय दीप्ताभिमुखो विरावं ततः प्रशांताभिमुखौ विरौति ॥ यो वायसोऽसौ विनिहत्य सम्यक् कार्याणि सर्वाणि पुनः करोति ॥ १२॥ सूर्योदये पूर्वदिशि प्रशस्ते स्थाने स्थितो यो मधुरं विरौति ॥ नाशं रिपोश्चितितकार्यसिद्धि स्त्रीरत्नलाभं च करोति काकः ॥ १३ ॥ ध्वांक्षः प्रभाते यदि चह्निभागे विरौति तिष्ठन्रमणीयदेशे ॥ शत्रुः प्रणश्यत्यचिराद्विशस्त्रः प्रयाति योषित्समवाप्यते च ॥ १४ ॥ रुवन्प्रभाते दिशि दक्षिणस्यां काकः समावेदयतेऽतिदुःखम् ॥ रोगातमृत्युंपरुषस्वरेण रम्येण चेष्टागमयोषिदाप्तिः ॥१५॥ ॥ टीका ॥ प्रदीप्ताभिमुखःशब्दमभिधाय पुनः प्रदीप्तं प्रविश्य यः मधुरस्वरेण काकः रौति स विरोधं विधाय सिद्धि विदधाति ॥ ११ ॥ विधायेति ॥ दीप्ताभिमुखः विरावं विधाय ततः शांताभिमुखो यो विरौति असौ वायसः कार्याणि विनिहत्य सम्यक पुनः सर्वाणि करोति ॥१२॥ सूर्योदय इति ॥ पूर्वदिशि प्रशस्ते स्थाने स्थितः यःकाकः मधुरं विरौति स रिपोर्नाशं चिंतितकासिद्धिं स्त्रीरत्नलाभं च क्रमेण करोति ॥ १३ ॥ ध्वाक्ष इति ॥ यदि प्रभाते ध्वाक्षः वहिभागे अग्नेयदिशि रमणीयदेशे तिष्ठन्विरौति तदा शत्रुरचिरात्स्तोककालेन प्रणश्यति स विशस्त्रः निर्मुक्त शस्त्रःप्रयाति योषित्समवाप्यते च ॥ १४॥रुवनिति ॥ प्रभाते दिशि दक्षिणस्यां रुवन्काकः अतिदुःखं समावेदयते परुषस्वरेण रुवन् रोगार्तस्य मृत्युं करोति च ॥ भाषा ॥ शामें स्थित होय और दीतदिशामें मुखकरके शब्द कर फिर दीप्तदिशामें प्रवेश करके काक शब्द करे तो प्रथम विरुद्धकरके फिर सिद्धि करै ॥ ११ ॥ विधायति ॥ प्रथमदीप्तदिशामें मुखकर शब्द करके फिरशांतदिशामें मुखकरके शब्द करै तो वो काक प्रथम सर्वकार्य विगाड करके पीछे सर्वकार्य करे ॥ १२ ॥ सुर्योदये इति ॥ सूर्य उदय होय जो समय पूर्वदि. शाम संदरस्थानमें बैठके जो काक मधुर शब्द करै वो वैरीको नाश और चिंतमन कियो कार्यकी सिद्धि और स्त्रीरत्नलाभ करै ॥ १३ ॥ ध्वाक्ष इति ॥ जो प्रभातकालमें काक अग्निकोणमें रमणीयदेशमें स्थित होय शब्दकर तो शत्रु शीघ्र नाशकू प्राप्त होय. और शस्त्र छोडकर चल्योजाय और स्त्री प्राप्तहोय ॥ १४ ॥ रुवनिति ॥ प्रभातकालमें दक्षिण दि Aho ! Shrutgyanam Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७०) वसंतराजशाकुने-दादशो वर्गः। नैर्ऋत्यभागे च यदि प्रभाते करोति काकः सहसा विरावम्॥ क्रूरं ततः कर्म किमप्युपैति द्यूतागमे मध्यमिका च सिद्धिः॥ ॥ १६ ॥ प्रातः प्रतीच्यां यदि रौति काको ध्रुवं तदा वर्षति वारिवाहः ॥ स्त्रीवस्त्रभूभृत्पुरुषागमश्च कलिः कलत्रेण समं तथा स्यात् ॥ १७ ॥ ध्वाक्षे सशब्दे पवनालयस्थे वस्त्रानपानाभिमतागमाः स्युः ॥ पांथागमो ब्राह्मणवृत्तिनाशः स्यादन्यदेश गमनं स्वदेशात् ॥१८॥ दिश्युत्तरस्यां सरवः प्रभाते निरीक्ष्यमाणो बलिभुङ् नराणाम्॥ ददाति दुःखं भुजगाच्च भीति दरिद्रतां नष्टधनेष्वलाभम् ॥१९॥ ॥टीका ॥ पुनः रम्येण स्वरेण रुवनिष्टागमयोषिदाप्तीः च ॥ १५ ॥ नैर्ऋत्य इति यदि नैर्ऋत्यभागे प्रभाते काकःसहसाङ्करं विरावं करोति तदा किमपि कर्म उपैति दंडागमो भवति कार्यस्य च सिद्धिर्मध्यमिका स्यात् ॥ १६ ॥प्रातरिति ॥ यदि प्रातः प्रतीच्या पश्चिमायां काकः रौति तदा ध्रुवं वारिवाहः वर्षति तथा स्त्रीभृत्यभूभृत्पुरुषागमश्च स्यात् कलत्रेण समं कलिश्च ॥१७॥ ध्वाक्ष इति ॥ पवनालयस्थे ध्वाक्षे सशब्दे सति वस्त्रानपानाभिमतागमाः स्यु तथा पांथागमः ब्राह्मणवृ. त्तिनाशः स्वदेशादन्यदेशे गमनं स्यात् ॥१८॥ दिशीति ॥ यदि उत्तरस्यों दिशि प्रभाते सरवः बलिभुगिरीक्ष्यमाणः स्यात्तदा जनानां दुःखं ददाति भुजगाच्च भीति ॥ भाषा॥ शामें काक शब्द करे तो अतिदुःख होय. और कठोरशब्द करे तो रोगी मृत्यु करे और मधुरस्वर करके इष्टजनको आगम, और स्त्रीकी प्राप्ति करै ॥ १५ ॥ नैर्ऋत्य इति । जो काक प्रभातसमयमें नैर्ऋत्यकोणमें क्रूर शब्द करै तो कोई दंड मिलै. और कार्यकी सिद्धि मध्यम होय ॥ १६ ॥ प्रातरिति ॥ जो काक प्रातःकाल पश्चिमदिशामें शब्दकरे तो निश्चय मेघवर्षा करे, और स्त्री वस्त्र राजा वा कोई पुरुष इनको आगम होय. और स्त्रीकरके कलह होय ॥ १७ ॥ ध्वांक्ष इति ॥ वायव्यकोणमें काक बोलै तो वस्त्र अन्न पान वांछितको आगमन होय, और पांथको आगम होय. और ब्राह्मणकी वृत्तिको नाश होय., अपने देशते अन्यदेशमें गमन होय ॥ १८ ॥ दिशीति ॥ जो काक उत्तर दिशामें शब्द करतो दीखे तो मनुष्यनकू अति दुःख देवे. और सर्पते भीति करे. दारद्रता करे. Aho! Shrutgyanam Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाभासतस्यागमन यतवायसस्य तथा रोगवतो काकरुते दिक्प्रकरणे प्रथमनहरे शुभाशुभफलम्। १२७१) दिशीशवत्यां यदि रौति काकः आगच्छतस्तद्वनितांत्यजाती व्याधेनिमित्तं प्रियवस्तुलाभो भवेत्तथा रोगवतोऽवसानम् ॥ ॥२०॥ ब्रह्मप्रदेशे स्थितवायसस्य प्रभातकाले मधुरस्वरेण॥ अभीप्सितस्यागमनं ध्रुवं स्यात्स्वामिप्रसादो द्रविणस्य लाभः ॥२१॥ इति श्रीवसंतराजशाकुने काकरुते दिक्चक्रप्रकरणे सूर्योदयफलं समाप्तम् ॥ १॥ प्राच्यां च यामे प्रथमे सुशब्दः काको भवेचिंतितकार्यसि-. यै ॥ अभीष्टलोकागमनं यथा स्यादिष्टार्थलाभो नियतं नराणाम् ॥ २२॥ ॥टीका ॥ दारिद्यं नष्टधनेष्वलाभं च करोतीति शेषः ॥ १९ ॥ दिशीति ॥ यदि ईशवत्यां दिशि प्रभाते काकः रौति तदा वनितांत्यजाती आगच्छतः किमर्थ व्याधेनिमित्तं प्रियवस्तुलाभो भवेत् तथा रोगवतः अवसानं मरणं स्यात् ॥ २० ॥ ब्रह्मप्रदेश इति ॥ ब्रह्मप्रदेशे आकाशमध्ये तत्र स्थितस्य वायसस्य मधुरस्वरेण अभीप्सिता. भ्यागमनं ध्रुवं स्यात् तथा स्वामिप्रसादः द्रविणस्य च लाभो भवति ॥ २१॥ . इति शत्रुजयकरमोचनादिमुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचितायां वसंतराजटीकायां काकरुते दिक्चक्रप्रकरणे सूर्योदयफलं समाप्तम् ॥ १॥ प्राच्यामिति ॥ प्राच्या पूर्वस्यां च प्रथमे यामे मुशब्दः काकः चिंतितकार्यसिद्धयै भवेत् तथाऽभीष्टलोकागमनं स्यात् नियतं नराणामिष्टार्थलाभः स्या३२॥ ॥भाषा ॥ नष्टधनको लाभ न करें ॥ १९ ॥ दिशीति ॥ जो ईशान दिशामें काक बोले तो व्याधिके निमित्त कोई स्त्री या अन्त्यज जाति आवे और प्रिय वस्तुको लाभ होय और रोगीकी तो मरण होय ॥ २० ॥ ब्रह्मप्रदेश इति ॥ आकाशमें स्थित काक मधुर शब्द बोले तो वांछितको आगमन होय और स्वामीको अनुग्रह होय और धनको लाभ होय ॥ २१ ॥ ____ इति श्रीवसंतराजभाषाटीकायां काकरते दिक्चक्रप्रकरणे सूर्योदयफलम् ॥ १ ॥ प्राच्यामिति ॥ पूर्वदिशामें जो काक प्रथम प्रहरमें सुन्दर बोले तो चितित कार्यकी सिद्धि करै. वांछित लोकको आगमन होय निश्चय मनुष्यनको वांछित अर्थको लाभ होय ॥ २२ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७२ ) वसंतराजशाकुने - द्वादशो वर्गः । आग्नेयभागे प्रथमे च यामे स्त्रीलाभविद्वेषिवधौ भवेताम् ॥ कृतांतभागे बलिभुग्विरावः स्त्रीलाभ सौख्यप्रिय सौख्यकारी॥ ॥ २३ ॥ नैर्ऋत्यकोणे प्रिययोषिदाप्तिर्मिष्टाशनं सिध्यति चिंतितार्थः ॥ दिशि प्रतीच्यां विरुतैर्भवेतामभ्यर्च्यनीयागम नांबुवृष्टी ॥ २४ ॥ वायव्यकोणे शुचिसंगतिः स्यान्नृपप्रसादोऽध्वगदर्शनं वा ॥ सौम्ये च भीस्तस्करशोकवार्ता सौम्या च वार्ता धनलाभवार्ता ॥ २५ ॥ ईशान कोणेऽभिमतेन संगस्त्रासो हुताशाद्बहुलोकसंग || ब्रह्मप्रदेशे सुखका मभोगः सम्मान संपद्रविणेष्टसिद्धिः ॥ २६ ॥ . ॥ टीका ॥ आमेयेति ॥ प्रथमे च यामे आग्नेयभागे स्त्रीलाभविद्वेषिवधौ भवतां तथा प्रथमे या कृतांतभागे दक्षिणदिशि बलिभुग्विरावः स्त्रीलाभ सौख्यप्रियसंगकारी स्यात् ॥ २३ ॥ नैर्ऋत्येति ॥ नैर्ऋत्यकोणे प्रथमे यामे प्रिययोषिदाप्तिर्भवति तथा मि ष्टाशनं सिध्यति चिंतितोऽर्थो भवति तथा प्रतीच्यां दिशि विरुतैः अभ्यर्च्छनीयागमनबुवृष्टी भवेताम् ॥ २४ ॥ वायव्येति ॥ वायव्ये कोणे विद्वत्संगतिः स्यात् तथा नृपप्रसादः अध्वगदर्शनं च स्यात् सौम्ये च उत्तरस्यां भीः तस्करशोकवार्ता सौम्या च वार्ता धनलाभवार्ता स्यात् ॥ २५ ॥ ईशानेति ॥ प्रथमे यामे ईशानकोणे ध्वनितेन अभिमतेन संगः स्यात् हुताशात्रासः बहुलोकसंगश्च स्यात् तथा ब्रह्मप्रदे ॥ भाषा ॥ आमेयेति ॥ प्रथम प्रहरमें अग्निकोणमें काक बोले तो स्त्रीलाभ और वैरभाव दूर करै, और प्रथम प्रहरमें दक्षिण दिशामें बोलै तो स्त्रीलाभ सौख्य प्यारेको संग करै २३ ॥ नैऋयेति ॥ प्रथमप्रहर में नैर्ऋत्यकोणमें बोले तो प्रिय स्त्रोकी प्राप्ति होय मिष्टान्न भोजन होय और चिन्तित अर्थ होय और पश्चिम दिशा में प्रहरप्रहरमें बोलें तो पूजनके योग्य तिनको आगमन और जलकी वृष्टि ये होय ॥ २४ ॥ वायव्येति ॥ वायव्य कोणमें प्रथम प्रहरमें बोलै तो वैश्यको समागम होय और राजाको अनुग्रह होय वा मार्गीको दर्शन होय. और उत्तर दिशामें प्रथम प्रहर में बोलै तो चौरभय शोकवार्ता अथवा सौम्यवार्ता धनलाभ वार्ता होय ॥ २५ ॥ ईशानेति ॥ प्रथम प्रहरमें ईशानकोणमें बोलै तो अच्छे जनको सँग होय. और अग्नि त्रास बहुत होय. मनुष्यनको संग होय और आकाशमें स्थित होकर बो Aho! Shrutgyanam Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरते दिक्प्रकरणे द्वितीयप्रहरे शुभाशुभफलम्। (२७३) इति दिक्प्रकरणे प्रथमः प्रहरः॥ प्राच्यां द्वितीये प्रहरे विरावैःकाकस्य कश्चित्पथिकोऽभ्युपैति।। चौराद्भयं व्याकुलतातिबही जायेत काचिन्महती च शंका॥ . ॥२७॥ हुताशदेशे नियतं कलिः स्यात्प्रियागमाकर्णनयोपिदाप्ती ॥ यामे च वृष्टिमहती च भीतिः प्रियस्य वश्यस्य तथागमः स्यात् ॥ २८ ॥ रक्षोदिशि प्राणभयं तथा स्युः स्त्रीभोगलाभाखिलरुक्प्रणाशाः॥ भवेत्प्रतीच्या प्रवलानलाप्तिर्योषागमो वृद्धिसुवर्षणं च ॥२९॥ ॥ टीका ॥ शे सुखभोगसंगः संतानसंपदविणेष्टसिद्धयः स्युः ॥ २६ ॥ इति वसंतराजटीकायां काकरुते दिक्प्रकरणे प्रथमप्रहरे शुभाशुभफलम् ॥ प्राच्यामिति ॥ द्वितीयपहरे पूर्वस्यां काकस्य विरावैः कश्चित्पथिकोऽभ्युपैति चौराद्भयं स्यात् बढी व्याकुलता स्यात् काचिन्महती शंका जायेत ॥ २७ ॥ हुता. शेति ॥ हुताशदेशेऽमिकोणे नियतं कलिः स्यात् तथा प्रियागमाकर्णनयोषिदाप्ती भवतः याम्ये च महती भीतिः स्यात् तथा प्रियस्य वश्यस्यागमः स्यात् ॥ २८॥ रक्षोदिशीति ॥ रक्षोदिशि नैर्ऋते प्राणभयं स्यात् तथा स्त्रीभोज्यलाभाखिलरुक्प्रणाशाः स्युः प्रतीच्यां प्रबलानलाप्तिर्भवेत् तथा योषागमः वृद्धिः ॥भाषा॥ ले तो सुख, भोग, काम, सम्मान, संपदा, धन, इष्टसिद्धि ये होय ॥ २६ ॥ . इति श्रीवसंतराजभाषाटीकायां दिक्प्रकरण प्रथमप्रहरे शुभाशुभफलम् ॥ २ ॥ पूर्व दिशामें दूसरे प्रहरमें बोले तो कोई पथिकजन आवे और चौरते भय, और बहुत व्याकु लता कोई महान् शंका होय. ॥ २७ ॥ हुताशेति ॥ अग्निकोणमें दूसरे प्रहरमें बोले तो निश्चय कलह होय और प्रियके आगमनको श्रवण, और स्त्रीप्राप्ति होय, और जो दक्षिणमें बोले तो महान् दृष्टि महान् भीति होय, और प्यारे वश्यको आगमन होय ॥ २८ ॥ रक्षोदिशीति ॥ नैर्ऋत्यकोणमें द्वितीयप्रहरमें बोले तो प्राणभय होय और स्त्री भोजन लाभ सर्वरोगको नाश ये होय. पश्चिममें बोले तो प्रबल अग्नि होय और स्त्रीको आगमन Aho ! Shrutgyanam Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४ ) वसंतराजशाकुने - द्वादशो वर्गः । समीर भागेऽध्वगचौरसंगो दूतागमः स्त्रीपिशितान्नलाभः ॥ सौम्ये धनेष्टागमनं जयश्च रम्ये रखे चौरभयं त्वरम्ये ॥३०॥ महेश्वराशाधिगतश्च काकश्चौराग्निसंत्रासविरुद्धवार्ताम् ॥ - वीति रूक्षैः रटितैस्त्वरूक्षैः सभार्यगुर्वागमनं जयश्च ॥ ३१॥ ब्रह्मप्रदेशे प्रहरे द्वितीये काकः सुशब्दो नृपतिप्रसादम् ॥ मिष्टान्नभोज्यं च ददाति पुंसां करोत्यसौ चौरभयं कुशब्दः ॥ ३२ ॥ इति काकरुते दिक्चक्रप्रकरणे द्वितीयः प्रहरः ॥ ॥ टीका ॥ सुवर्षणं च भवति ॥ २९ ॥ समीरेति ॥ वायव्येऽध्वगचौरसंगः स्यात् तथा दूतागमः स्त्रीपिशितान्नलाभश्च सौम्ये धनेष्टागमनं स्यात् रम्ये रखे जयश्च अरम्ये रखे तु चौरभयं स्यात् ॥ ३० ॥ महेश्वरेति || महेश्वराशाधिगतस्तु काकः रूक्षैः रटितैवौराग्नि संत्रासविरुद्धवार्तां ब्रवीति अरूक्षैः रटितैः सभार्यगुर्वागमनं जयश्च स्यात् ॥ ॥ ३१ ॥ ब्रह्मप्रदेश इति || ब्रह्मप्रदेशे द्वितीयप्रहरे सुशब्दः काकः नृपतिप्रसादं मिष्टान्नभोज्यं च ददाति कुशब्दः पुनरसौ पुंसां चौरभयं करोति ॥ ३२ ॥ इति वसंतराजीकायां काकरुते दिक्प्रकरणे द्वितीयप्रहरे शुभाशुभफलम् । ॥ भाषा ॥ वृद्धि बहुत वर्षा होय ॥ २९ ॥ समीरेति ॥ वायव्यकोण में द्वितीयप्रहर में काकबोलै तो मार्ग में चोरको संग होय. कोई दूतको आगमन होय. और: स्त्री मांस अन्न इनको लाभ होय. और उत्तरदिशा में बोले तो धन और इष्टजनको आगम ये होयँ सौम्यशब्द करे तो जय होय. और क्रूर शब्द करे तो चौरभय होय || २० || महेश्वरेति ॥ ईशानदिशा में द्वितीय प्रहरमें काक रूखो बोलै तो चोर अग्नि इनके त्रास कर विरुद्धवार्ताकूं कहे है. और मधुरवाणी बोलै तो स्त्रीसहित गुरुनको आगमन और जय होय ॥ ३१ ॥ ब्रह्मप्रदेश इति ॥ द्वितीयप्रहर में आकाशमें स्थित होय बोले तो राजाको अनुग्रह मिष्टान्न भोजनपदार्थ देवै. क्रूरबोलै तो मनुष्यनकूं चौर भय करे ॥ ३२ ॥ इति श्री वसंतराजभाषाटीकायां काकरुते दिक्चक्रप्रकरणे द्वितीयप्रहरे शुभाशुभफलम् ॥ Aho! Shrutgyanam Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते दिक्प्ररणे तृतीयप्रहरे शुभाशुभफलम् । (२७५) ऐयां विरूक्षः प्रहरे तृतीये वृष्टिं तथा चौरभयं ब्रवीति । हृष्टस्तु राजागमनं जयं च करोति यात्रासु च कार्यसिद्धिम् ॥३३॥ अग्नेविभागेऽग्निभयं कलिश्च विरुद्धवार्ता विफला च यात्रा ॥ भवेद्विरुदैर्बलिभुग्विरावैर्जयादिवार्ता च भवेद्विशुद्धैः ॥३४॥ ककुभ्यवाच्यां कुरुते तु तूर्ण रोगं तथाप्तागमनं विहंगः॥ क्षुद्राणि कार्याणि च यांति सिद्धिं सर्वाणि सम्मुख्यतया नराणाम् ॥३५॥ क्रव्याददेशे जलदागमः स्यान्मिष्टान्नलाभो रिपवो नमंति ॥शूद्रागमश्चापि विरुद्धवार्ता भवंति यात्रासु च कार्यनाशः ॥ ३६ ।। ॥ टीका ॥ ऐयामिति ॥ तृतीयाहरे ऐयां पूर्वस्यां विरूक्षः अर्थादीप्तशब्दादृद्धिः तथा चौरभय ब्रवीति तत्रैव दिशि हृष्टस्तु राजागमनं जयं च यात्रासु च कार्यसिद्धि करोति॥३३॥अमेरिति ॥आगेयभागेविरुद्धैलिभुग्विरावैः अतिभयं कलिश्च विरुद्धवार्ता विफला च यात्रा भवेत् पुनः विशुद्ध यादिवार्ता भवेत् ॥ ३४ ॥ककुभीति ॥ अवाच्या दक्षिणस्यां ककुभि विहंगः अतिपर्ण रोगंतथाप्तागमनं कुरुते नराणां क्षुद्रा णि कायीण सर्वाणि तन्मुख्यतयेति तदेव कार्य मुख्यं यत्र तस्य भावस्तन्मुख्यता तया च सिद्धिं याति॥३५॥ क्रव्यादेति ॥क्रव्याददेशे तृतीयप्रहरे काकस्य रटितेन जलागमः स्यात् तथा मिष्टानलाभो रिपवो नमंति शूद्रागमः स्वामिविरुद्धवार्ताः ॥ भाषा ॥ ऐंद्यामिति ॥ तृतीयप्रहरमें पूर्वदिशामें दीप्तशब्द बोले तो वृष्टि और चौरभय करै. और पूर्वदिशामें काक प्रसन्न होय तो राजाको आगमन, जय और यात्रानमें कार्यसिद्धि करै ॥ ३३ ॥ अमेरिति ॥ अग्निकोणमें तृतीयप्रहरमें काकविरुद्ध शब्द बोले तो अग्निभय कलह, विरुद्धवार्ता, निष्फला यात्रा, ये होय. फिर जो शुद्धशब्दबोले तो जयादिकवार्ता होय ॥ ३४ ॥ ककुभीति ॥ दक्षिणदिशामें काक बोले तो अतिशीघ्र रोगकरै. और अच्छे महात्माको आगमन होय. और मनुष्यनके संपूर्ण क्षुद्र कार्य मुख्यभावकरके सिद्धि प्राप्ति होय ॥ ३५ ॥ क्रव्यादेति ॥ नैर्ऋत्यकोणमें तृतीयप्रहरमें बोले तो मेघनको आगमहोय. मिष्टान्न लाभ होय और बैरी नमें शूदको आगम और विरुद्धवार्ता और यात्रानमें Aho! Shrutgyanam Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६) वसंतराजशाकुने-द्वादशो वर्गः। स्यात्पश्चिमे नष्टधनस्य लाभो दूरध्वयानं सुहृदागमश्च ॥ योषागमाभीष्टजयादिवार्ता यात्रासु रम्ये रटितेऽर्थसिद्धिः॥ ॥ ३७॥ वातालये दुर्दिनवातमेघाश्चौराप्तिनष्टार्थसमागमौ च ॥ संतोषवार्ता वरयोषिदाप्तिर्यात्रा वे स्यान्मधुरे प्रशस्ता ॥३८॥ यामे तृतीये विरवीत्युदीच्यां काकोऽर्थलाभो नृपसेवकानाम् ॥ भोज्याप्तिवृद्धी शुभदा च वार्ता प्रयाण वैश्यसमागमश्च ॥ ३९ ॥ दिश्यंधकारे कुरुते सुशब्दो भोज्यं जयं हानिकली कुशब्दः ॥ब्रह्मप्रदेशे तिलतंडुलाभ्यां भोज्यं सतांबूलमुपादधाति ॥४०॥ ॥टीका ॥ भवंति यात्रासु च कार्यनाशः स्यात् ॥३६॥ स्यादिति ॥ पश्चिमे नष्टधनस्य लाभ: स्यात् दूराध्वयानमिति दूरेऽध्वनि यानं गमनं मुहृदागमश्च योषागमाभीष्टजयादिवार्ता भवति रम्ये रटिते अर्थसिद्धिः स्यात् ॥३७॥वातालय इति ॥ वायव्ये दुर्दिने मेघवार्ता भवंति चौराप्तिनष्टार्थसमागमौच भवतः तथा संतोषवार्ता वरयोषिदाप्तिश्च भवति मधुरे रखे यात्रा प्रशस्ता स्यात्।।३८॥याम इति ॥ तृतीये यामे उदीच्यां काको विरवीति तदा नृपसेवकानामर्थलाभः स्यात् तथा भोज्याप्तिवृद्धी भवतःशुभदा च वार्ता तथा प्रयाणकं वैश्यसमागमश्च स्यात् ।। ३९ ।। दिशीति ॥ अंधकारे ईशानदिशि सुशब्दः भोज्यं जयं कुरुते च कुशब्दः हानि कलिं करोति ब ॥ भाषा ॥ कार्यको नाश होय. ॥ ३६ ।। स्यादिति ॥ पश्चिममें बोले तो नष्टधनको लाभ होय. दूरमार्गमें गमन होय. और सुहृदको आगमन होय. और स्त्रीको आगमन अभीष्ट जयादिनकी वार्ता होय. और यात्रानमें सुंदरशब्द बोले तो अर्थसिद्धि होय ॥ ३७ ॥ ॥ वातालय इति ॥ वायव्यकोणमें बोले तो खोटो दिन और पवनमेघकी वार्ता होय, और चौरकी प्राप्ति नष्टअर्थको समागम संतोषकी वार्ता श्रेष्ठस्त्रीको प्राप्ती ये होय. और काकके मधुरशब्दमें यात्रा शुभ है ॥ ३८॥ याम इति ॥ तृतीयप्रहरमें उत्तर दिशामें काक विशेष शब्द करै तो राजसेवकनके सकाशसूं अर्थको लाभ होय. भोजनपदार्थकी प्राप्तिवृद्धि शुभकी देबेवाली वार्तागमन वैश्यसमागम ये होय ॥ ३९॥ दिशीति ॥ ईशान 'देशामें तृतीयप्रहरमें काक सुंदर शब्द करै तो भोज्यपदार्थ और जय करै और कुशब्द Aho! Shrutgyanam Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते दिक्प्रकरणे चतुर्थ प्रहरे शुभाशुभफलम् । ( २७७ ) इति काकरुते दिक्चक्रप्रकरणे तृतीयप्रहरे शुभाशुभफलम् ॥ ऐंद्यां तुरीयेप्रहरेऽर्थलाभो भूमीशपूजाभयवृद्धिरोगाः ॥ वह्नेविभागे भयरोगमृत्युशिष्टागमा वायसवासितेन ॥ ४१ ॥ याम्ये खे तस्करवैरिभीती स्यातां च शिष्टागमरोगमृत्यू || स्याद्यातुधान्यां महती प्रवृद्धिरभीष्टसिद्धिः पथि चोरयुद्धम् ॥ ४२ ॥ दिशि प्रतीच्यां प्रहरे चतुर्थे द्विजातिरम्येति ततोऽर्थलाभः ॥ आयाति योषिद्विजयोंबुवृष्टिः सिद्धिः प्रयाणे नृपविवरस्य ॥ ४३ ॥ ॥ टीका ॥ प्रदेशे तिलतंडुलाभ्यां भोज्यं सतांबूलमुपादधाति ॥ ४० ॥ इति वसंतराजटीकायां काकरुते दिक्प्रकरणे तृतीयप्रहरे शुभाशुभफलम् ॥ ऐंद्यामिति ॥ तुरीये प्रहरे ऐंद्र्यां पूर्वस्यामर्थलाभः स्यात् भूमीशपूजाभयवृद्धिरोगाः स्युः वह्नेर्विभागे वायसवासितेन भयरोगमृत्युशिष्टागमाः स्युः ॥४१॥ याम्ये इति ॥ याम्ये दक्षिणस्यां काकरवे सति तस्करवैरिभीती स्यातां तथा शिष्टागमः रोगमृत्युश्च यातुधान्यां महती प्रवृद्धिः अभीष्टसिद्धिः पथि चौरयुद्धं च स्यात् ॥ ४२ ॥ दिशीति ॥ प्रतीच्यां दिशि चतुर्थे प्रहरे द्विजातिरभ्येति ततोलाभः तथा योषिदायाति विजयश्च अंबुवृष्टिः स्यात् प्रयाणे सिद्धिः स्यान्नृपवि॥ भाषा ॥ करे तो हानि और कलह करे. आकाशमें स्थित होय तृतीयप्रहरमें वोलै तो तिल, चावल, भोज्यपदार्थ तांबूल ये सब करै ॥ ४० ॥ इति श्री वसंतराजभाषाटीकायां काकरुते दिक्प्रकरणं तृतीयप्रहरे शुभाशुभफलम् ॥ यामिति ॥ चौथे प्रहर में पूर्वदिशा में काक बोले तो अर्थलाभ होय. राजपूजा भयवृद्धि रोग ये होंय और अग्निकोणमें चौथे प्रहरमें बोले तो भय, रोग, मृत्यु, महजनको आगमन ये होंय. ॥ ४१ ॥ याम्य इति ॥ दक्षिणमें काक वोलै तो चौरभीति "वैरीको भय, शिष्टजननको आगम. रोग मृत्यु ये होंय और नैर्ऋत्यकोणमें बोले तो महान् वृद्धि अभीष्टसिद्धि मार्ग में चौर और युद्ध ये होंय ॥ ४२ ॥ दिशीति ॥ पश्चिमदिशा में चौथे प्रहरमें काक बोलै तो कोई ब्राह्मण आये और अर्थलाभ, स्त्रीको आगमन, विजय, Aho! Shrutgyanam Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७८) वसंतराजशाकुने द्वादशो वर्गः। वायव्यभागे करटस्य शब्दैरायातियोषित्प्रियमानिनी या॥ ध्रुवं प्रवासो दिनसप्तकेन शीघ्रागमः स्याद्मने कृते च ॥ ॥ ४४ ॥कुबेरभागे पथिकोऽभ्युपैति तांबूललाभः कशलस्य वार्ता ॥ वैश्यादनाप्तिस्तुरगाधिरूढायात्रा विभूत्यै म्रियते च रोगी ॥ ४५ ॥ स्थाणोर्दिशिस्थैर्बलिभुग्विरावैः सुवर्णवार्ता सरुजो विनाशः ॥ ब्रह्मप्रदेशे प्रहरे तु तुर्ये वार्ता भवेन्मध्यमिकेष्टसिद्धिः ॥ ४६॥ इति काकरुते दिक्चक्रप्रकरणे चतुर्थप्रहरे शुभाशुभफलम् ॥ ॥ टीका ॥ इरस्यति ॥ ४३ ॥ वायव्येति वायव्यभागे करटस्य शब्दैः प्रियमानिनी या योषिद्भवति सा आयाति तथा दिनसप्तकेन ध्रुवं प्रवासो भवति गमने कृते च शीघ्रागम: स्यात् ॥ ४४ ॥ कुबेर इति ।। उत्तरस्यां पथिकः अभ्युपैति तथा तांबूलस्य लाभः कुशलस्य च वार्ता तथा वैश्याइनाप्तिः तुरगाधिरूढा च यात्रा विभूत्यै भवति रोगी म्रियते च ॥ ४५ ॥ स्थाणारिति ॥ स्थाणोदिशिस्थैः बलिभुग्विरावैः सुवर्णवार्ता स्यात् सरुजश्च विनाशः ब्रह्मप्रदेशे तुरीये प्रहरे यात्रा मध्यमिका भवेत् तथेष्टसिद्धिश्च ॥ ४६ ॥ इति वसंतराजटीकायां काकरते दिक्प्रकरणे चतुर्थप्रहरे शुभाशुभफलम् ॥ . ॥ भाषा ॥ जलकी वर्षा, प्रयाणमें सिद्धि राजा और धनवान् वैश्य ये होंय. वा प्रयाणमें राजा और धनवान् वैश्य मिलें ॥ ४३ ॥ वायव्यति ॥ वायव्यकोणमें काक बोले तो भतरकर मानबेके योग्य ऐसी स्त्री आवे. और सातदिनमें निश्चयही प्रवास अर्थात् यात्रागमन या गमन करे तो शीघ्र आगमन होय ॥ ४४ ॥ कुबेर इति ॥ उत्तरदिशामें बोले तो पथिक घर आवे. और तांबूलको लाभ कुशलकी वार्ता वैश्यते धनकी प्राप्ति, घोडापै बैठनो, यात्रा करै तो विभूति होय और रोगी होय तो मरै ॥ ४५ ॥ स्थाणोरिति ॥ ईशानकोणमें काकबोले चौथे प्रहरमें तो सुवर्णकी वार्ता, रोगको नाश करै, और आकाशमें ठाढो होय बोले तो यात्रा मध्यमिका होय. और इष्टसिद्धि होय ॥ ४६ ॥ इति श्रीवसंतराजभाषाटीकायां काकरते दिक्चक्रप्रकरणे चतुर्थप्रहरे शुभाशुभफलम् ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते दिक्चक्र प्रकरणम् । (२७९ ) यद्भाषितं शाकुनिकैर्विमिश्रं शुभाशुभं दिवप्रहरक्रमेण ॥ तथा शुभं यच्छति दीप्तशब्दः श्रेयस्करः शांतरवस्तु काकः ॥ ४७ ॥ रम्ये खे दीप्तदिशि प्रपश्य शांतां दिशं भूरिफलं ददाति ॥ तदेव तुच्छं वितरत्यशौचे दीप्तां स्थितः पश्यति दीप्तकाष्ठाम् ॥ ४८ ॥ यथोपदिष्टं फलमत्र दुष्टं तथैव तदीप्तदिशि स्थितः सन् ॥ ध्वांक्षो विरूक्षो विरखं करोति निरीक्षमाणः ककुभं प्रदीप्ताम् ॥ ४९ ॥ काकः प्रशांताभिमुखोतितुच्छं दीप्ताश्रितो दुष्टफलं ददाति ॥ शांताश्रितः शांतदिगीक्षणेन रूक्षारवोऽल्पं कथयत्यनिष्टम् ॥ ५० ॥ ॥ टीका ॥ यदिति ॥ दिक्प्रहरक्रमेण शाकुनिकैर्विमिश्रं शुभाशुभं यद्भाषितं तत्र दीप्तशब्दः काकः अशुभं यच्छति शांतरवश्च काकः श्रेयस्करः स्यात् ॥ ४७ ॥ रम्य इति ॥ दीप्तदिशि रम्ये रवे सति शांतदिशं पश्यन्काकः भूरिफलं ददाति असौ काकः तदेव तु च्छं वितरति यः दीप्तस्थितः दीप्तकाष्ठां च पश्यति ॥ ४८ ॥ यथोपदिष्टमिति ॥ ग्रंथा येन प्रकारेण दुष्टमत्र फलमुपदिष्टं तेन प्रकारेण दीप्तादशि स्थितः सन्ध्वांक्षो विरू क्षं विश्वं प्रदीप्तां ककुभं निरीक्षमाणः करोति ॥४९॥ काक इति ॥ प्राशांताभिमुखः काकः अतितुच्छं स्वल्पं फलं ददाति दीप्ताश्रितः दुष्टफलं ददाति शांताश्रितः शांत ॥ भाषा ॥ ॥ यदिति ॥ शकुनाचारीनने दिशाप्रहर के क्रमकर मिले वा शुभ अशुभ फल जो को उन दोनोंनमेंसूं दीप्तशब्द बोलवेवारो काक अशुभ देवे और शांतशब्द बोलै सो कल्याण करे ॥ ४७ ॥ रम्य इति ॥ दीप्तदिशा में स्थित होय शांत बोले शांत दिशा में दीखे तो का बहुत फल देवे. और येही काक अपवित्रस्थानमें स्थित होय दीप्तदिशामें बैठो होय और दीप्तदिशामाऊं देखतो होय तो तुच्छ फल करे ॥ ४८ ॥ यथोपदिष्टमिति ॥ जो काक दीप्तदिशा में स्थित होय, रूखो शब्द करे, दीप्तदिशा में देखतो होय. तो दुष्ट फल शांतदिशा में मुख होय और दीप्तदिशा में बैठो होय तो और शांतदिशा में होय शांतदिशामें देखतो होय और करे ॥ ४९ ॥ काक इति ॥ काक अति तुच्छ दुष्ट फल देवै. Aho,! Shrutgyanam Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८०). वसंतराजशाकुने-द्वादशो वर्गः। शांतस्वरः शांतककुष्प्रदेशे तिष्ठन्प्रदीप्तां ककुभं च पश्यन्।। ददात्यभीष्टं फलमल्पमेव दीप्तामपश्यंस्तु तदेव पूर्णम्॥५॥ आकारचेष्टारवभावविज्ञा दग्धादिकाष्ठादि तयोः प्रमाणे ॥ सदाभियुक्ताश्च निरूपयंति विदति ते काकरुतं मनुष्याः५२ इति वसंतराजशाकुने काकरुते दिक्प्रकरणं प्रथमम् ॥ १॥ वर्षकालमधिकृत्य किंचन प्रोच्यतेबलिभुजोऽधुना क्रमात्॥ आलयांडकविचारसुंदरं शाकुनं सकलशाकुनोत्तमम्॥५३॥ वैशाखमासे निरुपद्रवेषु द्रुमेषु काकस्य शुभाय नीडम्॥निघेषु शुष्केषु सकंटकेषु वृक्षेषु दुर्भिक्षभयाय हेतुः ॥५४॥ ॥ टीका ॥ दिगीक्षणेन रूक्षारवः अल्पमनिष्टं कथयति ॥ ५० ॥ शांत इति ॥ शांतककुप्पदेशे तिष्ठन् शांतस्वरः प्रदीप्तां ककुभं च पश्यन्त्र भीष्टं फलमल्पमेव ददाति दीप्तामपश्यन्पुनः तदेव पूर्ण फलं ददाति ॥ ५१ ॥ आकारेति ॥ तेऽभियुक्ताः पंडिता आकारचेष्टारवभावविज्ञाः दग्धादिकाष्ठादि यद्वर्त्तते तयोः प्रमाणे निरूपयंति ते मनुष्याः काकरतं विन्दति ॥५२॥ इति शत्रुजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रविरचितायां वसंत रानटीकायां काकरुते दिक्चक्रप्रकरणं प्रथमम् ॥ १॥ वर्षकालमिति ॥ वर्षाकालमधिकृत्य अधुना बलिभुजः क्रमात् आलयोडकविचारसुंदरं शाकुनं सकलशाकुनोत्तमं प्रोच्यते ॥ ५३ ॥ वैशाख इति ॥ वैशा ॥ भाषा॥ रूखोशब्दबोलै तो अल्प अनिष्ट फल कहैहै ॥ ५० ॥ शांतस्वर इति ॥ शांतदिशामें बैठो होय शांतस्वर बोलतो होय. और दीप्तदिशामें देखतो होय, तो अभीष्ट फल अल्पही देवे. जो दीप्त दिशामें नहीं देखतो होय तो फिर वोही पूर्ण फल देवै ॥ ५१ ॥ आकारइति ॥ जे आकार चेष्टा शब्द भाव इनकू जानै और दग्धादि दिशादिकनके प्रमाणमों निरूपण करें योग्य होय ते मनुष्य काकके शब्दकू जाने हैं ॥ १२ ॥ - इति श्रीवसंतराजभाषाटीकायां काकरते दिक्प्रकरणं प्रथमम् ॥१॥ वर्षकालमिति ॥ वर्षाकालकू अधिकार करके अब काकको स्थान अंडाके विचारतूं सुंदर सबशकुननमें उत्तम शकुन कहहैं ॥ ५३ ॥ वैशाखेति ॥ वैशाखके महीनामें उपद्र Aho! Shrutgyanam Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते आलयप्रकरणम् । (२८१) प्रशस्तवृक्षे यदि पूर्वशाखामाश्रित्य काकेन कृतं कुलायम् ॥ तदृष्टिरिष्टा कुशलं प्रमोदो नारोगता स्याद्विजयश्च राज्ञः ॥५५॥ आग्नेयशाखारचिते च नीडे स्यादृष्टिरपाग्निभयं कलिश्च ॥ दुर्भिक्षशबूद्भवदेशभंगा भवंति रोगाश्च चतुष्पदानाम् ॥ २६॥ याम्यासु शाखासु च वायसेन नीडे कृतेऽल्पं जलपातमाहुः॥व्याधिप्रकोपं मरणं समंतादनक्षयं राजविरोधतां च ॥१७॥ नैर्ऋत्यशाखारचिते च नीडे पश्चाद्धनो वर्षति वर्षकाले ॥ पीडा नृणां विडरचौरभीतिदुर्भिक्षयुदानि भवत्यवश्यम् ॥२८॥ ॥ टीका ॥ खमासे निरुपद्रवेषु द्रुमेषु काकस्य शुभाय नीडं भवति तथा शुष्केषु निधेषु सकंटकेषु वृक्षेषु दुर्भिक्षभयादिहेतुर्भवति ॥ ५४ ॥ प्रशस्तवृक्षे इति ॥ यदि प्रशस्तवृक्षे पूर्वशाखामाश्रित्य काकेन कुलायं कृतं तदा वृष्टिरिष्टा कुशलं च तथा प्रमोदानीरोगता राज्ञो विजयश्च भवति ॥ ५५ ॥ आनेयेति ॥आमेयशाखारचिते नीडे वृष्टिरल्पामिभयं कलिश्च दुर्भिक्षशत्रूद्भवदेशभंगा रोगाश्च चतुष्पदानां भवंति ॥५६॥ याम्येति ।। याम्यासु शाखासु च वायसेन नीडे कृतेऽल्पं जलपातमाहुः तथा व्याधिप्रकोपं मरणं समंतादनक्षयं राजविरोधतां चाहुः ॥ ५७ ॥ नैर्ऋत्य इति । नैर्ऋत्यशाखारचिते कुलाये वर्षाकाले पश्चाद्धनो वर्षति अवश्यं नृणां पीडा विड्वर ॥ भाषा ॥ वरहित वृक्षनपै काकको घर होय तो शुभके अर्थ हैं. और शुष्क होय निंदाके योग्य होय ऐसे कांटेनके वृक्षनमें काकको घर होय तो दुर्भिक्षभयादिकनको करबेवालो जाननो ॥ ५४ ॥ प्रशस्तवृक्षे इति ॥ उत्तमवृक्षके ऊपर पूर्वमाऊँकी शाखापै बैठकरके काकने घर बनायो होय तो वृष्टि अच्छी होय. और कुशल हर्ष नीरोगता राजाको विजय ये करै ॥ ५५ ॥ आमेयेति ॥ जो काक वृक्षकी अग्निकोणकी शाखामें घर करै तौ वृष्टि अल्प . होय. और अग्निभय. कलह, दुर्भिक्ष, शत्रुते देशभंग, रोग, चोपदानकं ये सब होय. ॥५६॥ याम्येति ॥ जो काकने वृक्षकी दक्षिणशाखामें घरकियो होय तो अल्पजलपात होय. और व्याधिप्रकोप, मरण, अन्नक्षय राजविरोधता ये हाय ॥ १७ ॥ नैर्ऋत्यति ॥ वृक्षकी नैऋत्यकोणकी शाखामें घररचो होय तो. वर्षाकालमे मेघ पीछेपै वर्षे. और मनु Aho! Shrutgyanam Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८२) वसंतराजशाकुने-द्वादशो वर्गः।। नीडे कृते पश्चिमवक्षशाखामाश्रित्य काकैः कथिताभिवृष्टिः।। नीरोगताक्षेमसुभिक्षवृद्धिसंपत्प्रमोदाश्च भवन्ति लोके ॥५९ ॥ वायव्यशाखासु कृते च नीडे प्रभूतवाताल्पजलाः पयोदाः ॥ स्युर्मूषकॉपद्रवसस्यनाशपशुक्षयोद्वेगमहाविरोधाः॥ ६० ॥ कुबेरशाखामधिकृत्य नीडे कृते भवेत्प्रावृषि वृष्टिरिष्टा ॥ भवंति च क्षेमसुभिक्षसौख्यनीरोगतावृष्टिसमद्धयोऽस्मिन् ॥ ६१ ॥ ईशानशाखासु च वृष्टिरल्पा चिरं प्रजानामुपसर्गदोषः ॥ स्याद्रांधवानां कलहप्रवृत्तिर्मयांदया हीयत एष लोकः॥१२॥ ॥ टीका ॥ चौरभीतिः दुर्भिक्षयुद्धानि च भवति ।। ५८ ॥ नीड इति । पश्चिमवृक्षशाखामाथि त्य काकैः नीडे कृतेतिवृष्टिः कथिता तथा लोके नीरोगता क्षेमसुभिक्षवृद्धिसंपत्यमोदाश्च भवंति ।। ५९ ॥ वायव्यशाखास्विति ।। वायव्यशाखासु नीडे कृते प्रभूतवाताल्पजलाः पयोदाः स्युः तथा मूषकोपदवसस्यनाशपशुक्षयोद्वेगमहाविरोधाः स्युः।। ६०॥ कुबेर इति ॥ कुबेरशाखामधिकृत्य नीडे कृते प्रावृषि वृष्टिरिटा भवेत् तथाऽस्मिनाते क्षेमसुभिक्षसौख्यनीरोगतावृष्टिसमृद्धयः भवंति ।। ६१ ॥ ईशानति ॥ ईशानशाखासु च वृष्टिरल्पा स्यात् वैरं प्रजानाम् उपसर्गदोषौ स्यातां तथा बांधवानां कलहप्रवृत्तिः स्यात् तथा एषःलोकः मर्यादया हीयते हीनो भवती ॥भाषा॥ ध्यनकू अवश्य पीडा, धनवान् वैश्यनकू चौरभीति, दुर्भिक्षयुद्ध ये होय ॥ ५८ ॥ नीड इति ॥ जो काकनने वृक्षकी पश्चिमदिशाकी शाखामें बैठकर घर कियो होय तो अतिवृष्टि, लोकमें नीरोगता, क्षेम, सुभिक्ष, वृद्धि, संपदा, हर्ष ये होयँ ॥ ५९ ॥ वायव्यशाखास्विति ॥ वृक्षकी वायव्य कोणकी शाखामें घर करे तो पवन, अल्प जलके मेघ, मूसान करके उप• द्रव, अन्नको नाश, पशुनको क्षय, उद्वेग, महाविरोध ये होय ॥ १० ॥ कुबेरशाखामिति॥ वृक्षकी उत्तरमाऊंकी शाखापै स्थितहोय घरकरै तो वर्षाकालमें योग्य अच्छी वृष्टि हाये. वर्षाके होतेही क्षेम, सुभिक्ष, सौख्य, नीरोगता, वृद्धि, समृद्धि ये होय ॥ ११ ॥ ईशानति :॥ वृक्षकी ईशानशाखामें घर करे तो अल्पवृष्टि प्रजानके वैर, और ऊपर Aho! Shrutgyanam Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरते आलयप्रकरणम् । (२८३) वृक्षाग्रनीडे त्वतिवर्षकालो मध्ये तरोर्मध्यमतोयपातः ॥ तुच्छापि वृष्टिर्न भवत्यधस्तात्स्फुटं यथोक्तं न दिशोऽस्फुटत्वात् ॥ ६३॥ अवृष्टिरोगारिभयादिवृद्धि विद्याच्च भूमौ बलिभुकुलाये ॥ शुष्क च वृक्षे डमराननाशौ प्राकाररंधेऽरिभयं प्रभूतम् ॥ ६४॥ निम्नप्रदेशे तरुकोटरे वा वल्मीकरंध्रे त्ववनिष्वपीह ॥ काकस्य नीडे रुगवृष्टिदोषेर्भवंति शून्या नियमेन देशाः।। ६५॥ इति काकरुते आलयप्रकरणम् ॥२॥ ॥ टोका। त्यर्थः ॥ ६२॥ वृक्षाग्रनीड इति॥वृक्षाग्रनीडे तु अतिवर्षकालः स्यात् तरोमध्ये मध्यमतोयपातःस्यात् अधस्तानीडे कृते तुच्छापि वृष्टिर्न भवति दिशः अस्फुटत्वाद्यथातं स्फुटं न भवति ॥ ६३ ॥ अवृष्टिरिति ।। भूमा च बालभुकलाय कृते अाष्टर। गारिभयादिवृद्धिं विद्यात् तथा शुष्के च वृक्षे डमराननाशौ स्याताम् “डमरस्त्वतिवृष्टौ स्यात्' इति नामकोशः॥ तथा प्राकाररंधे प्रभूतमरिभयं भवतिः ॥ ६४ ॥ निम्न इंति॥ निम्म्रप्रदेशे वा तरकोटरे वल्मीकरंध्रे अवनिष्वपि काकस्य नीडे सति भयकृ. ष्टिदोषैः नियमेन देशाः शून्याः स्युः ॥ ६५ ॥ इति शकुनवसंतराजटीकायां काकालयप्रकरणम् ।। २ ॥ ॥ भाषा ॥ लो दोष, बांधवनको कलह, मर्याददयाकर हीन लोक ये हाय ॥ ६२ ॥ वृक्षाग्रनीड इति ।। वृक्षके अग्रभागमें घर करै तो अतिवर्षा होय. और वृक्षके मध्यभागमें घर करे तो मध्यमजलकी वर्षा होय, और जो वृक्षके नीचे घर करै तो अल्पभी वृष्टि नहीं होय ॥ १३ ॥ ॥ अवृष्टिरिति ॥ काक पृथ्वीमें घर कर तो अवृष्टिरोग आरंभयादिककी वृद्धि जाननी. और सूखे वृक्षमें घर करे तो प्रलयकोसो नाश, और अन्ननाश होय. तैसेही प्राकारमें छिद्र होय बहुतसो वैरीको भव होय ॥ ६४ ॥ निम्न इति ॥ कई नीचे देशमें वा वृक्षकी कोटरामें वा बंबेके छिद्रो वा पृथ्वीमें काकको घर बनो होय तो भयवृद्धि दोष, इनकरके और नियमकरके देश शून्य होयँ ॥ १५ ॥ . ॥ इति श्रीवसंतराजभाषाटीकायां काकरुते आलयप्रकरणम् ॥ Aho! Shrutgyanam Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८४) वसंतराजशाकुने द्वादशो वर्गः । ॥ अथ काकांडविचारः॥ एकं भवेद्वारणमग्निसंज्ञं द्वितीयकं मारुतजं तृतीयम् ॥ ऐंद्र तथा नामचतुर्थमेवमंडानि काक्याः परिकीर्तितानि ॥६६॥ काक्या भवेद्वारणमंडकं चेत्पृथ्वी तदा नंदति सर्वसस्यैः॥ मन्दः प्रवर्षोऽनलसंज्ञकेंडे नोप्तस्य बीजस्य भवेत्प्ररोहः ॥ ॥६७॥ जातानि सस्यानि समीरजेंडे खादंति कीटाः शलभाः शुकायाः ॥ क्षेमं सुभिक्षं सुखिता धरित्री स्यादिद्रजेंडेऽभिमता च सिद्धिः ॥ ६८॥ इति काकरुतेंडप्रकरणम् ॥ ३॥ ॥ टीका॥ ॥ अथकाकांडविचारः॥ एकमिति ॥ एकं वारुणं भवेत् द्वितीयकममिसंज्ञकं तृतीयं मारुतजं चतुर्थ नाम ऐन्द्रमेतानि काक्याः अंडानि परिकीर्तितानि ॥ ६६ ॥ काक्या इति ॥ वारुणमंडकं चेत्काक्या भवेत् तदा सर्वसस्यैः पृथ्वी नंदति अनलसंज्ञकेंडे मन्दः प्रवर्षों भवेत् तथोप्तस्य बीजस्य प्ररोहो न भवेत् ॥ ६७ ॥ जातानीति ॥ समीरजेंडे जातानि सस्यानि कीटाः शलभाः शकाद्याः खादंति इंद्रजेंडे क्षेमं सुखिता धरित्री स्यात् तथाभिमता च सिद्धिः स्यादित्यर्थः ॥ ६८॥ इति वसंतराजशाकुने काकरते अण्डप्रकरणं तृतीयम् ॥ ३ ॥ ॥ भाषा॥ ॥ अथ काकांडविचारः॥ ॥ एकमिति ॥ पहलो वारुणनाम १ दूसरो अग्निसंज्ञा २ तीसरो मारुतनाम ३ चौथो ऐंद्रनाम ४ ये काककी स्त्री कागली ताके अंडानके चार नाम कहेहैं ॥ ६६ ॥ काक्या इति ॥ जो कागली वारुण नाम अंडा धरै तो पृथ्वी सर्व अन्ननकरके आनंद करै और जो अग्निसंज्ञा नाम अंडा धरै तो मंदवर्षा होय और बीज बोयो होय ताको अंकुर नहीं प्रगट होय॥६७॥ जातानीति॥ जो कागली समीरज नाम अंडा धरै तो प्रगट हुये अन्नकू टीडी सूआ इनकू आदिले कीडा अन्न खाय जाय. और जो ऐंद्रनाम अंडाधरै तो क्षेम सुभिक्ष सर्वपृथ्वी सुखी होय. और तैसेही वांछित सिद्धि होय ।। ६८ ॥ इति वसंतराजभाषाटीकायां काकते. अंडप्रकरणम् ॥ ३ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते यात्राप्रकरणम् । (२८५) यात्रानिमित्तान्यथ कीर्तयामः सकृत्प्रजानांशकुनानि तानि॥ विज्ञाय यानि प्रजहात्यनर्थान्स्वार्थाश्च सर्वान्करुतेऽध्वनीनः ॥६९ ॥ भुंक्षे बलिं पक्षिषु मंत्रपूतं त्वं प्राणिषु प्राणिषि सर्वलक्ष ॥ गुप्ते निजां स्त्री भजसे नमोऽस्तु तुभ्यं खगेंद्राय सकृत्प्रजाय ॥ ७० ॥ विलोक्यकाकं विनिवेद्य तस्मै मंत्रेण पूजां दधिभक्तयुक्ताम् ॥ उदीर्य कार्य निजमध्वगेन विलोकनीयं शकुनं तदर्थम् ॥ ७१ ॥ वामेन शब्दं मधुरं विमुंचन्द्रजंश्च वामेन करोति काकः ॥ सर्वार्थसिद्धि पुनरागमं च शुभप्रवेशे तु तदन्यरूपः ॥ ७२ ॥ ॥ टीका ॥ यात्रानिमित्तानीति ॥ अथेति अंडनिरूपणानंतरं सकृत् प्रजानां यात्रानिमित्तानि तानि शकुनानि वयं कीर्तयामः यानि विज्ञाय अध्वनीनः अनर्थान् जहाति सर्वान्स्वार्थीश्च कुरुते ।। ६९ ॥ भुंक्षे इति ॥ त्वं पक्षिषु मंत्रपूत बलिं भुक्षे त्वं प्राणिषु सर्वलक्ष प्राणिषि गुप्ते स्थाने निजां स्त्री भजसे अतः तुभ्यं खगेंद्राय सकृत्मजाय नमोऽस्तु ॥ ७० ॥ विलोक्येति ॥ काकं विलोक्य तस्मै मंत्रण दधिभक्तयुक्तां पूजां विनिवेद्य निजं कार्यमुदीर्य अध्वगेन शकुनं विलोकनीय तदर्थस्वकार्यार्थमित्यर्थः ॥ ७१ ॥ वामेनेति ॥ वामेन शब्दं मधुरं विमुंचन व्रजंश्च वामेन काकः सर्वार्थसिद्धिं करोति ॥ पुनरागमं च तदन्यरूपः पूर्वस्माद्विपरीतः पुनः न ॥भाषा ॥ यात्रानिमित्तानीति ॥ अंडानको प्रकरण कहेपीछे अब प्रजानकू यात्राके निमित्त शकुन केहेहैं जिनशकुनानकू जानकरके मार्गके चलबेवारे मनुष्य अनर्थनकू दूर करें और स्वार्थकरें ॥१९॥ भले इति॥ हे काक तुमपक्षीनमें मन्त्रकर पवित्र हुयो बलि ताय भोगो हो. और तम प्राणीनमें लक्षवर्षपर्यंत रहोहो. और गुप्तस्थानमें अपनी स्त्रीकू सेवन करो हो याते पक्षीनमें तुझ इन्द्ररूपके अर्थ नमस्कार हो. और एकही सन्तान जाके होय ऐसे तुम ता तुम्हारे अर्थ नमस्कार हो ॥ ७० ॥ विलोक्येति ॥ काकळू देखकर फिर भातदहीसहित पूजा पूर्वमन्त्रकर निवेदनकरके निजकार्य कहकरके फिर अपने कार्यके अर्थ शकुन देखनो चाहिये ॥ ७१ ॥ वामेनेति ॥ काक वामभागमें मधुरवाणी; बोलतो हुयो वामभागमेंही गमन करे तो सर्वार्थ सिद्धि करै. फिर आगमन करे और पूर्वते विपरीत होय तो फिर शुभ ... Aho! Shrutgyanam Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८६) वसंतराजशाकुने द्वादशो वर्गः। प्रदक्षिणं यः प्रविधाय मागें वामेनकाको विनिवर्ततेऽसौ ॥ यातुः करोतीहितकार्यसिद्धिं क्षेमं च शीघ्रं पुनरागमं च ॥ ७३॥ वामः कलं रौत्यनुलोमयायीयो वायसोऽसौ सकलार्थसिद्धयै ॥ स्यातां क्रमादक्षिणवामशब्दो सिद्ध्यै विरुद्धयै विपरीतभावौ ॥ ७४ ॥ पृष्ठे विरावं मधुरं विमुचअनुव्रजंश्चाभिमतो हिताय ॥ प्रायेण यातारमनुव्रजन्तः सर्वेऽपि काकैः सदृशा विहंगाः॥७५॥कृतारवो यः पुरतः प्रयाति पुरःस्थितो यो मुदमादधाति ॥ कण्डूयते यश्चशिरोंऽघ्रिणासौ पुंसां सदाभीष्टफलं ददाति ॥ ७६॥ ॥ टीका ॥ शस्तः कथितः ॥ ७२ ॥ प्रदक्षिणामिति ॥ यः काकः प्रदक्षिणं प्रविधाय वामेन विनिवर्तते असौ यातुःगच्छतः पुंसः ईहितकार्यसिद्धि क्षेमं च शीघ्र पुनः आगमनं च करोति ॥ ७३ ॥ वाम इति ॥ यो वायसः वामः कलं रौति कीदृक् अनुलोमयायी सकलार्थसिद्धयै स्यात् कापिकलहायसिद्धयै स्यादिति पाठः तदा कलहाय कलहनिमित्तप्रश्ने सिद्धिःस्यादित्यर्थः।क्रमादिति दक्षिणवामशब्दौ सिद्धय विरुद्ध्यै चस्यातां विपरीतभावी ज्ञेयौ ।।७४॥ पृष्ठे इति ॥पृष्ठे मधुरं विराव विमुंचन अनुव. जंश्च हितायाभिमतः प्रायेण यातारमनुव्रजन्तःसर्वे विहंगाःकाकैः सदृशाःज्ञेया।। ॥७५॥ कृतारव इति।कृतारवो यः पुरतः प्रयाति पुरः स्थितः यो मुदमादधाति हर्षितो भवति शिरः अंघ्रिणा यः कंडूयतेऽसौ पुंसां सदाभीष्टफलं ददाति ॥७६॥ भाषा॥ नहीं करे ॥ ७२ ॥ प्रदक्षिणामिति ॥ जो काक मार्गमें प्रदक्षिण होय वामकर निवर्त होय तो गमन कर्ता पुरुषकं वांछित कार्यकी सिद्धि, क्षेम, और शीघ्र पीछे आगमन करे ॥ ७३ ॥ वाम इति ॥ जो काक वामभागमें मधुर बोले अनुलोमागमन करे तो सकलार्थसिद्धि होय. जो दक्षिण वाम दोनों शब्द सिद्धिके अर्थ हैं. और जो औरसं और हायतो विपरीत फल करै ॥ ७४ ॥ पृष्ठे इति ॥ जो पीठगछे मधुरशब्द बोले और गमन करतो बोले तो हितके अर्थ जाननो, और गमन कर्ताके पीछे गमन करे ऐसे संपूर्ण पक्षी काककी सदृश जानने ॥ ७९ ॥ कृतारव इति ॥ जो काक बोलतो हुयो अगाडी चल्यो जाय अथवा अगाडी स्थित होय हर्ष करे और पावकर मस्तक खुजावे तो पुरुषनकू सदा अभीष्टफल : Aho! Shrutgyanam Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते यात्राप्रकरणम् । (२८७) स्तंभे गजानांनियतं गजाप्तिं गजाधिरूढः पृथिवीपतित्वम्॥ तुरंगमे वाहनभूमिलाभं करोति काको विजयं ध्वजे च ॥ ७७ ॥ प्रनष्टलाभं विजयं च कूपे क्षिप्रं नदीरोधसि कार्यसिद्धिम् ।। पूर्णे घटेंडे च धनाप्तिवृद्धी ध्वांक्षोऽधिरूढः कुरुते सुशब्दः ॥ ७८ ॥प्रासादधान्योच्छ्यह→पृष्टिनिष्पनसस्यावनिशाइलादौ ॥ ध्वांक्षोऽधिरूढोधनसाधनाय रौति स्त्रियं यच्छति युग्मशब्दः ॥ ७९ ॥ ॥ टीका ॥ स्तंभ इति ॥ स्तंभे गजानां नियतं गजाप्ति गजाधिरूढः पृथिवीपतित्वमिति गजानां स्तंभे नियतं गजाप्तिः स्यात् गजेधिरूढः काकः पृथिवीपतित्वं करते तुरंगमे स्थितः काकः वाहनभूमिलाभं करोति ध्वजे स्थितः काकः विजयं करोति ॥७७॥ प्रनष्टेति ॥कूपे स्थितः प्रनष्टं लाभ विजयं च करोति नदीरोधसि स्थितः क्षिप्रं कार्यसिद्धिं करोति पूर्णे घटेंडे चाधिरूढो ध्वांक्षः सुशब्दःसन्धनाप्तिवृद्धी कुरुते ॥ ७८ ॥ प्रासादेति ॥ तत्र प्रासादो देवभूपानां गहन धान्योच्छ्यो धान्यराशिः हवें सामान्यगृहं पृष्ठिर्हस्त्यादीनां प्रसिद्धा निष्पन्नं सस्पं यस्यामवं विधावनिःशादलं बालतृणं आदिशब्दादन्येषां शुभवस्तूनां परिग्रहः एषु ध्वाक्षोऽधिरूढः धनसा ॥ भाषा ॥ देवे ॥ ७६ ॥ स्तंभे इति ॥ हाथीनके निसानके ऊपर बैठो होय तो निश्चय गजकी प्राप्ति होय. और गजपै बैठो होय तो पृथ्वीपति करे. और घोडापै बैंठो होय तो वाहन और भमिलाभ करै वजाप स्थित होय तो काक विजय करै ॥ ७७ ॥ प्रनष्टे इति ॥ कूपके ऊपर बैठो होय तो नष्ट हुयेको लाभ और विजय करै. और नदीके तटके ऊपर स्थित होय तो कार्यसिद्धि करे. और पूर्णकहिये भरो हुयो घटताके ऊपर वा अंडापै बैठो होय और सुन्दर शब्द करतो होय तो धनकी प्राप्ति और वृद्धि करै ॥ ७८ ॥ प्रासादति ॥ देवमंदिर, राजानके घर, धान्यकी राशि, सामान्य घर, हाथी, घोड़ादिकनकी पीठ अन्न जामें खूब भर रह्यो होय ऐसी पृथ्वी, छोटी घासकू आदिलेके और शुभवस्तुनपै काक बैठो होय तो धनके साधनके अर्थ जाननो. और जो युग्म बोल बोले ऐसो काक इनपै बैठो हुयो बोले Aho ! Shrutgyaņam Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८८) वसंतराजशाकुने द्वादशो वर्गः । पृष्ठे पुरो वा नवगोमयस्थो वादिषु क्षीरतरुष्वपीह ॥ स्थितो रुवन्भोजनपानमिष्टं विष्टां च कुर्वन्वितरत्यवश्यम् ।। ॥ ८० ॥ अन्नाद्यवर्चः फलमूलपुष्पमांसादिभिः पूर्णमुखः सदैव ॥ स्यादृष्टमात्रोऽभिमतार्थसिद्धयै मिष्टान्नभोज्याय मुदे च काकः ॥ ८१ ॥ नारीशिरःपूर्णघटस्थितस्य काकस्य शब्दैर्वनिताधनाप्तिः॥ शय्याधिरूढस्य तु तस्य शब्दैः समागमः स्यात्स्वजनेन सार्धम् ॥ ८२॥ गोपृष्ठतिरुगोमयेषु तुंडं विघर्षत्रवलोकितोऽग्रे॥ आहारमन्यस्य तथा ददानो ददाति भोज्यं बलिभुग्विचित्रम् ॥ ८३ ॥ ॥ टीका॥ धनाय भवति युग्मशब्दः यदा रौति तदा स्त्रियं यच्छति ॥ ७९ ॥ पृष्ठे इति ॥ पृष्ठे तथा पुरो नवगोमयस्थः वटादिषु क्षीरतरुषु इह स्थितो रुवन्भोजनपानमिष्टं वि तरति विष्ठां च कुर्वनवश्यमिति भावः॥ ८० ॥ अन्नाद्यवर्च इति ॥ अन्नाद्यवर्चः फलमूलपुष्पमांसादिभिः पूर्णमुखः काकः दृष्टमात्रः सदैवाभिमतार्थसिद्धयै स्यात् तथा मिष्टान्नभोज्याय मुदे च भवति ॥८१॥ नारीति ॥ नारीशिरःपूर्णघटस्थितस्य काकस्य शब्दैवनिताधनाप्तिः स्यात् शय्याधिरूढस्य तु तस्य शब्दैः स्वजनेन सार्ध समागमः स्यात् ॥ ८२ ॥ गोपृष्ठ इति ॥ गोपृष्ठदूर्वातरुगोमयेषु तुंड विघर्षनग्रे ॥भाषा ॥ तो स्त्रीप्राप्ति करै ॥ ७९ ॥ पृष्ठ इति ॥ पठि पीछे वा अगाडी नवीन गोबरपै बैठो होय वडक आदिले दूधवान् वृक्षपै स्थित होय बोले तो भोजनपान वांछित करै जो वीट करतो होय तो अवश्य भोजनादिक करै ॥ ८० ॥ अन्नाद्यवर्च इति ॥ अन्नादिक फल, मूल, पुष्प, मांसादिकनकरके मुख भरो होय तो काक दीखबे मात्रसूही वांछितसिद्धि करे और मिष्टान्नभोज्यपदार्थ हर्ष होय ॥ ८१ ॥ नारीति ॥ स्त्रीके मस्तकपै और भरे हुये घटपै जो काक स्थित होयकर बोले तो स्त्रीकी और धनकी प्राप्ति करे. और शय्याके ऊपर बैठके बोले तो आप्तजनोंसे समागम होय. ॥ ८२ ॥ गोपृष्ठति ॥ गौकी पीठकू आदिले पीठनपै दुर्वापै वृक्षपै गोवरपै बैठ चोंच घिसतो जाय अगाडी कू देख रह्यो होय और कू Aho! Shrutgyanam Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते यात्राप्रकरणम् । ( २८९ ) धान्यं पयो वा दधि वाप्यवाप्य विरौति पश्यन्निधिलाभकारी ॥ करोति लाभं पुरतः स दृष्टो यस्यास्ति वक्रे तृणमप्यशुष्कम् ॥ ८४ ॥ वृक्षेष रम्यांकुर पत्रपुष्पच्छायाफलाव्येषु सकृत्प्रजस्य ॥ शब्देन सिध्यंत्यसकृन्नराणां सदैव सर्वा • णि समीहितानि ॥ ८५ ॥ प्रशांतनादः शिखरे तरूणां स्त्रीसंगसौख्यं करटो विधत्ते ॥ धान्यादिकूटेषु तथान्नलाभं गोपृष्ठगो गोवनिताधनाप्तिम् ॥ ८६ ॥ क्षेमं विधत्ते करभस्य पृष्ठे खरस्य पृष्टेरिभयं वधं च ॥ क्रोडस्य पृष्ठे धनमर्थलाभं तस्यैव पृष्ठे नुलग्नके ॥ ८७ ॥ ॥ टीका ॥ ऽवलोकितः तथान्यस्याहारं ददानः बलिभुग्विचित्रं भोजनं ददाति ॥ ८३ ॥ धान्यामिति ॥ धान्यं पयो वा दाधे वाप्यवाप्य विरौति पश्यन्वा विरौति स निधिलाभकारी स्यात् यस्य वत्र अशुष्कं तृणमस्ति स पुरतः दृष्टः सल्लाभं करोति ॥ ८४ ॥ वृक्षोष्विति ॥ रम्यांकर पत्रपुष्पच्छायाफलाढयेषु स्थितस्य सकृत्प्रजस्य काकस्य शब्दन नराणामसकृत्पुनःपुनः सदैव सर्वाणि समीहितानि सेध्यन्तिः ॥ ८५ ॥ प्रशांतनाद इति ॥ तरूणां शिखरे स्थितः प्रशांतशब्दः करटः स्त्रीसंगसौख्यं विधत्ते तथा धान्यादिकूटस्थः अन्नलाभं करोति तथा गोपृष्ठगः गोवनिताधनाप्तिं धेनुस्त्रीद्रव्याणां प्राप्तिं विधत्ते || ८६ ॥ क्षेममिति ॥ तथा करभस्य उष्ट्रस्य पष्ठे स्थितः ॥ भाषा ॥ आहार देवे तो काक चित्रविचित्र भोज्यपदार्थ देवे ॥ ८३ ॥ धान्यमिति ॥ धान्य, दूध, दही इनपे बैठकर बोलतो जाय और देखतो जाय तो धनकी प्राप्तिकरै, और जो काकके मुखमें विना सूखो तृण होय और अगाडीकूं देखतो होय तो लाभ करै ॥ ८४ ॥ वृक्षेष्विति ॥ मनोहर अंकुर, पत्र, पुष्प, छाया, फल, इनकर युक्त वृक्षनमें काक बोल तो मनुष्यनके सर्व कार्य वांछित सिद्ध होयँ ॥ ॥ प्रशांतंनाद इति ॥ वृक्षनके ऊपर काक शांत शब्द बोलै तो स्त्रीसंग सौख्य करे. और धान्यादिकनके समूह में प्रशांतशब्द बोलै तो अन्नलाभ करें. और गौकी पीठपे शांत बोलै तो त्रधिन इनकी प्राप्ति होय ॥ ८६ ॥ क्षेममिति ॥ ऊंटकी पीठपै शांत बोलै तो क्षेमकरै. खरकी पीठपै शांत बोले तो ८५ १९ Aho! Shrutgyanam Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९०) वसंतराजशाकुने-द्वादशो वर्गः। सद्यो ज्वरं सौरभपृष्ठसंस्थो मृतांगसंस्थो मरणं करोति ॥ कार्यक्षति रिक्तघटाश्मसंस्थः काकः कलिं काष्ठमधिष्ठित श्व ॥८८॥ यो दक्षिणं कूजति दक्षिणेन प्रयाति यश्चा• भिमुखोऽभ्युपैति ॥ प्रयाति पृष्ठे प्रतिलोमगत्या कृतारवः पातयते स रक्तम् ॥ ८९ ॥ वामो खो दक्षिणतस्ततः स्यादनर्थहेतुर्बलिभोजनस्य ॥ वामप्रदेशे प्रतिलोमयानं विनाय लाभो गृह एव तेन ॥ ९० ॥ प्रयाति पृष्ठे यदि दक्षिणेन कृतारवस्तद्रुधिरश्रतिः स्यात् ॥ वल्लीवरत्रादि च यो गृहात्वा प्रदक्षिणं याति स सर्पभीत्यै ॥ ९१॥ ॥टीका ॥ भेमं विधत्ते खरस्य पृष्ठे स्थितः अरिभयं बंधं च करोति क्रोडस्य सूकरस्य पृष्ठे स्थितः धनमर्थलाभं च करोति अनलग्नपंके सकर्दमे तस्यैव पृष्ठे स्थितः काकःसयो ज्वरं कुरुत॥ ८७ ॥ सद्य इति।सौरभपृष्ठसंस्थः मृतांगसंस्थश्च काकः मरणं करोति रिक्तघटाश्मसंस्थः रिक्तघटस्थोऽश्मस्थश्च कार्यक्षति कार्यनाशं करोति तथा काष्ठमधिश्रितः काकः कलिं करोति ॥८८॥ य इति ॥ यः काकः दक्षिणं कूजति दक्षिणेन प्रयाति यश्चाभिमुखोऽभ्युपैति कृतारवः सन्प्रतिलोमगत्या पृष्ठे प्रयाति स रक्तं पातयति ॥ ८९॥ वाम इति।बिलिभोजनस्य पूर्व वामः ततः दक्षिणतः यो रवः स्यात्स अनर्थहेतुर्भवति तथा वामप्रदेशे प्रतिलोमयानं विनाय स्यात् अतः तेन गृहे एव लाभः स्यात् ॥ ९० ॥प्रयातीति ॥ यदि दक्षिणेन कृतारवः पृष्ठे प्रयाति ॥भाषा॥ धनअर्थ लाभ करे. और कीच जाके लगो हुयो होय ता शूकरकी पीठपै स्थितकाक तत्काल वर करै ॥ ८७ ॥ सद्य इति॥ बैलकी पीठौं बैठा काक तत्काल ज्वर करें है, और मरेके अंगपै बेठो काक मरण करै और रीते घडापै पाषाणपै बैठो काक कार्य क्षति करे. और काष्टपै बैठो काक कलह करावे ।। ८८ ॥ य इति जो काक दक्षिणमाऊं शब्द कर और दक्षिणमाऊं गमन करे और पीछे सम्मुख आवे और सम्मुख वोल फिर प्रतिलोमगतिकरके पीठपीछे चलो जाय तो वो रक्तपात करै।। ८९ ॥ वाम इति ॥ बलिभोजन कर्ता काकको वामरव प्रथम होय फिर दक्षिण बोले तो अनर्थको हेतु होय. और वामप्रदेशमें प्रतिलोम गमन करे तो विघ्नके अर्थ होय. और ता करके घरमेंही लाभ होय ॥९० ॥ प्रयातीति Aho! Shrutgyanam Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते यात्राप्रकरणम् । ( २९१ ) गोपुच्छवल्मीककृतास्पदश्च रुवन्भवेत्सर्पविलोकनाय ॥ स्यामृत्यवेंगारचितास्थिसंस्थः काकः प्रकुर्वन्कचकर्षणं च ॥ ॥ ९२ ॥ रुवन्पुरो हानिरुजौ करोति मृत्युं पुनर्निष्ठुरपृष्ठशदः ॥ प्रसार्य रिक्तं वदनं य आस्ते सर्वत्र निद्यो बलिभोजनोऽसौ ॥ ९३ ॥ वामोऽप्यसृक्पातभयं मृतिं वा संताडयन्नीरसदारुखंडम् || चंच्वास्थि भंजन्धुवमस्थिभंगं बंधं वधं जल्पति युध्यमानः॥ ९४ ॥ वामोऽतिरोगं कुरुते विशष्के तिक्ते च वृक्षे कलिकार्यनाशौ ॥ पक्षौ विधुन्वन्विरुवन्स रूक्षं सकंटके मृत्युमुपादधाति ॥ ९५ ॥ ॥ टीका ॥ तर्हि रुधिरश्रुतिः रुधिरवार्ताश्रवणं स्यात् तथा यः काकः वल्लीवरत्रादि गृहीत्वा प्रदक्षिणं याति स सर्पभीत्यै स्यात् ॥ ९१ ॥ गोपुच्छेति ॥ गोपुच्छवल्मीककृतास्पद रुवञ्शब्दायमानः सः सर्पविलोकनाय स्यात् तथा अंगारचितास्थिसंस्थःकच कर्षणं च प्रकुर्वन्काको मृत्यवे स्यात् ॥ ९२ ॥ रुवन्निति । काकः पुरो रुवन्हानिरुजौ करोति निष्ठुरपृष्ठशब्दः पुनः मृत्युं करोति यश्च रिक्तं वदनं प्रसार्य आस्तेऽसौ बलिभोजनः सर्वत्र निद्यः स्यात् ॥ ९३ ॥ वाम इति । नरिसदारुखंडं संताडयन् काकः वामोsपि असृक्पातभयं मृर्ति वा कुरुते चंच्वा अस्थि भंजन्धुवं निश्वयेनास्थि भंगं वक्ति तथा युध्यमानो बंधं वधं जल्पति ॥ ९४ ॥ वाम इति ॥ वामः काकः ॥ भाषा ॥ जो काफ दक्षिणमाऊं बोलकर पीठपीछे चलो जाय तो रुधिरकी वार्ता सुने. जो लता जेवडी मुखमें लेके जेमने माऊं आवे तो सर्पको भय करे ॥ ९१ ॥ गोपुच्छेति ॥ गौकी पूंछ और सर्पकी बंबे इनपे बैठके बोलै सो सर्पको दर्शन होय और अंगार चिताहाड इनपे बैठो होय और केश खैचरह्यौ होय तो मृत्यु होय ॥ ९२ ॥ रुवन्निति ॥ जो काक अगाडी बोले तो हानि रोग करें. फिर पीठमाऊं कठोर शब्द करे तो मृत्यु करे. जो खाली मोढो फैलायकर बैठो होय तो काक सदा निंदित हैं ॥ ९३ ॥ वाम इति ॥ सूखे काष्टके टूककूं ताडना करे चोचसूं और वामभागमें भी होय तो रुधिरपातको भय और मृति करे - और चोंचकर हाडकूं उखाड पछाड करतो होय तो हाडको भंग और बन्धन कहे हैं. और युद्ध करतो होय काक तो वध करै ॥ ९४ ॥ वाम इति ॥ वामभागमें शुष्कवृक्षपै बैठो Aho! Shrutgyanam Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९२) वसंतराजशाकुने-द्वादशो वर्गः। बन्धो भवभूरुहि भनशाखे बन्धो लताभिः परिवेष्टिते स्यात् ॥ रम्ये तरौ कंटकिवृक्षयुक्ते सदा भवेतां कलिकार्यसिद्वी ॥ ९६॥ छत्राधिरूढे सरवे नयायात्प्रयाति चेत्स्यात्खलु वज्रपातः ॥ अवस्करांभस्तृणकाष्ठकूटभस्मादिसंस्थो विनिहन्ति कार्यम्॥ ९७॥ युग्मम् ॥ वल्लीवरचाकचशुष्ककाष्ठचर्मास्थिजीर्णाबरवल्कलानि||अंगाररक्तोल्मुककपराणि दृष्टानि चेत्काकमुखे तदानीम् ॥९८॥ ॥ टीका ॥ विशुष्क वृक्षे स्थितः अतिरोगं कुरुते तिक्ते च वृक्षे स्थितः कलिकार्यनाशौ तथा सकंटके वृक्षे स्थितः पक्षौ विधुन्वन्रूक्षं विरुवन्मृत्युमुपादधांति ॥ ९५॥ बंध इति भमशाखे भरुहि काके स्थिते बंधो भवेत् तथा लताभिः परिवेष्टिते भूरुहि काके स्थिते बंध एव स्यात् कंटवृक्षयुक्ते सकंटकवृक्षण युक्ते रम्ये तरौ स्थिते कलिकार्यसिद्धी स्याताम् ॥९६॥ छत्राधिरूढ इति ॥ सरवे काके छत्राधिरूढे सति न यायात् चेत्प्रयाति तदा खलु निश्चयन वज्रपातः स्यात् अवस्करांभस्तृणकाष्ठकूटभस्मा दिसंस्थ इति तत्रावस्करः ऊकरडो इति लोके प्रसिद्धः अंभः पानीयं तृणानि प्रतीतानि काष्ठं प्रतीत:कूटं यूपादिभस्म प्रतीतम् आदिशब्दादन्येषां निंद्यवस्तूनां परिग्रहैं: तत्र संस्थः काकः कार्यविनिहति९७युग्मंगवलीति पुण्यक्षय इति चचिकाकमुखे एतानि दृष्टानि भवति तदानीं पुण्यक्षयःपापसमागमश्च तथा महाभयं रोगसमुद्भवश्च भाषा। होय तो अतिरोग करे और खाली वा तीखे वृक्षपै बैठो होय तो कलह और कार्यको नाश करै. और जो कांटेके वृक्षपै बैठकर पंखनकू कंपायमान करत रूखो शब्द बोले तो मृत्यु करें. ॥ ९५ ॥ बन्ध इति ॥ भग्नशाखा जा वृक्षकी ताऐं बैठो होय तो बन्धन करे. और लतानकर वेष्टितवक्षपै बैठो होय तो बंधन करे. और कांटेनकर युक्त सुन्दरवक्षपै बैटो होय तो कलह और कार्यकी सिद्धि करै. ॥ ९६ ॥ छत्र इति ॥ छत्रपै बैठकर बोले काक तो यात्रागमन न करै जो गमन करे तो निश्चयकर बन्नपात होय. और कडेकजोडे पटकवेकी ठोरपे बा जलपे वा तृणकाष्ठके समूहपै वा भस्म वा और कोई निंदित वस्तुपै बैठके वोले तो कार्यकू नाश करे :॥ ९७ ॥ युग्मम् ॥ वल्लीति ॥ पुण्यक्षय इति च ॥ लता, वेलरी, जेबडी, केश,सूखो काष्ठ, चाम हाड, फटो पुराणो कपडा, वल्कल, अंगारकांच का Aho? Shrutgyanam Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते यात्राप्रकरणम् । (२९३) पुण्यक्षयः पापसमागमश्च महाभयं रोगसमुद्भवश्च ॥ बन्धो. र्वधः सर्वधनापहार इत्यादिकं स्यात्पथि मंदिरे वा॥९९॥ . उनिनश्चंचलपक्षयुग्मः काकः कुनादो विदधाति मृत्युम् ॥ छायायुधच्छवघटास्थियानवादित्रकाष्टादिककुट्टनाच ॥१०० ॥ आकुंचितैकांघ्रिरपेतचित्तो दीप्तस्वरा भास्करमीते च ॥ काष्ठादिकं कुट्टयतीह यो वा युद्धादिकानर्थकरः खगोऽसौ ॥ १०१॥ ॥टीका॥ बंधोधःसर्वधनापहार इत्यादिकंदुष्टफलं पथि मंदिरेवास्यात् एतानि कानीत्यपेक्षायामाह वल्लीति वल्ली वीरुद्धरत्रा चर्मरज्जुः कचा केशा शुष्ककाष्ठंप्रतीतं चर्म प्रतीतं अस्थि शरीरावयःजीर्णावरं जीर्णवासः वल्कलानिवृक्षत्वचःअंगारः:प्रतीतः रक्तंप्र. सिद्धमुल्मुकम् अंचु आमुड इति प्रसिद्ध:कपूर पूर्वोक्तम् एतानि॥९८॥९९॥उर्द्धानन इति। ऊनिनःचंचलपक्षयुग्म कुनादः काकःमृत्युं विदधातिछायायुधच्छत्रपटास्थियानवादित्रकाष्ठादिककुट्टनाच्चति तत्र च्छाया प्रतीता आयुधं प्रहरणं छत्रमातपवारणं घटः कुंभः अस्थि पूर्वोक्तं यानं वाहनं वादिवं तूर्य काष्ठं प्रसिद्धमादिशब्दादन्येषां परिग्रहः एतेषां चंच्या कुट्टनात्प्रहारदानान्मृत्युं विदधाति इत्यर्थः ॥१०॥ आकुंचितेति॥आकुंचित एकोविर्येन स तथा अपेतचित्त इति अपेतं चंचलं चित्तं यस्य स तथा दीप्तस्वर इति दीप्तः स्वरो यस्य स तथा तथा यः भास्करमीक्षते तथा यः काष्ठादिकं कुट्टयति सोऽसौ खगः युद्धादिकानर्थकरः स्यात् ।। १०१ ॥ ॥ भाषा॥ रुधिरयुक्तवस्तु, जलती लकडी, खोपडीको टूक इतनी वस्तु जो काककेर मुखमें दीखें तो पुण्यको क्षय और पापको समागम और महाभय रोगकी उत्पत्ति बंधुको वध और सर्वधनको हरण ये सब मार्गमें वा घरमें होय ॥ ९८ ॥ ९९ ॥ ऊर्कीनन इति ॥ ऊपर• मुख करे होय चंचल दोनों माऊकी पंख जाकी होय कुनाद करतो होय तो काक मृत्यु करे. छाया, आयुध, छत्र, घडा, हाड, वाहन, बाजो, काष्ठ और भी इनकू चोंचकर कूटै वा प्रहार करे तो भत्यु करे ॥ १०० ॥ आकुंचितेति ॥ एक पांव जाने समेट लियो होय और चंचलचित्त जाको होय दीप्तस्वर होय और सूर्यकू देखतो होय और काष्ठादिकन... कूटतो होय तो काक युद्धादिक अनर्थ करै ॥ १०१ ॥ तुंडेनेति ॥ मुखकरके पूंछकू Aho ! Shrutgyanam Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९४ ) वसंतराजशाकुने - द्वादशो वर्गः ॥ तुंडेन पुच्छं विलिखन्स्वरेण तीव्रेण यो रौति निरीक्षतेऽर्कम् ॥ एकेन पादेन तथोपविष्टो ब्रूते स बन्धं पुरतो जनस्य ॥१०२॥ विड्गोमये न्यस्यति यस्य मूर्ध्नि तस्यातुलत्रास रुजौ भवेताम् ॥ यस्यास्थिखंडं विसृजत्यसौ तु प्रयाति तृर्ण नगरों यमस्य ॥ १०३ ॥ त्रह्मप्रदेशे विरुवन्यियासोः कलत्रदोषं जनयत्यवश्यम् ॥ मनुष्यमातंगतुरंगमाणां शिरोऽधिरूढो निधनाय तेषाम् ॥ १०४ ॥ नदीतटे वाथ रटन्नटव्यां खरस्वरैर्व्याघ्रभयाय गंतुः ॥ नैवातुरः क्वापि मतो हिताय न हृष्टचेष्टः क्वचिदेव दुष्टः ॥ १०५ ॥ ॥ टीका ॥ तुंडनेति ॥ तुंडेन मुखेन पुच्छं विलिखस्तीत्रेण स्वरेण यो रौति पुनरर्के निरीक्षते तथा एकेन पादेन उपविष्टः स पुरतो जनस्य बन्धे ब्रूते ॥ १०२ ॥ विड्गोमये इति ॥ काकः यस्य मूर्ध्नि विड्गोमये न्यस्यति तस्य अतुलत्रासरुजौ अनुपमत्रासरोगी भवतां तथा यस्य मूर्ध्नि अस्थिखंडं विसृजति असौ नरः यमस्य नगरी तूर्ण प्रयाति मृत्युं प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ १०३ ॥ ब्रह्मेति ॥ यियासोतुमिच्छार्नरस्य ब्रह्मप्रदेशे मस्तक पर आकाशे विरुवन्काकः अवश्यं कलत्रदोषं जनयति तथा मनुष्यमातंगतुरंगमानां शिरोऽधिरूढः तेषां मनुष्यादीनां निधनाय भवति ॥ १०४ ॥ नंदीति ॥ नदीतटे अटव्यां वा खरस्वरै रटन्काकः गंतुः व्याघ्रभयाय भवति तथा क्वापि यत्र कुत्रापि आतुरः काकः तुर्हिताय न मतः अपि च हृष्टचेष्टः क्वचिदेव क्वचिदपि न ॥ भाषा ॥ ताडन करे और तीस्वर करके बोले फिर सूर्यकूं देखतो होय और एक पांवकर बैठो होय तो अगाडीते अगाडी काऊ जनको बंधन करे ॥ १०२ ॥ विड्गोमये इति ॥ जाके मस्तकपै काक विट् गोबर पटक देवे तो वा पुरुषकूं बहुत त्रास और रोग होय. और जाके मस्तकपै हाडको टूक पटक देवे तो वो पुरुष शीघ्र ही मृत्युकूं प्राप्त होय ॥ १०३ ॥ ॥ ब्रह्मेति ॥ गमनकर्त्ता के मस्तक के ऊपर आय आकशमें स्थित होय बोले तो स्त्री दोष प्रगट करे. और मनुष्य, हाथी, घोडा इनके मस्तकपे बैठे तो इनके ही नाशके अर्थ होय ॥ १०४ ॥ नदीति ॥ नदी के तटपे वा मार्ग में काक तीव्रस्वर बोले तो गंता पुरुषकूं. व्याघ्रको भय होय और जो आतुर पुरुष होय तो कदापि हित नहीं होय ॥ १०९ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरते यात्राप्रकरणम् । ( २९५) यात्रोद्यमे सैन्यवधाय काको दृष्टो रथेभाश्वनृमस्तकेषु ॥ आयाति यस्याभिमुखो बलस्य युद्धोद्यमे तस्य पराजयः स्यात् ॥ १०६॥ सगृध्रकंकैः कटके नृपस्य काकैः प्रविष्टैः पिशितं विनापि ॥ संयुध्यमानैररिभिः समं स्यान्महाहवः संधिरयुध्यमानैः ॥१०७॥ चिह्नध्वजच्छत्रकृताधिरोहः समु. द्यतं शत्रुबलं प्रपश्यन् ॥ आजौ जयं जल्पति भूमिपानां कृतध्वनिःक्षीरतरौ च काकः ॥ १०८॥ गतिस्वरौ वायससंप्रयुक्तौ प्राच्यां फलायोदितवैपरीत्यात् ॥ एवं जनोऽप्याचरति प्रभूतो यथोदितं तत्र तथागमार्थः॥ १०९ ॥ ॥ टीका ॥ दुष्टः॥ १०५॥ यात्रोद्यम इति ॥ यात्रोद्यमे युद्धप्रयाणोद्यमे रथेभाश्वनृमस्तके काकः दृष्टश्चेत्सैन्यवधाय भवति तथा यस्य बलस्याभिमुख आयाति तस्य युद्धोद्यमे पराजयः स्यात् ॥ १०६ ॥ सगृध्रकंकैरिति ।। सगृध्रकंकैकाकैर्नृपस्य कटकेपि. शितं विनापि मांसं विनापि प्रविष्टैः सगृध्रककैः काकै सद्भिःसंयुध्यमानैः अरिभिः समंमहाहवःस्यात् तथायुध्यमानैस्तैररिभिःसंधिःस्यादित्यर्थः॥१०७॥ चिह्नति ॥ चिह्नध्वजच्छत्रोत तत्र चिहं शस्त्रादिध्वजःप्रतीत छत्रमातपवारणम् एतेषु कृतः अधिरोहो येन स तथा एवंविधः काकः समुद्यतं शत्रुवलं प्रपश्यन्भूमिपानामाजौ युद्ध जयं जल्पति तथा क्षीरतरौ कृतध्वनिर्जय वक्ति ॥ १०८ ॥ गतिस्वराविति ॥ वायससंप्रयुक्तौ काकरितो गतिखरौ प्राच्यां दिशि उदितवैपरीत्यात्फलाय भवतः तत्र यथागमार्थस्तथोदितं प्रभूतोऽपि सर्वोऽपि जनः एवमाचरतीत्यर्थः ॥ १.९॥ ॥ भाषा ॥ यात्रोद्यम इति ॥ यात्राके उद्यममें जो काक रथ, हाथी, घोडा, मनुष्य इनके मस्तकनपै बैठो दीखे तो सेनाको वध होय. और जा सेनाके सम्मुख काक आवे तो ताको युद्धमें पराजय होय ॥ १९६ ॥ सगृध्रकंकैरिति ॥ राजाकी सेनामें मांस विना गीध, कंक, काक ये प्रवेश करें तो युद्धकर रहे वैरीनकरके महान् संग्राम होय. और जो युद्ध न करते होय तो मिलापहोय जाय ॥ १०७ ॥ चिह्नति ॥ शस्त्रादिक, ध्वजा, छत्र इनपै बैठो होय उद्यत हुई शत्रुन्नकी सेना माऊकू देखतो होय तो राजानकं जय कहै है. और दूधके वृक्ष वटादिकनपै बोलै तो जय होय ॥ १०८ ॥ गतिस्वराविति ॥ पूर्व दिशामें काककी Aho ! Shrutgyanam Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६) वसंतराजशाकुने-द्वादशो वर्गः। दिग्यामचक्रेऽपि शुभाशुभानि फलानि यानि प्रतिपादितानि॥ प्रतिष्ठमानस्य तथाविधानि भवंति तानीह वदंति संतः॥११०॥ इति काकरुते यात्राप्रकरणम् ॥४॥ स्थानस्थितानां कथयति काकाश्चेष्टाविशेषेण शुभाशुभानि॥ प्रचोदिताः प्राक्तनकर्मभिर्ये तल्लक्षणाय क्रियतेऽत्र यत्नः ॥ ॥११॥ निष्कारणं संमिलिता रुवन्तो ग्रामात्रनाशाय भवंति काकाः ॥रोधं च चक्राकृतयो वदन्ति सव्यापसव्यभ्रमणाद्भयं च ॥ ११२॥ ॥ टीका ॥ दिग्यामेति ॥ दिग्यामे चक्रे तु यानि शुभाशुभानि फलानि प्रतिपादितानि तानि इह एतच्छास्त्रे प्रतिष्ठमानस्य विश्वासकर्तुः तथाविधान्येव भवंतीति संतः वदंतीति तात्पर्यार्थः ॥ ११०॥ इति वसंतराजटीकायां काकरुते यात्राप्रकरणम् ॥ ४॥ स्थानति ॥ ये काकाः प्राक्तनकर्मभिः प्रचोदिताः संतः चेष्टाविशेषेण स्थानस्थितानां ग्रामाघेकस्थानस्थितानां बहुजनानां शुभाशुभानि कथयति तल्लक्षणाय तज्ज्ञानाय अत्र यत्नः क्रियते ॥ १११ ॥ निष्कारणमिति ॥ निष्कारणं कारणव्यतिरेकेण मिलिता रुवंतः काकाः ग्रामाननाशाय भवंति चक्राकृतयो रोधं वदंति ॥ भाषा॥ गति स्वर पहले कह्यो ये उनसे विपरीत होय तो फलके अर्थ जाननो ॥ १०९ ॥ दिग्यामेति ॥ दिग्याम चक्रमें जे शुभ अशुभ फल कहे हैं तेसेही ते फल होंय हैं शास्त्रज्ञ या प्रकार कहै हैं ॥ ११०॥ इति वसंतराजभाषाटीकायां काकरुते यात्राप्रकरणम् ॥ ४॥ स्थानेति ॥ जो काक पूर्वजन्मके कर्मनकरके प्रेरे हुये अपनी चेष्टा करके स्थानपै बैठे हुये पुरुषनर्ले शुभ अशुभ करें हैं ताके जानवेके अर्थ प्रयत्न करनो ॥ ४११ ॥ निष्कारंणामिति ॥ जो काक निष्कारण मिले हुये बोलें तो ग्राम, अन्न इनको नाश करें. जो चक्र सरीखा गोल आकृतिवाले होंय तो निरोध करें. आर जेमनो बायो भ्रमण करतो होय तो Aho! Shrutgyanam Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते स्थानस्थितप्रकरणम्। (२९७) विघातमाहुर्बहुवर्गसंस्था रात्रौ रुवंतो जनताविनाशम् ॥ लोकं च चंचूचरणप्रहारैरुद्वेजयंतः परचक्रवृद्धिम् ॥ ११३॥ यः स्नाति धूल्यांबु विलोक्य रौति वृष्टिं समाशंसति वायसोऽसौ ॥ जलस्थलप्राणविपर्ययेण वर्षासु वृष्टिर्भयमन्यदा तु॥ ११४॥ मध्यंदिने वेश्मनि यस्य काको विरौति रौद्रं विधुनोति चांगम् ॥ हरंति चौरा द्रविणानि तस्य ध्रुवं तथान्यो भवति प्रमादः ॥ ११५॥ रुवनदृष्टस्तृणपर्णवको हुताशभीति करटः करोति ॥ स्यात्प्रस्थितस्याप्यथवा स्थितस्य दुःखं प्रभूतं दिवसत्रयेण ॥११६॥ ॥टीका ॥ सव्यापसव्यं भ्रमणाद्भयं वदति ॥ ११२ ॥ विघातमिति ॥ बहुवर्गसंस्थाः वि. घात विनाशमाहुः बहव एकीभूता इत्यर्थः रात्रौ रुवंतो जनताविनाशं जनसमूहनाशमाहुः चंचूचरणप्रहारैः लोकमुद्देजयंतो दुःखदातारः परचक्रवृद्धिमाहुः११३॥ य इति ॥ यःधूल्या रजसा स्नाति अंबु विलोक्य रौति असौ वायसः वृष्टिं समाशंसति जलस्थलमाणविपर्ययेण सुवृष्टिभवति अन्यदा तु भयं भवति ॥११शामध्यमिति ॥ यस्य वेश्मनि मध्यदिने काकः रौद्रं विरौति अंगं विधुनोति च तस्य चौरा द्रविणानि हरंति तथा ध्रुवमन्यः प्रमादोऽनर्थः स्यात् ॥ ११५ ॥ रुवनिति॥ तृणपर्णवक्रः रुवनदृष्टः करटः हुताशभीतिं करोति तथाविधे करटे प्रस्थितस्य वा ॥ भाषा॥ भय कहैहै ॥ ११२ ॥ विघातमिति ॥ वहुतसे इकट्ठे होयँ तो विघात करें. और रात्रिमें बोले तो जनसमूहको नाश करै. और चोंच और चरण इनको प्रहार करतो होय तो लोककू उद्वेग करै, और शत्रुनकी सेनानकी वृद्धि करै ॥ ११३॥ य इति ॥ जो काक धूलमें स्नानकरै जलंकू देखकर शब्द करे तो वृष्टि करे. और जल स्थल प्राण इनकी विपरीतता करके अर्धात् जलमें न्हाय करके थलमें देखके शब्द करै तो सुवृष्टि होय. और प्रकार भय होय ॥ ११४ ॥ मध्यामिति ॥ जाके घरमें मध्याह्न समयमें काक रौद्रशब्द करै अंगकू कंपायमान करे तो ता पुरुषके चौर धन हरण करें. तैसेही प्रमाद होय ॥ ११५ ।। ॥ रुवनिति ॥ तृण, पतोआ ये मुखमें होय तो काक अग्निकी भीति करै, जो प्रस्थानकरके चल्यो होय वा कहूं स्थित होय ता पुरुषकू तीन दिवसमें बहुत दुःख होय Aho ! Shrutgyanam Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९८ ) वसंतराजशाकुने - द्वादशो वर्गः । छायासु लाभं भुवि भूमिलाभं विघ्नं जले ग्रावणि कार्यनाशम् ॥ करोति काको विरुवन्नरस्य प्रस्थायिनः स्थानगतस्य वापि ॥ ११७ ॥ द्वारप्रदेशे रुधिरानुलिप्तो विरौति काकः शिशुनाशनाय || पक्षौ विधुन्वन्विरुवन्विरूक्षं शान्ते प्रदीप्ते च भवेन्न शस्तः ॥ ११८ ॥ भ्रमन्नयोर्ध्वो प्रविधाय पक्षी काकः कुनादः प्रलयं करोति ॥ क्रुद्धोऽधिरूढः करटांतरं च रोगेण मृत्युं कुरुते नराणाम् ॥ ११९ ॥ द्रव्ये हृते चापहृते खगेन विनाशलाभावपि तादृशस्य ॥ रुक्मस्य पीते रजतस्य शुक्ले चैलस्य कार्पासमये भवेताम् ॥१२०॥ ॥ टीका ॥ स्थितस्यापि जनस्य दिवसत्रयेण प्रभूतं विपुलं दुःखं स्यात् ॥ ११६ ॥ छायेति ॥ प्रस्थायिनः स्थानस्थितस्य वापि नरस्य काकः छायासु विरुवल्लाभं भुवि विरुवन्भू मिलाभं जले विरुवन्विघ्नं ग्रावणि विरुवन्कार्यनाशं करोति ॥ ११७ ॥ द्वार इति ॥ afrigलिप्तः arat द्वारमदेशे यदा विरौति तदा स शिशुनाशनाय स्यात पक्षी विधुन्वन् विरूक्षं विरुवन्काकः शांते प्रदीप्ते च दिग्विभागे शस्तो न भवेत् ॥ ११८ ॥ भ्रमन्निति ॥ पक्षौ ऊद्ध प्रविधाय काकः कुनादः भ्रमन्प्रलयं करोति तथा क्रुद्धः सन्करटांतर मधिरूढश्चेन्नराणां रोगेण मृत्युं करोति ॥ ११९॥ द्रव्य इति ॥ खगेन हृते द्रव्ये अपहृते त्यक्ते च सति तादृशस्य वस्तुनः विनाशलाभावपि भवेताम ॥ भाषा ॥ ॥ ११६ ॥ छायेति ॥ गमनकर्ताकूं वा स्थान में बैठो होय ताकूँ जो काक छाया में शब्द करे तो लाभ करे. और पृथ्वी में बोले तो भूमिको लाभ करे. जलमें करे तो : विघ्न होय. और पाषाणपे बैठकरके बोले तो कार्यको नाश करे !! ११७ ॥ द्वार इति ॥ जो काक रुधिर करके लिप्त होय द्वारमें जो बोलै तो बालकके नाशके अर्थ होय. और जो पंखनकूं कंपायमान करत रुखो बोले शांतदिशा में वा दीप्तदिशा में तो शुभ नहीं " ११८ ॥ ॥ भ्रमन्निति ॥ पंखनकूं ऊपर कर काक कुनाद करत भ्रमतो हुयो प्रलय करे. और काक क्रुद्ध होय दूसरे काकपे चढजाय तो मनुष्यनकूं रोगकरके मृत्यु करे ॥ ११९ हरण कर ले जाय वा पटक जाय तो द्रव्येति ॥ जो काक द्रव्य लाभ होय. पीत वस्तु होय वैसी वस्तुको विनाश होय तो रजतको तो सुवर्णको लाभ होय और शुक्लत्रस्तु Aho! Shrutgyanam Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते स्थानस्थितप्रकरणम् । ( २९९ ) प्रश्ने कृते रोगविनाशबुद्धया हंत्याशु रोगं सुरवः प्रदीप्ते ॥ शांतप्रदेशे करटश्विरेण रम्यारो रोगमपाकरोति ॥१२१॥ प्रश्ने शुभे शांतदिगाश्रयस्थः शांतस्वरो वस्तु शुभं दधानः ॥ यो वासस्तं शुभदं वदति तद्व्यत्यये व्यत्ययहेतुरुक्तः ॥ ॥ १२२ ॥ विरौति कुम्भे मणिकेऽथ वायसः स गर्भवत्याः सुतजन्महेतुः ॥ उड्डीयते कंटकिनीं च शाखामादाय राजागमनाय काकः ॥ १२३ ॥ अन्नाज्यविष्ठापिशितादिभिर्यः पूर्णाननोऽभीष्टफलप्रदोऽसौ || मन्त्रादिसिद्धयै वणिजादिलाभे शस्तो विवाहादिविधौ च काकः || १२४ ॥ ॥ टीका ॥ पीते वस्तुनि रुक्मस्य शुक्ल रजतस्य कार्पासमये चैलस्य विनाशलाभौ स्याताम् ॥ ॥ १२० ॥ प्रश्ने इति ॥ रोगविनाशबुद्ध्या प्रश्ने कृते प्रदीप्ते सुरवः आशु रोगं हंति शांतप्रदेशे रम्यारवः रम्यंश्चासौ आरवश्च स्थिरेण रोगमपाकरोति ॥ १२१ ॥ प्रश्ने इति ॥ शुभे प्रश्ने शांतदिगाश्रयस्थः शांतस्वरः शुभं वस्तु दधानः यो वायसः तं शुभदं वदंति तव्यत्ययो व्यत्ययहेतुरुक्तः अशुभं ददातीत्यर्थः ॥ १२२ ॥ विरौतीति ॥ कुंभ मणिके बृहत्प्रमाणे जलभाजनविशेषे यदा काकः विरौति तदा गर्भवत्याः सु-तजन्महेतुर्भवति कंटकिनीं च शाखामादाय उड्डीयते काकः तदा राजागमनाय स्यात् ॥ १२३ ॥ अन्न इति ॥ अन्नाज्यविष्ठापिशितादिभिर्यः पूर्णाननः असौ अ ॥ भाषा ॥ लाभ होय. और कार्पासमय वस्तु होय तो वस्त्रको लाभ होय ॥ १२० ॥ प्रश्ने इति ॥ रोगविनाश होयबेकी बुद्धिकरके प्रश्न कियो होय और जो काक प्रदीप्त दिशामें सुन्दरशब्द करतो होय तो शीघ्र रोगकूँ दूरकरे जो शांतदेशमें शुभ बोलतो होय तो देरमें रोगकूं दूर करे है ॥ १२१ ॥ प्रश्ने इति ॥ शुभप्रश्न कियो होय जो काक शांतदिशा में बैठो होय और शांतस्वर करतो होय और शुभवस्तु धारण करे होय तो शुभको देब्रेवारो जाननो ॥ ॥ १२२ ॥ विरौतीति ॥ कुंभ और बहुत प्रमाणको जलपात्र कोठी हंडाबडे इन बैठकर बोले तो गर्भवती सुत जन्मको देब्रेवारो जाननो और जो कांटेकी शाखाकूं लेकरके उडजाय तो राजाके आगमनके अर्थ जाननो ॥ १२३ ॥ अन्न इति ॥ अन्न, घृत, विष्टा, मांस इत्यादिकनकरके जो भरो हुयो मुख होय तो ये अभीष्ट वांछितफल देवे. Aho! Shrutgyanam Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३००) वसंतराजशाकुने-द्वादशो वर्गः। इष्टार्थदोऽश्वादिषु वाहनेषु छत्रादिसंस्थस्तदवाप्तिकारी । वध्वागमंजल्पति तोरणादौ हृद्यार्थदो हृद्यतरुस्थितश्च॥१२५॥ वायसः कुलुकुलुध्वनियंदा व्याहरेद्भवनसम्मुखस्तदा ॥ अभ्युपैति पथिकस्तदा ध्वनि सर्वकार्यसुखदं वदंत्यमुम् ॥ ॥ १२६ ॥ इदं त्विहोत्पातयुगं पृथिव्यां महाभयं शाकनिका वदंति ॥ यद्वायसो मैथुनसंनिविष्टो दृश्येत यदा धवल: कदाचित् ॥ १२७ ॥ उद्वेगविद्वेषभयप्रवासबन्धुक्षयन्याधिधनापहाराः॥ बुद्धिप्रणाशाः कुलतापवादा नृणां भवंत्यद्भुतदर्शनेन॥ १२८॥ ॥ टीका ॥ भीष्टफलदः स्यात् मन्त्रादिसिद्ध्यै वणिजादिलाभे विवाहादिविधौ चासौ काकः शस्तः॥१२४॥इष्टार्थद इति ॥ अश्वादिकवाहनेषु स्थितः सनिष्टार्थदः तथा छत्रादिसंस्थस्तदवाप्तिहेतुर्भवति तोरणादौ वध्वागमं जल्पति हृद्यतरुस्थितः प्रियकारकः यः तरुः तस्मिंश्च हृद्यार्थदः॥ १२५ ॥ वायस इति ॥ यदा भवनसम्मुखं वायसः कुलुकुलध्वनि व्याहरेत्तदा पथिकोऽभ्युपैति अमु ध्वनि सर्वकार्यमुखदं वदंति ॥ ॥ १२६ ॥ इदमिति ॥ इहास्मिँल्लोके उत्पातद्वयं उत्पातद्वयं महाभयं शाकुनिका वदंति यत् वायसो मैथुनसंनिविष्टो दृश्येत यदा कदाचिद्धवलो दृश्येत तदित्यर्थः॥ १२७ ॥ उद्धेगेति ॥ अद्भतदर्शनेन उद्वेगविद्वेषभयप्रवासबन्धुक्षयव्याधि ॥भाषा ॥ और मंत्रादिक सिद्धिनमें वणिजादिकनके लाभमें विवाहादिकविधिमें काक शस्त नाम शुभ है ॥१२४ ॥ इष्टार्थ इति ॥ अश्वादिक वाहनपै स्थितकाक इष्ट अर्थको देबेवारो और छत्रादिकनमें स्थित होय तो छत्रादिकनकी प्राप्ति करै. और तोरणादिकनपै बेठे तो स्त्रीको आगम कहै. बहुत सुन्दर वृक्षपै बैठो होय तो मनोरथकू देवे ॥ १२५ ।। वायस इति ॥ जो घरके सम्मुख काक कुलुकुल धनि करै तो कोई मार्गको चल्यो आवे. और ये ध्वनि सर्व कार्य और सुखकू देवे ॥ १२६ ॥ इदमिति ॥ या लोकमें दोय उत्पात हैं सो शकुनी प्र. थ्वीमें याकू महाभयवान् कहै हैं. कोनसे उत्पात; जो काक मैथुनकरतो दीखै वा श्वेत काक दखे तो ॥ १२७ ॥ उद्वेगेति ॥ उद्वेग, विद्वेष, भय, प्रवास नाम परदेश, बन्धुक्षय, व्याधि, और धनको चौर करके हरण, और बुद्धिको नाश, कुलकी ताप और विवाद ये सब Aho! Shrutgyanam Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते स्थानस्थितप्रकरणम् । (३०१ शमाय तत्सूचितदुःखराशेः स्नानं बहिस्तत्क्षणमेव कुर्यात् ॥ आत्मीयशक्त्या च सदक्षिणानि द्विजाय दद्याद्वसनानि तानि ॥ १२९ ॥ नयेदहःशेषमपुण्यहान्या शयीत भूमावकृतानभक्ष्यः ॥ स्नात्वा प्रभाते विदधीत शांतिं दद्यात्स्वशक्त्या द्रविणं गुरुभ्यः ॥ १३० ॥ हविष्यभोजी नः भजेच्च नारी दिनानि सप्त त्रिगुणानि यावत् || आकाकपातत्रतमादधीत बलिं च दद्याइलिभोजनेभ्यः ॥ १३१ ॥ देशे तु यत्राद्भुततमालोक्यते तत्र समापतंति || अवृष्टिदुर्भिक्षभयोपसर्गचौराग्निशत्रूद्भवधर्मनाशाः ॥ १३२ ॥ ॥ टीका ॥ धनापहारा: बुद्धिप्रणाशा: कुलतापवादाश्च नृणां भवंति ॥ १२८ ॥ शमायेति ॥ सूचितदुःखराशेः शमाय तत्क्षणमेव बहिः स्नानं कुर्यात् तथा आत्मीयशक्त्या सदक्षिणानि तानि वसनानि द्विजाय दद्यात् ॥ १२९ ॥ नयेदिति ॥ अहःशेषं नयेत् कया अपुण्यहान्या पुण्यहानिर्यथा न भवति तथेत्यर्थः । तथाऽकृतान्नभक्ष्यः भूमौ शयीत पुनः प्रभाते स्रात्वा शांतिं विदधीत गुरुभ्यः स्वशक्त्या द्रविणं दद्याच्च ॥ ॥ २३० ॥ हविष्येति ॥ सप्त त्रिगुणानि एकविंशतिदिनानि यावत् हविष्यभोजी भवेत् नारीं न भजेत् आकाकपातं व्रतं आदधीत बलिभोजनेभ्यो बलिं दद्यात् ॥ ॥ १३१ ॥ देशे त्विति ॥ यत्र देशे एतदुग्रमद्भुतमालोक्यते अवृष्टिदुर्भिक्षभयोपस ॥ भाषा ॥ पहिले उत्पात देखबेवारे मनुष्यनकूं होयँ ॥ १२८ ॥ शमायेति ॥ इतने दुःखनकी शांति के लिये पूर्व कहे जे दोनों उत्पात तिनकूं देखतेही तत्क्षण बहिःस्नान करे. ता पीछे अपनी शक्तिपूर्वक दक्षिणासहित वस्त्र ब्राह्मणके अर्थ दान करे ॥ १२९ ॥ नयेदिति ॥ दिन शेष रहे ताय पुण्यादिक करके व्यतीत करे, और अन्नादिक भोजन न करे. फिर रात्रिकू पृथ्वीमें शयन करे. फिर प्रातःकाल होय जब स्नान करके शांति करे. अपनी शक्तिलायक गुरुनके अर्थ धन देवे ॥ १३० ॥ हविष्येति ॥ इक्कीस दिनतांई हविष्यभोजन करे. और स्त्रीसेवन न करे आकाकपात व्रत करे. और काकनकूं बलिदान देवे ॥ १३१ ॥ ॥ देशेत्विति ॥ जा देशमें ये अद्भुत देखे ता देशमें वर्षा न होय और दुर्भिक्ष, भय Aho! Shrutgyanam Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०२ ) वसंतराजशाकुने - द्वादशी वर्गः । कर्माणि तस्योपशमाय राजा प्रवर्तयेच्छांतिकपौष्टिकानि ॥ अन्नाज्यगोभूमिवसूनि दद्याद्युद्धं विदध्याच्च न यावदब्दम् ॥ १३३॥ इति काकरुते स्थानस्थितप्रकरणं पंचमम् ॥ ५॥ ॥ अथ स्वरविचारः ॥ कांकामिति क्षेमविधौ विरावः कींकीमितीष्टाशनपानहेतुः ॥ करोति कूंकूमिति वार्थलाभं कंकं ध्वनिः कांचनलाभमाह ॥ ॥ १३४ ॥ केमिति स्त्रीति च योषिदात्यै भोगाय कोंकोमिति शब्दितं स्यात् ॥ अपत्यलाभं कुकु इत्यनेन गंतुः फलं केकव इत्यनेन ॥ १३५ ॥ ॥ टीका ॥ चौराशित्रूद्भवधर्मनाशा आपतंति ॥ २३२ ॥ कर्माणीति ॥ तस्याद्भुतस्योपशमाय राजा शांतिकपौष्टिकानि प्रवर्तयेत् अन्नाज्यगोभूमिवमूनि दद्यात् यावदन्दं अब्दपर्यंतं युद्धं न विदध्यात् ॥ १३३ ॥ इति श० वसंतराजटीकायां काकरुते स्थानस्थितप्रकरणं पंचमम् ॥ ५ ॥ ॥ अथ स्वरविचारः ॥ कांक्कामिति ॥ क्कांक्कामिति क्षेमविधौ विरावः स्यात् । कीकीमिति इष्टाशनपानहेतुर्भवति । कूंकूमिति शब्दोऽर्थलाभं करोति । कंक्कं इति ध्वनिः कांचनलाभमाह ॥ १३४ ॥ केकेमिति ॥ कैकें इति शब्दः स्त्रीति च योषिदाप्त्यै भवति । कोंकोमिति ॥ भाषा ॥ भूतादि, चौर, अग्नि लगनो, शत्रुनकी प्रगटता, धर्मको नाश ये होय ॥ १३२ ॥ कर्माणीति ॥ ता अद्भुत देखेकी शांतिके लिये राजा शांतिक पौष्टिक करे. और अन्न, घृत, गी, पृथ्वी, धन इनको दान करे और राजा वर्षदिन तांई युद्ध न करै ॥ १३३ ॥ ५॥ इति वसंतराजभाषा टीकायां स्थानस्थितप्रकरणं समाप्तम् ॥ अथ स्वरविचारः ॥ कांकामिति ॥ कांकां ऐसो बोले तो कल्याण होय. और जो काक कीं कीं ऐसो बोले तो वांछित भोजन पान ये होंय और कूंकूं या प्रकार बोले तो अर्थलाभ करे. और कंकं या प्रकार ध्वनि करे तो कांचन लाभ होय ॥ १३४ ॥ केकेमिति । केके या प्रकार कागली बोले तो स्त्रीकी प्राप्ति करे, और कोंकों ये शब्द बोले तो भोग भोगे. और Aho! Shrutgyanam Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते स्वरप्रकरणम् । ( ३०३) कोंकोमितिस्यात्सुखलाभकारी कुंकुंनिनादः प्रियसंगमाय ॥ ●मिति ऋमिति च त्रयोऽमी क्रांकामिति द्वौ च खौ रणाय ॥ १३६॥ क्रांकामिति कोरिति च द्विरुक्तं फेंकृमिति कोकुकुहूरितीदम् ॥ रुतं प्रदिष्टं मरणाय नृणां गंतुर्विनाशं कुरुते खगाख्यः ॥ १३७ ॥ क्रीक्रीमितीष्टार्थविनाशनाय ज्वलज्वलेत्यग्निभयाय शब्दः॥ किकीति कौकाविति यः कथंचिन्मुहुर्मुहुः स्यात्समतो वधाय ॥ १३८ ॥ स्यात्काइतीदं विफलं सदैव मित्राप्तये वक इतीहशं च ॥ काका इतीदं च विघातकारि कवति काको वदति स्वतुष्टयै ॥ १३९ ॥ ॥ टीका ॥ शब्दितं भोगाय स्यात् । कुकु अनेनापत्यलाभः स्यात् । केकव इत्यनेन गंतुः इष्टं फलं भवति ॥ १३५ ॥ क्रोंकोमिति ॥ क्रोंकोमिति नादः सुखलाभकारी स्यात् । कुंकुंनिनादः प्रियसंगमाय स्यात् । ●मिति ०मिति च अमी त्रयः शब्दाःकांका मिति च द्वौ रणाय स्युः ॥ १३६ ॥ कांक्रामिति ॥ कांक्रामिति कोरिति च द्विरुक्तं कंक्रमिति क्रोकुकुहूरितीदं रुतं नृणां मरणाय प्रदिष्टम्।एतादृशं रुतं रुवन्खगाख्यो गंतुर्विनाशं कुरुते ॥ १३७ ॥क्रीक्रीमिति॥ क्रींक्रीमिति स्वार्थविनाशनाय भवति । ज्वलज्वलति शब्दः अमिभयाय स्यात्।किकीति कोकौ इति कथं चिन्मुहुर्मुहुः शब्दः स्यात्स वधाय मतः ॥ १३८॥ स्यादिति ॥ का इतीदं विफलं सदैव स्यात् । कक ॥ भाषा॥ कुकु या प्रकार बोले तो अपत्यको लाभ होय, और केकव ऐसो बोले तो गमनकर्ताकं फल होय ॥ १३५ ॥ क्रोंकोमिति ॥ क्रोंकों ये शब्द सुखलाभकारी होय. और कुंकुं ये शब्द बोले तो प्रियसंगम कर. ●कंकं ये तीन शब्द बोले तो और क्रां क्रां ये दोय शब्द बोले तो संग्राम करावे ॥ १३६ ॥ कामिति ॥ क्रां क्रां को क्रो यूँ क्रू को कुकुहः ये शब्द बोले तो मनुष्यकू मरणके अर्थ जाननो. जो पक्षी ऐसे शब्द बोले तो गमन कर्ताकू विनाश करै ॥ १३७ ॥ कींकीमिति ॥ कींकी ये शब्द स्वार्थको विनाश करें हैं, और बल बल ये शब्द अग्निको भय करैहै. और किकि ये शब्द कौको ये शब्द कदाचित् वारम्वार बोले तो वधके अर्थ जाननो ॥ १३८ ॥ स्यादिति ॥ जो काक का शब्द बोले तो निष्फल जाननो, और कक्क ऐसो बोले तो मित्रकी प्राप्ति होय. और Aho! Shrutgyanam Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०४) वसंतराज़शाकुने-द्वादशो वर्गः। आहारदोषाय च काकटीति स्याहाकुटाकुध्वनितं रणाय ।। केकेध्वनिष्टाकचिचिंटिकीति त्रयं त्विदं स्यात्पुरुदूषणाय ॥ ॥१४०॥ यत्का इति त्रिस्तदनु द्विरेतच्छब्दद्वयं स्यान्महते फलाय ॥ कोगित्ययं वाहननाशनं च ददाति हर्ष कुरुकुवितीदम् ॥१४१॥ यःक्का इतदिं विरुतं सुदीप प्लुतस्वरेणोचरति प्रमोदात् ॥ उत्साहहीनः श्रमदैन्ययुक्तः स वायसः कार्यविनाशनाय ॥१४२॥ सामिष कवकवति भ.जयेद्धारयेकतिकतीति चाशनम् ॥ अभ्युपैति खररूक्षभाषिते प्रोषितः शवशवेति च शब्दः॥ १४३॥ ॥टीका ॥ ईदृशं च मित्राप्तये स्यात् काकाइतीदं च विघातकारि कवेति काकः स्वतुष्टयै वदति ॥ १३९ ॥ आहारेति ॥ काकटीति शब्दः आहारदोषाय भवति । टाकुटाकुइति द्विवारं ध्वनितारणाय भवति केके टाकुचिचिंटिकीति त्रयं त्विदं पुरुदूषणाय स्यात् दोषवाहुल्यायेत्यर्थः ॥ १४० ॥ यदिति ॥ वा इति त्रिस्तदनु द्विः द्विारमुक्तं शब्द द्वयं महते फलाय स्यात् । कोगित्ययं शब्दः वाहननाशनं करोति। कुरुकुर्वितीदं ध्व नितं हर्ष ददाति ॥ १४१॥ य इति ॥ यः काकः का इतीदं विरुतं सुदीर्घ प्लुतस्वरेण प्रमादादुच्चरति तथा य उत्साहहीनःश्रमदैन्ययुक्तःस वायसः कार्यविनाशनाय भवति ॥ १४२ ॥ सामिषामिति ॥ कवकवेति शब्दे सामिषं भोजनं भोजयेत् ॥ भाषा ॥ काका ऐसो बोले तो विघातकारी होय. और कव ऐसो शब्द बोले तो अपनी तुष्टिके अर्थ जाननो ॥ १३९ ॥ आहारेति ॥ काकटी ऐसो शब्द बोले तो आहारके दोषके अर्थ जाननो और टाकुटाकु ऐसो बोले तो संग्रामके अर्थ जाननो और केके टाक चिचिंटिकी ये तीनों शब्द बोले तो बहुतदूषणके अर्थ जाननो ॥ १४० ॥ यदिति ॥ जो काक का ये शब्द तीनपोत बोले तो पीछे के के ऐसो शब्द बोले तो, महान् फलके अर्थ जाननो और कोर या प्रकार शब्द बोले तो वाहन नाशके अर्थ जाननो और कुरु करु ये कन्द हर्ष करै ॥ १४१॥ य इति ॥ जो काक क ऐसो शब्द दीर्घकाल प्लुतस्वर करके प्रमादते बोले भौर उत्साहहीन होय और श्रमकरके दीनता करके युक्त होय वो काक कार्यकू विनाश करे ॥ १२॥ सामिषिमिति ॥ कवकव ऐसो शब्द बोले तो आमिषसहित Aho! Shrutgyanam Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते स्वरप्रकरणम्। (३०५) स्यात्कलिः करकरध्वनौ नृणां जायते कणकणध्वनौ ज्वरः॥ आवजेत्कुलकुलध्वनौ प्रियः सौदनं कटकटध्वनौ दधि ॥ ॥ १४४॥ एवंप्रकाराबहवोऽपरेऽपि प्रशांतदीप्ता बलिभोजनानाम् ॥ भवंति शब्दाः खलु तेषु केचिदस्माभिरुक्ताः सुखलक्षणीयाः॥ १४५॥ ॥ टीका ॥ कतिकतीति शब्दोशनं कारयेत् खररूक्षभाषिते प्रोषितोऽभ्युपैति शवशवेति शब्दे जाते कश्चित्पंचत्वं प्रामोतीत्यर्थः ॥ १४३ ॥ स्यादिति ॥ करकरध्वनौ जाते सति नृणां कलिः स्यात् कणकणध्वनौ ज्वरः जायते कुलकुलध्वनौ प्रियः आव्रजेत् कटकटध्वनौ सौदनं दधि प्राप्यते ॥ १४४ ॥ एवमिति ॥ बलिभोजनानां काकानामि. त्यर्थः । अपरेऽपि बहवः प्रशांतदीप्ताःशब्दा भवंति तेषु खलु निश्चयेन यत्किचित्सु. खलक्षणीयं तदस्माभिरुक्तम्॥१४५॥ग्रंथांतरेऽप्यवेम्॥तद्यथा चिरजीविनो द्वात्रिंशद्भाषा वदंति । तद्यथा कौलो कौलो इति चेद्वदति तदप्युत्करः धान्यराशिः स्यात् । १। कुंकुंकुमिति जल्पति तदा लाभोत्पत्तिः । २ । कोयं कोयं इति चेद्वदति तदा राज्ञो मृत्युमाख्याति । ३ । केयं केयमिति शब्देन भृशं हानिमृत्यू भवेताम् । ४ । कुरलुकुरलु इति शब्देन श्रेयः समाख्याति । ५। कः कुकुमिति शब्देन शवं दर्शयति ॥ भाषा॥ भोजन करै और जो कतिकति शब्द बोले तो भोजन करावे जो रूखो शब्दबोलै वा खुरू खुरु ऐसो बोले तो परदेश गयो घर शीघ्र आवै. और शत्रशव ऐसो शब्द बोले कोईकी मृत्यु प्राप्त होय ॥ १४३ ॥ स्यादिति ॥ करकर ऐसो बोले तो मनुष्यको कलह होय. और कलकल ध्वनि करै तो ज्वर होय. और कुल कुल शब्द करै तो कोई प्रिय आवे. और कटकट ऐसो बोले तो भातसहित दही प्राप्त होय ॥ १४४ ॥ एवं प्रकारा इति या प्रकार काकनके औरभी बहुतसे प्रशांत और दीप्तशब्द हैं उनमेंसू हमने निश्चयकर शुभलक्षण जिनके ते केहहैं ॥ १४५ ॥ जो और ग्रन्थान्तरमें बत्तीसभाषा कही हैं. तिनेंभी या प्रकार हम यहां कहैं हैं जो कोलकौल ऐसी वाणी बोले तो धान्यराशि प्राप्त होय १ जो कुंकुंकुं ये वाणी बोले तो लाभकी प्राप्ति करै २ जो कोयंकोयं ऐसी वाणी बोले तो राजाकी मृत्यु जाननी ३ केयंकेयं या शब्द करके अत्यंत हानि मृत्यु होय ४ कुरलुकुरलु या शब्द करके कल्याण करे ५ कः कुंकुं या शब्द् करके शव जो मुरदा ताकू दर्शन करावे ६ लेनक्लेनं या शब्द करके सुहृज्जनको नाश करैहै ७ कुरुतं Aho! Shrutgyanam Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६) वसंतराजशाकुने-द्वादशो वर्गः। टीका ॥ । ६ । क्लेनक्लेनमिति शब्देन सुहृनिधनमाख्याति । ७ । कुरुतंकुरुतमिति शब्देन युद्धं दर्शयति । ८ । कुयंकुयमिति शब्देन परस्वेभ्यः पंचत्वमाख्याति । ९ । कोछुकोछु इति शब्देन शरीरहानिः।१०। कैकै इति शब्देन सत्याः भार्यायाःसमागमनमाख्याति । ११ । कांकामिति शब्देन लाभो भवति । १२। कः कः इति शब्देन राजकीया भृत्याः किं वदंतीति वदति । १३ । कुलकुलु इति शब्देन मृत्युं समादिशति । १४ । कक इति शब्देन मंगलमाख्याति ।१५। केंकेंकेमिति शब्देन बाट द्रव्यलाभं वदति । १६ । कौंकौंकौमिति शब्देन ग्रामवासितस्कराद्यं समादिशति । १७ । क्रीकी इति शब्देन सुन्दर्याः प्राप्तिः स्यात् । १८ । कोवंकोवमिति शब्देन प्रियलक्ष्म्याः पशूनां च नाशो भवति । १९ । कुलंकुलमिति शब्देन बधवन्धनपू. र्वकं राजतो भयं दर्शयति । २० । कोईकोई इति शब्देन भद्रं भवति । २१ । क्लेतं केतमिति शब्देन बलाहकवृष्टिं वदति । २२ । कौनौकौइति शब्देन मांगल्यकौतुके दर्शयति । २३ । कैकंकैकमिति शब्देन प्रापूर्णिकः समायाति । २४ । कोरंकोरंमिति शब्देन धनधान्यसमृद्धि वदति । २५ । कुरुटंकुरुटमिति शब्देन निष्कंटक राज्यं वदति । २६ ॥ करकंकरकमिति शब्देन बहूनां दर्शनं भवति। २७ । करकोकरको इति शब्देन कलिः स्यात् । २८ । केतकेतमिति शब्देन रलहानिर्भवति ।२९ । कुरुनुकुरुन, इति शब्देन श्रियः समागमो भवति । ३० । कुलकुल इति शब्देन वस्त्रलाभो भवति । ३१ । कैकंके इति शब्देन मुहृदागममाख्याति । ३२ । ॥ भाषा॥ कुरुतं या शब्द करके युद्धकू दिखावे ८ कुयंकुयं या शब्दकंर परधनते मृत्यु होय ९ कोछुकोछु या शब्दकर शरीरकी हानि होय १० कैक या शब्दकर सतीको समागम होय. ११ कांकां या शब्दकर लाभ होय १२ कःकः या शब्दकर बोले तो राजभृत्य क्या कहै १३ कुलुकुल या शब्द करके मृत्यु जानना १४ क क या शब्दकरके मंगल कहै है १५ केंकेंकें या शब्दकरके अत्यंत द्रव्य लाभ होय १६ कौं कौं कौं या शब्दक. रके ग्रामवासी चौरते भय कहै है १७ की क्री क्री या शब्दकरके सुन्दरीकी प्राप्ति होय १८ कोवं कोयं या शब्दकरके प्रियलक्ष्मीको और पशुनको नाश होय १९ कुलं कुलं या शब्दकरके वध. बन्धसहित राजाको भय होय २० कोईकोई या शब्द करके कल्याण होय २१ क्लेतं क्वेतं ये वाणी बोले तो मेघवृष्टी जाननी २२ क्रौं क्रौं क्रौं या शब्दकरके मांगल्य कौतुक दिखावे २३ कैकं कैकं या शब्दकरके खेतनाशकू प्राप्त होय जाय २४ कोरं कोरं या शब्दकरके धनधान्यसमृद्धि कहीहै २६ कुरुटं कुरुटं या शब्द करके निष्कंटक राज्य मिलै २६ करकंकरकं या शब्द करके बहुतनको दर्शन करावे २७ करकोकरको या Aho! Shrutgyanam Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३०७) काकरुते पिंडप्रकरणम् । इति वसंतराजशाकुने काकरुते स्वरप्रकरणं षष्ठम् ॥ ६॥ हितं नरेभ्यो मुनिभिः पुराणैर्ज्ञानं यदुक्तं बलिपिंडयुक्त्या ॥ तदुच्यते संप्रति येन काका वदंति सत्यं बलिलाभतुष्टाः॥ ॥१४६॥ अदक्षिणस्यां दिशि यत्र काकैर्युक्तो भवेत्क्षीरतरुः प्रभूतैः ॥ गत्वा निवृत्तेऽहनि तत्र काका निमंत्रणीयाबलिपिंडभोज्यैः ॥ १४७॥ प्रातस्ततः क्षीरतरोरधस्ताद्विशोध्य लिंपेन्नवगोमयेन ॥ भूमिप्रदेशं चतुरस्रमस्य मध्येऽर्चयेद्ब्रह्ममुरारिभानून् ॥ १४८॥ ॥ टीका ॥ इति शत्रुजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचंदगाणिभिर्विरचि तायां वसंतराजटीकायों काकरुते स्वरप्रकरणं षष्ठम् ॥६॥ हितमिति ॥ मुनिभिः पुराणैः बलिपिंडयुक्त्या नरेभ्योहितं यदुक्तं संप्रति तदुच्यते । येन बलिलाभतुष्टाः काकाः सत्यं वदंति॥ १४६ ॥ अदक्षिणस्यामिति ॥ यत्र अदक्षिणस्यां दिशि प्रभूतैः काकैर्युक्तः क्षीरतरुभवेत् निवृत्तेऽहनि तत्र गत्वा बलिपिंडभोज्यैः काका निमन्त्रणीयाः॥ १४७ ॥ प्रातरिति ॥ ततःप्रातः क्षीरतरोरधस्ताद्भूमिप्रदेशं विशोध्य नवगोमयेन लिपेत् अस्य मध्ये चतुरस्त्रं मण्डलं कुय्या ॥ भाषा॥ शब्दकरके कलह होय २८ केतकेतं या शब्दकरके रत्नकी हानि होय २९ कुरुनु कुरुनु या शब्दकरके श्रीको समागम होय ३० कुलकुल या शब्दकरके वस्त्रको लाभ होय ३१ कैकंके या शब्दकरके सुहृजननको आगमन कहैहै .॥ ३२ ॥ इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीवरविरचितायां वसंतराज भाषाटीकायां काकरुते स्वरप्रकरणं षष्टम् ॥ ॥६॥ हितमिति ॥ सनातन मुनिने बलिपिंडकी युक्तिकरके जो ज्ञान कह्यो हैं ताय कह हैं ज करके बलि पिंडके लाभकर तुष्ट हुए काक सत्य कहैंहैं॥१४६॥अदक्षिणस्यामिति॥ दक्षिणदिशाविना और दिशामें काकनकरके युक्त होय दूध जामेंसू निकसतो होय तहां सायंकालकू जाय बलिपिंड दे करके काकनको निमंत्रण करै ॥ १४७ ।। प्रातरिति ॥ ता पीछे प्रात:काल दूध जामेंसू निकसै वा वृक्षके नीचे नवीन गोबरतूं पृथ्वीकू पहले बुहारी देकर फिर लीपे वा चौकामें चतुरस्रमंडल करै मंडलमें ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य इनको पूजन करै ॥ १८ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०८) वसंतराजशाकुने-द्वादशो वर्गः । इंद्राग्निवैवस्वतयातुधानजलेशवायुद्रविणेशशंभून् ॥ अभ्यर्चयेदष्टसु दिक्षु भक्त्या क्रमेण चाष्टावपि लोकपालान् ॥ ॥ १४९॥ नमोयुतैः सप्रणवैश्च सर्वानिजाभिधानः प्रयतो मनुष्यः॥अासनालेपनपुष्पधूपैनैवेद्यदीपाक्षतदक्षिणाभिः ॥ १५० ॥ आवाह्य काकांस्तरुसंनिविष्टानभ्यर्चयेत्प्राक्तनमंत्रशक्त्या ॥ ततस्तदर्थ बलिमाज्यसिक्तं मंत्रेण दद्यादधिभक्तपिंडम् ॥१५१॥ मंत्रः॥ “ॐ इंद्राय नमः॥ॐ यमाय नमः। ॐ वरुणाय नमः। ॐ धनदाय नमः । ॐ भूतनाथाय नमः वायसा बलिं गृहंतु मे स्वाहा॥"उदीर्य कार्य स्वमथापसृत्य ततः प्रदेशात्करटस्य चेष्टाम् ॥ स्पष्टीकृतागामिशुभाशुभार्थी संलक्षयेनिश्चलपाणिपादः ॥ १५२॥ ॥टीका ॥ तत्र ब्रह्ममुरारिभानूनर्चयेत् ॥ १४८ ॥ इंद्रानीति ॥ अष्टसु दिक्षु भक्त्या इंद्राग्निवैवस्वतयातुधानजलेशवायुद्रविणेशशंभनष्टावपि लोकपालानभ्यर्चयेत् ॥ १४९॥ नमोयुतैरिति ॥ प्रयतो मनुष्यः अर्ध्यासनालेपनपुष्पधूपनैवेद्यदीपाक्षतदक्षिणाभिः नमोयुतैः सप्रणवैः निजाभिधानः सर्वानभ्यर्चयेत् ॥ १५० ॥ आवाह्येति ॥ तरुसंनिविष्टान्काकानावाह्य प्राक्तनमंत्रयुक्त्याऽभ्यर्चयेत्।ततस्तदर्थ दधिभक्तपिंडमाज्य सिक्तं बलिं मंत्रेण दद्यात्॥१५१॥मंत्रः॥"ॐ इंद्राय यमाय वरुणाय धनदाय भूत ॥ भाषा॥ इंद्रामीति ॥ फिर आठों दिशानमें क्रमकरके इंद्र १ अग्नि २ यमराज ३ यातुधान ४ वरुण ५ वायु ६ कुबेर ७ शंभु (ये आठ लोकपाल देवतानको पूजन करै ॥ १४९॥ नमोयुतैरिति ॥ मनुष्य सावधान होय प्रणवसहित नमः अंतमें बीचमें नाम ॐ इंद्राय नमः या रीतिसूं सबको अर्घ्य, आसन, चंदन, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, दक्षिणा इनकरके पूजन करे ।। १५० ॥ आवाह्येति ॥ दुग्धवान् वृक्षमें स्थित जे काक तिनें आवाहन करके पूर्व कहे जो मंत्र तिनकरके ता पीछे काकके अर्थ घृत मिलवा दहीभातको पिंड मंत्र बोलकरके बलि देवे॥१५१॥मंत्रः॥ ॐइंदाय नमः ॐयमाय नमः ॐवरुणाय नमः ॐधनदाय नमः ॐभूतनाथाय नमः वायसाबलिं गृहंतु मे स्वाहा ॥” उदीयेति ॥ प्रथम अपनो कार्य कहकरके पीछे वा स्थानसूं पीछो आय निश्चल होय काककी चेष्टा Aho ! Shrutgyanam Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते यात्राप्रकरणम् । (३०९) पूर्वण खादन्सुखवित्तवृद्धिं करोति वह्नर्दिशि वह्निभीतिम् ॥ काकोऽननाशं दिशि दक्षिणस्यां नैर्ऋत्यगो विवरकृत्प्रदिष्टः॥ . ॥ १५३॥जलेशदेशेऽभिमतार्थवृष्टी वायोर्दिशीतिप्रभवाल्प वृष्टी ॥ सौम्ये सुखारोग्यसमीहितार्थानीशानदेशे वितरत्यभीष्टम् ॥१५४॥ बलौ विलुप्ते करटैः समंतात्कार्य विमिश्रं प्रविभावनीयम् ॥ बलि विकीर्यापि न भक्षयंति यदा तदानी भयदा भवंति ॥ १५५॥ क्षीरद्रुमारामचतुष्पथेषु सरित्समीपत्रिदशालयेषु ॥ देयो बलिर्भूतदिनाष्टमीषु कुल्मापदध्योदनतंडुलायैः ॥ १५६॥ ॥टीका ॥ नाथाय बलिं गृहंतु मे स्वाहा इति ॥ उदीर्येति ॥ प्रथमं स्वं स्वकीयं कार्यमुदीर्य ततःप्रदेशादपमृत्य निश्चलपाणिपादः करटस्य चेष्टां स्पष्टीकृतागामिशुभाशुभार्थामिति स्पष्टीकृताः आगामिशुभाशुभार्थाः यया तां संलक्षयेत् ॥१५२॥ पूर्वेणेति ॥ पूर्वेण खादन्सुखेन वित्तवृद्धि करोति वर्दिशि आमेय्यां दिशि वह्निभीतिं करोति दक्षिणस्यां दिशि काकः अर्थनाशं करोति नैर्ऋत्यगः विड्वरकृत्यदिष्टः ॥१५३॥ जलेशेति ॥ जलेशदेशे प्रतीच्यां दिशि अभिमतार्थवृष्टी स्याताम् वायोर्दिशि ईति प्रभवाल्पवृष्टी स्यातां सौम्ये उदीच्यां दिशि सुखारोग्यसमीहितार्थान्करोति।ईशानदेशेऽभीष्टं वितरति ॥ १५४ ॥ बलाविति ॥ करटैः समंतादलौ विलुप्ते विमित्रं कार्य परिभावनीयम् बलिं विकीर्यापि चेत्काका न भक्षयंति तदा भयदा भवंति॥ ॥ १५५ ॥ क्षीर इति॥ क्षीरद्रुमारामचतुष्पथेष्विति क्षीरद्रुमा वटप्रभृतयः आराम ॥ भाषा ॥ शुभ अशुभकी कहवेवाली ताय लक्षणा करै ॥ १५२ ॥ पूर्वेणेति ॥ पूर्वदिशामें जो काक खावतो दीखै तो सुख वित्तकी वृद्धि करै. अग्निकोणमें दीखै तो अग्निको भय करै दक्षिण दिशामें दखै तो अन्नको वा अर्थको नाश करै. और नैऋत्यकोणमें दीखै तो धनवान् करै ॥ १५३ ।। जलेशेति ॥ वरुणदिशामें दीखै तो वांछित अर्थ और वृष्टि करें. वायुकोणमें दीखै तो अल्पवृष्टि होय. उत्तरदिशामें दीखै तो सुख आरोग्य वांछित अर्थ करै. और ईशान दिशामें दीखे तो वांछित अर्थ करै ॥ १५४ ॥ बलाविति ॥ जो काकनकरके चारोंओरसं बलिपिंड लुप्त हो जाय तो कार्य मिलवां विचारनो योग्य है. और जो बलिपिंडकू विखेरदे भक्षण नहीं करे तो भयके देवेवारो जाननो । १५५ ॥ क्षीरद्रुमेति ॥ जामें दूध Aho! Shrutgyanam Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१० ) वसंतराजशाकुने - द्वादशी वर्गः । इति काकरुते पिण्डप्रकरणं सप्तमम् ॥ ७ ॥ पिंडत्रयस्याथ विधानमेतदाख्यायते यत्किल नारदाद्यैः || दिष्टं मुनींद्रैरशुभं शुभं च यथावदस्मिन्कथयति काकाः ॥ ॥ १५७ ॥ गत्वा शुभेऽह्नः प्रहरे चतुर्थे देशेषु पूर्वप्रतिपादितेषु ॥ नरेण पिंडत्रयभोजनार्थ काकाः प्रयत्नेन निमंत्रणीयाः ॥ १५८ ॥ ततः प्रभातेऽप्युपलिप्य भूमिं तस्यां च पूर्वोदितमंत्रयुक्तया ॥ ब्रह्माच्युताहपतिलोकपालाः काकाश्च पुंसा क्रमतोऽर्चनीयाः ॥ १५९ ॥ ॥ टीका ॥ उपवनं चतुष्पथं चवाटा इति लोकभाषायां प्रसिद्धं सरित्समीपत्रिदशालयेष्विति सरिद्वाहिनी नदी तस्याः समीपं तीरं त्रिदशालयः देवगृहं तेषु भूतदिनाष्टमीवि ति भूतदिनं चतुर्दशी अष्टमी प्रतीता तासु कुल्माषदध्योदनतंडुलाद्यैः पुर्वोक्तासु तिथिषु प्रतिपादितस्थळे गत्वा बलिर्देयः इत्यर्थः ॥ १५६ ॥ इति वसंतराजशाकुने काकरुते पिंडप्रकरणं सप्तमं समाप्तम् ॥ ७ ॥ पिंडत्रयस्येति ॥ पिंडत्रयस्य एतद्विधानं मया आख्यायते यन्नारदाद्यैर्मुनिभिर्दिष्टं कथितम स्मिन्काकाः शुभाशुभं यथावत्कथयति ॥ १५७ ॥ गत्वेति ॥ अह्नः शुभे चतुर्थप्रहरे पूर्वप्रतिपादितेषु गत्वा पिंडत्रयभोजनार्थं नरेण काका: निमंत्रणीयाः ॥ १५८ ॥ तत इति ततः प्रभाते भूमिमभ्युपलिप्य तस्यां च पूर्वोदितमंत्रयुक्त्या ब्रह्माच्युताहपतिलोकपालाः ब्रह्माविष्णु सूर्याः अष्टलोकपालाश्च ॥ भाषा ॥ होय ऐसे वृक्ष जे वटकूं आदिलेके और उपवन चौरायो और बहती नदी के समीप तीर और देवमंदिर इन स्थाननमें और चतुर्दशी, अष्टमी इन तिथिनमेंजाय करके रंधे हुये जोकी घुघुरी दहीभात चावल इनकर के बाल पिंड देवै ॥ १५६ ॥ इति श्रीवसंतराजभाषाटीकायां काकरुते पिंडप्रकरणं सप्तमं समाप्तम् ॥ ७ ॥ पिंडत्रयस्येति ॥ नारदादिक मुनिने को जो पिंडत्रयको विधान सो मैं कहूंहूं. यामें काक शुभ अशुभ सब यथायोग्य कहैं हैं ॥ १५७ ॥ गत्येति ॥ शुभदिन के चौथेप्रहर में पहले कहे जे स्थान देश उनमें जाय करके पिंडत्रयके भोजनके लिये काकनको निमंत्रण करे अर्थात् नात आवे ॥ १५८ ॥ तत इति ॥ ता पीछे दूसरे दिन करके ता पृथ्वी में मंडल माडकर तामें पूर्व कहे जे मंत्र उनकरके Aho! Shrutgyanam प्रभातसमय में पृथ्वीलीप ब्रह्मा, विष्णु, सूर्यना Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरते पिंडत्रयप्रकरणम्। (३११) दध्योदनायैर्विहितं निवेश्य पिण्डत्रयं मण्डलकस्य मध्ये ॥ अभ्यर्चयेदक्षतपुष्पधूपैमनोहरैर्यत्नपरो मनुष्यः ॥ १६०॥ तेषु क्षिपेत्प्राग्दिगनुक्रमेण पिंडेषु हैमं प्रथम द्वितीये ॥ रूप्यं तथा लोहलवं तृतीये शेषं च कुर्याद्वलिपिंडतुल्यम् । ॥१६१॥ त्रिःसप्तकृत्वो विनिवेश्य मंत्रं पिंडा निवेद्या बलिभोजनेभ्यः ॥ मन्त्रोत्तमावाहनतोषितेभ्यः कार्य विचार्यापसरेत्ततस्तु ॥ १६२ ॥ मंत्रः ॥ ॐ इरिटिमिरिटिकाकचांडालीस्वाहा । इति पिंडाभिमन्त्रणमन्त्रः। ॐ ब्रह्मणे विश्वाय काकचांडालाय स्वाहा । ॥ इति काकाहानमन्त्रः॥ ॥टीका॥ काकाश्च पुंसा शाकुनिकेन क्रमतोर्चनीयाः ॥ १५९ ॥ दध्योदनायैरिति ॥ मंडलकस्य मध्ये दध्योदनायैः विहितं पिंडत्रयं निवेश्य यत्नपरो मनुष्यः मनोहरैरक्षतपुष्पधूपैरभ्यर्चयेत् ॥ १६० ॥ तेष्विति ।। प्रागदिगनुक्रमेण पूर्वदिशानुक्रमेण तेषु प्रथमेपिंडे हैमं द्वितीये पिंडे रूप्यं तृतीये लोहलवं क्षिपेत् शेषं बलिपिंडतुल्यं कुर्यात् ॥१६१॥ त्रिःसप्त इति ॥ त्रिसप्तकृत्वः एकविंशतिवारंमंत्रं विनिवेश्यासमंताद लिभोजनेभ्यः पिण्डा निवेद्याः कथं भूतेभ्यः मंत्रोत्तमावाहनतोषितेभ्य इति मंत्रोत्तमैर्यदावाहनमाह्वानं तेन तोषितेभ्यः कार्य विचार्य ततोऽपसरेत् ॥ १६२ ॥ मन्त्रः ॐ इरिटिमिरिटि काकचांडालल्यै स्वाहा इति पिंडाभिमंत्रणपूर्वकपिण्डदानमन्त्रः ॐ ब्रह्मणे विश्वाय काकचाण्डालाय स्वाहा ॥ ॥ इति काकाहानमन्त्रः॥ ॥ भाषा ॥ रायण, लोकपाल, देवता, काक इनको शकुनी पूजन करै ॥ १५९ ॥ दध्योदनायैरिति ॥ ता मंडलके मध्यमें दही, भात, घी इनके करे हुये तीनों पिंड धरकरके यत्नमें परायण होय मनुष्य सुन्दर पुष्पाक्षत धूपदीप इन करके अर्चन करै ॥ १६० ॥ तेष्विति ॥ पूर्वादिक दिशानके क्रमकरके प्रथमपिंडमें सुवर्ण धरै. द्वितीय पिण्डमें चांदी धरै. तृतीयपिंडमें लोहेको टूक धरै, शेषबलिपिण्डकी तुल्य करै ॥ १६१ ॥ त्रिसप्त इति ॥ इक्कीसवारमंत्र पढकरके काकनके अर्थ पिंड निवेदन करे. या मंत्रसूं आवाहन करके प्रसन्न हुये काकनके अर्थ Aho! Shrutgyanam Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१२ ) वसंतराजशाकुने - द्वादशो वर्गः । काकेन भुक्ते सहिरण्यपिंडे ज्ञेयं नरैरुत्तममात्मकार्यम् ॥ भुक्ते सरूप्ये खलु मध्यमं स्याल्लोदेन युक्ते त्वधमं प्रदिष्टम् ॥ १६३ ॥ विवादवाणिज्यविवाहवृष्टिक्षेमार्थचिंताकृषिभोगरोगाः ॥ संग्रामसेवानृपकार्यदेशा इत्यादयोऽस्मिन्परिभावनीयाः ॥ || १६४ || चेष्टामवामां विदधाति याति प्रदक्षिणं दक्षिणपक्षमुच्चैः ॥ ग्रीवां तथोच्चैः कुरुते सुशब्दः स्थानं मनोज्ञं श्रयते द्रुमं वा ॥ १६५ ॥ एवंविधां यो विदधाति चेष्टां पिंड समादाय शुभः खगोऽसौ ॥ अभीष्टकार्यादधिकं करोति चेष्टाविपर्यासतयान्यथात्वम् ॥ ६६ ॥ ॥ टीका ॥ काकेनेति ॥ सहिरण्यपिंडे काकेन भुक्ते सति उत्तममात्मकार्य नरैर्ज्ञेयं सरूप्ये भुक्ते सति मध्यमं कार्यं स्यात् लोहेन सहिते भुक्ते त्वधमं कार्य प्रदिष्टम् ॥ १६३ ॥ विवादेति ॥ विवादवाणिज्यविवाहवृष्टिक्षेमार्थचिन्ताकृषिभोगरोगाः सग्रामसेवानृपकार्यदेशा इत्यादयोऽस्मिन्पिड़े परिभावनीयाः विचारणीया इत्यर्थः ॥ १६४॥ चेष्टामिति ॥ यदि चेष्टामवामां विदधाति दक्षिण पक्षमुचैः कृत्वा प्रदक्षिणं याति तदा सुशब्दः समस्तं कार्यं कुरुते यदि ग्रीवामुचैः कृत्वा मनोज्ञं स्थानं मं वा यति चेत्समस्तं कार्यं कुरुते इति ज्ञेयम् ।। १६५ ।। एवंविधामिति ॥ ॥ भाषा ॥ अपनो कार्य विचार करके आप पीछे हट आवे ॥ १६२ ॥ मंत्र: ॐ इरिटिमिरिटिकाक चांडाली स्वाहा ॥ ये मंत्र पिंडन अभिमन्त्रण करने को है ॥ ॐ ब्रह्मणे विश्वाय काकचा डालाय स्वाहा ! ये मन्त्र काकनके आह्वानको है ॥ काकेनेति ॥ जो काक सुबर्णसहित पिण्डनकूं भक्षण करै तो अपनो कार्य उत्तम जाननो. और जो चांदी सहित पिण्डकूं भक्षण करे तो मध्यम कार्य जाननौ. जो काक लोहेको टूक जानें ती पिंडकूं भक्षण करै तो कार्य अधम जाननो || १६३ ॥ विवादेति ॥ विवाद, वाणिज्य, विवाह, वृष्टि, क्षेम, धनचिन्ता, कृषी, भोग, रोग, संग्राम, सेवा, राजकार्य, देश ये सब या पिण्डमें विचारकरनो योग्य है ॥ १६४ ॥ चेष्टामिति ॥ जो काक दक्षिणअंगकी चेष्टा करें और दक्षिण पंखकूं ऊंचे करके दक्षिणभागमें चल्यो जाय सुन्दरशब्द बोले और जो ग्रीवाकूँ ऊंची करके सुन्दरशब्द बोलै सुन्दरस्थानपे जाय बैठे अथवा वृक्षपै जाय बैठे तो समस्त कार्य करें ॥ १६५ ॥ एवंविधामिति ॥ जो काक पिण्ड लेकरके ऐसी २ चेष्टा करै वो शुभ पक्षी वांछित Aho! Shrutgyanam Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते पिंडत्रयप्रकरणम् । (३१३) , पिंडं समादाय यदि प्रधानां शांतां दिशं गच्छति काकपक्षी ॥ पूर्ण फलं तत्कुरुते नराणां चिकीर्षिते वस्तुनि यत्र तत्र ॥ १६७ ॥ काको गृहीत्वा यदि मुख्यपिडं प्रयाति दीप्तां ककुभं तदानीम् ॥ अत्युत्तमं कार्यफलं प्रदर्थ्य ततः समस्तं विनिहन्त्यवश्यम् ॥ १६८ ॥ द्वितीयकं यद्यपहृत्य पिंडमुड्डीयते शान्तदिगाश्रयेण ॥ फलं तदानींच शुभं नराणां जाप्यं खगो जल्पति कार्यिकाणाम् ॥ १६९ ॥ काके समादाय जघन्यपिंडं याते प्रदीप्तां ककुभं वदंति ॥ कार्य जघन्यादधिकं जघन्यं स्यान्मध्यमं मध्यमपिंडभागे ॥१७॥ ॥ टीका ॥ पिंडं समादाय एवंविधां यः चेष्टां विदधाति स शुभः खगः अभीष्टकार्यादधिक करोति । चेष्टाविपर्यासतयान्ययात्व वैपरीत्यं भवति ॥ १६६ ॥ पिंडमिति ॥ यदि काकपक्षी पिंडं समादाय प्रधानां दिशं गच्छति तदा नराणां यत्र तत्र चिकीर्षिते वस्तुनि समस्तं पूर्णफलं कुरुते ॥ १६७ ॥ काक इति ॥ यदि काकः मुख्य. पिंडं गृहीत्वा दीप्तां ककुभं प्रयाति तदानी अत्युत्तमं कार्यफलं प्रदर्य ततः समस्तम् । अवश्यं विनिहति ॥ १६८ ॥ द्वितीयकमिति ॥ यदि द्वितीयकं पिंडमपहृत्य शांत दिगाश्रयेण उड्डीयते तदा कार्यिकाणां शुभं फलंजाप्यं मनोऽभीष्टं खगो जल्पति॥ ॥ १६९ ॥ काके इति ॥ काके जघन्यपिंडं समादाय प्रदीप्तां ककुभं याते सति कार्य जघन्यादधिकं जघन्यं स्यात् मध्यमपिंडभागे मध्यम कार्य स्यादित्यर्थः१७० ॥भाषा॥ कार्यसूं अधिक कार्यकरै, और जो इन चेष्टासं विपरीत चेष्टा करै तो विपरीत कार्य होय ॥ ॥ १६६ ॥ पिंडमिति ॥ जो काकपक्षी प्रधान जो मुख्य पिंड ताकरके शांत दिशाकू चल्यो जाय तो मनुष्यनकू जा काऊ कार्यमें समस्त पूर्ण फल करै ॥ १६७ ॥ काक इति ॥ जो काक मुख्य पिंड लेकरके दीप्तदिशामें चल्यो जाय तो अतिउत्तम कार्य फल दिखाय करके ता पीछे समस्त कार्यकूँ अवश्य नाश करै ॥ १६८ ॥ द्वितीयकमिति ॥ जो काक दूसरो पिंड ले करके शांत दिशाको आश्रय लेकर उडजाय तो कार्यवान् पुरुषनकू शुभ फल करै ॥ १६९ ॥ काके इति ॥ जो काक लोहयुक्त निकृष्ट पिंड लेकरके प्रदीप्त दिशामें चल्यो जाय तो कार्यमें निकृष्टसू भी निकृष्टता करै मध्यमपिंडमें मध्यम कार्य होय ॥.१७०॥ Aho ! Shrutgyanam Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) वसंतराजशाकुने - द्वादशी वर्गः । इति वसंतराजशाकुने पिंडत्रयप्रकरणम् ॥ ८ ॥ महर्षयो वायसशाकुनस्य वदंति सारादतिसारभूतम् ॥ पिंडाष्टकं यत्तदशेषमेतदारव्यायते कार्यविनिश्चयार्थम् ॥ १७१ ॥ शुभे काकाधिवास्य सायं पिंडाष्टकं भोक्तुमथ प्रभाते ॥ तत्कालयोग्यानि समस्त वस्तून्यादाय यायाद्वहिरप्रमत्तः ॥ ॥ १७२ ॥ एकांतदेशे तरुपार्श्वभूमौ मृगोमयाभ्यामुपले पितायाम् ॥ सत्पंचगव्येन समुक्षितायां रम्योपहारैरुपशोभितायाम् ॥ १७३ ॥ ॥ टीका ॥ इति वसंतराजटीकायां काकरुते पिंडप्रकरणमष्टमम् ॥ ८ ॥ महर्षय इति ॥ महर्षयो मुनयो वायसशाकुनस्य सारादतिसारभूतं पिंडाष्टकं य द्वंदति तदशेषं कात्स्म्र्त्स्न्येन कार्यविनिश्चयार्थमाख्यायते ॥ १७१ ॥ शुभेहीति ॥ शुभे अन्हि पिंडाष्टकं भोक्तुं सायं काकानधिवास्य अथ प्रभाते तत्कालयोग्यानि समस्तानि वस्तून्यादायाप्रमत्तः बहिर्यायात् ॥ १७२ ॥ एकांत इति ॥ एकांतदेशे तरुपार्श्वभूमौ मृगोमयाभ्यामुपलेोपितायामिति मृत् मृत्तिका गोमयं छगणं ताभ्या सुपलेपितायां लिप्तायामित्यर्थः सत्पंचगव्येन समुक्षितायामिति सत् शोभनं यत् पंचग व्यं पंचामृतं तेन समुक्षिता दत्तच्छटा तस्यां रम्योपहारैरुपशोभितायामिति रम्या ये उपहारा बलयस्तैरुपशोभितायां तत्र गत्वा इति शेषः पूरणीयः ॥ १७३ ॥ इति वसंतराजभाषाटीकायां काकरुते पिंडप्रकरणं अष्टमम् ॥ ८ ॥ ॥ भाषा ॥ ॥ महर्षय इति ॥ महर्षि जन काकके शकुनकूं सारते भी अतिसारभूत श्रेष्ठ कहे हैं कार्य के निश्चय के अर्थ जो ये पिंडाष्टक कह्यो सो अब समस्त विधिपूर्वक वर्णन करे हैं ॥ १७१ ॥ शुभेति ॥ शुभदिन होय तादिन सायंकालकूं पिंडाष्टक भोजनकरवेकूं काकनकूं पूजन निमंत्रण कर आवे फिर दूसरे दिन प्रभातसमय में सबपूजनसाहित्य लेकरके सावधान होय बाहर वनमें जाय ॥ १७२ ॥ एकांत इति ॥ एकांतदेशमें वृक्षके पास पृथ्वीको गोबर मृत्ति - कासुं लेपकर सुंदर पंचामृत के छींटा देकर फिर पूजनकी सामग्री सब घर देवै ॥ १७३ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते पिंडाष्टकप्रकरणम् । (३१५) विधाय पूजां कुलदेवतानांमध्ये ततोऽष्टास्वपि दिक्षु देयम् ॥ भक्तेन सर्पिर्दधिमिश्रितेन पिंडाष्टकं प्राग्दिगनुक्रमेण॥१७४॥ पक्षीन्द्रवह्नयन्तकराक्षसेन्द्रान्विष्णुं विरिचिं धनदं महेशम् ॥ पूर्वादिकाष्ठाक्रमयोजितेषु न्यसेत्क्रमादष्टमापण्डकेषु ॥१७॥ नमोयुतैः सप्रणवैश्च सर्वास्ततोऽर्चयेत्तानिजनाममंत्रैः ॥ अ Cसनालेपनपुष्पधूपनैवेद्यदीपाक्षतदक्षिणाभिः ॥१७६॥ 'अभ्यर्चितेभ्यो विधिनोदितेन पिंडाष्टकं तत्तदनु द्विजेभ्यः॥ मंत्रेण संमंत्र्य निवेदनीयं कार्य विचिंत्यापसरेत्तु किंचित् ॥ ॥१७७॥ मंत्रः ॥ ॐ नमः खगपतये गरुडाय स्वाहा ॥ द्रोणाष्टकममुं पिंडं गृहाण त्वमशंकितः ॥ यथादृष्टं निमित्तं च कथयाय स्फुटं मम ॥ १७८॥ ॥ टीका॥ विधायेति ॥ कुलदेवतानां पूजां विधाय ततो मध्येऽष्टसु दिक्षु सर्पिर्दधिमिश्रितेन भक्तेन प्राग्दिगनुक्रमेण पिंडाष्टकं देयम् ॥ १७४ ॥ पक्षीति ॥ पूर्वादिकाष्ठाक्रमयो जितेषु अष्टसु पिंडेषु पक्षीदवह्नयन्तकराक्षसेंद्रान् विष्णुं विरिंचिंधनदं महेशं क्रमात न्यसेत् ॥ १७५ ॥ नम इति ॥ ततो निजनाममंत्रैर्नमायुतैः सप्रणवैः तान्सर्वानर्चयेत् काभिः अर्घासनालेपनपुष्पधूपनैवेद्यदीपाक्षतदक्षिणाभिः व्याख्या पूर्ववत् १७६ ॥ अभ्यर्चितेभ्य इति ॥ तत्पिडाष्टकं विधिनादितेनाभ्यर्चितेभ्यो द्विजेभ्यः अनु पश्चात् मंत्रेण संमंत्र्य कार्य विचिंत्य निवेदनीयं ततः किंचिदपसरेत्॥१७७॥मंत्रः॥ ॐ नमः खगपतये गरुडाय स्वाहा ॥ द्रोणेति ॥ त्वम् अशंकितः द्रोणाष्टकममुं ॥ भाषा॥ ॥ विधायति ॥ फिर प्रथम कुलदेवतानको पूजनकरके ता मंडलके मध्यमें आठों दिशानमें घी दही भात इनकरके पूर्वादशाकू आदिले क्रमकरके पिंडाष्टक देवै ॥ १७४ ॥ पक्षी. न्द्रेति ॥ पूर्वकू आदिले आठो दिशानमें युक्त किये जे आठ पिंड तिनमें क्रमसूं पक्षींद्र, वह्नि,. अन्तक, राक्षसेंद्र, विष्णु, विरिंचि, धनद, महेश इन आठ देवतानकू स्थापन करै ॥ १७५ ॥ ॥ नम इति ॥ आदिमें प्रणव अन्तमें नमः बीचमें नाम ॐ गरुडाय नमः या रीतसुं . मन्त्रनकरके संपूर्ण देवतानको अर्ध्य, आसन, चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, दक्षिणा इन करके पूजन करै ॥ १७६ ॥ अभ्यर्चितेभ्य इति ॥ पक्षीनकू पूजन करतापीछे मंत्रसूं पिंडाष्टककू आभिमंत्रण करके अपनो कार्य विचार करवो. पिंडाष्टक पक्षीनके अर्थ निवेदन करके कळूक पेंड पीछे हट अवै ॥ १७७ ॥ ॐ नमः खगपतये गरुडाय Aho! Shrutgyanam Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१६ ) वसंतराजशाकुने - द्वादशो वर्गः । कान पिंडे प्रथमे गृहीते तिष्ठन्त्र जेन्नापि भवेत्कृतार्थः ॥ उद्वेगशोकौ विफलः प्रवासो हानिः कलिर्वा भवति द्वितीये ॥ १७९ ॥ याम्ये रुगापद्भयमृत्यवः स्युः पिण्डे चतुर्थे विजयो रणेषु ॥ स्याद्वैष्णवेऽभीष्टमकष्टसाध्यं भवेत्प्रवासो विफलश्च षष्ठे ॥ १८० ॥ नास्तीहितं निश्चितमेव कार्य भुक्तेन यत्सिध्यति सौम्यपिंडे || संतापशोकौ विफला च यात्रा पिण्डेऽष्टमे वायसभक्षिते तु ॥ १८१ ॥ ॥ टीका ॥ पिंडं गृहाण च पुनर्यथादृष्टं निमित्तं अद्य मम स्फुटं कथय ॥ १७८ ॥ काकेनेति ॥ काकेन प्रथमे पिंडे गृहीते तिष्ठन्वजेन्ना पुरुषः कृताथः स्यात् द्वितीये पिण्डे गृहीते उद्वेगशोकौ स्यातां प्रवासः यात्रा विफला स्यात् । हानिः कलिर्वा भवति ॥ १७९ ॥ याम्ये इति ॥ याम्ये तृतीये पिंडे गृहीते रुगापद्भयमृत्यवः रुग्रोगः आपत् आपत्तिः भयमृत्यू प्रसिद्धौ एते स्युः । चतुर्थे पिण्डे गृहीते रणेषु विजयः स्यात् । वैष्णवे पिंडे गृहीतेऽभीष्टम अकष्टसाध्यं स्यात् । षष्ठे पिंडे विफलः प्रवासो भवेत् ॥ १८० ॥ नास्तीति ॥ सौम्यपिंडे भुक्ते ईहितं निश्चितमेव कार्य नास्ति । यन्न सिध्यति । वायसभक्षिते पिंडेऽष्टमे सन्तापशोकौ भवतः । फलदा च यात्रा न ॥ भाषा ॥ स्वाहा ॥ ये मंत्र अभिमंत्रण को है ॥ द्रोणेति ॥ हे काक तुम या अष्टकपिंडकू निःशंक ग्रहण करो. फिर जैसो कार्य होनहार होय तैसो मोकूं निश्चय कहो ॥ १७८ ॥ ॥ काकेनेति ॥ जो काक प्रथमपिंडकू ग्रहणकर स्थित रहे वा उडजाय तो पुरुष कृतार्थ होय अर्थात् सर्वकार्य होंय, और द्वितीयपिंडकूं ग्रहण करे तो उद्वेग शोक होंय, और यात्रा विफल होय और हानि कलह होय ॥ १७९ ॥ याम्ये इति ॥ तसिरे पिंडकं ग्रहण करे तो रोय, आपदा, भय, मृत्यु ये होय और चौथे पिंडकू ग्रहण करै तो संग्राम "में विजय होय जो पाँचमो पिंड ग्रहण करे तो कष्ट करे विना अभीष्टकी सिद्धि होय और छठो पिण्ड ग्रहण करे तो यात्रा विफल होय. ॥ १८० ॥ नास्तीति ॥ सातमो पिण्ड भक्षण करे तो निश्चयही कार्य नहीं होय और जो काक आठमो पिंड भक्षण करे Aho! Shrutgyanam Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकरुते प्रकरणानुक्रमः। (३१७) पिण्डं न गृण्हात्यथवा न भुंक्ते चंचूनखैर्विक्षिपति क्षितौ यः॥ कार्येषु सर्वेषु न स प्रशस्तो ब्रवीति घोरं समरं च पुंसाम्१८२ इंति वसंतराजशाकुने काकरुतेपिंडाष्टकप्रकरणं संपूर्णम्॥९॥ आये पंचशता द्वाभ्यां वृत्तौर्दिक्चक्रमारितम् ॥ काकालयपरीक्षा च द्वितीये दशभिस्त्रिभिः॥ १ ॥ वृत्तस्त्रिभिस्तृतीये च काकांडकपरीक्षणम् ॥ द्विचत्वारिंशता वृत्तर्यात्रा तुर्ये प्रकीर्तिता ॥ २ ॥ वृत्तानि विंशतिस्त्रीणि स्थानस्थाख्ये च पंचमे ॥ स्वरप्रकरणं षष्ठं वृत्तै दशभिस्ततः ॥३॥ ॥ टीका॥ स्यात् ॥ १८१॥ पिंडमिति ॥ यः काकः पिंडं न गृहाति अथवा न भुंक्त उत च क्षितौ चंच्वा नखैश्च इतस्ततो विक्षिपति स सर्वेषु कार्येषु नं प्रशस्तः। च पुनःपुंसां घोरं समरं ब्रवीति ॥ १८२ ॥ __ इति शजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्याय श्रीभानुचंद्रगणिभिर्विरचिता यो वसंतराजटीकायां काकरुते पिंडाष्टकप्रकरणं नवमम् ॥ ९ ॥ आद्य इति ॥ आये पंचशता द्वाभ्यामधिकेन वृत्तैः दिक्चक्रमीरितं द्वितीये दशभिस्त्रिभित्रशच्छ्लोकै काकालयपरीक्षा उक्ता ॥ १ ॥ वृत्तैरिति ॥ तृतीये विभिवृत्तः काकांडविचारणं तुर्ये द्विचत्वारिंशता वृत्तैर्यात्रा प्रकीर्तिता कथिता॥२॥ वृत्तानीति ॥ स्थानस्थाख्ये च पंचमे विंशतिस्त्रीणि वृत्तानि स्युः ततो वृत्तदि ॥ भाषा॥ तो संताप, शोक होय. और यात्रा फलकी देवेवारी नहीं होय ॥ १८१ ॥ पिंडमिति ॥ जो काक पिंडकू ग्रहण नहीं करें भक्षणभी नहीं करै और चोंच नखनकरके पृथ्वीमें विखेर देवै तो वो उत्तम नहीं जाननो. पुरुषनको घोर संग्राम करावे ये जाननो. ॥ १८२॥ इति श्रीमज्जटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचितायां वसंतराज भाषाटीकायां काकरुते पिंडाष्टकप्रकरणं नवमम् ॥९॥ - आद्य इति ॥ प्रथमप्रकरणमें बामनश्लोकनकरके दिक्चक्र कह्योहै, द्वितीयमें तेरह श्लोकन करके काकालयकी परीक्षा कहीहै ॥ १ ॥ वृत्तैरिति ॥ तृतीयमें तनिश्लोकनकरके काकांडकी परीक्षा कहीहै. चौथेमें बैंचालीस श्लोकनकरके यात्रा कही है ॥ २ ॥ वृत्तानीति ॥ पंचममें तेईस श्लोकनकर स्थानस्थित कहेहैं छठेमें द्वादशश्लोकनकरके स्वर Aho ! Shrutgyanam. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८) वसंतरानशाकुने त्रयोदशो वर्गः। एकादशभिराख्यातं बलिसंज्ञं च सप्तमम् ॥ पिंडत्रयविधानाय चतुर्दशभिरष्टमम् ॥४॥ पिंडाष्टकाभिधानार्थ नवमं यदुदाहृतम् ॥ अंत्यप्रकरणं तचं वृत्तान्येकादशैव हि ॥५॥ नव प्रकरणान्येवमाहुबलिभुजो रुते ॥ सामस्त्येन च वृत्तानामेकाशीत्यधिकं शतम् ॥६॥ ' इति वसंतराजशाकुने द्वादशो वर्गः संपूर्णः ॥ १२॥ निशाचरः पत्ररथः पृथिव्यां यः पिंगलेति प्रथिताभिधानः॥ उत्पादिताश्चर्यपरंपराणि निरूपयामः शकुनानि तस्य ॥३॥ ॥ टीका ॥ शभिः स्वरप्रकरणं षष्ठमुक्तं भवति ॥ ३ ॥ एकादशेति सप्तमं बलिसंज्ञमकादशभिवृत्तैराख्यातमष्टमं चतुर्दशभिवृत्तैः पिंडत्रयविधानाय भवति ॥ ४ ॥ पिंडाष्टकेति ॥ पिंडाष्टकाभिधानार्थ नवममंत्यप्रकरणं यदुदाहृतं तत्र वृत्तान्येकादश भवंति ॥ ५॥ नवेति ॥ एवममुनाप्रकारेण बलिभुजो रुते नव प्रकरणान्याहुः। विपश्चित इति शेषः । सामस्त्येन च वृत्तानाम् एकाशीत्यधिकं शतं मतम् ॥६॥ वसंत इति ॥ वसंतराजशाकुने विचारितेऽत्र वायसः शेषाणि विशेषणानि पूर्ववत् ॥ इति शबंजयकरमोचनादि सुकृतकारि महोपाध्याय-श्रीभानुचंद्रविरचितायां वसंतराजशाकुनटीकायां काकरते द्वादशो वर्गः समाप्तः॥ १२॥ निशाचर इति ॥ तस्य शकुनानि वयं निरूपयामः । कीदृशानि उत्पादिताश्चर्य परंपराणीति उत्पादिताः प्रकटीकृता आश्चर्य चित्रं तस्य परंपराः श्रेणयो यै ॥ भाषा ॥ को प्रकरण कह्याहै ॥ ३॥ एकादशेति ॥ सातमो एकादशश्लोककरकं बलिसंज्ञकप्रकरण कह्योहै। ॥ ४ ॥ पिंडाष्टकेति ॥ पिंडाष्टकके नामके अर्थ अंत्यको नवमो प्रकरण एकादश श्लोकनकरके कह्यो है ॥ ५ ॥ नवेति ॥ या प्रकार काकरुतमें नौ प्रकरण कहेहैं. तिनमें समस्त श्लोक एक सौ इक्यासीहैं ॥ ६॥ इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छीधरविरचितायां वसंतराजभाषाटकिायां काकरुते दादशो वर्गः समाप्तः॥ १२ ॥ निशाचर इंति ॥ जो रात्रिमें विचरैहै पंखजाके रथ और पृथ्वीमें पिंगल या नामकर प्रसिद्ध है ता पिंगलपक्षीके चित्रविचित्र आश्चर्यपरपंराकू प्रकट करनेवाले शकुन हम Aho! Shrutgyanam Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलास्तेऽधिवासनप्रकरणम् । (३१९) तत्र तावदधिवासने विधिः कथ्यते यदधिवासने कृते।तोषमेति शकुनाधिदेवता तेन सा भवति सत्यवादिनी ॥२॥ विमर्शकः शाकुनशास्त्रदक्षः सदा विशुद्धः सतताभियुक्तः॥ यथार्थवादी शुचिरिगितज्ञो भवेदिहाचार्यपदाधिकारी ॥३॥ ॥ टीका ।। स्तानि यो निशाचरः पत्ररथः पक्षी पृथिव्यां पिंगल इति प्रसिद्धाभिधानो वर्तते ॥ ॥ १॥ पूर्व कपिलमुनिना चंडिका आराधिता सा ज्ञानं कथितवती तेन तत् ज्ञानं कलियुगे कदाचिदसत्यं न भवति । तत्र प्रथममधिवासनप्रकरणं द्वितीयं शांतदीसाख्यं तृतीयं स्वरमात्रज्ञानं चतुर्थ स्वरग्रहाख्यं पंचमं शत्रुमित्रोदासीनताभिधं षष्ठं धेनुगर्भबंधाख्यं सप्तमं केवलं स्वरभावाख्यमष्टमं दिसंयोगाख्यं नवमं त्रिसंयोगाख्यं दशमं चतुःसंयोगाख्यमेकादशं संकीर्णप्रकरणं द्वादशं चेष्टाज्ञानं त्रयोदशं यात्राप्रकरणम् । एवं त्रयोदश प्रकरणानि भवति तत्रायं प्रकरणं प्रतिपादयन्नाह तत्रेति ॥ तत्र तस्मिन्पिगलाप्रकरणे तावदादौ अधिवासने शकुननिमंत्रणे विधिः कथ्यते प्रतिपाद्यते । यदधिवासने कृते शकुनाधिदेवता शकुनाधिष्ठात्री मुरी तोषमेति । सा सुरी तेन तोषेण हेतुना सत्यवादिनी स्यात्॥२॥विमर्शक इति ॥ अत्रापि ॥ भाषा॥ निरूपण करहै ॥ १ ॥ पहले कपिल मुनिने चंडिकाको आराधनकियो तब वो चंडिकाज्ञान कहतीहुई ताकरके वो ज्ञान कलियुगमें कदाचित् असत्य नहीं है तामें पहलो अधिवासनप्रकरण १. दूसरो शांतदप्ति नाम २. तीसरो स्वरमात्रज्ञान ३. चौथो स्वर ग्रहनाम ४. पांचमो शत्रुमित्रमें उदासनिता ५. छठो धेनुगर्भबंधनाम ६. सातमो केवल स्वरभावनाम ७. आठमो द्विसंयोग नाम ८. नौमो त्रिसंयोगनाम ९. दशमो चतुःसयोग नाम १०. ग्यारमो संकीर्णप्रकरण ११. बारमो चेष्टा ज्ञान १२. तेरमो यात्रा प्रकरण १३. याप्रकार त्रयोदश प्रकरणहैं। तिनमेंसू प्रथम अधिवासन प्रकरण कहैहैं ॥ तत्रेति ॥ पिंगलाके प्रकरणमें जो प्रथम अधिवासन तामें शकुननिमंत्रणकी विधि कहैहैं अधिवासन करेसं शकुनकी अधिष्ठातृदेवी प्रसन्न होय है वो प्रसन्न हुयेसू सत्यवादिन होयहै ॥ २ ॥ विमर्शक इति॥ विचारको करवे वालो होय, शकुनशास्त्रमें चतुर होय, सदा शुद्ध रहतो होय, योग्य होय, सत्यचादी होय, सब चेष्टानकू जानतो होय ऐसो शकुनको देखवेवारो अधिकारी होय ॥ ३ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२०) वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः । यदा दिनसंग्रहलनशुद्धिस्ताराबलं चंद्रमसो बलं च ॥ पुंसा तदाभीप्सितकार्यसिद्ध्यै पिंगेक्षणायाः शकुनं निरीक्ष्यम् ॥ क्षीणचंद्रतिथिदुःसहानिलं दूषितं धरणिकंपनादिना ॥ सर्ववज्जलदसंकुलांबरं वर्जयेच्छकुनदर्शने दिनम् ॥५॥क्षीरिणं सफलपुष्पपल्लवं सर्वदोषरहितं सुभूमिजम् ॥ पिंगलायुगलनिश्चिताश्रयं शस्तमाहुरधिवासने द्रुमम् ॥ ६॥ ॥ टीका ॥ पूर्वप्रतिपादित एवाधिकारीज्ञेयः॥३॥ यदेति क्षीणेति॥पूर्व व्याख्यातम् ॥ ४ ॥५॥ क्षीरिणमिति ॥ एतादृशं द्रुममधिवासने शस्तमाहुः । कीदृशं क्षीरिणं: क्षारयुक्तं सफलपुष्पपल्लवमिति फलं प्रतीतं पुष्पं कुसुमं पल्लवाः नवीनपत्राणि तैयुतं सर्वदो. परहितमिति सकलदोषनिर्मुक्तं सुभूमिजमिति शुद्धभूमौ समुत्पन्नं पिंगलायुगलनिश्चिताश्रयमिति पिंगलायुगलस्य निश्चितः आश्रयो यस्मिंस्तथा तत्रायं विशेषः।प्रथम जलादिना क्षेत्रप्रसेचनं पश्चादृक्षपक्षिणां ज्ञानं कर्तव्यं तत्र गोस्थानं गजस्थानमुष्टसमूहस्थलं मनुष्यकोलाहलयुतंबहिर्भूमिस्थलमास्थसमूहाकुलं श्मशानमेतानि स्थानानि वर्जनीयानि तथा वृक्षं परितः कंटकाकुलं शुष्कज्वलितभंगांश्च तथा उद्वसं देवगृहजीर्णगृहपतितदुभित्तयश्च ग्रामस्ववृक्षः एतत्स्थलस्थितपिंगलापि त्याज्या।जीर्णशल्योपगतत्रोटितज्वलितवायुपतितोत्पाटितखंडितविनिता वृक्षास्त्याज्याः तथा वृक्षवेष्टितो वल्लीवेष्टितश्च त्याज्यातथा यस्योपरि शकुनिकोलूकश्येनदुष्टपक्षिणां निवासः ॥ भाषा ॥ ॥ यदेति ॥ जब दिननक्षत्र ग्रहलग्नशुद्धि ताराबल चंद्रमाको बल ये पुरुषके अनुकूल होंय तब वांछित कार्यकी सिद्धिके लिये पिंगलको मुहूर्त देखनो योग्यहै ॥ ४ ॥ ॥क्षीणचंद्रोति ॥ जा दिन क्षीणचंद्र होय पवन जामें दुःसह चल रह्यो होय भूकंपनादिक करके दूषित होय मेघनकरके व्याप्त आकाश होय, ऐसो दिनशकुन देखवेमें वार्जित है ॥ ५ ॥ क्षीरिणमिति ॥ जामें दूधनिकलतो होय, फल, पुष्प, पल्लव, नवीनपत्र इनकरके युक्त होय, सर्वदोष रहित होय, शुद्धभूमिमें उत्पन्न हुवो होय और पिंगलाको युगल नाम जोडा जामें रहतो होय ऐसो वृक्ष अधिवासनमें लीनो है तामें विशेषकरके वृक्षकी परीक्षा और पक्षीकी परीक्षा कहैहैं ॥ प्रथम तो जलादिक करके क्षेत्रकू सींचलै पीछे वृक्ष और पक्षीनको ज्ञानकरनो योग्य है. जहां गोस्थान होय, गजस्थान, ऊंटनके Aho! Shrutgyanam Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुतेऽधिवासनप्रकरणम् । (३२१) ॥ टीका॥ सोऽपि त्याज्यः वानरशिशुसाक्रांतश्च वर्जनीयः इति वृक्षपरीक्षा|अथ पक्षिपरीक्षा। तालवटबिल्वकपित्थस्थः पक्षी वैश्यः ।निंबापप्पलपिप्पलीकरीरजंबूकदंबस्थः क्षत्रियः आम्रमधूकखजूरीस्थः शूदाविप्रः सर्वगः।तथा दीर्घरूक्षवर्णः स्थूलनादःक्षत्रियः मधुरभाषी पिंगलवर्णः वैश्यःअल्पपुच्छो वर्तुलशीर्षोऽस्थायिनादःश्यामवर्णःशूदः । एतद्यतिरिक्तो ब्राह्मणातथाऽस्थापिशरीरः अल्पनादःस पुरुषः।अल्पशब्दमहाशरी. रा सास्त्री।पुरुषोघर्षरकंठापीतवर्ण:महाचंचुश्चेष्टाहीन आलस्यवाज्ञेयः।वहुद्विगुणस्वरवादी वृद्धो ज्ञेयः॥ अल्पपुच्छः ताम्रचंचुः स्वल्पांगः पुरुषस्वरवादी भेकवद्गामी भायुक्तः स वालः धूसरवर्णा महाजंघा दीनस्वरकारिणी सा गर्भिणी । एवंविधा शनैगच्छति या सा प्रसविता पूर्वोक्ता कोपतःतीक्ष्णस्वरवादिनी वंध्या।स्वसवर्णखि ॥ भाषा ॥ समूह होय, मनुष्यको कोलाहल शब्द होतो होय. जहां जंगल फिरते होय. हाडनको समूह होय, श्मशान होय ये स्थान वार्जित हैं तैसही वृक्ष कहैहैं ॥ कांटेनको होय और सूखो जलो टूटो होय और तैसेंही फूटो देवमंदिर होय जीर्णघर होय दुर्ग और भीत ये गिरपडे होय उजडो ग्राम होय पडो हुयो वृक्ष होय इनस्थलनमें स्थितपिंगलपक्षी त्याग. के योग्य है. और जीर्णवाणकरके छेदन कियो होय, जलो होय, पवनकरके उखडयो होय, कटयो होय, खंडित होय ऐसे वृक्ष त्यागके योग्य हैं. वृक्षकर वेष्टित वल्लीकर वेष्टित वृक्ष त्यागके योग्य हैं. और जा वृक्षके ऊपर घूघू, शिखरा, दुष्टपक्षीनको निवास सोभी त्याग करबेके योग्य है ॥ ॥ इतिवृक्षपरीक्षा ॥ अथ पक्षीपरीक्षा ॥ तालवट, बिल्ल, कपित्थ इन वृक्षनपै स्थितपक्षी होय ताकी वैश्य संज्ञा. और निंब, पिप्पल, पिप्पली, करीर, जम्बु, कदंब इनपै स्थित पक्षीकी क्षत्रिय संज्ञा है. और आम्र, मधूक, खजूर इनपै स्थितको शूद्रवर्ण है. इनते अन्य सब वृक्षनपै स्थित होय तो ब्राह्मण. और दीर्घ होय. रूखो वर्ण जाको होय स्थूलनादजाको होय वो क्षत्रिय जाननो. और मधुरभाषी होय पिंगलजाको वर्ण होय वो वैश्य जाननो. और अल्प पूंछ जाकी होय, वर्तुलाकार जाको मस्तक होय, अस्थिर जाको नाद होय, श्यामवर्ण जाको वो शूद्र जाननो. इनते व्यतिरिक्त अर्थात् न्यारो होय वो ब्राह्मण जाननो. और स्थिर शरीर जाको अल्पनाद जाको वो पुरुष जाननो. और अल्पशब्द जाको महान् शरीर जाको सो स्त्री Aho! Shrutgyanam Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशो वर्गः। स्नातः शुचिः पांडुरवस्त्रधारी यत्नेन कृत्वा पितृदेवकार्यम् ॥ आचार्यमित्रानुचरैः समानं सायं व्रजेद्वर्णितवृक्षमूलम् ॥७॥ गोचर्ममात्रामवनिं च तत्र विशोध्य पिन्नवगोमयेन ॥ तस्मिन्विदध्याद्विततं विचित्रं पिष्टांतकेनाष्टदलं सरोजम् ॥ ॥८॥मृदादिनोर्द्धस्यमथ प्रकल्प्य निवेशयपिंगयुगं सरोजतिथैव चंडीमपि वक्ष्यमाणध्यानाकृति पिष्टमृदादिसृष्टाम्॥९॥ ॥टीका ॥ या युक्तः शुभः वैपरीत्ये वैपरीत्यम् ॥ ६ ॥ स्नात इति ॥ पुमान्वर्णितवृक्षमूलं सायं बजेताकीहक त्रातः कृतस्नानः श्रुचिरिति पवित्रः पांडुरवस्त्रधारीति पांडराणि श्वतानि वस्त्राणि धारयतीत्येवंशीलः स तथा।किं कृत्वा पितृदेवकार्य केन यत्नेन आ. दरपूर्वकमित्यथः।कथं समानं सह कैः आचार्यमित्रानुचरैः तत्र आचार्यः शकुनज्ञानोपदेष्टा मित्रं मुहत् अनुचराः सपर्याकारिणः ॥ ७॥ गोचर्ममात्रामिति ॥ तत्र वक्षमलादौ गोचर्ममात्रामवनि विशोध्य शर्करादि दूरे क्षित्वा नवगोमयेन लिंपेत् । लिप्रदेशे पिष्टांतकेन भाषायां रांगोळी इति ख्यातेन अष्टदल सरोज कमलं विततं विस्तीर्ण विचित्रं विविधवर्ण विदध्यात्कुर्यात् ॥ ८॥ मृदादिनेति ॥ अथ ॥भाषा॥ . जाननी. और पुरुष होय धर्धर कंठ जाको हाय महान् बडी जाकी चोंच होय चेष्टाहीन होय वो आलस्यवान् जाननो. और जो बहुत द्विगुणोस्वर बोले वो वृद्ध जाननो और अल्पपंछ जाकी ताम्रकीसी चोंच जाकी, बहुत अल्प अंग होय, कठोर स्वर बोले, मेंडकी कोसो गमन करै, जंभाई युक्त होय वो बालक जाननो. धूसरो वर्ण जाको, महान् जंघा जाकी. दीनस्वर करवेवाली होय वो गर्भिणी जाननी. और ऐसी होयकै हौले हौले चले तो प्रसवती जाननी. पहले कहे लक्षण होंय कोपकर तीक्ष्ण स्वर बोले तो बंध्या जाननी. अपने वर्णकी स्त्रीकरके युक्त होय तो शुभ जाननो. और विपरति धर्म होय तो विपरीत जाननो ॥६॥ सात इति ॥ पुरुष स्नानकर पवित्र होय श्वेतवस्त्र धारण कर शीलस्व. भाव होय. पितृदेवकार्य करके शकुनजानके उपदेष्टा गुरु, सुहृत, अनुचर इनकरके सहित सायंकालकू पहले वर्णन कर आये जिन वृक्षनकी मूलमें जाय ॥ ७ ॥ गोचर्ममा त्रामिति ॥ वा वृक्षके नीचे गोचर्ममात्र पृथ्वी शोधकर अर्थात् बहारीलगाय कंकर कांटे दरकरके नवीन गोबरतूं लीपकर लिपी पृथ्वीमें चुन लेकर चित्रविचित्र नानावर्णके रंगसहित अष्टदल कमल करै ।। ८ ॥ मृदादिनेति ॥ मृत्तिकादिक करके ऊंचो मुख जाको Aho! Shrutgyanam Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुतेऽधिवासनप्रकरणम् । ( ३२३ ) क्रमेण काष्टा दशस्वीह निवेशनीया दशलोकपालाः ॥ इंद्रा निकालात्रपपाशिवायुयक्षेश्वरा ऊर्द्धमजोऽच्युतोऽधः ॥ ॥ १० ॥ नमोयुतैः सप्रणवैश्च सर्वैः स्वनाममंत्रः क्रमतोऽर्चनीयाः॥अर्ध्यासनालेपनपुष्पधूपनैवेद्यदीपाक्षतदक्षिणाभिः ११ अथ मंत्रः ॥ ॐ वृक्षस्थानाय नमः। इत्यासनमन्त्रः । ॐ ह्रीं श्री के चामुंडे हुं नमोऽस्मिन्वृक्ष अवतर अवतर स्वाहा॥अनेमंत्रेण चंडीं वृक्षेऽवतारयेत् । ॐ पिंगले मेखले रेवति ॥ टीका ॥ ऊर्द्धास्यमूर्द्धमुखं पिंगयुगं पक्षिमिथुनं मृदादिना प्रकल्प्य सरोजे निवेशयेत् । तथा वक्ष्यमाणध्यानाकृतिं पिष्टमृदादिसृष्टां चंडीमपि निवेशयेदित्यर्थः ॥ ९ ॥ क्रमेति ॥ क्रमेण दश काष्ठास इंद्रा निकालासपपाशिवायुयक्षेश्वराभिधाना लोकपालाः तत्र निवेशनीयाः । तत्र इंद्रः प्रसिद्धः अभिर्वैश्वानरः कालो यमः अस्रपोराक्षसः पाशी वरुणः वायुः समीरणः यक्षः कुबेरः ईश्वरो भगवान् तथा ऊर्द्धमजः ब्रह्मा अधः अच्युतश्च निवेशनीयः ॥ १० ॥ नम इति ॥ पूर्वमेव व्याख्यातत्वादुपेक्षितम् । अथ मंत्रः । ॐ वृक्षस्थानाय नमः इत्यासनमंत्रेणासनाभिमंत्रणम् । ॐ श्री चामुंडे नमोऽस्मिन्वृक्षेऽवतर अवतर स्वाहा । अनेन मंत्रेण चंडी वृक्षेऽवतारयेत्। ॐ पिंगले मेखले रेवति रात्रिचारिणि ब्रह्मपुत्रि सत्यमेतद् ब्रूहि मे स्वाहा । इत्याह्वानमन्त्रः । अनेन मन्त्रेण पक्षिण आह्वानम् । ॐ ह्रीं श्रीं हूं चिलिचिलि वौषट् । इति पूजाजाप्यहोममन्त्रः । ॐ सिद्धिचामुण्डे कृष्णपिंगले स्वाहा । नमो भगवति कालरात्रि मन्त्रमूर्तिमहेश्वरि चामुडे प्रजापालिनि योगेश्वरेि आगच्छागच्छ एह्येहि तिष्ठतिष्ठ । ॐ ह्रीं चिलिचिलि शब्दाय स्वाहेत्यधिवासनमंत्रः ॥ ११ ॥ ॥ भाषा ॥ 1 ऐसो एक पगलको जोडा बनाय वा कमलमें बैठाय दे और अगाडी व्यानकी आकृति कहेंगे वैसी चनकी वा मृत्तिकादिककी बनी हुईं चण्डीकूं भी स्थापन करे ॥ ९ ॥ क्रमेणेति ॥ कमकरके दशों दिशा में इंद्र, अग्नि, यम. राक्षस, वरुण, वायु, कुबेर, रुद्र ऊपर ब्रह्माजी नीचे अच्युत ये दशलोकपाल देवता स्थापन करे ॥ १० ॥ नम इति ॥ ॐ इंद्राय नमः बा रीतसूं नाम मन्त्रनकर क्रमसूं अर्घ्य, आसन, चन्दन, पुष्पाक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, दक्षिणानकरके पूजन करै ॥ ११ ॥ ये आसनमंत्रकूं आदिले अधिवासन तांईके मंत्र मूलमें हैं यहां ठीकामें नहीं लिखै मूलमेसूं जान लेनो. ॥ Aho! Shrutgyanam Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२४) वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः। रात्रिचारिणि ब्रह्मपुत्रि सत्यमेतद्बाहि मे स्वाहा । इत्याह्वानमंत्रः । ॐ क्रोंह्रींहूं चिलिचिलि वौषट् । इति पूजाजपहोममंत्रः । ॐ सिद्धिचामुण्डे कृष्णपिंगले स्वाहा । ॐ नमोभगवति कालरात्रि मंत्रमूर्ते महेश्वरि चामुंडे प्रजापालिनि योगेश्वरि आगच्छागच्छ एत्येहि तिष्ठतिष्ठ । ॐ ह्रीं चिलिचिलि शब्दाय स्वाहा ॥ ॥ इत्यधिवासनमन्त्रः ॥ गुरूपदेशात्समवाप्य मंत्रं शतं जपेत्तस्य कृतावधानः॥ होमो दशांशेन च मन्त्रजाप्यात्कृतो विधेयो मधुना समिद्भिः ॥ ॥ १२॥ उदुंबराश्वत्थपलाशशाखादूर्वाप्रकाण्डाग्रदलोद्भवाभिः ॥ हुत्वा समिद्भिर्मधुना घृतेन ध्यानं विदध्याद्विहितावधानः ॥ १३ ॥शवाधिरूढां नृकपालहस्तां शूलायुधां भूतिसितांगयष्टिम् ॥ उलूकचिह्नां नरमुंडमालां निर्मासदेहां रुधिरं पिबन्तीम् ॥ १४ ॥असृग्वसाचर्चितकृष्णकायां करीन्द्रपञ्चाननचर्मवस्त्राम् ॥ बिभीतकस्थामतिभीमरूपां चंडी स्मरेपिंगलिकां प्रपूज्य ॥ १५॥ ॥ टीका॥ गुरूपदेशादित्यादि भोजयेदित्यन्तम् अष्टलोकाः पूर्व व्याख्यातत्त्वान्न व्याख्यायन्ते ॥ १२ ॥ १३ ॥ १४ ॥ १५ ॥ ॥ भाषा ॥ गुरुपदेशादिति ॥ गुरुनके उपदेशते मंत्र प्राप्त होय फिर सावधान होयकर मंत्रको जप यथा. शक्तिकर फिरदशांश हवन करै ।। १२ ॥ उदंबरेति ।। गूलर, पीपल, पलाश इनकी शाखा और दूर्वा समिधासहित घृत इनको दशांशहवन करके फिर एकाग्र चित्त होय ध्यान करै ॥ १३ ॥ शवाधिरूढामिति ॥ शवके ऊपर बैठी हुई मनुष्यको कपाल जाके हाथमें त्रिशूल जाके आयुध भस्मकरके श्वेत अंग जाको घुघको चिह्न जाके नरमुंडकी माला धारण करे मांस रहित देह जाको रुधिर पान कर रही ॥ १४ ॥ अमृग्वसेति ॥ रुधिर सहित मांसकरके चर्चित कृष्ण देह जाको श्रेष्ठ हाथी और सिंह इनके चमेको वस्त्र जाको बहेडेके वृक्षपै स्थित अति Aho! Shrutgyanam Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · पिंगलारुतेऽधिवासनप्रकरणम् । (३२५) वृक्षं च तं चर्चितमर्चितं च प्रवेष्टयेत्पाडुरवस्त्रसूत्रैः ॥ यथावदभ्यर्चनतोषिताय पूजां समस्तां गुरवे प्रदद्यात् ॥१६॥ आराध्य देवों विधिनेदृशेन प्रयोजनं स्वं विनिवेद्य तस्यै॥ पृष्ठे प्रदीप्तां ककुभं विधाय वीक्षेत तच्चेष्टितमेकचित्तः॥१७॥ बद्धांजलिर्भूमिनिविष्टजानुः प्रणम्य भत्त्या शिरसा समस्तान्॥आवर्तयन्मन्त्रमथात्मगेहं व्रजेत्स्मरन्पंगालकांमनुष्यः॥ १८॥ भोजयेदथ गुडाज्यपायसैः श्रद्धया कतिपयाः कुमारिकाः॥आत्मनोऽपि विदधीत भोजनं तद्गुरुस्वजनबंधुभिः समम् ॥ १९॥शयीत पश्चाद्विजनें रजन्यां यामत्रयं यावदथ प्रबुध्यात् ॥ स्वप्नं स्मरेद्यद्भवतीह लब्धं तत्सत्यमाहुः शकुनागमज्ञाः ॥२०॥ ॥ टीका॥ ॥ १६ ॥१७॥१८॥१९॥ शयीतेति ॥ पश्चादजन्यां यामत्रयं यावत् विनने शयीत।अथ प्रबुध्य स्वमं स्मरेद्यल्लब्धं भवति यतः शकुनागमज्ञाः तत्सत्यमाहुः॥ २०॥ ॥ भाषा ॥ भयंकर रूप जाको ऐसी चंडी जो पिंगलिका ताको स्मरण कर या प्रकार पिंगलिकाको पूजन करके ॥ १५ ॥ वृक्षमिति ॥ चंदनकर चर्चित अर्चन कियो गयो पृक्ष ताकू पिंगलिकाकू श्वेतवस्त्रसूत्र पहराय देनो या प्रकार अर्चन करकै प्रसन्न हुये गुरुनके अर्थ पूजा निवेदन करै ॥ १६ ॥ आराध्येति ॥ या विधिकर देवीको आराधन करके अपनो प्रयोजन निवेदन कर दीप्त दिशाकू पीठ विछाडी करके एकाग्रचित्त होय फिर वाकी चेष्टाकू देखै ॥ १७॥ वद्धांजलिरिति ॥ मनुष्य हाथ जोड पृथ्वीमें जानू टेक मस्तक नमायकर भक्तिपूर्वक नमस्कार करके मंत्र बोलतो हुयो पिंगलिका स्मरण करत अपने घरकू गमन करै ॥ १८ ॥ भोजयेदिति ॥ घर आयकरके गुड, घृत, खांड, क्षीर इनकरके श्रद्धापूर्वक कन्याकुमारी भोजन करावै फिर आपभी गुरु, स्वजन बंधु इनकरके सहित भोजन करै ॥ १९ ॥ शयीतेति ॥ ता पीछे रात्रिमें निर्जन स्थानमें तीन प्रहर रात्रिपर्यंत शयन कर फिर प्रहरके तडके उठ करके स्वप्नकू स्मरण करै जो प्राप्त होय ताय शकुन जानवै Aho ! Shrutgyanam Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२६ ) वसंतराजशाकुने - त्रयोदशी वर्गः । तत्रैव तुयें प्रहरे रजन्यां गत्वा पुनस्तस्य तरोः समीपम् ॥ प्रपूज्य देवीं शपथांश्च दत्त्वा उच्चैर्वाचा कार्यमुदीरयेत्स्वम् ॥ ॥ २१ ॥ नीतं न दीप्तादिविचारकोटिं यत्पिंगलाया विरुतेऽत्र किंचित ॥ तद्ब्रह्मपुत्रीविरुतादशेषं विशेषतः शाकुनिकोऽवगच्छेत् ॥ २२ ॥ इति पिंगलिकरुते अधिवासनप्रकरणं प्रथमम् ॥ १ ॥ ॥ टीका ॥ तत्रैवेति ॥ तुर्ये प्रहरे चतुर्थप्रहरे तत्रैव तरोस्तले गत्वा मृले देवीं प्रपूज्य शपथश्च दत्त्वा उच्चवाचा स्वकार्यमुदीरयेत् ॥ २१ ॥ नीतमिति ॥ अत्र पिंगलाया रुतेविरुते दीप्तादि यत्किंचिद्विचारकोटिं न नीतं तद्ब्रह्मपुत्रीविरुतादशेषं विशेषतः शाकु· निकः अगवच्छेत् ॥ २२ ॥ इति वसंतराजटीकायां पिंगलारुतेऽधिवासनप्रकरणं प्रथमम् ॥ १ ॥ यत्पिंगलाभिधानः रात्रिचरः पतत्री वर्तते तस्य अत्र शांतदीप्तस्वरूपमनुक्तमपि पूर्ववज्ज्ञेयं तद्यथा प्रथमं पृथ्वीजलतेजांसि शांतस्वराणि तत्र तेजस उभयरूपत्वात् शांतेन सह संगतः शांतिः दीप्तेन सह संगतो दीप्तः वाय्वाकाशौ शांतस्वरौ शांतदीप्तौ तथोच्चसमुखदक्षिणगामिनी गतिः शुभा स्ववृक्षान्महावृक्षगामिनी शुभा फलं पुष्पं भक्षमाणायाः पिंगलाया गतिः शुभा शांतेत्यर्थः अधोमुखं वाममुखं च कृत्वा उड्डयनं करोति दीप्ता वामगामिनी चंचला च गतिर्दीप्ता उपरि शाखातोऽधः शाखाश्रयिणी गतिः महाशाखाश्रयिणी गतिः महाशाखातो लघुशाखाश्रयिणी च गतिर्दीप्ता तथा कंटकवृक्षाश्रयिणी चइति शांतदीप्तगतिः । प्रथमहरे दक्षिणा कर्दमिता नैर्ऋत्यादिग्वारुणी पश्चिमा सौभागिनी वायव्या सगुणा उत्तरा धूमिता ईशाना धूमिता पूर्वा लोहिता ॥ भाषा ॥ वारे सत्य कहैं हैं ॥ २० ॥ तत्रैवेति ॥ रात्रि के चौथे प्रहरमें वाही वृक्ष के नीचे फ जाय देवीको पूजन कर सौगन्ध देकरके फिर ऊंचीवाणी कर अपनो कार्य कहै !! २१ ॥ नीतमिति ॥ या पिंगला के रुतमें दीप्तादिकविचार कभी नहीं है. या ब्रह्मपुत्रीके शब्दसू शकुनी विशेष करके समग्र जाने हैं ॥ २२ ॥ इतिवसंतराजभाषाटीकायां पिंगलिकारुतेऽधिवासनप्रकरण प्रथमम् ॥ जो पिंगल नामपक्षी रात्रिमें विचरे ताको यामें शांतदप्ति स्वरूप नहीं कह्यो है तो Aho! Shrutgyanam Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२७) पिंगलास्तेधिवासनप्रकरणम् । .॥ टीका ॥ आमेयी प्रज्वलिता।अयद्वितीयमहरे निर्मतिःकर्दमिता पश्चिमा वारुणी वायवी सौं भागिनी उत्तरासगुणा ऐशानी धगिता पूर्वाधूमिता आमया लोहिता दक्षिणा प्रज्वलिताअथ तृतीयपहरे पश्चिमा कर्दमिता वायवी वारुणी उत्तरा: सौभागिनी ऐशानी सगुणा पूर्वा धगिता आमेयोधूमितादक्षिणालोहिता नितिः प्रज्वलिता अथ चतुर्थनहरे वायवी कर्दमिता उत्तरा वारुणी ऐशानी सौभागिनी पूर्वो सगुणा आ. मेयी धगिता दक्षिणा धूमिता नितिलोहिता पश्चिमा प्रज्वलिता|अथ पंचमाहरे उत्तरा कर्दमिता ऐशानी वारुणी पूर्वा सौभागिनी आमेयी सगुणा दक्षिणा धगिता नितिधुमिता पश्चिमा लोहिता वायवी प्रज्वलिता।षष्ठपहरे ऐशानी कर्दभिता पूर्वा वारुणीआमेयी सौभागिनीदक्षिणा सगुणा निति धगिता पश्चिमाधगिता वायवी. लोहिता उत्तरा प्रज्वलिता । सप्तमप्रहरे पूर्वा कर्दमिता आमेयी वारुणी दक्षिणा सौभागिनी नितिःसगुणा पश्चिमाधगितावायवी धूमिता उत्तरा लोहिता ऐशानी प्रज्वलिता । अष्टमप्रहरे आमेयी कर्दमिता दक्षिणा वारुणी नितिः सौभागिनी पश्चिमा सगुणा वायवी धगिता उत्तरा धूमिता ऐशानी लोहिता पूर्वा प्रज्वलिता। इति शांतदीप्तदिक्प्रकरणम् । आसां गुणाः । प्रथमपहरे दक्षिणस्यों संतोष ॥ भाषा॥ हूं पूर्वकीसी नाई जाननो पृथ्वी, जल, तेज ये शांत स्वरहैं तामें तेजके दोय रूपहें शांत सहित मिलवां होय तो शांत और दीप्तकर सहित होय तो दीप्त. और वायु आकाश ये दोनों शांतस्वरहैं और शांतदीप्तभी है. जो पिंगला ऊंची सम्मुख दक्षिण गमन करे तो गति शुभ और अपने वृक्षपैते महान् वृक्षपै गमन करे तो शुभफल, और पुष्प भक्षण करती होय ताकगिति शुभा. और शांता और नीचो मुख करै वा वा ममुखकरके उडजाय तो दीप्ता. और वामगमन करे और चंचला होय तो गति दीप्ता. और ऊपरकी शाखाते नाचेकी शाखापै आय जाय वा महान्शाखापै जाय बैठे और महान् शाखापेतूं छोटीशाखापै आय बैठे तो: ये गति दीप्ता. जो कांटेके वृक्षपै जाय बैठे तो दीप्तागति जाननी ॥ इति शांतदीप्तगतिः ॥ प्रथमप्रहरमें दक्षिण दिशा कर्दमिता, नैर्ऋ. त्य दिशा वारुणी, पश्चिम सौभागिनी, वायव्य सगुणा, उत्तरा धगिता, ईशानी धूमि. ता, पूर्वा लोहिता, अग्नेयी प्रज्वलिता ॥ अथ दूसरे प्रहरमें || नैर्ऋती दिशा कर्दमिता, पश्चिमा वारुणी, वायवी सौभागिनी, उत्तरा सगुणा, ऐशानी धगिता, पूर्वा धूमिता, आग्नेयी Aho ! Shrutgyanam Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२८) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशो वर्गः। ॥ टीका ॥ नैऋत्यदिशि लाभः पश्चिमादशि चिंतितकार्यसिद्धिः वायव्यदिशि धनलाभः उत्तरस्यां हानिः ऐशान्यां भयं पूर्वस्यां चिंता आमेय्यां कलिरेवमन्यत्रापि ज्ञेयम् । रम्यंस्थानं शुभं वटः पिप्पल आम्रः जंबूः सुस्थलवृक्षःमहान्वृक्षः अत्यंतोच्चवृक्षश्च तालस्तमालः खजूरीत्यादि स्थलं शति तथा शुष्कवृक्षपीडितोत्पाटितज्वलितरक्षाखर्परास्थिकंकटगृहभित्तिदुर्गभित्तिवृक्षकटुकंटकवृक्षोद्धतदेशदेवालयानि दीप्तसंज्ञानिादक्षिणचेष्टाः उभौ पक्षौ प्रसार्य मस्तकोपरि स्थापनम् । अंगमर्दनं दक्षिणविभागदर्शित्वं निर्वातस्थलेषु निश्चिततया शुभचेष्टाकारित्वं परस्परं कंडूयनमैथुनानि वा द्रष्टुः सम्मुखदर्शित्वं संनिहितसम्मुखागमने च दक्षिणांगकंडूयनमुन्मीलितनयनत्वं पक्षो. दरकंठनेत्रचंचुनासिकाशिरसो दक्षिणभागे कंडूयनकारित्वं शुभं यावत्यो वामचेष्टा. स्तावत्योऽशुभाः । तथा पलायनं मौनकर्तृत्वं गृहीतभक्ष्यत्यागः अन्यपक्षिमुखे भ. क्ष्यार्पणं नेत्रयोर्मीलनं द्रष्टुः पराड्मुखगामित्वम् अन्यपक्षिभिः सह युद्धकारित्वं विणमूत्रकारित्वमधोदर्शित्वमित्यादि दीप्तम्। अथैषां फलानि । दीप्तस्वरेण कलिः दीप्तगत्या गमनेन उद्वेगः दीप्तदिशा कष्टं दीप्तस्थानेन स्थानभ्रंशः दीप्तचेष्टया विग्रहः' ॥ भाषा ॥ लोहिता, दक्षिणा प्रज्वलिता ॥ अथ तीसरे प्रहरमें ॥ पश्चिमा कमिता, वायवी वारुणी, उत्तरा सौभागिनी, ईशानी सगुणा, पूर्वा धगिता, आग्नेये।धूमिता, दक्षिणा लोहिता, नैर्ऋति प्रज्वलिता ॥ अथ चौथे प्रहरमें ॥ वायव्या कर्दमिता, उत्तरा वारुणी, ईशानी सौभागिनी, पूर्वा सगुणा, आग्नेयी धगिता, दक्षिणा, धूमिता, नैति लोहिता, पश्चिमा प्रज्वलिता ॥ अथ पंचमप्रहरमें ॥ उत्तरा कर्दमिता, ईशानी वारुणी, पूर्वा सौभागिनी, आग्नेयी सगुणा, दक्षिणा धगिता, नैति धमिता, पश्चिमा लोहिता, वायव्या प्रज्वलिता ॥ छठे प्रहरमें ॥ ईशानी कर्द. मिता, पूर्वा वारुणी, आग्नेयी सौभागिनी, दक्षिणा सगुणा, नेति धगिता, पश्चिमा धूमिता, वायव्या लोहिता, उत्तरा प्रज्वलिता ॥ सातमें प्रहरमें ।। पूर्वा कर्दमिता, आग्नेयी वारुणी, दक्षिणा सौभागिनी, नैऋति सगुणा, पश्चिमा धगिता, वायव्या धूमिता, उत्तरा लोहिता, ईशानी प्रज्वलिता आठमें प्रहर में ॥ आग्नेयी कर्दमिता दक्षिणा वारुणी, नैर्ऋति सौभागिनी, पश्चिमा सगुणा, वायव्या धगिता, उत्तरा धूमिता, ईशानी लोहिता, पूर्वा प्रज्वलिता ।। ॥ इति शांतदीप्तदिक्प्रकरणम् ॥ अब इनदिशानके गुण कहैं हैं ॥ पहले प्रहरमें दक्षिण दिशामें संतोष होय. नैर्ऋत्य Aho! Shrutgyanam Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२९) पिंगलास्तेऽधिवासनप्रकरणम् । ॥ टीका॥ दीप्तपंचकेन बंधने मरणं च शांते तद्विपर्ययः। इति शांतप्रकरणम्।अत्रान्योविशेषोऽ पिज्ञेयः।यथा एका शांतदृष्टिः दीप्तदृष्टिश्च तत्र सम्मुखं सरलं दक्षिणमुच्चप्रदेशं.सूर्य वा विलोकयंती शांतदृष्टिः अथ वा शांतफलं तदुपरिपक्षा पूर्वरम्यस्थानावलोकिनी च तथाऽशुभस्थलावलोकिनी अधोमुखदृष्टिश्च दीप्ता तथा पक्षिद्वयं भिन्नस्थानावस्थित दृश्यते तच्छांतं परस्परमंगस्पर्श कुर्वन्यत्र दृश्यते तद्दीप्तम् ॥ इति वसंतराजटीकायां शाकुने पिंगलारुतेऽधिवासनप्रकरणं प्रथमम् ॥१॥ ॥ भाषा॥ दिशामें लाभ. पश्चिम दिशामें चिंतितकार्यकी सिद्धि वायव्यदिशामें धनलाभ. उत्तरदिशामें हानि. ईशानदिशामें भय. पूर्वदिशामें चिता. आग्नेयी दिशामें कलह । या प्रकार और पूर्व दिशा कही हैं उनको भी फल जाननो सुंदरस्थान होय शुभ होय और वट, पिप्पल, आम, जामुन इनके वृक्ष और सुंदरस्थानमें वृक्ष होय सो महान् वृक्ष अत्यंत ऊंचो वृक्ष तालको तमालको खजूरका ये वृक्ष. ऐसे ऐसे स्थान शांत हैं. और सूखा वृक्ष पवना, दिक करके पीडित उखडो हुयो जो जलो हुयो वृक्ष, राख, भस्म, मृत्तिकाके ठीकरा, हाड, कांटे, घरकी भीत, कोट, किलाकी भीत, और कडू ओ कांटेको वृक्ष, उजडो हुयो देश, प्राम, देवमंदिर इन सबनकी दीप्तसंज्ञा है. और दक्षिणमाऊं चेष्टा करती होय दोनो पंखनकू फैलाय करके मस्तकके ऊपर धरै और अंगमर्दन करती होय दक्षिण विभागमें देखती होय. पवन न होय ऐसे स्थानमें निश्चित होय, शुभचेष्टा करती होय वा परस्पर खुजाय रही होय मैथुन करती होय देखबेवारेके सम्मुख देखती होय निकट आयजाय वा सम्मुख आयजाय जेमने अंगकू खुजाय रही होय खुले हुये नेत्र होंय ओर पंख, उदर, कंट, नेत्र, चोंच, नासिका, शिर इनके जेमनेभागमें खुजायरही होय, ये सब शुभ हैं. और जितनी याकी बाई चेष्टा हैं वे सब अशुभ हैं. और भाग जाय वा मौन धारण करे होय ग्रहण करे होय ता भक्ष्य वस्तुको त्याग करदे वा और पक्षीके मुखमें भक्ष्यवस्तुको अर्पण करती होय. नेत्रनकू मी, होय देखबेवालेके विमुखगमन करती ' होंय और पक्षीनकरकेसहित युद्धकरती होय विट्मूत्रकरती होय नीचेकू देखती होय इनलक्षणयुक्त पिंगला दीप्त जाननी अब इनके फल कहैहैं ॥ दीप्तस्वरकरके कलह करावै गमनमें दीप्तजायकर उद्वेग करावे. दीप्तदिशामें कष्ट करावे दीप्तस्थानमें होय तो स्थानभ्रंश करावें. दीप्तचेष्टा करके विग्रह करावे. ये पांचोही दीप्त होय तो बंधनमें मरण होय और शांता होय तो इनफलनकू विपरीत जानने ॥ ॥ इति शांतप्रकरणम् ॥ Aho! Shrutgyanam Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशी वर्गः । याक्स्वरज्ञानमिहोपयुक्तं ताहङ्न चेष्टाधुपयोगमतियत्पिगलो रात्रिचरः पतत्री तेन स्वरांस्तावदुदाहरामः ॥२३॥ .यः पार्थिवोऽसौ वडिमोय आप्यः स कौलिको यस्त्विह तैजसोऽसौ ॥ करंगुलीयोऽनिलजः स वीसो यस्त्वांतारक्षः किसरस्वरोऽसौ ॥२४॥ एकमात्र उदितश्चिलितीह स्याद्विमात्र इह यस्तु चिलीति ॥ स त्रिमात्र इह यश्चिलिलिं स्यान्मात्रिकैश्चिलिचिलीति चतुर्भिः॥ २५ ॥ ॥टीका॥ यादगिति ॥ इहास्मॅिल्लोके यादृक् स्वरज्ञानमुपयुक्तं तादृक् चेष्टादिनोपयोगमेति । तेन कारणेन यः पिंगलाभिधानः पतत्री वर्तते तस्य तावत्स्वरानुदाहरामः ॥ २३ ॥ य इति ॥ इह शास्त्रे यः पार्थिवः स्वरः असौ वडिमः कथ्यते इति सर्वत्र संवध्यते । य आप्यास कौलिको यस्तैजसः असौ करंगुलीयः य अनिलः स वीसः यस्त्वांतरिक्षः असौ किसरस्वरः ॥ २४ ॥ एकेति ॥ इह शास्त्रे चिल् इति ॥ भाषा ।। यामें और विशेषभी जाननो एकशांतदृष्टि एक दीप्तदृष्टि जो सम्मुख सरल जेमनेमाऊंके देशमें सूर्यकू इनेदेखती होय तो शांतदृष्टि जाननी. याको शांतही फल जाननो. और सुन्दर स्थानकू देखरही होय वा अशुभ स्थलकू देख रही होय नाचे मुख और दृष्टि होय तो दीप्तादृष्टि जाननी. और दोपक्षी न्यारे न्यारे स्थानमें होंय दीखते होय तो शांत और परस्पर अंगकू स्पर्श करत होंय दीखे तो दप्ति जाननी. शांतको शांतफलं दीप्तको दतिफल है ॥ इति वसंतराजभाषाटीकायां पिंगलारुतेधिवासनप्रकरणं प्रथमम् ॥ १॥ यादृगिति ॥ या लोकमें जैसो स्वर ज्ञान है तैसो और कोईभी चेष्टा उपयोग नहीं है. ताकारणकर पिंगला नामपक्षीके स्वरनकू कहैं हैं ॥ २३ ॥ य इति ॥ या शास्त्रमें जो पाथिव स्वर है वाकू वडिम कहें हैं. और जो आप्यस्वर हैं वाकी कौलिक संज्ञा है. जो तैजसस्वर है वाकी करंगुलीय संज्ञा है. जो अनिलस्वरहै वायवीयस्वरहै वाकू सवीसं कहेहैं. जो आंतारक्ष है वाकी किसर स्वर संज्ञा है ।। २४ ॥ एक इति ॥ या शास्त्रमें चिल ये एकमा Aho! Shrutgyanam Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ► पिंगलारुते स्वरमात्राप्रकरणम् । ( ३३१ ) यः स्वरश्चिलिचिलीत्यनुकारी पंचमात्रमिह तं कथयति ॥ एककालमिहपिंगलपक्षी पंचधोच्चरति पार्थिवनादान् ॥ २६ ॥ स्यात्स्वरः किंजितिमात्रयैकया यः किचीति स पुनर्द्विमात्रिकः ॥ स्यात्रिभिश्च किचिचीतिमात्रिकैरारवः किचिकिचिश्चतुर्लघुः ॥ ॥ २७ ॥ निस्वनः किचिकिचीत्यनुरूपः पंचमात्र उदितोमतिमद्भिः ॥ पिंगलः खगवरो जलसंज्ञानीदृशान्वदति पंच निनादान् ॥ २८ ॥ ॥ टीका ॥ शब्दः एकमात्रः स्वरः उदितः कथितः । यस्तु चिलि इति शब्दः स द्विमात्रः । यश्च चिलिलि इति शब्दः स त्रिमात्रः । तथा चतुर्भिर्मात्रिकैः चिलिचिलि इति शब्दः स्यात् ॥ २५ ॥ य इति । यः स्वरश्चिलिचिलीत्यनुकारी स्यात् तमिह पंचमात्रं कथयति एवममुना प्रकारेण पिंगलपक्षी पंचधा पार्थिवान्नादानुच्चरति इति पार्थिवः स्वरः ॥ २६ ॥ स्यात्स्वर इति ॥ तत्संग्रहश्च चिल १ चिलि २ चिलिलि ३ चिलिचिलि ४ चिलिचिलिलि ५ स्यादिति मात्रैक्या किच् इति स्वरः स्यात् यः किचि इति स द्विमात्रिकः स्यात् किचिचि इति तिसृभिर्मात्राभिः स्यात् किंचिकिचि चतुर्लघुः स्यात् ॥ २७ ॥ निस्वन इति । किचिकिचिचि इत्यनुरूपः मतिमद्भिः पंचमात्र उदितः खगवरः पिंगलः ईदृशान् जलसंज्ञान पंच निनादान् वदति तत्संग्रहश्च विच १ किचि २ किचिचि ३ किचिकिचि ४ किचिकिचिचि ५ इत्याप्यः ॥ २८ ॥ N भाषा ॥ स्वर को है. और चिलि ये दो मात्राको स्वर है. और चिलिलि ये तीनमात्राको स्वर है.' और चिलिचिलि ये चार मात्राको स्वरहै ॥ २५ ॥ य इति ॥ चिलिचिलिलि ये पांचमात्रा के . स्वरहै. या प्रकार पिंगलपक्षी. पांचप्रकारके पार्थिवनाद उच्चारण करे है. इनको संग्रह कहे है चिल १ चिलि २ चिलिलि ३ चिलिचिलि ४ चिलिचिलिलि ५ ये पार्थिवस्वर हैं ॥ २६ ॥ स्यादिति ॥ किच ये एकमात्र स्वर है. और किचि ये दोयमात्राको स्वर है. किचिचि ये तीनमात्रा जामें ऐसो स्वर है. किचि किचि ये चारमात्रास्वर है यामें चारलघु हैं ॥२७॥ निःस्वन इति ॥ किचिकिचिचि याकी पांच मात्रा हैं. पक्षीनमें श्रेष्ठ पिंगल ऐसे ऐसे जलसंज्ञक पांचशब्द उच्चारण करे है ये इनको संग्रह ॥ किच १ किचि २ किचिचि ३ किचि - Aho! Shrutgyanam Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३२) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशो वर्गः। निस्वनः कुगितिमातृकमात्रोयश्चकुक्कितिसतूभयमात्रायः कुकुकिति स च त्रिलघुः स्यान्मात्रिकैर्गुजगुजति चतुर्भिः॥२९ यः स्वरो भवति पंचकुकारस्तस्य पंचलघुतांकथयति ॥ईहशानि खलु पिंगविहंगः पंचतैजसरुतानि करोति ॥३०॥ मात्रिकंचिजिति निस्वनमाहुश्चीजितिध्वनिमिहोभयमात्रम्॥ चीचुहीत्यथ लघुत्रययुक्तं चीद्वयं पुनरदीर्घचतुष्कम् ॥३१॥ चीकुचीगिति तथेह निनादं पंचमात्रमृषयो निगदंति॥ मारु.. तानि विरुतानि विहंगःपिंगलो जगति जल्पति पंच ॥३२॥ ॥ टीका॥ निस्वन इति ॥कुगितिस्वरः मातृकमात्रः स्यात् यश्च कुकु इति स उभयमात्रः। यः कुकुकु इति स त्रिलघुः स्यात् चतुर्भिमात्रिकैः गुजगुज इति शब्दः स्यात् ॥ २९॥ य इति॥यःपंचकुकारः कुकुकुकुकु इत्यनुरूपस्तस्य पंचलघुतां कथयतिखलु निश्चयेन पिंगलपक्षी ईदृशानि तैजसरुतानि करोति संग्रहश्च कुग् १ कुकु २ कुकुकु ३ गुजुगुजु ४ कुकुकुकुक ५ इति तैजसः॥३०॥ मात्रिकमिति ॥ चिच् इति मात्रिकं निस्वनमाहुः चीचइति ध्वनिरुभयमात्रमाहुः चीचुचिचुचि इति वा लघुत्रयसंयुक्तं स्यात् चीद्वयं पुनःअदीर्घचतुष्कं चतुर्मात्रिकमित्यर्थः॥ ३१ ॥ चीक्किति॥चीकु चीकु इति निनादं ऋषयः पंचमात्रं वदंति निगदंतिाएवं पिंगलःमारुतानि पंचजगति लोके जल्पति।सं ॥ भाषा॥ किचि ४ किचिकिचिचि ५ ये आप्यस्वर हैं ॥ २८ ॥ निस्वन इति ॥ कुग् ये एकमात्र स्वर है. और कुकु ये दोय मात्रस्वर है. कुकुकु ये तीनलघु हैं. और गुजगुज ये शब्द चारमात्राको है ॥ २९ ॥ य इति ॥ ये पांच कुकारको स्वर है कुंकुकुकुकु याकी पंच लघुसंज्ञा कहेहैं. निश्चयकर पिंगलपक्षी या प्रकार तैजस शब्दकरै है ये इनको संग्रह है कुग १ कुकु २ कुकुकु ३ गुजगुज ४ कुकुकुकुकु ५ ये तैजस शब्द हैं ॥ ३० ॥ मात्रिकामति ॥ चिच ये एकमात्रा शब्द हैं. और चीच ये शब्द दोयमात्रा जामें ऐसोहै चीचु वा चिचुचि ये लघुत्रय शब्द है. चिचिचिचि ये चार मात्राको स्वरहै ।। ३१ ॥ चीकिति ॥ चीकु चीग ये पांच मात्राको शब्द हैं. पिंगलपक्षी या प्रकारके पांच मारुतशब्द कहैहै. इनको संग्रह कहैहैं. चिच १ चीचू २ चीचु ३ वा चिचिचि ३ चिचिचिचि ४ चीकु चीग् ५ ये पांच मारुत शब्द Aho! Shrutgyanam . Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते स्वरमात्राप्रकरणम् । ( ३३३ ) स एकमात्रश्विगिति ध्वनियों मवेद्दिमात्रश्चिरुहीत्यपीद || मात्रात्रयं स्यात्कुरुरुध्वनौ च स्यात्कीचिकीचीति लघुश्चतुर्थकः || ३३ || अभिन्नरूपैश्चरति स्वरैस्तु यः पञ्चभिः स्यात्स तु पंचमात्रः ॥ एवंविधानंबरनामधेयान्पंचस्वरामुंचति पिंगपक्षी ॥ ३४ ॥ यः संवतो मात्रकपंचकेन स्वरस्त्रिरुक्तः स लघुः प्रदिष्टः ॥ षोढोदितो यः कथितः स दर्घिः प्लुतः स तु स्यान्नवधोदितो यः ॥ ३५ ॥ निःस्वनैर्लघुगुरुप्लुतसंज्ञैः पिंगलेन विहितैः पुरुषाणाम् ॥ तुच्छमध्यसकलानि फलानि स्युः क्रमादिति वदन्ति महांतः ॥ ३६ ॥ ॥ टीका ॥ चिच्चीच् चिचेिचिचि चीकुचीक्रिति ॥ ३२ ॥ स एकमात्र इति ॥ एकमात्रः चिगिति ध्वनिः स्यात् ॥ चिरु इत्यपि द्विमात्रः स्यात् । कुरुरुध्वनौ मात्रात्रयं स्यात् । लघुचतुर्थकः चिकचिकीति किश्व इति मतांतरे ध्वनिः स्पात् ॥ ३३ ॥ अभिन्नइति॥ अभिन्नरूपैः पंचभिः स्वरैर्यश्चरति स पंचमात्रः स्यात् । एवंविधानंबरनामधे - यान्पंच स्वरान्पिगलपक्षी मुंचति ॥ ३४ ॥ यः संवृत इति ॥ यो मात्रिकपंच केन संयुतः स्वरः त्रिरुक्तः स लघुः प्रदिष्टः । यः षोढा षड्वारमुदितः सदीर्घः । यो नवधा उदितः सः प्लुतः ॥ ३५ ॥ निः स्वनौरिति ॥ लघुगुरुप्लुतसंज्ञैः स्वरैः पिंगलेन विहितैः ॥ भाषा ॥ हैं ॥ ३२ ॥ स एक मात्र इति ॥ चिग् ये एक मात्र ध्वनि है. चिरु ये दोय मात्रावान् शब्द है. और कुरुरु ये तीनमात्राको शब्द है और किचिकेिचि ये चार लघूनकरके चतुर्मात्र शब्द है ।। ३३ ।। अभिन्नरूपैरिति । जो पक्षी अभेदरूप पांच स्वरनकरके उच्चारण करे वो पंचमात्रस्वर होय है. ऐसे ऐसे अंबर नाम पांच स्वर पिंगजपक्षी बोले है || ३४ ॥ यः संवृत इति ॥ जो. पांचमात्रा करके संयुक्त स्वरहै. तीन पोत कह्यो होय तो वाकी लघुसंज्ञा है, जो छे पोत को होय वाकी दीर्घ संज्ञा है. और जो नौपोत को होय वाकी प्लुतसंज्ञा हैं ॥ ३५ ॥ निःस्वनैरिति ॥ पिंगलपक्षीकर के कहे हुये लघुगुरुप्लुत ये तीन संज्ञा जिनकी ऐसे स्वरन करके पुरुषनकूं तुच्छ मध्यम उत्तम ये तीन प्रकारके फल होय है. ये महांतजन कहैं हैं ॥ ३६ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३४) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशो वर्गः । हृष्टः स्वरेण क्षितिजेन पिंगः संलापकारी पुनरांभसेन ॥ कामातुरो जल्पति तेजसा वै शांतास्त्रयोऽमी कथिताश्च नादाः ॥ ३७॥ वायव्यशब्दं कुपितः करोति शोकार्दितो नाभसशब्दकारी ॥शब्दाविमौ द्वावपि पिंगलस्य बुधाः प्रदीप्ताविति निर्दिशंति ॥ ३८॥ इति पिंगलारुते स्वरप्रकरणं द्वितीयम् ॥२॥ भूम्यंबुतेजोऽनिलखात्मकानां मात्रादिभेदः कथितः स्वराणाम् ॥ बलान्यथैषां ककुभां विभागैमित्रारिमध्यस्थतया वदामः ॥३९॥ ॥ टीका। पुरुषाणां तुच्छमध्यमसकलानि फलानि स्युः क्रमान्महांतः वदति ॥ ३६ ॥ हष्ट इति । क्षितिजेन स्वरेण पिंगः हृष्टःसन्संलापकारी स्यात् । पुनः आंभसेनापि कामातुरः तैजसेन जल्पति अमीत्रयः नादाः शांताः कथिताः ॥३७॥ वायव्येति ॥ कुपितः वायव्यशब्दं करोति शोकार्दितः नाभसशब्दकारी स्यात् । इमौ शब्दो दावपि पिंगलस्य बुधाः पंडिताः प्रदीप्ताविति निर्दिशति ॥ ३८॥ इति वसंतराजटींकायां पिंगलारुते स्वरमात्राप्रकरणं द्वितीयम् ॥२॥ भूम्यंब्बिति ॥ भूम्यंबुतेजोनिलखात्मकानां स्वराणां मागदिभेद: कथितः । अथ एषां ककुआँ काष्ठानां विभागैः मित्रारिमध्यस्थतया बलानि वदामः ॥३९॥ ॥ भाषा ॥ हृष्ट इति ॥ पिंगलपक्षी पार्थिवस्वरकरके प्रसन्न होत आलाप करै. फिर आप्यया शब्द करके कामातुर होय तैजसस्वरकरके बोले तो ये तीनो नाद शांतसंज्ञक कईहैं ।। ३७ ॥ वायव्येति ॥ कोप होयकर वायव्य शब्द करै, शोकार्दित होयकर नाभस शब्द करै पिंगलके ये दोनोशब्दनकू पंडित प्रदीप्त कहैंहैं ॥ ३८ ॥ इति श्रीवसंतराजशाकुने भाषाटीकायां पिंगलारुते स्वरमात्राप्रकरणं द्विती यम् ॥ २॥ __ भूम्यंब्विति ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश इन स्वरनके मात्रादिक भेद कहेहैं. - अब हम इन पांचोनकू दिशानके विभागनकरके और मित्र अरि मध्य इनमें स्थिति करके Aho! Shrutgyanam Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते स्वरबलप्रकरणम् ( ३३५ ) प्राच्यामवाच्यामपि पार्थिवाख्यमाप्यं प्रतीचीधनदाशयोस्तु ॥ रुतं पुनस्तैजसमग्निकोणे वायव्यकोणेऽनिलजं प्रदिष्टम् ॥ ॥ ४० ॥ ईशानरक्षोऽधिपकोणयोश्च बलाधिकं नाभसशदमाहुः ॥ जलावनीजौ सुहृदो निनादौ तयोस्तु मध्याजजो बलीयान् ॥ ४१ ॥ पानीयतेजः प्रभवावराती पानीयजः स्याद्वलवांस्तयोस्तु || शब्दावरी मारुततोयजातौ श्रेयांस्तयोर्मारुतजो बलेन ॥ ४२ ॥ मध्यस्थवर्ती गगनानिजातो बली तयोर्नाभस एव नादः ॥ व्योमांबुनादौ न रिपू न मित्र वरस्तयोव्योमचरो बलेन ॥ ४३ ॥ ॥ टीका ॥ प्राच्यामिति ॥ प्राच्यां पूर्वस्यामवाच्यां दक्षिणस्यां पार्थिवाख्यं बलिष्ठं तथा प्रतीची धनदाशयोस्त्विति प्रतीची पश्चिमा धनदाशा उत्तरा तयोः आप्यं बलवद्भवति पुनस्तैजस रुतमभिकोणे बलिष्ठं वायव्यकोणेऽनिलजं बलिष्ठम् ॥ ४० ॥ ईशानेति ॥ ईशानरक्षोऽधिपकोणयोस्तु नाभसं शब्दं बलिष्ठमाहुः । तथा जलावनीजौ निनादौ सुहृदौ तयोश्च मध्याज्जलजो बलीयान् ॥४१॥ पानीयेति ॥ पानीयतेजः प्रभवौ अराती भवतः।तयोर्मध्ये पानीयजः बलवान्स्यात् । मारुततोयजातौ शब्दावरी शत्रू भवतः । तयोर्मध्ये मारुतजो बलेन श्रेयान् ॥ ४२ ॥ मध्यस्थेति ॥ गगनाभिजातो मध्यस्थवर्ती तयोर्नाभस एव नादो बली बलवान् । व्योमांबुनादौ न रिपू न ॥ भाषा ॥ बल कहैंहैं ॥ ३९ ॥ प्राच्यामिति ॥ पूर्व दिशामें उत्तरदिशामें पार्थिवस्वर बलिष्ठ है. और पश्चिम उत्तर इनमें आप्यस्वर वलवान् है. और अग्निकोण में तैसजस्वर बलिष्ट है. * चायव्यकोणमें मारुतशब्द बलिष्ठ है ॥ ४० ॥ ईशानेति ॥ ईशान नैर्ऋत्यकोणमें नाभस शब्द बलिष्ठ है. और आप्यशब्द पार्थिवशब्द दोनों सुहृद हैं. इनके मध्यमें आप्यशब्द चलिष्ट है ॥ ४१ ॥ पानीयेति || जल तेज इनते हुये शब्द अरी होंय हैं. इनके मध्य में जलते हुयो शब्द बलवान् है. और मारुत जल इनते हुये शब्द अरी हैं. इनमें मारुतते हुयो शब्द बलकरके श्रेष्ठ है ॥ ४२ ॥ मध्यस्थेति || आकाश अग्नि इनते हुये शब्द मध्यस्थवर्ती हैं. इनमेंसूं नाभस शब्द बलवान् है. आकाश जल ये दोनों शब्द न वैरी Aho! Shrutgyanam Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६) वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः। सौहार्दयुक्तौ क्षितिवह्निजातौ बलं तयोभूमिरेव प्रभूतम् ॥ समीरतेजःस्वरयोः सखित्वं बली तयोश्चापि समीरणोत्थः॥ ॥४४॥ अरातिराप्यो दहनोद्भवस्य शत्रुस्तथाप्यस्य समीरजातः ॥ स्यात्तैजसौ भूप्रभवस्य मित्रं वायव्यशब्दः सुहृदग्निजस्य ॥ ४५ ॥ वैरिणौ प्रथमकालसमुत्थी पार्थिवस्य जलमारुतशब्दौ । तावपीह समनंतरजातौ सौहृदं प्रथयतः सह तेन ॥ ४६ ॥ आकाशनादं कथयन्ति शत्रु प्रायेण विज्ञाः सकलध्वनीनाम् ॥ एवं बलं सौहृदवैरिभावौ मध्यस्थितिश्चाप्युदिता स्वराणाम् ॥ ४७॥ ॥ टीका ॥ मित्रे । तयोर्मध्ये बलेन व्योमचरो वरः श्रेष्ठः॥४३॥ सौहार्देति ॥ क्षितिवहिजातौ सौहार्दयुक्तौ स्तः। तयोर्मध्ये भूमिरेव प्रभूतं बलं समीरतेजःस्वरयोः सखित्वं तयोर्मध्ये समीरणोत्थो बली ॥ ४४ ॥ अरातिरिति ॥ दहनोद्भवस्य अरातिः आप्यः तथैव अस्य समीरजातः शत्रुः तथा भूप्रभवस्य तेजसःमित्रस्यात्।अमिजस्य वायव्यशब्दः सुहृत् ॥ ४५ ॥ वैरिणाविति ॥ पार्थिवस्य जलमारुतशब्दो प्रथमकालसमुत्थौ वैरिणौ भवतः। इह समनंतरजातौं रुतेन सौहृदं प्रथयतः॥४६॥ आकाशेति ॥ सकलध्वनीनामाकाशनादं शत्रु कथयंतिाएवममुना प्रकारेण बलं ॥ भाषा॥ है न मित्रहैं. इन दोनोंनमेंसू आकाशचारी शब्द बलवान् है ॥ ४३ ॥ सौहार्देति ॥ पृथ्वी अग्निसे हुये शब्द सुहृद हैं. इनमें पृथ्वी शब्द बडो बलेष्ठ है. मारुत तेजस स्वर .. मित्र हैं. इनमेंसू मारुतते हुयो शब्द बलवान् है ॥ ४४ ॥ अरातिरिति ॥ अग्निते हुयो शब्द ताको शत्रु आप्य शब्द हैं. और आप्यको मारुतते हुयो शब्द शत्रु है. और पार्थिव शब्दको तैजम शब्द मित्र है. और तैजसको मारुत शब्द सुटू है ॥ ४५ ॥ वैरिणाविति ॥ पार्थिवके जल मारुत शब्द प्रथमकालके उठे हुये वैरी हैं. या प्रकारमें पीछे हुये हैं याते शब्दकरके सुहृदभावकू विस्तार करें हैं. ॥ ४६ ॥ आकाशेति ॥ सब शब्दनको आक शनाद शत्रु है. या प्रकार स्वरनके बल सुहृदभाव वैरीभाव मध्यास्थत Aho! Shrutgyanam Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते धेन्वादिफलप्रकरणम् । (३३७ ) फलं समस्तं भवने स्वकीये भवेत्तथा मित्रगृहे फलार्धम् ॥ फलस्य नाशो रिपुमंदिरेषु जातैनिनादैर्वसुधादिसंज्ञैः ॥४८॥ __ इति पिंगलारुते स्वरबलप्रकरणम् ॥३॥ धेनुर्गर्भो वंध्य इत्यत्र तिस्रः प्रख्याप्यते कालभेदेन संज्ञाः॥ पिंगोक्तानां पार्थिवादिस्वराणामाख्यास्यामश्वार्थसंज्ञाफलानि ॥४९॥ स्यात्पार्थिवः पूर्वककुब्विभागे धेनुर्दिनादौ प्रहरद्वये च ॥ स एव गर्भः प्रहरे तृतीये वंध्यः स एव प्रहरे चतुथ ॥५०॥ ॥ टीका सौहदवैरिभावो मध्यस्थितिश्च स्वराणामभ्युदिता ॥ ४७ ॥ फलमिति ॥ वसुधादि संज्ञैनिनादैः स्वकीये भवने समस्त फलं भवति तथा मित्रगृहे फलार्ध भवति रिपुमं दिरे फलस्य नाशो भवति ॥४८॥ इति वसंतराजटीकायां पिंगलारुते स्वरबलप्रकरणम् ॥ ३ ॥ धेनुरिति ॥ पूर्वोक्तानां पार्थिवादिस्वराणां धेनुः गर्भः वध्य इति तिस्रः सज्ञाः कालभेदन प्रख्याप्यंते ततस्तेषामर्थसंज्ञाफलान्याख्यास्यामः॥४९ ॥ स्यादिति ॥ पूर्वककुब्विभागे दिनादौ प्रहरद्वये च मध्यंदिने पार्थिवः स्वरोधेनुसंज्ञः स्यात् तथा तृतीये प्रहरे स एव पार्थिवो गर्भसंज्ञः स्यात् तथा चतुर्थे प्रहरे स एव ॥ भाषा ॥ भाव कहेहे ॥ ४७ ॥ फलमिति ॥ पार्थिवकू आदि लेकर जे नाद तिनकरके अपने घरमें तो समस्त फल देवे हैं. और मित्रके घरमें आधो फल होय. और शत्रुके घरमें फलको नाश होय ॥ ४८॥ इति वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां पिंगलारुते स्वरबलप्रकरणं तृतीयम् ॥ ३ ॥ ॥धेनुरिति ॥ पिंगलके कहेहुये जे पार्थिवादिक स्वर तिनकी धेनु, गर्भ, बंध्य ये तीनसंज्ञा कालभेद करके कहैहैं, और इनके अर्थ संज्ञा फल तिन्है कहैहैं ॥ ४९ ॥ स्यादिति ॥ पूर्व. दिशाके विभागमें दिनकी आदिमें दोयप्रहर ताई पार्थिवस्वरकी धेनुसंज्ञा है और तृतीय प्रहरमें पार्थिव शब्दकी गर्भसंज्ञा है और चतुर्थप्रहरमें पार्थिवकी बंध्यसंज्ञा है ॥५०॥ Aho! Shrutgyanam Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३८) . वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः। प्राच्यां च धेनुर्दिवसायामात्स्यायाममात्रं दहनस्य शब्दः निशाद्ययामद्वितये स गर्भो वंध्यो निशादिप्रहरद्वये तु॥ ॥ ५१॥ अर्धाधिकायामयुगादिनांतं यावद्भवत्यंबुरवोत्र गर्भः ॥ दिनस्य मध्येऽस्तमये च धेनुः प्राच्यां तथारव्युदये प्रतीच्याम् ॥५२॥ महानिशायां जलजश्च वंध्यो गर्भो न भोजो दिनतुर्ययामे ॥ वंध्यो दिनादौ रजनीतृतीये यामे दिने शास्तमये च धेनुः ॥५३॥ धेनुर्निशायाः प्रथमे द्वितीये यामे तृतीये त्वथ गर्भसंज्ञः ॥ वंध्यश्चतुर्थे प्रहरे प्रतीच्यां पिंगध्वनिर्मारुतनामधेयः॥ ५४॥ ॥टीका ॥ वैध्यसंज्ञः स्यात् ॥ ५० ॥प्राच्यामिति ॥ दिवसाधयामाद्याममात्रं यावदहनस्य शब्दो धेनुसंज्ञः स्यात् निशाद्ययामाद्वितये रात्री प्रथमप्रहरद्वये यः दहनशब्दः सः गर्भसंज्ञः स्यात् तथा निशात्यमहरदये तु स वंध्यसंज्ञः स्यात् ।। ५१ ॥ अर्धाधिकादिति ॥ अर्धाधिकाधामयुगादारभ्य निशांतं सार्धप्रहरं यावदंदुरवः अत्र गर्भसंज्ञः स्यादिनस्य मध्ये तथाऽस्तमये च प्राच्यधेिनुसंज्ञःस्यात् तथारब्युदये प्रतीच्या पश्चिमायां धेनुसंज्ञः स्यात् ॥ ५२ ॥ महानिशायामिति ॥ महानिशायां निशीथे जलजश्च वंध्यः स्यात् तथा नभोजः नभसो जातः नभोजः दिनतुर्य यामे गर्भसंज्ञः स्यात् । तथा रजनीतृतीययामे दिनेशास्तमये सूर्यास्तमये च धेनुभवति ॥५३॥ धेनुरिति ॥ मारुतनामधेयः पिंगध्वनिः प्रतीच्या निशायां प्रथमे ॥भाषा ॥ ॥ प्राच्यामिति ॥ दिवसके अर्धयामते याममात्रत कदहनको शब्द धेनुसंज्ञकहै . और रात्रिके प्रथमयाममें और द्वितीययाममें दहनशब्दकी गर्भसंज्ञा है. और रात्रिके जातक दोय प्रहर तिनमें दहनशब्दकी वंध्यसंज्ञा है ॥ ५१ ॥ अर्धाधिकादिति ॥ दिवसके अर्थको यानयुग जो मध्याह्न तासूं ले जब ताई दिनको अंतहोय तब ताई अंबशब्दकी . गर्भसंज्ञाहै. और दिनके मध्यमें और सायंकालमें पूर्वदिशामें जल शब्दकी धेनुसंज्ञा है. और सूर्य उदयो] पश्चिमदिशामें जलशब्दकी धेनुसंज्ञाहै ॥ ५२ ॥ महानिशाया मिति ॥ अर्धरात्रिमें जलशब्दको बंच्य संज्ञाहै. और दिनके चौथे प्रहरमें आकाश शब्दकी गर्भसंज्ञाहै. और दिनकी आदिमें आकाशकी वंध्य संज्ञाहै. और रात्रिके तीसरेप्रहरमें और सूर्यके अस्तसमयमें आकाश शब्दको घेनुसंशा है । ५२ ॥ वेनरिति । पिंगलको मारुत नाम Aho! Shrutgyanam Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते केवलस्वरप्रकरणम्। (३३९) सद्यः फलंधेन्वभिधे स्वरे स्याचिरात्फलं यच्छति गर्भसंज्ञः।। वंध्यस्तु वंध्याकथितः फलेन स नोपयुक्तःक्वचिदेव कार्ये९५ इति पिंगलारुते धेन्वादिफलप्रकरणम् चतुर्थम् ॥ ४ ॥ धेन्वादिसंज्ञाफलमुक्तमेवं पिंगोदितानां सकलस्वराणाम् ॥ भूतोयतेजःपवनथुजानां ब्रूमः फलं संप्रति केवलानाम् ॥ ॥५६॥ असंयुतोऽन्येन रवः पृथिव्याः स्यात्पंचमात्रोऽपि फलेन हीनः ॥ तथाविधोऽसौ यदि चैकमात्रस्तदीशतुल्यो भयदः सदैव ॥५७ ॥ ॥ टीका ॥ द्वितीये यामे धेनुसंज्ञः स्यात् । तृतीये यामे गर्भसंज्ञः स्यात् ॥ चतुर्थप्रहरे वंध्यसंज्ञः स्यात् ॥ ५४ ॥ सद्य इति ॥ धेन्वभिधे स्वरे सद्यः फलं स्यात् । गर्भसंज्ञःचिरात्फलं यच्छति । वंध्यस्तु फलेन बंध्यः कथितः । कचिदेव कार्य स नोपयुक्तः न उपयोगं यातीत्यर्थः ॥ ५५ ॥ इति वसंतरानटीकायां पिंगलारुते धेन्वादिप्रकरणम् ॥ ४॥ यवादीति ॥ पिंगोदितानां सकलस्वराणां एवं पूर्वोक्तप्रकारेण संज्ञाफलमुक्तं संप्रति भूतोयतेजःपवनाजानां तत्र भूः पृथ्वी तोयमुदकं तेजः प्रसिद्ध पवनो वायुः द्यौः आकाशः तेभ्यो जातानां स्वराणां केवलानां फलं ब्रमः ॥ ५६ ।। असंयुतइति । अन्येन पृथिव्या असंयुतो रवः पंचमात्रोऽपि फलेन हीनः स्यात् । यदि ॥ भाषा॥ शब्द ताकी पश्चिदिशामें प्रथमद्वितीय प्रहरमें धेनुसंज्ञा है. और तृतीय प्रहरमें गर्भसंज्ञा है. और चौथे प्रहरमें वंध्य संज्ञा है ।। ५४ ॥ सद्य इति ।। धेनुनाम स्वरमें तो तत्काल फल होय है. और गर्भसंज्ञक स्वर में बहुत दिनमें कलकार्थ होयहै. और वंध्यतो बंधाही या करक होय कोई कार्यमें ये उपयोग नहींहै ।॥ २५ ॥ इति वसंतराजभाषाटीकायां पिंगलालले धेन्वादिफलपकरणं चतुर्थम् ॥ ४॥ ॥धेन्वादीति | पिंगलके कहे हुये संपूर्ण स्वर तिनकी धेनुकू आदि लेकर संज्ञा और फल या प्रकार कहे. अब पृथ्वी, जल, तेज, पवन, आकाश इनस्वरनके केवल फल कहेहैं ।। ५६ ॥ असंयुत इति ॥ और शाद करो संयुक्त न होय पिंगल को कह्यो पृथ्वीको शब्द होय. और पंचमात्रामी होय तोडू फलकरके हीन जाननो जो पूर्वोक्ति Aho ! Shrutgyanam Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४०) वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः। स्यादद्वितीयःफलमात्रदर्शी पूर्णो धराजो निनदः कदाचित्।। एकाकिनोऽन्यांश्चतुरोऽपि नादान्पूर्णानपि त्रासकृतो वदंति ॥ ५८ ॥ आप्यादिशब्दैः पुनरेकमात्रै रोगातुराणां मरणं कलिश्च ॥ एकाकिभिः स्युविविधास्त्वना मात्राद्वयाद्यैरपरे भवंति ॥ ५९ ॥ भौमाप्यसंज्ञौ शकुनिध्वनी यौ शुभेषु कार्येषु शुभप्रदौ तौ ॥ बाह्यस्तु कार्येषु तथा शुभेषु रुग्द्वेषभीबन्धवधादिकेषु ॥६०॥ इति पिंगलारुते केवलस्वरप्रकरणं पंचमम् ॥ ५॥ ॥टीका ॥ चैकमात्र. तथाविधोऽसौ भवति तदा उशितुल्यः सदैव भयदो भवति ॥ ५७ ॥ स्यादिति ॥ धरानः भूमेरुत्पन्नः निनदः शब्दः अद्वितीयः कदाचित्फलमात्रदर्शी स्यात् । एकाकिनः अपूर्णाः अन्यांश्चतुरोपि नादान्पूर्णानपि पंचमात्रानपि त्रासकृती वदंति ॥ ५८ ॥ आप्यादीति ॥ आप्यादिशब्दैः पुनरेकमात्रैः रोगातुराणां मरणं कलिश्च स्यात् । एतैरेकाकिभिः केवलोच्चारितर्विविधास्त्वनाः स्युः अपरे मात्राद्वयाद्यैः पूर्वोक्तकार्यकारिणो भवंति ॥ ५९ ॥ भौमाप्येति ॥ शकुने निरीक्ष्य माणे भौमाप्यसंज्ञौ ध्वनितौ शुभेषु कार्येषु शुभप्रदौ भवतः तथा रुग्वेषभीवन्धवधादिकेषु अशुभेषु कार्येषु बाह्यः शुभः ॥ ६ ॥ इति वसंतराजटीकायां पिंगलारुते केवलस्वरफलप्रकरणम् ॥ ५॥ ॥ भाषा॥ होय और एकमात्रा होय तो पृथ्वीके ईशकी तुत्य होय. सदा भयको देवेवारो होय ।। ॥ ५७ ॥ स्यादिति ॥ पृथ्वीको शब्द अद्वितीय होय पूर्ण होय तो फलमात्रको दिखायवे वारो होय. जो एकाकी होय अपूर्ण होय तो औरभी चारशब्द पूर्ण पांचमात्रा जिनमें तिनेहूं त्रासको करवेवारो कहेहैं ॥ ५८ ॥ आप्यादीति ॥ एकमात्रा जिनकी ऐसे जलादिक शब्दनकरके रोगातुरपुरुषनकू मरण और कलह होय. जो ये उच्चारणमात्र ही शब्द होय तो इनकरके अनेक अनर्थ होय. जो दोय मात्रादिक शब्द हैं उनकरके पूर्व कहे जे कार्य हैं ते होंय ॥ ५९ ॥ भौमाप्येति ॥ भीम और आप्य ये दोनों शब्द शुभकार्यमें शुभके देवेवारे हैं और अशुभकार्य जे रोग द्वेष भय बन्धन वध इत्यादिकनमें अशुभ इति पिंगलारुते केवलस्वरफलप्रकरणं पंचमम् ॥५॥ Aho! Shrutgyanam Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते द्विसंयोगफलप्रकरणम् । ( ३.४१) एवं स्वराणामिह केवलानां फलं प्रदिष्टं वसुधादिजानाम् ॥ अथ द्वियोगेन विमिश्रितानां फलान्यमीषां क्रमतो वदामः ॥६१ ॥ स्यातां क्रमाद्भूमिजलध्वनी चेत्संपद्यते तत्सकलो ऽभिलाषः॥ तौ चेद्भवेतां विपरीतभूतौ भवेत्तदा स्थानधनोपघातः॥ ६२ ॥अनंतरं पार्थिवशब्दतश्चेत्स्यात्तेजसस्तद्भवतीष्टसिद्धिः॥ एतौ भवेतां विपरीतभावौ नाशाय कार्यस्य समीहितस्य ॥ ६३॥ शब्दौ धरामारुतजौ भवेतां क्रमेण लाभाय धनक्षयाय ॥व्यतिक्रमात्तौ भवतो यदा तु हानिस्तदा प्राक्पुरतोऽर्थलाभः॥ ६४॥ ॥ टीका ॥ एवमिति ॥ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण वसुधादिजानां केवलानां स्वराणां फलं प्रदिष्टं अथामीषां द्वियोगेन विमिश्रितानां फलानि क्रमतो वय वदामः ॥ ६१ ॥ स्यातामिति ॥ क्रमाद्भमिजलध्वनी चेत्स्यातां तत्सकलाभिलाष: मनोरथः संपद्यते प्रामोति तौ चेद्विपरीतभूतौ भवेतां तदा स्थानधनोपघातः स्थानस्य धनस्य चोपघातः नाशः स्यात् ॥ ६२ ॥ अनंतरमिति ॥ पार्थिवशब्दतोऽनंतरं तैजस. श्वेत्स्यात्तदा इष्टसिद्धिभवति विपरीतभावादेतौ समीहितस्य कार्यस्य नाशाय स्याताम् ॥ ६३ ॥ शब्दाविति ॥ यदि धरामारुतजौ भूमिवायुजातौ शब्दो क्रमेण भवेतां तदा क्रमेण लाभाय धनक्षयाय भवतः। यदा तु व्यतिकमात्तौ भवतः तदा ॥ भाषा॥ एवमिति ॥ पूर्वप्रकारकरके पृथ्वीकू आदिलेकर जे केवलस्वर तिनकेफल कहे अब द्वियोगकरके मिलवां ये शब्द तिनके फल क्रमकरके हम कहैहैं ॥११॥ स्यातामिति ॥ जो भूमि जल ये दोनों शब्द होंय तो वा पुरुषकू संपूर्ण अभिलाषा प्राप्त होय, जो दोनों शब्द विपरीत होय तो स्थान धनको उपघातकरैं ॥ १२॥ अनंतरमिति ॥ पार्थिवशब्दके पीछे जो तैसज शब्द होय तो वाकू इष्टसिद्धि होय. और जो दोनों शब्द विपरीत होंय तो ये समाहित कार्यको नाश करै ॥ १३ ॥ शब्दाविति ॥ जो पृथ्वी मारुतशब्द ये दोनों होंय तो क्रमकरके लाभ करें. और धनको क्षय करें. जो विपरीत होंय तो पूर्व हानि करें पीछे Aho! Shrutgyanam Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२) वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः । भौमानिनादात्वरवः परश्चेत्सुखं तदा प्रागसुखं च पश्चात् ।। क्रमं परित्यज्य यदा भवेतां दुःखं तदादौ तदनु प्रमोदः॥ ॥६५॥ आप्यस्य पश्चाद्यदि तैजसः स्यात्कृत्वा फलं तन्नियतं निहति ॥ आदौ तु जाते यदपीह तैजसे सिद्धं फालं तदहति प्रसा॥६६॥प्रागंबुनादोऽनिलजस्ततश्चेत्समीहितं तत्सहसा निहंति ॥ भयं क्षयं च द्रविणस्य तज्ज्ञास्तयोर्विपर्यासतया वदंति ॥ ६७॥ अंभोरवादुत्तरमांबरश्चेत्सुहृत्कलौ तन्मरणं प्रदिष्टम् ॥ विपर्ययात्तौ रिपुसंपराये शरीरनाशं कुरुतो नराणाम् ॥ ६८॥ ॥ टीका ॥ प्राग्धानिः पुरतोऽर्थलाभः स्यात् ॥ ६४ ॥ भौमादिति ॥ भौमानिनादात खरवः आकाशजो रवः परश्चेत्स्यात्तदा सुखं पश्चादसुख दुःखं स्यात् यदा ऋनं परित्यज्य तो भवतां तदा आदौ दुःखं तदनु पश्चात्प्रमोदः स्यात् ॥ ६५ ॥ आप्यस्येति ।। यदि आप्यस्य उदकजातस्य पश्चात्तैजसः स्यात्तदा फलं कृत्वा नियतं तनिहति ।, आदौ तु तेजसे जाते इह सिद्धं फलं प्रसह्य तदहति ॥६६॥प्रागिति॥ चेत्प्रागंबुनादः अनिलजः पश्चात्तत्समीहितमिच्छितं सहसा निहति । तयोः विपर्यासतया तज्ज्ञाः शकुनज्ञाः भयं द्रविणस्य क्षयं वदति ॥ ६७ ॥ अंभोरवादिति ॥ अंभोस्वादुत्तरं आंबरः चेत्स्यात् तदा सुहृत्कलौ तन्मरणं प्रदिष्टं विपर्ययात्तौ रिपुसंपराये ॥ भाषा॥ लाभ करे ।। १४१ भौमादिति ॥ भौमशब्दते आकाशशब्द परे हाय तो पहले सुख होष, पीछे असुख होय, और विपरीत होय तो पहले दुःन्य होय, पछि सुख होय ॥६५॥ ॥आप्यस्येति ।। आप्यशब्दके पीछे जो तैजस शब्द होय तो फलकरके फिर वा ना. शकरे और जो पहले तैजसशब्द होय पीछे आप्यशब्द होय तो सिद्धहुये फलक बलात्कार करके नाशक॥६६॥प्रागिति।।पहले जल नाद होच, और पीछे पवन नाद होय, तो हुये कार्यक् सहसा नाश करदे. जो पहले पवननाद होय पीछे जलनाद होय तो भय और द्रव्यको नाश करे ॥ ६७! अंभेरवादिति ॥ पहले जल शब्द हाय पांडे आकाश शब्द होय तो सुहृदजननमें कलह और वाको मरण होय. और पहले आकाश शब्द होय पछेि जल Aho ! Shrutgyanam Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते द्विसंयोगफलप्रकरणम् । ( ३४३ ) शब्दौ क्रमात्पावकवातजातौ विघ्नं विधत्तोऽभिमतार्थसिद्धयै ॥ तयोश्च जाते सति वैपरीत्ये मृत्युर्भयं वा भवति प्रभूतम् ॥ ६९ ॥ क्रमेण यद्वा क्रमवैपरीत्यात्स्यातां ध्वनी तैजसनाभसौ चेत् ॥ तदावगच्छेन्नियमेन विद्वानत्युग्ररूपं कलहं भयं च ॥ ७० ॥ प्राग्वातजोऽनंतरमांवरश्चेच्छन्दस्तथा वित्तविनाशमाहुः ॥ विपर्ययेण त्वनयोरवश्यं रणे नराणां मरणं वदंति ॥ ७१ ॥ हुताशनाकाशसमीरशब्दाः शब्दांतरादुत्तमुद्भवंति ॥ एकाकिनो वा यदि तत्प्रदिष्टाः शुभाय कार्येषु शुभावहेषु ॥ ७२ ॥ ॥ टीका ॥ युद्धे नराणां शरीरनाशं कुरुतः ॥ ६८ ॥ शब्दाविति ॥ पावकवातजातौ शब्दौ क्रमा द्विनं विधत्तः अभिमतार्थसिद्धयै च स्याताम् तयोश्च वैपरीत्ये जाते सति प्रभूतं प्रचुरत रं भयं मृत्युश्च भवति ॥ ६९ ॥ क्रमेणेति ॥ क्रमेण वै त्याद्वा तैजसनाभसौ ध्वनी भवतश्चेत्तदा अत्युग्ररूपं कलहो भयं च नियमेन भवतीति विद्वानवगच्छेज्जानीयात् || ॥ ७० ॥ प्रागिति ॥ प्राग्वातजः अनंतरमांवरश्चेत्स्यात्तदा वित्तविनाशमाहुः । अनयोर्विपर्ययेणावश्यं रणे नराणां मरणं वदंति ॥ ७१ ॥ हुताशनेति ॥ हुताशनाकाशसमीरशब्दाः शब्दांतरादुत्तरमुद्भवंति यदि एकाकिनो वा भवति तदा ॥ भाषा ॥ स शब्द होय तो संग्राम में मनुष्यनका नाश करें ॥ ६८ ॥ शब्दाविति ॥ पहले अभि शब्द होय पीछे पवनशब्द होय तो चित्र करे और वांछितसिद्धि करे जो ये शब्द त्रिप रीत होय तो मृत्यु और बहुत भय करें ॥ ६९ ॥ क्रमेणेति ॥ जो तेजस और नामये दोनों शब्द क्रमकरके होंय वा विपरीत करके होंय तो निश्चय कलह और भय प्राप्त होय ॥ ७० ॥ प्रागिति ॥ पहले पवनते अकाशको शब्द होय तो वित्तको नाश करै, जो इनको विपरीतकरके शब्द होय तो अवश्य मनुष्यनको मरण करे ॥ ७१ ॥ हुताशनाकाशेति ॥ अग्नि, आकाश, पवन ये तीनो शब्द और कोई शब्दांतर उत्तर होय वा इकलेई होंय तो शुभ कार्यनमें शुभके करके अति उग्ररूप हुयो शब्द होय पीछे Aho! Shrutgyanam Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४४) वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः। अन्यो ध्वनिः पार्थिवनादयोर्यो मध्यस्थितोऽसौ शुभदो विशेषात् ॥ यश्चान्ययोः कश्चन मध्यवर्ती न वापि कार्ये शुभदं तमाहुः ॥७३॥ इति पिंगलारुते द्विसंयोगस्वरफलप्रकरणं षष्ठम् ॥६॥ एवं द्वियोगा निनदा यथावत्फलं च तेषां कथितं समस्तम् ॥ अथ त्रिसंयोगसमुद्भवानां ब्रूमः फलं पिंगलजल्पितानाम् ॥७४॥ मध्यतो भवति पार्थिवाप्ययोतिजो गगनजोऽ थवा रवः॥ स्यात्तदा प्रसवतां धनक्षयो निश्चयेन मरणं च देहिनाम् ॥ ७॥ ॥ टीका ॥ शुभेषु कार्येषु शुभाय प्रदिष्टाः ॥ ७२ ॥ अन्यो ध्वनिरिति ।। अन्यो ध्वनिः पार्थिवनादयोर्यो मध्यस्थितः असौ विशेषात् शुभदो भवति अनयोर्यः कश्चन मध्यवर्ती तं क्वापि कार्ये शुभदं न आहुः ॥ ७३ ॥ इति वसंतराजटीकायां पिंगलारुते दिसंयोगस्वरप्रकरणं षष्ठम् ॥ ६ ॥ एवमिति ॥ एवममुना प्रकारेण द्विसंयोगा निनादा यथावत्फल च तेषां समस्तं कथितम् । अथ पिंगलजल्पितानां त्रिसंयोगसमुद्भवानां फलं ब्रूमः ॥ ७४ ॥ मध्यत इति ॥ पार्थिवाप्ययोर्मध्यतः वातजः अथवा गगनजो रवः स्यात्तदा प्रसवतामुत्पवशीलानां देहिनां निश्चयेन धनक्षयः मरणं च स्यात् ॥ ७५ ॥ ॥ भाषा ॥ देवेवारे जानने ॥ ७२ ॥ अन्यो ध्वनिरिति ॥ और कोई धनि पार्थिव नादनक मध्यमें स्थित होय तो ये विशेषकरके शुभको देवेवारो हैं. जो और ध्वनिनमें पार्थिवनाद मध्यवर्ती होय तो ये कोई कार्यमें शुभको देवेवारो नहीं कहै हैं ॥ ७३ ॥ इति पिंगलारुते दिसंयोगफलप्रकरणं षष्ठम् ॥ ६ ॥ ॥ एवमिति ॥ याप्रकारकरके द्विसंयोगशब्दनके फल समस्त कहे अब पिंगलपक्षीके कहेहुये त्रिसंयोग करके हुये जे स्वर तिनके फल कहैं हैं ॥ ७४ ॥ मध्यत इति ॥ पार्थिव आप्य इन शब्दनके मध्यमें वातते हुयोशब्द होय वा गगनते हुयो शब्द होय तो प्रसवनामबालक जिनके हुये होंय उनके धनको क्षय होय और देहधारीनको मरणनिश्चयहोय ॥ ७९ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते त्रिसंयोगस्वर फलप्रकरणम् । ( ३४५ ) भूजलानलखा यदि क्रमात्स्युस्तदा भवति संपदुत्तमा । अंबुभूमिदहनस्वनैः पुनः स्याच्चिरेण फलमीप्सितं नृणाम् ॥ ॥ ७६ ॥ तैजसाप्यवडिमास्त्रयो खाः स्त्रीप्रयोजनविधौ सुखावहाः ॥ मध्यमाः स्युरपरत्र ते पुनर्भगपूर्वजयदास्तथा रणे ॥ ७७ ॥ भूमिवातगगनस्वना यदि व्याहृताः शकुनिना क्रमात्तदा ॥ लभ्यते प्रथममीप्सितं फलं तस्य हानिरसुखं ततो भवेत् ॥ ७८ ॥ वातवारिवियतां रुतानि चेत्युचरत्यनुचितानि पिंगला ॥ ईप्सिते सति शुभप्रयोजने दर्श यत्यतिशयेन तद्भयम् ॥ ७९ ॥ ॥ टीका ॥ भूजलेति । यदि क्रमाद्भूजलानलरवाः स्युः तदा उत्तमा संपत्संपत्तिः भवति पुनरबुभूमिदहनस्वनैौश्चिरेण नृणामीप्सित फलं भवति ।। ७६ ।। तेजसेति ॥ तेजसाप्यवडिमास्त्रयो रवाः स्त्रीप्रयोजनविधौ सुखावहा भवंति ते पुनः अपरत्र प्रयोजने मध्य माः स्युः तथा रणे भंगपूर्वा जयदाः स्युः ॥ ७७ ॥ भूमीति । यदि भूमिवातगग नस्वनाः शकुनिना क्रमेण व्याहृताः स्युः तथा प्रथममीप्सितं फलं लभ्यते ततस्तस्य हानिरसुखं च भवेत् ॥ ७८ ॥ वातेति ॥ चेद्यदि वातवारिवियतां रुतानि अनुचितानि पिंगला उच्चरति उत्पूर्वकश्वरधातुर्भाषणे प्रसिद्धः तदा शुभप्रयोजने ई ॥ भाषा ॥ भूजलानलवा इति ॥ जो क्रमते भू जल अनल ये शब्द होंय तो उत्तम संपदा होय. फिर जल, भूमि, अग्नि इन शब्दन करके मनुष्यनकूं चिरकाल में वांछितफल होय || १६ ॥ तैजसेति ॥ तैजस, आप्य, वडिम ये तीनशब्द स्त्रिनकं प्रयोजनमें तो सुखकरनेवाले हैं और प्रयोजनमें मध्यम हैं, और रणमें पहले भंग करें पीछे जय देवेवारे होंय || ७७ ॥ भूमिवातेति ॥ भूमि, वात, गगन ये शब्द पिंगलने क्रमते कहे होय तो पहले तो वांछितफल प्राप्त होय, पीछे वा फलकी हानि और असुख होय ॥ ७८ ॥ वातेति ॥ वात, जल, आकाश इनके शब्द पिंगला अनुचित उच्चारणकरै तो शुभप्रयोजनमें वांछित होय पन अधि Aho! Shrutgyanam Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६) वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः। व्योमवातवसुधाभिधारवैर्दीर्घदुःखधनहानिदायिनी ॥ पूर्वमेव तदनंतरं पुनः पिंगला भवति तुच्छलाभदा ॥ ८॥ इति पिंगलारुते त्रिसंयोगस्वरफलप्रकरणं सप्तमम् ॥७॥ इति त्रिसंयोगवतां स्वराणां फलानि सम्यक्परिकीर्तितानि॥ चतुःसमायोगवतामिदानीमुदाहरामः कियतामपीह ॥ ८१॥ भूमिजलानलमारुतनादान्यो वदितुं चतुरश्चतुरोऽसौ ॥ पिंगखगः सकलाभिमतेषु श्रीजयकीर्तिसुखानि ददाति ॥ ॥ ८२॥ पार्थिववारुणवाय्वनलोत्थान्वक्ति रवान्यदि पिंग लपक्षी ॥ यच्छति तद्विजयं युधि यात्रासिद्धिमपेक्षितलाभसमृद्धिम् ॥ ८३॥ ॥टीका॥ प्सिते सति अतिशयन भयं दर्शयति ॥ ७९ ॥ व्योमेति ।। व्योमवातवसुधाभिधा रवैः पिंगला पूर्वमेव दीर्घदःखधनहानिदायिनी स्यात् तदनंतरं तुच्छलाभदा अल्प लाभदा भवति ॥ ८ ॥ . इति पिंगलारुतं त्रिसंयोगस्वरप्रकरणं सप्तमम् ॥ ७ ॥ इतीति ॥ इति समाप्तौ त्रिसंयोगवतां स्वराणां फलानि सम्यकपरिकीर्तितानि इदानी चतुःसंयोगवतां कियतां फलानि इहोदाहरामः॥८॥भूमीति ।। भूमिजलान लमारुतनादान्यो वदितुं गदितुं चतुरः असौ पिंगखगः सकलाभिमतेषु श्रीजयकीतिसुखानि ददाति ॥ ८२ ॥ पार्थिवेति ॥ यदि पिंगलपक्षी पार्थिववारुणवाय्व नलोत्थारवान्वक्ति तदा युधि तद्विजयं यच्छति तथा यात्रासिदि अपेक्षितलामस ॥ भाषा ॥ ककरके भय दिखावे ।। ७९ ॥ व्योमेति ॥ आकाश, वात.पृथ्वी इन शब्दन करके दीर्घदुःख, और उनकी हानि देवे. पहले और पछि पिंगला तुच्छलाभकी देवेवारी हाय ॥ ८ ॥ इति पिंगलारुते त्रिसंयोगस्वरफलप्रकरणं सप्तमम् ॥ ७॥ इतीति ॥ तीन संयोग जिनके ऐसे स्वरनके फल कहे, अब या प्रकारमें चार संयोगवान् स्वरनके फल कहैहैं ।। ८१ ॥ भूमीति ॥ भूमि, जल, अग्नि, पचन इनके नादनक कहनकू जो चतुर होय वोही चतुर जाननो. ये पिंगलपक्षी संपूर्णवांछितफलनमें श्री, जय, कीर्ति, सुख इने देवेहै ।। ८२ ॥ पार्थिवति ॥ जो पिंगल पक्षी पार्थिव, वारुण, वायु, अनल Aho! Shrutgyanam Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते चतुःसंयोगफलप्रकरणम् । (३४७ ) भूमिहताशपयोगगनानां पिंगखगेन कृतेषु रुतेषु ॥ स्यात्परदेशसमुच्चलितानां वांछितसिद्धिरथागमनं च ॥८॥ भूपवनांबुहुताशनशब्दाः स्युः क्रमशो यदि पिंगलिकायाः॥ तनियमेन जयो युधि राज्ञां सिध्यति चान्यदभीष्टमकस्मात ॥ ८५ ॥ भूम्यनिलानलनीरनिनादान्पिंगखगो यदि मुञ्चति तेन ॥ मोचयते दृढबंधनबद्धं यच्छति चास्य वसूनि बहुनि ॥८६॥वारिभूमिदहनश्वसनानां निःस्वनान्विदधती परिपाट्या ॥ कन्यकांबरधनप्रभुलाभं पिंगला प्रकुरुते पुरुषाणाम् ॥८७॥अंबुभमिवियदग्निनिनादान्पिगलोचरति चेत्क्रमगत्या ॥ तत्प्रसीदति नृपः खलु यात्रा सिद्धिमेति पुनरागमनं च ॥८८॥ ॥ टीका ॥ मृद्धि च ददाति ।। ८३ ॥ भूमीति ।। पिंगखगेन भूमिहुताशपयोगगनानां रुतेषु कृतेषु परदेशसमुञ्चलितानां वांछितसिद्धिरथागमनं च स्यात् ॥८४॥ भूपवनेति।। यदि पिंगलिकायाः भूपवनांबुहुताशनशब्दाः क्रमतः स्युः तनियमेन युधि राज्ञां जयो भवति अन्यदपीष्टं अकस्मासिध्यति ॥ ८५ ॥ भूमीति ॥ यदि पिंगखगः भम्यनिलानलनीरनिनादान्मुंचति तेन तं दृढबन्धबद्धं मुंचतिच पुनः अस्य बहूनि व. सूनि यच्छति ॥ ८६ ॥ वारीति ॥ वारिभूमिदहनश्वसनानां निःस्वनान्परिपाट्या क्रमेण विदधती पिंगला कन्यकांबरधनप्रभुलाभं पुरुषाणां प्रकुरुते॥८॥अंब्बिति॥ पिंगलोंऽभूमिवियदग्निनिनादान् क्रमगत्या उच्चरति चेत्तदा नृपः प्रसीदति खलु । . ॥ भाषा॥ इतने हुये शब्द्धनकू कहै तो संग्राममें विजय करें और यात्रामें सिद्धि और वांछितलाभकी समृद्धि देवै ॥ ८३ ॥ भूभीति ॥ पिंगलपक्षीने भूमि, अग्नि, जल, आकाश इनको शब्द कियो होय तो परदेशगये मनुष्या बांलासिद्धि और आगमन होय ॥ ८४ ॥ भूपवनेति।। जो पिंगलपक्षीक भूमि, पवन, जल, अग्नि इनके शब्द जमकरके होय तो नियमकरके संग्राममें राजानको जय होय. औरभी वांछित अकस्मात् सिद्ध होय ॥ ८५ ॥ भमीति ॥ जो पिंगलपक्षी भूमि, पवन, अग्नि, जल इनके नाद उच्चारण करें तो दृढबंधन करके बंधरह्यो,. ताय छुडायदे. और वाकू बहुतसो धनदेवे ॥ ८६ ॥ वारीति ॥ जो पिंगला जल, भूमि, अग्नि, पवन इनके शब्दनकू क्रमकरके करें तो पुरुषनकू कन्या वस्त्र धन बहुतसो लाभ करै ।। ८७ ॥ अंब्विति ॥ जो पिंगलपक्षी जल, भूमि, आकाश, अग्नि इनके निनाद क्रमकरों Aho.! Shrutgyanam Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४८) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशो वर्गः। वारिवह्निपवनावनिशब्दान्वामतो यदि करोति नरस्य ॥ कन्यकाधनसुखादिकलाभं तददाति विदधात्यथ विघ्रम् ॥ ॥ ८९ ॥ पिंगलावदनजानि यदि स्युरिवाय्ववनिवह्निरुतानि ॥ विग्रहायुवतिधान्यधनादि प्राप्यते नरवरेण तदाशु ॥९॥ वारिवातदहनावनिवाचः पिंगला वदति चेत्क्रमगत्या ॥ वित्तकीर्तिविजयाँल्लभते तद्विग्रहेण महतीं च समृद्धिम् ॥ ९१॥ तेजोधरावारिसमीरशब्दा भवांत पिंगस्य यदिक्रमेण ॥ ध्रुवं तदानी सुहृदागमेन प्रधानयोषिद्विषयः कलिः स्यात् ॥ ९२॥ ॥ टीका ॥ निश्चयेन यात्रा सिद्धिमेति पुनरागमनं च भवति ।। ८८ ॥ वारीति ॥ यदि गच्छतो नरस्य वारिवह्निपवनावनिशब्दान्करोति तदा कन्यकाधनसुखादिकलाभं ददाति अथ विघ्नं विदधाति ॥८९॥पिंगलेति ॥वारिवाय्ववनिवह्निरुतानि पिंगलावदनजानि यदि स्युः तदा विग्रहान्नरवरेण आशु शीघ्रं युवतिधान्यधनादि प्राप्यते ॥१०॥ ॥वारीति ॥ क्रमगत्या वारिवातदहनावनिवाचः पगला वदति चेत्तदा वित्तकीर्ति विजयाँल्लभते विग्रहेण महती समृद्धिं लभते इत्यथः ॥९१ ॥ तेजइति॥ चेक्रमेण पिंगलस्य तेजोधरावारिसमीरशब्दा भवंति । तदाना ध्रुवं मुहृदागमेन प्रधानयो ॥ भाषा॥ उच्चारण करै तो राजा प्रसन्न होय. निश्चय यात्रामें सिद्धि होय और फिर आगमन होय ॥८॥ वारीति॥जो पक्षी गमनकरवेवाले पुरुषकं जल, अग्नि, पवन, पृथ्वी इनके शब्द वामभागते करै तो कन्याधनसुखादिकनको लाभ देवे, या पीछे विघ्नकरै ॥८९॥ पिंगलति ॥ पिंगलाके मुखते निकसे हुये जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि ये शब्द होंय तो विग्रहते मनुष्यकू शीघही स्त्री धान्यधनादिक प्राप्त होय ॥९० ॥ वारीति ॥ जो क्रमगति करके जल, वात, अग्नि, पृथ्वी इनके शब्द पिंगलाकरे तो वित्त, कीर्ति, विजय इने प्राप्त होय और विग्रह करके महानू समृद्धि होय. ॥ ९१ ॥ तेज इति ।। जो क्रमकरके पिंगलके तेज, पृथ्वी, जल, पवन ये शब्द होंय तो निश्चय सुहृदको आगमन प्रधान स्त्रीकरके सहित कलह होय ॥ ९२ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते चतुः संयोगफलप्रकरणम् । (३४९) तेजोमहीमारुतवारिसंज्ञैः शब्दैः शकुंतेन कृतै क्रमेण ॥ पूर्व भवेद्वांछितवस्त्रलाभोयोषित्समुत्थः कलहस्ततः स्यात्॥९३॥ वह्नयंबुवातावनिजानिनादान्यदिक्रमाज्जल्पतिपिंगलाख्यः॥ आदौकलिःस्यान्महतो विरोधान्महार्थलाभस्तदनंतरंच ९४ तेजोजलो-पवनाभिधानरुतानि पिंगेन यदीरितानि॥ तद्भमिहेतोः कलहं महान्तं महार्थलाभं च वदंति संतः ॥९॥ हुताशवातांबुमहीरवेषु पिगेक्षणेनोचरितेषु सत्सु ॥ सुहृद्विरोधो न धनस्य लाभो यशश्च दिक्षु प्रथयेत्प्रभूतम् ॥ ९६॥ समीरपृथ्वीजलवह्निनादैर्महाबलोऽभ्येत्य चिराद्विरोधी ॥रोधं विधत्ते स तु सर्वदिक्षु यात्रासुमेघोऽर्धपथे तथास्यात्॥९७॥ ॥ टीका ॥ षिविषयः कलि स्यात् ।। ९२ ॥ तेजोमहीति ।। शकुंतेन तेजोमहीमारुतवारिसंज्ञैः क्रमेण कृतैः सद्भिः पूर्व वांछितवस्तुलाभो भवेत्ततो योषित्समुत्थः कलहः स्यात ॥ ९३ ॥ वहीति ॥ यदि पिंगलाख्यः क्रमादयंबुवातावनिजानिनादान् जल्पति तदा आदौ कलिः स्यात् तदनंतरं च महतो विरोधान्माहार्थलाभः स्यात् • ॥ ९४ ॥ तेजोजलेति ॥ यदि तेजोजलोऽपवनाभिधानि पिंगेन ईरितानि भवंति तदा भूमिहेतोः महांतं कलहं महार्थलाभं च संतो वदंति ॥९५ ॥ हुताशेति ॥ पिंगक्षणेनोचरितेषु हुताशवातांबुमहीरवेषु सत्सु सुहृद्विरोधः न स्यात् धनस्य लाभः स्यात् दिक्षु यशश्च प्रभूतं प्रथयेत् ॥ ९६ ॥ समीरेति ॥ समीर ॥भाषा ॥ ॥तेजोमहीति ॥ पिंगलकरके उच्चारण किये गये तेज, मही,मारुत,वारिसंज्ञक शब्द इन करके पहले तो वांछित वस्त्र वा वस्तुको लाभ होय. ता पीछे स्त्रीतै उठो हुयो कलह होय ॥१३॥ • ॥ वहीति ॥ जो पिंगल वह्नि, जल, वात, पृथ्वी ये शब्द क्रमते उच्चारण करे तो पहले तो कलह होय. ता पीछे महान् विरोधसूं महार्थलाभहोय ॥ ९४ ॥ तेजोजलेति ॥ जो पिंगलके कहे हुये तेज, जल, पृथ्वी, पवन ये शब्द होंय तो पृथ्वी हेतु महान्कलह होय फिर महार्थलाभ होय ॥ ९५ ॥ हुताशेति ॥ जो पिंगलपक्षी अग्नि, पवन, जल पृथ्वी इनशब्दनकू उच्चारण करे तो सुहृदजननको विरोध न होय. और धन लाभ होय, और यश दिशानमें बहुत होय ॥ ९६ ॥ समीरेति ॥ पिंगलके समीर, पथ्वी, जल, वह्नि इनशब्दनकरके महाबलवान् Aho ! Shrutgyanam Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५०) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशो वर्गः । समीरणांभोऽवनिपावकानां शब्दैः समायाति गृहं प्रवासी ॥ ततश्च योषिद्विषयः कलिः स्यात्स्यातां कुमारीद्रविणागमौ च ॥ ९८॥ पिंगेक्षणो मारुतवह्निवारिभूम्यात्मकैल्पति चेनिनादैः॥ युद्धं प्रवर्तेत तदुद्धतानां वैवाहिकं द्रव्यमवाप्यते च ॥९९ ॥ वाय्वग्निपृथ्वीसलिलोद्भवानि करोति चेत्पिगखगो रुतानि ॥ तच्चित्तभेदः सुहृदा सह स्याल्लाभो हिरण्यस्य च विग्रहेण ॥ १००॥ वातानलांभोवसुधाध्वनीनां पिंगो विधाता यदि विग्रहस्तत् ॥ नारीनिमित्तः सुहृदा सह स्यात्पराजयस्तत्र च निश्चयेन ॥ १०१ ॥ ॥ टीका ॥ पृथ्वीजलवाहिनादः महावलो विरोधी अचिरादभ्येति तु पुनःसर्वदिक्षु रोपं विधत्ते तथा यात्रासु अर्धपथे मेघः स्यात् ।। ९७॥ समीरणेति ॥ समीरणांभोऽवनिपावकानां शब्दैः प्रवासी गृहं समायाति ततश्च योषिता सह कलिस्पात् विजयश्चकुमा द्रविणागमौ च स्याताम ॥९८॥पिंगेक्षण इति ॥ चेपिगेक्षण: मारुतवद्विवारिभूम्यात्मकैः शब्दैर्जल्पति तदा उद्धतानां युद्धं प्रवर्तेत वैवाहिक द्रव्यमवाप्यते च ॥ ९९ ॥ वाय्वनीति ॥ चेपिंगखगो वाय्वग्निपृथ्वीसलिलोद्भवानि रुतानि करोति तदा सुहृदा सह चित्तभेदः विग्रहेण हिरण्यस्य च लाभः स्यात् ॥ १० ॥ वातेति ॥ यदि पिंगः वातानलांभोवसुधाध्वनीनां विधाता वक्ता भवति तदा नारीनिमित्तं सुहृदा सह विग्रहः स्यात् तत्र विग्रहे निश्चयेन पराजयः स्यात् ॥ १०१॥ ॥भाषा॥ विरोधी शानही आये. और आपकरके सर्व दिशानमें चारों मेरसं रोक लेये. और यात्रा नमें आके मार्ग में मेव आधे ॥ २७ ॥ समीरणेति ॥ पिंगलपक्षीक पवन, जल, पृथ्वी, अग्नि इनशब्दनकरके परदेशमें होय सो घर आवे. ता पीछे स्त्री करके सहित कलह होय. और विजय होय. कुमान भन इनको आगमन होय ॥ ९८ । पिंगक्षणहति ॥ जो पिंगेक्षण मारत, पहि, वार, भूमि इनशब्दनकरके बोलती होय तो उद्धत पुरुषनके युद्ध होय, और विवाहको ब्रय प्राप्त होय ॥ ९९ ॥ वाय्वनीति ॥ जो पिंगलपक्षी वायु, अग्नि, पृथ्वी, जल इनते हुये माष्ट करै तो सुहृद्जननकरके सहित वितळू भेट होय. और विग्रह करके सुवर्णको लाभ होय ॥ १०० ॥ वातति जो पिंगल बात, अग्नि, जल, पृथ्वी, Aho! Shrutgyanam Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते चतुःसंयोगफलप्रकरणम् । (३५१ ) भूम्याप्यहौताशननाभसाख्यैः स्यातां रुतैर्लाभसुहृद्विरोधौ ।। लाभः प्रवासे कलहः सहायैः सहाशिरोगो यदि वा समस्तैः ॥ १०२ ॥ भूवारिजाकाशहुताशशब्दान्यथाक्रमं चेद्विदधाति पिंगः ॥ धनानि सिध्यंति तदीप्सितानि नारीनिमित्तं कलहं तथाहुः ॥ १०३॥ क्षोणीहुताशांबरवारिनादा मित्राद्धनाप्ति रतिकार्यखेदम् ॥ यात्रासु सिद्धि विजयं रणेषु पुंसां प्रयच्छंति च राज्यलाभम्।।१०४॥धरानभोंऽभोगिरवैश्चतुर्भिः पिंगेक्षणेनाभिहितैः क्रमेण ॥ यात्रासु सिद्धिर्विजयो रणेषु श्रेयो भवेदन्यसमीहितेषु ॥१०॥ ॥ टीका ॥ भूमीति ॥ भूम्याप्यहौताशननाभसाख्यैः रुतैलभिसुहृद्विरोधौ स्याताम् प्रवासे लाभः सहायैः सह कलहः यदि वा समस्तैः सह अक्षिरोगः ॥ १०२ ॥ भवारीति ॥ चेपिगः भूवारिजाकाशहुताशशब्दान् भूश्च वारि च लाभ्यां जातौ तौ च तो आकाशहुताशशब्दौ च तान्विदधाति तदा धनानि तदीप्सितानि सिध्यति नारीनिमित्तं कलहं तदाहुः॥ १०३ ॥ क्षोणीति ॥ क्षोणीहुताशांबरवारिनादाः मित्राद्धनाप्तिं रतिकार्यखेदं यात्रासु च सिद्धिं रणेषु विजयं पुंसां प्रयच्छंति तथा , राज्यलाभम् ॥१०४ ॥ धरोति ॥धरानभोभोग्निरवैः चतुभिः क्रमेण पिंगक्षणेन अभिहितैः प्रतिपादितः यात्रामु सिद्धिर्भवति रणेषु विजयश्चान्यसमीहितेषु श्रेयः। ॥ भाषा ॥ इनके शब्दनको कर्ता होय तो स्त्रीके निमित्त सुहृजनन सहित विग्रह होय. और ता विग्रहमें निश्चयकर पराजय होय ॥ १०१ ॥ भूमीति ॥ पिंगठके भूमि, जल, अग्नि, आकाश इन शब्दनकरके लाभ और सुहृदय के विरोध होय. और परदेश में लाभ और सहायानकरके कलह वा समस्तनकरके कलह और नेत्रनमें रोग ये होय ॥ १०२ ॥ ॥ भूवारीति ॥ जो विहंग पक्षीः पृत्री, जल, आकाश, अग्नि इन शब्दनकू कमकरके करै तो वांछित धनप्राप्त होय. और स्त्रीके निमित कलह होय !! ०२॥ क्षोणीति ॥ जो पिंगलके पृथ्वी, अग्नि, आकाश, जल ये शब्द होय तो मित्ररे उनकी प्राप्ति और रतिका र्य खेद होय. और यात्रानमें सिद्धि, संग्राममें विजय और राज्यको लाभ ये पुरुश्नकं होय ॥ १०४ ॥ धरेति ॥ पिंगलके क्रमकरके कहे हुये पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि ये चार शब्द तिनकरके यात्रानमें सिद्धि, रणमें विजय और कार्यनमें श्रेय हाय ॥१०५ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५२ ) वसंतराजशाकुने त्रयोदशी वर्गः । धरांबुवा तांबरजा निनादाः कुर्वन्ति लब्धस्य धनस्य नाशम् ॥ भूम्यंबुजौ द्वौ नभमारुतौ द्वौ लाभात्परं दुःखमुपानयंति ॥१०६॥ धरासमीरांबुनभोरवैस्तु स्त्रीभ्यः शुभं स्यात्कलहाच्च सिद्धिः ॥ भूमारुतव्योमजलोत्थशब्दैर्लाभिः कलेगें हमुपैति रोगी ||१०७ ॥ महीमरुव्योमहुताशशब्दैरा यात्यरातिः समरस्तथा स्यात् ॥ भूव्योमतेजोमरुतां खैः स्यात्सविग्रहं बन्धनमाग्रहेण ॥ १०८ ॥ क्षोणीसमीरांबुहुताशनाद्यैर्युद्धेन सेनापतिमृत्युमाहुः ॥ अंभोऽग्निवातांबरजैर्भवेतां परस्य कार्येण विरोधमृत्यू ॥ १०९ ॥ ॥ टीका ॥ ॥ १०५ ॥ धरांब्विति ॥ धरांबुवातांबरजा निनादाः लब्धस्य धनस्य नाशं कुर्वन्ति भौमांभसौ द्वौ च खौ तथा नभोमारुतौ द्वौ लाभात्परं दुःखमुपानयंति ॥ १०६ ॥ धरासमीरेति ॥ धरासमीरांबुनभोरखैः स्त्रीभ्यः शुभं स्यात् कलहाच सिद्धिः भूमारुतव्योमजलोत्थशब्दैः कलेलभिः स्यात्तथा रोगी गेहमुपै ति ॥ १०७ ॥ महीति ॥ महीमरुद्योमहुताशशब्दैः अरातिः शत्रुः आयाति तथा समरः स्यात् भूव्योमतेजोमरुतां वैराग्रहेण सविग्रहं बन्धनं भवति ॥ १०८ ॥ क्षोणीति ॥ क्षोणीस मीरांबुडुताशनाद्यैः शब्दैः युद्धेन सेनापतिमृत्युमाहुः अंभोग्मिवातांबरजैः परस्य कार्येण विरोधमृत्यू भवेताम् ॥ १०९ ॥ ॥ भाषा ॥ ॥ धराम्बिति ॥ जो पिंगल पृथ्वी, जल, पवन, आकाश ये शब्द करे तो प्राप्त हुये धनको नाश करै. और पृथ्वी जल ये दोनों और आकाश मारुत ये दोनों होंय तो प्रथम तो लाभ करावे. ता पीछे दुःख करावे ॥ १०६ ॥ धरासमीति ॥ पिङ्गलके पृथ्वी, पवन, जल, आकाश इनशब्दनकरके स्त्रिनते शुभ होय और कलहतें सिद्धि होंय और पृथ्वीमारुत, आकाश, जल इनते हुये जे शब्द इनकरके कलहमें लाभ होय और रोगी घरकू आवै ॥ १०७ ॥ महीति ॥ पृथ्वी, पवन, आकाश, अग्नि इनशब्दन करके वैरी आत्रे और संग्राम होय और पृथ्वी, आकाश, तेज, पवन इनके शब्दनकरके विग्रहसहित आग्रह करके बंधन होय ॥ १०८ क्षोणीति ॥ पृथ्वी, पवन, जल, अग्नि इन शब्दनकरके युद्ध में सेनापतिकी मृत्यु होय, और जल, अग्नि, वात, आकाश ये शब्द पिंगलके हो १ इदमसाध्वेव । Aho! Shrutgyanam Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते चतुःसंयोगफलप्रकरणम्। (३५३) आप्यानिलागेयवियत्स्वरैः स्यायुद्धे जयः पश्चिमयुद्धकर्तुः ॥ अंभोनलाकाशसमीरशब्दै रणो गरीयान्भवति स्वभृत्यैः॥ ॥११०॥अंभोमरुदह्निवियद्रुतैश्च द्रुतं रणे स्यान्मरणंप्रयाणात्॥पयःसमीरांबरवह्निनादैः प्रभोषिद्भिः सह मृत्युमाहुः ॥ १११॥पयो विहायोऽग्निसमीरजातरंभोवियद्वातहुताशा ॥ महाहवेनेह महीपतेः स्युर्वैरिक्षयक्षेमजयार्थलाभाः॥११२॥ भूतोयतेजोमरुदंबराख्यैबूते वैः शांतकृतस्थितियः ॥ महायशोराशिभृतांतरालदिक्चक्रवालं स. ददाति राज्यम् ॥ ११३॥ ॥ टीका ॥ आप्यति॥आप्यानिलाग्नेयवियत्स्वरैयुद्धं स्यात् तथा पश्चिमयुद्धकर्तुर्जयः स्यात् अं. भोनलाकाशसमीरशब्दैः गरीयान्महारणः स्वभृत्यैर्भवति ॥ ११० ॥ अंभइति॥अं. भोमरुदहिवियद्रुतैस्तु प्रयाणाद्रुतं रणे मरणं स्यात् । पयासमोरांबरवह्निनादौर्दिषद्भिः सह प्रभोर्मृत्युमाहुः॥१११॥पय इति।। पयोविहायोनिसमीरजातैः अंभोवियद्वातहुताशर्वाइह महीपतेर्महाहवेन वैरिक्षयक्षेमजयार्थलाभाः स्युः ॥ ११२ ॥ भूतोयेति॥भतोयतेजोमरुदंबराख्यै रवैः शांतकृतस्थितियों ब्रूते स महायशोराशिभृता ॥ भाषा॥ तो परायेके कार्यकरके विरोध और मृत्यु होय ॥ १०९ ॥ आप्येति ॥ जो पिंगलके जल, पवन, अग्नि, आकाश इन म्वरनकरके युद्ध होय. और पिछाडीपै जो युद्ध करै ताको जय, और जल, अग्नि, आकाश, पवन इनशब्दकर अपने भृत्यनके साथ घोर संग्राम होय ॥ ११० ॥ अंभ इति ॥ पिंगलके जल, पवन, अग्नि, आकाश इनशब्दनकरके संग्राममें जातेही शीघ्र मरण होय और जल, पवन, आकाश, अग्नि ये शब्द बोले तो वैरीनकरके सहित स्वामीको मृत्यु होय ॥ १११॥ पय इति ॥ जल, अकाश, अग्नि, पवन इनते हुये शब्द होंय वा जल, आकाश, पवन, अग्नि इनते हुयो होय तो राजाकू महान् संग्रामकरके वैरीको क्षय होय. और क्षेम, जय, अर्थ लाभ होय ॥ ११२॥ भूतोयेति ।। शांत दिशामें स्थित पिंगल पृथ्वी, जल, तेज, पवन, आकाश ये शब्द बोले तो महान् यश-- Aho ! Shrutgyanam Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५४ ) वसंतरानशाकुने-त्रयोदशो वर्गः। कृत्वाविहंगःशुभदान्निनादास्ततोऽशुभौ चेद्विदधाति नादौ ।। सिद्धिं तदा गच्छति कार्यमादौ भवेद्रुतं तस्यततः प्रणाशः॥ ॥११४॥ शब्दावशस्तौ प्रथमं करोति ततः प्रशस्तान्विदधाति नादान ॥ यः पिंगलोऽसौ विनिहत्य कार्य समीहितादप्यधिकं विधत्ते ॥ ११५ ॥ सर्वै वैः पार्थिवपूर्वकैः स्यात्फलं प्रशस्तं ननु तेन होनैः॥ पंचापि शब्दाः क्रमतो यदि स्युर्लाभोऽधिकोऽर्थस्य भवत्यभीष्टात् ॥११६॥ पार्थिववारुणतैजसशब्दाःस्युर्यदिःतत्फलमस्ति समस्तम् ॥पार्थिवतोयजतैजसनादाः सिद्धिमुपैति फलं तदभीष्टम् ॥ ११७॥ ॥ टीका ॥ तरालदिक्चक्रवालं राज्यं ददाति॥११३॥कृत्वेति॥विहंगः शुभदान्निनादान्कृत्वा ततोऽशुभौ नादौ चेद्विदधाति तदादौ कार्यसिद्धिं गच्छति ततो द्रुतं तस्य प्रणाशः स्यात् ॥११४॥शब्दाविति॥अशस्तौशब्दौ प्रथमं करोति ततः प्रशस्तानादान्विद. धाति असो कार्य विनिहत्य अधिकमपि समीहिताद्विधत्ते॥११५॥सर्वैरिति ॥पार्थिवपूर्वकैः सर्वैः रवैः प्रशस्त फलं स्यात् ननु तेन पार्थिवेन हीनः यदिकमतः पंचापि शब्दारस्युःतदाऽभीष्टादिच्छाविषयीकृतादादधिकस्य लाभः स्यात्॥११६॥पार्थिवेतिायःपिंगला यदि पार्थिववारुणतैजसशब्दाः स्युः तान्यदि उच्चरति तदासमस्तं फलं भवति यदि पार्थिवस्तोयजस्तैजसानादः स्यात्तदाभीष्टं फलं सिद्धिमुपैति११७॥ ॥ भाषा॥ के समूह जामें भरो हुयो ऐसो दिग्मंडल जामें ऐसो राज्य देवे ॥ ११३ ॥ कृत्वेति ॥ जो पिंगल शुभके देबेवारे शब्द करके फिर अशुभशब्द करै तो प्रथम कार्यकी सिद्धि करै. ता पीछे वा कार्यको शीघ्रही नाश करै ॥ ११४ ॥ शब्दादिति ॥ प्रयम तो अशस्त नाद करे ता पीछे प्रशस्त नाद करे तो पिंगल पहले कार्यकू बिगाडकरके पीछे वांछितसूभी अधिक कार्य करे ॥ ११५ ॥ सर्वैरिति ॥ पार्थिवकू आदिले सर्व शब्दनकरके फल प्रशस्त होय पीछे पार्थिवशब्दविना क्रमपूर्वक पांचो शब्द हो तो अभीष्टसंभी अधिक अधिक अर्यको लाभ होय ॥ ११६ ॥ पार्थिवेति ॥ जो पिंगलकं पार्थिव, वारुण, तैजस शब्द होय तो समस्त फल होय और पार्थिव, जल, तैजस, ये नाद होंय तो भी अभीष्ट फल Aho! Shrutgyanam Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते चतुःसंयोगफलप्रकरणम् । ( ३५५ ) भौमान्नभोजोऽनिलजोऽथवा स्यादाशां प्रदर्श्य प्रतिहंति कार्यम् ॥ भवंति भौमाप्यविनाकृतानि शस्तानि वाय्वग्निनभोरुतानि ॥ ११८ ॥ कार्ये स्त्रियाः शोभनमनिजातमननिजाद्यौ मरुदंबरोत्थौ ॥ शंसंति कार्येषु शुभेषु शांतान्दीतान्भयादौ शुभदान्वदंति ॥ ११९ ॥ शांतस्वरौ पार्थिववारुणाख्यौ दीप्ता-, भिधौ पावननाभसौ तु ॥ स्यात्तैजसस्तु द्वितयावलंबी येनावितस्तस्य फलं ददाति ॥ १२० ॥ अतिप्रभूता यदमी विमिश्राः शब्दा यथासंभवमुच्यमानाः ॥ तेनात्र दिङ्मात्रकमेव तेषामुक्तं स्वरज्ञैः स्वयमन्यदूह्यम् ॥ १२१ ॥ ॥ टीका ॥ भौमादिति ॥ अथ भौमान्नभोजः अनिलजो वा स्यात्तदा आशां प्रदर्श्य कार्य प्रतिहंति भौमाप्यविनाकृतानि भौमाप्यशब्दरहितानि वाय्वग्भिनभोरुतानि शस्तानि भवति ॥ ११८ ॥ कार्य इति ॥ स्त्रियाः कार्ये मिजातं शोभनं भवति मरुदंबरीत्थौ अनग्निजाद्याविति अनभिजः अभिव्यतिरिक्तःस्वरः स एव आद्यो ययोस्तौ स्वनौ कार्ये शोभनावित्यर्थः । शुभेषु कार्येषु शांताञ्छंसंति भयादौ दीप्ताच्छुभदान्वदति ११९ शांतस्वराविति ॥ पार्थिववारुणाख्यौ शांतस्वरौ पावननाभसौ दीप्ताभियौ भवतः 'तैजसस्तु द्वितयावलंची स्यात् येनान्वितः तस्य फलं ददाति ॥ १२० ॥ अतिप्रभूता इति ॥ यद्यस्मादमी विमिश्राः शब्दा यथासंभवमुच्यमाना अतिप्रभूता भवंति ॥ भाषा ॥ सिद्धिकूं प्राप्त होय ॥ ११७ ॥ भौमादिति ॥ भौमशब्दसूं आकाशनको और पवनको शब्द होय तो आशा दिखाय करके कार्यकूं नाश करे. पिंगलके अग्नि, आकाश ये शब्द किये हुये होंय तो शस्त जानने ॥ स्त्री कार्यमें अग्नि हुयो शब्द शोभन है. और अग्नि शब्द आदिमें नहीं होय पवन आकाश इनते हुये शब्द होंय तो कार्यमें शुभ है. और शुभकार्यनमें शांतशब्दनकूं श्लाघा करे हैं. और भयादिक कार्यनमें दीप्तस्वर शुभके देबेवारे कहेहैं ॥ ११९ ॥ शांतस्वराविति ॥ पिंगलाके पार्थिव वारुण ये दोनों शांतस्वर हैं. और पवनको आकाशको ये दोनों दीप्तस्वर हैं. और तेजस स्वर तो दोनोंनकूं अवलंबनकर है. तैजस जा स्वर करके युक्त होय ताको फल देवेहै ॥ १२० ॥ अतिप्रभूता इति ॥ ये मिलवांशब्द हैं जो पिंगल यथा Aho ! Shrutgyanam भौम आप्यविना पवन, ११८ ॥ कायें इति ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५६) वसंतराजशाकुने त्रयोदशी वर्गः। यःशब्दानां ह्रस्वदीर्घप्लुतत्वं मेदिन्यंभोवह्निवातांबरत्वम् ॥ भिन्नं खं बुध्यते निश्चयेन ज्ञानं तस्मिञ्छाकुनं सत्यमास्ते १२२॥ इति वसंतराजशाकुने पिंगलारुते संयोगस्वरप्रकरणमष्टमम्॥८॥ अथ संकीर्णप्रकरणं प्रकथ्यते । अथ संकीर्णप्रकरणसारः क्रियते परिहतविस्तरसारः॥ यत्रा- . वगते भवति स्पष्टं पिंगलमतमिदमतिशयकष्टम् ॥ १२३ ॥ अभ्यर्चितः पिंगखगो दुमाग्रमारुह्य भौमाप्यरवौ ब्रुवाणः ॥ राज्याभिषेके परदेशयाने समीहितेऽन्यत्र च सिद्धिदायी॥१२४॥ ॥ टीका ॥ तेन कारणेन तेषां स्वराणां दिङ्मात्रकमेव उक्तमुन्यत्स्वरज्ञैःस्वयमुह्यम् ॥ १२१॥ य इति ॥ यः शब्दानां द्वस्वदीर्घप्लुतत्वं मेदिन्यंभोवहिवातांवरत्वं च निश्चयेन भिन्नभिन्नं बुध्यते तस्मिज्ञानं शाकुनं सत्यमास्ते ॥ १२२ ॥ । इति वसंतरानटीकायां पिंगलारुते चतुःसंयोगस्वरप्रकरणमष्टमम् ॥ ८॥ अथेति ॥ स्वरकथनानंतरं संकीर्णप्रकरणसारः क्रियते । कीदृक् परिहतविस्तरसार इति परिहतस्त्यक्तो यो विस्तरस्तेन सारः प्रधानः यस्मिन्नवगते ज्ञाते सति पिंगलमतमतिशयकष्टं स्पष्टं भवति ॥ १२३ ॥ अभ्यर्चित इति ॥ अभ्यर्चितः पूजितः पिंगखगः दुमाग्रमारुह्य भौमाप्यरवौ ब्रुवाणः राज्याभिषेके परदेशयानेऽन्यत्र ॥ भाषा॥ योग्य क्रमपूर्वक बोले तो बहुत फल देवै है. यातूं या प्रकरणमें उन स्वरनके दिशामात्र क्रम कहेहै. और विशेष स्वरकू जाने उन पुरुषनकरके आपही विचार करनो योग्य है ॥ १२१ ॥ य इति ॥ जो पिंगलके शब्दनको हस्व दीर्घ प्लुत भेद जानतो होय. और पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश इनके भेद न्यारे न्यारे जानता होय वा पुरुषमें शकुनको ज्ञान सत्य रहै है ॥ १२२॥ इति वसंतराजभाषाटीकायां पिंगलारुतेचतुःसंयोगफलप्रकरणमष्टमसमाप्तम् ॥८॥ ___ अथेति ॥ स्वरनके कहेके अनंतर अब संकर्णिप्रकरणको सार करूंहूं. संक्षेपकरके सार जामें ऐसे या प्रकरणकू जान जाय तो अधिक कष्ट जामें ऐसो ये पिंगलमतसों स्पष्ट होजाय ॥ १२३ ॥ अभ्यर्चित इति ॥ पूजन जाको हुयो वो पिंगल वृक्षके अग्रभागपै चढकरके भौम, आप्य ये शब्द बोले तो राज्याभिषेकमें, परदेशगमनमें और कोई वांछित कार्यमें Aho ! Shrutgyanam Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते संकीर्णप्रकरणम् । ( ३५७ ) मध्यप्रदेशे यदि पादपस्य स्कन्धप्रदेशे यदि वा विहंगः ॥ भौमायशब्दौ कुरुते यदा तु मध्यं निकृष्टं च फलं ददाति ॥ ॥ १२५ ॥ भक्ष्यपूर्णवदनः शुभशब्दो रम्यदेशनिरतो विहगो यः ॥ संपदं प्रवितरत्यतिवह्नीं तान्निति पुनरुझ्झितभक्ष्यः ॥ १२६ ॥ त्वक्त्वार्चितं पादपमन्यवृक्षे दृश्येत यः शोभनशब्दकारी ॥ अभीष्टदेशादपरत्र देशे सोऽचिंतितां यच्छति कार्यसिद्धिम् ॥ १२७ ॥ भूरिकोटरयुते परिशुष्के पादपे जरति मोटितशाखे ॥ अंबरेण कुरुते यदि शब्द मृत्युदस्तदचिरेण पतत्री ॥ १२८ ॥ ॥ टीका ॥ समीहिते च सिद्धिदायी स्यात् ॥ १२४ ॥ यदि पादपस्य मध्यप्रदेशे यदि स्कन्धप्रदेशे स्थितो विहंगो भौमाप्यशब्दौ कुरुते तदा क्रमेण मध्यं च निकृष्टं फलं ददाति ॥ १२५ ॥ भक्ष्येति ॥ यदि भक्ष्यपूर्णवदनः शुभशब्दः रम्यदेशे विशेषेण रतो विहगः स्यात्तदा अतिवह्नीं संपदं वितरति । उझ्झितभक्ष्यः सन्पुनस्तां संपदं विनिहन्ति ॥ १२६॥ त्यक्त्वेति ॥ अर्चितं पादपं त्यक्त्वाऽन्यवृक्षे दृश्येत कीदृक शोभनशब्दकारी सोऽभीष्टदेशादपरत्र देशे चिंतितां कार्यसिद्धिं यच्छति ॥ १२७॥ भूरीति ॥ भूरिकोटरयुते परिशुष्के जरति परिमोटितशाखे भग्नशाखे पादपेंश्वरेण स्वरेण यदि ॥ भाषा ॥ सिद्धि करै ॥ १२४ ॥ मध्येति ॥ जो पिंगल वृक्ष के मध्यदेशमें स्थित होयकर वा वृक्षकी डालनमें स्थित होयकर पृथ्वी, जल ये शब्द करे तो मध्यफल अथवा निकृष्टफल देवै ॥ १२५ ॥ भक्ष्येति ॥ भक्ष्य जाके मुखमें होय शुभशब्द बोलतो होय, सुन्दरस्थानमें जाकी प्रीति होय ऐसो पिंगल अत्यंत बहुत संपदा देवे फिर भक्ष्यकूं त्याग करदेवै तो वा संपदाकूं नाश करदे ॥ १२६ ॥ त्यक्त्वेति ॥ अर्चन करेहुये वृक्षकूं छोडकरके और वृक्षपै जाय बैठे वहां शोभन शब्द करतो दीखै तो, बांछित देशसूं और देशमें वांछितसेभी अधिक और अन्यही कार्यसिद्धि देवे ॥ १२७ ॥ भूरीति ॥ बहुतसी कोटरा जामें होय, सूखो होय, जीर्ण होय, शाखा जाकी टूटरही होय ऐसे वृक्षपै, आकाश स्वरकर के शब्द करे तो पिंगल शीघ्रही मृत्यु देवै ॥ १२८ ॥ Äho! Shrutgyanam Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः। . कोटरमध्यगतो यदि पक्षी कूजति पार्थिववारुणनादैः ।। तत्प्रथमार्जितमत्ति नरोऽर्थ नान्यमुपार्जयितुं स समर्थः॥ ॥ १२९ ॥ पिंगो ब्रजित्वा यदि दक्षिणेन स्थित्वा च शांते शुभदं निनादम् ॥ कुर्यात्तददि महतीं ददाति तां हत्यशांतस्वरचेष्टितोऽसौ ॥ १३० ॥ वामं गतःशांतकृतस्थितिश्चेत्पिगेक्षणः शोभनशब्दचेष्टः॥ चिरेण लाभं कुरुते नराणां तं दुष्टचेष्टारहितो निहन्ति ॥१३१॥ भूमिजवह्निजवारिजनादैल्पति शोभनदेशनिविष्टा ॥ पिंगलिका यदि शोभनचेष्टा यच्छति तद्धनधान्यपुरंध्रीः ॥१३२॥ ॥टीका ॥ शब्दं कुरुते स पतत्री अचिरेण मृत्युदः स्यात् ॥ १२८ ॥ कोटरेति ॥ यदि कोटरमध्यगतः पक्षी पार्थिववारुणनादैः कूजति तत्प्रथमार्जितं वित्तं नरोऽत्ति नान्यं स उपार्जयितुं समर्थों भवति॥१२९॥पिंग इति॥ यदि दक्षिणेन पिंगो ब्रजित्वा शांतप्रदेशे स्थित्वा शुभदं निनादं कुर्यात्तदा महती ऋद्धिं ददाति।अशांतस्वरचेष्टितः अ. सौ हंति॥१३०॥वामामति ॥ चेत्पिगेक्षणः शोभनशब्दः शांतकृतस्थितिःवामं ग. तो नराणां चिरेण लाभं कुरुते तं दुष्टचेष्टारहितो निहन्ति अचिरादेव लाभं करोतीत्यर्थः ॥ १३१ ॥ भूमिजेति ।। यदि पिंगलिका शोभनदेशनिविष्टा भूमिजवह्निजवारिजनादैर्जल्पति कीदृशीशोभनचेष्टा तद्धनधान्यपुरंधीः पतिपुत्रादिमतीः स्त्रीः ॥ भाषा ॥ कोटरेति ॥ वृक्षकी कोटरामें स्थित होयकरके जो पिंगल पार्थिव वारुण नाद करै तो प्रथम संच यकियो धन तो खायजाय वो फिर और संचय करबेकू समर्थ नहीं होय ॥ १२९ ॥ पिंग इति॥ जो पिंगल दक्षिणभागमें जायकर शांतदेशमें स्थित होयकर शुभनाद करै तो महान् ऋद्धि देवै. फिर जो अशांतस्वरचेष्टा करै तो वा ऋद्धिकुं नाश करै ।। १३० ॥ वाममिति ।। जो पिंगल वामभागमें होय और शांतदेशमें स्थित होय और शोभन शब्दचेष्टा करतो होय तो मनुष्यनकू शीघ्रही लाभ करै. और जो दुष्ट चेष्टा करतो होय वा शब्द दुष्ट करतो होय तो ता लाभकू नाश करै ॥ १३१॥ भूमिजति ।। जो पिंगलिका सुन्दरस्थानमें बैठी होय शोभनजाकी चेष्टा होय और पृथ्वी अग्नि जल इनते हुये जे नाद तिनकरके बोलती होय तो वा पुरुषकू धनधान्यपुरंध्री नाम पतिपुत्रादिक जाके विद्यमान ऐसी स्त्री देवै ॥ १३२ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते संकीर्णप्रकरणम् । . (३५९) अधिष्ठितः कीकसकाष्ठशूलान्यंगारभस्मोपलवामलूरान् ॥ शांतस्वरो वांछितकार्यनाशं दीप्तारवो वक्ति मृति शकुंतः॥ ॥ १३३॥ स्वस्थाननैमित्तिकपादपानां मध्याच ययेकमपि त्रयाणाम् ॥ प्रदक्षिणेन प्रविवेष्टयेत्तत्पिगो दिशत्याश शुभानि पुंसः॥ १३४॥ वामे दृष्टः पिंगलः स्यात्स्वपक्षः पृष्टे कार्य स्यात्फलं प्रष्टुरेवदृष्टः पक्षी दक्षिणेनान्यपक्षः पृष्टं सोथ वक्ति चान्यार्थमेव ॥ १३५ ॥ मध्ये घनो महती च शा खा शुभाय तस्यां शुभशब्दकारी ॥ प्रांते चलाधोवदनातिलघ्वी स्याज्जातु तस्यां शुभदो न पिंगः ॥ १३६॥ ॥ टीका ॥ यच्छति ॥१३२ ॥ अधिष्ठित इति ॥ कीकसकाष्ठशूलान्यंगारभस्मोपलवामलूरान तत्र वामलूरो वल्मीकं व्यमौर इति प्रसिद्धम् अधिष्ठितः शकुतः शांतस्वरः वांछित कार्यनाशं करोति दीप्तारवः पुनर्मृतिं वक्ति॥१३३॥ स्वस्थानति॥स्वस्थाननैमित्तिकपादपानामिति स्वशब्देन शाकुनिकः स्थानं पक्षिनिवासढुम नैमित्तिकः अधिवासि तमः एतेषां त्रयाणां मध्यादेकमपि प्रदक्षिणेन प्रविवेष्टयेत् पिंगः पुंसामाशु शुभानि दिशति ॥ १३४ ॥ वाम इति ॥ वामे दृष्टः पिंगलः स्वपक्षः स्यात् पृष्ट कार्य प्रष्टुरेव फलं स्यात् । दक्षिणेन दृष्टः पक्षी अन्यपक्षः स्यात् स पृष्टमर्थमन्यायमेव वक्ति ॥ १३५ ॥:मध्ये इति । घना निविडा ऊर्द्धा उच्चस्तरा या महती शा ॥ भाषा ॥ अधिष्ठित इति ॥ जो पिंगल हाड, काष्ठकी शूली, अंगार, भस्म, पाषाण, वल्मीकि, व्यमौर इनमें स्थित होय, और शांतस्वर जाको होय तो वांछितकार्यको नाश करै. जो दीप्तस्वर होय तो मृत्यु करै ॥१३॥ स्वस्थानति ॥ शकुनीको स्थान और पक्षीनको निवास जामें वो वृक्ष और और पूजनको वृक्ष इन तीनोंनमेंसे एककुंभी प्रदक्षिण होयकरके वेष्टन करले तो पिंगल पुरुषकू शीघ्रही शुभकरै ॥ १३४ ॥ वाम इति ॥ जो पिंगल वामभागमें दीखै तो अपनो पक्ष कहै. और पूछवेवारेको कार्य होय तो पूछबेवारकू फल होय, और दक्षिणभागमें दीखै तो अन्यको पक्ष जाननो. और पूछो हुयो कार्य होय तोभी अन्यको कहेहै ॥ १३५ ॥ मध्ये इति ॥ मध्यमें पिंगलको घूसूआ होय और महान् ऊंची शाखा होय तामें शुभशब्द करतो होय तो पिंगल शुभदेवे और वृक्षके अंतमें अचल नाचेकं झुकी होय अति छो. Aho ! Shrutgyanam Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६०) वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः। अनोकहस्कंधसमुत्थशाखाश्रितः खगो भूमिरवेण जल्पन् । तादृक्समारोहति वाथ वृक्षं शुभाय राज्यादिसमीहितेषु ॥ ॥ १३७ ॥ तेजोरवादुत्तरमानिलश्चेत्तत्सर्वकार्येषु करोति सिद्धिम् ॥ ऊर्द्ध च ताभ्यां यदि वारुणः स्यात्तत्सर्वनाशं प्रदिशत्यवश्यम् ॥ १३८ ॥ यद्याप्यभौमौ निनदौ पतंगः करोति तल्लाभविनाशहेतुः॥ स्यातां रखौ मारुतपार्थिवाख्यौ भयाय शांते मरणाय दीप्ते ॥ १३९ ॥ नाशं मरुज्यांबुरवा धनस्य कुर्वन्ति मृत्यु प्रतिलोमभावात् ॥ अग्न्यंबुशब्दो निजलोकभेदं विघ्नं विधत्तोऽभिहिते च कार्य ॥ १४ ॥ ॥ टीका ॥ खा तस्यां शुभशब्दकारी शुभाय पिंगःस्यात् । प्रांते चलाधोवदनातिलघ्वी शाखा स्यात्तस्यां पिंगः शुभदोन स्यात् ॥१३६॥ अनोकहेति ॥ अनोकहस्कंधसमुत्थशाखां समाश्रितःभूमिरवेण जल्पन्यदिसः तादृग्वृक्षं समारोहतिःतदाराज्यादिसमीहितेष शुभाय स्यात्॥१३॥तेज इति।तिजोरवादुत्तरंमानिलश्चद्भवति तदा सर्वकार्येषु सिदिकरोति । ताभ्यामूर्द्ध यदि वारुणः स्याचदावश्यं सर्वनाशं प्रदिशति ॥ १३८ ॥ यदीति ॥ यदि पतंगः आप्यभौमौ निनादौ करोति तल्लाभविनाशहेतुः स्यात् यदा पार्थिवमा रुताख्यौरवौ शांते भयाय स्याताम् । दीप्ते मरणाय भवत इत्यर्थः॥ ॥ १३९ ॥ नाशमिति ॥ मरुज्ज्यांबुरवाः वायुपृथ्वीजलरवाः धनस्य नाशं. कुर्वन्ति । प्रतिलोमभावान्मृत्यु कुर्वति । अग्न्यंबुशब्दौ निजलोकभेदमभिमते का ॥भाषा ॥ टी शाखा होय वामें पिंगल बैठो होय तो शुभको देबेवारो नहीं जाननो ॥ १३६ ॥ अनोकहेति ॥ वृक्षकी डालामेंते उठी हुई शाखापै स्थित होय पृथ्वी शब्द करके बोलतो होय अथवा वैसेही वृक्षप चढ जाय तो पिंगल राज्यादिक जे वांछित कार्य उनमें शुभकरै ॥ १३७ ॥ तजोरवादिति ॥ तेजशब्द बोलै पीछे जो अनिल शब्द बोले तो सर्व कार्यनमें सिद्धि करै। जो इन दोनों शब्द करे पीछे वारुण शब्द बोले तो अवश्य सर्व कार्य नाश करै ॥ १३८ ॥ यदीति ॥ जो पिंगल जल और पृथ्वी ये दोनों. शब्द करै तो लाभको नाशकरै, जो पृ. - श्वी पवन ये दोनों शातशब्द होय तो भयके अर्थ जाननो और दीप्तशब्द होंय तो मरणके < अर्थ जाननो ॥ १३९ ॥ नाशमिति ॥ जो पवन, पृथ्वी, जल तीनों शब्द बोले तो मिल Aho! Shrutgyanam Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलास्ते संकीर्णप्रकरणम् । (३६१) खेदं भयं चांबुहुताशशब्दौ पृथ्वीपयःखध्वनयोऽर्थसिद्धिम् ॥ कुर्वति निघ्नंति फलानि शीघ्रं त एव जातेन विपर्ययेण ॥१४१॥ खाग्निध्वनी वह्निनभोध्वनी यो कार्यस्य नाशं कुरुतः कलिं च ॥ यः कोपि तिष्ठन्नपि यत्र तत्र मृत्युप्रदो वातरवेण पिंगः ॥१४२॥ जीर्णभनफलवल्लिवेष्टिताः शुष्ककीटहतभूरिकोटराः॥ पादपा भयविनाशहेतवः स्याच तद्वदिह मारुतं रुतम् ।।१४३॥ अंभोनभोजौनिनदौ जलाशा खाश्रितो व्याहरति क्रमेण ॥ पिंगक्षणश्चेनियतं भयं तत्स्याद्वैविध्वंसविधायि पुंसाम् ॥१४४॥ ॥ टीका ॥ ये च विघ्नं विधत्तः ॥ १४० ॥ खेदमिति ॥ अंबुहुताशशब्दो खेदं भयं च कुरुतः । पृथ्वीपयः खध्वनयोऽर्थसिद्धिं कुर्वति।त एव विपर्ययेण जातेन शीघ्रं फलानि निनंति ॥१४१॥खामीति।।खामिध्वनीनभोवह्निध्वनी वा कार्यस्य नाशं कलिं च कुरुतः यः कोपि पिंगः यत्र तत्र निष्ठन्वातरवेण मृत्युप्रदो भवति ॥ १४२ ॥ जाणति ॥ जीर्णा जर्जरा भमा फलवल्लिभिः परितो वेष्टिताः शुष्का कीटहताः कीटाकुलाःभूरिकोटराः भूरीणि कोटराणि येषु ते तथा एवंविधाः पादपा भयविनाशहेतवः स्युः इह तद्वन्मारुतं रुतं भवति ॥ १४३ ॥ अंभ इति ॥ चेपिगेक्षणः जलाशाखाश्रितः क्रमेण अंभोनभोजौ निनदौ व्याहरति तदा पुसां धैर्यविध्वंसविधायि नियतं भयं ॥ भाषा ॥ धनको नाश करै. जो प्रतिलोम भाव होय तो मृत्यु करै, और अग्नि जल ये दोनों शब्द करैतो वांछित कार्यमें विन्नकरै ॥ १४० ॥ खेदमिति ॥ जो पिंगलके जल अग्नि ये शब्द होय तो खेद भय करै और पृथ्वी, जल, आकाश ये ध्वनि अर्थसिद्धि करें. जो ये शब्द विपरति होय तो शीघ्रही फलको नाश करै ॥१४१॥ खामीति ।। पिंगलके आकाश और अग्नि ये दोनों शब्द और अग्नि आकाश ये दोनों शब्द कार्यको नाश और कलह करें. जो कोई पिंगल जहां तहां स्थित होय वातशब्द करै तो मृत्युको देबेवारो होय ॥ १४२ ॥ जीर्णेति ॥ जीर्ण वृक्ष होय, भग्न होय, फल वल्ली इन करके वेष्टित होय. सूखो होय, कीडानकरके आकुल होय, बहुतसी कोटरा जिनमें होय, ऐसे वृक्ष भयविनाशके करवेवारे, जो इनमें पिंगल मारुत शब्द करे तो भयविनाश जाननो ॥ १४३॥ अंभ इति ॥ जो पिंगल जल करके गीलीशा Aho ! Shrutgyanam Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६२) वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः । व्योम्नस्तरोवापि पतनधस्ताजीवावधिं जल्पति पिंगलाख्यः॥ उत्थाय चेद्याति ततः प्रशांतं तत्रायतौ मृत्युमुखप्रविष्टम् ॥१४५॥ स्थानप्रदीप्ते वसतेविनाशः काष्ठाप्रदीप्ते तु कलेवरस्य॥ निनाददीते तु भवेदनस्य दीप्तत्रये स्थानवपुर्धना नाम् ॥ १४६॥ स्थानानि पंकास्थिबिलादिकानि दिशो दिनेशान्वितभुक्तिगम्याः॥स्वरौ च वातांबरजावमूनि त्रीणि प्रदीप्तानि वदंति वृद्धाः ॥ १४७ ॥ स्थानाप्तिरोगक्षयवित्तलाभाः शांतत्रये स्यात्रितयं क्रमेण ॥ कृताश्रयो मूर्द्धनि पर्वतस्य बह्रीं श्रियं यच्छति पिंगचक्षुः ॥ १४८॥ ॥टीका ॥ स्यात् ॥ १४४ ॥ व्योम्न इति ॥ व्योम्नस्तरोधिः पतन्पिंगलाख्यः जीवावधि जल्पति चेद्यदि उत्थाय ततः प्रशांतं प्रयाति तत्र आयतौ उत्तरकाले “उत्तरःकाल आयतिः" । इत्यमरः। मृत्युमुखप्रविष्टं करांतीतिशेषः॥१४५॥स्थानप्रदप्ति इति ॥ स्थानप्रदीप्ते वसतेविनाशः स्यात् । काष्ठाप्रदीप्ते तु कलेवरस्य विनाशः स्यात् । निना ददीप्ते तु धनस्य विनाशो भवेत् । दीप्तत्रये स्थानवपुर्धनानां विनाशः स्यात्॥१४६॥ स्थानानीति ॥ पंकास्थिविलादिकानि स्थानानि दिनेशान्वितभुक्तिगम्या दिशः स्वरौ च वातांवरजी वृद्धाः अमूनि त्रीणि प्रदीप्तानि वदंति ॥१४॥ स्थानाप्तीति। ॥ भाषा॥ खा तापै बैठकर जल आकाशते हुये शब्द क्रमकरके बोले तो पुरुषनकू धर्यको दूरकरवे. वारो निश्चय भय होय ॥ १४४ ॥ व्योम्न इति ॥ जो पिंगल आकाशसं अथवा वृक्षपैसं नीचे पडतो हुयो आवे तो प्राणकी अवधि जाननो, जो उठकरके फिर शांतदिशाकं जाय तो उत्तरकालमें मत्युके मुखमें प्रवेश है ये जाननो॥ १४५ ॥ स्थानप्रदीप्त इति ॥ जो स्थान प्रदीप्त होय तो स्थानको वो घरको नाश करै. और जो दिशाप्रदीप्त होय तो देहको नाश करे, और शब्द प्रदीप्त होय तो धनको नाश होय. जो कदाचित् तीनों दीप्त होय तो स्थान, देह, धन इन तीनोंनकी नाश होय ॥ १४६ ॥ स्थानानीति ॥ कांच, हाड, सादिकनके बिले गटेले ये जामें ऐसे स्थान और सर्यसंयुक्त सूर्यने छोडदानी होय सूर्य जाकू जायगे ये तीनों दिशा और वात अंबर इनते हुये दोनों शब्द इन तीनोंन• वृद्धपुरुष प्रदीप्त संज्ञक कहेहैं ॥ १४७ ।। स्थानाप्तीति ॥ जो स्थान दिशा स्वर ये तीनों शान्त होय Aho! Shrutgyanam Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते संकीणप्रकरणम् । (३६३ ) , धूत्वा शिरोंगान्यथ वा विहंगः शुभस्वरो रोगमुपादधाति ॥ अशस्तशब्दस्तु ददात्यसाध्यबाधावहंदुस्तरदुःखदाहम्१४९॥ उन्मूलिते भूरुहि दुष्टशब्दैनष्टावशेषोऽपि विनश्यतेऽर्थः॥ प्रलंबमानः सकलप्रणाशमसंशयं शंसति खेशयोऽयम्१५०॥ प्रभूतपुष्पे परमप्रमोदोव्याधिक्षयस्त्वक्षतपल्लवाढये॥अत्य र्थलाभ फलशोभिशाखे वृक्षे भवेत्क्षीरिणि भूमिलाभः॥१५॥ विवर्जिताभ्यर्चितपादपश्चेद्गत्वा परं वृक्षमदृश्यमानः ॥ दीप्तध्वनिः स्यादिहगस्तदानीं संदेहमाहुर्नहि देहहानौ ॥ १५२॥ ॥ टीका ॥ शांतत्रये स्थानाप्तिरोगक्षयवित्तलामा इति त्रितयं क्रमेण स्यात् तत्र रोगस्य क्षयः नाशःपर्वतस्य मूर्द्धनि कृताश्रयः पिंगचक्षुःबहीं श्रियं यच्छति॥१४८॥धूत्वेति॥अथवा शिरोंऽगानिधूत्वा शुभस्वरोविहंगो रोगमुपादधाति अशस्तशब्दस्तु असाध्यबाधावहंदुस्तरदुःखदाहं ददाति ॥१४९॥ उन्मूलित इति ॥उन्मूलिते भूरुहि दुष्टशब्दैनष्टावशेषोऽप्यर्थों विनश्यति खेशयः प्रलंबमानः असंशयं सकलप्रणाशं शंसति ॥ ।। १५० ॥प्रभूतेति॥प्रभूतपुष्पे परमः प्रमोदः स्यात् अक्षतपल्लवाढये व्याधिक्षयः स्यात् फलशोभिशाखेऽत्यर्थलाभ: स्यात् क्षीरिणि वृक्षे भूमिलाभः स्यात् ॥ १५१॥ विवर्जितेति ॥ चेद्यदि विहगः विवर्जिताभ्यर्चितपादपः सन्परं वृक्षं ॥भाषा॥ तो क्रम करके स्थानकी प्राप्ति, रोगको क्षय, वित्तको लाभ, ये तीनों होय. जो पिंगल पर्वतके ऊपर बैठो होय तो बहुतसी श्री देवे ॥ १४८ ॥धूत्वति ॥ जो विहंग मस्तक अंग इने कंपायमानकरके शुभस्वर बोले तो रोग करे, और अशस्त शब्द बोले तो असाध्यबाधा करै. ऐसो दुस्तर दुःखदाह करै ॥ १४९ ॥ उन्मूलित इति ॥ जड जाकी उखडगई ता वृक्षपै पिंगल दुष्ट शब्द वोले तो नष्ट हुये कार्यमेसू अवशेष रह्यो अर्थ ताय नाश करे. जो पक्षी लंबो दूर चल्यो जाय तो निःसंदेह सकल नाश करै ॥ १५० ॥ प्रभूतेति ॥ बहुत पुष्प जामें ऐसे वृक्षपैः पिंगल होय तो परमहर्ष करै. और अक्षत होय फल पुष्पसहित वृक्ष होय तापै स्थित होय तो व्याधिको नाश करे. और फलकर शोमायमान वक्ष होय तो अत्यंत लाभ करै. और दूधवान् वृक्षपै स्थित होय तो पृथ्वीको लाभ होय ॥ १५१ ॥ विजितेति ॥ पक्षीनकरके वर्जित अर्चन कियो हुयो वृक्ष ताप जायकर १ आत्मनेपदमसाधु । Aho ! Shrutgyanam Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशो वर्गः। भूमिनीरमरुदग्निखशब्दान्कोटरांतरगतः कुरुते चेत् ॥ लाभरोगवधविघ्नकलीस्तत्संप्रयच्छति खगः परिपाट्या ॥१३॥ सुस्थानलाभं सुतरौ सुचेष्टो धान्यार्थसौख्यानि पुनः सुभूमौ ॥ अवामपादोच्छ्रयणादसौख्यमाख्याति चान्योच्छंयणेऽतिसौख्यम् ॥ १५४ ॥ त्वचं समुत्तुट्य तरोरधस्तात्पत्राणि पुष्पाणि फलानि वापि ॥ पक्षी क्षिपन्देहभृतां स्वपक्षं . क्षिप्रं च लक्ष्मी क्षिपयत्यवश्यम् ॥१५॥ नरस्य यद्यर्चितमात्र एव पिंगो विहंगोऽभिमुखोऽभ्युपैति ॥ बंधं तदा वामगतस्तु मृत्युं रोगं पुनर्दक्षिणगः करोति ॥१६॥ ॥ टीका॥ गत्वाऽदृश्यमानः दीप्तध्वनिः स्यात्तदानीं देहहानौ सदेहं न आहुः ॥१५२॥भूमीति॥ चेत्कोटरांतरगतः भूमिनीरमरुदग्निखशब्दान्कुरुते लाभरोगवधविनकलीन् तत्तस्माद्धेतोः खगः परिपाट्या क्रमेण प्रयच्छति ॥ १५३ ॥ सुस्थानेति ॥ सुतरौ सुचेष्टः खगः सुस्थानलाभं ददाति पुनः मुभूमौ धान्यार्थसौख्यानि ददाति ॥ अवामपादोच्छ्यणादसौख्यमाख्याति अन्योच्छ्यणेन चातिसौख्यम् ॥ १५४ ॥ ॥ त्वचमिति ॥ तरोरधस्तात्त्वचं समुत्पाट्य पत्राणि पुष्पाणि फलान्यपि वा पक्षी स्वपक्षं च क्षिपन्सन्देहभृतां लक्ष्मी क्षिप्रं अवश्यं क्षपयति ॥ १५५ ॥ ॥ नरस्येति ॥ यद्यर्चितमात्र एव पिंगः विहंगोऽभिमुखोऽभ्युपैति तदा बन्धं ॥ भाषा ॥ अदृश्य होय दीप्तध्वनि कर तो देहकी हानि करे ॥ १५२ ॥ भूमीति ॥ जो पिंगल वृक्षकी कोटरानमें स्थित होय पृथ्वी, जल, मरुत्, अग्नि, आकाश इन शब्दनकू करे तो लाभ, रोग, वध, विघ्न, कलह इन क्रमकरके देवें ॥ १५३ ॥ सुस्थानति ॥ सुन्दरवृक्षमें सुन्दर चेष्टा करे तो सुन्दरस्थानको लाभ देवे, फिर सुन्दर भूमिमें बैठा होय तो धान्य अर्थ सौख्य क्रमकरके देवे. और जेमने पांवकं ऊंचो करै तो असौख्य देवे. जो बांये पांवकू ऊंचो करै तो सौख्य देवै ॥ १५४ ॥ त्वचमिति ॥ वृक्षकी त्वचाकू उखाडकर नीचे फेंके पत्र, पुष्प, फल, इनेभी उखाड उखाड नीचे फेंके और अपनी पंखकू उखाड नाचें फेंके तो देहधारीनकी शीघ्र अवश्य लक्ष्मी नाश कर ॥ १५५ ॥ नरस्येति ॥ जो Aho ! Shrutgyanam Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते संकीर्णप्रकरणम् । नभोध्वनिः प्राग्वडिमश्च पश्चाचिंतामहात्रासकलन्किरोति ॥ आप्यात्परं मारुतजे तु जाते भवंति रोगाः शुभजीवनाशाः॥ . ॥ १५७॥ आप्यात्परं तैजसकृत्सकृयः स पिंगलो वित्तविनाशकर्ता ॥ तथातिसौहार्दवशीकृतानि भवंति मित्राणि कुतोऽप्यमित्राः ॥१५८॥ आदौ खगो मैथुनमुत्तरं च ध्वनि विधत्ते यदि पार्थिवाख्यम् ॥ तत्पूर्वनष्टं कथयंति कार्य कायी मृतो वेति विनिश्चयज्ञाः ॥१५९॥ भौमादूर्द्ध व्योमशब्दे र्थलाभः स्याद्वायव्यात्तैजसे भंगमृत्यू ॥ आप्यादृर्द्ध नाभसे स्थानहानिः संगः साई जायते दुर्जनैश्च ॥ १६० ॥ ॥ टीका॥ करोति वामगतस्तु मृत्यु दक्षिणगः पुनः रोगं करोति ॥ १५६ ॥ नभ इति ॥ प्राड्नभोध्वनिः स्यात्पश्चादडिमः पार्थिवः स्यात्तदा चिंतामहावासकली. करोति आप्यात्परं मारुतजे स्वरे जाते रोगाःशुभजीवनाशाः स्युः ॥ १५७ ॥ आप्यादिति ॥ यः सकृदाप्यात्परं तैजसस्वरकृद्भवति स पिंगलश्चित्तविनाशकर्ता स्यात् तथा सौहार्दमनोहराणि मित्राणि कुतोऽपि कारणवशादमित्राः शत्रवो भवंति ॥ १५८ ॥ आदाविति ॥ यदि आदौ खगः मैथुनं करोति तदुत्तरं पार्थिवाख्यं ध्वानं विधत्ते तदा निश्चयज्ञाः पूर्व नष्टं कार्य कथयंति कोऽसौ निश्चयः यं जानंतीत्यपेक्षायामाह कार्यो मृतो वेति अयमेव निश्चयः ॥ १५९ ॥ भौमादिति ॥ भौमादूर्द्ध व्योमगेऽर्थलाभ: स्यात् वायव्यादनंतरं तैजसे भंग ॥ भाषा॥ अर्चन कियो मात्र पिंगल पक्षी सम्मुख आवे तो वध बंधन करे. वामभागमें आवे तो मृत्यु करे. और दक्षिणभागमें आवे तो रोग करै ॥ १५६ ॥ नभ इति ॥ पहले तो आकाश शब्द करे. पीछे वडिम नाम पृथ्वी शब्द करे तो चिता महात्रास कलह करै. और जल शब्द करै पीछे मारुतते हुयो शब्द करे तो रोग और शुभ जीवनको नाश करै ॥ १५७ ॥ आप्यादिति ॥ एक पोत जल शब्द करै ता पीछे तैजसस्वर बोले तो पिंगल वित्तको विनाश करै, और मित्र शत्रु होय जांय ॥ १५८ ॥ आदाविति ॥ जो पिंगल प्रथम मैथुन करे ता पीछे पार्थिव शब्द करे तो पूर्वतो कार्यकू नष्ट कर पीछे जाको कार्य होय वो मरजायः॥ १५९ ॥ भौमादिति ॥ भौमशब्दकर पीछे आकाश शब्द कर Aho ! Shrutgyanam Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६) वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः । मृत्युप्रदौ वारिमरुन्निनादौ भयंकरौ तोयहुताशशब्दौ ॥ विनाशदौ वातवियद्विरावौ नभोमहीजौ कुरुतोऽर्थनाशम् ॥ १६ ॥ भंगं विधत्तः पवनांबरोत्थौ तौ व्यत्ययान्मृत्युकृतौ भवेताम् ॥ अलं प्रसंगेन रवाःक्रमेण भद्रंकराः पार्थिवपूर्वकाश्च ॥१६२॥ पिंगदिदृक्षुरनीक्षितपिंगः पश्यति संगतशब्दितचेष्टम् ॥ यद्यपरं विहगं तदभीष्टं स्यात्फलमन्यदपेक्षिततुल्यम् ॥ १६३॥ ॥ टीका ॥ मृत्यू स्याताम् आप्यार्द्ध नाभसे स्थानहानिः स्यात् दुर्जनैश्च साध संगः स्यात् ॥ १६० ॥ मृत्युप्रदाविति ॥ चारिमरुनिनादौ मृत्युप्रदौ स्तः तोयहुताशशब्दौ भयंकरौ स्तः वातवियद्विरावौ विनाशदौ स्तःनभोमहीजी अर्थनाशं कुरुतः॥१६१ भंगमिति ॥ पवनांवरोत्थौ भंग विधत्तः तौ व्यत्ययान्मृत्युकृतौ भवेताम् प्रसंगेन अलं पूर्वतया पार्थिवपूर्वकाश्च रवाः भद्रंकरा भवति ॥ १६२ ॥ पिंगेति ॥ पिंगदिक्षुः पुरुषः अनीक्षितपिंगः यद्यपरं विहंगं संगतशब्दितचेष्टं पश्यति तदाऽन्यदपेक्षिततुल्यमभीष्टं फलम् ॥ १६३ ॥ ॥ भाषा॥ तो अर्थको लाभ होय. वायव्य शब्द करे पीछे तैजस शब्द बोले तो भंगसहित मृत्यु करै. और जल शब्द करै पीछे नाभस शब्द कर तो स्थानकी हानि होय. और दुर्जननकरके सहित संग होय ॥ १६० ॥ मृत्युप्रदाविति ॥ जल और मरुत् ये दोनों शब्द मृत्युके देनेवाले हैं. और जल, अग्नि ये दोनों भयके करनेवाले हैं. और वात आकाश ये दोनों विनाशके देनेवाले हैं. और आकाश, पृथ्वी ये दोनों अर्थको नाश करैः हैं ॥ १६१ ॥ भंगमिति ॥ पिंगलके पवन आकाशते हुये शब्द भंग करें ये दोनों विपरीत होय तो मृत्युके करनेवाले होय. और पार्थिवकू आदिलेके जे शब्द है ते कमकरके कल्याणके करने वारे हैं ॥ १६२ ॥ पिंगेति ॥ पिंगलकू देखतो होय पुरुष और पिंगल न दीख्यो और कोई पक्षी संगकरत शब्दकरत चेष्टा करत दीखै तो आपुनकू वांछितकी तुल्य और अभीष्ट फल Aho! Shrutgyanam Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिगलारुते शुभचेष्टाफलप्रकरणम् । (३६७) इति वसंतराजशाकुने पिंगलारुते संकीर्णप्रकरणं नवमम्॥९॥ उदीर्यमाणान्यथ पिंगलाया नैमित्तिकाशोभनचेष्टितानि ॥ नानाप्रकाराणि च तत्फलानि दत्तावधानाः शृणुतादरेण ॥ ॥१६४॥ मुदं विहंगाऽगविलोकनेन स्पर्शेन गल्लस्य सुखं मुखस्य ॥ भद्राणि भक्ष्यग्रहणात्फलानिक्रीडासुखं खेलनतो ददाति ॥१६॥ भवत्यभीक्ष्णं शुभमाभिमुख्ये संगो विहंगद्वयसंनिकर्षे ॥ रतौ रताप्तिः खलु पिंगलायाः परस्परं प्रेम च पुच्छकंपे ॥ १६६॥ ॥ टीका॥ इति वसंतराजटीकायां पिंगलारुते संकीर्णप्रकरणंनवमम् ॥ ९॥ उदीर्येति ॥ यूयं पिंगलायाः नैमित्तिकाशोभनचेष्टितानि निमित्ते भवानि नैमित्तिकानि आसमताच्छोभनानि यानि चेष्टितानि नानाप्रकाराणि तत्फलानि च शृ. णुत आकर्णयंताम् कीदृशा यूयं दत्तावधानाइति दत्तमवधानं यैस्ते तथा केन आदरेण अत्याग्रहेणेत्यर्थः॥१६४॥ मुदमिति ॥ विहंगः अंगविलोकितेन मुदं ददाति गल्लस्य स्पशन मुखस्य मुखं ददाति भक्ष्यग्रहणाद्भद्राणि फलानि ददाति खेलनतः क्री. डासुखं ददाति ॥ १६५ ॥ भवतीति ॥ आभिमुख्ये संमुखे जाते सति अभीक्ष्णं निरंतरं सुखं भवति विहंगद्वयसंनिकर्षे संग: स्यात् पिंगलाया रतौ रताप्तिः सुरत ॥ भाषा ॥ इति वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां पिंगलारुते संकीर्णप्रकरणं नवमम् ॥ ९॥ उदयति ॥ अब तुम पिंगलाके निमित्तमें हुये बहुत सुंदर चेष्टा तिने और नानाप्रकारके उनचेष्टानके फल तिने एकाग्रचित्त होय आदरपूर्वक सुनो ॥ १६४ ॥ मुदमिति ॥ पिंगल अंगकू देखतो होय तो हर्ष करै. और कपोलकू स्पर्श करतो होय तो मुखकू सुख करै. और भक्ष्यकू ग्रहण करे होय तो कल्याण फल देवै. और क्रीडा करतो होय तो ऋडिासुख देवै ॥ १६५ ॥ भवतीति ॥ जो पिंगल संमुख होय तो निरंतर सुख करे. जो पक्षीनके समीपमें बैठो होय तो काऊको संग करावे. जो पिंगल पिंगलासं रति करतो होय तो संभोगकी प्राप्ति करै. जो पूंछ• कंपायमान करतो होय तो परस्पर Aho ! Shrutgyanam Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६८) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशो वर्गः । लीलाविलासंकुरुतः सलीलावन्योन्यडूयनतः प्रियाणि ॥ अन्योन्यकर्णाननचुंबनाच विहंगमौ संगमभोज्यहेतू ॥ ॥ १६७ ॥ निरीक्ष्य वक्षो यदि वाममंगं पश्येत्तदा संगमकृत्प्रियाभिः॥ यदा पुनः पश्यति पक्षमेव खगस्तदा मित्रसमागमाय ॥ १६८ ॥ कंडूयमानः खग उत्तमांगं प्राणाप्तयेभीप्सितलब्धये च ॥ कंडूयमानोपक्षि हितेक्षणाय सहायलाभाय च संप्रदिष्टः॥१६९ ॥ कर्णस्य कंडूयनतो नराणां गीतेष्टवार्ताश्रवणे भवेताम् ॥ कंठस्य कंठाभरणाप्तिरुक्ता स्कंधे करीन्द्रस्य तथाधिरोहः ॥ १७० ॥ ॥ टीका ॥ प्राप्तिः स्यात् पुच्छकंपे परस्परं प्रेम स्यात् ॥ १६६॥ लीलेति ॥ सलीलौ लीलाविलासं कुरुतः अन्योन्यकंड़यनतः प्रियाणि भवंति अन्योन्यकर्णाननचुंबनाच्च विहंगमौ संगमभोज्यहेतू भवतः॥१६७॥निरीक्ष्यति ॥ यदि वक्षो निरीक्ष्य वाममंगं पश्यति तदा प्रियाभिः संगमकृद्भवति यदा पुनः खगः पक्षमेव पश्यति तदा मित्रसमागमं कुरुते ॥१६८ ॥ कंडूयमान इति ॥ उत्तमांगं कंडूयमानः खगः पुष्पातयेऽभीप्सितफललव्धये च भवति तथाक्षि कंडूयमानः हितेक्षणाय सहायानां लाभाय च संप्रदिष्टः ॥ १६९ ॥ कर्णस्यति ॥ कर्णस्य कंड्रयनतः नराणां गीतेष्टः वार्ताश्रवणे भवेताम् कंठस्य कंडूयनात्कंठाभरणाप्तिरुक्ता स्यात् तथा स्कंधे कंडूयना ॥ भाषा॥ प्रेम करै ।। १६६ ॥ लीलेति ॥ जो लीला करतो होय तो लीलाविलास करै, जो परस्पर खुजावते होय तो प्रिय होय. जो परस्पर कर्णमुखकू चुंबन करते होय तो दोनों पक्षी काऊको संगम करावें ॥ १६७ ॥ निरीक्ष्यति ॥ जो पिंगल वक्षस्थलकू देखकरके फिर वाम अंगकू देखै तो प्यारेन करके संगम करावे. जो फिर पंख• देखे तो मित्रको समागम करावे ॥ १६८ ॥ कंड़यमान इति । जो पिंगल उत्तम अंग• खुजावे तो सुगंधवान् वस्तु और वांछित फल प्राप्त होय. और नेत्रकू खुजावतो होय तो हित कर और सहा. यीनको लाभ करे ॥ १६९ ॥ कर्णस्यति ॥ कर्णकं खुजावतो होय तो मनुष्या गीत इष्टवार्ताको श्रवण करावे. और कंठकू खुजावतो होय तो कंठके आभरणको प्राप्ति करे. Aho! Shrutgyanam Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिगलारुते शुभचेष्टाप्रकरणम्। (३६९) मुखे च कंडूयति भक्ष्यभोज्यमालिंगनं वक्षसि बांधवस्य ॥ लाभं प्रियाया युवतर्विशेषादहून्पशून्यच्छति पिंगला चेत् ॥ १७१ ॥ कक्षाप्रदेशेधनपुत्रलब्ध्यै कुक्षावपि स्यात्सुखसंगमाय ॥ पार्श्वे प्रियाणां परिरंभणाय स्थानाप्तिसंपत्सुखलब्धये च ॥ १७२॥ भर्त्तव्यपोषं धनधान्यलाभं कंड्रयमानो जठरं ददाति ॥ कटिं पुनः स्त्रीकटिसूत्रवस्त्रप्राप्त्यै भवेत्पिंगलिका नराणाम् ॥१७३॥ भवेनितंबे वरयोषिदाप्तिर्जानुरुभागेऽरिपराजयः स्यात् ॥ कंडूयनें नौ तदलंकृतीनां लाभोऽन्यदेशाबविणागमश्च ॥ १७४॥ ॥ टीका ॥ करीदस्याधिरोहः स्यात् ॥ १७० ॥ मुख इति पिंगला मुखे कंडूयति चेदभीष्टं भोज्यं दत्ते वक्षसि आलिंगनं बांधवस्य लाभं प्रियायाविशेषाधुवतेः लाभमित्यादीनि बहून्पशून्यच्छति ॥ १७१॥ कक्षेति ॥ कक्षाप्रदेशे कंडूतिर्धनपुत्रलब्ध्यै स्यात् कुक्षावपि कंडूतिः सुखसंगमाय स्यात् पार्श्वे प्रियाणां परिरंभणाय स्यात् तथा स्थानाप्तिसंपत्सुखलब्धये च ॥ १७२ ॥ भर्त्तव्यति ॥ जठरं कंडूयमानः भर्तव्यपोष धलधान्यलाभं ददाति कटिं कंडूयमानापिंगलिका नराणांस्त्रीकटिसूत्रवस्त्राप्तये भवति ॥ १७३॥ भवेदिति ॥ नितंवे वरयोषिदाप्तिर्भवति जानूरुभागेः अरिपराजयः स्यात् अंग्रौ कंडूयने सति तदलंकृतीनां लाभः अन्यदेशाइविणागमश्च स्यात् ॥ १७४ ।। . ॥ भाषा॥ और कंधा ग्वुजावतो होय तो हाथीपै बैठावे ॥ १७० ॥ मुख इति ॥ जो पक्षी पिंगल अपने मुखको ग्वुजाय रह्यो होय तो भक्ष्य भोज्य वांधवको वक्षस्थलमें आलिंगन, प्यारी स्त्रीको लाभ, और बहुतसे पशु इनें देवै ॥ १७१ ॥ कक्षेति ॥ जो कांख खुजाती होय तो धन पुत्र देव और कूख खुजावती होय तो सुख संगम देव, दोनों पसवाडे खुजाती होय तौ प्यारेनको मिलाप, और स्थानकी प्राप्ति. संपदा, सुख इने देवै ॥ १७२ ।। भर्तव्येति ॥ जो पिंगळ उदरकू खुजावे तो भरण, पोषण, धनधान्यको लाभ ये देवै, जो पिंगलिका कटि खुजाती होय तो मनुष्यनकू स्त्री, कटिसूत्र, वस्त्र ये देवै ॥ १७३ ॥ भवेदिति ॥ जो नितंब जो कटिके पिछाडीको भाग ताकू खुजावे तो सुंदरस्त्रीको प्राप्ति होय. और जानु ऊरु भाग इनै खुजावे तो वैरीको पराजय होय. और चरण खुजावे २४ Aho ! Shrutgyanam Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७०) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशो वर्गः। । महार्थलाभोऽरिपराजयश्च पक्षद्वये मूर्ध्नि कृते भवेताम् ॥एकत्र पक्षद्वितयेऽथवापिविस्तारिते पिंगलया धनादः॥१७॥ महदनं देहजपक्षपुच्छप्रसारणाचंचुपुटेन पुंसाम् ॥ सुगंधिवस्तूनि वसु प्रभूतं घोणाग्रकंड्रयनतो ददाति॥ १७६॥ललाटकंड्यनतो नरस्य स्यात्पबंधो महती च कीर्तिः। एवंविधाः शोभनकायचेष्टाः स्युः पिंगलायाः शुभदाः सदैव ॥ ॥ १७७॥ चंच्या पदा वा यदि वाममंगं कंडूयते सा शुभदानचेष्टा ॥ स्यादक्षिणस्यापि कलेवरस्य कण्डयनं वामपदा न भद्रम् ॥ १७८॥ ॥ टीका ॥ महार्थेति ॥ पिंगलया पक्षद्वये मूर्ध्नि कृते सति महार्थलाभश्चारिपराजयश्च भवेताम् अथ वा एकत्र पक्षद्वितये विस्तारित धनर्द्धिः स्यात् ॥१७५॥ महदिति ॥ चंचुपुटेन देहजपक्षपुच्छप्रसारणादेहजानां केशानां पुच्छस्य च प्रसारणात्पुंसां महद्धनं घोणायकंडूयनतः योणायाः नासिकायाःअग्रस्य कंडूयनतः “घोणा नासाच नासिका" इत्यमरः। मगंधिवस्तूनि प्रभूतं वसु च ददाति ॥ १७६ ॥ ललाटति ॥ ललाटकंड्रयनतः नरस्य पट्टबंधः स्यात् महती च कीर्तिः स्यात् एवंविधायाः पिंगलायाः शोभनकायचेष्टाः सदैव शुभदाः स्युः॥ १७७ ॥ चंच्वति ॥ चंच्वा पदा चरणेन च यदि वाममंगं कंडूयते सा चेष्टा शुभदा न स्यात् दक्षिणस्यापि कलेवरस्य कंड. ॥ भाषा ॥ अलकार भूषणनको लाभ, और अन्यदेशते धनको आगम ये होय ॥ १७४ ॥ महा. थति ॥ जो पिंगलने अपने दोनों पंख मस्तकपे धरलिये होय तो महान् अर्थको लाभ, वैरीको पराजय होय. जो एक पंख अथवा दोनों पंख फैलाय दिये होय तो धनकी ऋद्धि होय ॥ १७५ ॥ महद्धनमिति ॥ जो चोंचकरके केश पंख पूंछ इने फैलाय दे तो पुरुषनकं महान् धन देवे. जो नासिकाके अग्रभागकं खुजावे तो सुगन्धवान् वस्तु और 'बहुतसों धन देवै ॥ १७६ ॥ ललाटेति ॥ जो पिंगला ललाटकू खुजावे तो पट्टवन्धन न होय. और महान् कीर्ति होय पिगलाकी ऐसी ऐसी सुन्दर देहकी चेष्टा सदा शुभकरवे वाली है ॥ १७७ ॥ चंच्चेति ॥ चोंचकरके वा चरणकरके जो बांये अंगकू खुजावे तो ये चेष्टा शुभकी देबेवारी नहीं है, और बायें पांवकरके दक्षिणदेहकू खुजावे तो कल्याण Aho ! Shrutgyariam Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते शुभचेष्टाप्रकरणम् । ( ३७१ ) दिक्स्थान चेष्टाभिरनिष्टमिष्टं यत्पिंगलायाः फलमामनंति ॥ तथैव तादृक्सुधिया समस्तं खगांतरेभ्योऽप्युपलक्षणीयम् ॥ ॥ १७९ ॥ एतच्चेष्टादिकमिह सकलं ज्ञेयं विज्ञैर्नियतं सफलम् ॥ पिंगलिकायाः कर्मसु बहुषु द्यूतरसायनजयगमनादिषु १८० शुभचेष्टाभ्यः पुनरितरा अशुभाश्चेष्टाः स्वयमेवोद्याः ॥ दुष्टफला नोक्ताः पृथगिहतो न हि पथिकाः पथिकामतया १८१ इति वसंतराजशाकुने पिंगलारुते शुभचेष्टाफलप्रकरणं दश मम् ॥ १० ॥ ॥ टीका ॥ नं वामपदा न भद्रम् ॥ १७८ ॥ दिगिति ॥ दिवस्थानचेष्टाभिः अनिष्टमिष्टं वा यत्पिंगलायाः फलमामनंति खगांतरेभ्योऽपि तथैव तादृक्सुधिया सुबुद्धिना समस्तं फलमुपलक्षणीयम् ॥ १७९ ॥ एतदिति ॥ पिंगलिकायाः कर्मसु बहुषु द्यूतरसायन जयगमनादिष्वेतच्चेष्टादिकमिह सकलं ज्ञेयं विज्ञैः पंडितैः ॥ १८० ॥ शुभेति ॥ शुभचेष्टाभ्यः पुनरितराः अशुभाः चेष्टाः पथिकामतया दुष्टफलाः येन स्वयमेवोह्या स्तेनेह पृथक् नोक्ताः पृथक् छंदः ॥ १८१ ॥ इति वसंतराजटीकायां पिंगलारुते शुभचेष्टाप्रकरणं दशमम् ॥ १० ॥ ॥ भाषा ।। नहीं होय ॥ १७८ ॥ दिगिति ॥ जो पिंगला के दिक्स्थानचेष्टानकरके अनिष्ट वा इष्ट फल कह हैं, "तेसेही सुंदर बुद्धि करके और पक्षीनतेहूं समस्तफल जाननो योग्य है ॥ १७९ ॥ एत दिति ॥ पडितनकरके पिंगलिकाकी ये चेष्टादिक जुआँ, रसायन, जय, गमन इनकूं आदिले बहुतसे कर्मनमें फलसहित निश्चय सब जाननो योग्य है ॥ १८० ॥ शुभेति ॥ पिंगलिकाकी शुभचेष्टानते न्यारी इष्ट फल जिनके ऐसी अशुभ चेष्टा हैं वे इनके जानेसूं आपही जानवेमें आय जाय हैं तासूं हमने न्यारी नहीं कही हैं ॥ १८१ ॥ इति वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां पिंगलारुते शुभचेष्टाफलमकरणं दशमम् ॥१०॥ Aho! Shrutgyanam Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७२) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशो वर्गः । वाणिज्यसेवारणतीर्थविद्याचौर्यादिकार्येषु भवंति यात्राः॥ तासां यथा भाव्यशुभाशुभं च सम्यग्बुधो वेत्ति यथाभिदध्मः॥ १८२॥ स्थानं त्यजत्युनतमाश्रयेद्वा यात्रा भवेत्तत्र तु नान्यथा स्यात्।।प्रनेतु गत्या गमनार्थ उक्तो मौनी स्थिरस्तत्प्रतिषेधनाय ॥ १८३॥ गत्वा दिशं यामशनं गृहीत्वा प्रत्येति पिंगः श्रयति दुमं च ॥ पांथोऽपि तामेव दिशं बाजत्वा भूत्वा कृतार्थः स्वगृहानुपैति ।। १८४॥ भक्ष्यं ग्रहीतुं चलितुं विहंगस्तत्प्राप्य तत्रैव तथोपभुज्य ॥ आयाति चेतत्पथिकोऽप्युपायं भुक्ता च वित्तं गृहमभ्युपैति ॥ १८५॥ ॥ टीका ॥ वाणिज्येति ॥ वाणिज्यं व्यापारः सेवा नृपादीनां रणः संग्रामः तीर्थ शत्रुजय प्रभृति विद्या शास्त्राभ्यासः चौर्य परद्रव्यापहारः इत्यादिकार्येषु नृणां यात्राः गमनानि भवंति तासां यथा भाव्यं भविष्यमाणं शुभं चकारादशुभं च सम्यग्बुधो वेत्ति तथा वयमभिदध्मः ॥१८२॥ स्थानमिति॥यदा स्थानं त्यजति उन्नतं वृक्षमाश्रयेद्वातदायात्रा भवेत् प्रश्ने कृतेऽन्यथा स्यात्तत्र गत्या गमनार्थ उक्तः मौनी स्थिरः स्यात्तदा तत्प्रतिधनाय भवति ॥ १८३ ॥ गत्वेति ॥ यां दिशं गत्वाऽशनं गृहीत्वा पिंगः प्रत्येति दुमं च श्रयति पांथोऽपि तामेव दिशं वजित्वा कृतार्थो भूत्वा स्वगृहानु पैति ॥ १८४ ॥ भक्ष्यामिति ॥ भक्ष्यं ग्रहीतुं विहंगश्चलितः तत्प्राप्य तत्रैव उपभुज्य चेदायाति तत्पथिकः तत्र धनमुपाय॑ भुक्त्वा च वित्तं गृहमभ्युपैति ॥ १८५ ॥ ॥ भाषा॥ वाणिज्येति ॥ व्यापार, राजादिकनकी सेवा, चाकरी, संग्राम, तीर्थ, विद्या पढवे, चौर्यादिक कार्य इनमें मनुष्यनकी यात्रा, अर्थात् गमन होय हैं उनमें शुभ अशुभ होयवेके योग्य जैसे जानवेमें आये तैसे हम कहैहैं ॥ १८२ ॥ स्थानमिति ॥ जो पिंगल स्थानकू त्याग कर और ऊंचे वृक्षपै जायबैठे तो यात्रा होय. फिर यात्रा निष्फल नहीं जाय. प्रश्न करै तो अन्यथा होय ये शकुनगति आगमनमेंही कह्यो है जो मौनी और स्थिर होय तो यात्रादिकके निषेधके अर्थ है ॥ १८३ ॥ गत्वेति ॥ पिंगल जा दिशामें जाय भोजन लेकरके पीछो आये फिर वृक्षपै जाय बैठे तो यात्रा करववालो बाई दिशामें जायकर कृतार्थ होय करके अपने घरकू आवै ॥ १८४ ॥ भक्ष्यामिति ॥ जो विहंग भक्ष्य लेवेकं जाय Aho! Shrutgyanam Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते यात्राप्रकरणम् । (३७३) गत्वा स्ववृक्षादपरत्र भक्ष्यं संप्राप्य तत्रैव कृतस्थितिश्चेत् ॥ तदध्वनीनो धनमर्जयित्वा स्थिति विधत्ते परदेश एव ॥ ॥ १८६॥ वामे समश्च बजतां प्रशांते दीप्ते समो दक्षिणतश्च शस्तः ॥ स्त्रीणां गमे दक्षिणतोऽनिलोत्थःशांतः समश्चापि नृणां प्रवेशे ॥ १८७॥ आवासहेतोर्विहिते स्थिरत्वे वायव्यशब्दो गदितोऽतिभद्रः ॥ यात्रासु जाते मरुदारवे तु प्रस्थायिनो भूरि भवत्यभद्रम् ।। १८८॥भौमे ध्वनौ व्योमनि लाभहानिः कलिनभोजेऽनिलजे तु मृत्युः ॥जाते खेदक्षिणतो नभोजे विघ्नोऽथवा स्यात्पथिकस्य रोगः ॥१८९॥ ॥टीका ॥ गत्वेति ॥ स्ववृक्षादपरत्र वृक्षं गत्वा भक्ष्यं संप्राप्य तत्रैव कृतस्थितिश्वेत्तदा अध्वनीनः पथिकः धनमर्जयित्वा परदेशे एव स्थितिं विधत्ते ॥ १८६ ॥ वामे इति॥बजतां वामे प्रशांतः समः शब्दः शस्तः दक्षिणेऽसमः शब्दः शस्तः स्त्रीणां गमे दक्षिणतोऽनिलोत्थः शांतः नृणां प्रवेशे समश्च शस्तः॥ १८७ ॥ आवासहेतोरिति ॥ आवासहेतोः स्थिरत्वे विहिते वायव्यशब्दोऽतिभद्रो गदितः यात्रासु मरुदारवे जाते प्रस्थायिनः पथिकस्य भूरि अभद्रं भवेत् ॥ १८८ ॥ भौमइति ॥ भौमे ध्वनौ व्योमनि लाभहानिः स्यात् । नभोजे कलिर्भवति । अनिलजे तु मृत्युर्भवति । दक्षिणतो नभोजे जाते विनः। पथिकस्य रोगः स्यात् ॥१८९॥ ॥ भाषा॥ भक्ष्य वाकू वहां प्राप्त होय और वो वहांही भक्ष्य खाय करके जो चलो आवै तो मार्गीभी वहां जाय धन संचय कर वहांको वहांही धन खायकर घरकू आवै ।। १८५॥ गत्वेति॥ जो पिंगला अपने वृक्षते और वृक्षपै जायकर भक्ष्य प्राप्त होय करके वहां ही स्थित होय जाय तो मार्गीभी परदेशमें जाय धनसंचयकरके परदेशमेंही रहै ॥ १८६ ॥ वामे इति ॥ गमनकर्ता पुरुषके वामभागमें प्रशांत सम शब्द योग्य है और दक्षिण भागमें दीप्त असमशब्द शुभ है और स्त्रीनके गमनमें दक्षिणमें वायुते उठो हुयो शांतशब्द शुभ है. मनुष्यनकू प्रवेशमें समशब्द शुभ है ॥ १८७ ॥ आवासहेतोरिति ॥ निवासमें स्थिरभाव कह्योहै तामें वायव्य शब्द अतिकल्याणकारी कह्योहै और यात्रानमें मारुत शब्द होय तो मार्गीको बहुत अकल्याण करै ॥ १८८ ॥ भौम इति ॥ जो पिंगलके पृथ्वीमें हुयो शब्द और Aho ! Shrutgyanam Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७४) वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः। दक्षिणेन यदि पार्थिवमाप्यं शब्दमुच्चरति तच्चलितानाम् ॥ विग्रहो भवति निग्रहकारी कायकंपजनिता यदि वा भीः॥ ॥ १९० ॥ मारुते गगनजेऽथ खे वा भाषिते सति भवत्यतियुद्धम्।।मौलिकेषु पतितेषु भवेयुः प्राणिनां मरणभंगभयानि ॥ १९१॥ तैजसोऽनिलरवोऽथ यदा स्यात्तद्वदंति मरणार्थविनाशौ॥शोभनों भवति दक्षिणयायी वामगो रणभयादिषु शस्तः ॥ १९२॥ यः सेवितुं गच्छति तस्य भौममाप्यं च वामे पुरतोऽथ वापि ॥ करोति शब्दं यदि तद्भवेतां प्रभुप्रसादो महती च लब्धिः ॥ १९३॥ ॥ टीका ॥ दक्षिणेति ॥ यदि दक्षिणेन पार्थिवमाप्यशब्दमुच्चरति तच्चलितानां विग्रहो भवति कीहनिग्रहकारी दुःखप्रद इत्यर्थः । यदि वा कायकंपजनिता भीर्भवति॥१९॥ मारुत इति ॥ मारुते गगनजे रवे भाषिते सति अतियुद्धं भवति मौलिकेषु पतितेषु प्राणिनां मरणभंगभयानि भवेयुः॥ १९१ ॥ तैजस इति ॥ यदा तैजस: आनिलरवःस्यात् तदा मरणार्थविनाशी मरणं च अर्थविनाशश्च भवतः इति वं. दति । दक्षिणयायी शोभनो भवति । वामगः रणभयादिषु शस्तः॥ १९२ ॥ यः सेवितुमिति ॥ यः पुमान्सेवार्थ गच्छति तस्य यदि वामेऽथ वा पुरतः भौमं आप्यं च शब्दं करोति तदा प्रभुप्रसादःमहती चं लब्धिर्भवति॥१९३॥ ॥ भाषा ॥ आकाश शब्द होय तो लाभ की हानि होय. जो आकाश शब्द होय. तो कलह करावे. मारुत ते हुयो शब्द मृत्यु करै, और दक्षिणभागमें आकाशते हुयो शब्द होय तो विघ्न होय. अथवा अधिक रोग करे ॥ १८९॥ दक्षिणेति ॥ जो दक्षिणमें होयकर पार्थिव आप्य ये दोनों शब्द उच्चारण करे तो गमन करबेवारेनषं दुःखको देबेवारो विग्रह होय. जो देहकू कंपायमान करै तो भय होय ॥ १९०॥ मारुत इति ।। जो पिंगल मारुत आकाश इन ते हुये शब्द उच्चारण करै तो अति घोर युद्ध होय. जो वो मस्तकके केशपतन करै तो प्राणीनकू मरणभंग भय ये करै ॥ १९१ ॥ तैजस इति ॥ जो पिंगलके तैजस पवन ये दोनों शब्द होंय तो मरण और अर्थको नाश ये करै, और पिंयलको दक्षिणभागमें गमन शुभ है. और वामभागमें गमन मरण भयादिक करै ॥ १२॥ यः सेवितुमिति ॥ जो. Aho! Shrutgyanam Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुते यात्राप्रकरणम् । (३७५) प्राग्वामतो दक्षिणतस्ततश्च करोति शब्दं यदि पिंगनेत्रः॥ आदौ तदा स्यानियतं समृद्धिः स्युश्चोत्तरं संगरमृत्युभंगाः॥ ॥१९॥ वामे ततो दक्षिणतः खगस्य भौमो भवेच्चेन्निनदस्तदानीम् ।। फलोच्छ्रितं स्यात्परदेशयानं युद्धे नियुद्धेऽपि । जयस्त्ववश्यम् ॥ १९५ ॥ वामेऽग्रतो वा चलतोऽस्य तीर्थ शांतोपविष्टोऽवनिनीरशब्दौ ॥ करोति सिद्ध्यागमने विधातुमवामतोऽसिद्धिरनागमश्च ॥१९६॥ दीप्तेऽथ वा दक्षिणतो विदध्यात्पिगो खं मारुतमांबरं वा ॥ यदा तदानी दिशति प्रयातुर्महाभयार्थक्षयजीवनाशान् ॥ १९७॥ ॥ टीका ॥ प्रागिति ॥ यदि पिंगनेत्रः प्राक्प्रथमं वामतो दक्षिणतश्च शब्दं करोति तदा आदौ नियतं समद्धिः स्यादुत्तरं संगरमत्युभंगाः स्युः ॥ १९४ ॥ वाम इति ॥ यदि वामे ततो दक्षिणतः भौमो निनदश्चेत्स्यात्तदा परदेशयानं फलोच्छ्रितं स्यात् । युद्धे नियुद्धेपि अवश्यं जयः स्यात् ॥ १९५ ॥ वामे इति ॥ तीर्थ चलतोऽस्य गच्छतः वामेऽग्रतो वा शांतोपविष्टःअवनिनारशब्दौ सिद्ध्यागमने सिद्धिश्च आगमनं च ते विधातुं करोति । अवामतोऽसिद्धिः अनागमश्च भवति ॥१९६॥ दीप्त इति ॥ यदा दीप्ते अथ वा दक्षिणतः पिंगः मारुतमांबरं वा पिंगो रवं विदध्यात्तदानी प्रयातुर्महा ॥ भाषा॥ पुरुप सेवा चाकरी के लियेजाय वाळू वामभागमें वा अगाडी पिंगल भौम आप्य शब्द करे तो मालिकको अनुग्रह और महान् प्राप्ति होय ॥ १९३ ॥ प्रागिति ॥' जो पिंगल प्रथम वामभागमें शब्द करै ता पीछे दक्षिणभागमें शब्द करे तो पहले समृद्धि कर पीछे संग्राम मृत्यु भंग ये करें ॥ १९४ ॥ वाम इति ॥ पिंगलको प्रथम वामभागमें फिर दक्षिणभागमें पृथ्वीते हुयो शब्द होय तो उच्चफल जामें मिले ऐसो परदेश गमन होय. और युद्धमें भुजायुद्धमें अवश्य जय होय ॥ १९५ ॥ वाम इति ॥ तीर्थकुं गमन करे ताके वामभागमें वा अगाडी शांत दिशामें बैठो पिंगल पृथ्वी जल ये दो शब्द करे तो सिद्धि और आगमन करे. और दक्षिणभागमें होय तो असिद्धि और अनागमन होय ॥ १९६ ॥ दीप्त इति ॥ जो पिंगल दीप्तदिशामें वा दक्षिणमें मारुत शब्द अथवा अंबर शब्द करै तो गमनकर्ता पुरुषकू Aho! Shrutgyanam Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७६ ) वसंतराजशाकुने - त्रयोदशो वर्गः । वाणिज्यविद्याप्तिकृते प्रयातुमेन भौमान्निनदान्करोति ॥ यदि प्रभूतान्भवति प्रभूता फलाभिवृद्धिर्महती च सिद्धिः ॥ १९८ ॥ यदा घरांभोमहसां निनादा यात्रासु वामाः क्रमतो भवति ॥ तदा भवेयुर्वणिजां यथेष्टं स्त्रीरत्नभूधान्यहिरण्यलाभाः ॥ १९९॥ यः पिंगलायाः शकुनेन भावि : विभाव्यकर्तव्यफलं फलज्ञः ॥ यात्रां विचित्रां विदधाति धैर्यान्मनोरथास्तस्य फलंति सर्वे ॥ २०० ॥ इति वसंतराजशाकुने पिंगलारुते यात्राप्रकरण मेकादशम् ॥ ११ ॥ ब्रूमः प्रकरणान्यस्मिन्वृत्तानां गणनां तथा ॥ आद्येऽधिवासनज्ञाने वृत्तद्वाविंशतिर्मता ॥ १ ॥ ॥ टीका ॥ भयार्थक्षयजीवनाशान्दिशति ॥ १९७ ॥ वाणिज्येति ॥ वाणिज्यविद्याप्तिकृते प्रयातुः यदि वामेन भौमान्प्रभूतान्निनदान्करोति तदा प्रभूता फलाभिवृद्धिर्महती च सिद्धिर्भवति ॥ १९८ ॥ यदेति । यदा धरांभोमहसां निनादाः वामाः क्रमतो भवति तदा वणिजां यथेष्टं स्त्रीरत्नभूधान्यहिरण्यलाभाः भवेयुः ॥ १९९ ॥ य इति ॥ यः पिंगलायाः शकुनेन भावि कर्तव्यफलं विभाव्य यात्रां विचित्रां धैर्याद्विदधाति तस्य सर्वमनोरथाः फलंति ॥ २०० ॥ इति वसंतराजटीकायां पिंगलारुते यात्राप्रकरण मेकादशम् ॥ ११ ॥ म इति ॥ अस्मिन्प्रकरणानि तथा वृत्तानां गणनां ब्रूमः आद्येऽधिवास ॥ भाषा ॥ महान् भय और अर्थको क्षय जीवको नाश ये देवे ॥ १९७ ॥ वाणिज्येति ॥ जो पिंगल वाणिज्य विद्याप्राप्ति इनके अर्थ गमन करै वा पुरुषकूं वामभागमें बहुतसे भौमशब्द करे तो बहुत फलकी वृद्धि और महत् सिद्धि होय ॥ १९८ ॥ यदेति || जो पिंगलके पृथ्वी, जल, तेज इनके शब्द यात्रानमें क्रमकरके वाम होय तो वणियानकूं यथेष्ट स्त्रीरत्न, पृथ्वी, धान्य, सुवर्ण इनको लाभ होय ॥ १९९ ॥ यः इति ॥ जो पुरुष पिंगला के शकुनकर होनहारं करवेके योग्य फल ताय विचारकर के चित्रविचित्र यात्रा धैर्य तासूं करै तो वा पुरुष संपूर्ण मनोरथ फले ॥ २०० ॥ इति वसंतराजभाषाटीकायां यात्राप्रकरणमेकादशम् ॥ ११ ॥ म इति ॥ या तेत्रे वर्गमें जे प्रकरण और श्लोक इनकी संख्या हम कहें हैं. पहेलो Aho! Shrutgyanam Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिंगलारुतेऽनुक्रमप्रकरणम्। (३७७ ) द्वितीयं स्वरनामाख्यं वृत्तैः षोडशभिः स्मृतम् ॥ तृतीये दश वृत्तानि पंचस्वरबलाभिधे ॥ २॥ स्मृतं धेन्वादिसंज्ञाख्ये चतुर्थे वृत्तसप्तकम् ॥ पंचमे पंच वृत्तानि केवलस्वरनामनि ॥३॥ त्रयोदशैव षष्टे च द्विसंयोगस्वराभिधे ॥ त्रिसंयोगस्वराख्येतु सप्त वृत्तानि सप्तमे ॥ ४॥ चतुःस्वराणां संयोगे द्विचत्वारिंशदष्टमे ॥ संकीर्णे नवमे चैकचत्वारिंश प्रकीर्तिताः ॥५॥ दशमेऽष्टादशोक्तानि शुभचेष्टाफलाभिधे ॥ एकादशे तु यात्राख्ये एकोनविंशतिस्तथा ॥६॥ एवं प्रकरणान्यस्मिन्नेकादश समासतः॥शतद्वयं तु वृत्तानां शाकुने पिंगलारुते॥७॥ | टीका॥ नज्ञाने वृत्तद्वाविंशतिः द्वाविंशतिः श्लोका इत्यर्थः । मता ॥ १॥ द्वितीयामिति ॥ द्वितीयं स्वरमात्राख्यं षोडशभिः स्मृतम्।तृतीये पंचस्वरबलाभिधे दश वृत्तानि स्युः ॥२॥ स्मृतमिति ॥धेन्वादिसंज्ञाख्ये चतुर्थे वृत्तसप्तकं भवति । केवलस्वरनामनि पंच वृत्तानि स्युः ॥ ३॥ त्रयोदशेति ॥ दिसंयोगस्वराभिधे षष्ठे त्रयोदशैव वृत्तानि त्रिसंयोगस्वराख्ये तु सप्तमे सप्तवृत्तानि स्युः॥ ४ ॥ चतुरिति ॥ चतुर्योगस्वरेऽष्टमे वृत्तानि द्विचत्वारिंशत्संख्यानि स्युःसंकीर्णे नवमे च एकचत्वारिंशत्प्रकीर्तिताः॥५॥ दशम इति ॥ दशमे शुभचेष्टाफलाभिधेऽष्टादश वृत्तानि । यात्रासंख्ये एकादशे तु एकोनविंशतिवृत्तानि स्युरित्यर्थः ॥६॥ एवमिति ॥ एवममुना प्रकारेण अस्मिन्स ॥ भाषा॥ अधिवासन नाम प्रकरण तामें बाईस श्लोक हैं ॥ १॥ द्वितीयमिति ॥ दूसरो स्वर मात्रानाम प्रकरण तामें षोडश श्लोक कहेहे ॥ २॥ स्मृतमिति ॥ धेन्वादिसंज्ञा नाम चौथो प्रकरण तामें सात श्लोक कहेहैं. पांचमो केवलस्वर नाम प्रकरण तामें पांच श्लोक हैं ॥ ३ ॥ त्रयोदशेति ॥ छठो द्विसंयोगस्वर नाम प्रकरण तामें त्रयोदश श्लोक हैं. सातवो त्रिसंयोगस्वर नाम प्रकरण तामें सात श्लोक हैं ॥ ४ ॥ चतुरिति ॥ चतुर्योगस्वर नाम आठमो प्रकरण तामें बयालीस श्लोक कहेहैं. और नौमो संकीर्ण प्रकरण तामें इकतालीस श्लोक कहैहैं ॥५॥ दशम इति ॥ दशमो शुभचेष्टा फल नाम प्रकरण तामें अठारे श्लोक कहेहैं. और ग्यारवों यात्राप्रकरण तामें उगनीस श्लोक हैं ॥ ६ ॥ एवमिति ॥ या १ फलितार्थकथनामदं विग्रहस्तु वृत्तानां छन्दसां द्वाविंशतिरित्येव कर्मधारये तु वृत्तशब्दस्य पूर्व श्रवणा भावः स्याद्विशेष्यत्वात् । Aho! Shrutgyanam Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७८ ) वसंतराजशाकुने - चतुदशी वर्गः । इति श्रीवसंतराजशाकुने सदा शोभने समस्त सत्यकौतुके विचारिता पिंगला इति त्रयोदशो वर्गः ॥ १३ ॥ विचारयामोऽथ चतुष्पदानां ग्रामाश्रयाणां वनचारिणां च ॥ खुरान्वितानां नखिनां च सम्यग्जातिस्वरालोकनचेष्टितानि ॥१॥ भूपृष्टपाताल जलांबराणि चतुष्पदैर्यत्समधिष्ठितानि ॥ अतः प्रपद्ये शरणं शरण्यान्परोपकारत्रतिनो द्विपादीन् ॥ २ ॥ उदीरयन्मंत्रमिमं मनोज्ञनैवेद्य पुष्पाक्षतधूपदीपैः ॥ अभ्यर्च्य तिर्यग्गमनान्विमृश्य कार्यं ततस्तच्छकुनानि पश्येत् ॥ ३ ॥ ॥ टीका ॥ मासतः एकादश प्रकरणानि भवंति शाकुने पिंगलारुते समग्रसंख्यया वृत्तानां शत द्वयं भवति ॥ ७ ॥ इति शत्रुंजयकरमोचनादिसुकृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्र विरचितायां वसंत राजशाकुनटीकायां पिंगलारुते त्रयोदशो वर्गः ॥ १३ ॥ विचारयाम इति ॥ चतुष्पदानां खुरान्वितानां नखिनां च गतिस्वरालोकनचेष्टितानि वयं विचारयामः १ ॥ भूपृष्ठेति ॥ यद्यस्मात्कारणाद्भूपृष्ठपातालजलांबराणि चतुष्पदैः समधिष्ठितानि अतः शरण्याच्छरणयोग्यान्परोपकार व्रतिनः परोपकार एवं व्रतं येषां तथा द्विपादीन्द्विपप्रभृतीञ्छरणं प्रपद्ये ॥ २ ॥ उदीरयनिति ॥ इमं पूर्वोक्तं मंत्रमुदारयन्पठन्मनोज्ञः मनोहारिभिः नैवेद्यपुष्पाक्षतधूपदीपै ॥ भाषा ॥ ते वर्ग में या प्रकार ग्यारे प्रकरण कहे हैं. तिनमे पिंगलारुत शकुन है ताके सब श्लोकनकी संख्या दोयसै हैं ॥ ७ ॥ इति श्री जयशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधर विरचितायां वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां पिंगलारुत्ते त्रयोदशो वर्गः ॥ १३ ॥ विचारयाम इति ॥ अब ग्राममें रहनेवालेन के वनमें रहनेवालेन के खुरखान् नखवालेनके इन चौपदानकी गतिस्वर आलोकन चेष्टा तिनैं हम कहे हैं ॥ १ ॥ भूपृष्ठेति ॥ चतुष्पद जे हाथीकूं आदिले चार पाँवन जीव जिनमें रहैं ऐंसे पृथ्वी, पाताल, जल, आकाश और शरणके योग्य परोपकार है व्रत जिनको ऐसे हाथीकूं आदि ले जे चोपदा तिनके मैं शरण हूं ये मंत्ररूप श्लोक है || २ || उदीरयन्निति ॥ या मंत्र बोलतो जाय और पुष्प, अक्षत, धूप, Aho! Shrutgyanam Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्पदानां प्रकरणम्। (३७९) ऊर्द्ध करं यः कुरुतेऽथ वा यो धत्ते करं दक्षिणदंतभागे ॥ यो वा भवेद्वंहितपूरिताशः करी भवेत्सोऽध्वगपूरिताशः॥४॥ ॥ इति हस्ती ॥ ॥ टीका ॥ पूर्वव्याख्यातैस्तिर्यग्गमनान्पक्षिणः अभ्यर्च्य कार्य विमृश्य स्मृतिगोचरीकृत्य तच्छकुनानि चतुष्पदशकुनानि पश्येदवलोकयेत् ॥ ३ ॥ ऊर्द्धमिति ॥ स करी हस्ती अध्वगपूरिताश इति अध्वगानां पूरिता आशायेन स तथा|य ऊर्द्ध करं शंडादंडं कुरुते अथवा यो दक्षिणदंतभागे करं शुंडो धत्ते यो वा "बृहितं करिगर्जितम्" इत्यमरः तेन पूरिता आशा येन स तथा । तथाऽन्यदपि शास्त्रांतराज्ज्ञेयम् । तद्यथा दक्षिणे दंते मूलाग्ने सति राज्ञो भयं ददाति । मध्याद्भग्ने देशस्य । प्रांते भने सेनायाः प्रलयो भवति । वामे रदे बलाद्भग्ने राजपुत्रस्य मरणं भवति । मध्ये भने तु पुरोहितस्य मरणं भवति।प्रांते भग्ने इभस्य मरणम् । तथा आपगातटविघट्टनेनक्षीरवृक्षस्यविघट्टनेन वा वामदंतस्य मध्यभंगे शत्रुनाशः स्यात् । विपर्यया. द्वैपरीत्यं तथा अकस्मात्स्खलितगतिः अतीववाहःभूमौ न्यस्तहस्तः सुदीर्घः श्वसिति चकितमुकुलितदृष्टिः बहुकालं स्वप्नशीलः विपरीतगतिः यत्र प्रेर्यते तत्र न याति एवंविधो गजो भयकृद्भवति । तथापनाशीभृशं शकृत्कृद्भयकृद्भवति।तथा यदि पनीकूटं मथ्नाति अथ वा स्थाणुं वृक्षसमूह वा स्वेच्छया मथ्नाति तथा दृष्टदृष्टिः ॥ भाषा ॥ दीप, नैवेद्य इनकरके पशुनको पूजन करके अपनो कार्य विचार करके फिर उनते शकुन देखे ॥ ३ ॥ ऊर्ध्वमिति ।। जो हाथी अपनी शुंडाकू ऊंची करै वा जेमने दांतपै शुंडाकू धरै वा गर्जा करै तो वो हाथी मार्गीनकी, पूर्ण आशाको करबेवाले होय ॥ ४ ॥ हाथीकी चेष्टा और शास्त्रमें जैसो लिखो तैसो कहैहै. जो हाथीको जेमने दांतको मूल भग्न होय जाय तो राजाकू भय देवै. जो बीचमें ते भग्न होय जाय तो देशको भंग होय. और आंतें भग्न होंय तो सेनाको प्रलय होय. जो बायो दांत बलात्कारतूं भग्न होय तो राजाके बेटाका मरण होय. जो बीचमेंसू भग्न होय तो पुरोहितको मरण होय. जो दांतको प्रांत भग्न होय तो हाथीको मरण होय. और नदीके तटकं खोदे तो अथवा दूधके वृक्षकू घर्षण करतो होय तो अथवा वांये दांतको मध्यभाग भग्न हुयो होय तो शत्रुनको नाश होय. जो इनते विपरीत होय तो विपरीत फल जाननो. जो चलतो हाथी अकस्मात् भग्नगति होय जाय वा अत्यत चले अथवा पृथ्वीमें आंगेके घोटूनकू टेक दै वा दीर्घ उंचे श्वास लेतो होय, वा चकित, और फटे हुये नेत्रं जाके होंय, वा बहुत देर सोवे, अथवा पीलवान् जितकू प्रेरे उतकं नहीं Aho! Shrutgyanam Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८०) वसंतराजशाकुने-चतुर्दशो वर्गः। हेपावं मुंचति वामतो यः क्षतक्षितिर्दक्षिणपादघातैः॥ कंडूयते दक्षिणमंगभागं तुंगं तुरंगः स पदं ददाति ॥५॥ ॥इत्यश्वः॥ वामोऽतिदीर्घः स्थिरगर्दभस्य सिद्ध्यैरवो वामविचेष्टितस्य॥ पृष्ठाग्रयोदक्षिणतश्चशब्दः स्यादक्षिणं चेष्टितमप्यसिद्धय।।६॥ कण्डूयमानावितरेतरस्य स्कंधं रदैः पश्यति गर्दभौ यः॥पाथः प्रयाणे यदि वा प्रवेशे मिलत्यसौ मित्रकलत्रपुत्रैः ॥७॥ ॥ टीका ॥ तथा त्वरितगतिः गजेंद्रः राज्ञो जयं ददाति ॥४॥ ॥ इति हस्ती ॥ हेपारवमिति ॥ स तुरंगः तुंगं पदं उच्चस्थानं ददाति यो वामतः: हेपारवं चति दक्षिणपादघातैर्यः क्षतक्षितिः यो दक्षिणमंगभागं कंडूयति ॥ ५॥ ॥ इत्यश्वः॥ वाम इति ॥ स्थिरगर्दभस्य वामविचेष्टितस्यातिदीर्घः वामो रवः सिद्धै स्यात् ॥ पृष्ठाग्रयोर्दक्षिणतश्च शब्दः असिद्ध्यै स्यात् । तथा दक्षिणं चेष्टितं च ॥६॥ कंडूयेति ॥ इतरेतरस्य स्कंधं रदैः कंडूयमानौ गर्दभौ यः पाथः प्रयाणे ॥ भाषा ॥ चलै, विपरीत चलै ऐसे आचरण करवेवालो हाथी भय करै. डालियां तोडतोड खाता हो, बहुतलीद करनेवाला, ये गजभयकारक होतेहैं. इसी प्रकार यदि हस्ती कूवेको उखाडे अथवा ढूंठकू वा वृक्षके समूहकू अपनी इच्छा करके मंथन करे, वा अदृष्ट दृष्टि होय जाय, व शीघ्रगमन करै ऐसो हाथी राजाकू जय देव ॥ ४ ॥ ॥इति हस्ती॥ हेषारवमिति ॥ जो घोडा वामभागमें हिनहिनाट शब्द कर और जेमने पावके प्रहारकरके पृथ्वीकू खोदै और जेमने अंगभागकू खुजावतो होय वो घोडा ऊंचो पद वा स्थान देवै ॥ ५॥ ॥ इत्यश्वः॥ वाम इति ॥ वामभागमें स्थिर होय वामचेष्टा करतो होय अतिदीर्ध वाममें रख शब्द होय ऐसो गर्दभ सिद्धि करै. जो पीठपीछे अगाडी दक्षिणभागमें शब्द और चेष्टा ये अ. सिद्धि के लिये जाननो ॥ ६ ॥ कंडूयति ॥ जो पुरुष प्रयाण समयमें वा प्रवेशसमयमें परस्पर Aho! Shrutgyanam Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्पदानां प्रकरणम् । ( ३८१) स्त्रीलाभदाः स्युः सुरताधिरूढा वधाय बंधाय च युध्यमानाः ॥ धुन्वति देहं श्रवणौ तथा ये निघ्नंति कार्याणि सदा खरास्ते ॥८॥रौति प्रवेशे यदि दक्षिणेन स्यादक्षता तत्करणीयसिद्धिः॥ तुल्यो बुधैरश्वतरः खरेण ज्ञेयस्तथा गौरखरोऽपि तुल्यः॥९॥ इति खरः॥ वामोऽनुलोमश्च रवः खुरेण शृंगेण चाग्रे खननं पृथिव्याः॥ प्रशस्यते दक्षिणतश्चचेष्टा तथा निशीथे निनदो वृषस्य॥१०॥ ॥ टीका ॥ यदि वा प्रवेशे पश्यति असौ पाथःमित्रकलत्रपुत्रैमिलति॥णास्त्रीति॥सुरताधिरूढाः स्त्रीलाभदाः स्युः। युद्ध्यमानाः वधाय बंधाय च भवति । तथा ये देहे श्रवणौ धुन्वन्ति कंपयंति ते खराः सदा कार्याणि निघ्नंति ॥ ८ ॥रौतीति ॥ प्रवेशे यदि दक्षिणेन खरो विरौति तदा करणीयसिद्धिःअक्षता स्यात्।।अश्वतरःखचर इति लोके प्रसिद्धः खरेण तुल्यो बुधैयः । तथा गौरखरोऽपि तत्तुल्यो ज्ञेयः ॥९॥ ॥ इति खरः॥ वाम इति।।वामः अनुलोमः दक्षिणः सुशब्दः तथा खुरेण शृंगेण च अग्रे पृथिव्याः खननं तथा दक्षिणतश्च चेष्टा प्रशस्यते तथा निशीथे मध्यरात्रौ वृषस्य बलीव ॥भाषा॥ दांत करके कंधाळू खुजाय रहे ऐसे गर्दभनकू देखै तो वो पुरुष मित्र स्त्री पुत्र इनकरके मिले ॥ ७॥ स्त्रीति ॥ जो गर्दभ संभोग करते होंय तो स्त्रीको लाभ करै. जो युद्ध करते होंय तो वध, बंधन करै, जो गर्भ देहंकू वा कानकू कंपायनान करै तो सदा कार्यकू नाश करे हैं ॥ ८॥ रौतीति ॥ जो खर प्रवेश समयमें जेमने भागमें शब्द करै तो कार्यको सिद्धि अखण्ड करै, जो अश्वतर है खिच्चर जाकू कहेंहैं सो और श्वेतखर सोभी खरको तुल्य जाननो ॥ ९॥ इति खरः ।। वाम इति ॥ वृषभको वाम अनुलोम दक्षिणके शब्द और खुरन करके सींग करके अगाडी पृथ्वीको खोदनो, और दक्षिण माऊंकी चेष्टा, और अर्धरात्रमें बैलको शब्द, ये Aho! Shrutgyanam Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८२) वसंतराजशाकुने-चतुर्दशो वर्गः। वामादवामे गमनं वृषस्य चेष्टा च वामा न मता हिताय । युद्धाय नाशाय च तुल्यकालं पाखंद्वयस्थौ महिषौ भवेताम् ॥ ११॥ . ॥इति वृषभमाहिषौ ॥ भंभारवौ वामदिशीष्टसिद्धयै सिद्धयै गवांस्युनिशिहुंकृतानि॥ गावो निशीथे सरवा भयाय भयाय वह्नौ दिवसे रटन्त्यः॥ ॥ १२॥घ्रत्यः खुराणैः क्षितिमामयाय सास्रेक्षणाः स्युर्मरणाय भर्तुः ॥ व्याप्ताः सुरभ्यो यदि मक्षिकाभिराचक्षते मंक्षु तदंबुवृष्टिम् ॥ १३॥ ॥ टीका ॥ र्दस्य निनदः शब्दः ॥ १० ॥ वामादिति ॥ वृषस्य वामादवामे दक्षिणे गमनं चे. ष्टा च वामा हिताय न मता न कथितां । तुल्यकालं पार्श्वद्वयस्थौ महिषौ युद्धाय नाशाय च भवेताम् ॥ ११॥ इति वृषभमहिषौ । भंभेति ॥ वामादशि गवां भंभारवौ इष्टसिद्ध्यै स्यातां । तथा गवां निशि हुकृतानि सिद्ध्यै स्युः। तथा निशीथेऽर्द्धरात्रौ गावः सरवाः सशब्दा भयाय भवंति। तथा दिवसे वहौ आग्निदिशि रटंत्यः गावो भयाय स्युः॥ १२ ॥ध्रुत्य इति ॥ खरायैः क्षितिं नत्यः गावः आमयाय भवति। सारेक्षणाः पुनर्गाव:भर्तुमरणाय स्युः । यदि मक्षिकाभिष्टिता व्याप्ताः सुरभ्यो भवंति तदा मंक्षु शीव्रमंबुवृष्टिमाच ॥भाषा॥ सब शुभ हैं ॥ १० ॥ वामादिति ॥ बैलको दक्षिण माऊंको गमन,और चेष्टा हितकारी है. और वामगमन चेष्टा हितकारी नहीं है. और दोमहिष एक संग जेमने माऊं वांये माऊंकू आय जाय तो युद्ध और नाशके लिये जाननो ॥ ११.॥ इति वृषभमहिषौ ॥ ॥भंभेति ॥ गौवनको वाम दिशामें भंभाशब्द इष्ट सिद्धिके अर्थ है. और रात्रिमें गाको 'हुंकार शब्द सिद्धिके अर्थ जाननो. और अर्द्ध रात्रिमें गौशब्द करे तो भयके लिये जाननो. और दिवसमें अग्निादिशामें गौ बोले तो भयके अर्थ जानंनो ॥ १२ ॥ नंत्य इति॥जो गौ खुरके अग्रभागकर पृथ्वीकं खोदे तो रोग करे. जो गा अश्रुपात डारै तो Aho ! Shrutgyanam Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्पदानां प्रकरणम् । ( ३८३ ) भंभार वोन्मिश्रितहुंकृताढ्या वत्सोत्सुका हर्षपरीतचित्ताः ॥ ज्ञेयाः सुरभ्यः शभदाः सदैव गोभिः समानाः शकुने महिष्यः ॥ १४ ॥ ॥ इति गोमहिष्यौ ॥ अजामजं दर्शन कीर्त्तनाभ्यां शंसति शब्दं च तयोः प्रयाणे ॥ अजा निशीथे यदि रौति तेन सर्वाणि गेही लभते सुखानि ॥ १५ ॥ . ॥ इत्यजाजौ ॥ ॥ टीका ॥ क्षते ॥१३॥ भंभेति ॥ एवंविधाः सुरभ्यः सदैव शुभदा भवंति । कथंभूताः भंभाखोन्मिश्रितहुंकृताढ्या इति भंभारवेण उन्मिश्रिता हुंकृतयः ताभिराढ्या वत्सोत्सुका इति स्ववत्सं द्रष्टुमुत्कंठिता इत्यर्थः । हर्षपरीतचित्ता इति हर्षेण परीतं व्याप्तं चित्तं यासां ताः तथा महिष्यः शकुने गोभिः समाना ज्ञेयाः ॥ १४ ॥ ॥ इति गोमहिष्यैौ ॥ अजामिति ॥ अजां तथा अजं दर्शनकीर्तनाभ्यां बुधाः शंसति । तयोः शब्दं च प्रयाणे शंसति । यदि निशीथेऽना रौति तेन गेही सर्वाणि सुखानि लभते ॥ १५ ॥ इत्यजाजौ ॥ ॥ भाषा ॥ स्वामी की मृत्यु होय. जो मक्षिकानकरके व्याप्त वा वेष्टित गौ होय तो शीघ्र जलकी वृष्टि आवै ॥ १३ ॥ भंभेति ॥ भंभाशब्दकर मिलवां हुंकार करती होंय वा अपने बछडा देखवेकूं उत्साह करती होंय, अथवा हर्षयुक्त चित्त जिनके होंय ऐसी गौ सदा शुभकी देबेवारी जाननी और शकुन सभी गौकी समान जाननी ॥ १४ ॥ ॥ इति गोमहिष्यौ ॥ अजामिति ॥ बकरिया बकरा इनको नाम वा दर्शन शुभ है. इनदोनोंनको शब्द प्रयाण समय में शुभ है. और जो बकरिया अर्द्धरात्रिपै शब्द करे तो वाको स्वामी सर्वसुख प्राप्त होय ॥ १५ ॥ ॥ इत्यजाजौ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८४ ) वसंतराजशाकुने - चतुर्दशो वर्गः । vshi दक्षिणकायचेष्टौ शुभेषु कार्येषु शुभौ प्रदिष्टौ ॥ वामा च चेष्टां प्रतिपादयंतौ कार्येषु तावप्य शुभेषु शस्तौ ॥ १६ ॥ ॥ इति मैडकौ ॥ उष्ट्रस्य वामो मधुरश्च शब्दः शस्तो प्रशस्तः परुषः प्रवासे ॥ अनार्तवामस्थितयोर्विरा वैश्छुच्छंदरी मूषिकयोश्च सिद्धिः ॥ १७॥ ॥ इति उष्ट्रछुच्छंदरमूषिकाः ॥ शस्तो रुवन्नामिषपूर्णवको रिक्ताननो नादकृदप्रशस्तः ॥ नानाप्रकारैर्विरुतैरुपेतो निंद्यो बिडालः खलु यद्धयमानः ॥ १८ ॥ ॥ टीका ॥ मँषैडकाविति । मेषः अजः एडको हुडुः एतौ दक्षिणकायचेष्टौ शुभेषु कार्येषु शुभौ प्रदिष्टौ वामां च चेष्टां प्रतिपादयंतौ अशुभेषु कार्येषु तावपि शस्तौ भवतः १६ ॥ इति मेषैडकौ ॥ उष्ट्रस्येति ।। उष्ट्रस्य खणस्य वामो मधुरः शब्दः शस्तः परुषः कठिनः प्रवासे गमनेऽप्रशस्तः । अनार्तयोरदुःखितयोः छुच्छंदरीमूषिकयोः वामस्थितयोश्च विरावैः सिद्धिः ः स्यात् ॥ १७ ॥ ॥ इति उष्ट्रच्छंद मूषिकाः ॥ शस्त इति ॥ आमिषपूर्णवक्त्रो मार्जारः शस्तः । रिक्ताननो नादकृदप्रशस्तः स्यात् । नानाप्रकारैर्विरुतैरुपेतो युध्यमानो बिडालो निंद्यः स्यात् । ग्रंथांतरे त्वेवं रा॥ भाषा ॥ काविति || बकरा और मेंढा ये दोनों जेमने अंगमें चेष्टा करते हों तो शुभकार्यनमें शुभ कहे हैं. और वामअंग में चेष्टा करते होंय तो अशुभ कार्यनमें प्रशस्त हैं ॥ १६ ॥ ॥ इति षडकौ ॥ उष्ट्रस्येति ॥ ऊंटको वामभागमें मधुर शब्द शुभ है. कठोर शब्द गमनमें अशुभहे. और चकचंदर मूषिका ये दुःखी होंय नहीं वामभागमें स्थित होंय इनके शब्द करके सिद्धि होय ॥ १७ ॥ ॥ इति उच्छंद मूषिकाः ॥ शस्त इति ॥ जो बिडाल मांस मुखमें भन्यो होय और बोले तो शुभ है, और Aho! Shrutgyanam Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्पदानां प्रकरणम् । (३८५) रुतेक्षणे ग्रामवलीमुखस्य जयाय नामग्रहणं भयाय ॥ इष्टा गतिर्दक्षिणतो न चेष्टा व्यासंगकारी गमनोधतानाम् ॥१९॥ ॥ इति वानरः॥ ॥ टीका ॥ त्रावुपारष्टात्पतति तदा षण्मासमध्ये मरणमेति । चरणौ जिघति तदा रोगोत्पत्तिः। मस्तकं लिहति तदा राज्ञो भयं वक्ति । यदा तमुल्लंध्य याति तदा मतिः । यदा स्त्रीशिरो लिहति तदा भर्तुम॒तिः। यदा स्त्रीहृदयं लिहति तदा पुत्रमृतिः । यदि स्त्रीचरणौ लिहति तदा श्वश्रूमृतिः। यदा भक्षणं करोति तदा मरणमुत्पद्यते । यदा त्वरितगत्या गृहाइहिर्याति तदा रोगनाशः शत्रुनाशश्च ॥ १८॥ ॥इति मार्जारः॥ रुतेक्षणे इति ॥ ग्रामवलीमुखस्य वानरस्य रुतेक्षणे जयाय स्याताम् । नामग्रहणं भयाय स्यात् । तस्य गतिः दक्षिणत इष्टा न चेष्टा । यतो गमनोधतानां स व्यासगकारी स्यात् ॥ १९ ॥ ॥ इति वानरः॥ ॥भाषा॥ खाली मुख होय शब्द करै तो अशुभ है. और बिलाव नाना प्रकारके शब्द बोलते होंय और युद्ध करते होंय वो निंदाके योग्य हैं. और ग्रंथमें ऐसो लिखोहै ॥ रात्रिमं ऊपर आय पडे बिलाव तो छः महीनामें वो मनुष्य मरजाय. जो बिलाव: पांव सूंघे तो रोगकी उत्पत्ति होय जो मस्तककू चाटै तो राजाको भय होय. जो मनुष्यकू उलंघन करजाय तो वो पुरुष मरजाय, जो स्त्रीके मस्तककू चाटे तो वाके भर्तारंकी मृत्यु करै, जो स्त्रीके हृदयकू चाटै तो पुत्रकी मृत्यु होय, जो स्त्रीके चरणकू चाटै तो सासू मरै जो भक्षण करै तो मरण करै. जो शीघ्र गति करके बिलाव घरसूं बाहर चल्यो जाय तो रोगको नाश और शत्रुको नाश करै ॥ १८॥ ॥ इति मार्जारः॥ रुतेक्षणे इति ॥ गमनमें उद्युक्त होय रहे उन पुरुषनकू वानरको शब्द देखना जयके अर्थ और नाम लेनो भयके अर्थ, वानरकी दक्षिणगति योग्य है, और मैथुनचेष्टा योग्य, नहीं ॥ १९॥ ॥ इति वानरः॥ . Aho ! Shrutgyanam Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८६) वसंतराजशाकुने-चतुर्दशो वर्गः। अनेकरूपेण चतुष्पदानां ग्रामस्थितानां शकुनं निरूप्य ॥ बमोऽधुनारण्यसमाश्रितानां यथोदितं शुक्रबृहस्पतिभ्याम् ।। ॥२०॥ पुण्येन गत्यागमयोरयुग्माः प्रदक्षिणं गौरमृगाः प्रयांति ॥ समा न शस्ता न च वामयाताः कृष्णैर्विमिश्रा न भवंति दुष्टाः॥२१॥प्रदक्षिणेनापि मृगः पुमांसमावेष्टयन्वक्ति विनाशमेव ।। अयुग्मसंख्या अपि कृष्णसारा अवामयाता आप न प्रशस्ताः ॥ २२ ॥ कंडूतिकंपौशिरसो निषेधं मूत्रं पुरीषं च भयं तनोति ॥ मध्ये पथोऽग्रे क्षतये मृगाणां विलोकनं लाभकरं तु पृष्ठे ॥२३॥ ॥ टीका ॥ अनेकेति ॥ ग्रामस्थितानां चतुष्पदानां अनेकरूपेण शकुनं निरूप्य अधुनाऽरण्यसमाश्रितानां शुक्रबृहस्पतिभ्यां यथोदितं तथा ब्रूमः ॥ २० ॥ पुण्येनेति ॥ गत्यागमनयोः गमने आगमने च गौरमृगाः अयुग्माः पुण्येन प्रदक्षिणं प्रयांति तत्र समा न शस्ताः। तथावामगताःतेमृगाः कृष्णैर्विमिश्रा न दुष्टाः ॥२१॥ प्रदक्षिणेनेति ॥ प्रदक्षिणेनापि मृगः पुमासं आवेष्टयन् विनाशं वक्ति । अयुग्मसंख्या अपि कृष्णसाराः अवामयाता पिन प्रशस्ताः स्युः।तदुक्तमन्यत्र एकस्तु कृष्णसारः पथिदृष्टः कृष्णसर्पसमचेष्टः। नेष्टा गतिःअस्य नृणामावेष्टनमस्य मरणायेति॥२२॥कंड़तिकंपाविति ॥ शिरसः कंडूतिकंपौ निषेधं वक्ति । मूत्रपुरीषं च चौरव्याघ्रप्रभवं भयं तनोति विस्तारयति । तथा पथो मध्ये ग्रे च मृगाणां विलोकनं क्षतयेभवति।तथा ॥ भाषा॥ अनेकेति ॥ ग्रामके रहबेवारे चोपदानके अनेकरूप करके शकुन कहे. अब वनके रहबेवारे चोपदानके शुक्राचार्य बृहस्पति इनने जैसे शकुन कहेहैं तैसेही हम कहेहै ॥२०॥ पण्यटोते ॥ गमन आगम इनमें युग्म न होय ऐसे गौरमृग बडे पुण्यकरके दक्षिणभागमें आवे है उनकी समान कोई नहीं. और वामभागमें शुभ नहीं जो श्याम मृगकरके मिले हुय होय तो दूषित नहीं शुभ जानने ॥ २१ ॥ प्रदक्षिणेनेति ॥ जे मृग प्रदक्षिण हायकरक पुरुषकु आवेष्टन करलें तो विनाश कहेहें ऐसो जाननो. जो अयुग्म संख्या नाम ऊनावी हाय श्याममृग होय और.जेमने भी होय तोभी अशुभकर्ता होय प्रशस्त नहीं आनना ॥ २२ ॥ कंडूतिकंपाविति ॥ जो मृग मस्तककू खुनावतो होय वा कंपायमान Aho! Shrutgyanam Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८७ ) चतुष्पदानां प्रकरणम्. पुरो व्रजन्वक्तिमृगोऽतिदूरं विदेशयानं कुशलं च यातुः ॥ प्रदक्षिणीकृत्य विवृत्य पश्यन्मृगी द्वितीयोऽपि मृगोऽर्थसिद्धयै॥ २४ ॥ आकारशब्दादपरं विरावं क्षुतं च कुर्वन्न हितः कुरंगः ॥ युद्धाय युद्धोद्यतचित्तवृत्तिः सौख्याय संजातरतप्रवृत्तिः ॥ २५ ॥ छिक्कारकाणां रुरुकर्कटानां यानं रुतं दक्षिणतः प्रशस्तम् ॥ वामं पृच्चित्तलरोहितानां तथा परेषां खुरिणां बहूनाम् || २६ ॥ ॥ इति मृगाः ॥ ॥ टीका ॥ पृष्ठे लाभकरं स्यात् ॥२३॥ पुर इति ॥ मृगः पुरो व्रजन्यातुरतिदूरं विदेशयानं कुशलं च वक्ति । तथा प्रदक्षिणीकृत्य विवृत्येति नेत्रे प्रसार्य पश्यन् मृगीद्वितीयः मृगोपि अर्थसिद्धयै स्यात् ॥ २४ ॥ आकारेति || आकारशब्दादपरं विरावं क्षुतं च कुर्वकुरंगो न हितः युद्धोद्यतचित्तवृत्तिः युद्धाय स्यात् । संजातरतप्रवृत्तिः सौख्याय स्यात् ॥ २५ ॥ छिक्कारकाणामिति ॥ छिक्कारकाणां रुरूणां कर्कटानां मृगविशेषाणां यानं गमनं रुतं च दक्षिणेन प्रशस्तं स्यात् । पृषञ्चित्तलरोहितानां तथा परेषां खुरिणां बहूनां वामं गमनं रुतं च प्रशस्तं स्यात् ॥ २६ ॥ ॥ इति मृगाः ॥ ॥ भाषा ॥ करतो होय तो कार्यको निषेध जाननो. जो मूत्र पुरीष करें तो भय करे. जो मार्ग मध्य में वा अग्रभाग में मृग देखते होंय तो नाश वा क्षतके अर्थ जाननो. पीठपीछे देखे तो लाभ करै ॥ २३ ॥ पुर इति ॥ जो मृग अगाडी गमन करै तो गमनकर्त्ताकूं अति दूर विदेश गमन और कुशल करे. जो मृगी प्रदक्षिणा होयकर नेत्र फाडकरके देखे तैसेही मृग भी देखे तो अर्थ सिद्धिकरे ॥ २४ ॥ आकारेति ॥ आकारशब्दते और शब्द वा छोंक लेवे तो मृग हितकारी नहीं जानतो. और युद्ध करबेकूं जाको चित्त लगरह्यो होय तो युद्ध करावे. संभोग में जाकी प्रवृत्ति होय तो सौख्य करै ॥ २५ ॥ छिक्कारका'णामिति ॥ छिकारकनको रुरुनको कर्कटनको गमन शब्द दोनों दक्षिणभागमें शुभ हैंऔर पृषत, चित्तल, रोहित इनको और जे खुरखारे बहुतसे जीव हैं तिनको वाम Aho! Shrutgyanam Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८८) वसंतराजशाकुने-चतुर्दशोःवर्गः। प्रशस्यते दर्शनकीर्तनाभ्यां ग्राम्यस्तथारण्यगतो वराहः॥ शस्तोऽधिकं कर्दमलिप्तगात्रो विशुष्कपंकावयवोऽतिनिंद्यः॥२७॥ ॥इति वराहः॥ वामस्वरा वामगताः प्रवासे तद्वैपरीत्यानखिनः प्रवेशे ॥ भवं ति शस्ताः प्रतिषेधकास्तु पृष्ठे पुरस्तादपि भाषमाणाः॥२८॥ नानुव्रजंतो नखिनः प्रशस्ता न सम्मुखं चापि समापतंतः ॥ अग्रेसराः शत्रुवधोधतानां भवंत्यवश्यं विजयाय पुंसाम् ॥२९॥ ॥ टीका। प्रशस्यत इति ॥ ग्राम्यस्तथाऽरण्यगतः वराहः दर्शनकीर्तनाभ्यां प्रशस्यते । तथापि कर्दमलितगात्रः अधिकं शस्तः विशुष्कपंकावयवः अतिनिद्यः स्यात्।॥२७॥ ॥ इति वराहः ।। वामेति ॥ प्रवासे वामस्वराः वामगताः प्रवेशे तदैपरीत्याच नखिनः शस्ता भवंति तथा पृष्ठे पुरस्तादपि भाषमाणाः प्रतिषेधकाः स्युः ॥ २८ ॥ नान्विति ॥ अनुव्रजंतो नखिनः प्रशस्ता न भवंति । संमुखं चापि समापतंतःन प्रशस्ताः शत्रुवभागमें गमन शब्द शुभ है. छिक्कारक, रुरु, कर्कट, पृषत, चित्तल, रोहित ये नाम मृग भेदमें हैं ॥ इति मृगाः॥९॥ || भाषा ॥ प्रशस्यत इति ॥ ग्रामको शूकर होय वा वनको शूकर होय इनको दर्शन नामको उच्चारण शुभ है. जो कीचमें व्हीस रह्यो होय पनगीलो होय तो बहुत अधिक शुभ जाननो. जो कीचके सनो सूखो होय तो अति निंदाके योग्य है ॥ २७ ॥ ॥ इति वराहः॥ १० ॥ वामेति ॥ गमनमें नखवान् पशु वामस्वर वाममें गमन करतो होय और प्रवेशमें दक्षिणस्वर दक्षिण गमन होय तो शुभ. और पीठपीछे अगाडी बोले तो निषेध कर्ता जाननो ॥ २८ ॥ नान्विति ॥ नखी पशू गमन कर्ताके पीछे गमन करे तो और संमुख भावै तो शुभ नहीं. और शत्रुनके वधमें उद्युक्त होय रहे होय उनके अगाडी आवे तो Aho ! Shrutgyanam Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्पदानां प्रकरणम्। ( ३८९) अभ्याइते प्राक्तनपुण्यकोशे मृगेंद्रगुंजारवदुंदुभौ ये ॥प्रयान्ति तेऽभोऽधिमतीत्य नूनं विभीषणस्यापि पदं हरन्ति ॥३०॥ मृगाधिपद्वीपतरक्षुवन्यमार्जारभल्लूकशशप्लवंगाः ॥ व्याघ्रादयोऽस्मिन्नखिनः प्रदिष्टा बिलेशयास्तेष्वपि जंबुकाद्याः ॥ ॥३१॥ येलोमशीजंबुकपूतिकेशा गौधेरगोगोधाकृकलासकायाः ॥ खाविच्छृगालीशशशल्लकायाः सिंहादितुल्याः शकुने मतास्ते ॥३२॥ ॥ टीका ॥ धोधतानामग्रेसराः पुंसां: विजयाय अवश्यं भवति॥२९॥ अभ्याहत इति ॥ मृगेंद्रगुंजारवलक्षणे दुंदुभौ अभ्याहते वाद्यमाने सति कीदृशे प्राक्तनं यत्पुण्यं तस्य कोशो भांडागार तस्मिन्प्रचुरपुण्यवतामेव एतादृक्छकुनसामग्र्याः संभवाये नराः प्रयोति ते नूनं पयोधिमतीत्य विभीषणस्यापि पदं हरंति ॥ ३० ॥ मृगाधिपति ॥ मृगाधिपाः सिंहाः दीपिनःचित्रकाःतरक्षुः शशादनः वान्यमार्जारो वन्यविडाल: भल्लकःशृगालः शशोवनचरविशेषः प्लवंगः कपिः व्याघ्रादयश्च एतेऽस्मिञ्छास्त्रेनखिनः प्रदिष्टाः । तेष्वपि जंबुकाद्या विलेशयाः कथिताः ॥३१॥य इति ॥ या लोमशी लुंकडी जंबूकः शृगालः पूतिकेशा वनचरविशेषाः गौधेयः गोधायाः पुमानपत्यं गोधाप्रतीता कृकलासःसरटःकरकांटिआइति लोके प्रसिद्धःश्वाविदितिश्याह इति प्रसिद्धः शृगाली शिवा शशः प्रतीतः शल्लकःश्वावित्सदृशजंतुविशेषः त एते शकु ॥ भाषा॥ अवश्य विजयके अर्थ जाननो ॥ २९ ॥ अभ्याहत इति ॥ जो मनुष्य गमन करे वा समयमें मगेंद्रके ढोल नगाडे इनके शब्द होय तो निश्चयसमुद्रकू उलंघनकर लंकाको भी राज्य लैले. ये शकुन बहुत पुण्यवाननकू होंय हैं ॥ ३० ॥ मृगाधिप इति ॥ सिंहद्वीपि, नाम चित्रक, तरानाम कुक्कर, कोसी आकृति काली रेखा जाके मृग खर्गोसकू खाय है. और ग्रामको वा वनको बिलाव, शगाल, शश नाम खगोस वानर ये व्याघ्रकू आदि ले सब नखी है, और शृगालकू आदिले बिलेमें रहेहैं यातूं इनकू बिलेशय कहे है ॥ ३१ ॥ ॥ य इति ॥ लोमशी ये लूंकडी नामकर प्रसिद्ध है और शृगाल चमरी गौ गोहको पुत्र और गोह किरकेंटा श्वानकू अपने केशकरके बांधे श्याह नाम कर प्रसिद्ध शृगाली; शश, Aho! Shrutgyanam Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९० ) वसंतराजशाकुने - चतुर्दशो वर्गः । शशाहिपल्लीकृतलासगोधाः प्रोल्लंघ्य यान्त्यः पदवीं नराणाम् ॥ कार्याणि सिद्धान्यपि नाशयंति श्रेष्ठं तु तत्कीर्त्तनमामनंति॥ ३३ ॥ क्षेत्रं व्रजन्पश्यति यः शशादींस्तस्यान्ननाशो नियतं प्रदिष्टः ॥ एते तु यस्योन्नतमारुहंतो दृग्गोचरेऽसौ लभतेऽतिदुःखम् ॥ ३४ ॥ यद्यन्यजीवाः शशकादिकेभ्यः क्षेत्रस्थिता दृष्टिपथं व्रजंति ॥ क्षेत्रं तदुप्तं परिपक्कसस्यं संपत्परीतं नियमेन भावि ॥ ३५ ॥ शशादयः शब्दविलोकनाभ्यां निघ्नंत्यवश्यं करणीयमर्थम् ॥ ऋक्षः सदृक्षः शशकादिकानां शशोऽपि शस्तो निशि वामशब्दः ॥ ३६ ॥ ॥ इति शशकादयः ॥ ॥ टीका ॥ ने सिंहादितुल्या मताः प्रतिपादिता इत्यर्थः ॥ ३२ ॥ शशाहीति ॥ शशः प्रतीतः अहिः सर्पः पल्ली गृहगोधा कृकलासः सरटः गोधा प्रतीता एताः पदवी मार्ग प्रोल्लंघ्य यान्त्यः नराणां सिद्धान्यपि कार्याणि नाशयति । ततस्तत्कीर्त्तनं बुधाः श्रेष्ठं श्रेयस्कर मामनंति कथयंति। तदुक्तमन्यत्र । “शशशरदभुजगगोधामार्जारैर्लवितेप थि न यायात्" इति ॥३३॥क्षेत्रमिति ॥ क्षेत्रं सस्योत्पत्तिस्थानं व्रजञ्छशादीन्पश्यति तस्यान्ननाशः नियतं निश्चयेन प्रदिष्टः कथितः । एते तु उन्नतं स्थलमारुहंतः यस्य ग्गोचरे भवंति असौ अतिदुःखं लभते ॥ ३४ ॥ यदीति ॥ यदि शशकादिकेभ्यः अन्यजीवाः क्षेत्रस्थिताः दृष्टिपथं व्रजंति तदा क्षेत्रं तदुप्तं परिपक्कसस्यं नियमेन संपत्प रीतं भावि ॥ ३५ ॥ शशादय इति ॥ शशादयः पूर्वोक्ताः शब्दविलोकनाभ्यामवश्यं ॥ भाषा ॥ शल्लक ये सब शकुनमें सिंहादिकनकी तुल्य हैं ॥ ३२ ॥ शशाहीति ॥ खगोंस, सर्प, पल्ली, किरकेटा, गोह ये मार्गकूं उल्लंघन करके चले जांय तौ मनुष्यनके कार्य सिद्ध हु विनाशकं प्राप्त होय जांय याते इनको नाम उच्चार श्रेष्ठ है मरुत्स्थलीमें कह्यो है, खर्गोस, किरकेंटा, सर्प, जाहग, बिल्ली ये मार्गकूं उल्लंघन कर जांय तो गमन नहीं करनो ॥ ३३ ॥ ॥ क्षेत्रमिति ॥ जो मनुष्य खतकूं जातो होय : इन शशादिकनकूं देखे तो अन्नको नारा निश्चय करे. जा ऊंचे स्थानपै चढते दीखै तो प्राणी दुःख भोगें ॥ ३४ ॥ यदीति ॥ जो पहले होयं नेत्रनसूं दीखे तो अन्न बोयौ खेत युक्त खेत होय ॥ ३५ ॥ शशादय इति ॥ Aho! Shrutgyanam कहे शशादिक इनते और जीव होय तो निश्चय पकेहुये अन्नकी खेतमें ठाढे संपदाकर Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्पदानां प्रकरणम् । (३९१) ॥ टीका॥ करणीयमर्थ विघ्नति । शशकादिकानां तुल्य ऋक्षो ज्ञेयः शशोऽपि निशि वामशब्दः शस्तः ग्रंथांतरे त्वेवम् । पूर्वदेशे शशकस्याभिधानं षढो इति मरुत्स्थल्या दांतिउ इति प्रसिद्धः। नवीनग्रामवासे शशकदर्शने यायात् दृष्टिः प्रसरति । तावद्रामस्य वासो भवति ग्रामस्य दुर्गस्य वा भित्तिनिमित्तं काष्ठादौ नीयमाने शशकदर्शने तत्र कदाचित्पराभवो न भवति । ग्रामे गच्छतां नृणामादौ यदि पोदकी तथा शृगालः तित्तिरि वालेयो गर्दभो वा एषामन्यतमो वामःस्यात्तदुपरि चेच्छशको वामःस्यात्तदा कार्यसिद्धिकृत्स्यात् । प्रथमं शशको वामः स्यात्तदा गमनं न क्रियते सुखासी. नस्य शशकः चेन्जल्पति तदाऽशुभं किंवदंतीतिश्रुतिःस्यात् । तदा उदाहार्थं गच्छताम् शशकः तारया गच्छति । तदा उदाहितायाः प्रथमगर्भो न जीवति ग्रामप्रात्यर्थ गच्छतां वामः शशकः स्यात्तदा पराजयः दक्षिणः प्रतियाति तदा शुभकृत् । यदि चौरः चौर्यं कृत्वा याति धनिकः पृष्ठगो भवति तस्य यदि शशकः वाम: स्यात्तदा सैन्याधिपतिहस्ते समायाति । दक्षिणः तादृशो न ॥३६॥ ॥ इति शशकादयः॥ ॥ भाषा ॥ पहले कहे जे शशादिक इनको शब्द देखनो अवश्य करबेके योग्य कार्यकं नाश करै है. शशादिकनकी तुल्य ऋच्छ है. और ख़र्गोशको रात्रिमें बायो शब्द शुभ है. ग्रंथांतरमें ऐसो कयो है पूर्व देशमैं शशकको नाम षढो कहेहैं. खर्गोश भी क हैं. मारवाडमें दांतिउ कहहैं. जो नवनि ग्राम बसायो चाहे वा समयमें शशक दीखे तो शशकके दीखबेमें जहांताई दृष्टि फैले तहां ताई ग्रामको वास होय. और ग्राम वा दुर्गकोट किला इनकी भीतके लिये काष्ठकू आदि ले जो वस्तु लाते होय. वा समयमें जो शशक दीख जाय तो वामें कदाचित् भी तिरस्कार नहीं होय, और ग्राममें गमन करतो होय वा पुरुषकू प्रथम पोतकी वा शगाल वा तित्तिर, गर्दभ इनसूं और जो वामभागमें आय जाय तापीछे शशक वाममें आवै तो कार्यकी सिद्धि होय. जो प्रथम शशक वामभागमें आवे तो गमन नहीं करनो. सुखपूर्वक बैठयो पुरुष होय वाकू शशक बोले तो ये कहा अशुभ कहेहैं. और विवाहके अर्थ जातो होय वा पुरुषकू शशक जेमने भागमें गमन करै तो वा व्याही स्त्रीको प्रथम गर्भ नहीं जीवै. जो ग्रामके घातकरबेकू जाते होंय उन पुरुषनकू शशक वामभागमें होय तो उनको पराजय होय. जो दक्षिणभागमें आवे तो शुभ करनेवालो जाननो. जो चोर चोरी करके चल्यो वाके पीछे धनी जाय वाकू शशक वामभागमें आय जाय तो सेनाके अधिपतिके हाथ आवे. Aho ! Shrutgyanam Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९२) वसंतराजशाकुने चतुर्दशो वर्गः। एकोऽपि दृष्टः सरटः संदेव निहति कार्याणि समीहितानि ॥ यदि द्वितीयो यदि वा तृतीयो दृश्येत तत्स्यादनजीवनाशः ॥ ३७॥ कुर्वति ह्युच्चैरधिरुह्य चेष्टां स्नानेन शुद्धिः सरटं निरीक्ष्य॥ पतत्यकस्मात्तु स यस्य मूर्ध्नि शिवाय तस्याद्भुतशांतिरुक्ता ॥३८॥ कीर्तनेक्षणरवा नकुलानां साधयंति करणीयमशेषम् ॥ दक्षिणेन नखिनामपि चैषां श्रेयसी खलु गतिविषमाणाम् ॥३९॥ ॥ इति कृकलासनकुलौः ॥ ॥ टीका ॥ एकोऽपीति ॥ एकोऽपि सरटो दृष्टः सन् सदैव कार्याणि समीहितानि निहंति । यदि द्वितीयः यदि वा तृतीयो दृश्येत तदा धनजीवनाशः स्यात् ॥३७॥ कुर्वतीति ॥ उच्चैः अधिरुह्य यदि चेष्टां कुर्वन्ति तदा सरटं निरीक्ष्य स्नानेन शुद्धिः कथिता स सरटः अकस्माद्यस्य मूर्द्धनि पतति तस्य शिवायाऽद्भुतशांतिरुक्ता ॥३८॥ कर्तनेति ॥ नकुलानां कीर्तनेक्षणरवा अशेषं करणीयं साधयंति खलु निश्चयेन नखिनामपि चैषां विषमाणां श्रेयसी गतिर्भवति तदुक्तमन्यत्र “नकुलानामपि धन्यं विषमाणां प्रदक्षिणं गतं यातुः" इति ॥ ३९ ॥ ॥इति कृकलास नकुलौः॥ - ॥भाषा ॥ जो दक्षिणभागमें शशक आवे तो सेनाधिपतिके हाथ भी नहीं आवे ॥ ३६॥ ॥ इति शशकादय ॥ एकोपीति ॥ सरट जो किरकेटा जो एक भी दीखै तो सबकार्य नाश करे. जो दूसरो तीसरो. दीखै तो धन जीवको नाश करे ॥ ३७॥ कुर्वतीति ॥ ऊंचपै चढकें चेष्टा करतो होय तो वाकू देख करके स्नान करे तो शुद्धि होय. वो किरकेटा अकस्मात् जाके मस्तकपै गिरपडे वाके कल्याणके लिये वाकी शांति बडी उग्र करै ॥ ३८ ॥ __ कीर्तनेक्षणेति ॥ नकुल जे न्योला तिनको दर्शन शब्द नामकीर्तन ये संपूर्ण कार्यकू साधन करैहै. नखवारेनको और ये जो विषम कहे हैं इनकी गति कल्याणकी करबेवाली Aho! Shrutgyanam Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्पदानां प्रकरणम् । (३९३) अनर्थहेतुर्गतिशब्दहीनः सदा शृगालः खलु दृष्टमात्रः ॥ शस्ताह्नि वामा गतिरस्य शस्तो वामो निनादो निशि यो बहूनाम् ॥४०॥ विहाय वामां दिशमन्यदिक्षु शब्दायमाना न शुभाः शृगालाः ॥ गत्यारवौ ग्रामवुरप्रवेशे शस्ताववामौ मृगधूर्त्तकानाम् ॥४१॥ हुंबाहुवेति प्रथमं ततस्तु हाहेति दीर्घः सुतरां रखो यः॥स्याजंबुकानां स मतःप्रशांतस्तदन्यरूपः कथितः प्रदीप्तः ॥ ४२ ॥ शृगालशब्दो भवने निशायामुच्चाटनार्थ दिशि पश्चिमायाम् ॥ प्राच्यां भयायोत्तरतः शिवाय भवत्यवाच्यां भवनाशनाय ॥४३॥ ॥ टीका॥ अनर्थहेतुरिति ॥ गतिशब्दहीनः सदा शृगालो दृष्टमात्रः अनर्थहेतुर्भवति अह्नि अस्य वामगतिःशस्ता निशि बहूनां यो वामो निनादः स शस्तः ॥ ४० ॥ विहायोति ॥ वामां दिशं विहाय अन्यदिक्षु शब्दायमानाः शृगालाः न शुभाः मृगधूर्त्तकानां ग्रामपुरप्रवेशे गत्यारवौ अवामौ शस्तौ ॥ ४१ ॥ हुंबेति ॥ प्र. थमं हंबाहुवतिशब्दः ततो हाहेति सुतरां दी! रवः स्यात्स जम्बुकानां प्रशांतो मतः तदन्यरूप इति तद्विपरीतःप्रदीप्तः कथितः॥४२॥ शृगालेति ॥ भवनस्थित ॥भाषा ॥ है. कहूं इनकी दक्षिण गति गमनकीकू धन्य कहीहै ॥ ३९ ॥ ॥ इति कृकलासनकुलौः॥ अनर्थहेतुरिति ॥ शृगाल गति करके शब्द करके हीन होय केवल दीखजाय तो सदा अनर्थको हेतु जाननो. और शृगालकी दिनमें बांईगति शुभ है. और रात्रिमें बहुतनको बायो शब्द शुभ है ॥ ४० ॥ विहायेति ॥ वामदिशाकू छोडकर और दिशामें शृगाल बोले तो शुभ नहीं, ग्रामपूर इनके प्रवेशमें शृगालनकी गति और शब्द ये दक्षिणभागमें शुभ हैं ॥ ४१ ॥ इंवेति ॥ पहले हुंबाहुब ये शब्द बोले पीछे हाहा ये शब्द दीर्घ बोले तो शृगालनको ये शांत शब्द योग्य है याते विपरीत जो शब्द करै वो प्रदीप्त कह्यो है ॥ ४२ ॥ शगालेति ॥ अपने स्थानमें स्थित होय वाकू रात्रिमें पश्चिमदिशामें Aho ! Shrutgyanam Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९४) वसंतराजशाकुने-चतुर्दशो वर्गः। सिद्धयै सदा सर्वसमाहितानां स्याल्लोमशीदर्शनमात्रमेव ॥ राजप्रसादं कथयंत्ययुग्मा दृष्टा ध्रुवं लोमशिकाश्च पृष्ठे ॥४४ ॥ सव्यापसव्या च गतिः सदासां नृपादरस्त्रीधनलाभहेतुः ॥ खिखीति शब्दादपरो विरावो दीप्तो भवेल्लोमशिकाप्रयुक्तः ॥४५॥ ॥ टीका ॥ स्य निशायां पश्चिमायां शृगालशब्दः उच्चाटनार्थ भवति प्राच्या पूर्वस्यां भयाय भवति । उत्तरतः शिवाय भवति । अवाच्यां दक्षिणस्यां भयनाशाय स्यात् ॥४३॥ ॥ इति शृगालः॥ सिद्धयै इति ॥ लोमशीदर्शनमात्रमेव सर्वसमीहितानां सिद्धयै भवति । अयुग्मलोमशिकाश्च पृष्ठे दृष्टा राजप्रसादं कथयति ॥ ४४ ॥ सव्यति ॥ आसां लोमशिकानां सव्यापसव्या गतिः वामदक्षिणगमनं नृपादरस्त्रीधनलाभहेतुः नृपादरो राजसन्मानः स्त्री योषित् धनं द्रव्यं एतेषामितरेतरद्वंद्वः तेषां योलाभः प्राप्ति तस्य हेतुः कारणं भवति।तथा खिखीति शब्दादपरोविराव:लोमशिकाप्रयुक्तः दीप्तो भवेत ॥ भाषा ॥ शृगालको शब्द उच्चाटनके अर्थ है. जो पूर्वदिशामें बोले तो भयके अर्थ और उत्तरमें बोले तो कल्याणके अर्थ दक्षिणमें शृगालको शब्द भयके नाशके अर्थ जाननो ॥ ४३ ।। ॥ इति शृगालः ॥१४॥ सिद्धय इति ॥ लोमशीको दर्शनही सर्व मनोरथकी सिद्धि करै है. जो लोमशी ओना पीठपीछे दखै तो निश्चयकर राजाको अनुग्रह होय. लोमशीको दर्शन और गमन दोनों शुभ हैं ॥ ४४ ॥ सव्येति ॥ इन लोमशीनको वामदक्षिण गमन राजाको सन्मान, और स्त्री धन इनको लाभ करावे. जो खिखि शब्दसू दूसरो शब्द बोले तो दीप्तशब्द जाननो. जो लोमशी काली पूंछकी होय दक्षिणभागमें आवे तो भयकू आदिले जे कार्य उनमें • शुभ है. जो सुफेद पूंछकी होय तो राजाकी सेवा चाकरीकू आदिले जे कार्य तिनमें दक्षिणभागकी शुभ है. जो ये वामभागमें आवे तो अशुभ करे, युद्धादिकनमें जिनकू वामभागमें आवे उनके मध्यमें जो अधिपति होय वाको नाश करै लोमशीकं लूंकडी कहेहैं ॥ ४५ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुष्पदानां प्रकरणम् । (३९५) याने प्रवेशे च यथा क्रमेण सव्यापसव्या च गतिर्गतिज्ञैः॥ शुमोदिता ब्राह्माणिकाप्रयुक्ता तब्यत्ययो व्यत्ययकृच्छुभस्य॥४६॥ आरण्यसत्त्वा मिलिता रुदंतो ग्रामोपकंठे भयदा भवति ॥ग्रामः पुनस्तैः परिवेष्टयमानो विवेष्टयते वैरिजनेन नूनम् ॥ ४७॥ ग्राम्या भियेऽरण्यचरानुनादा रोधाय ते ग्राम्यचरानुशब्दाः॥ परस्परानुस्वननेन भीति वदंतिवन्धग्रहसंप्रयुक्ताम् ॥ १८॥ ॥टीका ॥ . तत्रायं विशेषः ॥ कालपुच्छा भयादौ दक्षिणा शुभा । श्वेतपुच्छा राजसेपादौ दक्षिणा शुभाचेरामाभवति तदा अशुभप्रदास्यात्।युद्धादौ एषा वामा स्यात् तेषां मध्ये योऽधिपः तद्विनाशयित्री भवति । इति लोमशिका लुंकडी इति प्रसिद्धा ॥४५॥ याने इति ॥ याने प्रवेशे च यथा क्रमेण ब्राह्मणिकाप्रयुक्ता सव्यापसव्या वामदक्षिणा गतिः गतिज्ञैः शुभा उदिता प्रतिपादिता तव्यत्ययः तद्वैपरीत्यं शुभस्य व्यत्ययकृद्भवति ॥ ४६ ॥ ॥ इति ब्राह्मणिका ॥ आरण्येति ॥ ग्रामोपकंठे ग्रामसमोपे आरण्यसत्त्वा वन्यजीवाः मिलिता रुदंतः रोदनं कुर्वन्तःभयदा भवति तैः पुनः ग्राम: परिवेष्टयमानः नूनं वैरिजनन ग्रामो विवेष्टयते "उपकंठांतिकाभ्याभ्यग्रा अप्यभितोऽव्ययम्" इत्यमरः ॥४७॥ ग्राम्या इति ॥ग्राम्याः ग्रामे भवाग्राम्याः सत्त्वा इति शेषः अरण्यचरानुनादाः अरण्य च. ॥ भाषा ॥ याने इति ॥ गमनमें और प्रवेशसे पहले कह्यो जो क्रम ता करके ब्राह्मणिकाकी बाई जे. मनी गति शुभ कही है, जो विपरीत ओरतूं और गति होय तो शुभकार्यको नाश करै. ब्राह्मणिका नाम जाकी लालपूंछ होय वाको है ॥ ४६॥ इति ब्राह्मणिका ॥ १५ ॥ आरण्यति॥प्रामके समीप बनके जीव मिले हुये रुदन करें तो भय देवें फिर उनजीवन करके ग्राम आवेष्टन होय जाय तो वो ग्राम वैरी जनकरके निश्चय धिरजाय ॥ ४७ ॥ ग्राम्या इति ॥ पहले बनके जीव शब्द बोलें ता पीछे ग्रामके जीव बोले तो भयके अर्थ जाननो. जो पहले ग्रामके जीद बोले ता पीछे वनके जीव बोले तो रोधके अर्थ जाननो. जो Aho ! Shrutgyanam Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९६) वसंतराजशाकुने-चतुर्दशो वर्गः। ग्रामे पुरे वा यदि वन्यसत्त्वा रात्रौ प्रविष्टा दिवसे च दृष्टाः॥ यदा तदाशूद्रसतामुपैति स्युम॒त्यवे तत्रमृतप्रमूताः॥१९॥ गृहागता गेहपतेर्भयाय पुरस्य रोधाय तु गोपुरस्थाः ॥ स्युर्वन्यसत्त्वाःशकुनानितेषामुद्भावनीयान्यपराणि चैवम् ॥५०॥ इति वसंतराजशाकुने चतुर्दर्शा वर्गः समाप्तः ॥ १४ ॥ ॥ टीका ॥ रशब्दो येषां ते तथोक्ताः भिये भवंति ते अरण्यचरा ग्राम्यचरानुशब्दाः रोधाय भवंति परस्परानुस्वननेन ग्राभ्यचरशब्दानंतरं शब्दो येषां ते तथोक्ताः बंधग्रहसंप्र. युक्तां भीति वदंति अन्योन्यं साध जल्पनेन "मिथोऽन्योन्यं परस्परम्" इति केशवः केचित्तु आरण्यचराणां सदृशःशब्दो येषां ते आरण्यचरानुनादाः ग्राम्यचराणां सदृशः शब्दो येषां ते ग्राम्यचरानुनादा इति व्याख्यायते ॥ ४८ ।। ग्रामे इति।। वन्यसत्त्वाः वन्यपशवः ग्रामे पुरे वा रात्रौ प्रविष्टाः प्रवेशं कृतवंतः यदा दिवसे च दृष्टाः स्युः तदाः शीघ्रं तनगरं उद्धसतामुपैति गच्छति तत्र ग्रामे पुरे वा मृतप्रसूताः मृताश्च प्रसूताश्चेति द्वंद्वः जनानां मृत्यवे स्युः॥४९॥ गहा इति ॥ वन्यसत्त्वाः गृहागताः गृहप्रविष्टा गृहपतेर्भयाय भवति तथा गोपुरस्थाः नगरस्थाः पुरस्य रोधाय आवरणाय स्युः एवममुना प्रकारेण तेषां वन्यसत्त्वानाम पराणि शकुनानि उद्भावनीयानि ज्ञातव्यानि “पूरे गोपुरं रथ्या प्रतोली विशिखाः समाः" इति हैमः॥ ५० ॥ इति शत्रुजयकरमोचनादिस्कृतकारिमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रविरचितायां वसंतराजशाकुनटीकायां चतुष्पादवर्णनं नाम चतुर्दशो वर्गः ॥ १४ ॥ ॥भाषा॥ फिर ग्रामके बोलें तो पीछे वनके जीव बोलें तो बंदीखाने करके सहित भय होय ॥ ४८ ॥ ग्रामे इति ॥ वनके पशु ग्राममें वा पुरमें रात्रिमें प्रवेशकर जांय जो दिवसमें दीख जाय तो शीघ्रही वो ग्रामपुर नाशकू प्राप्त होय जाय ता ग्राममें वा पुरमें मनुष्यनके मृत्युके अर्थ जानना ॥ ४९ ।। गहा इति ॥ बनके पशु घरमें आय जाय तो घरके पतिकू भयके मर्थ होय. जो नगरके द्वारेपै स्थित होय तो वा नगरकू शत्रु आय करके रोकले जैसे ये कहेहैं तैसेही वनके जीवनके शकुन और भी जानबेकू योग्य है ॥ ५० ॥ इति श्रीमज्जटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचितायां वसंतराजभाषाटीका. यो चतुष्पदानां प्रकरणे चतुर्दशो वर्गः ॥ १४॥ Aho ! Shrutgyanam Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदपदानां प्रकरणम् । ( ३९७) चतुष्पदानां शकुनप्रभावो यथावदित्थं कथितोऽथ सत्त्वाः॥ ये षट्पदाद्याः शकुनानि तेषामाश्चर्यरूपाणि निरूपयामः ॥१॥ श्रूयेत वामो यदि मंजुगुंजन्दृश्येत वा वामदिशं प्रसर्पन ॥ आस्वादयन्वा कुसुमं प्रशस्तं शृंगस्तदा स्यात्सुमहान्प्रमोदः ॥ २ ॥ यो वृश्चिकः कोष्ठककारिकायः यो गुञ्जरावश्च कुलीरसंज्ञः ॥ अत्रापरे सन्ति च षट्पदा ये यात्रासु ते वामगताः प्रशस्ताः ॥३॥ ॥ इति षट्पदाः॥ अष्टापदो यः शरभः प्रसिद्धो वामेन सर्पनिनदंश्च वामः॥ एकातपत्रं स ददाति राज्यं गतौ निवृत्तौ तु तदन्यरूपः॥४॥ ॥ टीका ॥ चतुष्पदानामिति ॥ चतुष्पदानां पूर्वोक्तानां मया शकुनप्रभावः इत्थं पूर्वो. क्तप्रकारेणं यावत्कथितः । अथ ये षट्पदाद्याः सत्त्वास्तेषां शकुनानि आश्चर्यरूपाणि वयं निरूपयामः॥१॥श्रूयेतति।। यदि ,गः मंजु मनाझं गुञ्जन्वामः श्रूयेत वामदिर्श प्रसर्पन्गच्छन्वा दृश्येत् । प्रशस्तं कुसुमं अस्वादयन्वा वामदिशं दृश्येत तदासमहाप्रमोदः स्यात् ।। २ ॥य इति ॥ यः वृश्चिकः कोष्ठककारिकायः यो गुंजारवश्व कलीरसंज्ञः वृश्चिकजातीयजंतुविशेषः तथा अपरे च ये पदपदाः संति ते यात्राम वामगताः प्रशस्ताः शोभनाः ॥ ३ ॥ ॥ इति षट्पदाः॥ अष्टाद इति ॥ यः शरभ अष्टापद इति प्रसिद्धः गतौ यात्रायां वामेन ॥ भाषा ॥ चतुष्पदानामिति ॥ पे चौपाये पशुनके शकुनको प्रभाव मैने यथायोग्य पूर्वक कह्यो. अब भ्रमरानकू आदिलकर जीव तिनके शकुन आश्चर्सप हैं उनें मैं वर्णन करूं हूं ॥१॥ श्रयतेति ॥ जो भ्रमर सुंदर गुंजार शब्द करतो हुयो वामभागमें श्रवण करे, वा वामदिशामें गमन करतो दखे वा सुगंधवान् पुष्पको संवतो हुयो वामदिशामें दखै ते महान् हर्ष होय ॥ २॥ य इति ॥ जो बीलू और कुलीर खेकड भी कहेंहैं. करलें करक ये भी नाम है. और भ्रमरा ये सब यात्रानमें बांये शुभ हैं॥ ३॥ ॥इति षट्पदाः। ', अष्टापद इति ॥ आठ पांव जाके ऐसो शरभ जो यात्रामें बायो गमन करे और Aho ! Shrutgyanam Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९८ ) वसंतराजशाकुने पंचदशो वर्गः । मार्गाला या रचितोर्णनाभेः सूत्रेण पृष्ठे पुरतोऽथ वासौ ॥ मता प्रयाणे प्रतिषेधयित्री वामोर्णनाभेस्तु गतिः शुभाय ॥ ५ ॥ ॥ इत्यूर्णनाभिः ॥ अश्वादिलाभं जघनोरुभागे कंठे च भोज्याभरणादिलाभम् ॥ छत्रादिलाभं शिरास त्वभीष्टमारोहणान्मर्कटिका करोति ॥६॥ ॥ टीका ॥ सर्पगच्छन्वामेन निनदंश्च शब्दं कुर्वन्स एकातपत्रं राज्यं ददाति । निवृत्तौ तु प्रत्यागमने तु तदन्यरूपः तद्विपरीतरूपः दक्षिणेन गच्छन्दक्षिणेन शब्दं च कुर्वन्नेकातपत्रं राज्यं ददातीत्यर्थः ॥ ४ ॥ इति शरभः । मार्गेति ॥ प्रयाणे गमने ऊर्णनाभेः गुर्जरे कोली आवडो इति प्रसिद्धस्य सूत्रेण पुरतः अग्रतः अथ वा पृष्ठे पृष्ठभागे मार्गार्गला मार्गे अगलाया रचिता असौ प्रयाणप्रतिषेवयित्री प्रतिषेधकारिका मता गच्छतो यात्राकर्तुः वामा ऊर्णनाभे गतिः शुभाय स्यात् ॥ ५ ॥ इत्पूर्णनाभिः । अश्वेति ॥ मर्कटिका जघनोरुभागे जघनं च ऊरुश्चेति द्वंद्वः । तयोर्भागे प्रदशे आरोहणादश्वादिलाभं तथाकंठे आरोहणाद्भोज्याभरणादिलाभं भोज्यं च आभरणं ॥ भाषा ॥ बांयोशब्द बोलै तो शरभ एकातपत्र राज्य देवे. निवृत्तिमें अर्थात् प्रवेशमें दक्षिणमाऊं गमन करे और दक्षिणमाऊं शब्द करे तो चक्रवर्ती राज्य देवै ॥ ४ ॥ ॥ इति शरभः ॥ मार्गेति ॥ गमनमें ऊर्णनाभि जो मकडी गुर्जर देशमें कोली आवडो कहे हैं वो अपने सूत्रकरके अगाडी वा पिछाडी मार्गमें जाल पूर देतो यात्राकी निषेध कर्त्ता जाननो. गमनकर्त्ता कूं - मकडीकी बांई गति शुभके अर्थ है ॥ ५ ॥ ॥ इत्यूर्णनाभिः ॥ जंघा ऊरु इनपे चढजाय तो अश्वादिकनको लाभ करे जौ आभरणादिकनको लाभ करे. जो मकडी मस्तकपै चढजाय Aho! Shrutgyanam अश्वादीति ॥ जो मकडी कण्ठपै चढजाय तो भोजन Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टपदानां प्रकरणम् । (३९९) पुंसां समारोहति यद्यदंगं शुभार्थिनी मर्कटिका सदव ॥ फलानि तेषामुपभोगभांजि भवंत्यवश्यं सुमनोहराणि ॥७॥ यात्रासु खर्जूरककर्णसूच्योमेन यानं फलदं वदन्ति । छिन्ने त्वभ्यां पथि नैव कार्या कर्योत्सुकेनापि नरेण यात्रा॥ ८॥ सर्पस्य नाभैव भवत्यभीष्टं दुष्टानि गत्यारवचेष्टितानि ॥ गोनाशदर्वीकरराजिलाया जात्यैव सर्वे भयदा भुजंगाः ॥९॥ ॥ टीका ॥ च तयोर्लाभ प्राप्तिं शिरसि आरोहणाच्छत्रांदिलाभमेवमभीष्टं करोति ॥ ६॥ पुं. सामिति ॥ शुभार्थिनी मर्कटिका पुंसां यद्यदंग समारोहति तेषामुपभोगभांजि उपभोगं भजते तान्युपभोगभांजि सदैव सर्वदा सुमनोहराणि फलानि भवंति यासकृ. गुज्यते भोग उपभोगोंगनादिक इति ॥ ७ ॥ इत्यष्टपदाः यात्रास्विति ॥ यात्राप्रयाणेषु ॥ खजूरककर्णसूच्योः वामेन यानं फलदं वदंति अमूभ्यां छिन्ने उल्लंपिते पथि कार्योत्सुकेनापि नरेण यात्रा नैव कार्यानैवगमनं कर्त्तव्यमित्यर्थः कर्णसूची कानशिलाई उ इति लोके प्रसिद्धः ॥ ८॥ इत्यनेकपदेषु खर्जुरककर्णसूच्यौ ॥सर्पस्येति ॥ सर्पस्य नामैव अभीष्टं भवति तस्य गत्यारवचेषितानि गतिश्च आरवश्व चेष्टितं चेति द्वंद्वः दुष्टानि भवंति गोनाशदीकरराजिलाद्याः एते ॥ भाषा ॥ तो छत्रादिकनको लाभ और अभीष्ट करै ॥.६ ॥ पुंसामिति ॥ शुभ अर्थके देबेवाली मकडी. पुरुषनके जा जा अंगपै चढे उन उन अंगनके भोगभोग. सदा सर्वदा सन्दरफल अवश्य होय ।। ७ ।। ॥ इत्यष्टपदाः। यात्रास्विति ॥ यात्रामें खान खिजूरो कानशिलाई ये वामभागमें शुभ फलके देबेवारे हैं. जो कार्यकू जातो होय वा पुरुषके ये दोनो मार्गकू उल्लंघन करजाय अर्थात रस्ताकाट जाय तो गमन नहीं करनो ॥८॥ ॥इत्यनेकपदेषु खजूरककर्णसूच्यौ ॥ सर्पस्येति ।। सर्पको नाम ही अभीष्ट देवेहै. और सर्पकी गति शब्द चेष्टा ये तीनो १ स्वार्थिकः प्रज्ञाद्यम् । - - - Aho ! Shrutgyanam Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (800) वसंतराजशाकुने पंचदशो वर्गः । विलोक्य सर्प पथि निर्विकल्पं निवृत्त्य विश्रम्य शुभं विचित्यं ॥ पाषाणसंस्तंभितकंटकेषु दत्वा पदं यांति विनष्टविघ्नाः ॥ १० ॥ सर्पेषु यो धन्वननामधेयः प्रयाणकाले स तु वामभागे ॥ दृष्टः शुभः सिद्धिकृदुन्नताग्रस्तिष्ठत्यथोद्धाँ यदि राज्यलाभः ॥ ११ ॥ आलंभनामग्रहणेक्षणानि मीनस्य शस्तानि भवति तुल्याः || बिलेशयाः कच्छपनकमुख्या जलौकसो हुंडुभकाश्च सपैः ॥ १२ ॥ ॥ टीका ॥ सर्वे भुजंगाः जात्यैव भयद भवंति ॥ ९ ॥ विलोक्येति ॥ पुमांसः पथि संप विलोक्य निर्विकल्पं संदेहरहितं निवृत्य पश्चाच्चलयित्वा विश्रम्य च शुभं विचित्य पाषाण संस्तंभितकंटकेषु पदं क्रमं दत्वा ये यांति ते विनष्टविना भवंति विनष्टं विघ्नं येषां ते तथोक्ताः ॥ १० ॥ सर्पेष्विति ॥ सर्वेषु यो धन्वननामधेयो वर्तेत धमणि इति प्रसिद्धः स तु प्रयाणकाले प्रयाणसमये वामभागे दृष्टः शुभः श्रेष्ठः उन्नताग्रभागम् उन्नतः अग्रभागो येन स तथा तिष्ठन्सिंद्धिकृत्स्यात् अथ ऊर्द्धः ऊर्द्धगमः यदि तिष्ठति तदा राज्यलाभः स्यात् ॥ ११ ॥ इति सर्पः ॥ आलंभेति ॥ आलंभनामग्रहणेक्षितानि वधनामकथनविलोकितानि आलंभश्च नामग्रहणं च ईक्षितं चेति द्वंद्व : मीनस्य सर्वदा शुभानि भवंति । आलंभपिंजविशरघा ॥ भाषा ॥ अशुभ हैं. गोनाश दवकर राजिल ये सर्पके नाम हैं इनकूं आदिले संपूर्ण सर्प जाति करके ही भयके देबेवारे हैं ॥ ९ ॥ विलोक्येति ॥ पुरुष मार्ग में सर्पकूं देख करके निःसंदेह पीछो चल्यो आवे. फिर विश्रामले करके शुभविचारकरके पाषाणपै वा स्तंभके वा काष्ठपै क्रमसूं पाव धरके फिर गमन करे तो उनके विघ्न नष्ट होय जायँ ॥ १० ॥ सर्पेष्विति ॥ सर्पनमें जो धन्वन नाम सर्प जाकूँ धमनी स्थान कहे हैं वो गमन समय में वामभागमें देखे तो शुभ है जो फनकूं ऊंचो करें दीखे तो सिद्धि को करनेवालो जाननो जो ऊंचेपे बैठा होय तो राज्यको लाभ होय ॥ ११ ॥ इति सर्पः ॥ मीनको वधनाम ग्रहण देखनो ये तीनों शुभ करें, और बिलेन में रहें हैं ते कच्छप मवर Aho! Shrutgyanam Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिपलिकाप्रकरणम् । (४०१) उत्तानसंस्थामविनष्टदेशे कपर्दिकां वीक्ष्य समादधीत ॥ वंदेत मूर्धा परमप्रमोदाददाति सिद्धिं सकलोयमेषु ॥ १३ ॥ ॥ इत्यपदाः॥ इति वसंतराजशाकुनेऽपदफलवर्णनं नाम पंचदशो वर्गः॥१६॥ श्रेयोऽशुभं वाऽवितथं यथेह पिपीलिकानां शकुनेन लोकः॥ जानाति सभ्यग्भुवि सम्मतेन ब्रूमस्तथा संप्रति सारभूतम् ॥१॥ ॥ टीका ॥ तोन्माथवधावपि'इत्यमरः।तथा बिलेशया:विलवासिनःकच्छपनक्रमुख्या जलौकसाजलवासिनाडुडुभकाश्च एते सर्वे सर्पस्तुल्या भवंति। "अलगर्दो जलव्यालः समौ राजिलकुंडभौ"इति हैमः॥१२॥ उत्तानेति।। अविनष्टदेशे शुभस्थाने उत्तानसंस्थामूर्द्धमुखस्थितां कपर्दिकां वीक्ष्य समादधीत गहीत समादधीते इत्यपि पाठः परम प्रमोदान्मूर्धा वदेत सा सकलोयमेषु सकलकार्येषु सिद्धिं ददाति दत्ते । प्रत्यक्षसिद्धिं सकलोद्यमेष्वित्यपिपाठः ॥१३॥ इत्यपदाः॥ इंति वसंतराजशाकुने विचारिताः अपदाः। पंचदशो वर्गः ॥ १५ ॥ श्रेय इति ॥ सांप्रतमिह लोके पिपीलिकानां शकुनेन लोकः श्रेयः शुभमशुभं वा अवितथं सत्यं सम्यग्यथा जानाति तथा वयं सारभूतं ब्रूमः । कीदृशेन शकुनेन ॥भाषा॥ र इनकू आदिले जलवासी डुडुंभक जो सर्प ये सब सर्पकी तुल्य हैं ॥ १२ ॥ उत्तानेति ॥ शुभस्थानमें ऊपर जाको मुख ऐसी कौडी जाकू औधपिडी कहेहैं. और चित्तपडी कहेहैं. वा कौडी कू देखकरके ग्रहण करले फिरवाकू हर्षसूं मस्तक नमाय नमस्कार करै तो वो कौडी संपूर्ण उद्यमनमें सिद्धि करै ।। १३ ॥ इत्यपदाः ॥ ८॥ इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छीधरविरंचितायां वसंतराजभाषा टीकायामपदफलवर्णनं नामपंचदशो वर्गः ॥ १५ ॥ श्रेय इति ॥ या लोकमें मनुष्य मुनिने कयो ऐसो पिपीलिकानको शकुन ता करके शुभ वा अशुभ ये सत्य जानै तैसेही हम सारभूत कहैहैं. पिपीलिकानाम कीडी वा चेट Aho ! Shrutgyanam Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०२) वसंतराजशाकुने-षोडशो वर्गः। अत्यर्थपूर्णे जलकुकसाभ्यां ग्राह्यं गृहे नेष्टमथाप्यनिष्टम् ॥ स्तोकस्थितावस्करनीरदेशे पिपीलिकानां शकुनं गवेष्यम् ॥ ॥२॥ स्थूलास्तथा याः कपिलाः कदाचिदृग्गोचरं यांति वृतेटिकाख्याः॥ विज्ञेन तासां शकुनं गवेष्यं पिपीलिकानामिह नापरासाम् ॥३॥ विनिर्गताः प्राग्गृहगर्भभूमेः कुर्वति शून्यं भवनं घृतेव्यः॥अग्नेविभागे स्वजनागमाय भवंति वृद्धयै दिशि दक्षिणस्याम् ॥४॥ पयोधरो वर्षति यातुधान्यां योषिद्धनाप्तिर्दिशि पश्चिमायाम् ॥ विहाय गेहं गृहिणी प्रयाति विनिर्गताभिर्दिशि मारुतस्य ।। ॥ ॥ टीका ॥ मुनिसम्मतेन मुनिप्रणीतेन ॥ १ ॥ अत्यर्थेति ॥ जलकुक्कसाभ्यां पानीयतुषाभ्यां अत्यर्थपूर्णे गृहे इष्टं शुभमथाप्यनिष्टमशुभं शकुने न ग्राह्यं स्तोकस्थितावस्करनीरदेशे स्तोकस्थितः अवस्करः अवकर कचर इति प्रसिद्धः नीरं च जलं च यत्र एवं. विधे देशे पिपीलिकानां कीकानां शकुनं गवेष्य गवेषणीयम् ॥ २ ॥ स्थूला इति । याः स्थलास्तथा कपिलाः पिंगलाः घृतेटिकाख्या वृतेटिका इति आख्या अभिधानं यासां ताः तथोक्ताः कदाचिदृग्गोचरं यांति विज्ञेन पंडितेन तासां पिपीलिकानामिह शकुनं गवेष्यम् अपरासां न गवेष्यमित्यर्थः ॥३॥ विनिर्गता इति । घृतेश्यः प्राक्पूर्वस्यां दिशि गृहगर्भभूमेः गृहमध्यभूमेः विनिर्गताः निमृताःभवनं शून्यं कुर्वति अग्रेविभागे आग्नेय्यां गेहस्येति शेषःनिर्गता स्वजनागमाय भवंति। गृहस्य दक्षिणस्यां दिशि निःसृताः वृद्धयै भवंति॥४॥ पयोधर इति ॥ यातुधान्यां नैऋत्यां विदिशि वि ॥ भाषा ।। इनको है ॥ १ ॥ अत्यर्थेति ॥ जल और तुष इन करके अत्यंत भरो हुयो घर चामें शम अशभ शकुन नहीं देखनो. और थोडी जगहमें कृडोकचरो जल ये होय तहां कीडीनको शकुन देखनो योग्य है ॥ २ ॥ स्थूला इति ॥ स्थूल होय, कपिल वर्ण जाको होय, घतेटिकावा घीमेलिये जिनके नाम ऐसी दीख जाय तो उनकीडीनको शकुन ढूंढनो योग्यहै, औरनको शकुन नहीं देखनो ॥ ३ ॥ विनिर्गता इति ॥ घृतेटिका घरकी मध्यभूमिसू पूर्व दिशामें निकसै तो सूनो घर करे. जो घरके अग्निकोणमें निकसै तो स्वजन जनको आगम करे. और घरके दक्षिणदिशामें निकसै तो वृद्धि कर ॥ ४ ॥ पयोधर इति ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिपीलिकाप्रकरणम् । ( ४०३ ) कुवति ताः संपदमुत्तरस्यां देशस्य भंगं ककुभीशवत्याम् ॥ ब्रह्मप्रदेश दिनसप्तकेन लाभं पृथिव्या उत योगसिद्धिम् ॥ ॥ ६ ॥ तल्पाश्रयास्तल्पवतो घृतेढ्या मृत्युं रुजं वा जनयंति दीर्घम् || उत्पत्तयेऽनर्थपरंपरायाः स्युर्देहलीदेशविलोक्यमानाः ॥ ७॥ केदाररथ्यानृपदेवगेहचैत्यद्रुमद्यूतसभांतरेषु ॥ दृष्टा घृट्यः खलु चत्वरादौ देशस्यं भंगं जनयंत्यवश्यम् ॥ ८ ॥ ॥ टीका ॥ नगताभिः पयोधरा मेघो वर्षति । पश्चिमायां दिशि विनिर्गताभिः याषिद्धनाप्तिः योषिच्च धनं च तयोः आप्तिः प्राप्तिः भवति । मारुतस्य वायोदिशि विनिर्गताभिः घृतेटीभिः गृहिणी गेहं विहाय त्यक्त्वा प्रयाति ॥ ५ ॥ कुर्वे - तीति ॥ ताः घृतेट्यः उत्तरस्यां विनिर्गताः संपदः कुवैति । ईशवत्यां ककुभि ऐशान्यां दिशि निःसृताः देशस्य भंगं कुर्वेति ब्रह्मप्रदेशे ऊर्द्धप्रदेशे मस्तके इति यावत् । तासां विनिर्गमने दिनसप्तकेन पृथिव्याः लाभं कथयति । उत अथ वा योगस्य सिद्धि कथयतीत्यर्थः ॥ ६ ॥ तल्पाश्रया इति ॥ तल्पाश्रयाः शय्याश्रया विनिर्गता घृतेट्यः तल्पवतः तल्पस्वामिनः मृत्युं दीर्घा रुजं वा जनयति । तथा देहलदेशे विलोक्यमानाः देहल्या उंबुरस्य प्रदेशे दृश्यमानाः अनर्थपरंपरायाः उत्पातश्रेण्याः उत्पत्तये स्युः । “गृहावग्रहणीदेहल्यंबरोदुंबरोंबुराः । इति हैमः॥७॥ केदारेति ॥ केदारःवप्रःरथ्या मार्गः नृपगृहं राज्ञो गृहं देवगृहं प्रासादः चैत्यद्रुमबद्धपीठो वृक्षः ॥ भाषा ॥ 'घरके नैर्ऋत्य कोण में निकसें तो मेघवर्षा करें. पश्चिमदिशा में निकसैं तो स्त्री और धन इनकी प्राप्ति करें, और वायव्यकोणमें निकसें घृतेटिका तो घरकी मालकनी घरकूं छोडकर के चली जाय ॥ ५ ॥ कुर्वतीति ॥ जो वृतेटिका चेटी उत्तर दिशामें निकसैं तो संपदा करें. और ईशान्य दिशा में निकसैं तो देशको भंग करें. ऊर्द्ध प्रदेशमें मस्तक के ऊपर निकसैं तो सात दिनमें पृथ्वीको लाभ अथवा योगकी सिद्धि करें || ६ || तल्पाश्रया इति ॥ जो घृतेटी शय्यामेंसूं निकस तो शय्या के स्वामीकूं मृत्यु वा दीर्घरोग करें. देहलीमें निकसी हुई दीखें तो अनेक उत्पातनकूं प्रगट करें ॥ ७ ॥ केदारेति ॥ खेत मार्ग, राजघर, देवमंदिर, यज्ञमें बद्ध पीठ, वृक्ष, जुवा खेलब्रेकी सभा इनके मध्य में और चौरायेकूं आदिले मार्ग Aho! Shrutgyanam Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०४) वसंतराजशाकुने-षोडशो वर्गः। यदि प्रविश्याज्यघटे घृतेव्यस्तिष्ठत्यहोरात्रकृताधिवासाः ॥ स्वल्परहोभिः कृतसंधिपातंमुष्णंतिचौरा भवनंतदानीम्॥९॥ बयो गृहस्योपरि निःसरंतिरक्ताःपिंपील्योयदि सर्वमर्थम्।। हरंति चौरामरणं भयं वा तज्जायतेऽवश्यमहोभिरल्पैः ॥१०॥ तुल्या निदाघेन भवंति वर्षा विनिर्गतास्त्वंबुघटस्य मूलात्।। धान्यस्य मध्यात्पुनरुद्तासु धान्यापातोऽरुणकीटिकासु११॥ आरनालघटमूलगाः शुभं धान्यवृद्धिमपि धान्यमध्यगाः॥ सूचयंति च महानसोद्गता गेहदाहमाचराद् घृतोटिकाः॥१२॥ ॥ टीका ॥ द्यूतसमादुरोदरपर्षदाः एतेषामितरेतरबंदः । एतदतरेषु एतेषां मध्येषु तथा चत्वरादौ"बहुमार्गी च चत्वरम् इति हैमः।इत्यादौ दृष्टा घृतेट्यः अवश्यं देशस्यभंगंजनयंति । "क्षेत्रे तु वप्रः केदार" इति हैमः॥ ८॥ यदीति ॥ यदि घृतेटयः आज्यघटेघृतकुंभे प्रविश्य अहोरात्रकृताधिवासाःअहोरात्रं यावत्कृतःअधिवासो याभिस्ताः तिष्ठंति तदानीं स्वल्पैरस्तोकैः अहोभिः दिवसः चौराः भवनं गृहं मुष्णंति । कीदृशं कृतसंधिपातं कृतो विहितः शस्त्रादिना संधिपातः खात्रं यस्मिंस्तत्॥९॥वह्वय इति यदि रक्ताःपिपील्यो बढ्यो गृहस्योपरिनिःसरंति बहिः प्रकटी भवंति तदा सर्वमर्थ चौरा हरंतिामरणं तथाभयं वा अर्थाद्हाधिपते अल्पैरहोभिःअवश्यंजायते॥१०॥ तुल्या इति ॥ यदा घृतेट्यः अंबुघटस्य मूलादिनिर्गताः तदा वर्षा निदाधेन ग्रीष्मेण तुल्याः समाना भवंति तु पुनः धान्यस्य मध्यादुद्गतासु निःमृतासु अरुणकीटिकास धान्यार्षपातः स्यान्मूल्यहानिः स्यादित्यर्थः ॥ ११॥ आरनालेति ॥ ॥ भाषा ॥ नमें घृतेटिका दीखे तो अवश्य देशको भंग करें ॥ ८ ॥ यदीति ॥ जो लाल कीडी घीके कुंभमें प्रवेशकरके एक दिन रात्रि वामें स्थित रहें तो थोडेसे दिवसमें चौर घरमें शस्त्रसं खोद संधिकर द्रव्य चुराय ले जाय ॥ ९॥ बढ्य इति ॥ जो लालकीडी बहुत सी घरके ऊपर निकलें तो सब धन चौर ले जांय अथवा घरके स्वामीकू थोडेसे दिनमें भय वा मृत्यु अवश्य होय ॥ १० ॥ तुल्या इति ॥ जो लालकीडी जलके घडाके नीचेसू निकसै तो वर्षा प्रीष्म ऋतुके समान होय फिर धान्यके मध्यमेंसू निकसैं तो धान्यको अर्धपात होय. अर्थात् मोलकी हानि होय ॥ ११ ॥ आरनालेति ॥ जो लालकीडी कांजीके Aho! Shrutgyanam Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिपीलिकाप्रकरणम्। (४०५) तोयपूर्णकलशोझिझतालयाद्भक्तपूर्णपिठराच निर्गताः ॥ निदिशंति कपिलाः पिपीलिका द्रव्यवृद्धिमचिरेण भूयसीम् ॥१३॥ स्वर्णरत्नधनमध्यतो यदा संभवंति सुकृतप्रचोदिताः।।स्वर्णरत्नधनवृद्धिहेतवस्तद्भवंति कपिलाः पिपीलिकाः॥ १४ ॥ ॥ टीका ॥ घृतेटिकाः आरनालघटमूलगाःआरनालघटस्य मूलं गच्छंति ता आरनालघटमलगाःशुभं कुर्वति।तत्र आरनालं कांजिकं धान्यमध्यगाः पुनः अरुणकीटिकाः धान्यस्य वृद्धिं कुर्वति । महानसं पाकस्थानं तत्रोद्गताः निर्गताः पुनः अचिरात्स्वल्पदिनरंव गहदाह सूचयति। पाकस्थानं महानसमिति हैमः॥ १२॥ तायोति ॥ तोयपूर्णैः कलशैः उझिझतो वर्जितो यः आलयो गृहं तस्माद्भक्तपूर्णापिठराच्च भक्तमोदनं तेन पूर्ण यत्पिठरंभाजनविशेषः। 'स्थाल्युखापिठरम्"इति हैमः।कोठीगडु इति कीटिकाशकुनम् प्रसिद्धं तस्माच्च विनिर्गतानि | ईशानकृणि सृताः कपिलाः पिपीलिकाः पूर्वदिशिप्रहर | अ० अ० ४२ युद्ध कहइ ८ ४ भय कहह , आग्नभय कहइ अचिरेण स्तोककालेन भूयसी द्रव्यवृद्धि निर्दिशति कथयति॥ ॥१३॥ स्वर्णेति ॥ यदा स्वर्ण- उत्तरदिशि दक्षिणदिशि रत्नधनमध्यतः सुकृतप्रचोदि. सुख कहइ ७ गृहम् ता: कपिलाः पिपीलिकाःसंभवंति तदा स्वर्णरत्नधनवृद्धिहे. तवस्ता भवंति। कडारःकपिलः पिंगपिशंगौ कपिंगलौ" वायव्यकृणि इधन कहइ ६ , श्री कहइ ५ वस्त्रलाभ कहइ ९ इत्यमरः ॥ १४ ॥ | लाभ कहइ ३ पश्चिमदिशि , नैर्ऋत्यकणि - ॥ भाषा॥ घडाके नीचे होय तो शुभ करें. फिर धान्यमें होय तो धान्यकी वृद्धि करें. जो रसोईमें निकसे तो थोडेसे दिनमें घरमें दाह आंचलगै ॥ १२॥ तोयेति ॥ जलके भरे कलश जहां नहीं होंय वा धरमेंसं वा चावलके भरे पात्रमेंसू निकसी हुई काली कीडी थोडेसे कालमें बहुत सी द्रव्यकी वृद्धि करें ॥ १३ ॥ स्वर्णेति ॥ जो कालीकीडी स्वर्ण रत्न, धन इनके मध्यमेंसं कोई पुण्यके प्रभाव कर निकसैं तो स्वर्णरत्न धन इनकी वृद्धि करें ॥१४॥ Aho ! Shrutgyanam Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०६) वसंतराजशाकुने-सप्तदशी वर्गः। अथेतरा रक्तपिपीलिकाभ्यो नियोति चेदाधकमंतरेण ॥ अंडान्युपादाय पयः पयोदो मुंचेत्तदेति प्रवदंति वृद्धाः॥१५॥ इति वसंतराजशाकुने षोडशो वर्गः ॥ १६॥ कुडयमत्स्य इति योऽभिधीयते पल्लिकेति गृहगोधिकेति च ॥ कालदिकमवशेन निर्मितं तस्य शाकुनमुदीर्यतेऽधुना ॥१॥ सूर्योदये पूर्वदिशि ब्रुवाणा पल्ली भयं जल्पति भूमिपालात।। हुताशभीति प्रहरप्रदेशे मध्यंदिने दूतमुखेन वार्त्ताम् ॥२॥ अथेति ॥ अथ रक्तपिपीलिकाभ्यः इतराः कीटिकाः बाधकमंतरेण कारणव्यतिरेकेण अंडान्युपादाय चेन्नियाँति तदा पयोदो मेघः पयः पानीयं मुञ्चेदिति वृद्धाः प्रवदंति ॥ १५॥ ग्रथांतरे त्वेवं-पिपीलिकायाः दिग्विभागफलं तस्य यात्रोपरि इदम् ॥ इति श्रीवसंतराजटीकायां विचारितपिपीलिकाप्रकरणे षोडशो वर्गः ॥ १६ ॥ अधुनेति ॥ अधुना तस्य शकुनमुदीर्यत अभिधीयते कीदृशं शकुनं कालदि. क्रमवशेन निर्मितं कालश्च दिक्च तयोः क्रमवशेन अनुक्रमवशेन संपादितं यत्तदो नित्याभिसंबन्धात्तस्य कस्यत्याह । यः कुडयमत्स्य इति पल्लिका इति गृहगोधिका इति च अभिधीयते कथ्यते ॥१॥ सूर्योदयेति ॥ सूर्योद्गमे सति पूर्वदिशि ब्रुवाणा पल्ली भूमिपालादाज्ञः भयं जल्पति प्रहरप्रदेशे पूर्वस्यां दिशि हुताशभीतिममिभयं तथा पूर्वस्यामेव मध्यंदिने मध्याह्ने दूतमुखेन वार्ता जल्पतीत्यस्य सर्वत्र ॥ भाषा॥ अथेति ॥लालकीडीनतूं और कीडी कोई कारण विना अंडा लेके निकसे तो मेघ जलकी वर्षा करें. ये वृद्धनको वाक्य है ॥ १५ ॥ प्रथांतरमें कीडिनको दिगविभागको फल यात्राके ऊपस्पै चक्रलिखो है ॥ १६ ॥ इति श्रीजटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधरविरचितायां वसंतराजभाषाटीकायां पिपीलिकाफलविचारो नाम षोडशो वर्गः ॥ १६ ॥ अधुनेति ॥ अब पल्लीको शकुन कालदिशा इनके क्रमकरके कह्यो हुयो हम कहैहैं ॥ १ ॥ सूर्योदयेति ॥ सूर्यके उदयसमयमें पूर्वदिशामें पल्ली बोले तो राजाते भय होय, फिर प्रथम प्रहरमें पूर्वदिशामें बोले तो अग्निको भय होय. और पूर्वदिशामें दूसरे प्रहरमें Aho !Shrutgyanam. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लीविचारप्रकरणम् । . (४०७ ) धनागमः स्यादपरालकाले दिनावसानेऽपि फलं तदेव ॥ आहारकाले विहितस्वरायां पल्लयां भवत्यागमनं नृपस्य । ॥३॥निधानलाभो निशि पूर्वयामे द्वितीययामेऽभिमतार्थ सिद्धिः ॥ युवत्यवाप्तिश्च तृतीययामे तुर्येऽर्थहानिर्विरुतेन पल्लयाः ॥ ४ ॥ आये दिनस्य प्रहरेऽनिभामे प्रमीतवार्ता प्रहरे द्वितीये ॥ मिष्टान्नलाभो गृहगोधिकाया रुतेन लाभो वसुनोऽपराहे ॥५॥ सुखं दिनांते विरुतेन पल्ल्या आहारकालेऽभिमतानलाभः ॥ स्यादग्निभीतिः प्रहरे द्वितीये याम तृतीये द्रविणस्य लाभः ॥६॥ ॥ टीका॥ संबंधः ॥ २॥ धनागम इति ॥ अपराहकाले मध्याह्नोत्तरकाले तृतीयप्रहरे वि. हितस्वरायां पल्लां धनागमः स्यात् । दिनावसानेऽपि संध्यायामपि कृतस्वरायां तदेव फल भवति । आहारकाले विहितस्वरायां पल्लयां नृपस्यागमनं भवति ॥३॥ निधानेति ॥ निशि पूर्वयामे प्रथमप्रहरे पल्लया विरुतेन निधानलाभः स्यात् । द्वितीययामे द्वितीयग्रहरे पल्लया विरुतेन अभिमतार्थसिद्धिः स्यात् । तृतीययामे पल्लया विरुतेन युवत्यवाप्तिर्भवति । तुर्ययामे पल्लयाः विरुतेन अर्थहानिः स्यात् ॥ ॥ ४॥ आये इति ॥ दिनस्याये प्रथमे प्रहरेमिदिशि पल्लया विरुतेन. प्रमीत. वार्ता मृतवार्ता स्यात् । द्वितीयप्रहरे मिष्टान्नलाभः स्यात् । अपराह्ने तृतीययामे गृ. हगोधिकायाः रुतेन जल्पितेन वसुनो धनस्य लाभः स्यात्॥५॥सुखामिति ॥ दिनांते दिनावसाने पल्लया विरुतेन सुखं भवति । आहारकाले अभिमतानलाभः स्यात्। ॥ भाषा ॥ बोले तो दूतके मुखसुं कोई वार्ता सुनै ॥ २ ॥ धनागम इति ॥ तृतीय प्रहरमें पल्ली बोले तो धनको आगमन कहैहैं ऐसो जाननो. चौथे प्रहरमें बोले तोभी धनको आगमन जाननो. और भोजनकरती समयमें बोले तो राजाको आगमन जाननो ॥ ३ ॥ निधानेति ॥ और रात्रिके प्रथम प्रहरमें बोले तो द्रव्यको लाभ होय. दूसरे प्रहरमें पल्ली बोले तो वांछित अर्थकी प्राप्ति होय. तीसरे प्रहरमें बोले तो स्त्रीकी प्राप्ति होय. चौथे प्रहरमें बोले तो अर्थकी हानि होय ॥ ४ ॥ आद्य इंति ॥ दिनके प्रथम प्रहरमें अग्निकोणमें पल्ली बोले तो मरेकी वार्ता होय. दूसरे प्रहरमें अग्निकोणमें बोले तो मिष्टान्नको लाभ होय. तीसरे प्रहरमें बोले तो धनको लाभ होय ॥ ५ ॥ सुखमिति ॥ चौथे प्रहरमें बोले तो Aho! Shrutgyanam Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०८) वसंतराजशाकुने-सप्तदशो वर्गः। चतुर्थयामे दिशि पावकस्य कृतस्वरः किंचिदपूर्वरूपम् ॥ नैमित्तिकानामिह कुड्यमत्स्यः कुतूहलं दर्शयति क्षणेन ॥ ॥ ७ ॥प्रभातकाले दिशि दक्षिणस्यां कार्य शुभं स्याद्विरुतेन पल्ल्याः ॥ बंधवागमः स्यात्प्रहरे दिनस्य मध्यंदिने पण्यसमागमः स्यात् ॥ ८॥ योषापराहे समुपैति कापि दिनावसाने परदारसंगः ॥ आहारकाले सुचिरं गतस्य स्याक्षेमवार्ता प्रियबांधवस्य ॥९॥ ॥ टीका ॥ द्वितीये प्रहरै अग्निभीतिः स्यात्।तथा तृतीये यामे द्रविणस्य धनस्य लाभः स्यात्॥६॥ चतुर्थयामे इति ॥ चतुर्थयामे तुर्यप्रहरे पावकस्य दिशि आमेय्यां कृतस्वरः कुड्यमत्स्यः नैमित्तिकानि किंचिदपूर्वरूपं कुतूहलं क्षणेन दर्शयति ।"माणिक्या भित्तिका पल्ली कुड्यमत्स्यो गृहोलिका गोधिकागोलिके गृहात्" इति हैमः॥७॥ प्रभातकाले इति ॥ प्रभातकाले दक्षिणस्यां दिशि पल्लया विरुतेन कार्य शुभं स्यात् प्रहरे दिनस्य प्रथमप्रहरे बंधवागमः बंधूनां गोत्रिणामागमनं स्यात् । मध्यदिने मध्याह्ने पल्लया विरुतेन पण्यसमागमः स्यात् । “पणितव्य तु विक्रेयं पण्यं सत्यापन पुनः" इति हैमः ॥ ८ ॥ योषेति ॥ अपरादे तृतीयप्रहरे कापि योष ॥ भाषा॥ सुख होय. भोजनके सयय बोले तो वांछित अन्नको लाभ होय. और रात्रिके दूसरे प्रहरमें वा दूसरे प्रहर ताई बोलै तो अग्निको भय होय. तीसरे प्रहरमें बोले तो धनको लाभ होय ॥ ६ ॥ चतुर्थयाम इति ॥ रात्रिके चौथे प्रहरमें अग्निकोणमें बोले तो कोई निमित्तसूं अपूर्व आश्चर्य दीखै ॥ ७ ॥ प्रभातेति ॥ प्रभातकालमें दक्षिण दिशामें पल्ली बोले तो शुभ कार्य होय. दिनके प्रथम प्रहरमें बोले तो बंधु जननको आगमन होय. दूसरे प्रहरमें बालै तो व्यवहारसूं विक्रयके योग्य वस्तुको समागम होय ॥ ८॥ योषेति ॥ तीसरे प्रहरमें बेलि तो कोई स्त्री आवे. चौथे प्रहरमें दक्षिण दिशामें बोले तो पगई स्त्रीको संग होय. भोजनके समयमें दक्षिणमें बोले तो बहुत दिनके गये बंधुकी कुशल बाता Aho! Shrutgyanam Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लीविचारप्रकरणम् । (४०९) यामे द्वितीये स्वजनैर्विरोधं तृतीययामे द्रविणस्य लाभम् ॥ कृतस्वरोजल्पति कुडयमत्स्यो यामे चतुर्थे कलहं महांतम्॥१०॥ पल्ली दिनादा दिशिराक्षसानांकृतस्वरा शंसति कार्यसिद्धिम्॥ विप्रागमं प्राक्तनयामभागे दूतागमं चापिदिनस्य मध्ये ॥११॥ रक्षां तृतीये प्रहरे दिनस्य दिनावसाने च विशेषवार्ताम् ॥ प्रस्वापकाले कलहं रटंती यामे च पांथागमनं ब्रवीति ॥ १२ ॥ द्वितीययामे रुधिरप्रपातो मृत्युस्तृतीये प्रहरे निशायाः॥ व्याधिश्चतर्थे दिाश यातुधान्यां कृतस्वरायांगृहगोधिकायाम्१३ ॥ टीका ॥ स्त्री समुपैति । दिनावसाने परदारसंगः स्यात् । आहारकाले सुचिरं गतस्य प्रियवांधवस्य क्षेमवार्ता कुशलवृत्तिः स्यात् ॥ ९ ॥ यामे इति ॥ द्वितीये. रजन्याः यामे स्वजनैविरोध जल्पति । तृतीययामे द्रविणस्य लाभं जल्पति। चतुर्थे यामे कृतस्वरः कुडयमत्स्यः महांत कलह जल्पति ॥ १०॥ पल्लीति ॥ राक्षसानां दिशि नैर्ऋत्यकोणे दिनादौ प्रभाते कृतस्वरा पल्ली कार्यसिद्धिं शंसतिाप्राक्तनयाम भागे प्रथमप्रहरे पल्ली कृतरवा विप्रागमं तथा दिनस्य मध्ये दूतागमं च शसती. त्यस्योभयत्र संबन्धः॥११॥ रक्षामिति ।। दिनस्य तृतीये प्रहरे रटंती पल्ली रक्षा ब्रवीति च पुनरर्थे दिनावसाने रटंती विशेषवार्ता ब्रवीति। प्रस्वापकाले रदंती कलहं ब्रवीति । तथा निशायाः आद्ययामे पांथागमं गतस्यागमनं ब्रवीतीत्यर्थः ॥१२॥ द्वितीयेति ॥ निशायाः द्वितीये यामे गृहगोधिकायां कृतस्वरायां रुधिरप्रपातः ॥ भाषा॥ होय ॥९॥ याम इति ॥ रात्रिके दूसरे प्रहरमें वा दूसरे प्रहरतक दक्षिणमें बोले तो स्वजन जनन करके विरोध होय. तीसरे प्रहरमें बोले तो धनको लाभ होय. चौथे प्रहरमें बोले तो महान् कलह होय ॥ १० ॥ पल्लीति ॥ प्रभातकालमें नैर्ऋत्यकोणमें पल्ली बोले तो कार्यकी सिद्धि जाननी. प्रथम प्रहरमें नैर्ऋत्यमें बोले तो ब्राह्मणको आगमन होय. दूसरे प्रहरमें बोले तो दतको आगमन जाननो ॥११॥ रक्षामिति ॥ दिनके तीसरे प्रहरमें नैर्ऋत्यमें बोले तो रक्षा जाननी. चौथे प्रहरमें बोले तो विशेष वार्ता होय. सोवती समयमें बोले तो कलह होय . और रात्रिके प्रथम प्रहरमें नैर्ऋत्यकोणमें बोले तो गये पुरुषको, आगमन होय ॥ १२ ॥ द्वितीयेति ॥ रात्रिके दूसरे प्रहरमें नैर्ऋत्यमें बोले तो रुधिरको पात Aho! Shrutgyanam Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१०) वसंतराजशाकुने-सप्तदशो वर्गः। प्रभातकाले ककभि प्रतीच्यामाचार्यवर्यः समुपैत्यपूर्वः । शांतिर्दिनस्य प्रहरप्रदेशे पल्लीरुते मध्यदिनेऽर्थहानिः॥ ॥१४॥ आयाति रौद्रः पुरुषोऽपराहे कुमारिकाभ्येति विकालकाले ॥ भुजिक्रियायां नृपतिप्रसादः पल्लीरुते वह्निभयं प्रदोषे ॥ १५॥ यामे द्वितीये पृथिवीशवार्ता निधानलाभः प्रहरे तृतीये ॥ स्यात्कुडयमत्स्ये रटति प्रतीच्यां निशावसाने वपुषोऽवसानम् ॥१६॥ ॥ टीका ॥ स्यात् । तृतीयप्रहरे कृतस्वरायां पल्लयां मृत्युर्मरणं स्यात् । चतर्थे प्रहरे कृतस्वरायां गृहगोधिकायां व्याधिः स्यादिति प्रत्येकं संबध्यते ॥१३॥ प्रभातकाले इति ।। प्रभातकाले प्रतीच्या पश्चिमायां ककुभि दिशि पल्लीरुते अपूर्वः आचार्यवर्यः समुपैति । दिनस्य आद्यप्रहरे प्रदेशे शांतिर्भवति । मध्यदिने पल्लीरुतेऽर्थहानिः स्यात् ॥ १४ ॥ आयातीति ॥ अपराह्न पल्लीरुते रौद्रः पुरुषः आयाति । विकालकाले च पल्लीरुते कुमारिकाभ्येति। "दिनावसानमुत्सूरो विकालशवलावपि" इति हैमः।तथा भुजिक्रियायां भोजनकाले पल्लीरुते नृपतिप्रसादः स्यात्। प्रदोषेरजनामुखे पल्लीरुते वह्निभयं भवति । प्रदोषप्रथमप्रहरे रजन्या इत्यर्थः प्रदोषो यामिनीमुखम्' इति हैमः ॥१५॥ यामे इति ॥ निशाया द्वितीये यामे कुडयमत्स्ये प्रतीच्या रटति सति पृथिवीशवार्ता स्यात् । तथा तृतीये प्रहरे कुडयमत्स्ये पश्चि ॥ भाषा॥ होय. तीसरे प्रहरम नैर्ऋत्यमें बोले तो मृत्यु होय. चौथे प्रहरमें नैर्ऋत्यकोणमें बोले तो व्याधि होय ॥ १३ ॥ प्रभातेति ॥ प्रभातकालमें पश्चिमदिशामें पल्ली बोले तो अपूर्व आचार्यनमें श्रेष्ठ आवै दिनके प्रथम प्रहरमें पश्चिममें बोले तो शान्ति होय. दूसरे प्रहरमें पश्चिममें बोले तो अर्थकी हानि होय ॥ १४॥ आयातीति ॥ तीसरे प्रहरमें पश्चिममें वोले तो कोई क्रूर पुरुष आवे. चौथे प्रहरमें पश्चिममें बोले तो कुमारिका आवे भोजन. कालमें पश्चिममें बोले तो राजाको अनुग्रह होय. प्रदोषकालमें पश्चिममें बोलें तौ अग्निका भय होय. प्रदोष नाम रात्रिके प्रथम प्रहर कोई है ॥ १५॥ यामे इति ॥रात्रिके दूसरे प्रहरमें पश्चिमने बोले तो राजाकी वार्ता होय. और तीसरे प्रहरमें पश्चिममें बोले तो धनको Aho ! Shrutgyanam Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लीविचारप्रकरणम्। (४११) स्याचौरवार्ता दिशि मारुतस्य रुतैः प्रभाते गृहगोधिकायाः॥ अभ्येति भृत्यःप्रहरे प्रवृत्ते मध्यंदिने भूपतिरभ्युपैति ॥ १७॥ विद्वान्समभ्येत्यपरालकाले विघ्नात्परं दूत उपैति सायम् ॥ वृद्धिः प्रदोषे प्रहरे द्वितीये सिध्यत्यभीष्टं रटितेन पल्लयाः॥१८॥ यामे तृतीये नियतं निशायाः शुभावहा काप्युपयाति वार्ता ॥ निशावसानेऽभिमतार्थलाभः स्यात्कुड्यमत्स्यारटितेन पुंसाम्१९ ॥ टीका ॥ मायां रटति :निधान लाभः स्यात् । कुड्यमत्स्ये निशावसाने प्रतीच्यां रटति सति वपुषः अवसानं विनाशः स्यात् ।। १६ ॥ स्यादिति ॥ प्रभाते प्रगे मारुतस्य दिशि वायुकोणे गृहगोधिकायाः रुतैः शब्दैः चौरवार्ता स्यात्। तथा प्रहरे प्रवृत्ते मारुतस्य दिशि गृहगोधिकायाः रुतै त्यः सेवकः अभ्येति समायाति । मध्यंदिने मारुतस्य दिशि गृहगोधिकाया रुतैः भूपतिरभ्युपैति ॥ १७॥ विदानिति ॥ अपराह्नकाले तृतीयपहरे मारुतस्य दिशि पल्लया रटितेन विद्वान्कश्चित्पंडितः समभ्येति । सायं संध्यायां मारुतस्य दिशि पल्लया रटितेन विघ्नात्परं विनानंतरं दूतः उपैति आगच्छति । प्रदोषे मारुतदिशि पल्लया रटितेन वृद्धिर्भवति । रजन्याः प्रहरे द्वितीय मारुतदिशि पल्लया रटितेन अभीष्टं सिध्यति ॥१८॥ यामे इति ॥ निशायाः तृतीये यामे मारुतदिशि पल्लया रटितेन शुभावहा नियतं कापि वार्ता उपयाति। निशावसाने मारुतदिशि पुनः कुड्यमत्स्यारटितेन पुंसामभिमताथलाभः स्यात् ॥ १९ ॥ ॥ भाषा॥ लाभ होय. चौथे प्रहरमें पश्चिममें बोले तो देहको नाश होय ॥ १६ ॥ स्यादिति ॥ प्रभातकालमें वायुकोणमें पल्ली बोले तो चौरकी वार्ता होय. दिनके प्रथम प्रहरमें वायुकोणमें बोले तो चाकर सेवक आवै. दूसरे प्रहरमें मारुतकोणमें बोले तो राजा आवै ॥ १७ ॥ विद्वानिति ॥ तीसरे प्रहरमें वायव्य दिशामें बोले तो कोई पंडित विद्वान् आवै. सायंसंध्यामें वायव्यकोणमें बोले तो पहले विघ्न होय पीछे कोई दूत आवै, और रात्रिके प्रथम प्रहरमें वायव्यकोणमें बोले तो वृद्धि होय. रात्रिके दूसरे प्रहरमें वायव्यकोणमें बोले तो वांछित सिद्धि होय ॥ १८ ॥ यामे इति ॥ रात्रिके तीसरे प्रहरमें वायव्यकोणमें बोले तो कोई शुभकी करबेवाली वार्ता आवे. चौथे प्रहरमें वायव्यकोणमें बोले तो पुरुषनकृ. Aho! Shrutgyanam Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१२ ) वसंतराजशाकुने - सप्तदशो वर्गः । दिश्युत्तरस्यामुदिते दिनेशे पल्ली रटंती इविणारामाय ॥ मित्रागमाय प्रथमे च यामे हुताशभीत्यै दिवसस्य मध्ये ॥ २० ॥ अथापराह्णेभिमतोऽभ्युपैति प्रियो जनोऽभ्येति च वासरांते ॥ निशामुखे शिष्टसमागमः स्याद्यामे कलिः स्याद्विरुतेन पढ्याः ॥ २१ ॥ निधानलाभः प्रहरे द्वितीये स्याच्चौरभीतिः प्रहरे तृतीये ॥ निशावसानेऽपि च भाषमाणे स्यात्कुड्यमत्स्ये विपुला समृद्धिः ॥ २२ ॥ प्रातर्दिशीशाननिषेवितायां पीरुतैः सिध्यति चिंतितोऽर्थः ॥ दिनाद्ययामे स्वजनोऽभ्युपैति वृद्धिर्भवेद्वासरमध्यभागे ॥ २३ ॥ ॥ टीका ॥ दिशीति ॥ उदिते दिनेशे उत्तरस्यां दिशि पल्ली रटंती द्रविणागमाय भवाते । प्रथमे 'च यामे उत्तरस्यां रटंती पल्ली मित्रागमाय स्यात् । तथा दिवसस्य मध्ये मध्याह्नका'ले उत्तरस्यां रटंती पल्ली हुताशभीत्यै अभिभयाय भवति ॥ २० ॥ अथेति ॥ अथ अपराह्णे तृतीयप्रहरे उत्तरस्यां पल्लयाः विरुतेन अभिमतः अभ्युपैति । वासरांते च सायमुत्तरस्यां दिशि पल्लया विरुतेन प्रियो जनः अभ्युपैति । तथा निशामुखे प्रदोषे उत्तरस्यां पल्ल्या विरुतेन शिष्टसमागमः स्यात् । निशायाः आद्ये यामे उत्तरस्यां पल्लयाः विरुतेन कलिः स्यात् ॥ २१ ॥ निधानेति ॥ निशायाः प्रहरे द्वितीये उत्तरस्यां कड्यमत्स्ये भाषमाणे निधानलाभः स्यात् । निशायाः प्रहरे तृतीये उत्तरस्यां कुड्यमत्स्ये भाषमाणे चौरभीतिः स्यात् । निशावसानेऽपि च उत्तरस्यां कुड्यमत्स्ये भाषमाणे विपुला समृद्धिः स्यात् ॥ २२ ॥ प्रातरिति ॥ प्रातः ॥ भाषा ॥ बांछितफलको लाभ होय ॥ १९ ॥ दिशीति सूर्यके उदय समय में पल्ली उत्तरदिशा में बाल तो द्रव्यको आगमन होय. दिनके प्रथम प्रहर में पल्ली बोले तौ मित्रको आगमन होय. दूसरे प्रहरमें उत्तर में बोलै तो अग्निको मय होय ॥ २० ॥ अथेति ॥ तीसरे प्रहरमें उत्तरमें बोले तो वांछित पुरुष आवे चौथे प्रहरमें उत्तर में बोलै तो प्यारो जन आवे और प्रदोष समय में उत्तर में बोले तो उत्तम जनको आगमन होय. रात्रिके प्रथम प्रहरमें उत्तरमें बोलै तो कलह होय ॥ २१ ॥ निधानेति ॥ रात्रिके दूसरे प्रहर में उत्तर में बोले तो धनको लाभ होय. रात्रिके तीसरे प्रहरमें उत्तर में बोले तो चौरको भय होय, चौथे "प्रहर में उत्तरमें बोलै तो बहुत समृद्धि होय ॥ २२ ॥ प्रातरिति ॥ प्रभात कालमें ईशान Aho! Shrutgyanam Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लीविचारप्रकरणम् । (४१३) रक्षापरालेऽस्तमयेऽभ्युपैति कन्यार्थलाभोऽभ्यवहारकाले ॥ वृद्धिस्तथाये प्रहरे निशायाः कन्यागमः स्यात्प्रहरे द्वितीये ॥२४॥ भयं तृतीये प्रहरे निशांते रौद्रं भवत्याराटितेन पल्लयाः ॥ ब्रह्मप्रदेशेऽभ्युदिते दिनेशे नरेशवार्ताश्रवणं भणंति ॥ २५ ॥ ब्रह्मप्रदेशेऽहनि पूर्वयामे स्याहृतवार्ताकरणाय पल्लयाः ॥ दिनस्य मध्ये कलहाय नादः स्यादन्न लाभाय तथापराह्ने ॥२६॥ ॥ टीका ॥ प्रभाते ईशाननिषेवितायां दिशिईशान्यां पल्लीरुतैःचिंतितोऽर्थःसिध्यति।तथा दिना. द्ययामे ईशान्यां पल्लीरुतः स्वजनः अभ्युपैति । वासरमध्यभागे मध्याह्न देशे पल्लीरुतैर्वृद्धिर्भवेत् ॥ २३ ॥ रक्षेति ॥ अपराहे ईशान्यां पल्लीरुतैः रक्षा स्यात् । अस्तमये सायमीशान्यां पल्लीरुतैः कन्या अभ्युपैति।अभ्यवहारकाले ईशान्यां दिशि पल्लीरुतैः अथलाभः स्यात् । तथा निशायाः आये प्रहरे ईशान्यां पल्लीरुतैः वृद्धिः स्यात् । द्वितीये प्रहरे ईशान्यां पल्लीरुतैः कन्यागमः कन्याया आगमनं स्यात् ॥२४॥भयमिति ॥ निशायास्तृतीये प्रहरे ईशान्यां पल्ल्याः आरटितेन भयं भवति निशान्ते ईशान्यां पल्ल्याः आरटितेन रौद् भवति।तथा अभ्युदिते दिनेशे ब्रह्मप्रदेश मूनि पल्ल्याः रुदितेन नरेशवार्ताश्रवणं भणंति कथयति॥२५॥ ब्रह्मप्रदेशे इति॥ अहनि पूर्वयामे ब्रह्मप्रदेशे मूर्धनि पल्ल्याः नादः दूतवार्ता करणाय भवति तथा दि. नस्य मध्ये मूर्धनि पल्ल्या नादः कलहाय भवति । तथा अपराहे मूर्धनि पल्ल्या ना ॥ भाषा॥ दिशामें पल्ली बोले तो चिंतित अर्थ सिद्ध होय. दिनके प्रथम प्रहरमें ईशानमें बोले तो स्वजन जन आवै. दूसरे प्रहरमें ईशानमें बोले तो वृद्धि होय ॥ २३ ॥ रक्षेति ॥ तीसरे प्रहरमें ईशानमें बोले तो रक्षा होय. चौथे प्रहरमें ईशानमें बोले तो कन्या आवे. भोजनसमयमें बोले तो अर्थको लाभ होय. और रात्रिके प्रथम प्रहरमें ईशानमें बोले तो वृद्धि होय. रात्रिके दूसरे प्रहरमें ईशानमें बोले तो कन्याको आगमन होय ॥२४॥ भयामिति ॥ रात्रिके तीसरे प्रहरमें ईशानमें बोले तो भय होय. रात्रिके चौथे प्रहरमें ईशानमें बालै तो रौद्रभयानक कछु होय.. सूर्योदयके समयमें मस्तकके ऊपर पल्ली बोले तो राजाकी वार्ता श्रवण होय ॥२६॥ ब्रह्मेति ॥ दिनके प्रथम प्रहरमें मस्तकके ऊपर पल्ली बोलें तो दूतकी वार्ता होय. दिनके दूसरे प्रहरमें. मस्तकपै पल्ली बोले तो कलह होय. तीसरे प्रहरमें पल्ली बोले तो अन्नको लाभ होय ॥२६॥ Aho ! Shrutgyanam Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराज शाकुने- सप्तदशो वर्गः । विप्रागमायाभ्यवहारकाले प्रनष्टलाभाय च पूर्वयामे ॥ मध्ये च भूपस्मरणाय रात्रेरुल्का प्रपाताय तृतीययामे ॥ २७ ॥ ब्रह्मप्रदेश प्रहरे चतुर्थे शुभाय शब्दो गृहगोधिकायाः ॥ शुभावदा शांतदिशि प्रशांता दीप्ता प्रदीप्ते शुभदा न पछी ॥ २८ ॥ समागमात्संगममाह पल्ली युद्धेन युद्धं विरहं वियोगात् ॥ यच्छत्यवश्यं सुरतप्रसक्ता पुंसां वरस्त्रीरत के लिलाभम् ॥ २९ ॥ वामः प्रयाणे यदि कुड्यमत्स्यः प्रवेशकाले यदि दक्षिणः स्यात मनोरथादप्यधिकानि तूर्ण सिध्यंति कार्याण्यखिलानि पुंसाम् ३० ॥ टीका ॥ ( ४१४ ) द: अन्नलाभाय स्यात् ॥ २६ ॥ विप्रेति ॥ ब्रह्मप्रदेशे अभ्यवहारकाले भोजनकाले पल्ल्या नादः विप्रागमाय स्यात् । रजन्याः पूर्वयामे मूर्धनि पल्ल्याः नादः प्रनष्टलाभाय स्यात् । रात्रेः मध्ययामे मूर्द्धनि पल्लीनादः भूपस्मरणाय भवति । तृतीये यामे ब्रह्मप्रदेशे पल्लीनादः उल्कापाताय स्यात् ॥ २७ ॥ ब्रह्मेति ॥ चतुर्थे प्रहरे ब्रह्ममदेशे गृहगोधिकायाः शब्दः शुभाय स्यात् । शांतदिशि प्रशांता पल्ली शुभावहा भवति । प्रदीप्ते दीप्ता पल्ली न शुभदा स्यात् ॥ २८ ॥ समागमादिति ॥ समागमात्परस्परसंगमात्पल्ली संगममाह । युद्धेन युद्धम् । वियोगाद्विरहमाहेति संबंधः सुरतप्रसक्ता मैथुनासक्ता पुंसां वरस्त्रीरतकेलिलाभं वरस्त्रियाःप्रधानयोषितःरतकेलिः निधुवनक्रीडा तस्याः लाभमवश्यं यच्छति ॥ २९ ॥ वाम इति ॥ यदि कुड्यमत्स्यः प्रयाणे 1 ।। भाषा ॥ विप्रेति || भोजन समय में मस्तक के ऊपर पल्ली बोले तो ब्राह्मणको आगमन होय. आर रात्रि के प्रथम प्रहरमें मस्तकपै बोले तो नष्ट हुयेको लाभ होय. रात्रिके दूसरे प्रहर में बोले तो राजाको स्मरण होय. रात्रिके तीसरे प्रहर में मस्तक के ऊपर बोले तो उल्कापात होय ॥ २७ ॥ ब्रह्मेति ॥ रात्रि के चौथे प्रहरमें मस्तकके ऊपर पली बोले तो शुभ होय. और शांत दिशा में प्रशांत पल्ली होय तो शुभ करें और दीप्तदिशा में दीप्त पल्लो होय तो शुभकी देने - वारी नहीं जाननी ॥ २८ ॥ समागमादिति ॥ जो पलीनको परस्पर समागम देखे तो वाकूं भी संगम होय जो युद्ध करती दीखे तो युद्ध होय. जो पलीको वियोग दीखे बाकूं भी विरह होय. जो पल्लो संभोग में आसक्त होय तो पुरुषनकूं वाम इति ॥ जो पल्लो गमनसमय में वांई होय श्रेष्ठ स्त्री सूं रतिक्रीडा प्राप्त होय ॥ २९ ॥ प्रवेशसमय में जेमने भाग में होय तो पुरु Aho! Shrutgyanam Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लीविचारप्रकरणम् । (४१५) पल्लिका दिशति दक्षिणाययोरर्थहानिमशुभं विलोकिता ॥ अध्वगस्य शुभलाभदायिनी वीक्षिता भवति पृष्ठवामयोः॥ ॥ ३१ ॥ उन्नतं समधिरुह्य दक्षिणं वामतोऽवतरति प्रियैपिणी ॥ पल्लिका यदि तदा प्रवासिभिलभ्यते झटिति राज्यमक्षयम् ॥ ३२॥ ॥ टीका ॥ वामः स्यात्प्रवेशकाले च यदि दक्षिणः स्यात्तदा पुंसां मनोरथादप्यधिकानि का णि अखिलानि समस्तानि तूर्ण शीघ्र सिध्यंति ॥ ३० ॥ पल्लोति ॥ पल्लिका दक्षिणाग्रयोः दक्षिणः अनुलोमप्रदेशः अग्रं पुरःप्रदेशः अनयोईद्वः तयोविलोकितां दृष्टा अर्थहानिमशुभं च दिशति गंतुारंति शेषः । पृष्ठवामयोः वीक्षिता अध्वगस्य शुभलाभदायिनी भवति ॥ ३१ ॥ उन्नतमिति ॥ यदि पल्लिका दक्षिणमुन्नतं समधिरुह्य प्रियैषिणी वामतः वामदिग्विभागे अवतरति तदा प्रवासिभिःझटिति शीघ्र राज्यमक्षयमविनाशिलभ्यते ॥ ३२ ॥ अस्या वारादि स्पर्शनविचारस्तु ग्रथांतरादेव ज्ञेयः तद्यथा। “अथातः संप्रवक्ष्यामि शृणु शौनक यत्नतः॥पल्लीप्रपतनं चैव सरटस्या धिरोहणम ॥१॥ प्रतिपद्रोगसंप्राप्तिद्धितीयायां तथैव च ॥ तृतीयायां भवेल्लाभश्चतु झं रोग एव च ॥२॥ पंचम्यां चैव षष्ठयां च सप्तम्यां स्याइनागमः ॥ अष्टम्यां ॥ भाषा॥ पनकं मनोरथसं भी अधिक समस्त कार्य शीघ्र सिद्ध होय ॥ ३० ॥ पल्लीति ॥ गमनकर्ताक पल्ली जेमने भागमें वा अग्रभागमें दोखै तो अर्थकी हानि और अशुभ करै. जो मार्गीकू पीटपीछे वा वामभागमें दीखै तो शुभ देवै ॥ ३१ ॥ उन्नतमिति ॥ पल्ली गमनका जेमनी दिशामें ऊंची चढती दखै तो प्रियकरै, वामभागमें नीचे उतरती दीखै तो गमनकरवेवाले पुरुषकं शीघ्रही अक्षय राज्य प्राप्त होय ॥ ३२ ॥ अब पल्लोके वारके तिथिके अंगके नक्षत्रके लग्नके स्थानके फल और ग्रंथसूं कहैहैं ।। सूतजी शौनकजीसू कहैं हैं ॥ शौनक ! पल्ली जो छपकली वा छाप या नामसूं प्रसिद्ध है. याको पडनो, और शरट जो किरकेंटां ताको चढनो इनको फल हम कहेहैं सो तुम सुनो ॥ १॥ पडवामें पल्लीको पतन रोग करै. दूजमें पल्लीको पतन रोग कर. तीजमें पल्लीको पतन लाभ करै. चौथमें पल्लीको पतन रोग करै ॥ २ ॥ पंचमीमें, छठमें, सप्तमीमें पलीको पतन धनको आगमन करै. अष्टमी Aho! Shrutgyanam Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१६ ) वसंतराजशाकुने- सप्तदशो वर्गः । ॥ टीका ॥ च नवम्यां च दशम्यां मरणं ध्रुवम् ॥ ३ ॥ एकादश्यां पुत्रलाभो द्वादश्यां धनसंपदः ॥ त्रयोदश्यां भवेद्धानी रत्नहानिः शिवाहनेि ॥ ४ ॥ पौर्णमास्याममाय बन्धुहानिर्धनक्षयः । सोमशुक्रबुधगुरुवाराः शुभकराः सदा ॥ ५ ॥ ॥ इति तिथिवारफलम् ॥ अश्विनी क्षेममारोग्यं भरणी रोगमेव च । कृत्तिका धनहानिं च संपदो रोहिण मृगे ॥ ६ ॥ आर्द्रा मृत्युभयं कुर्यात्पुष्यश्चव पुनर्वसुः ॥ धनलाभं प्रकुरुते सार्पे च मरणं ध्रुवम् ॥ ७ ॥ मघा क्षेमकरी प्रोक्ता तथा पूर्वोत्तरा सदा । हस्तचित्रा भवेन्नित्यं स्वाती शुभकरा पुनः ॥ ८ ॥ विशाखा धननाशाय मैत्र्यां स्याद्वाज्यमेव च ॥ ज्येष्ठा च मृत्यवे प्रोक्ता मूलं चाषाढिकाद्वयम् ॥ ९ ॥ मृत्युंकरा धनिष्ठा च श्रवणे राज्यमेव च ॥ शतभिक्च तथा प्रोक्ता पूर्वाभाद्रपदोत्तरा ॥ १० ॥ कांचनं पौष्ण आयुरारोग्यमेव च । पल्लीप्रपतनं यस्य सरटस्याधिरोहणम् ॥ ११ ॥ ॥ भाषा ॥ नामी दशमी इनमें पल्लोको पतन मरण करें ॥ ३ ॥ ग्यारसमें पल्लीको पतन पुत्रलाभ करें. द्वादशी में पल्लीको पतन धनसंपदा करे. त्रयोदशीमें पल्लीको पतन हानि करे. चौदसमें पलोको पतन रत्नकी हानि करे ॥ ४ ॥ पौर्णमासी अमावास्या में पल्लीको पतन बन्धूनकी हानि, धनको क्षय करे. और चन्द्रवार, शुक्रवार, बुधवार, गुरुवार ये चार वार शुभ करबेवाले सदा जानने चाहिये ॥ ५ ॥ ॥ इति तिथिवारफलम् ॥ अथ नक्षत्रफलम् || अश्विनीमें पल्ली पडै तो क्षेम आरोग्य होय. भरणीमें पडे तो रोगकरै.. कृत्तिकामें पडे तो धनकी हानि करे. रोहिणी मृगशिर इनमें पडे तो संपदा होय ॥ ६ ॥ आर्द्रामें पडै तो मृत्यु भय करें, पुष्य, पुनर्वसु इनमें पडे तो धनको लाभ करै. आश्लेषामें पडे तो मरण निश्चय होय ॥ ७ ॥ मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी इनमें पडे तो कल्याण करे. और हस्त चित्रा स्वाती इनमें पडै तो शुभ करै ॥ ८ ॥ विशाखा में पडै तो धनको नाश करै. अनुराधा में पडे तो राज्य होय, ज्येष्ठामें पडे तो मृत्यु करे. मूल पूर्वापाढा उत्तराषाढा इनमें पडे तो मृत्यु करे ॥ ९ धनिष्टामें पडे तो मृत्यु करै. श्रवण में पडै तो और शतभिषा पूर्वाभाद्रपदा उत्तराभाद्रपदा इनमें पडै तो राज्य होय ॥१० ॥ रेवती नक्षत्र में पल्ली पडे तो आयु, आरोग्य, सुवर्ण इनको लाभ होय ॥ ११॥ Aho! Shrutgyanam Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लीविचारप्रकरणम् । (४१७) ॥ टीका ॥ लये मेषे शुभं यस्य वृषे च पशुनाशनम् ।मिथुने रोगसंप्राप्तिः कर्की हैहय उच्यते॥१२॥ सिंहे सत्पुत्रलाभश्व कन्यालमे धनक्षयः । तुलाल्योश्च धनुष्युक्तो वस्त्र. लाभो ध्रुवं नृणाम् ॥ १३ ॥ मकरे धनलाभं च कुंभे हानि विनिर्दिशेत् ॥ मीने च शोकसंतापः पल्लीप्रपतनाद्भवेत् ॥ १४ ॥ ॥ इति लमफलम् ॥ शीर्षे राज्यं श्रियोऽवाप्तिर्भाल ऐश्वर्यवर्धनम् ।कर्णयोर्भूषणप्राप्तित्रयोर्भयदर्शनम्॥ ॥ १५॥ नासिकायां तु सौभाग्यं वक्रे मिष्टान्न भोजनम् ॥ कंठे नित्यं प्रियावाप्तिः स्कंधयोर्विजयी भवेत् ॥ १६ ॥धनलाभो बाहुयुग्मे करयोस्तु व्ययस्तथा । स्तनयुग्मे तु सौभाग्यं हृदि सौख्यस्य वर्धनम् ॥ १७ ॥ कुक्षौं सत्पुत्रलाभश्च नाभौ सौख्यप्रवर्धनम्।।पृष्ठे नित्यं महालाभापार्श्वयोर्बन्धुदर्शनम्॥१८॥कट्योईयोर्वस्त्रलाभोगु ॥ भाषा॥ अथ लमफलम । मेष लग्नमें पल्ली पडे तो शुभ होय, वृषलग्नमें पडे तो पशूको नाश होय. मिथुन लग्नमें पडे तो रोगकी प्राप्ति होय. कर्कलग्नमें पडे तो हैहयको लाभ होय ॥ १२ ॥ सिंहलग्नमें पल्ली पडे तो सत्पुत्रको लाभ होय. कन्या लग्नमें पडे तो धनको क्षय होय. तुला, वृश्चिक, धन इन लग्नमें पडे तो धनको लाभ होय ॥ १३ ॥ मकरमें पल्ली पडे तो धनलाभ होय. कुभलग्नम पडे तो हानी होय. और मीनलग्नमें पल्ली पड़े तो शोक, संताप होय ॥ १४ ॥ इति लग्रफलम् ॥ अथांगस्थानफलम् ॥ मस्तकपै पल्ली पडै तो राज्य और श्री प्राप्ति होय. ललाटमें पडै तो ऐश्चर्यकी वृद्धि होय. कर्णनपै पडै तो भूषणकी प्राति होय, नेत्रनमें पड़े तो भयकी प्राप्ति होय ॥ १५ ॥ नासिकापै पडे तो सौभाग्य होय. मुखपै पडै तो मिष्टान्नभोजन होय. कंठप पडे तो नित्य प्रियकी प्राप्ति होय. कंधापै पडै तो विजय होय ॥ १६ ॥ दोनों भुजानपै पडै तो धनको लाभ होय. हाथपै पड़े तो खर्च बहुत होय. दोनों स्त. ननपै पडै तो सौभाग्य होय. हृदयपै पडै तो सौख्य बढावे ॥ १७॥ कुंखपै पडै तो सत्पुत्रको लाभ होय. नाभिपे पडै तो सौख्य बढावे. पीठपै पडै तो महान् लाभ होय. दोनों पसवाडेनमें पडै तो बंधुको दर्शन होय ॥१८॥ दोनों कटिभागपै पडै तो वस्त्रको लाम होय, Aho! Shrutgyanam Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१८) वसंतराजशाकुने-सप्तदशो वर्गः। ॥ टीका ॥ ह्ये मित्रसमागमः । जंघयोरर्थहानिः स्याद्गुदे रोगभयं भवेत् ॥ १९ ॥ ऊरुयुग्मे वाहनाप्तिर्जानुयुग्मेऽर्थसंग्रहः । नीरोगी जंघयोश्चैव पादयोर्धमणं भवेत् ॥२०॥ ॥ इति स्थानफलम् ॥ पतनानंतरं यस्य रोहणं यदि जायते।पतने फलमुत्कृष्टं रोहणे निष्फलं भवेत्॥ ॥२१ ॥ रोहणे चोद्धवक्रे च स्कंधे बक्र प्रपातनम् । भवेद्यदि सुशीघ्रण तत्फलं जायते ध्रुवम् ॥ २२ ॥ मृत्युयोगे दग्धदिने वारे च यमघंटके । चंद्रेश्ष्टमस्थे धनगे जन्म:विषनाडिके ॥ २३ ॥ क्रूरग्रहे क्रूरलमे क्रूरै च यदि जायते । अष्टमस्थे क्रूरयुते विष्टिवैधृतिदूषिते ॥ २४॥ दुनिमित्ततया ज्ञाते निष्फला जायते ध्रुवम् ।स्पशमात्रे तयोः सद्यः सचैलं स्नानमाचरेत्॥२५॥सद्यो दानं विजानीयात्तिलमाषं च दक्षिणा।तत्सरूपं च यःशक्या दद्याच्च फलसार्पिषम्।२६पंचगव्यं तुसंप्राश्य कुर्यादेवावलोकनम्।शास्त्रस्य वचनं कुर्याद्यदीच्छेदात्मनःशुभम् ॥२७॥इति पल्लीविचारः। ॥ भाषा ॥ गुह्यस्थानपै पडै तो मित्रको समागम होय. जंघानपै पड़े तो अर्थकी हानि होय. गुदापै पडै तो रोगभय होय ॥ १९ ॥ दोनों घोटूनपै पडै तो वाहनकी प्राप्ति होय. जानु जो पीडुरी तापै पडै तो धनको संग्रह होय. जंघानके ऊपर पडै तो, निरोगी होय, पाँवनके ऊपर पडै तो भ्रमण करावै ॥ २० ॥ ॥ इति शरीरस्थानफलम् ॥ जाके देहपै पल्ली पडै पडकर फिर अंगपै ऊंची चढ जाय तो पडबेके फल तो उत्कृष्ट और चढवेको फल निष्फल है ॥ २१ ॥ ऊपरमुखपै कंधापै चढजाय तो निष्फल और इनपै पतन होय तो फल शीघ्र होय ॥२२॥ मृत्युयोगमें दग्धदिनमें वा वारमें यमघंटमें आठमें चंद्रमामें जन्मनक्षत्रमें ॥ २३ ॥ क्रूर ग्रहमें क्रूरलग्नमें आठमें क्रूरग्रहमें भद्रामें वैधतिमें ॥ २४ ॥ या करके इन दुनिमित्तनमें याको फल निष्फल होय जाय निश्चय या स्पर्शसं तत्काल सचैल वस्त्रसहित स्नान करे ॥ २५ ॥ फिर तिल उडद दक्षिणा इनको दान करै पल्लीको स्वरूप सुवर्णको बनायकरके फल घृतसहित दान करै।।२६॥पंचगव्य प्राशन कर, फिर देव विष्णुको दर्शन करनो. जो अपनो शुभ इच्छा करै तो या रीतिसूं शास्त्रको वचन करे॥२७॥ Aho! Shrutgyanam Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लीविचारप्रकरणम् । ॥ टीका ॥ ( ४१९ ) श्रीरामो जयति ॥ पुनर्ग्रथांतरात्पल्लीविचारो यथा । प्रभाते द्वारमुद्घाटयतां परि पल्ली दृश्यते तदा प्राघूर्णका आयांति १ द्वारशाखोपरि आरोहति तदाऽथ लाभं कथयति २ पादे आरोहति गमनं कथयति ३ बहिर्गच्छति राजभयं कथयति ४ धूमस्थाने यांती अग्निभयं कथयति ५ ॥ इति प्राभातिकचेष्टा ॥ पल्लयां शिरसि पतत्यां श्रीमतां लक्ष्मीर्नश्यति । दरिद्राणां तु दारिघं नश्यति १ कष्टपतितानां मस्तके पतति कष्टं याति २ पृष्ठे पतति चात्र मृत्युवार्त्ता आयाति ३ अग्रे उत्तरति तदाऽभीष्टलाभ कथयतेि ४ दक्षिणांगे गलकोपरि पतंती तदा मित्रमेलनं स्यात् ५ हस्तोपरि पतंती अर्थलाभाय स्यात् ६ पिचंडिकोपरि पतिता गमनाय स्यात् ७ पिचंडिकात उपरि पतंती गच्छन्ती शुभगमनं ब्रूते ८ पिचंडि - कातो नीचैरुत्तरंती अशुभगमनं ब्रूते ९ पुहंचकोपरि पतंती राजमुद्रालाभं दिशति १० ॥ भाषा ॥ अब और ग्रंथांतरनको पल्ली विचार कहें हैं. प्रभातकालमें द्वारो खोलते ही पल्ली ऊपर दांखे तो कोई अतिथि आवे ॥ १ ॥ द्वारेकी चौखट चढती दीखै तो शब्द करै तो अर्थका लाभ होय ॥ २ ॥ नीचे पाँवनमें शब्द करें वा चढजाय तो गमन करावे ॥ ३ ॥ द्वारके बाहर निकल जाय तो राजभय करावे ॥ ४ ॥ जो धूमके स्थानमें चली जाय तो अग्निको भय करे ॥ ५ ॥ प्रभातकालकी चेष्टा कही, अब देहकी चेष्टा कहैं हैं. जो पल्ली धनमानके मस्तक पडै तो वांकी लक्ष्मी नष्ट होय जाय । जो दरिद्रीके मस्तकर्पे पडे तो वाको दरिद्र नाश करे ॥ १ ॥ कष्टमें पडे होंय उनके मस्तकपै पडै तो उनको कष्ट मिले ॥ २ ॥ पीठपै पडे तो मृत्युकी वार्त्ता आवे ॥ ३ ॥ को लाभ होय ॥ ४ ॥ जेमने अंग में गलेके ऊपर पडै तो मित्रको मिलाप होय ॥ ५ ॥ हाथ ऊपर पडे तो अर्थको लाभ होय ॥ ६ ॥ उदरपै पडे तो गमनके अर्थ जाननो ॥ ७ ॥ उदरसूं ऊंची पडे फिर चढजाय तो शुभ गमन करावे. ॥ ८ ॥ उदरसूं नीचे उतरे तो अशुभ गमन करावे ॥ ९ ॥ पहुँचेके ऊपर पड़े तो राजमुद्राको लाभ होय ॥ १० ॥ अगाडी उतरे तो वांछित Aho! Shrutgyanam Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२०) वसंतराजशाकुने-सप्तदशो वर्गः। ॥ टीका ॥ कट्या उपरि आरोहंती वस्त्रलाभं ब्रूते ११ उत्तमांगे नाभौ पतिता पुत्रलाभमभिधत्ते १२ वामजंघोपरि पतत्यां पुत्री स्यात् १३ निद्रामध्ये पतंती षण्मासमध्ये मरणं ब्रूते १४ ॥ इति शरीरचेष्टा ॥ नूतनगृहे प्रविशतां मध्ये आत्मनो मृत्युमाख्याति१ अथ वा मृता सती कीटिकावेष्टिता दृश्यमाना कुटुंबरोगं ब्रूते २ द्वितीयया पल्लग मिलंती प्रियदर्शनं ब्रूते३ आत्मनो गृहे प्रविशंती बहिनिःसरंती भयाय स्यात् ४ नीचे स्थानके गच्छंती राजभयं कथयति ५ गृहे प्रविशितां अग्रे भूयः चलंती निर्भयमर्थलाभं व्रत ६ नि. जस्थाने यांती अर्थहानि ब्रूते ७ जलस्थाने यांती अमिभयं कथयति ८ ॥ इति पल्लीगमनचेष्टाफलम् ।। पल्ली वस्तुसंभालनाय गच्छतां यदि पाषाणोपर्यारोहति तदा तद्वस्तु पाषाणीभवति १ ॥ भाषा॥ कटिके ऊपर पडके चढजाय तो वस्त्रको लाभ करै ॥ ११ ॥ स्त्रीपुरुषके उत्तम अंगपै पडै तो अथवा नाभिपै पडै तो पुत्रको लाभ होय ॥ १२ ॥ बाई जंघाके ऊपर पडै तो पुत्री होय ॥१३॥ जो निद्रामें सूतेके ऊपर पडै तो छः महीनाके मध्यमें मरजाय ॥ १४ ॥ ॥ इति शरीरचेष्टाफलम् ॥ जो नवीन घरमें प्रवेश करें उनकू वा घरमें पल्ली दीख जाय तो वो अपनी मृत्यु जाननी ॥ १ ॥ अथवा मरी हुई पल्ली चींटी कीडा वाके लिपट रहे होंय वो दीख जाय वा नये घरमें तो कुटुंबकू रोग जाननो ॥ २ ॥ जो वा नये घरमें पल्ली दूसरी पल्ली करके मिलती दीखै तो कोई प्रियको दर्शन जाननो ॥ ३ ॥ अपने घरमें प्रवेश करके बाहर निकस आवे तो वा अपुन घरमें घुसे वो बाहर निकस आवे तो भयके अर्थ जाननो ॥ ४ ॥ नीचे स्थानपै गमन करती दीखै तो राजभय जाननो ॥ ५ ॥ घरमें प्रवेश करबेवालेनके अगाडी होयके चले तो निर्भय अर्थको लाभ होय ॥ ६॥ नीचस्थानमें गमन करे तो अर्थकी हानि करै ॥ ७ ॥ जल. स्थानमें गमन करे तो अग्निको भय करै ॥ ८॥ ॥इति पल्लीगमनचेष्टाफलम् ॥ जो पल्ली वस्तुकू संभाल करबैकू जांय उनकू पाषाणके ऊपर चढती दीखे तो वो वस्तु Aho! Shrutgyanam Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लीविचारप्रकरणम् । (४२१) ॥टीका। भित्तौअधिरोहत्यां वस्तुमहर्यभवति २ पट्टोपरि अधिरोहंती पट्टबंध कथयति३वस्तु अर्पयतां पृष्ठे स्वरं करोति तदा दायकग्राहकस्थानं भवति । वस्तुगोपनाय गच्छतामग्रतः स्वरं करोति तदा भव्यता भवति ४ ग्रामं गच्छतामग्रतः स्वरं करोति तदा भव्या ५ पृष्ठतः स्वरं करोति मरणाय स्यात् ६ वामभागे स्वरं कुर्वतीभव्या दक्षिणभागे स्वरं कुर्वती लाभं ब्रूते ८ भय उत्पन्ने ग्रे स्वरं कुर्वती भयाय स्यात् ९ पृष्ठे स्वरं कुर्वती भयं निवारयति १० गृहमध्ये प्रविशता स्वरं कुर्वतीभयं ब्रूते ११ पृष्ठे स्वरं कुर्वती भयं निवारयति१२पुष्पपत्रफलानि गृह्णतां शृंगारं च कुर्वतां स्वरंती भव्या १३ चिंतायां पतितानामग्रे स्वरंती चिंता पर्द्धयति १४ पृष्ठे स्वरंती चिंता स्फोटयति १५ स्नातुं पोतिकायां परिहितायां वामभागे स्वरंती स्त्री संगमाख्याति १६ वस्तु अर्पयतां संमुखं स्वरंती अर्पयितुर्भव्यं करोति१७ दक्षिणतःस्वरं ती संती अस्य मृतिमाख्याति १८ पृष्ठे स्वरंती मृतिं ब्रूते १९ गृहद्वारं ददतां गृह ॥ भाषा॥ पाषाणको सी होय जाय. १ जो भीतपे चढती दीखै तो वस्तु महंगी होय. २ पट्टासनके ऊपर चढती दीखै तो पट्टबंधकर. ३ वस्तु का ऊकू देते होय वा समय पीठपीछे पल्ली बोले तो देबे लेबेवार दोनोंनकू शुभ नहीं. ४ वस्तुकी रक्षा करबेकू जाते होय उनके अगाडी पल्ली बोले तो शुभ जाननो ५ ग्रामकू जातो होय वाके अगाडी पल्ली बोले तो शुभ जाननी. १ पीठपीछे बोले तो मरणके अर्थ जाननो. ७ वामभागमें बोले तो शुभ करे. ८ जेमने भागमें बोले तो लाभ करै, ९ कोई भय उत्पन्न होय वा समयमें अगाडी बोले तो भय करावे. १० पीठपीछे बोले तो भयकू निवारण करे. ११ घरमें प्रवेश करबेवालेकं बोले तो भय करै, १२ पुष्प, पत्र, फल इन्हें ग्रहण करबेवालेनकू और शृंगार करबेवालेनकू बोले तो शुभ जाननी. १३ चिंतामें पडे होय उनके अगाडी बोले तो चिता बढावे. १४ पीठपीछे बोले तो चिंताकू दूर करे. १५ स्नान करके पोतिया पहरती समय वामभाग बोले तो स्त्रीको संगम करावे. १६ कोई वस्तु देती समयमें सम्मुख बोले तो देबेकू शुभ जाननो. १७ जेमने भागमें बोले तो संतानकी मृत्यु होय. १८ पीठपीछे बोले तो मृत्यु करे. १९ घरको द्वारो देरहे होय उनके धरके मध्यमें बोले तो निर्भयता करे. २० घरके Aho ! Shrutgyanam Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुने - सप्तदशो वर्गः । ॥ टीका ॥ मध्ये स्वरंती निर्भयत्वं ब्रूते २० बहिः स्वरंती अग्निधाटीभयाय स्यात् २१ रात्रौ दीपं विध्या प्रयच्छतां स्वरंती प्रदीपनकं कथयति २२ अर्द्धरात्रे गृहमध्ये स्वरंती चौरं ज्ञापयति २३ गृहतः प्रविशतामग्रे स्वरंती अर्थलाभं कथयति २४ जिमतां भो जनभाजने पसंती अर्थलाभाय भवति ॥ २५॥ इति पल्लीविचारः ॥ “पल्ली भुजेऽपसये च मस्तके स्वामिमानदा । पतंती कुरुते वामे लाभं हानिकरा करे ॥ १ ॥ करे च दक्षिणे व्याधि हयराज्यादिलाभदा । पृष्ठे उपद्रवं हेत्युदरे मिष्टान्नदा तु सा ॥ २ ॥ नाभौ पुत्रफलं दत्ते कटौ गुह्ये व रोगकृत् । जानुयुग्मे सुखं स्थानं पादे हानिं महाभयम् ॥ ३ ॥ पादांशे तु स्मृतं तज्ज्ञैश्चिंतापदांतगा भवेत् । अंगदक्षिणमारुह्य वामेनोत्तरति स्फुटम् ॥ ४ ॥ तदा हानिकरी ब्रूयाद्व्यत्ययेन तु लाभदा । चरणादूर्द्धगी भूय यदारोहति मस्तके ॥ ५ ॥ प्राज्यं राज्यं तदा दत्ते पल्ली श्वेता विशेषतः । चिंतिताभ्यधिकं लाभं स्थिता भोजनभाजने ॥ ६ ॥ पादांगुलीषु संघातात्तदा तु पदवीं वदेत् ॥ सर्वमेतत्फलं दत्ते बृहती नासिकानुगा” ॥ ७ ॥ इति पल्लीविचारः ॥ ॥ भाषा ॥ बाहर शब्द करे तो अग्निज्वालानसे भय करै २१ रात्रिमें दीपक तो दीप्तता करे. २२ अर्ध रात्रिमें घरमें बोले तो चौर आवे, २३ अगाडी बोलै तो अर्थको लाभ करै २४ भोजन करतेनके पात्रमें लाभ होय. २५ ( ४१२ ) जोडते होंय शब्द करे घर में प्रवेश करे उनके थालीमें पडे तो धनको इति पल्लीविचारः ॥ पल्ली जेमनी भुजापे और मस्तकपै पडे तो स्वामीसूं मान दिवावे. जो बायें हाथपै पडे तो लाभको हानि करै १ जेमने हस्तपै पडे तो व्याधि वा हय राज्यादिकनको लाभ देवे.. पीठपीछे पडे तो उपद्रवकूं हरें. उदरपै पडे तो मिष्टान्न देवे. २ नाभिपै पडै तो पुत्रफल देवै. कटिपे और गुह्यस्थानपे पडै तो रोग करें. दोनों जानूपे पडे तो सुख और स्थान होय. पांवमें पडे तो हानि और महान् भय होय. ३ पावके अग्रभागपै पडै तो चिंता आपदा मृत्युये करे. जेमने अंग चढे बांये अंगमाऊं उतरे ४ तो हानि करे. जो बांये अंगमाऊंसूं उतरे तो लाभ देवे. चरणसूं ऊपर मस्तक तांई चढजाय ५ तो बहुतसो राज्य देवे. जो सुकेद पल्ली होय तो विशेष फल करे, जो भोजनके पात्रमें गिरपडे तो चिंतनसूं भी अधिक लाभ करे. ६ पावनकी अंगुलीनपे पडै तो समूहसूं मार्ग चलावे. जो नासिका के अनुग होय तो ये समग्र फल देवे. ७ Aho! Shrutgyanam Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टितेऽधिवासनप्रकरणम् । (४२३) अथो त्रुवे खानरुतस्य सारं सारं समस्तेष्वपि शाकुनेषु ॥ विस्पष्टचेष्टं सुखलक्षणीयं शुभाशुभं प्राक्तनकर्मपाके ॥१॥ विमर्शकंःशाकुनशास्त्रदक्षो विशुद्धबुद्धिः सतताभियुक्तः ॥ यथार्थवादी शुचिरिंगितज्ञो भवेदिहाचार्यपदाधिकारी ॥ ॥२॥श्ववानभल्लुभषणाः कौलेयककपिलजागरूकाश्च ।। मंडलकुक्करयक्षाः शुनकःसरमासुतस्याह्नम् ॥३॥ ॥ टीका ॥ ॥ इति पल्लीविचारः॥ इति श्रीशजयकरमोचनादि-सुकृतकारि-महोपाध्याय श्रीभानुचंद्र गणिविरचितायां वसंतराजटीकायां पल्लीविचारे सप्तदशो वर्गः॥ १७ ॥ अथो इति ॥ गृहगोधिकाकथनानंतरं श्वानरुतस्यसारं तत्वं ब्रुवे । कीदृक् समस्तेष्वपि शाकुनेषु शकुनशास्त्रेषु सारंप्रधानभूतं येन श्वानरुतेन प्राक्तनकर्मपाके प्राचीनकर्मणां पाकः परिपाकस्तस्मिञ्छुभाशुभं मुखलक्षणीयं सुखेन ज्ञातुं शक्यं स्यात् । विस्पृष्टचष्टं विस्पृष्टा चेष्टा यत्र तत्तथा कचिद्विशिष्टचेष्टमित्यपि पाठः॥१॥ विमर्शक इति ॥ इदं पूर्व व्याख्यातत्वान्न व्याख्यायते ॥२॥ श्वश्वानेति ॥ एता. नि सरमासुतस्य शुनः अभिधानानि स्युः श्वाश्वानाभल्लुः भषणः एतेषामितरेत. रद्वंदः।कौलेयकः एतेषामपीतरेतरद्वंद्वःमंडलः ककुरः यक्षः एतेषामपि बंदः। शुनक ॥भाषा॥ इति श्रीमन्जटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छीधरविरचितायां वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां विचारितात्र पल्लीविचारो नाम सप्तदशो वर्गः ॥ १७ ॥ अथो इंति ॥ पल्लीके शब्द कहेके अनन्तर अब श्वानके शब्दको सार हैं, स्पष्ट है चेष्टा जामें ऐसे ये शब्द समस्तशकुनशास्त्रनमें मुख्य है, या श्वानके शब्द करके पुरुष पूर्वजन्मके कर्मनको फल तामें शुभाशुभ सुखपूर्वक जानबेकू समर्थ होय हैं ॥ १ ॥ विमशक इति ॥शकुनी विचारको करबेवाली होय. शकुनशास्त्रमें चतुर होय. शुद्ध बुद्धि जाकी होय. निरंतर योग्य होय, यथार्थ वक्ता होय. पवित्र होय, सर्वकी चेष्टानकू जानै शकुनमें भाचार्य पदको अधिकारी होय. वो शकुन देखै ॥२॥ श्वेति ॥ श्वा १ श्वान २ भल्लू ३ भषण ४ को. लेयक ५ कपिल ६ जागरूक ७ मंडल८ कुक्कुर९यक्ष १० शुनक ११ ये सरमाको बेटाश्वान ताके Aho! Shrutgyanam Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२४ ) वसंतराजशाकुने - अष्टादशो वर्गः । श्वेता द्विजाः क्षत्रियकाश्च रक्ताः पीताश्च वैश्या असिताश्व शूद्राः ॥ विमिश्रवर्णाः शुनकास्तथेह भवंति नानाविधकारुसंज्ञाः ॥ ४ ॥ स्वजातिरूपेण विशेषतोऽमी सर्वे समस्तैरपि वा गवेष्याः ॥ कौलेयकास्तेषु वदंति शस्तं कार्येषु सर्वेष्वपि कृष्णवर्णम् ॥ ५ ॥ आचार्यमानीय शुभेह्निकार्य पैष्टं श्वयुग्मं शुचिरचयित्वा ॥ क्षीरेण भोज्यं भषणस्य तुष्टयै दद्यात्कुमारीशिशुबांधवेभ्यः ॥ ६ ॥ सर्वागकृष्णः परिपूर्ण काय शांतो निरोगस्तरुणो बलिष्टः ॥ अवामभागोन्नतपुच्छचेष्टो विभर्ति शूद्रो नखविंशतिं यः ॥ ७ ॥ ॥ टीका ॥ इत्यादयः ||३|| श्वेता इति ॥ श्वेताः श्वेतवर्णाः श्वानः द्विजाः ब्राह्मणा भवति । रक्ताः रक्तवर्णाः क्षत्रियका भवति । पीताः पीतवर्णाः वैश्याः वैश्यजातीया भवति । असिताः कृष्णाः पुनः शूद्र भवंति । तथा इह विमिश्रवर्णाः शुनकाः नानाविधकारसंज्ञा भ वंति। नानाविध : कारूणां चित्रकारिणां संज्ञा नामानि येषां ते तथोक्ताः॥४॥ स्वेति ॥ समस्तैर अमी सर्वे कौलेयकाः स्वजातिरूपेण विशेषतो गवेष्याः तेषु सर्व कुक्कुरेषु पुनः कृष्णवर्ण श्वानं सर्वेष्वपि कार्येषु शस्तं वदंति ॥५॥ आचार्यमिति ॥ आचार्य शकुनशास्त्रज्ञम् आनीय शुमेऽह्नि पैष्टं पिष्टस्य गोधूमादिचूर्णस्य इद पैष्टश्वयुग्मं श्वानयुगलं स्त्रीपुंसलक्षणं कार्यं ततः शुचिः पुमांस्तमर्चयित्वा भाषणस्य तुष्टयै कु· मारीशिशुबांधवेभ्यः क्षीरान्नभोज्यं दद्यात् । कचित्क्षीरेण भोज्यमित्यपि पाठः ॥ ६ ॥ सर्वेति ॥ यः श्वानः नखविंशति विभर्त्ति स शूद्रः कथ्यते इति शेषः । कीदृक ॥ भाषा ॥ नाम हैं॥३॥श्वेता इति॥ श्वेतवर्ण के स्वानकी द्विजसंज्ञा है. लालवर्णकी क्षत्रिय संज्ञा है. पीतवर्णकी वैश्यसंज्ञा है. श्यामवर्णकी शूद्रसंज्ञा है, मिलवा वर्णकी कारुसंज्ञा है. कारु नाम चित्राम करबेवालेको है ॥ ४ ॥ स्वेति ॥ सबकरके ये कौलेयक जाति विशेषकरके ढूंढनो सब श्वाननमें कालो कुत्ता सर्वकार्यन में विख्यात हैं हैं ॥ ९ ॥ आचार्यमिति ॥ शुभ दिनं होय घा विनाशकुनशास्त्रके ज्ञाता आचार्यकूँ बुलाय कर चूनलेके श्वानको युगल स्त्रीपुरुषरूप करके पवित्र होय पूजनकरके श्वानकी तुष्टि के लिये क्षीरान्न भोजन कुमारी बालक बांधव इनके अर्थ देवे ॥ ६ ॥ सवैति ॥ जो श्वान कालो होय. न्यूनअंग जाको न होय. शांतरूप होय. निरोगी होय. युवा न होय. बलवान् होय. जेमने भागमें ऊंची पूंछ करे हुगो होय. वीसों नख जाके ka Aho! Shrutgyanam Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टितेऽधिवासनप्रकरणम् । ( ४२५ ) तं सारमेयं पुरुषोऽधिवास्य विश्वास्य धृत्वा रूपयेद्दिनांते ॥ शुक्लांबरस्तां रजनीं व्रती स्याद्यत्नेन कुर्यात्सकलं समन्त्रम् ॥ ॥ ८ ॥ अथ मंत्रः । ॐ नमो भगवते शुनकोत्तमाय महाशकुनगंभीरशब्दाय प्रजापतये ऋतुकालाभिगामिञ्छीघ्रमहि एहि बलिं गृहाणगृहाण मम चिंतितानि सत्यं ब्रूहिब्रूहि हुंफस्वाहा ॥ इति ॥ ततः प्रभाते नवगोमयेन त्रिहस्तमात्रं चतुरस्ररूपम् ॥ शुचौ मनोज्ञे विजने विदध्यादिलातले मंडलकं विशुद्धम् ॥ ९ ॥ ॥ टीका ॥ सर्वागकृष्णः देहव्यापिकृष्णवर्णः पुनः कीदृक्परिपूर्णकायः सर्वावयवसंपूर्णः न न्यूनावयवः पुनः शांतः सौम्यप्रकृतिः पुनः नीरोगः आमयवर्जितः पुनस्तरुणः उद्गतयौवनः पुनः बलिष्ठः बलयुक्तः पुनः अवामभागोन्नतपुच्छचेष्टः दक्षिणभागे उन्नतीकृतपुच्छव्यापारः ॥ ७ ॥ तमिति ॥ पुरुषः तं सारमेयम् अधिवास्याधिवासनं कृत्वा विश्वास्य विश्वासं समुत्पाद्य करेण धृत्वा गृहीत्वा दिनांते: स्नापयेत्स्नानं कारयेत् । शुक्लांबरः श्वेतवासाः तां रजनीं व्रती व्रतयुक्तः स्यात् । यत्नेन सकलं सर्व समंत्र मन्त्रसहितं कुर्यात् ॥ ८ ॥ अथ मन्त्रः ॥ ॐ नमो भगवते शुनकोत्तमाय महाशकुन गंभीरशब्दाय प्रजापतये ऋतुकालाभिगामिन शीघ्रमेहि एहि बलि गृहाणगृहाण मम चिंतितं कार्यं सत्यं वाहब्रूहि हुं फट् स्वाहा ॥ कचिद्रहणे ग्रहणे इत्यपिपाठः ॥ तत इति ॥ : रजनीगमनांतरं प्रभाते नवगोमयेन द्विहस्तमात्रं चतुरस्ररूपं चतुःकोणं शुचौ मनोज्ञे विशुद्धे इलातले भूमौ विजने जनरहिते विशुद्धं पवित्रं मंडलकं विदध्यात्कुर्यादित्यर्थः । तदुक्तमन्यत्र । “अर्थ्यार्चनालेपनपुष्पधूपनैवेद्यदीपाक्षतदक्षिणाभिः ॥ नमोयुतैः सप्रणवैः प्रयत्नान्महा ॥ भाषा ॥ होय वाकूं शूद संज्ञक कहैं हैं ॥ ७ ॥ तमिति ॥ ता श्वानको अधिवासन करनो वामें विश्वास करनो, सायंकालकूं श्वानकूं हाथसूं स्नान करावनो, श्वेतवस्त्र धारण करावा, रात्रि व्रतयुक्त रहना, यत्नसूं सब या मंत्रसहित करनेो ॥ ८ ॥ अथ मन्त्रः ॥ ॐ नमो भगवते शुनकोत्तमाय महाशकुनगंभीरशब्दाय प्रजापतये ऋतुकालाभिगामिन् शीघ्रमेहि एहि बलि गृहाणगृहाण मम चिंतितं कार्ये सत्यं ब्रूहिब्रूहि हुंफट् स्वाहा ॥ या मंत्रसूं सब करनो ॥ तत इति ॥ वा रात्रिके व पीछे प्रातः काल पवित्र शुद्ध निर्जन पृथ्वी नवीन गोबरसूं तीन हाथ क Aho! Shrutgyanam Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२६) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। पीतः सुरेशः कपिलो हुताशः कृष्णो यमः श्यामवपुश्च रक्षः ॥ शुक्लः प्रचेता हरितः समीरश्चित्रो धनेशो धवलो महेशः॥ १०॥ एवंविधाः पद्मदलोदरेषु क्रमेण दिश्वष्टसुलोकपालाः ॥ आचार्यवाक्यानुगतेन पुंसा महार्हपूजाविधिनार्चनीयाः ॥ ११ ॥ यक्षोऽर्चनीयो विधिनात्र मध्ये पैष्टं श्वयुग्मं च ततः प्रकुर्यात् ॥ शृतेन देयश्चरुणोपहारो घृतप्लुतेनाचितदेवताभ्यः॥ १२॥ हविः समुद्धृत्य चरोस्तथान्यत्तेन प्रयत्नात्प्रविधायपिंडम्।। धृत्वार्थ पार्थाऽर्चनमस्य कार्य नानाविधैर्मन्त्रवरैरमीभिः ॥ १३॥ ॥टीका ॥ प्रभावैर्निजनाभमन्त्रैः ॥९॥ इदं वृत्तत्रयं पूर्वव्याख्यातत्वान्न व्याख्यायते ॥१०॥ ॥ ११॥ यक्ष इति • अत्र मंडलमध्ये यक्षः श्वानः विधिना विधिपूर्वकं पूर्वमर्चनीयः पूजनीयः । ततः पैष्टं श्वयुग्मं प्रकुर्यात् । ततः अभ्यर्चितदेवताभ्यः दिक्पालादिभ्यः घृतप्लुतेनवृतेन प्लुतऽस्तत्पुरुषोऽत्र “कर्तृकरण"इत्येनन तेन घृतप्लुतेन पुनः शृतेन कथितदुग्धेन सह चरणोपहारः देयो दातव्यः ॥ क्वचिच्चरणोपहारः इत्यपिपाठः ॥ १२ ॥ हविरिति ॥ चरोः अन्यद्धविः समुद्धृत्य तेन भृतेन प्रयत्नात्पिडं प्रविधाय पार्श्वे धृत्वा च अमीभिः नानाविधै ॥ भाषा॥ चतुरस्र मंडल कर ॥९॥पीतेति ॥ पति सुरेश, कपिल हुताश, कृष्ण यम, श्यामवपु रक्ष, शुक्ल प्रचेता, हरित समीर, चित्र धनेश, धवल महेश ॥१०॥ एवमिति ॥ ये नाम मंडलमें क्रमसू स्थापन करनो. फिर आठ लोकपाल देवता आठों दिशानमें स्थापनकर आचार्यके वाक्यके अनुसार अर्य, पाद्य, स्नान, चंदन, पुष्प, धूप, दीपाक्षत, नैवेद्य, दक्षिणा करके महा प्रभावरूप निजनाम मंत्रनकर अर्चन करनो. ॥ ११ ॥ यक्ष इति ॥ वा मंडलमें प्रथम श्वानको विधिपूर्वक पूजन करनो. ता पीछे चनको बनो हुयो श्वानको युगल ताको पूजन करै. ता पीछे घृतसहित दूधभातके चरू करके पूर्व अर्चन जिनको कियो उन आठो दिक्पाल देवतानके अर्थ उपहार देनो ॥ १२ ॥ हविरिति ॥ चरूते और शाकल्य लेके चरूको भात ले यत्नतें पिंड बनाय करके पास धरले। फिर ये जे नानाप्रकारके मन्त्र तिनकरके पूजन कर बलिदान करै ।। ॐ मण्डलाय स्वाहा या करके चंदन लगानों. ॐ भल्लूकाय स्वाहा या करके अक्षत चढावनो. ॐ कपिलाय स्वाहा Aho! Shrutgyanam Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचष्टितेऽधिवासनप्रकरणम्। (४२७ ) अब्दायनर्तृनुत मासपक्षदिनानि कार्येष्ववधौ विदध्यात् ॥ हीनावधिर्येन भवत्यसत्यः सर्वोऽपि लोके शकुनो गृहीतः।। ॥१४॥ एवंविधं भावि न वेति चित्ते निवेश्य कार्य भषणं विमुंचेत् ॥ संभक्ष्य पिंडं स्थिरतां गतस्य चेष्टादिकं तस्य निरूपणीयम् ॥ १५॥ इति वसंतराजशाकुने श्वचेष्टितेऽधिवासनप्रकरणं प्रथमम्॥१॥ ॥ टीका ॥ मैत्रवरैः अस्य अभ्यर्चनं कार्यम् ॥ १३ ॥ ॐ मंडलाय स्वाहा इत्यनेन चंदनालेपनम् । ॐ भल्लूकाय स्वाहा इत्यनेनाक्षतप्रदानम् । ॐ कपिलाय स्वाहा इत्यनेन पुष्पप्रदानम्।ॐयक्षाय स्वाहा इत्यनेन धूपोदेयाविनयवते नमः इत्यनेन दीपप्रदानम् । ॐ ऋतुकालाभिगामिने स्वाहा इत्यनेन फलादिढौकनम् । ॐ बलिभोजनाय स्वाहा इत्यनेन नैवेद्यप्रदानम् । ॐ स्वामिभक्ताय स्वाहा इत्यनेनार्यम् । कृतज्ञ एहिएहि रात्रिजागरण एहि एहि दिव्यज्ञानिन् एहि एहि प्रत्यक्षवचन एहि एहि जिह्वाजल्प एहि एहि स्वल्पप्रिय एहि एहि षड्गुण एहि एहि शुनकोत्तम एहि एहि इदमयं गृहाण गृहाण इमं बलिं गृहाणगृहाण सत्यं ब्रूहि ब्रूहि स्वाहाइति बलिनिदेदनमंत्रः ॥ १३ ॥ अब्देति ॥अब्दायनज्न उत मासपक्षदिनानि स्वकीयकार्येषु अवधौ मर्यादायां विदध्यात्प्रकुर्यात् । पुरुषः शकुनविलोकक इति शेषः येन कारणेन लोके सर्वोपि गृहीतः शकुनो हीनावधिः सनसत्यो भवति ॥ १४ ॥ एवमिति ॥ ॥ भाषा ॥ या करके पुष्प देनो. ॐ यक्षाय स्वाहा या. करके धूप देनो. ॐ विनयवते नमः या करके दीपक जोडनो, ॐ ऋतुकालाभिगामिने स्वाहा याकरके फलादिक देनो ॐ बलिभोजनाय स्वाहा या करके नैवद्य देनो. ॐ स्वामिभक्ताय स्वाहा या करके अर्घ्य देनो. कृतज्ञ. एहि एहि रात्रि जागरण एहि एहि दिव्यज्ञानिन् एहि एहि प्रत्यक्षवचन एहि एहि जिद्वाजल्प एहि एहि स्वल्पप्रिय एहि एहि षड्गुण एहि एहि शुनकोत्तम एहि एहि इदमय गृहाणगृहाण इमं. बलिं गृहाणगृहाण सत्यं ब्रूहि ब्रूहि स्वाहा. इति बलिदाननिवेदनमंत्रः । या मंत्रकरके बलिदान करणों ॥ १३ ॥ अब्देति ॥ शकुन देखबेवालो पुरुष अपने कायेमें वर्षकी वा अयनकी वा ऋतुकी वा महीना पक्षदिन इनकी अवधि करले अर्थात् मेरोये कार्य इतने वर्षमें या दिनमें होय गो ऐसो करले या कारणसं संपूर्ण शकुन लोकमें अवधि करे विना मिथ्या हो जांय हैं॥ १४ ॥ एवमिति ॥ ऐसे अपने कार्यकं मनमें Aho! Shrutgyanam Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२८) वसंतराजशाकुन-अष्टादशो वर्गः। यथावदुक्तान्यधिवासानानि बलिप्रदानानि शुनोऽधना तु ॥ तस्यैव चेष्टाफलमीप्सितेषु राज्यादिकार्येषु निरूपयामः॥ ॥ १६॥ कंडूयमानः खलु दक्षिणेन करेण लाभं भषणो ददाति ॥ प्रभावनंम्रीकृतराजचक्रं राज्याभिषेकं वरपट्टबन्धम् ॥ १७ ॥ करेण कंडूयति दक्षिणेन यक्षो यदा वामकरं तदानीम् ॥ प्रभूतमातङ्गघटासमृद्धं ब्रूते समंतात्पृथिवीपतित्वम् ॥ १८॥ ॥ टीका ॥ एवंविधं कार्य भावि न वेति चित्ते मनसि निवेश्य स्थापयित्वा विचित्येति यावत् । भषणं विमुंचेत् । पिंडं संभक्ष्य स्थिरतां गतस्य निराकुलतां प्राप्तस्य तस्य शुनः चेष्टादिकं निरूपणीयं विलोकनीयम् ॥ १५॥ इति वसंतराजटीकायां श्वचेष्टितेधिवासनप्रकरणं प्रथमम् ॥ १॥ __यथेति ॥ मया शुनः अधिवासनानि बलिप्रदानानि यथावदुक्तानि । अधुना तु ईप्सितेषुराज्यादिकार्येषु तस्यैव शुन एव चेष्टादिकं फलं निरूपयामःकथयामः॥१६॥ कंड्यमान इति ॥ दक्षिणेन करेण अपसव्येन हस्तेन कंडूयमानः कडात कुर्वाण: भषणः लाभमधिकं फलं ददाति । कीदृशं लाभं राज्याभिषेकं राज्यस्याभिषेको यस्मिन । पुनः कीदृशं वरपट्टबंधं वरःप्रधानः पट्टबन्धों यस्मिंस्तत् पुनः कीदृशं प्रभावनम्रीकृतराजचक्र प्रभावेण नम्रीकृतं राजचक्रं यत्र तत्तथा ॥१७॥ करणेति ॥ यक्षः श्वा दक्षिणेन करेण यदा वामकरं कंडयति तदानीं समंता. ॥ भाषा ॥ विचार करके श्वानकू छोड़दे वो बलिपिंड भक्षण करके स्थिर होय जाय वाकी चेष्टादिक देखनो ॥ १५ ॥ इति श्रीवसंतराजभाषाटीकायां श्वानचेष्टितेऽधिवासनप्रकरणं प्रथमम् ॥१॥ यथेति ॥ मैंने श्वानके अधिवासन बलिदान ये यथायोग्य कहे. अब वांछित राज्यादिफ कार्यमें श्वानके चेष्टादिकनके फल कहेहैं ॥ १६ ॥ कंड्रयमान इति ॥ जो श्वान जेमने हाथ करके खुजावतो होय तो: राज्याभिषेक जामें और पट्टबंधन जामें और प्रभाव करके नम्र किये हैं राजानको समूह जामें ऐसो लाभ देवै ॥ १७ ॥ करणेति ॥ जो | Aho ! Shrutgyanam Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते राज्याधिकारप्रकरणम् । (४२९) उद्घाटयदक्षिणमक्षि यक्षो हस्तेन गृह्णात्यथ दक्षिणेन ॥ यस्याभिषेके स भवेत्स्वशक्त्या क्षितीशलक्षेक्षितपादपद्मः॥ ॥ १९॥ कौलेयको दक्षिणकर्णदेशं करेण कंडूयति दक्षिणेन ॥ यदा तदा जल्पति गीतवाद्यविनोदयुक्तं पृथिवीपतित्वम् ॥ २० ॥ कंडूयते दक्षिणपाणिना चेत्स्वं सारमेयो वदनं तदानीम् ॥ भक्तैः प्रभूतैः सह भूमिपालै ज्यानि भोज्यानि चिरं भवति ॥२१॥ ॥ टीका ॥ त्पृथिवीपतित्वं ब्रूते । कीदृश प्रभूतमातंगघटासमृद्धं प्रभूताः प्रकृष्टाः ये मातगा द्विरदा तेषां घटा बहुघटनाः ताभिः समृदमुपचितमित्यर्थः । “बहूनां घटना घट" इति हैमः ॥१८॥ उद्घाटयेदिति ॥ यस्य राज्याभिषेकप्रश्ने यक्षः दक्षिणमाक्षि चक्षः दक्षिणेन करेण उद्घाटयेत् अथ वा मृद्राति क्वचिगृहातीति पाठः । तदा स्वशक्त्या राजा भवेत् । कीदृशः क्षितीशलक्षेक्षितपादपद्मः क्षितीशलक्षैः ईक्षितं पादपनं यस्य एतादृशः । तथा कचिद्राज्याभिषेको भवति स्वशक्त्येति पाठोऽपि दृस्यते ॥१९॥ कौलेयक इति॥ यदा कौलेयकः श्वा दक्षिणकर्णदेशं दक्षिणेन करेण कंड्यति खनति तदा गीतवाद्यविनोदयुक्तं पृथिवीपतित्वं जल्पति । “अस्थिभुग्भषणः सारमेयः कौलेयकः शुनः"इति हैमः॥२०॥ कंडूयत इति ॥ सारमेयः कुक्कुरः दक्षिणपाणिना चेत्स्वं वदनं कंडूयते तदानी भक्तैः प्रभूतैः सह भूमिपालभॊज्यानि भोक्तुं योग्यानि ॥ भाषा ॥ श्वान जेमने हाथ करकै बायो हाथ खुजावतो होय तो बहुतसे हाथीनकी समृद्धि जाको ऐसो पृथिवीपति, राजा करै ॥ १८ ॥ उद्घाटयोदिति ॥ राज्याभिषेकके प्रश्नमें जो श्वान जेमने नेत्रकू जेमने हाथ करके खोलतो होय वा ग्रहण करतो होय तो अनेकन राजा चरणकू नमन कर दर्शन करें एसो अपनी शक्ति करके राजा होय ॥ १९ ॥ कौलेयक इति ॥ जो कौलेयक जेमने हाथ करके जेमने कर्णकं खुजावतो होय तो गीत, वाद्य, विनोद इनकरके सहित पृथ्वीको पति होय ॥ २० ॥ कंड़यत इति ॥ जो श्वान जेमने हस्त करके अपने मुखकू खुजावतो होय तो. वहुतसे भक्तन करके सहित राजानकरके Aho ! Shrutgyanam Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३०) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। वक्षोऽथ कंडूयति दक्षिणेन स्वपाणिपादेन भवेत्तदानीम् ॥ तुरंगमातंगमहिष्यजादिगवादिसंपत्सहितं नृपत्वम् ॥२२॥ अवामपादप्रभवैः प्रयत्नाल्लिखेनखैः श्वा जठरं स्वकीयम् ॥ वक्त्येव भावी सखिबंधुभृत्यनिर्वाहशक्तो नृपतित्वयोगः२३॥ प्रदक्षिणं चेष्टितमीदृशंस्यादेवंविधं तत्र फलं प्रदिष्टम्।।पुंसोऽनुकूलं सकलं तदेव श्वा हंति दृष्टः कृतवामचेष्टः ॥२४॥ भवंत्यवामा यदि वामतश्च चेष्टाः समास्तान गुणो न दोषः। कौलेयको यास्त्वधिकाःकरोति फलं तदुत्थं प्रतिपादनीयम्२५॥ ॥ टीका ॥ भोज्यवस्तूनि चिरं चिरकालं यावद्भवति ॥ २१ ॥ वक्ष इति ॥ यदा यक्षः वक्षो दक्षिणेन स्वपाणिपादेन कंडूयति तदानीं तुरंगमातंगमहिष्यजादिगवादिसंपत्सहितं नृपत्वं भवेत् । तत्र तुरंगाः अश्वाः मातंगा दंतावला: महिष्यः सैरभ्यः अजादयः छागादयः गौः धेनुः एतेषामितरेतरद्वंद्वः । ताः आदौ यासा एवंविधा याः संपदः समृद्धयस्ताभिः सहितं समेतमित्यर्थः॥ २२ ॥ आवामेति ॥ यः श्वा प्रयत्नादवामपादप्रभवः दक्षिणचरणोत्थैः नखैः स्वकीयं जठरं लिखेत्खनेत्। एष कुक्कुरः सखिबंधुवर्गनिर्वाहशक्तः नृपतित्वयोगः भाभी इति वक्ति ब्रूते॥२३॥प्रदक्षिणमिति॥प्रद. क्षिणं चेष्टितमीशं स्यात्तत्र एवंविधं फलं पुसः अनुकलं सकलं समस्तं प्रदिर्घ प्रोक्तं श्वा कृतवामचेष्टः दृष्टः तदेव पूर्वोक्तमेव सकलं पुंसः अनुकूलं फलं हंति ॥२४॥ भवंतीति ॥ अवामा दक्षिणा यदि वामतश्च चेष्टाः समाः सदृशाः भवंति तदा न ॥ भाषा॥ भोगवेकं योग्ययोग्य वस्तु चिरकाल ताई होय ॥ २१ ॥ वक्ष इति ॥ जो श्वान जेमने हाथ पाँवकरके अपनो वक्षस्थल खुजावतो होय तो हाथी, घोडा, गौ, भैंस, बकरी इत्यादिकनकी संपदानकर सहित राजा होय ॥ २२ ॥ अवामेति ।। जो श्वान जेमने पाँवके नखन करके अपने उदरक खुजायवेको सी नाई करतो होय तो होनहार मित्र बंधुवर्ग इनके निर्वाहकी शक्ति राजापनेके योग्य ये होय ॥ २३ ॥ प्रदक्षिणमिति ॥ श्वानकी न्ये जेमनें अंगकी चेष्टा हैं इनमें या प्रकार फल पुरुषकू अनुकूल सब कहे. और जो श्वान बांये अंगकी चेष्टा करतो दीखै तो पहले कहे जे सब अनुकूल फल तिने नाश करै ॥ २४ ॥ भवंतीति ॥ जो बाई जेमनी चेष्टा समान होंय तो गुण भी नहीं और दोष भी नहीं. फेर Aho! Shruigyanam Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते राज्याधिकारप्रकरणम् । (४३१) महोदयं पंचविधेन पुंसां शान्तेन राज्यं वितरत्यवश्यम् ॥ . पंचप्रकारेण पुनस्तदेव दीप्तेन यक्षो हरति प्रसह्य ॥२६॥ दीप्ताभिधाभ्यां स्थितिचेष्टिताभ्यां प्रवासराज्यक्षितिमृत्यवः स्युः॥शांताभिधाभ्यां भवति त्वमूभ्यां राज्यं समद्धं चिरकालभोग्यम् ॥ २७ ॥ दिक्चेष्टितस्थानगतिस्वराख्याः पंचेह दीप्ताः खलु पंच शांताः॥अन्येष्वपीमे शकुनेषु भूना निमित्तविद्भिः परिभावनीयाः॥२८॥ इति वसंतराजशाकुने श्वचष्टिते राज्याधिकारप्रकरणम् ॥२॥ ॥ टीका ॥ गुणो न दोषः गुणदोषप्रतिपादकचेष्टयोः साम्यादित्यथः । कौलेयकः पुनः याश्चेष्टाः अधिकाः करोति तदा तदुत्थं तज्जन्यं फलमधिकं प्रतिपादनीयमित्यर्थः ॥ ॥२५॥ महोदयमिति ॥ यक्षः पंचविधन शांतेन पुंसां महोदयं राज्यमवश्यं वितरति । पंचप्रकारेण दीप्तेन पुनर्यक्षः प्रसह्य बलात्कारेण तदेव महोदयं राज्य : हरति ॥ २६ ॥ दीप्तेति ॥ दीप्ताभिधाभ्यां स्थितिचेष्टिताभ्यामवस्थानं चेष्टितं शरीरव्यापारस्ताभ्यां प्रवासराज्यक्षितिमृत्यवः स्युः । प्रवासः परदेशगमनं राज्यक्षतिः राज्यस्य नाशः मृत्युर्मरणम् एतेषामितरेतरबंदः । शांताभिधाभ्याममूभ्यां स्थितिचेष्टिताभ्यां चिरकालभोग्यं समृद्धं राज्यं स्यात् ॥ २७ ॥ दिगिति ॥ दिक्चेष्टितस्थानगतिस्वराख्याः इह खलु निश्चयेन पंचदीप्ताः पंच शांताश्च भवंति । तथाऽन्येष्वपि पोतक्यादिशकुनेष्वपि निमित्तविद्भिः इमे पंच शांताः । पंच दीप्ताः भूना परिभावनीयाः विचिंतनीयाः॥२८॥ इति वसंतराजटीकायां श्वचेष्टिते राज्याधिकारप्रकरणं द्वितीयम् ॥२॥ ॥ भाषा॥ श्वान जो अधिक चेष्टा करै तो वाको ही फल अधिक कहनो ॥ २५ ॥ पांच प्रकारके शांतशकुन करके पुरुषन• महान् उदय जामें ऐसो राज्य अवश्य देवे. फिर पांच प्रकारको दीप्तशकुन ता करके श्वान बलात्कार करके वोही महोदय राज्य ताकू हरण करे ॥ २६ ॥ दीप्तेति ॥ दीप्तस्थिति और दीप्तदेहकी चेष्टा इनकरके परदेशको गमन, राज्यको नाश और मृत्यु ये होय. और शांतस्थिति, शांतचेष्टा होय तो इनकरके चिरकाल ताई भोगावेके योग्य समृद्धवान् राज्य होय ॥ २७ ॥ दिगितिं ॥ दिशा, चेष्टा, स्थान, गति, स्वर, Aho ! Shrutgyanam Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३२) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। वरस्य कन्यावरणोद्यतस्य कुमारिकायाः पतिमर्थयंत्याः ॥ आख्यायतेऽन्योन्यपरीक्षणार्थ क्रमण चेष्टा सरमासुतस्य । ॥२९॥ कौलेयके दक्षिणचोष्टिते स्यात्कन्याविवाहो न तु वामचेष्टेः ॥शुन्या समं कॅलिरते सुखेन तयोढया सार्द्धमहानि यांति ॥३०॥ कंडूयते दक्षिणमंगभागं स्तंभे यदर्थ वरणे हृदिस्थे ॥ ऊढा भवेत्सा सुतवित्तवद्धयै वामांगकंडूयनमप्रशस्तम् ॥ ३१॥ ॥ टीका ॥ वरस्योत ॥ कन्यावरणोद्यतस्य वरस्यः वोढुः पति अर्थयंत्याः वांछंत्याः कुमारिकायाः कन्यायाः सरमासुतस्य सरमा शुनी तस्याः सुतःश्वा तस्य अन्योन्यपरीक्षणार्थ परस्परपरीक्षाकृते चेष्टा क्रमेण आख्यायते ॥ २९ ॥ कौलेयक इति ॥ दक्षिणचेष्टिते कौलेयके शनि कन्याविवाहः स्यात् न तु वामचेष्टे क्वचित्कन्याविवाह्येति पाठोऽपि दृश्यते । शुन्या समं कलिरते सति मैथुनसुखे सति तया ऊढया साई सुखेन अहानि दिनानि यांति गच्छंति ॥ ३० ॥ कंडूयते इति ॥ यदर्थं यस्याः कृते वरणे हृदिस्थे सति श्वा दक्षिणमंगभागं स्तंभे कंडूयते तदा सा ऊढा ॥ भाषा॥ निश्चयकर ये पांच दप्ति हैं. और पांच ही ये शांत हैं, ऐसे ही और जे पोतकीकं आदिले जे शकुन तिनमें विद्वानपुरुष करके ये पांच शांत और पांच दीप्त विचारने योग्यहैं ॥ २८ ॥ इति श्रीवसंतराजभाषाटीकायां श्वानचेष्टिते राज्याधिकारप्रकरणं द्वितीयम्॥२॥ वरस्योति ॥ कन्याके वरबेकू वांछित होय रह्यो वाकू और पतिकू वरबेकी इच्छा कर रही वा कन्याकू इन दोनोनकू परस्पर परीक्षा करवेकू सरमा नाम जो इंद्रकी कुतिया वाको बेटा श्वान ताकी चेष्टा क्रम करके कहैहैं ॥ २९ ॥ कौलेयक इति ॥ शुनी जो कुतिया जेमने अंगकी चेष्टा करती होय तो कन्या विवाहके योग्य जाननो, जो बाई चेष्टा करती होय तो वा कन्याको विवाह नहीं करनो. कुतिया सहित श्वान मैथुन सुख करतो होय तो ता व्याही हुई कन्या करके सहित सुखपूर्वक दिन व्यतीत होय ॥ ३० ॥ कंड्यत इति ॥ जा कन्याके अर्थ हृदयमें विचार करलियो होय और श्वान जेमने अंग भागकू स्तंभमें खुजा. वतो होय तो वो विवाह हुये पीछे सुत धन इनकी वृद्धिके अर्थ होय. और वांये अंगको Aho ! Shrutgyanam Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते विवाहप्रकरणम् । ( ४३३ ) उत्क्षिप्य यक्षो यदि दक्षिणांत्रिं करोति पात्रे मणिके घटे वा ॥ मूत्रं तदानीं परिणीयते या सा स्यादवश्यं बहुपुत्रयुक्ता ॥ ३२ ॥ अंगानि वामानि कषन्निजानि विशंश्च शाला गृहमंडपादीन् ॥ श्वा वक्ति कन्यामविवाहनीयां यत्सा भवित्री कुलदूषयित्री ॥३३॥ कौलेयको यद्वरणोद्यतस्य त्यक्ताभिशंकोऽभिमुखोऽभ्युपैति ॥ सानर्थदा भर्तृकटुंबमारी दूरेण हेया विदुषा कुमारी ॥ ३४ ॥ वामांत्रिणा कषाते नासिकाग्रं कंडूयते वा भुवि तत्कदाचित् ॥ वामेन यो वा कुटिलं प्रयाति वैधव्यदोऽसौ कपिलः कुमार्याः ३५ ॥ ॥ टीका ॥ सुतवित्तद्धर्यै भवेत् । वामांगकण्डूयनमप्रशस्तं भवति ॥ ३१ ॥ उत्क्षिप्येति ॥ यदि यक्षः दक्षिणत्रिमुत्क्षिप्य उच्चैः कृत्य पात्रे मणिके गर्गय गढाख्ये घटे वा मूत्रं करोति कचित्पट्टे इति पाठः । तदानीं या परिणीयते सा अवश्यं बहुपुत्रयुक्ता भवति ॥ ३२ ॥ अंगानीति ॥ वामानि निजानि अंगानि कषञ्छालागृहमंडपादीन्विशंश्च श्वा कन्यामविवाहनीयां विवाहकरणायोग्यां वक्ति कथयति । यद्यस्मात्कारणात्सा कन्या कुलदूषयित्री भवित्री । कचिद्विशं श्चलंस्तद्गृह मण्डपादीनित्यपि पाठः ॥ ३३ ॥ कौलेयक इति ॥ कौलेयको यदा वरणोद्यतस्य पुंसः त्यक्ताभिशंकः निर्भयः अभिमुखः अभ्युपैति तदा कुमारी कन्या विदुषा पण्डितेन दूरेण हेया त्याज्या । कीदृशी अनर्थदा अनर्थ दत्ते सा अनर्थदा । पुनः कीदृशी भर्तृकुटुंबमारी भर्तुः कुटुंबक्षयकारिणीत्यर्थः ॥ ३४ ॥ वामांत्रिणेति ॥ यदि कपिलः ॥ भाषा ॥ खुजावनो अशुभ है ॥ ३१ ॥ उत्क्षिप्येति ॥ जो श्वान जेमने पांवकूं ऊंचो कर माणके पात्र वा वडापै मूत्र करदे तो जो कन्या व्याहले वो कन्या अवश्य बहुपुत्रयुक्त होय ॥ ३२ ॥ अंगानीति ॥ खान बांये अंगकूं खुजावत. शाला गृह मंडपादिक इनमें प्रवेश कर जाय तो वो कन्या विवाहके योग्य नहीं ऐसो कहै है ये जाननो. वो कुलकूं दोषके लगायवेवारी जाननी ॥ ३३ ॥ कौलेयक इति ॥ जो श्वान जा कन्या वरवेकूं इच्छा करे है वा पुरुषके निर्भय संमुख आय जाय तो वो कन्या अनर्थकं देवेवाली और भर्ता - रके कुटुंबको क्षय करनेवाली जानकर विद्वान् पुरुष त्याग करदे वाकूं व्याहै नहीं ॥ ३४ ॥ वामांत्रिणेति ॥ जो खान बांये पाँवकरके अप्रकूं खुजावतो होय अथवा नासिका के ૨૮ Aho! Shrutgyanam Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३४) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। . हदेत यो वामकटेन शेते वमेत्खनेत्कपरवामलूरौ ॥ अंगारभस्मास्थिचयादिकं वा पंचत्वभीत्यै भषणः स कृष्णः ॥ ॥३६॥ यक्षः समाजिघ्रति यश्च शुन्या योनि स कन्यां क्षतयोनिमाह ॥ स्याजागरूको यदि मैथुनस्थो रुचिस्तदा स्यादितरेतरस्य ॥ ३७ ॥ प्रश्ने वरार्थे विहिते कुमार्याः स्यादामचेष्टः शुभदो न चान्यः ॥ मूत्रं च शुन्या उपरि प्रकुर्वन्ब्रूते सपत्नी भषणो भवित्रीम् ॥ ३८ ॥ ॥ टीका ॥ कुक्करवामांविणा नासिकाग्रं कर्षति वा अथ वा भुवि भूमौ तन्नासिकाग्रं कदाचिकंडूयते अथवा यो वामेन वामभागेन कुटिलं वकं प्रयाति असौ कपिलः कुमार्याः वैधव्यदो भवति ॥ ३५॥ हदेतेति ॥ यः श्वाहदेत विष्ठां कुर्यात् अथ वा वामकटेन शेते शयनं कुर्यात् अथवा वमेदाति कुर्यात् अथवा कपरवामलूरौ कपालवल्मीको खनेत अथवा अंगारभस्मास्थिचयादिकं खनेत्स भषणः पंचत्वभीत्यै मरणभिये उक्तः कथितः ॥ ३६॥ यक्ष इति ॥ यः यक्षः शुन्याः सरमायाः योनि समाजिघति गंधोपादानं करोति स कन्यां क्षतयोनि भयकौमार्यव्रतामाह यदि जागरूकः मैथुनस्थो भवति तदा इतरेतरस्य परस्परस्य कन्यावरस्येत्यर्थः । रुचिः स्यात् ३७॥ प्रश्ने इति ॥ कुमार्याः वर्रार्थे प्रश्ने विहिते सति यदि वामचेष्टः श्वा स्यात्तदा शुभदः न चान्यः दक्षिणचेष्टःशुभदो नाशुन्या उपरि मूत्रं च प्रकुर्वन्भषणः भवित्री ॥ भाषा॥ पृथ्वीमें ता नासिकाके अग्रकू खुजावतो होय अथवा वामभागमें होयकर ठेढो चले तो वा कन्याकू वैधव्य देवै ॥ ३५ ॥ हदेतेति ॥ जो इवान विष्ठा करें, अथवा बांई करोंट शयन करे, वा वमन नाम उलटी करै, अथवा कपाल वा सर्पकी बबईमें खोदे, वां अंगार भस्म हाडनको समूह इत्यादिकनकं खोदतो होय तो मरणको भय करे ॥ ३६ ॥ यक्ष इति ॥ जो श्वान कुतियाकी योनिकं संघतो होय तो कन्यापनो जाको दूर होय गयो ऐसी जानना. जो श्वान मैथुनमें स्थित होय तो कन्या वर इनकी परस्पर रुचि होय ॥ ३७ ॥ प्रश्ने इति ॥ जो कन्या भरतारके वरवेकू अर्थ प्रश्न करै और श्वान वामचेष्टा करतो होय तो शुभ, देवे. दक्षिण चेष्टा शुभकी देवेवाली नहीं है. जो शुनीके ऊपर मूत्र कर देवे श्वान तो वा Aho ! Shrutgyanam Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३५ ) श्वचेष्टिते विवाहप्रकरणम् । संमार्जयन्वामकरेण जिह्वां ब्रवीति भोगप्रियतां वरस्य यक्षो लिहञ्जल्पति वामपादं वित्तेन वृत्तिं भ्रमणार्जितेन ॥ ॥ ३९ ॥ मूत्रं निजं लेढि दिशं च वामां प्रयाति तत्स्यादयितोऽनुरागी ॥ वामं लिहन्सृक्किवरस्य पूर्णे महानसे व्यापरणं ददाति ॥ ४० ॥ गलाक्षिकर्णाननभालमूर्ध्ना वामांत्रिणा स्पर्शनतः कुमारी ॥ राज्ञी भवेत्तस्य वरस्यं गेहे यथोत्तरं वृद्धिमती क्रमेण ॥ ४१ ॥ ॥ टीका ॥ भाविनीं सपत्नीं ब्रूते ॥ ३८ ॥ संमार्जयन्निति ॥ यक्षः वामकरण जिह्वां संमार्जयन्विशुद्धिं कुर्वन्वरस्य भोगप्रियतां भोगः प्रियो वल्लभो यस्य तस्य भावस्तत्ता तां ब्रवीति कथयति । यक्षः वामपादं लिहन्नास्वादयन्वरस्य भ्रमणार्जितेन वित्तेन वृत्तिं आजीविकां जल्पति ॥ ३९ ॥ मूत्रमिति ॥ यदि श्वा निजं मूत्रं लेढि आस्वादयति दिशं च वामां यदि वा प्रयाति तदा दयितः अनुरागी स्यात् । वामं सृक्कि अधरस्याधः प्रदेशं लिहन्वरस्य पूर्णे महानसे व्यापरणं ददाति । अन्नपाचकः स्यादित्यर्थः ॥ ४० ॥ गलेति ॥ गलाक्षिकर्णाननभालमूर्ध्ना वामत्रिणा स्पर्शनतः कुमारी राज्ञी स्यात् । तत्र गलः कंठः अक्षि चक्षुः कर्णः श्रवणम् आननं मुखं भालं ललाटमेतेषामितरेतरद्वंद्वः । प्राणितूर्यसेनांगानामित्येकवद्भावः । तस्य वरस्य गृहे क्रमेण यथोत्तरं ॥ भाषा ॥ कन्याके दूसरी सौत होयगी ऐसो जाननो ॥ ३८ ॥ संमार्जयन्निति ॥ जो श्वान बांये हाथ करके जिह्वाकूं मार्जन करतो होय अर्थात् पोंछतो होय तो वा कन्याके वरकूं संभोग बलभ बहुत हाय ऐसो जाननो. जो श्वान बांये पाँवकूं चाटतो होय तो वा कन्याके वरकूं भ्रमण करके संचित हुयो धन ता करके आजीविका जाननो ॥ ३९ ॥ मूत्रमिति ॥ जो श्वान अपने मूत्रकूं आप स्वाद लेवै फिर बामदिशाको जाय तो भर्तार अनुरागी होय. जो श्वान बांई गलफाडकूं चाटतो होय तो वा कन्याको भर्त्तार रसोई की चाकरीसूं जीविका करे ॥ ४० ॥ गलेति ॥ जो श्वान कंठ, नेत्र, कर्ण, मुख इनकूं स्पर्श करै तो वो कन्या. राणी होय. जा दिनसं भर्त्तारके जाय वा दिनसूं वाके भर्त्तारके घरमें वृद्धि होती चली Aho ! Shrutgyanam. Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३६ ) वसंतराजशाकुने - अष्टादशी वर्गः । कार्य कुमारीवरणं वरेण समस्तचेष्टाभिरवामिकाभिः ॥ पतिंवरा श्वानविचेष्टितेन सर्वेण वामेन पतिं विदध्यात् ॥४२॥ इति वसंतरा० श्वचेष्टिते विवाहप्रकरणं तृतीयम् ॥ ३॥ अथाभिदध्मः सरमासुतस्य तत्तादृशं चेष्टितमप्रमेयम् ॥ यदेशला भादिनिमित्तभूतं हितं सदा शाकुनकोविदेभ्यः ॥ ॥ ४३ ॥ उपस्थितः प्राक्तनपुण्यपाकात्पुरः स्थितो दक्षिणपाणिना स्वम् || शिरः स्पृशत्युल्लसितांतरात्मा यो मंडलो मंडललाभदोऽसौ ॥ ४४ ॥ ॥ टीका ॥ वृद्धिमती स्यात् ॥४१॥ कार्यमिति ॥ वरेण कुमारीवरणमवामिकाभिः समस्तचेष्टाभिः कार्य कर्तव्यम् । पतिवरा कन्या सर्वेण वामेन श्वानविचोष्टतेन पतिं विदध्याकुर्यात् ॥ ४२ ॥ इति श्वचेष्टिते विवाहप्रकरणं तृतीयम् ॥ ३ ॥ अथेति ॥ विवाहप्रकरणकथनानंतरं सरमासुतस्य कुक्कुरस्य तत्तादृशं चेष्टितं वयं अभिदध्मः कथयामः । यचेष्टितं शाकुन कोविदेभ्यः शकुनज्ञानपंडितेभ्यः सदा सर्वदा देशला भादिनिमित्तभूतं हितं भवति । कीदृशं हितम् अप्रमेयमसंख्यम् ४३ ॥ उपस्थित इति॥ यः मंडलःः प्राक्तनपुण्यपाकादुपस्थितः स्वयमागत्य पुरःस्थितः उल्लसितांतरात्माभवति दक्षिणपाणिना स्वं शिरःस्पशति असौ मंडलःश्वामंडललाभदः ॥ भाषा ॥ जाय ॥ ४१ ॥ कार्यमिति ॥ जो वर कन्याकूं बरवेके लिये शकुन देखे तो श्वानकी समस्त जेमनी जेमनी चेष्टान करके वरै जो कन्या भरतारके वरखेकूं देखे तो खानकी बांई चेष्टान करके भरतार करे ॥ ४२ ॥ इति श्रीवसंतराजभाषाटीकायां श्वचेष्टिते विवाहप्रकरणं तृतीयम् ॥ ३ ॥ अथेति ॥ विवाहप्रकरणके कहेके अनंतर अब सरमाके बेटा श्वानकी असंख्यशकुनमें पंडित उनके अर्थ सदा सर्वदा देश लाभादिकनके निमित्त भूत हितकारी चेष्टा हम कहैं ॥ ४३ ॥ उपस्थित इति ॥ जो श्वान पूर्वपुण्यके प्रभावसूं अपने आप आयकर आगे ठाढो होकर प्रसन्न चित्त होय और जेमने हाथकर अपने मस्तककूं स्पर्श करतो होय Aho! Shrutgyanam Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते देशलाभादिप्रकरणम्। (४३७) हलानि बीजान्यथवा गृहीत्वा क्षेत्रेषु यांतः शुनि वामयाते।। निवर्तमानेष्वपसव्यभूते कृषीवलास्स्युनियतं कृतार्थाः॥४५॥ चेष्टास्ववामासु शुना कृतासु दुरोदरं क्रीडति यो विशंकः॥ स द्यूतकारान्सकलान्विजित्य वित्तं समस्तं ध्रुवमाददाति ॥४६॥ उत्कासहिकाशयनांगभंगविष्ठावमिश्वासविज़ंभणानि ॥ वक्रां शुनोपोन्मिषितां च दृष्टिं छूते प्रशंसंतिन वामचेष्टाम् ॥४७॥ विलासिनीसंग्रहणं विदध्यादवामचेष्टे भषणे भुजंगः।। वेश्या पुनः कामुकवंचनाय कुर्यानिवासं शुनि वामचेष्टे ॥४८॥ ॥ टीका ॥ जनपदलाभदः स्यात् ॥ ४४ ॥ हलानीति ॥ हलानि बीजानि वा गृहीत्वा क्षेत्रषु यांतः कृषीवलाः शुनि भषणे वामयाते सति निवर्तमानेषु तेषु कृषीवलेषु अपसव्यभूते सति दक्षिणगते सति कृषीवलाः नियतं कृतार्थाः कृतकृत्याः स्युः॥४५॥चेष्टास्विति॥अवामासु चेष्टासु शुना कृतासु सत्सु यापुमान् विशंको निर्भयादुरोदरंद्यूतं क्रीडति खेलति सं सकलान्यूतकारान्विजित्य ध्रुवं समस्तं वित्तमाददाति गृहाति ॥४६॥उत्कासेति॥उत्पावल्येन कासः हिक्का हेडकीति प्रसिद्धा शयनं स्वापः अंग. . भंगागात्रमोटनं वमिवांतिःश्वासः ऊर्ध्वं वायोःप्राबल्यं विजृभणं मुंभा एतेषामितरेतरद्वंद्वः। अझैन्मिषितां वक्रां च दृष्टिं शुनो भषणस्य एतानि छूते प्रशंसंतिन वामचेष्टाम् ॥४७॥ विलासिनीति॥भुजंगः गणिकापतिः अवांमचेष्टे भषणे सति ॥भाषा॥ तो मंडल जो देश ताको लाभ देवै ॥ ४४ ॥ हलानीति ॥ जो खतीवाले हल अथवा बीज इनें लेकरके खेतपै जाते होंय जो इवान बायो आय जाय और खेतमू पीछे वगर्दै "तब जेमनो आवे तो निश्चय किषाण कृतार्थ होय. ॥ ४५ ॥ चेष्टास्विति ॥ जो पुरुष जवा खेलवेकं जातो होय और श्वानमें जेमने भागमें जेमने अंगकी चेष्टा करी होय. तो निर्भय जवामें जाय जुवा खेले वो सब ले जूवावारेनषू जीत करके समस्त धन ग्रहण करे ॥ ४६॥ उत्कासेति ॥ प्रबल खांसी हिचकी सूतो होय अंगभंग करनो अर्थात अंग मरडनो वमननाम उलटी करनो श्वास लेनो जंभाई लेनो आधे नेत्र खुले आधे मिचे श्वानकी इतनी चेष्टा जूवा खेलवमें शुभ हैं और बाई चेष्टा शुभ नहीं है ॥ ४७ ॥ विलासिनीति ॥ भुजंग कहे ता जार जोहै सो जो भषण जेमनी चेष्टा करै तो वेश्याकू Aho ! Shrutgyanam Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३८) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः । संमत्रयञ्श्वा रमणीयदेशे चेष्टामवामां ललितां प्रकुर्वन् ॥ स्यादर्भवत्याः सुतजन्महेतुश्चेष्टाश्च कन्याजननाय वामाः॥४९॥ विष्ठावमिश्वासविज़ंभणानि प्रस्वापकासांगविमोटितानि ॥ यद्याचरत्याशु तदाकरोति वागर्भवत्याः खलु गर्भपातम॥५०॥ क्रीडां विधत्ते शुभचेष्टितोयः सोऽभीष्टयोगं विदधातियक्षः॥ वामां च चेष्टां विदधन्नराणामिष्टेन सार्धविरहं ब्रवीति॥५॥ शुभस्वरो यः शुभचेष्टितः श्वा करोति मूत्रं च शुभप्रदेशे ॥ ददात्यसाबुद्यमिनां हृदिस्थंनिःसंशयंधान्यधनादिलाभम्॥५२॥ ॥ टीका ॥ विलासिनीसंग्रहणं स्वीकारं विदध्यात्। “भुजंगो गणिकापतिः"इत्यमरःवेश्या पुनः शुनि वामचेष्टे सति कामुकवंचनाय कामुकस्य भर्तुःवंचनं विप्रतारणं तस्मै निवासं गृहवासं कुर्यात् ॥ ४८ ॥ संमूत्रयन्निति । श्वा रमणीयदेशे मनोज्ञप्रदेशे संमूत्रयन्प्रस्रवणं कुर्वत्रवामां ललितां च चेष्टां प्रकुर्वन्गर्भवत्याः सतजन्महेतुः स्यात्।अथ वामाश्चेष्टाः कन्याजननाय भवंति ॥ ४९ ॥ विष्ठेति ॥ विष्ठा विट् वमिः वांतिः श्वासः पवनः विजृभणं जूंभा तानि प्रस्वापः शयनं कासः प्रतीतः अंगविमोटितं अंगभंगः कचिदंगविलोडनानीति पाठः । यद्येतानि श्वा आचरति तदा आशु शीघं गर्भवत्याः खलु निश्चितं गर्भपातं करोति ॥ ५० ॥ क्रीडामिति ॥ शुभवेष्टितो यःयक्ष क्रीडां विधत्ते स नराणामभीष्टयोगं विदधाति वामां च चेष्टां विदधनिष्टेन साई विरहं ब्रवीति कथयति॥५१॥ शुभेति ॥ यः श्वा शुभस्वरः शुभचष्टित ॥भाषा॥ स्वीकार करे. और वेश्या श्वान जो बाई चेष्टा करतो होय तो कामी भर्तारके ठगवेके अर्थ निवास करै ॥ ४६॥ संमूत्रयनिति ।। जो श्वान सुंदर शोभित. स्थानमें मूत्र करे, और जेमनी मनोहर चेष्टा करतो होय तो गर्भवतीके बेटा होय. अथवा बांई चेष्टा करतो होय तो कन्याको जन्म होय ॥ ४९॥ विष्ठेति ॥ विष्ठा, वमन, श्वास, जंभाई, सोवनी, खांसी, अंगको मरोडनो इन चेष्टानकू श्वान आचरण करतो होय तो शीघ्र गर्भवतीको निश्चय गर्भपात होय ॥ ५० ॥ क्रीडामिति ॥ शुभचेष्टा करत श्वान क्रीडा करे तो मनुष्यनकू वांछित फल करै. जो बाई चेष्टा करतो होय तो इष्ट प्यारे जनन करके वियोग करावे ॥ ११ ॥ शुभेति ॥ खान शुभ शब्द बोले शुभ चेष्टा करे फिर सुंदर स्थानमें मूत्र Aho! Shrutgyanam Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते देशलाभादिप्रकरणम् । (४३९) अवामगात्रं यदि दक्षिणेन पादेन कंडूयति सारमेयः ॥ वाणिज्यकं तत्सफलं ब्रवीति स्याव्यत्ययेऽसत्यफलं नराणाम् ॥५३॥ भृत्यस्य यः संग्रहणं विदध्यात्तथा नरो वांछति सेवितुं यः ॥ तयोः सुखं स्यादपसव्यचेष्टे दुःखं च यक्षे कृतवामचेष्टे ॥ ५४॥ विद्यासमारंभविधौ प्रशस्तः स मंडलो दक्षिणचेष्टितो यः॥ यो वामचेष्टः स पुनर्नराणां पूर्वाजितामप्युपहति विद्याम् ॥ ५५ ॥ संतुष्टचित्तः सुरवः सुचेष्टः करोति सिद्धि विवरप्रवेशे ॥ पराङ्मुखो धावति यस्तु यक्षः कृतांतरायो न स सिद्धिहेतुः॥५६॥ ॥ टीका ॥ श्व शुभप्रदेशे मूत्रं करोति असौ उद्यमिनामुद्यमवतां हृदिस्थं हचिंतितं धनधान्या- . दिलामं निःसंशयं ददाति ॥ ५२॥ अवामेति ॥ सारमेयः श्वा यदि दक्षिणेन पादेन अवामगात्र दक्षिणांगं कंडूयति तदा नराणां वाणिज्यकं फलं ब्रवीति । व्यत्यये सति असत्यफलं स्यात् । “वाणिज्यं तु वणिज्या स्यात्" इत्यमरः ॥ ५३ ॥ भृत्यस्येति ॥ यः पुमान्मृत्यस्य सेवकजनस्य संग्रहणं विदध्यात् तथा यो नरः सवितुं वाञ्छति समीहते तयोःअपसव्यचेष्टे यक्षे शुनि सुखं स्यात् । कृतवामचेष्टे तु दुःखं स्यात् ॥ ५४॥ विद्योति ॥ यःमंडलःश्वा दक्षिणचेष्टः स विद्यासमारंभाविधौ वि. द्यायाः समारंभः प्रारंभः तस्य विधिविधानं तस्मिन्प्रशस्तः स्यात् । यः वामचेष्टःस पुनर्नराणां पूर्जितामपि विद्यां हंति विनाशयति ॥ ५५ ॥ संतुष्टेति ॥ यः यक्षः ॥ भाषा ॥ करै तो उद्यमी पुरुषनळू जो मनमें होय सो धनधान्यादिकनको लाभ करै ॥ १२ ॥ अवामेति ॥ जो श्वान जेमने पाँव करके जेमने अंगकू खुजाएँ तो मनुष्यनकू वाणिज्य फल देवे. जो बांये पाँवकर बाये अंगकू खुजावे तो वाणिज्य निष्फल होय ॥ १३ ॥ भृत्यस्येति ॥ जो पुरुष सेवककू राख्यो चाहै. और जो चाकर सेवा करवेकी वांछा करे, इन दोनोंनळू श्वान जेमने अंगमें चेष्टा करतो होय तो दोनोंनकू सुख होय. जो बाई चेष्टा करै तो दुःख होय ॥ १४ ॥ विद्येति ॥ जो श्वान दक्षिण अंगकी चेष्टा करै तो विद्याके आरंभकी विधिमें शुभ है. जो श्वान वामचेष्टा करै तो फिर मनुष्यनकू पूर्व. जन्मकी संचय करीभी विद्यानाशकू प्राप्त होय जाय ॥ ५५ ॥ संतुष्टेति ॥ जो श्वान Aho ! Shrutgyanam Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (880) वसंतराजशाकुने - अष्टादशी वर्गः । दृष्ट्वा शशांक यदि निर्विशंकः करोति शब्दं मुदितांतरात्म || तज्जागरूको विदधाति सौख्यं जनस्य सर्वे दुरितं निहंति ॥५७॥ इति वसंतराजशाकुने श्वचेष्टिते देशला०प्र० चतुर्थम् ॥४॥ वर्षानिमित्तं शुनकोत्तमस्य चेष्टा विशिष्टा विधिनोपदिष्टाः॥ याः शाकुनज्ञानविशारदैस्ताः शृण्वंतु शिष्टाः परमार्थतुष्टाः ॥ ५८ ॥ उद्घाट्य चेदक्षिणमक्षि लीढे नाभि स्वकी यामथ वाधिरूढः ॥ शेते गृहस्योपरि जागरूकस्तदांबुदोंबु क्षिपति प्रभृतम् ॥ ५९ ॥ ॥ टीका ॥ संतुष्टचित्तः प्रसन्नहृदयः सुरवः सुशब्दः सुचेष्टः स यक्षः विवरप्रवेशे गर्तादिप्रवेशे सिद्धिं करोति । यस्तु पराङ्मुखो धावति स कृतांतरायः विहितविघ्नः सिद्धिहेतुर्न भवति ॥५६॥ दृष्ट्वेति ॥ यो जागरूकः कुक्कुरः शशांक दृष्ट्वा मुदितांतरात्मा हषितचित्तः सन्निर्विशंको भयरहितः शब्दं करोति तदा स जागरूकः जनस्य सौरूयं विदधाति । सर्व दुरितं कष्टं निहति ॥ ५७ ॥ I इति वसंतराजटीकायां श्वचेष्टिते देशलाभप्रकरणं चतुर्थम् ॥ ४ ॥ वर्षेति ॥ शकुनज्ञानविशारदैः याः शुनकोत्तमस्य वर्षानिमित्तं विशिष्टाश्चेष्टाः वि. धिना उपदिष्टाः परमार्थतुष्टाः शिष्टाः ताः शवंतु ॥ ५८ ॥ उद्घाटयेति ॥ चेदक्षिणमक्षिल द्घाट्य स्वकीयां नाभि लीढे अथवा जागरूकः गृहस्योपरि अधिरूढः शेते तदा अंबुदः ॥ भाषा ॥ प्रसन्न हृदय होय, सुंदर चेष्टा करतो होय, तो गर्तादिक नाम गढेलेमें कहूं प्रवेश करेकी सिद्धि करै. जो श्वान विमुख होकर दौडतो होय तो वा पुरुष विघ्न होय सिद्धि नहीं होय ॥ ५६ ॥ दृष्ट्वेति ॥ जो खान चंद्रमाकूं देखकरके प्रसन्नचित्त होय, निर्भय शब्द करे तो मनुष्यकूं सौख्य देवे. और संपूर्ण कष्ट दूर करे ॥ ९७ ॥ इति वसंतराजशाकुने भाषाटीजायां श्वचेष्टिते देशलाभादिप्रकरणं चतुर्थम् ॥ ४ ॥ वर्षा इति ॥ शकुन ज्ञानमें निपुण उन्ने जे उत्तम स्वानकी विशेषचेष्टा विधिकरके कही हैं. परमार्थमें तुष्टकर्ता और श्रेष्ठ तिने सुनो ॥ ५८ ॥ उद्घाट्येति ॥ जो जेममे नेत्रकूं. उघाडकरके अपनीनाभिकूं चाटे अथवा श्वान घरके ऊपर चढकर सोयजाय तो मेघ बहुत Aho! Shrutgyanam Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते वृष्टिप्रकरणम् । ( ४४१ ) वर्षासु वृष्टिं सलिले निमग्नाः कुवति चक्रभ्रमणाद्विशेषात् ॥ अपो विधुन्वंति पिंबंति तोयं पक्षांतरेऽन्यत्र जलागमाय ॥ ॥ ६० ॥ जृंभां प्रकुर्वन्गगनं विलोक्य यो जागरूकः कुरुतेऽ श्रुपातम् ॥ स जल्पति प्रावृषमंबुपूरप्लुतावानं सर्वसमृद्धिसस्याम् ॥ ६१ ॥ उच्चै रुवद्भिस्तृणकूटगेहप्रासादसंस्थैः श्वभिरब्दकाले || आसारवर्षो जलदोऽन्यदा तु भवंति रोगाग्निभयप्रणाशाः ॥ ६२ ॥ निर्गत्यं तोयादधिरुह्य पालीं कौलेयद्विधुनोति कायम् ॥ तं निश्चितं प्रावृषि वृष्टिमब्दः कृषीवलप्रीतिकरों करोति ॥ ६३ ॥ ॥ टीका ॥ प्रभूतं अं क्षिपति विकिरति ॥ ५९ ॥ वर्षास्विति ॥ सारमेयाः वर्षासु सलिले निमग्नाश्चक्रभ्रमणाच्चक्रवभ्रमणाद्विशेषाद्विशेषेण वृष्टिं कुर्वति । यदि अपः विधुन्वंति तोयं पिबन्ति तदा पक्षांतरेऽन्यत्र जलागमाय भवंति ॥ ६०॥ जृंभामिति ॥ यो जागरूकः जृंभां प्रकुर्वन्गगनं विलोक्य अश्रुपातं कुरुते सः अंबुपूरप्लुतावानं सर्वसम्मृइसस्यां प्रावृषं वर्षां जल्पति ॥ ६१ ॥ उच्चैरिति ॥ अब्दकाले मेघकाले। " अब्दः संवत्सरे मेघे गिरिभेदे च मस्तके" इति विश्वः । तृणकूटगेहप्रासाद संस्थैस्तृणकूटं तृणसमूहः गेहं गृहः प्रासादो देवभूपानां गृहः एतेषामितरेतरद्वंद्वः । तेषु संस्थैः स्थितैः श्वभिः उच्चै रुवद्भिः जल्पद्भिः आसारवर्षो जलदो भवति । "आसारो वेगवान्वर्षः” इति हैमः । अन्यदा तु वर्षाकालाभावे रोगाग्निभयप्रणाशाः भवति । रोगश्च अग्निश्च भयं च प्रणाशश्चेतीतरेतरद्वंद्वः ॥ ६२॥ निर्गत्येति ॥ यदि तोयान्नीरात्रि॥ भाषा ॥ वान वर्षामें जल्में डूब जाय और चक्रकीसी नाई वा जलकूं पीवे तो और जगहजलको आगमन जो खान जंभाई लेतो हुयो आकाशकूं देखअन्न जामें बहुत जलकरके भरी हुई पृथ्वी वर्षाकालमें तृणको समूह, घर, देवमंदिर, राज वेगसूं वर्षे, जो वर्षाकालको अभाव होय तो जलवर्षावे ॥ ५९ ॥ वर्षास्विति ॥ भ्रमण करे तो वृष्टि करै, जो जलकूं हलावे कहें हैं ऐसो जाननो ॥ ६० ॥ जृंभामिति ॥ करके नेत्रनमेंसूं अश्रुपातडारे तो समृद्धवान् जामें ऐसी वर्षा होय ॥ ६१ ॥ उच्चौरिति घर इनमें स्थित होय श्वान बोले तो मेघ बडे रोग, अग्नि, भय, नाश ये होय ॥ ॥ ६२ ॥ निर्गत्येति ॥ जो श्वान जलमेंसूं निकसर Aho! Shrutgyanam Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४२) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः । उच्चं प्रदेशं भषणोऽधिरुह्य भषत्यभीक्ष्णं रविमीक्षमाणः ॥ यदा तदानीमचिरेण वृष्टिरम्भोदमुक्ता भवति प्रभूता ॥६४॥ न नीरदो मुंचति केनचिच्चेदोषेण चेष्टाप्रभवेण वृष्टिम् ॥ अचिंतितास्तत्र पतंत्यनाश्चौराग्निभीरुग्डमरप्रकाराः॥६॥ इति वसंतराजशाकुने श्वचेष्टिते वष्टिप्र. पंचमम् ॥५॥ सैन्यद्वयस्येह समुद्यतस्य युद्धादिकं मंडलचोष्टितेन ॥आचार्यवों विधिवीक्षितेन योगीव भाव्यं सकलं ब्रवीति ॥६६॥ ॥टीका ॥ गर्त्य पाली अधिरुह्य कौलेयकः कायं विधुनोति तदा निश्चितं अब्दो:मेघः प्रावृषि वर्षाकाले कृषीवलप्रीतिकरी वृष्टिं करोति॥६३॥उच्चमिति ॥ यदि भषणः उच्चं प्रदे शमधिरुह्य रविमीक्षमाणः अभीक्ष्णं वारंवारं भवति तदानीमम्भोदमुक्ता अचिरेण प्रभूता वृष्टिर्भवति ॥ ६४ ॥ नेति ॥ नीरदो मेघः चेष्टाप्रभवेण केनचिदोषेण चेट्टष्टिं न मुञ्चति तदा चौरामिभीरुग्डमरप्रकारा अनर्थाःअचिंतिताःसनिपतंति चौरश्च अमिभीश्च रुक्च डमरश्चेतीतरेतरद्वंद्वः। तत्र रुक रोगः डमरः अशस्त्रयुद्धम्॥६५॥ इति वसंतराजशाकुने टीकायां श्वचेष्टिते वृष्टिप्रकरणं पंचमम् ॥५॥ सैन्येति ॥ आचार्यवर्यः इह विधिवीक्षितेन मण्डलचेष्टितेन समुद्यतस्य सैन्यदयस्य भाव्यं भवितव्यं युद्धादिकं समस्तं सकलं ब्रवीति वक्ति । क इव योगीव । ॥ भाषा ॥ तटपै आयकर श्वान देहळू कंपायमान करे तो निश्चय मेघ वर्षाकालमें किषाणकी प्रीति करवेवाली वृष्टि करें ।। ६३ ।। उच्चमिति ॥ जो श्वान ऊंचे स्थानपै चढ करके वारंवार सूर्यकू देखतो जाय और शब्द करै तो मेघ शीत्रही बहुत वर्षा करै ॥ ६४ ॥ नेति ॥ श्वानकी कोई एक चेष्टासू हुयो-जो दोष ताकरके मेघ वृष्टि नहीं करै तो चौर, अग्निभय, रोग, डमर नाम विनाशस्त्रको युद्ध ये विना चिंतमन कियेहुये अनर्थ होय ॥ १५ ॥ इति वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां श्वचेष्टिते वृष्टिप्रकरणं पंचमम् ॥५॥ सैन्येति ॥ जो शकुनमें मुख्य आचार्य हैं वे यामें विधिपूर्वक देखी हुई श्वानकी चेष्टा ता करके कोई युद्ध करवेकू ठाढी हुई दोनों ओरको सेनानको युद्ध, जय, भंगादिक, Aho ! Shrutgyanam Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचोष्टिते युद्धप्रकरणम् । (४४३) युद्धं जयो भंग इतीहशानि निवेदयेत्प्राविधिसिद्धपिंडे ॥ भुक्ते शुना तत्र च लक्षणीयं यद्भावि मध्याद्विनिवेशितानाम ॥६७॥ जयाय यक्षः कृतशांतचेष्टः प्रदीप्तचेष्टस्तु पराजयाय ॥ दिक्स्थानचेष्टाभिरथ प्रदीप्तो वधाय युद्धे नियमेन योद्धः ॥ ६८ ॥ भषत्रभीको भषणः सरोषः समुल्लिखन्भूमिमखिन्नचित्तः॥ रुषा स्वकीयं चरणं च वामं प्रचर्वयन्नाहवमाह घोरम् ॥ ६९॥ ॥टीका ॥ यथा योगी सकलं भाव्यं वक्ति तथेत्यर्थः ॥६६॥ युद्धमिति ।। प्राविधिसिद्धपिंडे काकरुताधिकारप्रदर्शितविधानविहितपिंड इत्यर्थः । युद्धं जयः भंगश्च अनेन युद्धम् अनेन जयः अनेन भंगःइति ईदृशान् पिंडान् यथाक्रम परिपाट्या निवेदयेत् । क्वचिनिवेशयेत् इति पाठः । तत्र स्थापयदित्यर्थः । तत्र निवेशितानां स्थापितानां पिंडानां मध्याच्छुना भुक्ते भक्षिते पिंडे यद्भावि युद्धं जयो भंगश्चेति तल्लक्षणीयं ज्ञातव्यम् ॥ ६७॥ जयायेति ॥ कृतशांतचेष्टः यक्षः जयाय भवति कृता शांता चेष्टा येन स तथोक्तः। प्रदीप्तचेष्टस्तु प्रदीप्ता चेष्टा यस्य स तथोक्तः यक्षः पराजयाय भवति । अथ दिक्स्थानचेष्टाभिः दिक् स्थानं च चेष्टा च ताभिः प्रदीप्तः यक्षः युद्धे नियमेन योद्धर्वधाय भवति ॥ ६८ ॥ भषनिति ॥ भषणः अभीकः भयरहित: भषनारटनखिन्नचित्तः अखेदमनस्कः सरोषः भूमि समुल्लिखन्रुषा प्रकोपेण स्वकीयं ॥ भाषा॥ होनहार सब कहेहैं. जैसे योगी सब होनहारकू कहें, तैसही येकहैहैं ॥ ११ ॥ युद्धमिति ॥ पहले काकरुत प्रकरणमें पिंडनको विधान कह आयेहं सो पिंड तीन यहां धरने या करके युद्ध होयगो याकरके जय होयगो या करके भंग होयगो. ऐसे युद्ध, जय, भंग यो प्रकार पिंड क्रमकरके स्थापन करने उन पिंडनमेंसं श्वान जौनसे पिंडकू भक्षण करै वाही पिंडको लक्षण जाननो ॥ १७ ॥ जयायेति ॥ जो श्वान शांत चेष्टा करतो होय तो जय जाननो. और दीप्तचेष्टा करतो होय तो पराजय जाननो. और दिशा स्थान चेष्टा इन करके दीप्त होय तो श्वान युद्धमें नियम करके योद्धाके वधके अर्थ जाननो ॥६८ ॥ भवनिति ॥ श्वान मिर्भय शब्द करत प्रसन्न चित्त होय क्रोधसहित पृथ्वी. • खोदतो होय, क्रोध करके अपने बांये चरणकू चर्वण करतो होय तो घोर संग्राम Aho.! Shrutgyanam Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४४) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। प्रसन्नचित्ते शुनि संमुखस्थे संधिर्भवेद्युद्धसमुद्यतानाम् ॥ पराङ्मुखे वाथ पलायमाने भंगो भटानां झटिति प्रदिष्टः॥ ॥ ७० ॥ युद्धार्थिनो नामयुगेन राज्ञोः पृथक्पृथग्यक्षयुगं प्रकल्प्य ॥ मुंचेत्तयोया बलिमत्ति जित्वा मध्यात्तयोस्तस्य जयो नृपस्य ॥ ७१ ॥ यद्याददाते न बलिं गृहीत्वा स्नेहान्वितौ भक्षयतोऽथ वोभौ।। जयार्थिनोः स्यान्नृपयोस्तदानीमन्योन्यसंधानविधानबुद्धिः ॥ ७२ ॥ यन्नामकः श्वा प्रपलायनेच्छुज्ञेयः स सत्रास इतीगितज्ञैः ॥ यन्नामधेयः पुनरस्तशंको न तस्य राज्ञो भयमस्ति चित्ते ॥ ७३॥ ॥ टीका ॥ निजं वामं चरणं प्रचर्वयन्घोरमाहवं संग्राममाह ॥ ६९ ॥ प्रसन्नचित्ते इति ॥ शुनि सारमेये प्रसन्नचित्ते संमुखस्थे सति युद्धसमुद्यतानां संधिर्भवेत्। अथवा परा. ङ्मुखे पलायमाने सति झटिति भटानां भंगः प्रदिष्टः प्रोक्तः ॥ ७० ॥ युद्धति ॥ यक्षयुगं भषणद्वितयं युद्धाथिनोः राज्ञो मयुगेन पृथक्पृथक्प्रकल्प्य यक्षयुगं मुंचे. त्ततस्तयोर्यक्षयुगयोर्मध्याद्यौ जित्वा बलिमात्ति तस्य नृपस्य जयो भवति ॥ ७१ ॥ यदीति।उभौ श्वानौ बाल गृहीत्वा यदि न आददातेन गृहीतः।अथवा स्नेहान्वितांउभौ भक्षयतस्तदानी जयार्थिनोः नृपयोः अन्योन्यसंधानविधानबुद्धिः परस्परमेलकरणमा ति: स्यात् ॥७२॥ यदिति ॥ यन्नामकः श्वा प्रपलायनेच्छः प्रपलायनं कर्तुमिच्छुः ॥ भाषा॥ . कहेहैं ऐसो जाननो ॥ ६९ ॥ प्रसन्नचित्ते इति ॥ श्वान प्रसन्नचित्त होय, सन्मुख आय ठाढो होय तो युद्धकर्तानके संधि होय. अथवा श्वान विमुख होय भाग जाय तो शीघ्रही योद्धारनको भंग होय ॥ ७० ॥ युद्धति ॥ युद्धकर्ता दोनों राजानके नामसू दोय श्वान कल्पना करके उनकू बलिपिंडपै छोड दे उन दोनों श्वाननमेंसू जो जीत करके बलिदानकू भक्षण कर जाय वा राजाको जय होय ॥ ७१ ॥ यदीति ॥ दोनों श्वान बलि लेकरके जो नहीं ग्रहण करें अथवा दोनों बलिलेकरके स्नेहयुक्त होय भक्षण करन लगे तो दोनों राजानके परस्पर मिलाप करवेकी बुद्धि होय ॥ ७२ ॥ यदीति ॥ जा राजाके नामको खान भागवेकी इच्छा करतो होय वो राजा भययुक्त जाननो चाहिये. जा नामको श्वान निर्भय होय बा राजाके चित्तमें भय नहीं जाननो ॥ ७३ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते युद्धप्रकरणम् । (४४५) मुंचतो घुरघुरावं यदा वांछतो न खलु खादितुं बलिम् ॥ मंडलौ कृतनिजास्पदाश्रयौ वैरमेव न भवेत्तदा रणम् ॥ ॥७४ ॥ एको विशंको बलिमाददाति पलायते दूरत एवं चान्यः॥ यक्षो यदा तत्प्रधनं विनैव राज्ञोर्भवेतां जयलाभ भंगौ ॥७५ ॥ न स्थानतश्चेचलतः कदाचिच्छानौ विसृष्टौ बलिभक्षणाय ॥ वैरे प्रपन्नेऽपि कुतोऽपि हेतोभूपालयोः स्यान रणो न सांधः ॥ ७६॥ ॥ टीका ॥ भवति स राजा इंगितज्ञैः सत्रासः भयेन सहित इति ज्ञेयः ज्ञातव्यः । यन्नामधेयः श्वा पुनरस्तशंकः स्यात्तस्य राज्ञः चित्ते भयं नास्तीति ज्ञेयम्॥७३॥ मुंचत इति ॥ मंडलौ यदा घुरघुरारवं मुंचतः खादितुं बलिं न वांछतो निजकृतास्पदाश्रयौ स्वविनिर्मिताश्रमस्थायिनौ भवतःतदा वैरमेव परस्परं विरोध एव भवेत् रणं न भवेत् ७४ एक इति । एकः श्वा अविशंक: निर्भयः बलिं आददाति गृह्णाति अन्यः श्वा दू. रत एव च पलायते यदा एवं विधौ यक्षौ भवतः तदा प्रधनं संग्राम विनैव राज्ञोजयलाभभंगौभवेता जयलाभश्च भंगश्चेतिद्वंदः। एकस्य जयः स्यादन्यस्य मंगःस्यादित्यर्थः।"युद्धमायोधनंजन्यं प्रधनं प्रविदारणम्' इत्यमरः ॥७५॥ नेति॥ बलिभक्षणाय विसष्टावपि मुक्तावपि श्वानौ चेत्स्थानतःस्थानान्न चलतःन गच्छतः तदा वैरे प्रवृत्तेपि प्रपन्नेपि कुतोऽपि हेतोः तयोःभूपालयोः न रणो न संधिः स्याताम्। ॥ भाषा ॥ मचंत इति ॥ दोय श्वान बलिदान खायवेकू नहीं वांछा करें और आपुसमें घरघर शब्द करत अपने अपने स्थानमें जाय बैठे तो दोनों राजानके आपुसमें वैरविरोधही होय संग्राम नहीं होय ॥ ७४ ॥ एक इति ॥ दो श्वानमेंसू एक श्वान निर्भय बलिदान ग्रहण करे दूसरो श्वान दूरतेही देखकर भाग जाय तो संग्राम विनाई राजनको जयलाभ, भंग होय. एकको जय होय, दूसरेको भंग होय ॥ ७५ ॥ नेति ॥ जो बलिदानके भक्षणकेलिये दो श्वान छोडे वे श्वान स्थानते उठे चलें नहीं तो दोनों राजानके वैर प्रवृत्त होय रह्यो है तो भी उनके संग्रामभी नहीं होय. और संधिभी नहीं होय ॥ ७६ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) . वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः । श्वानावुभावप्यभिभूय साक्षाद्यक्षोऽपरोऽनाति बलाइलिं चेत् ॥ध्रुवं तदान्यो नृपतिर्बलिष्ठस्तौ भूपती जेतुमुपैति तूर्णम् ।। ७७॥ मध्यात्तयोर्मण्डलयोस्तु येन नैवेद्यमेकेन गृहीतमुक्तम् ॥ भुंक्ते तृतीयः प्रणयेन तस्य मिलत्यकस्मायुधि तत्र मित्रम् ॥७८ ॥ मध्याद्दयोरन्यतरेण येन शुना गृहीतो बलिरात्मशक्त्या ॥ आच्छिद्य भुंक्ते भषणस्तृतीयस्तस्यापरस्तत्र भवत्यरातिः ॥ ७९ ॥ एकेन मध्यादुभयोगृहीतं गृह्णाति भक्ष्यं प्रणयात्तृतीयः॥श्वानौ यदि द्वावपि तौ निहंति जयत्यराति स तदा समित्रम् ॥ ८॥ ॥ टीका ॥ एवमेव तिष्ठतीत्यर्थः ॥ ७६ ॥ श्वानाविति ॥ श्वानावुभावपि अभिभूय अपरो यक्षः चेदलि बलादनाति भुक्तं तदा ध्रुवं निश्चयेन अन्यो बलिष्ठो नृपतिः तौ भूपती जेतुं तूर्णमुपैति ॥ ७७ ॥ मध्यादिति ॥ तयोर्मडलयोर्मध्यायेनैकेन नैवेद्य गृहीतमुक्तं . पूर्व गृहीतं पश्चान्मक्तं त्यक्तं यदि तृतीयः प्रणयेन भुंक्ते तदा तस्य राज्ञः अकस्मात्तत्र युधि मित्रं मिलति ॥ ७८॥ __ मध्यादिति ॥ यदि द्वयोः शुनोर्मध्यादन्यतरेण येन शुना गृहीतो बलिः अ. न्यः तृतीयो भषणः आत्मशक्त्या स्वीयबलेन आच्छिद्य आकृष्य भुंक्ते तदा तस्य राज्ञः तत्र युधि अपरः अन्यः अरातिः शत्रुर्भवति ॥७९ ॥ एकेनेति ॥ उभयोर्मध्यादेकेन गृहीतं भक्ष्यं यदि अन्यस्तृतीयः श्वा प्रणयात्स्नेहाहाति तदास तौ द्वाव. पिनिहति स मित्रमराति जयति । “विषयानंतरोराजाशत्रुमित्रमतः परम्" इत्य. ॥ भाषा॥ श्वानाविति ॥ बलिदानपैः छोडे दोनों श्वान उनकू तिरस्कार करके और श्वान बलात्कारतूं भक्षण करे तो निश्चय कर कोई और बलिष्ठ राजा जीतबेकू शीघ्रही आय जाय ॥ ७७ ।। मध्यादिति ॥ दोनों श्वाननके मध्यमें ते जा एकने नैवेद्य पहले तो ग्रहण कर लीनों पीछे छोड दियो होय. आर तीसरे श्वानने स्नेह करके खायलानो होय तो ता राजाकू अकस्मात् युद्धमें मित्र मिले ॥ ७८ ॥ मध्यादिति ॥ जो दोनों वाननके मध्यमेंसू और श्वानने बलि ग्रहण कर लीनो होय और तीसरो श्वान अपनी शक्ति करके छीनकरके भक्षण कर लेवे तो ता राजाके संग्राममें और शत्रु होय ॥ एकेनेति ।। दोनों श्वाननके मध्यमंसू एकने बलि भक्षण कन्यो Aho! Shrutgyanam Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते युद्धप्रकरणम् । ( ४४७ ) समश्नतो यद्यविरोधभवात्समं तृतीयेन शुना तदन्नम् ॥ श्वानौ तदानीं समुपैत्यवश्यं राज्ञोस्तयोः संधिविधायिमित्रम् ॥ ८१ ॥ आदाय चेद्वल्कलरज्जकेशलतादिकं वा बलिमत्ति जित्वा ॥ श्वानांतरं तस्य निबध्य शत्रुं राजा तदीयां भुवमाददाति ॥ ॥ ८२ ॥ ध्रुवं रणोऽस्तीति यदा तु पृष्ठे मध्याच्छुनोः कल्पितराजनाम्नोः ॥ एकोऽपि चेष्टां प्रकरोति शांतां युद्धं भवे तनृपयोरवश्यम् ॥ ८३ ॥ दिवस्थानचेष्टानिनदैः प्रशांतैर्यथोत्तरं संगरवृद्धिकारी ॥ चतुर्भिरेतैर्यदि तु प्रदीप्तैः स्यात्तन्न संधिर्न च संपरायः ॥ ८४ ॥ ॥ टीका ॥ मरः ॥ ॥ ८० ॥ समश्नत इति ॥ यदि श्वानौ अविरोधभावात्तृतीयेन शुना समं तदन्नं समश्नतः भक्षयतः तदानीं तयोः राज्ञोःसंधिविधायि मेलकारकं मित्रमवश्यं निश्चित समुपैति आयाति ॥ ८१ ॥ आदायेति ॥ यदि श्वा वल्कल केशरज्जुलतादिकमादाय गृहीत्वा श्वानांतरं जित्वा बलिमत्ति तदा राजा शत्रुं वैरिणं संनिबध्य तदीयां भुवं आददाति गृह्णाति ॥ ८२ ॥ ध्रुवमिति ॥ यदा तु ध्रुवं रणोऽस्तीति पृष्ठे कल्पितराजनाम्नोः शुनोर्मध्यादेकोऽपि शांतां चेष्टां प्रकरोति तदा तन्नृपयोरवश्यं युद्धं भवे ॥ ८३ ॥ दिगिति ॥ दिक्स्थान चेष्टानिनदैः दिक्स्थानं च चेष्टा च निनदश्चेती तरेतरद्वंद्वः । तैः प्रशांतैर्यथोत्तरं सगरवृद्धिकारी संग्रामविवर्धकः श्वा भवेच्चतुर्भि॥ भाषा ॥ होय . और तीसरो श्वान स्नेहसूं ग्रहण करले जो दोनों श्वान वाकू मारे तो मित्रसहित वैरीकूं जीतले ॥ ८० ॥ समश्नत इति ॥ जो दोनों श्वान तीसरेसूं विरोध न करें तीसरे सहित भोजन करें तो दोनों राजानंकू मिलापको करायवेवारो मित्र अवश्य निश्चय आवे ॥ ८१ ॥ आदायेति ॥ जो स्वान वल्कल, केश, जेवडी, लता, पतीआ इनकूं आदिले वस्तु ग्रहण करके दूसरे श्वानकूं जीत करके बलिकूं भक्षण करे तो राजा शत्रुकूं बांधकरके बाकी पृथ्वीकूं ग्रहण करे ॥ ८२ ॥ ध्रुवमिति ॥ संग्राम निश्चय होय गो ऐसो प्रश्न होय तब राजानके नाम धरे हुये दोनों खान उनके बीच मेंसूं एकभी ज्ञान शांत चेष्टा करे तो राजानको युद्ध अवश्य होय ॥ ८३ ॥ दिगिति ॥ खान दिशाचेष्टा स्थानशब्द ये चारों शांत होंय वे करके संग्रामकूं बढावे जो ये चारों दीप्त हैं य Aho! Shrutgyanam • Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४८) . वसतराजा वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। 'अक्रूरदृमूर्धनि दत्तहस्तो निमीलिताशोऽर्धनिसृष्टदृष्टया॥ कौटिल्यगामी निकटं वजित्वा प्रियंकरः श्वा न ददाति युछम् ॥ ८५ ॥ यक्षो भषनंबरमीक्षमाणः कौँ धुनोत्युत्पतति प्रधावन् ॥ यो वा प्रसर्पत्यपवृत्य गत्वा स संपरायप्रशमाय राज्ञोः ॥ ८६ ॥ प्रदक्षिणादुत्तरमप्रदक्षिणं यदा तदा संधिरनंतरं रणात् ॥ करोति यक्षो यदि वै व्यतिक्रमात्तदा तु संधिःप्रथमं रणश्चिरात् ॥ ८७॥ ॥ टीका। रेतेः दिवस्थानचेष्ठानिनदैः प्रदीप्तःन संधिः मेलः न च संपारायः संग्रामः स्यात् ॥ ।।८४॥ अरेति ॥ यः श्वा अक्रूरदृङ्मूर्धनि दत्तहस्तः निमीलिते मुदिते अक्षिणी चक्षुषी येन यस्य वा स तथोक्तः।अर्धनिसृष्टा दत्ता दृग्दृष्टियेन वा स तथोक्तानिकटं वजित्वा कौटिल्यगामी से प्रियंकरोपि श्वा युद्धं न ददाति ॥ ८५ ॥ यक्ष इति ॥ यः यक्षः अंबरमाकाशं वीक्षमाणः भषन्प्रधावन्दुतं गच्छन्कर्णी धुनोति उत्पतति उ चलति वा यो वा गत्वा अपवृत्य व्याघुट्य प्रसपति प्रकर्षण गच्छति स राज्ञोः संप. रायप्रशमाय संग्रामनिवारणाय भवति ॥ ८६ ॥ प्रदक्षिणादिति ।। यदा श्वा प्रदक्षिणादपसव्यादुत्तरमग्रे प्रदक्षिणं वामं गच्छति तदा रणासंग्रामादनंतरं पश्चासंधिः स्यात् । यदि यक्षः ध्यतिक्रमाद्वैपरीत्येन करोति तदा प्रथम संधिः स्या ॥ भाषा॥ तो मिलापभी न होय संग्रामभी नहीं होय ॥ ८४ ॥ अकरात ॥ शांतदृष्टि होय मस्तकपैः हाथ धो होय नेत्र जाके मिचे हाय आधी दृष्टिसं देखतो हुयो बलिदानके पास जाय करके कुटिल गमन करे. अर्थात् तिरछो गमन कर जाय तो वो श्वान प्रियको करवेवालो है तोहूं युद्धकू नहीं देवै ॥ ८५ ॥ यक्ष इति ॥ जोः श्वान शब्द करत आकाशकू देखतो हुयो कान हलावे और दौडतो हुयो उछलपडे अथवा अगाडी जाय पोंछो वगद कर फिर प्रकर्ष करके गमन करे तो राजानके संग्रामकू निवारण करै ॥ ८६ ॥ प्रदक्षिणादिति ॥ जो श्वान जेमने माऊं होयकर पीछे वामभागमें गमन करे ता प्रथम संग्राम होय पीछे मि-- लाप होय जाय. जो वामभागमें होयकर पीछे जेमनेमाऊं गमन करे तो. प्रथम तो मिलाप Aho! Shrutgyanam Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचोष्टिते युद्धप्रकरणम् । (४४९) राज्ञो रणो नैव भविष्यतीति प्रश्ने कृते यद्यशभा भवति ॥ . चेष्टाः समस्ताः सरमासुतस्य भवेत्तदानीं समरोतिघोरः ॥ ८८॥ लोलन्ध्रुवं लोलयते नरेशं सवाहनामात्यपदातिदेशम् ॥ यत्कांडवेगो हदते च योऽसा ब्रवीति भंगं युधि जागरूकः ॥ ८९॥ शुना निमित्तं द्वितयं विरुद्धं शांतप्रदीप्तं च कृतं यदि स्यात् ॥ मध्यात्तयोनिष्फलमादिभूतं फलान्वितं पश्चिममामनंति ॥ ९० ॥ युद्धं विधातुं चलितस्य मध्यात्सैन्यद्वयस्योरुमदस्य यत्र॥कौलेयको मूत्रयते ध्वजादावसंशयं तस्य भवेज्जयश्रीः ॥९॥ ॥ टीका ॥ द्रणश्चिरात्स्यात् ॥ ८७ ॥राज्ञ इति ॥ राज्ञो रणो नैव भविष्यतीति प्रश्ने कृते यदि सरमासुतस्य वक्रवालधेः श्वानस्य समस्ताश्चेष्टाः अशुभा भवंति तदानीमतिघोरः अत्युत्कटः समरः संग्राम: स्यात् ॥ ८८॥ लोलनिति ॥ यो लोलञ्जागरूकः सध्रुवंसवाहनामात्यपदातिदेशं वाहनं च अमात्यश्च पदातयश्च देशश्चेति बंदःतैःस. हितं नरेशंलोलयते धुनोति यः कांडवेगःशरवद्रुतगतिःसन् हदते च असौ युधि भंग पराजयंब्रवीति।।८९||शुनति॥यदिशुना कुक्कुरेणशांतं प्रदीप्तं च निमित्तद्वितयंविरुद्धं कृतं स्यात्तदा तयोर्मध्यादादिभूतं प्रथमं निष्फलं फलरहितं पश्चिमं पाश्चात्यं फलान्वि तं फलयुक्तम् आमनंति कथयति॥९॥युद्धमिति।।युद्धं विधातुं चलितस्य उरुमदस्य सैन्यद्वयस्य मध्याद्यत्र कौलेयको ध्वजादौ मूत्रयते तस्य राज्ञः असंशयं जयश्री. भाषा॥ होय फिर बहुत काल पीछे संग्राम होय ॥ ८७ ॥ राज्ञ इति ॥ राजाको युद्ध नहीं होयगो ऐसो प्रश्न करै तब श्वानकी जो समस्तचेष्टा अशुभ होय अतिघोर संग्राम होय ॥ ॥ ८८ ॥ लोलनिति ॥ जो श्वान प्रश्न करेपै चलतो होय या चलायमान होक तो निश्चय कर वाहन मन्त्री पैदल देश इनसहित राजाकू चलायमान कर देवै. जो श्वान बाणकीसी नाई बडेवेगसूं गमन करे और विष्ठाकर देवे तो संग्राममें भंग करावे ॥ ८९ ।। गनोति ॥ जो श्वानने शांत प्रदीप्त ये दोनों विरुद्ध किये होंय दोनोंनमेंसू जो पहले कियो होय वो फल रहित जाननो. जो पीछे कियो होय वो फलसहित जाननो ॥ ९ ॥ युद्धमिति ॥ युद्ध करवेकू बहुत मदयुक्त दोनों सेनाके मध्यमेंसू जो राजाकी सेनामें Aho ! Shrutgyanam Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५० ) वसंतराजशाकुने - अष्टादशो वर्गः । विनिर्यतो मंदिरतोऽपसव्यं यक्षोऽपकारस्य यदि प्रयाति ॥ कुर्यात्तदा तस्य जयं नियुद्धे पराजयं वामगतिर्विधत्ते ॥ ॥ ९२ ॥ योद्धव्यमद्यैव मयेति यातुरयात्रिकं स्याच्छुभदं निमित्तम् ॥ दिनांतरे यस्तु नरो युयुत्सुः क्षेमंकरं यात्रिकमेव तस्य ॥ ९३ ॥ धुन्वञ्च्छिरः कर्णकलेवराणि जुगुप्सितं स्थानमुपेत्य मूत्रम् ॥ कुर्वन्समावेदितवामचेष्टो यात्रानिषेधं कपिलः करोति ॥ ९४ ॥ ॥ टीका ॥ र्भवेत्॥९१॥विनिर्यत इति ॥ मंदिरतः विनिर्यतो गच्छतः पुंसः यदि यक्षः अपसव्यं दक्षिणं प्रयाति तदा तस्य नियुद्धे जयं कुर्यात् । वामा गतिः पराजयं विधत्ते । "नियुद्धं बाहुयुद्धेऽथ" इत्यमरः ॥ ९२ ॥ योद्धव्यमिति ॥ अद्यैव योद्धव्यं मया इति यातुः जनस्येति शेषः। अयात्रिकं निमित्तं यात्रानिषेधकं शकुनः शुभदः स्यात् । यस्तु नरः दिनांतरे युयुत्सुः येोडुमिच्छुः तस्य यात्रिकमेव क्षेमंकरं स्यात् । यात्रिकमेतदेवेत्यपि पाठः ॥ ९३ ॥ धुन्वन्निति । शिरः कर्णकलेवराणि शिरश्च कर्णौ च कलेवरं चेतिद्वंद्वः । धुन्वन्कंपयजुगुप्सितं स्थानमुपेत्य च मूत्रं कुर्वन्समावेदितषामचेष्टः समावेदिता निरूपिता वामा चेष्टा येन सः कपिलः यात्रानिषेधं करोति ॥ ९४ ॥ ॥ भाषा ॥ श्वान ध्वजादिकनमें मूत्र करदे वा राजाको निःसंदेह जय और श्री होय ॥ ९१ ॥ विनिर्यत इति ॥ युद्ध करवेकूं स्थानसूं निकसै वा पुरूषकूं जो श्वान जेमनो आय जाय तो चाकूं भुजा युद्धमें जय करै. जो श्वान वांयो आय जाय तो पराजय करै ॥ ९२ ॥ योद्धव्यमिति ॥ मोकूं अभी युद्ध करनों है और वो गमन करे तो वा पुरुषकूं यात्रा के निषेध - करवेबारे जे शकुन हैं वाकूं शुभके देवेवारे हैं. वे शकुन जो मनुष्य दिनांतर में युद्धकी इच्छा करतो होय वाकूं यात्रा के जे शकुन हैं वे शुभके देवेवारे जानने ॥ ९३ ॥ धुन्वन्निति ॥ श्वान मस्तक कान देह इने कंपायमान करत निंदित स्थानमें आय करके सूत्र करे और बांई Aho! Shrutgyanam Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते शुभाशुभप्रकरणम् । चलद्वपुलॊलितपुच्छजिह्वः क्रीडॅल्ललन्सम्मुखमापतंश्च ॥ सस्नेहचित्तोविनयेन युक्तःश्वा प्रस्थितानां विदधाति सिद्धिम्॥९५॥ इति श्वचेष्टिते युद्धप्रकरणम् ॥ ६॥ शुभाशुभज्ञाननिमित्तभूतं श्रेष्ठं पुनश्चेष्टितमेतदत्र ॥ आख्या- ' यते ख्यातमखिन्नचित्तैः सुखाय नृणां मुनिभिर्यदायैः ॥. ९६॥ श्वा जिह्वया दक्षिणदिग्विभागं लिहन्समस्तोद्यमसिद्धिकारी ॥ नखाग्रजिह्वारदनैरवाममंगं स्पृशल्लाभकरः सदैव ॥ ९७ ॥ ॥ टीका ॥ चलदिति ॥एवंविधः श्वा प्रस्थितानां सिद्धिं विदधाति । कीदृक् । चलद्वपुः चंचलकायः पुनः कीदृक् लोलितपुच्छजिह्वः लोलितं वक्रीकृतं पुच्छजिद्धं येन स तथा। पुनः कीदृशः । सम्मुखम् आपतनागच्छन् । पुनः कीदृक् सस्नेहचित्तः पुनः कीदृक् क्रीडल्ललन् । पुनः कीदृक् विनयेन युक्तः नम्रः॥ ९५ ॥ इतिवसंतराजशाकुने टीकायां श्वचेष्टिते युद्धप्रकरणं षष्ठम् ॥ ६ ॥ शुभेति ॥ शुभाशुभज्ञाननिमित्तभूतं शुभं चाशुभं च तयोः ज्ञानं अवबोधः तस्य निमित्तभूत कारणभूतं श्रेष्ठं शुनश्चेष्टितमेतदिदम् अत्र प्रकरणे आख्यायते । यच्चेष्टितमखिन्नचित्तैः अश्रांतमनोभिः आयैः मुनिभिः पूर्वर्षिभिरित्त्यर्थः। नृणां सुखाय सुखहेतवे आख्यातम् ॥ ९६ ॥ श्वेति ॥ श्वा जिह्वया दक्षिणदिग्विभागं लिहन्समस्तेषु उद्यमेषु सिद्धिकारी स्यात्। तथा नखाग्रनिहारदनैरवाममंगं स्पृश ॥ भाषा॥ नामा चेष्टा करै तो यात्राको निषेध जाननो ॥ ९४ ॥ चलदिति ॥ देह जाको चंचल होय; टेढी जाकी पूंछ जिह्वा होय. सन्मुख आवतो होय, प्रसन्नचित्तं होय, नम्रतायुक्त क्रीडा करतो, हलतो चलतो ऐसो श्वान प्रस्थित पुरुषनकू सिद्धि करै ॥ ९५ ॥ इति वसंतराजभाषाटीकायां श्वचेष्टिते युद्धप्रकरणं षष्ठम् ॥६॥ शुभेति ॥ नहीं श्रांत है मन जिनके ऐसे पूर्वऋषि तिनने मनुष्यनके सुखके अर्थ जो चेष्टा कही हैं वे शुभ अशुभको ज्ञानताको कारणभूत श्रेष्ठ श्वानकी चेष्टा ये या प्रकरणमें कहैहैं ॥ ९६ ॥ श्वेति ॥ जो श्वान जिह्वा करके दक्षिण दिग् विभागकू चाटै तो समस्त उद्यमनमें सिद्धि करे. और नखनको अग्र, जिहा, दांत इनकरके जेमने - Aho! Shrutgyanam Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः । जघनं जठरं हृदयं च शिरो भषणो यदि दक्षिणतः स्पृशति॥ क्रमतः प्रकरोत्यधिकादधिकं नियतं तदभीष्टफलं सकलम् ॥ ॥९८॥ कर्त्तव्यवैरिव्यसनेष्विदं मे सिद्धिं न यास्यत्युररीकृते श्वा ॥धुनोति कौँ यदि तत्ररस्य भवेद्धवं चिंतितकार्यसिद्धिः ॥ ९९ ॥ विज़ुभते यो हदतेऽलसो वा भयादि चिंतास्वभयाय सस्यात्॥प्रयोजनेषु त्वपरेषु सोऽपि भयाद्यनर्थप्रतिपादनार्थम् ॥१०॥ अंकूरिते पल्लविते सपुष्पे फलान्विते भूरुहि सारमेयः ॥ पुष्पे फले क्षीरतरौ च पंके संपूर्णकुंभेभसि गोमये वा ॥१०१॥ ॥टीका ॥ न्सदैव लाभकरः स्यात् ॥ ९७ ॥ जघनमिति ॥ यदि भषणः दक्षिणतः जघनं जठरमुदरं हृदयं स्तनांतरं शिरश्च क्रमतः स्पृशति तदाभीष्टफलं सकलमधिकादधिकं नियतं निश्चयेन प्रकरोति ॥ ९८॥ कर्तव्येति ॥ कर्तव्यवैरिव्यसनेषु कर्तव्यं वैरिणां व्यसनं येषु तेषु कृत्येषु सत्सु इदं मे मम सिद्धि न यास्यतीत्युररीकृते सति यदि श्वा कर्णौ धुनोति तदा नरस्य ध्रुवं चिंतितकार्यसिद्धिर्भवेत् ॥९९ ॥ विज॑भते इति ॥ यो भषणः विज़ुभते मुंभां कुरुते । हदते पुरीपोत्सर्ग कुरुते अलसो निरुद्यमो वा स भयादिचिंतासु अभयाय स्यात् । तुः पुनरर्थे । अपरेषु प्रयोजनेषु तु सोऽपि भयाद्यनर्थप्रतिपादनाय भयाद्यनर्थस्य प्रतिपादनं कथनं तस्मै स्यात् ॥१०॥ ॥ अंकुरिते इति ॥ अंकूरा जाता अस्येति अंकुरित तस्मिन्नंकूरयुक्ते पल्लविते जा. ॥ भाषा ॥ अंगकू स्पर्श करे तो सदा लाभको करबेवालो होय ॥ ९७ ॥ जघनमिति ॥ जो श्वान जमने माऊकी जघा, उदर, हृदय, वक्षस्थल, शिर इने क्रमते स्पर्श करै तौ अभीष्ट फल सब अधिकतें भी अधिक निश्चय करै ॥ ९८ ॥ कर्तव्येति ॥ वैरी करके कियो गयो कोई दुःखरूपी कृत्य वामें ये मेरो कार्य वा सिद्धि नहीं होय गो ऐसो प्रश्न करै जो श्वान अपने कर्णनकू हलाय दे तो मनुष्यके चिंतित कार्यकी सिद्धि होयं ॥ ९९ ॥ विजभिते इति ॥ जो श्वान जंभाई लेवें वा विष्ठा करै वा आलसी निरुद्यमी होय तो भयकू आदिले चिंतानमें अभय करै, फिर और प्रयोजनमें भयकू आदिले अनर्थको करवेवालो होय ॥ १० ॥ अंकुरिते इति ॥ अंकुर, पल्लव, पुष्प, फल ये जामें प्रगट होंय ऐसे वृक्षपै वा पुष्प Aho! Shrutgyanam Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते शुभाशुभप्रकरणम् । (४५३) केदारमृत्स्नामणिकेष्टिकासु प्रासादकुड्यानचयादिकेषु॥स्थानेषु वस्तुष्वपि शोभनेषु भूम्यादिलाभाय करोति मूत्रम् ॥ ॥१०२॥ शय्यासनच्छबहुताशनेषु छिद्रेषु धूलीनिचयेषु यक्षः ॥ स्थानेषु मूत्रं विमृजत्यनंतः स्यादर्थलाभोऽभिमतो नराणाम् ॥ १०३ ॥ खंडिनीसुसलकांजिकधानीशूर्पकेषु कृतदक्षिणचेष्टे ॥ लभ्यते बहुधनं शुनि मूत्रं तेषु कुर्वति सुभोज्यमभीष्टम् ॥ १०४॥ ॥टीका ॥ तपल्लवे सपुष्पे पुष्पसंयुक्त फलान्विते भूरुहि वृक्षे तथा पुष्पे तथा फले तथाक्षीरतरौ पंके कर्दमे संपूर्णकंभे घटे अंभसि पानीये गोमये छगणे वा ॥ १०१ ॥केदारे. ति ॥केदार वप्रे मृत्स्ना मृत्तिका तस्यां मणिके जलभाजनविशेषे गेहूँ इति प्रसिद्ध वा कोठी हंडा इष्टिका ईट इति प्रसिद्धा तस्यांप्रासादः देवभूभृतां गृहं कुड्यं भित्तिः अन्नचयादिकंसस्यसमूहप्रभृति एतेषु स्थानेषु एतेषामितरेतरद्वंद्वाएतव्यतिरिक्तशीभनेषु वस्तुष्वपि सारमेयःभूम्यादिलाभाय मूत्रं करोति कुरुते "अलंजरःस्यान्मणिके कर्कर्यालूगलंतिका" इत्यमरः॥१०२॥ ॥शय्येति ॥ यक्षः शय्यासनच्छत्रहुताशनेषु शय्या च आसनं च छत्रं च हुताशनश्चेति द्वंद्वः तेषु छिद्रेषु विलेषु धूलीनिचयेषु च एतेषु स्थानेषु यदा मूत्रं विमृजति कुरुते तदा नराणामनंत अपरिमितः आभिमतो वांछितः अर्थलाभः स्यात् ॥१०३॥ खंडिनीतिः ॥ खंडिनी ऊखलीति प्रसिद्धा मुसलमयोऽयं कांजिकधानी कांजिकभृतपात्रंशूर्पकं तितउ:एतेषामितरेतरद्वंद्वः एतेषु कृतदक्षिणचेष्टेशुनि सति बहुधनं लभते । तेषु मूत्रं कुर्वति सति अभीष्टं भोज्यं लभते ॥ भाषा॥ फल दूध जामेंसू निकसै ऐसो वृक्ष कीचभरो हुयो घट जल गोबर ॥ १०१ ॥ केदारेति ॥ खेत, मृत्तिका, जल पात्र, ईट, देवघर, राजघर, कोठडी, भीत, अन्न के समूहकू आदिले इन स्थाननमें अथवा इनसूं न्यारे सुंदर शोभायमान वस्तुनमें, श्वान मूत्र कर तो पृथ्वीकू आदिले पदार्थनको लाभ करै ॥ १०२ ॥ शय्येति ॥ जो श्वान शय्या, आसन, छत्र, अग्नि इनमें छिद्र बिलो धूलको समूह इन स्थाननमें मूत्र करै तो मनुष्यन• अनंत वांछित भर्थको लाभ करै ॥ १०३॥ खंडिनीति ॥ ऊखली, मुसल, कांजीको भरो हुयो पात्र सप इनमें दक्षिण अंगकी चेष्टा करता होय श्वान तो बहुतसो धन प्राप्त होय. और Aho! Shrutgyanam Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५४) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। सिद्धानविष्ठाफलमांसवको लाभाय यक्षोऽभिमुखः सदैव ॥ सहस्तपादास्थिफलादिकैस्तु स्तोकैदिनैः स्यान्महते धनाय ॥१०५॥ तुंगे स्थितः खा यदि सुप्रदेशे करेण कंडूयति दक्षिणेन ॥शिरस्तदा सर्वमनीषितानि सिध्यंत्यसाध्यान्यपि यान्यभूवन् ॥ १०६॥ आधिष्ठितः वा शयनं स्वकीयमुद्धाव्य चेदक्षिणमाक्षि पश्येत् ॥ नैमित्तिकं स्यात्तदवितसिद्धयै चिकीर्षिते वस्तुनि दुष्करेऽपि ॥ १०७॥ ॥ टीका ॥ ॥१०४॥सिद्धान्नेति।सिद्धानविष्ठाफलमांसवक्रः सिद्धानंराद्धानं विष्ठा गूथं फलमाम्रादि मांसं पललम्।एतेषामितरेतरददातानि वक्के मुखे यस्य स तथोक्त आभिमुखो यक्ष सदैव लाभाय भवति।तथा हस्तपादास्थिफलादिकैःपूर्णवक्रस्तु सःस्तोकैदिनैः महते धनाय स्यात् । हस्तः करः पादः क्रमः अस्थि कीकसं फलादिकं फलप्रभृतिएतेषामितरेतरद्वंद्वः ॥ १०५॥ तुंगे इति ॥ यदि तु श्वा तुंगे सुप्रदेशे स्थितो दक्षिणन करेण शिरकंड्रयति तदासर्वमनीषितानि सिध्यंति असाध्यान्यपि साधयितुमशक्यान्यपि यान्यभूषन् ॥ १०६ ।। अधिष्ठित इति ॥ यदि श्वा स्वकीयम आयतनं गृहं कचिच्छयनमित्यपि पाठः।अधिष्ठित-दक्षिणमक्षि उद्घाट्य नैमित्तिकं शाकुनिकं पश्येत्तदा दुष्करेऽपि चिकीर्षिते कर्तुमिष्टे वस्तुनि अविनसिद्धिः विनरहि ॥ भाषा॥ इनमें मूत्र करे तो बांछित भोजनके योग्यको लाभ होय ॥ १०४ ॥ सिद्धानेति ॥ रोटी, पुरी; लडुआ इनकू आदिले सिद्ध हुयो पदार्थ और विष्ठा, फल, मांस ये जाके मुखमें होय ऐसो श्वान सम्मुख आवे तो सदा लाभके अर्थ जाननो. और हाथ, पांव, हाड, फलादिक इन करके मुख जाको भयो होय वो श्वान महान् धनके लाभके अर्थ जाननो ॥ १०५ ॥ तुंगे इति ॥ जो ज्ञान ऊंच स्थानपै स्थित होय जेमने हाथ करके मस्तक खुजावे तो सर्व वांछित सिद्ध होय. जे पहले नहीं होयवेके योग्य कार्य हैं वेभी सिद्ध होय ॥ १०६.॥ अधिष्ठित इति ॥ जो श्वान अपने स्थानमें स्थित होय जेमने नेत्रकू खोल करके शकुन लेवेवारेकू देखे तो दुष्कर करवेके योग्य वस्तुमें वा कार्यमें निर्विघ्नासिद्धि होय ॥ १०७ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते शुभाशुभप्रकरणम् । (४५५ ) दृष्टया प्रपश्यन्स पयो ब्रवीति कौलेयकः पांडुरवस्त्रलाभम्॥ विलोचने चेद्विनिमील्य शेते भूयोऽपि तस्मिन्छयने तथैव ॥ १०८॥ शुभावहः श्वा शयनस्थितः सञ्छिरोधरामुन्नमयन्नराणाम् ॥ धुनोति कर्णौ यदि तत्समस्तप्रयोजनानां कुरुते प्रणाशम् ॥१०९॥ गमागमादावपि सारमेयः शुभो भवेदीदृशचेष्टितो यः ॥ बमोऽधुना श्वानमनिष्टचेष्टं स्थितौ प्रवेशे गमने च दुष्टम् ॥ ११०॥ उडूलितोऽश्मादिकपूर्णवको भवेत्पुनश्चौरभयाय यक्षः ॥ यस्याग्रतः श्वास्थिलवं गृहीत्वा भषत्यसौ याति पुरं यमस्य ।। १११ ॥ ॥टीका॥ ता सिद्धिः स्यात् ।। १०७ ॥ दृष्टयति ॥ कौलेयकः दृष्ट्वा पयः प्रपश्यंश्चैद्यदि लोचने विनिमील्य भूयोऽपि तस्मिञ्छयने तथैव शेते तदा स पांडुरवस्त्रलाभ ब्रवीति ॥ १०८ ॥ शुभेति ॥ शयने स्थितः सञ्छिरोधरी ग्रीवामुन्नमयन्नराणां शुभावहः स्यात् । यदि कर्णी धुनोति तदा समस्तप्रयोजनानां सकलकार्याणां प्रणा शं करते ॥ १०९ ॥ गमागमेति ॥ यः सारमेयः ईदृशचेष्टितः स सारमेय. गमागमादावपि गमनागमनादावपि शुभो भवेत् । गमश्च आगमश्च गमागमाविति द्वंद्वः । तावादौ यस्य तस्मिन् । अधुना सांप्रतं स्थितौ अवस्थितौ प्रवेशे नगरपा माद्यभ्यंतरगमनेगमने च परदेशप्रस्थाने च अनिष्टचेष्टं दुष्टं श्वानं वयं ब्रूमः॥११०॥ उद्धूलित इति ॥ उद्धूलितः रजोऽवगुंठितः अश्मादिनिः पूर्णवक्रः पुरो भवन्यक्षः चौरभयाय स्यात् । यस्य अग्रतः अग्रे श्वा अस्थिलवमस्थिखंडं गृहीत्वा भषति ॥ भाषा ॥ दृष्टयेति ॥ जो श्वान दृष्टिकरके जल वा दूधकू देखतो हुयो नेत्रनकू मीच करके फिर अपने सोयवेके स्थानमें तैसेंही जाय सोवे तो श्वेतवस्त्रको लाभ करै ॥ १०८ ॥ शमेति ॥ श्वान अपने सोयवेके स्थानमें स्थित होय, नाड ऊंची करे तो मनुष्यनकू शुभको करवेवालो होय. जो काननकू हलाय देवे तो सबले कार्यनको नाश करै ॥ १०९ ॥ गमागमेति ॥ जो श्वान पहले कही वोई चेष्टा करतो होय तो गमन आगमन इनकू आदिले सब कार्यनमें शुभ करे. अब स्थितिमें नगर प्रामादिकनके भीतर प्रवेश करतेमें और परदेशके गमनमें अनिष्ट जाकी चेष्टा ऐसे दुष्ट श्वान• हम कहेहैं ॥ ११ ॥ उद्धूलित इति ॥ Aho! Shrutgyanam Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५६) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः । विनामिषं यत्र च जागरूकाः कुवैति चिंता बहवो मिलित्वा।। उत्पद्यते निग्रहहेतुभूतं तत्राचिराद्विग्रहदौस्थ्यमुग्रम्॥११२॥ संछित्रपुच्छश्रवणो रुगातः कृशो विचिंतोऽभिमुखं प्रसर्पन्॥ कार्योयतेषु प्रविलोक्यमानः श्रेयोविधायी न हि सारमेयः ॥ ११३॥ निमज्य तोये स्ववपुर्विधुन्वन्कौलेयकश्चोरभयं करोति ॥ भषन्नभीक्ष्णं पथि मन्दिरे वा ग्रामेऽथवा चौरभयाय भूम्ने ॥ ११४॥ ॥ टीका ॥ असौ पाथः यमस्य पुरं याति ॥ १११ ॥ विनेति ॥ यत्र च जागरूकाः श्वानः आमिषं मांसं विना बहवो मिलित्वा चितां कुर्वति तत्र अचिरात् स्तोककालेन नराणां निग्रहहेतुभूतं काराक्षेपकारणमुरमुत्कटं विग्रहदौस्थ्यं कलहकष्टमुत्पद्यते ॥ ११२ ॥ संछिन्नेति ॥ संछिन्नपुच्छश्रवणः कर्तितपुच्छकर्णः रुगातः आमयपीडितः कृशः दुर्बलः विचिंतः विशेषेण चिन्तातुरः अभिमुखं संमुखं प्रसर्प बागछन्सारमेवः कार्योद्यमेषु प्रविलोक्यमानः श्रेयोविधायी न भवति । श्रेयः कल्याणं विधातुं शीलः ॥ ११३ ॥ निमज्येति ॥ तोये निमज्य स्ववपुविधुन्वन्कौलेयकश्चौरभयं करोति । पथि मार्गे मंदिरे गृहे वा अथवा ग्रामे कौले ॥ भाषा ॥ रजमें ल्हिस रह्यो होय पाषाणकू आदिले वस्तु करके मुख जाको भयो होय ऐमो श्वान अगाडी आय जाय तो चारभयके अर्थ जाननो. जाके अगाडी श्वान हाडको टूक मुखमें लेकरके भूके तो पाथःपुरुष यमराजके पुरकू प्राप्त होय ॥ १११ ॥ विनेति ॥ जा जगह श्वान मांसविना बहुतसे मिलजाय तो चिंता करते होय तहां शीघ्रही मनुष्यनकू कारागृहमें पटकवेके योग्य बडो विग्रह कलह कष्ट प्रगट करै ॥ ११२ ॥ संच्छिन्नेति ॥ पूंछ कान जाके कटे हॉय रोग करके पीडित होय दुर्बल होय विशेषकर चिंतातुर होय ऐसो श्वान सम्मुख आवे और जे मनुष्य कार्यमें लगरहे होंय उनमांऊं देखे तो कल्याणको करबेवालो नहीं जाननो ॥ ११३ ॥ निमज्योति ॥ जलमें डब करके फिर अपने अंगकू हल हलावे तो श्वान चोरभय करे. मागन घरमें वा प्राममें श्वान वारंवारं भंके तो राजाके चोरभयके अर्थ जाननो ॥ ११४ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते शुभाशुभप्रकरणम् । (४५७) अत्युच्चनादं यदि वातिदीनं दृष्ट्वा दिनेशं भषणं बहूनांकौलेयकानां वमनं विजृभां निदंति मूर्धश्रवसोश्च कंपम् ॥११॥ द्वारप्रदेशे जघनं विघर्षन्पूजार्हपांथागमनाय यक्षः ॥ करोति तत्रोपविशंश्च पुंसां संगं जनेनाभिमतेन सार्धम् ॥ ११६॥ प्रविश्य गेहं रभसेन यक्षः स्तंभ समालिंगति योऽथवा यः॥ चुल्लीं समारोहति स ब्रवीति समागमं स्निग्धजनेन सार्धम् ॥ ॥ ११७ ॥ सुहृत्समागच्छति दूरदेशात्कंडूयमाने शुनि दक्षिणांगम् ॥ शिरःप्रदेशस्पृशि चातितर्णमिष्टो जनो निश्चित मभ्युपैति ॥ ११८॥ ॥ टीका ॥ यकः अभीक्ष्णं वारंवारं भषन्भूम्ने राज्ञे चौरभयाय स्यात् ।। ११४ ॥ अत्युच्चेति ॥ दिनेशंसूर्य दृष्ट्वा वीक्ष्य बहूनां कौलेयकानामत्युच्चनादो यदि वा अतिदीनंभषणं तथा विजृभा जुंभणं तथा वमनं छर्दिः मूर्ध्नः श्रवसोश्च कंपं निंदति क्वचिनिहतीति पाठः ॥११५॥द्वारेति ॥ द्वारप्रदेशे जघनं विघर्षन्यक्षः पूजार्हपांथागमनाय भवति । तत्र द्वारप्रदेशे उपविशंश्च श्वा पुंसामाभिमतेन जनेन साध संगं करोति ॥११६। प्रविश्येति ॥ यो यक्षः गेहं प्रविश्य स्तंभ समालिंगति अथवा य:चुल्लीं समारोहति स यक्षः स्निग्धजनेन सार्धं समागम संबंधं ब्रवीति ॥ ११७ ॥ सहदिति ॥ शुनि दक्षिणांगं कंड्यमाने दूरदेशात्सुहृन्मित्रं समागच्छति आयाति । शिरःप्रदेशस्पृशि शिरसः प्रदेशं स्पृशीति शिरःप्रदेशस्पृक् तस्मिञ्छिर प्रदेशस्पृशि शुनि च अतितूर्णमतिशीघ्र निश्चितं निश्चयेन इष्टो जनः अभ्युपैति आगच्छति ॥ ११८ ॥ ॥ भाषा ॥ अत्युच्चेति ॥ सूर्य देखकरके बहुतसे श्वान अति ऊंचो शब्द करै. अथवा अति दीन बोल वा तैसेही जंभाई लेवे वा वमनकरै वा मस्तक कानळू कंपायमान करै तो वे इयान निदित जानने, वा वे कार्यकू नाश करै ॥ ११५ ॥ द्वारेति ॥ घरके द्वार देशमें जंघाकं घिसै तो पूजवेके योग्य मार्गको चलो हुयो कोई आवै. जो इवान द्वारदेशमें बैठो होय तो वांछित जनन करके समागम होय ॥ ११६ ॥ प्रविश्येति ॥ जो श्वान घरमें प्रवेश करके स्तंभसू आलिंगन करै अथवा चूल्हे चढ जाय तो स्नेहवान् पुरुषको समागम करावे ॥ ११७ ॥ सुहृदिति ॥ इवान जेमने अंगकू खुजावे तो दूरदेशते मित्र सुहृद्, १ सचापपाठ इति भाव । Aho ! Shrutgyanam Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५८ ) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। छायांतिकस्थो विदधाति धर्मे यद्युत्कटेन स्थितिमासनेन । उत्पादयत्याशु विरोधमुग्रं तज्जागरूकः सुहृदापि साकम् ॥ ॥ ११९ ॥ शुभप्रदो दक्षिणचेष्टितः स्यात्सर्वत्र काले सकलोयमेषु ॥ शांतं प्रदेशं ककुभं च शांतां श्वा संश्रयेत्प्रातनपुण्ययोगात् ॥ १२०॥ कार्याणि कार्याणि नरेण नित्यं सर्वाणि दीप्तानि शुनि प्रदेशे ॥ तान्यन्यथा यो विदधाति तस्य पतंत्यनर्था वधबंधनाद्याः ॥ १२१ ॥ कंडूयमानः स्वकरं करोति सर्वाणि कार्याणि फलान्वितानि ॥ ब्रह्मप्रदेशे मधुरारवः श्वा ददाति भोज्यं सममामिषेण ॥ १२२ ॥ ॥टीका ॥ छायेति ॥ यदि यक्षः छायांतिकस्थः छायास्थितः उत्कटेन आसनेन घर्मे स्थितिं विदधाति तदा स जागरूकः सुहृदापि सार्धमाशु शीघ्रमुग्रं विरोधं कलह मुत्पादयति । क्वचित्मविश्यगेहमिति पाठोऽपि दृश्यते ॥ ११९॥ शुभेति ॥श्वा द. क्षिणचेष्टितः सर्वत्र काले सर्वस्मिन्काले सकलोद्यमेषु सर्वप्रयत्नेषु शुभप्रदः स्यात् । श्वा दक्षिणचेष्टितः सञ्छांतं प्रदेशं शांतं स्थानं ककुभं दिशं च शांतां प्राक्तनपुण्य योगात्प्राचीनपुण्यसंबंधात्संश्रयेदाश्रयेत् ॥ १२० ॥ कार्याणीति ॥ नरेण शुनि पृष्ठे सति सर्वाणि दीप्तानि कार्याणि कर्तव्यानि ॥ अन्यथा उक्तवैपरीत्येन यस्तानि कार्याणि विदधाति तस्य वधबंधनाद्या अनर्थाः उत्पतंति समुत्पद्यते ॥ ॥ १२१ ॥ कडूयमान इति ॥ स्वकरं कंडूयमानः श्वा सर्वाणि कार्याणि फला ॥भाषा ॥ आवे. जो मस्तककू स्पर्श करे तो अति शीघ्र निश्चयकर इष्टजन आवे ॥ ११८ ।। छायेति ॥ जो श्वान छायामें बैठो हुयो होय तो श्रेष्ठ आसन करके धर्ममें स्थिति करै वोही श्वान सुहृद् जनन करके शीध्र बडो उप्र कलह प्रगट करावे ॥११९ ॥ शुभेति ॥ जो श्वान पूर्वजन्मके पुण्ययोगसूं दक्षिण अंगकी चेष्टा करतो होय शांतरथानमें होय शांत दिशामें हाय तो सदासर्वदा संपूर्ण कार्यनमें शुभको देवेबारे जाननो ॥ १२० ॥ का. र्याणीति ॥ श्वान पीठपीछे होय और चेष्टा स्थान दिशा शब्द ये सब दीप्त होय तो कार्य करवेके योग्य है जो इनसं विपरीत होय जो कदाचित कार्य करे तो वा पुरुषकू वध बंधनादिक प्रकट होय ।। १२१ ॥ कंड़यमान इति ॥ श्वान अपने हाथकू खुजावे तो Aho! Shrutgyanam Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते शुभाशुभप्रकरणम् । यस्येक्षते वेश्मनि सारमेयश्चिरं नभोगोमयमांसविष्ठाः ॥ रामां मनोज्ञां द्रविणं प्रभूतं प्राप्नोत्यसौ सौख्यमनश्वरं च ॥१२३॥ वसुंधरायाः कमपि प्रदेशं मूर्धा स्पृशन्ययवलोकते वा ॥ध्रुवं तदा तत्र महानिधानमस्तीति सिद्धः कथितं रहस्यम् ॥ १२४ ॥ दिनकराभिमुखो दिवसात्यये कृतरवः खलु कर्षकभीतये ॥ पवनदिग्वदनस्तु निशामखे भवति चौरसमीरणभीतये ॥ १२५ ॥ ॥ टीका ॥ न्वितानि करोति।ब्रह्मप्रदेशे मस्तकोर्ध्वप्रदेशे मधुरारवः श्वाआमिषेण मांसेन समं साकं भोज्यं ददाति ॥१२२।। यस्येति ॥ यस्य वेश्मनि सारमेयः चिरं नभोगोमयमांसविष्ठाः चिरं चिरकालं नमः आकाशं गोमयं छगणं मांसं पललं विष्ठा गूथम् एतेषामितरेतरद्वंदः । ईक्षते विलोकयति असौ नरः मनोज्ञां रामां स्त्रियं प्रभूतं द्रविणं धनमनश्वरमविनाशि सौख्यं च प्रामोति ॥ १२३ ॥ वसुंधराया इति ॥ वसुंधरायाः पृथिव्याः कमपि प्रदेशं मूर्धा स्पृशन्यदि श्वा अवलोकते तदाध्रुवं तत्र महानिधानमस्तीति सिद्धः रहस्यं कथितम् ॥ १२४ ॥ दिनकरोति ।। दिवसात्यये दिनकराभिमुखः कृतरवः श्वा खलु निश्चितं कर्षकभीत्यै भवति । तु पुनःनिशामुखे संध्यायां पवनदिग्वदन वायुदिङ्मुखःचौरसमीरणभीतये चौरास्तस्कराःसमीरणो ॥ भाषा॥ संपूर्ण कार्य फलसहित करे जो मस्तकके ऊपर मधुर शब्द बोले तो मांस सहित भोजनके योग्य पदार्थ देवै ॥ १२२ ॥ यस्येति ॥ जाके घरमें श्वान चिरकालताई अर्थात् बहुत देरताई आकाश, गोबर, मांस, विष्ठा इनकू देखतो होय तो मनुष्य सुंदरस्त्री बहुतसो धन जाको नाश नहीं ऐसो सौख्य प्राप्त होय ॥ १२३ ॥ वसुंधराया इति ।। पृथ्वीके कोई स्थानकू श्वान मस्तक करके स्पर्श करतो होय वा देखतो होय तो निश्चय वा स्थानमें धन ह ऐसो सिद्ध पुरुषनको रहस्य वचन कह्योहुयो है ।। १२४ ॥ दिनकरेति ॥ दिवसके अंत में सूर्यके सम्मुख श्वान शब्द करे तो निश्चय खेतिवारेनकू भय करे. फिर संध्या समय में Aho! Shrutgyanam Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६० ) वसंतराजशाकुने - अष्टादशो वर्गः । उदङ्मुखो वक्ति रुवन्निशीथे द्विजोपपीडां मरणं गवां च ॥ कुमारिका दूषणगर्भपातवह्नीन्निशांते शिवदिङ्मुखः श्वा ॥ १२६ ॥ प्रातर्दिनेशाभिमुखोऽग्निदिक्स्थो भषन्विधत्तेऽनलचौर भीतिम् ॥ दिनस्य मध्येऽनिलमृत्युभीतिं सरक्तपातं कलहं दिनांते ॥ १२७ ॥ भषन्दिनेशाभिमुखः प्रभाते ग्रामस्य मध्ये नृपनाशनाय ॥ वच विमुंचन्यदि दृश्यते श्वा सिद्धेऽपि कार्ये तदुपद्रवः स्यात् ॥ १२८ ॥ ॥ टीका ॥ झंझादिवायुः तयोर्भीतिर्भयं तस्यै स्यात् ॥ १२५ ॥ उदङ्मुख इति ॥ निशी - थे अर्द्धरात्रे उदङ्मुखः उत्तरदिग्वक्रः श्वा रुवन्द्विजोपपीडां ब्राह्मणानां बाधां गवां मरणं च वक्ति । निशांते निशावसाने शिवदिङ्मुखः इशानवदनः श्वा कुमारिकादूषण गर्भपातवह्नीन्वक्ति कुमारिकायाः दूषणं लांछनादि गर्भपातो गर्भस्रावः वह्निः अग्निदाहः पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादेतेषामितरेतरद्वंद्वः ॥ १२६ ॥ प्रातरिति ॥ प्रातः प्रभाते अभिः। दिक्स्थ दिनेशाभिमुखो भषञ्श्वा अनलचौरभीति वह्नितस्कराभ्यां भयं विधत्ते । दिनस्य मध्ये दिनेशाभिमुखो भषञ्श्वा अनिल मृत्युभीतिं विधत्ते । दिनांते दिनेशाभिमुखो भषञ्श्वा सरक्तपातं कलहं विधत्ते ॥ १२७ ॥ भषन्निति ॥ प्रभाते प्रभातकाले ग्रामस्य मध्ये मूर्यसम्मुखो भषञ्श्वा नृपनाशनाय स्यात् । यदि दिनेशाभिमुखः श्वा विष्ठां विमुचन्दृश्यते तदा सिद्धेऽपि कार्ये उपद्रवः ॥ भाषा ॥ वायु दिशा माऊं मुख करके बोले तो चौर पवन इनको भय करै ॥ १२५ ॥ उदङमुखइति ॥ अर्द्धरात्रिमें उत्तरदिशामें मुखकर खान बोलै तो ब्राह्मणसूं बाधा करे. और गौनको मरण होय और रात्रिके अंतमें ईशान माऊं मुख करके बोले तो कन्याके कन्यापनेको दूषण, और गर्भपात, अग्निको लगनो ये होंय ॥ प्रातरिति ॥ प्रभातकालमे अग्निदिशामें स्थित होय, सूर्यके सम्मुख देखतो जाय, शब्द करै तो अग्नि चौर इनको भय करें और दिनके मध्य में सूर्य सम्मुख देखतो जाय, १२६ ॥ शब्द करे तो वायु मृत्यु इनको भय करे. सायंकालकूं सूर्य के और शब्द करै तो श्वान रक्तपात सहित कलह करावे ॥ १२७ कालमें ग्रामके मध्य में सूर्य के सम्मुख देखकर श्वान बोले तो Aho! Shrutgyanam सम्मुख देखतो जाय, ॥ भषन्निति ॥ प्रभातराजाके नाशके अर्थ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६१) श्वचेष्टिते शुभाशुभप्रकरणम् । ऊर्धानना भास्करसंमुखीनाः श्वानो रुवंतो महते भयाय ॥ एवं हि संध्यासमयेऽन्यदातु निर्वासकाःस्युनगरस्यतस्य।।१२९ ग्रामं निशायां खरसारमेयाः शून्यं विधातुं सहिता भवंति ॥ ग्रामेभषित्वा भषणाः श्मशाने रुवंति नाशाय च मुख्यपुंसः १३० ग्रामस्य मध्ये बहवो मिलित्वा श्वानो मुहुः क्रूररवा रटतः॥ मुख्यस्यपुंसः कथयंत्यसौख्यं श्वारण्यगःस्यात्सदृशो मृगेण १३१ भषंति दंडैरिव ताड्यमानाः खेखेतिशब्देन मुहुर्मुहुर्ये ॥ये वा प्रधावति च मंडलीभिस्तेमृत्युदाः शून्यविधायिनो वा॥ १३२॥ ॥टीका ॥ स्यात् ॥ १२८ ॥ उर्द्धानना इति ॥ भास्करसंमुखीनाः ऊर्द्धाननाः रुवंतः श्वानः महते भयाय स्युःाहि निश्चितमासंध्यासमयेऽपि एवमेवं रुवंतःमहते भयाय भवंति। अन्यदा तु अन्यस्मिन्समये तु ऊनिनारुवंतः तस्य नगरस्य निर्वासका उदासकारकाः स्युः॥ १२९ ॥ प्राममिति ॥ निशायां खरसारमेयाः ग्रामंशून्यं विधातुं स हिताः भवंति भषणाः ग्रामे भषित्वा श्मशाने मुख्यपंसो नाशाय रुवंति ॥ १३० ॥ ग्रामस्येति ॥ ग्रामस्य मध्ये बहवो मिलित्वा श्वानः मुहुमुहुः: क्रूररवाः रटेतः मुख्यस्य पुंसः असौख्यं कथयति । अरण्यगः श्वा मृगेण हरिणेन सदृशः स्यात् । हरिणसदृशं फलं ददातीत्यर्थः ।। १३१ ।। भपंतीति ।। ये श्वानः दंडैस्ताड्यमाना ॥ भाषा ॥ जाननो. जो सूर्यके सम्मुख देखतो जाय विष्ठा करतो होय ऐसो खान दोखे तो सिद्ध हुये कार्यमें उपद्रव होय ॥ १२८ ॥ ऊर्द्धानना इति ॥ सूर्यके सम्मुख होय ऊंचो मुख करे हुये इवान भूसे तो महान् भय करै. संध्यासमयमें या प्रकार बोले तो निश्चय महान् भय करे. और समयमै सूर्यके सम्मुख ऊंचो मुखकर रोवे तो बा नगरकू उजडवेके अर्थ जाननो ॥ १२९ ॥ ग्राममिति ॥ रात्रिमें श्वान बहुतसे मिलकरके बोलें तो ग्रामकू शून्य करें, और ग्राममें भंसकरके फिर श्मशानमें शब्द करें तो ग्राममें मुख्य पुरुष होय तांकी मृत्यु करें ॥ १३० ॥ ग्रामस्येति ॥ ग्रामके मध्यमें बहुतसे श्वान मिलकरके वारवार क्रूरशब्द करें तो ग्राममें मुख्य पुरुष होय ताकू असौख्य करें. और बनमें श्वानके फल मृगके समान करेहैं. जैसे मृगके शकुन तैसेही श्वानके शकुन जानने ॥ १३१ ।। भषंतीति ॥ जे श्वान दंडकरके ताडन किये होय ताकीसी नाई खें खें ये शब्द वारंवार Aho! Shrutgyanam Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६२ ) वसंत राजशाकुने - अष्टादशो वर्गः । खनत्यगारे यदि सारमेयः कुंड्यं तदा स्यात्खलु संधिपातः॥ गोष्ठप्रदेशं यदि गोपहारो धान्यस्य भूमिं यदि धान्यलाभः ॥ १३३ ॥ कृत्वा शिरों द्वारि बहिर्वपुश्वेच्छा रौति दर्घिं गृहिणीं प्रपश्यन् ॥ तद्रोगदो वक्ति च बन्धकीं तां बहिर्मुखो - भ्यंतर कायभागः ॥ १३४ ॥ धनागमः स्याच्छनि जातु वामं जित्वामं कलहं प्रियाभिः ॥ वामं तथोरुं विषयोपभोगो मित्रैः समं वैरमवाममूरुम् ॥ १३५ ॥ ॥ टीका ॥ इव खेखेति शब्देन मुहुर्मुहुः भषंति अथवा ये मण्डलीभिः प्रधावंति ते लोकानां मृत्युदाः ग्रामस्य शून्यविधायिनो वा स्युः ॥ १३२ ॥ खनतीति । यदि सारमेयअगारे कुड्यं भित्तिं खनति तदा खलु निश्चयेन संधिपातः स्थात् । "कुड्यं भित्तिस्तदेडूकमन्तर्निहित कीकसम्" । इति हैमः । यदि गोष्ठप्रदेशं गवां स्थानं खनति तदा गोपहारः स्यात् । यदि धान्यस्य भूमिं खनति तदा धान्यलाभः स्यात् ॥ ॥ १३३ ॥ कृत्वेति ॥ द्वारि शिरः कृत्वा वहिर्वपुश्चेच्छा गृहिणीं प्रपश्यन्दीर्घमुचैः रौति तदा रोगदः स्यात् । बहिर्मुखः अभ्यंतर कायभागश्च श्वा यदि गृहिणी प्रपश्यनुच्चैः रौति तदा तां बन्धकीं कुलटां वक्ति । “पुंश्चली धर्षिणी बन्धक्यसती कुल टेत्वरी" । इत्यमरः ॥ १३४ ॥ धनागमेति || वामं जानु शुनि श्वाने जिघ्रति सति गन्धोपादानं कुर्वेति सति धनागमः स्यात् । अवामं जिघ्रति प्रियाभिः कलहः स्यात् । ॥ भाषा ॥ अथवा मंडल बांधकर दौड़ें तो वे लोकको मृत्यु करें. अथवा ग्रामकूं सूनो करें ॥ १३२ ॥ खननिति ॥ जो खान घरमें भीत खोदें तो निश्चयकर चौर भति फोडकर आत्रे. जो ग स्थानकूं खोदें तो गो चुरायकर ले जाय. जो धान्यकी पृथ्वीकूं खोदें तो धान्यको लाभ होय ॥ १३३ ॥ कृत्वेति ॥ जो श्वान घरके हारमें मस्तक करके देह जाको बाहर होय स्त्रीके मांऊं देख रह्यो होय दीर्घ शब्द करके बोलतो होय तो रोग करे. और बाहर मुख होय जाको भीतर होय घरकी स्त्रीके माऊं देखतो हुयों ऊंच स्वरकर बोले तो वा स्त्रीकूं व्यभिचारिणी क हैं ऐसो जाननो ॥ १३४ ॥ धनागमेति ॥ जो ज्ञान बांयी जानूंकूं सूंघतौ होय तो धनको आगमन करें. जो जेमनी जानूंकूं सूंघतो होय तो प्रिया स्त्रीकरके कलह करावे. और वांये घोंटूंकूं सूंघतो होय तो विषयको भोग भोगे. जेमने घोटूकूं संवतः Aho! Shrutgyanam Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते शुभाशुभप्रकरणम् । (४६३) भुजद्वयं जिघ्रति सारमेये पुंसो भवेत्तस्करवैरियोगः ॥ मांसास्थिभक्ष्याणि च भस्ममध्ये स्यानोपयत्यग्निभयं प्रभूतम् ॥ १३६ ॥ भषत्यधो भूमिरुहोऽतिवृष्टिः पुरस्य पीडा शुनि गोपुरे स्यात् ॥ मंचे पुनस्तच्छयितुर्भयातिरार्तिस्तथा तस्य गृहस्य मध्ये ॥ १३७ ॥ भवेद्गृहस्योपरि वातभीत्यै पश्चाद्भपन्भीतिकरः प्रयाणे ॥ यश्चापसव्यं जनसंनिवेशे भषन्वजत्याह स वैरिभीतिम् ॥ १३८॥ ॥ टीका ॥ तथा वाममूरुं जिवति सति विषयोपभोगः स्यात् । अवाममूरुं जिघति सति मित्रैः समं वैरं' स्यात् ॥ १३५ ॥ भुजद्वयमिति ।। सारमेये मुजद्वयं जिघ्रति सति पुंसः तस्करवैरियोगः तस्करश्च वैरी च तयोर्योगः संबंधो भवेत् । तथा मांसास्थिभक्ष्याणि च मांसं पललमस्थि कर्परं भक्ष्यम् । एतेषां वंद्वः। भस्ममध्ये रक्षांतराले गोपयति सति प्रभूतं प्रचुरम् अमिभयं स्यात् ॥ ॥ १३६ ॥ भवतीति ॥ भूमिरुहः वृक्षस्य अधः भषति सति अतिवृष्टिः स्यातागोपुरे नगरप्रतोल्यां शुनि भवति सति पुरस्य पीडा स्यात् । मंचे भयात्तिः स्यात् । तथा तस्य गृहस्य मध्ये ऑत्तिः पीडा स्यात् ॥ १३७ ॥ मंचे भवेदिति ॥ गृहस्योपरि भषन्वातभीत्यै वायुभयाय स्यात् । प्रयाणे पश्चाद्भषन्भीतिकरः स्यात् । यः श्वा जनसन्निवेशे अपसव्यं दक्षिणंभषन्व्रजति स वैरिभीतिमाह कथयतीत्यर्थः ।। ॥ भाषा॥ होय तो मित्रकरके सहित वैर करावै ॥ १३५ ।। भुजव्यमिति ॥ श्वान दोनों भुजानक संगतो होय तो पुरुषकं चौर वैरी इनको संयोग होय. और मांस, हाड़, भक्ष्य इनें भस्म जो राख तामे छिपायदे तो बहुत अग्निको भय होय ॥ १३६ ॥ अषतीति ॥ वृक्षके नीचे श्वान बोले तो अतिवृष्टि होय. नगरके द्वारमें बोले तो नगर पुर इनमें पीडा होय जो पलंग खाट मंचा इनमें बोले तो वापै सोयबेवारेकू भय पीडा होया और वा घरमेंभी पीडा होय ॥ ॥ १३७ ॥ भवदिति ॥ जो घरके ऊपर श्वान बोले तो वायुको भय करै, चलतीसमय पीठपीछे बोले तो भय करें, जो श्वान घरनगरादिकमें प्रवेश करतीसमय दक्षिणभागमें बोलतो हुयो गमन करे तो वैरीको भय होय ॥ १३८ । Aho! Shrutgyanam Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६४) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। भषनभीक्ष्णं भवनस्थितानामावेष्टनं चेत्कुरुते कदाचित् ॥ कौलेयकोऽवश्यमुपस्थितं तज्ञेयं भयं बंधनसंप्रवृत्तम् ॥ ॥ १३९॥लिप्तपूरितचतुष्कविशेषे प्रांगणे श्वनिवहो रममाणः ॥ संपदं प्रवितरत्यतिबह्रीं तत्खनन्पुनरनर्थकरोऽसौ ॥ १४० ॥ एकेन यो रोदिति लोचनेन दोनोऽल्पभोजी स्वगृहस्य दुःखम् ॥ करोत्यसौ क्रीडति यस्तु गोभिः क्षेमं सुभिक्षं कुरुते मुदं श्वा ॥ १४१॥ इति वसंतराजशाकुने श्वचेष्टिते शुभाशुभज्ञानप्रकरणम् ॥७॥ ॥ टीका। ॥ १३८ । भषनिति । अभीक्ष्णं भषन्कौलेयकश्चेद्भवनस्थितानां कदाचिदावेष्टनं कुरुते तदा अवश्यं बंधनसंप्रवृत्तं भयमुपस्थितं ज्ञेयम् ॥ १३९ ॥ लिप्तेति ॥ लिप्ताः छगणादिना पूरिताः अक्षतैश्च एवंविधे चतुष्कविशेषे चउक इति प्रसिद्ध प्रांगणे अजिरे रममाणः क्रीडां कुर्वाणः श्वनिवहः अतिबहीं संपदं वितरति । तत्खनन्पुनः असौ श्वनिवहः अनर्थकरः स्यात् ॥ १४० ॥ एकेनेति ॥ यः श्वा एकेन लोचनेन रोदितिते । कीदृक् । दीन दुःखितः अल्पभोजी अल्पाहारी असौ श्वा गृहस्य दुःखं करोति । यस्तु गोभिः समं क्रीडति स श्वा क्षेमं सुभिक्षं मुदं च कुरुते ॥ १४१ ॥ ___ इंति वसंतराजटीकायां श्वचेष्टिते शुभाशुभज्ञानप्रकरणं सप्तमम् ॥७॥ ॥ भाषा ॥ भषन्निति ॥ वारंवार बोलतो हुयो श्वान धरमें स्थित जे पुरुष तिनकुं आवेष्टन करल अर्थात् प्रदक्षिणासी कर जाय तो अवश्य बंधनको भय निकटही जाननो ॥ १३९ ॥ लिप्तति ॥ गोबरतूं लीपकर चावलनकर चौक पुरो होय ऐसे आंगनमें आयकर श्वान रमण करै तो अति संपदा करै. जो वा चौककू खोदे तो अनर्थ करै ॥ १४० ॥ एकेनेति ॥ जो श्वान एक नेत्र करके रोवै बडो दुःखी होय थोडे आहारको करवेवालो होय तो वा वरमें दुःख करै जो श्वान गौनकरके सहित क्रीडा करै वो श्वान कल्याण और सुभिक्ष और हर्ष करै ॥ १४१ ।। इति श्रीवसंतराजभाषाटीकायां श्वचेष्टिते शुभाशुभप्रकरणं सप्तमम् ॥ ७॥ .. Aho! Shrutgyanam Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचष्टते लाभप्रकरणम् । ( ४६५ ) शुभाशुभज्ञाननिमित्तमस्मिन्यथावदुक्तं मुनिसंमतेन ॥ प्रदश्र्श्यते श्वान विचेष्टितेन लाभस्य दिङ्मात्रमथैतदत्र ॥१४२॥ यक्षो हरिद्रामिषगैरिकाद्यैः पूर्णाननो वक्ति सुवर्णलाभम् ॥ दृष्टं पुनः पुष्पफलांकुरेषु चिरं ददानो निधिलाभकारी ॥ १४३ ॥ यः पल्लवैः क्रीडति वृक्षमूलं तथेक्षते यः स ददाति सौख्यम् ॥ रक्ताक्तमूर्द्धाभिमुखोऽभ्युपैति यो मंडलः सोऽवनिलाभहेतुः १४४ स्थित्वोन्नते श्वा यदि तु प्रदेशे पादेन कंडूयति दक्षिणेन ॥ शिरः प्रदेशं नियतं नरस्य तद्धेतुलाभं विदधाति सद्यः ॥ १४५ ॥ ॥ टीका ॥ शुभाशुभेति || अस्मिन्प्रकरणे शुभाशुभज्ञाननिमित्तं यथावद्यथा ज्ञातं तथा उक्तम् । अथ मुनिसंमतेन श्वानविचेष्टितेन लाभस्यैतज्ज्ञानमत्राऽस्मिन्प्रकरणे दिमात्रं प्रदर्श्यते ॥ १४२ ॥ यक्ष इति ॥ हरिद्रामिषगैरिकाद्यैः हरिद्रा रजनी आमिषं मांसं गैरिकं धातुविशेषः आदिशब्दादन्येऽपि धातवो ग्राह्याः । एतेषामितरेतरद्वंद्वः तैः कृत्वा पूर्णाननो यक्षः सुवर्णलाभं वक्ति । पुष्पफलांकुरेषु पुष्पं प्रसूनं फलम् आम्रादि अंकुराः प्ररोहाः । एतेषां द्वंदः तेषु चिरं दृष्टिं ददानः निधिलाभकारी स्यात ॥ १४३ ॥ य इति ॥ यः श्वा पल्लवैः नवीनपत्रैः क्रीडति तथा वृक्षमूलमीक्षते स सौख्यं ददाति । तथा यः मंडलः अभिमुखः अभ्युपैति कोहक रक्ताक्तमूर्द्धा रक्तेन धातुना रुधिरेण वा अक्तो लिप्तो मूर्द्धा मस्तकं यस्य स तथा सः अवनिलाभहेतुः स्यात् ॥ १४४ ॥ स्थित्वेति ॥ उन्नते प्रदेशे उच्चैः स्थाने स्थित्वा यदि वा दक्षि ॥ भाषा ॥ शुभाशुभेति ॥ या सात में प्रकरण में शुभाशुभ ज्ञान जैसो जान्यो तैसो कह्यो. आठ प्रकरणमें मुनिनकी संगति करके श्वानकी चेष्टासूं लाभको ज्ञान दिशा मात्र दिखावे है ॥ १४२ ॥ यक्ष इति ॥ हलदी, मांस, गेरूकूं आदिले औरभी धातु इनकरके पूर्ण जाको मुख ऐसो श्वान सुवर्णको लाभ करे. और पुष्प, फल, अंकुर इनमें बहुत देरतांई देखो करे तो निधिको लाभ करे ॥ १४३ ॥ य इति ॥ जो श्वान नवीन पल्लवन करके क्रीडा करतो होय और वृक्षको जडकूं देखतो होय वो सौख्य देवे. जो श्वान गेरूकूं आदिले धातू - करके अथवा रुधिर करके लाल लियो हुयो जाको मस्तक होय वा सन्मुख आवे तो पृथ्वीको लाभ करे ॥ १४४ ॥ स्थित्वेति ॥ ऊंचे स्थानमें स्थित होय करके जो व ३० Aho! Shrutgyanam Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६६) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। फलं गृहीत्वा सहसा निवासं यक्षो विशअल्पति पुत्रलाभम्।। योऽभ्येति हृष्टोऽभिमुखं प्रयातुः शीघ्रं स कुर्याद्धनधान्यलाभम् ॥ १४६॥ दक्षिणं यदि करोति चेष्टितं दक्षिणेन चरणेन मंडलः ॥ लाभदो यदि पदा समाचरेद्वामकेन खलु तन्न लाभदः ।। १४७॥ मूत्रं विधायाभिमुखं प्रयाति यो जाग.रूकः शुभदो नराणाम् । कार्येषु सर्वेष्वपि सर्वकालं न मूत्रयंती शुनकी प्रशस्ता ॥ १४८ ॥ स्थाने मनोज्ञे विदधाति मूत्रं संतुष्टचित्तः शुभचेष्टितःश्वा॥रम्यारवो यः सरमासुतोसौ करोत्यभिप्रेतपदार्थलाभम् ॥ १४९॥ इति वसंतराजशाकुने श्वचोष्टिते लाभप्रकरणमष्टमम् ॥ ८॥ ॥ टीका ॥ णेन पादेन शिरःप्रदेशं कंडूयति नियतं तदा सद्यः शोनं नरस्य धेनुलाभं विदधाति ॥ १४५ ॥ फलमिति ॥ यक्षः फलं गृहीत्वा सहसा शीघ्र निवासं गृहं विशन्प्रविशन्पुत्रलाभं जल्पति । यो हृष्टो हर्षयुक्तो यक्षः प्रयातुः अभिमुखमभ्यीत स धनधान्यलाभं कुर्यात् ॥ १४६ ॥ दक्षिणामिति ॥ मंडलः श्वानः दक्षिणेन चरणेन दक्षिणचेष्टितं करोति तदा लाभदः स्यात् । यदि असौ वामकेन पदा चरणेन दक्षिणचेष्टितमाचरंति तदा लाभदो न स्यात् ॥ १४७ ॥ मूत्रमिति ॥ यो जागरूकः श्वा मूत्रं विधाय अभिमुखं सम्मुखं प्रयाति स पुंसां शुभदः स्यात् । सर्वकालं सर्वेष्वपि कार्येषु शुनकी सरमा मूत्रयंती न प्रशस्ता ॥ १४८ ॥ स्थाने इंति।। ॥भाषा॥ जेमने पाँव करके मस्तककू खुजावतो होय तो शीघ्र मनुष्यकू गौ लाभ करे ॥ १४ ॥ फलमिति ॥ श्वान फल ले करके शीघ्र घरमें प्रवेश करे तो पुत्रको लाभ होय. जो हर्षयुक्त होय श्वान गमन कर्ताके सन्मुख आवे तो धनधान्यको लाभ करै ॥ १४६ ॥ दक्षिणमिति ॥ जो श्वान दक्षिण चरणकरके दक्षिण अंगकी चेष्टा करै तो लाभ देवै. जो वांये पावकरके दक्षिण अंगकी चेष्टा करै तो लाभ देवै. जो वांये पावकरके दक्षिणं अंगकी चेष्टा करतो होय तो लाभ नहीं देवै ॥ १४७ ॥ मत्रमिति ॥ जो श्वान मूत्रकरके सम्मुख आवे वो पुरुषन• शुभ देवे. सरमा नाम कुतिया मूत्र करे तो सर्व कार्यनमें शुभ नहीं ॥ १४८ ॥ स्थाने इति ॥ प्रसन्नचित्त होय शुभ चेष्टा करतो होय शुभ शब्द Aho! Shrutgyanam Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टितं जीवितमरणप्रकरणम् । (४६७) कथ्यतेऽथ कपिलस्य चेष्टितं रोगिणो मरणजीवितेक्षणे || लक्षणं चरकवाग्भटादिभिर्भाषितं यदतिशय्य वर्तते ॥ ॥ १५० ॥ लीढेऽथ वा जित्रति सारमेयो हस्तस्य पृष्ठ तलमंगुलीर्वा || रोगातुरस्योपदिशत्यवश्यं तत्पंचतां वासरपंचकेन ॥ १५१ ॥ कर्णयुग्ममथ वेक्षणद्वयं नर्तयन्वदति वासरैस्त्रिभिः ॥ रोगिणो मरणमालिहन्पुनर्नासिकां दशभिरंतद्दिनैः ॥ १५२ ॥ ॥ टीका ॥ यः संतुष्टचित्तः शुभचेष्टितश्च रम्यारवः शुभशब्दकारी मनोज्ञे रम्ये स्थाने स्थले मूत्रं कुरुते असौ सरमासुतः अभिप्रेतपदार्थ लाभं करोति ॥ १४९ ॥ इति श्रीवसंतराजशाकुने टीकायां श्वचेष्टिते लाभप्रकरणमष्टमम् ॥ ८ ॥ कथ्यते इति ॥ अथ रोगिणः मरणजीवितेक्षणे मरणं मृत्युः जीवितम् जीवनं तयोः ईक्षणं विलोकनं तस्मिन्कपिलस्य तच्चेष्टितं कथ्यते यत्कपिलचेष्टितं चरकवाग्भटादिभिर्भाषितं लक्षणमतिशय्य अतिक्रम्य वर्तते ॥ १५० ॥ लीढे इति ॥ यदि सारमेयः हस्तस्य पृष्ठं तलं अंगुलीर्वा लीढे आस्वादयति अथ वा जिघ्रति आप्राणं करोति तदा रोगातुरस्य वासरपंचकेन पंचतां नाशमवश्यमुपदिशति । "पंचत्वं निधनं नाशो दीर्घनिद्रा निमीलनम् " ॥ इति हैमः ॥ १५१ ॥ कर्णेति ॥ कौलेयकः कर्णयुग्ममथ वा ईक्षणद्वयं लोचनयुग्मं नर्तयन्वासरैस्त्रिभि रोगिणो मरणं वदति । पुन र्ना - ॥ भाषा ॥ करतो ह्येय सुंदर स्थानमें मूत्र करै वो श्वान वांछित पदार्थको लाभ करे ॥ १४९ ॥ इति श्रीवसंतराजशाकुने भाषाटीकायां श्वचेष्टिते लाभकरणमष्टमम् ॥ ८ ॥ कथ्यते इति ॥ रोगी के मरण जीवनको देखनो तामें चरक वाग्भटादिकनने जो श्वान - की चेष्टा लक्षण कही हैं उनसे जे अधिकवतें हैं तिने मैं कहूं हूं ॥ १९० ॥ लीढे इति ॥ करे जो श्वान हाथको पृष्ठभाग वा अंगूली इनें चाटें वा सूंघे तो रोगीकूं पांचदिनमें अवश्य मृत्यु ॥१९१॥ कर्णेति ॥ श्वान दोनो काननकू वा दोनों नेत्रनं नचावे तो तीन दिनकरके रोगी Aho! Shrutgyanam Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ( ४६८ ) वसंतराजशाकुने- अष्टादशो वर्गः । पुनः पुनर्दक्षिणमूरुभागं लिहन्दिनैः पंचभिराह मृत्युम् ॥ यमक्षयं तत्क्षणमेव यक्षः क्षिपत्यवश्यं जठरावलेहात् ॥ ॥ १५३ ॥ अवामभागेन यदा वलित्वा वा पृष्ठकंडूति - मपाकरोति ॥ तदह्नि तत्रैव कृतांतगेहूं रोगाभिभूतो नियतं प्रयाति ॥ १५४ ॥ पुच्छोरसोर्लेहनसिंहनाभ्यां प्रवर्तिताभ्यां सरमासुतेन ॥ क्रमादिनानां त्रितयद्वयाभ्यां भवे वं रोगवतोऽवसानम् ॥ १५५ ॥ पृष्ठे निमित्तेऽलसचित्तवृत्तिः संकुच्य गात्राण्यखिलानि शेते ॥ कौलेयकश्चेत्तदुपति रोगी परेतनाथावसथं क्षणेन ॥ १५६ ॥ ॥ टीका ॥ 1 सिकामालिहन्दशभिर्दिनैः अंतकृन्नाशकृत्स्यात् ॥ १५२ ॥ पुनरिति ॥ यक्षः पुनःपुनः दक्षिणमूरुभागं लिहन्पंचभिर्दिनैः मृत्युमाह । जठरावलेहात्तत्क्षणमेव यक्षः अवश्यं यमक्षयं यमगृहं क्षिपति प्रवेशयति । "संस्थानमुटजं धाम निवेशः शरणं क्षयः" इत्यमरः॥ ॥ १५३॥ अवामेति ॥ श्वा कौलेयकश्चेदवामभागेन दक्षिणप्रदेशेन वलित्वा वकी भूय पृष्ठकंडूति खर्जूमपाकरोति दूरी करोति । तदा तत्रैव तदह्नि रोगाभिभूतः कृ· तिगेहं नियंतं प्रयाति ॥ १५४ ॥ पुच्छेति ॥ सरमासुतेन पुच्छोरसोः पुच्छं लांगूलमुरः हृदयस्थानमनयोर्द्वद्रः तयोर्लेहनसिंहनाभ्यां प्रवर्त्तिताभ्यां सद्भयां क्रमादिनानां त्रितयद्वयाभ्यां ध्रुवं निश्चयेन रोगवतोऽवसानं नाशो भवेत् ॥ १५५ ॥ पृष्ठे इति ॥ निमित्ते पृष्ठे सति चेत्कौलेयकः अखिलानि गात्राणि संकुच्य अलस ॥ भाषा ॥ मृत्यु होय फिर नासिकाकूं चाटे तो दश दिनकर रोगीको नाश करें ॥ ११२ ॥ पुनरिति ॥ श्वान वारंवार दक्षिण ऊरू भागकूं चाटे तो पांच दिनमें मृत्यु जाननो. जो उदकूं चाटे तो तत्क्षणही श्वान अवश्य यमलोककूं प्राप्त करे || १५३ ॥ अवामेति ॥ जो श्वान जेमने भागमें टेढो होय करके पीठकी खुजलीकूं दूर करे तो रोगीकूं वाईसमय अथवा चा दिनही निश्चय मृत्यु करै ॥ १५४ ॥ पुच्छेति ॥ श्वान पूंछ और हृदयस्थान इनकूं चाटे वा सूंघे तो तीन दिन वा दोय दिनमें निश्चयकर रोगवान् पुरुषकुं नाश वा मृत्यु करै ॥ १५५ ॥ पृष्ठे इति ॥ कोई आय करके प्रश्न करै वा समयमें जो श्वान सबले गनकूं संकोच करके आलस्य युक्त होय सोतो होय वा सोयजाय तो रोगी क्षणमात्रमें Aho! Shrutgyanam Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते जीवितमरणप्रकरणम् । (४६९) विधूय कर्णौ परिवर्त्य गात्रं प्रस्वापलीला भलुहोऽभ्युपैति ॥ यदा तदानीमचिरेण कालः क्रोडी करोत्यामयिनं प्रसह्य । ॥ १५७ ॥ संकोचितांगः पिहिताक्षियुग्मो निरस्तशंकं शुनकः शयानः॥ व्यात्ताननो मुंचति यस्तु लालां स रोगिणं मारयति क्षणेन ॥ १५८॥ निष्कारणं यः प्रपलायते वा विरौति वा वारिणि योतिभीतः ॥ मृतांगरज्वस्थिमुखोऽथ वा यो गेहं विशत्याशु स मृत्युमाह ॥ १५९॥ अत्यंतमालस्यमपास्य यक्षो दिने दिने भास्करसंमुखं यः॥ उद्वेगकारी भषति प्रभूतं ब्रवीति देशाधिपतेः स मृत्युम्॥१६०॥ ॥ टीका ॥ चित्तवृत्तिः शेते तदा रोगी क्षणेन परेतनाथो यमस्तस्यः आवसथं गृहम् उपैति गच्छति ॥"धिष्ण्यमावसथः स्थानं पस्त्यं संस्त्याय आश्रयः"॥इति हैमः॥१५६॥ विधूयेति॥यदा भलुहः अस्थिभुक् कर्णी विधूय गात्रंःशरीरं परिवर्त्य शरीरस्य परिवतंनं कृत्वा प्रस्वापलीलाम् अभ्युपैति तदा कालो यमः आमयिनं रोगिणंम् अचिरेण शीघ्र प्रसह्य हठात्क्रोडी करोति उत्संगे ग्रहाति ॥ १५७ ॥ संकोचिते ॥यः शुनका संकोचितांगः पिहिताक्षियुग्मः निरस्तशंकं यथास्यात्तथा शयानाव्यात्ताननः विपाटितवदनःलाला मुंचतिस क्षणेन रोगिणं मारयति यमसदनं प्रापयतीत्यर्थः॥१५८॥ । निष्कारणमितिायः श्वा निष्कारणं प्रपलायते नश्यति यो वा वारिणि अतिभोतः विरौति अथ वा यः मृतांगरज्वस्थिमुखः मृतांगरज्जुः अस्थि च मुखे यस्य सः तथोक्तः गेहं विशति स आशु मृत्युमाह॥१५९॥अत्यंतमिति ॥ यः यक्षः अत्यंतम् ॥ भाषा॥ यमराजके घरकू जाय ॥ १५६ ॥ विधूयति ॥ जो इवान काननळू हलाय शरीरकू समेट करके सोय जाय तो यमराज रोगीकू शीघ्रही हठसूं गोदमें धरले ॥ १६७ ।। संकोचितति ॥ जो श्वान अंगकं समेट कर दोनों नेत्र मीचकर निःशंक होय मोढो फाटकर लाल मुखमेंसूं छोडतो हुयो सतो होय तो रोगीकू क्षणमात्रमें यमलोककू प्राप्तकरै ॥ १५८ ॥ निष्कारणमिति ॥ जो श्वान विनाकारण भागजाय और नष्ट होय जाय अथवा जलमें अतिभयवान् होय रोवे अथवा मरेको अंग जेवडी हाड ये जाके मुखमै होय वो शान घरमें प्रवेश कर जाय तो शीघ्रही मृत्यु कहै है ऐसों जाननो ॥१५९ ॥ अत्यंतमिति ।। Aho! Shrutgyanam Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७० ) वसंतराजशाकुने - अष्टादशी वर्गः । 1. रोगार्दितो जीवति किं न वेति प्रश्न प्रयुक्ते शुनकोत्तमस्य ॥ नेक्षया प्राणिति चेष्टया सौ म्रियेत नान्यादृशचेष्टितेन ॥ || १६१ || रोगार्दितस्यौषधसंप्रयोगे श्रेयस्करी नष्टविलोकने च ॥ दुर्गप्रवेशे च शुनां प्रदिष्टा तारा गतिः संनिहिते भये च ॥ १६२ ॥ इति वसंतराजशाकुने श्वचेष्टिते जीवितमरणप्रकरणं नवमम् ॥९ ॥ शुनो निमित्तैः सहजप्रवृत्तैर्विभाव्यते भाव्यशुभं शुभं च ॥ यात्रास्वयत्नेन यथाऽध्वनीनैस्तदुच्यते संप्रति निश्चितार्थम् १६३ ॥ टीका ॥ अतिशयन आलस्यम् अपास्य त्यक्त्वा दिनेदिने भास्करसंमुखं उद्वेगकारी प्रभूतं भषति स देशाधिपतेः मृत्युं ब्रवीति ॥ १६०॥रोगेति ॥ अयं रोगार्दितः किं जीवति न वेति प्र प्रयुक्ते शुनकोत्तमस्य ईदृक्षया चेष्टयाऽसौ रोगी न प्राणिति न जीवति अन्यादृशचेष्टितेन न म्रियेत ॥ १६१ ॥ रोगोते || रोगार्दितस्य रोगपीडितस्य औपधसंप्रयोगे भेषजप्रयोगे तथा नष्टविलोकने दुर्गप्रवेशे च सन्निहिते भये च शुनां तारा गतिः श्रेयस्करी प्रदिष्टा ॥ १६२ ॥ इति वसंतराजटीकायां श्वचेष्टिते जीवितमरणप्रकरणं नवमम् ॥ ९ ॥ शुनेति ॥ संप्रति इदानीं सहजप्रवृत्तैः स्वभावेन प्रवर्तितैः शुनो निमित्तैः भषणस्य शकुनैः यात्रासु अयत्नेन यथा अध्वनीनैः पथिकैः भावि शुभमशुभं च वि ॥ भाषा ॥ जो श्वान अत्यंत आलस्यकुं छोडकरके दिन दिनप्रति सूर्यके सम्मुख उद्वेग कारी होय बहुतसों भूसे तो देशाधिपति राजाकी मृत्यु करे ॥ १६० ॥ रोगेति ॥ ये रोगी जीवेगो कि नहीं ऐसो प्रश्न करे तब श्वानकी ऐसी चेष्टा करके तो रोगी करके मरे नहीं ॥ १६९ ॥ रोगति ॥ रोगकर पीडित होय वा लैवेमें तैसेही नष्ट देखवेमें दुर्ग के प्रवेशमें संनिहित में भयमें श्वाननकी की करवेवारी कही है ॥ १६२ ॥ नहीं जीवे और चेष्टा न पुरुषकूं औषधिके देवे गति जेमनी कल्याण इति वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां श्वचेष्टिते जीवितमरणप्रकरणं नवमम् ॥९॥ शुन इति ॥ अब स्वभाव करके प्रवृत्त हुये वानके शकुन तिनकरके यात्रानमें मार्गी - करके होनहार शुभ वा अशुभ जाने जांय है सो खानके शकुन निश्चय किये हुये हम Aho! Shrutgyanam Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते यात्राप्रकरणम् । (४७१), वामा दिशं दक्षिणभूमिभागाद्गच्छन्प्रयाणे भषणः प्रशस्तः॥ वामप्रदेशात्स पुनः प्रवेशे प्रशस्यते दक्षिणभागगामी ॥ ॥ १६४ ॥ याने प्रवेशे च मता प्रशस्ता शुन्या गतिः श्वानविपर्ययेण ॥ न चेष्टितं प्रत्युभयोर्विशेषः शुनीशुनोरत्र हि कश्चिदस्ति ॥ १६५ ॥ विष्ठां शुभं वा वसनस्य खंडमादाय वक्रेण पुरः प्रधावन् ॥ कौलेयको जल्पति निश्चयेन प्रवासिनामुत्तमवस्तुलाभम् ॥ १६६ ॥ स्तोकं बजित्वा यदि वामभागं निवर्तते श्वा त्वरितं पुरश्चेत्॥ सौख्यं तदा यच्छति सुप्रभूतं दुःखैकहेतुर्गतिरस्य तारा ॥ १६७॥ ॥ टीका ॥ भाव्यते ज्ञायते तदस्माभिः निश्चितार्थ शुनो निमित्तमुच्यते ॥ १६३ ॥ वामामिति ॥ प्रयाणे यात्रायां दक्षिणभूमिभागाद्वामां दिशं गच्छन्भषणः प्रशस्तो भवति । प्रवेशे पुनः वामप्रदेशात्स दक्षिणभागगामी प्रशस्यते ॥ १६४ ॥ याने इति । याने गमने तथा प्रवेशे च शुन्या गतिर्गमनं श्वानविपर्ययेण शुनो वैपरीत्येन प्रशस्ता मता। उभयोः शुनीशुनोः चेष्टितं प्रति इह न कश्चिद्विशेषः अस्ति ॥ १६५ ॥ विष्ठामिति ॥ विष्ठां गृथं शुभं वा वसनस्य वस्त्रस्य खंडं वक्रेण मुखेन आदाय गृहीत्वा पुरः अग्रे प्रधावंस्त्वरितगत्या गच्छन्कौलेयक: प्रवासिनां यियासूनामुत्तमवस्तुलाभ निश्चयेन जल्पति ॥ १६६ ॥ स्तोकमिति ॥ यदि वामभागं स्तोकं व्रजित्वा श्वा ॥भाषा॥ कहैहैं ॥ १६३ ॥ वामामिति ॥ यात्रा करती समयमें दक्षिण भागसू वामभागमें गमन करै श्वान तो शुभ जाननो. फिर प्रवेश समयमें वामभागसूं दक्षिणभागमें गमन करे तो शुभ जाननो ॥ १६४ ॥ याने इति ॥ गमनमें तथा प्रवेशमें शुनी जो कुतिया ताकी गति श्वानकी गतिसं विपरीत गतिहोय तो शुभ जाननी और श्वानकी गतिमें और शुनीकी गतिमें इतनो भेद है, और चेष्टामें भेद विशेषता कभी नहीं हैं ॥ १६५ ॥ विष्ठामिति ॥ विष्ठा वा शुभ वा सुंदर वस्त्रको टूक मुखमें ले करके अगाडीकू भाजे तो वो स्वान यात्राकुं गमनकरै ताकू उत्तम वस्तुको लाभ निश्चय करै ॥ १६६ ॥ स्तोकमिति ॥ जो श्वान थोडीसी दूर अगाडी चलकरके शीघ्रही पीछो सामनेकू वगद आवे तो वा गमन कर्ताकू बहुत सौख्य होय श्वानकीतारागति अर्थात् जेमनी गति दुःखकी देवेवारी जा Aho! Shrutgyanam Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७२ ) वसंतराजशाकुने - अष्टादशो वर्गः । आयाति हृष्टोऽभिमुखो यदि वा क्रीडां प्रकुर्वन्विलुठत्यथाये ॥ शीघ्रं तदानीं ध्रुवमध्वगानां भवेत्प्रभूतो धनधान्यलाभः ॥ १६८ ॥ उच्चात्प्रदेशादवतीर्य नीचं यो याति वामोऽप्यसुखप्रदोऽसौ ॥ अनुच्चदेशात्पुनरुच्चदेशं यक्षो व्रजदक्षिणगोऽपि शस्तः ॥ १६९ ॥ गजाश्वशय्यासनशाद्वलेषु च्छत्रध्वजोलूखलसडुमेषु || कुंभेष्टिकासंचयचामरेषु पर्याणमृत्पुष्पफलादिषु वा ॥ १७० ॥ ॥ टीका ॥ त्वरितं पुरश्चेन्निवर्तते तदा सौख्यं प्रभूतं जल्पति । अस्य तारा गतिः दुःखैकहेतुर्भवति ॥ १६७ ॥ आयातीति ॥ यदि वा हृष्टः क्रीडां प्रकुर्वन्नायाति अथ यथाग्रे विलुठति तदानीं ध्रुवं निश्चयेन अध्वगानां पांथानां प्रभूतः धनधान्यलाभः स्यात् ॥ ॥ १६८ ॥ उच्चादिति ॥ योः यक्षः उच्चात्प्रदेशादवतीर्य नीचं याति असौ वामोपि अमुखप्रदः स्यात् । अनुच्चदेशादधः प्रदेशात्पुनः उच्चदेशं व्रजन्यक्षः दक्षिणगोप शस्तः शोभनः ॥ १६९ ॥ गजाश्वेति ॥ गजाश्वशय्यासनशाइलेषु तत्र गजः हस्ती अश्वः तुरंगः शय्या पल्यंकः आसनमुपवेशनस्थलं शादलानि हरिततृणानि एतेषामितरेतरद्वंद्वः। तेषुच्छत्रध्वजोलूखलसद्रुमेषु छत्रमातपत्रं ध्वजो वैजयंती उलूखलः प्रतीतः सद्दुमाः आम्रप्रभृतयः एतेषां द्वंद्वः । तेषु कुंभेष्टिकासंचयचामरेषु कुंभः कलशः इष्टिकासंचयः (ईटसमूह) चामराणि वालव्यजनानि एतेषामपि द्वंद्वः । पर्यापुष्पफलादिकेषु पर्याणं पल्हाणइति लोके प्रसिद्धं मृन्मृत्तिका पुष्पं प्रसूनं फला ॥ भाषा ॥ ननी ॥ १६७ ॥ आयातीति ॥ जो श्वान प्रसन्न क्रीडाकरत सन्मुख आये. जा पीछे जो अगाडी ' लोट जाय तो निश्वयकर मार्गीनकूं बहुतसो धनधान्यको लाभ होय ॥ १६८ ॥ उच्चादिति ॥ जो श्वान ऊंचे स्थानसूं उतर के नीचे स्थानपै आय जाय जो ये वामभाग मेंभी आय जाय तो दुःख देवे. और नीचे स्थानसूं ऊंचे स्थानपै चढजाय और जेमने भागमें भी होय तो बहुत शुभ जाननो ॥ १६९ ॥ गजाश्वेति ॥ हाथी, घोडा, शय्या, आसन, हरी तृण, छत्र, ध्वजा, ऊखल, उत्तमवृक्ष, कुंभ, ईटको समूह, चमर, पल्हाण Aho! Shrutgyanam Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते यात्राप्रकरणम्। (४७३ ) ब्रजेत्पुरस्ताद्यदि मूत्रयित्वा सदैव तत्सिध्यति कार्यमिष्टम् ॥ मिष्टान्नभोज्यं नवगोमये स्यान्मूत्रेण शुष्केपि च शुष्कभोज्यम् ॥ १७१ ॥ युग्मम् ॥ तुष्टः सुपुष्टः सुमना निरोग उत्साहयुक्तः परिपूर्णकायः ॥ सहेलखेलोऽभिमुखं प्रसपन्यक्षः सदैवाभिमतस्य सिद्धयै ॥ १७२ ॥ अन्नाज्यविष्ठामिषगोमयानि नवानि बिभ्रद्वदने सदैव ॥ वामोऽपसव्योऽप्यवलोक्यमानो मनोरथान्पूरयति ध्रुवं वा ॥ १७३ ॥ ॥ टीका॥ दीनि प्रतीतानि एतेषामितरेतरद्वंदः। तेषु ॥ १७० ॥बजेदिति ॥ यदि एषुस्थलेघुश्वा कौलयकः मूत्रयित्वा पुरःअग्रेव्रजस्तदा सदैव कार्यमिष्टं सिद्ध्यति । नवगोमये मूत्रेण मिष्टान्नभोज्यं स्यात् । शुष्केपि च शुष्कभोज्यं स्यात् ॥ १७१ ॥ तुष्ट इति ।। एवंविधो यक्षः अभिमुखं प्रसर्पन सम्मुखमागच्छन्सदैव अभिमतस्य अभीष्टस्य सिद्धबैस्यात्।कीदृक् तुष्टःसंतुष्टिमान पुनः कीदृक् मुपुष्टः अकृशतनुः। पुनः कीदृशः मुमनाः पुनः कीदृशः अरोग रोगनिर्मुक्तः। पुनः कीदृक् उत्साहयुक्त उत्साहः आनंदविशेषः तेन युक्तः अन्वितः । पुनः कीदृक् परिपूर्णकायः परिपूर्णः कायो अवयवः यस्य स तथा । पुनः कीदृक् सहेलखेलः सहेलं सलीलं खेलः क्रीडा यस्य स तथा ॥१७२॥ अन्नेति ॥ नवानि अनाज्यविष्ठामिषगोमयानि अन्नं च आज्यं च आमिषं चगोमयं चेतीतरेतरद्वंद्वावदने विभ्रत्श्वा सदैव वामोऽपिअपसव्योऽपिच विलोक्य ॥भाषा। मृत्तिका पुष्पफलादिक ।। १७० ॥ ब्रजेदिति ॥ जो श्वान ये कहे जे स्थल इनमें मूत्र करके मनुष्यके अगाडी गमन करे तो सदा वांछित कार्य सिद्ध करै और जो नवीन गोबरपै मूत्र कर तो मिष्टान्नभोजन करावे. सूखे गोबरपै मूत्र करै तो सूखो भोजन होय ॥ १७१ ।। तुष्ट इति ॥ जो संतुष्टिमान् होय, पुष्ट होय, प्रसन्न होय, रोगरहित, आनंदयुक्त होय, परिपूर्ण देह जाको होय, लीला सहित क्रीडा करतो होय, ऐसो श्वान सन्मुख आवे तो वांछित सिद्धि. होय ॥ १७२ ॥ अनेति ॥ नवीन अन्न, घृत, विष्ठा, गोबर इनै मुखमें धारण Aho ! Shrutgyanam Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७४) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। यक्षः पुरस्तादवनि विलिख्य यातुर्मुखं पश्यति चेत्तदानीम्।। तत्रैव देशे द्रविणस्य लाभं ब्रवीति कार्यों न हि संशयोत्र ॥ ॥ १७४ ॥ यातारमाजिघ्रति संप्रयाति तदानुलोम्येन च सारमेयः॥ मूर्भोऽथवा यो विनिहंति कडूं केनापि पादेन स सिद्धिहेतुः ॥ १७९॥ आदाय यक्षः कुसुमानि धावन्ब्रवीति यातुर्विपुलां समृद्धिम् ॥ दृष्टोऽपि कृष्णः शुनकोऽखिलानि निहन्ति कार्याणि समीहितानि ॥ १७६॥ वामेन गच्छन्पथिकेन सार्द्ध ददाति रम्यां रमणीं धनं च ॥ वस्तु मार्गे सह दक्षिणेन कौलेयकस्तस्करभीतिहेतुः॥ १७७॥ ॥ टीका ॥ मानो ध्रुवं मनोरथं पूरयति ॥ १७३ ॥ यक्ष इति ॥ यक्षः चेद्यदि पुरस्तादवनि विलिख्य यातुर्मुखं पश्यति तदानी तत्रैव देशे द्रविणस्य लाभं ब्रवीति।हि निश्चितं अत्र संशयो न कार्यः॥१७४॥ यातारमिति ॥ स सारमेयः सिद्धिहेतुर्भवति । यः यातारमाजिवति तदानुलोम्येन च प्रयाति। अथ वा केनापि पादेन मूर्ध्नः कंडं विनिहंति ॥१७५।। आदायेति ।। यक्षः कुमुमानि आदाय गृहीत्वा धावन्यातुर्विपुलां समृद्धिं ब्रवीति । कृष्णः शुनकः दृष्टोपि विलोकितोपि अखिलानि समीहितानि का र्याणि निहति विनाशयति ॥ १७६ ॥ वामेति ॥ कौलेयकः पथिकेन साई वामे. न भागेन गच्छेत्म्यां रमणीं धनं च ददाति । तु पुनःमार्गे पथिकेन सह दक्षिणे ॥ भाषा॥ करै और वायो जेमनो देखतो होय तो निश्चय मनोरथकू पूरण करै ॥ १७३ ॥ यक्ष इति ॥ जो श्वान अगाडी पृथ्वीकू लिख करके वा खोदकरके गमनकर्ताके मुखर्फे देखै तो वाई देशमें धनको लाभ होय निश्चय संदेह यामें संदेह नहीं है ॥१७४॥ यातारमिति ॥ जो श्वान गमन कर्ताकू आयकरसंघ और अनुलोमगतिकर चलो जाय अथवा कोई पावन करके मस्तककं खजावतो होय तो वो श्वान सिद्धि करै ॥ १७५ ॥ आदायेति ॥ श्वान पुष्प लेकरके दौडे तो गमन कर्ताकू विपुल समृद्धि करै. और कालो श्वान दखैि तो समग्र कार्य विनाशकरै ॥ १७६ ॥ वामेनेति ॥ वान गमनकर्ताके संगसंग वामभागमें गमन कर तो सुंदर रमणी और धन देवै. जो मार्गमें गमनकर्ताकी संग जेमने भागमें गमन करै Aho ! Shrutgyanam Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते यात्राप्रकरणम् । ( ४७५ ) आदाय पत्र हरितं यदि वा दूर्वा नवां वा नवगोमयं वा ॥ प्रयाति यातुः पुरतस्तदानीं राजप्रसादं नियतं ब्रवीति ॥ ॥ १७८ ॥ स्थानांतरं बिभ्रदुपानहं चेत्प्रयाति तद्द्रव्यहरो यदा वा ॥ आस्ते पुरस्तात्सह याति नो वा ददात्युपान नस्तदार्थम् ॥ १७९ ॥ आर्द्रकी कसमुखः पुरतश्चेदृश्यते भवति तच्छुभदः श्वा॥ चर्म शुष्कमथ वास्थि विशुष्कं बिभ्रदेष मरणं विदधाति ॥ १८० ॥ केशास्थिवल्कोपलजीर्णवस्त्राण्यंगार भस्में धनकर्पूराणि ॥ वक्रे समादाय च याति यातुग्गोचरो भूरिभयावहः श्वा ॥ १८१ ॥ ॥ टीका ॥ न भागेन व्रजन्कौलेयकः तस्करभीतिहेतुर्भवति ॥ १७७ ॥ आदायेति ॥ यदि श्वा हरितं पत्रं नवां दूवा नवगोमयं वा आदाय प्रयातुः पुरतः प्रयाति तदानीं नियतं निश्वयेन राजप्रसादं ब्रवीति ॥ १७८ ॥ स्थानांतरमिति ॥ चेच्छ्वा उपानहं पादत्राणं विभ्रत्स्थानांतरं प्रयाति तदा द्रव्यहरः स्यात् । यदा तु उपानद्वदनः पुर स्तादास्ते तिष्ठति अथवा सह साकं नो याति तदाऽर्थं ददाति ॥ १७९॥ आर्द्रेति ॥ आर्द्रकीकसमुखः आर्द्र सद्यस्कं कीकसं अस्थि मुखे यस्य सः श्वा पुरतः अग्रतश्चेहश्यते तदा शुभदो भवति । शुष्कं चर्म अथवा विशुष्कमस्थि विभ्रच्छ्वा पुरतश्चेदृश्यते तदा एष मरणं विदधाति ॥ १८० ॥ केशेति ॥ केशास्थिवल्कोपलजीर्णवस्त्राणि केशाः प्रतीताः अस्थि कीकसं वल्कं वल्कलं उपलः अश्मा जीर्णवस्त्रं ॥ भाषा ॥ तो श्वान चौरनको भय करे ॥ १७७ ॥ आदायेति ॥ जो खान हरो पत्र, नवीन दुर्वा, नवीन गोबर इने लेकरके गमन कर्त्ताके अगाडी आय जाय तो निश्वयकर राजाको अनुग्रह क है हैं ऐसो जाननो ॥ १७८ ॥ स्थानांतरमिति ॥ जो खान जूती - जोडा लेकरके और स्थानमें चलो जाय तो द्रव्यको हरण होय. जो जूती मुखमें लेकरके अगाडी आय ढो होय अथवा संग नहीं चले तो अर्थ देवे ॥ १७९ ॥ आद्वैति ॥ गीलो तत्कालको हुयो हाड जाके मुखमें होय ऐसो श्वान अगाडी दीखे तो शुभ देवे. सूखो चर्म अथवा ह लेकर श्वान अगाडी दीखे तो मरण करे ॥ १८० ॥ केशेति ॥ केश, हाड, वल्कल, पाषाण जीर्ण वस्त्र, अंगार, भस्म, इंधन ठीकरा ये मुखमें लेकरके गमन कर्त्ता की दृष्टिके अगाडी भावे तो Aho! Shrutgyanam Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७६) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। सवह्नयलातं मरणाय यातुर्वल्लीवरत्रादि च बंधनाय॥घाताय निर्वाणमलातमाहुरालोकितं मंडलवत्रसंस्थम् ॥ १८२ ॥ मानवावयवपूरिताननो वीक्षितो भवति भूमिलाभदः॥ स्वांगपुच्छरसनाप्रचालनान्मण्डलो विपुलभूतिदः सदा॥१८३॥ अत्यंतकंडूतिपरो नराणां विरोधकारी शुनकः सदैव ॥ स्यादूर्द्धपादः स पुनः शयानः सिद्धिप्रदः कार्यविधौ प्रदुष्टे ॥ १८४ ॥ ॥ टीका ॥ प्रतीतम् । एतेषामितरेतरबंदः।अंगारभस्मेंधनकर्पराणि चैतेषां दवावके समादाय यातुः दृग्गोचरो यदि श्वा याति तदा भूरिभयावहः भूरिभयजनको भवति१८१॥ सवहीति ॥ सवयलातं वह्निः अमिस्तेन सहितमलातमुल्मुकं मंडलवक्रसंस्थम आलोकितं गंतुःमरणाय वल्लीवरत्रादिच वल्ली व्रततिः वरत्रादि रज्वादिकं मंडल. वक्रसंस्थमवलोकितं गंतुः बंधनाय निर्वाणमलातं मंडलवक्रसंस्थमालोकितं गंतुः घाताय पंडिता आहुरिति प्रत्येकं संबंधः ॥ १८२॥ मानवेति ॥ मानवावयवपूरिताननः मानवा मनुष्यास्तेषामवयवाः हस्तपादादयस्तैःपूरितं भृतमाननंवदनं यस्य स तथोक्तःवीक्षितःश्वा भूमिलाभदो भवति।तथा स्वांगपुच्छरसनाप्रचालनात स्वांगं स्वशरीरं पुच्छं वालधिः रसना जिह्वा एतेषां इंद्वः तेषां प्रचालनान्मंडलः श्वानः सदा विपुलभूतिदो भवति । "भतिर्भस्मनि संपदि" इत्यमरः॥१८३॥अत्यंतेति ॥ अत्यंतकंडूतिपरःशुनकासदैव नराणां विरोधकरी स्यात् प्रदुष्टे कार्ये ऊर्द्धपादःशयानः ॥ भाषा॥ बहुत भय प्रगट करै ।। १८१ ॥ ॥सवहीति ॥ अग्निकरके सहित जलती लकडियां मुखमें जाके होय ऐसो श्वान दखैि तो गमन काकू मरणके अर्थ होय. और लता जेवडाकू आदिले जाके मुखमें होंय एसो श्वान दीखे तो गमन कर्ताकू बंधनके अर्थ जाननो. धुंआ विनाकी जलती लकडियां जाके मुखमें होंय वो श्वान दीखे तो विवेकी वाकू वातको करवेवालो कहैहैं ॥ १८२ ॥ मानवति ॥ मनुष्यनके हाथ पाँव इनकू आदिले जे अंग तिनकरके भरो हुयो जाको मुख वो श्वान दखै तो पृथ्वीको लाभ करै जो अपनो शरीर पूंछ जिह्वा इनकू चलावतो दीखे तो श्वान सदा संपदा देवै ॥ १८३ ॥ अत्यंतेति ॥ स्थत्यंत शरीरके खुजायवेमें तत्पर होय श्वान तो सदा मनुष्यनकू विरोध करे. दुष्ट कार्यमें Aho ! Shrutgyanam Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचोष्टिते यात्राप्रकरणम् । (४७७) क्रीडां गृहश्वा यदि गेहशुन्यांकरोति तद्वंधुसमागमः स्यात्॥ शुनां गणः क्रीडति यो मिलित्वा किंचिद्भपन्सोऽभिमतोतिशिष्टः ॥ १८५॥ नृणां प्रयाणे भवनागमे वा श्वानो रमंते यदि सप्रमोदाः ॥ तदिष्टकार्येऽपि भवेत्प्रमोदः समा- . गमश्च स्वजनैः समानम् ॥ १८६॥ अवामयाने सह संग्रवृत्ते परस्परं चुंबति यक्षयुग्मे ॥ स्निग्धावलोकिन्यवगृहति स्याद्रतप्रसक्ते च युवत्यवाप्तिः ॥ १८७॥ गवा सह क्रीडति चेत्तदानी प्रयोजनं सिद्धयति यद्यदिष्टम् ॥ ग्रामप्रवेशे पुरतोऽभि मूत्र्य प्रयात्यभीष्टाशनलब्धये खा॥ १८८॥ ॥ टीका ॥ स सिद्धिप्रदः स्यात्॥१८४॥ क्रीडामिति ॥ यदि गृहश्वा गेहशुन्या क्रीडा करांति तदा बंधुसमागमः स्यात्।यःशुनां गणः किंचिद्भषन्मिलित्वा क्रीडति सःअतिशिष्टः अतिमतः।१८५।नृणामिति॥नृणां प्रयाणे यात्रायां भवनागमेवा यदि श्वानःसप्रमो. दाःहर्षसहिताः रमते तदेष्टकार्येऽपिप्रमोदो भवेत्।स्वजनैःसमानं समागमश्च भवति ॥१८६॥अवामेति ॥ यक्षयुग्मे अवामयाने सहसंप्रवृत्ते सति परस्परं चुंबति सति स्निग्धावलोकिनि सति अवगृहति सति आलिंगति सति रतप्रसक्ते मैथुनासक्ते च युवत्यवाप्तिः स्यात् ॥ १८७ ॥ गवति ॥ चेच्छा गवा धेन्वा सह क्रीडति तदानीं यद्यदिष्टं प्रयोजनं तत्सिद्ध्यति।अथ ग्रामप्रवेशे श्वा पुरतः पुरस्तादभिमूत्र्य प्रस्रवणं ॥ भाषा ॥ ऊंचो पाँव करे सूतो होय तो श्वान सिद्धि देवै ॥ १८४ ॥ क्रीडामिति ॥ जो वरको श्वान गेहकी शुनीमें क्रीडा करै तो बंधुनको समागम होय. जो श्वाननको समूह कळूक भूसतो हुयो सब मिलकरके क्रीडा करे तो वो श्वान आतिश्रेष्ठ बांछित करवेंवालो जाननो ॥ १८५ ॥ नृणामिति ॥ मनुष्यनकू यात्रा समयमें वा प्रवेश समयमें जो श्वान हर्ष सहित रमण कर तो वांछित कार्यमेंभी हर्ष होय. और स्वजनजननकरके समागम होय ॥ १८६ ।। अवामेति ॥ श्वानको जोडा जेमने भागमें गमन करे, वा संग चले, वा परस्पर चुंबन करे, वा स्नेह सहित अवलोकन करते होंय वा आलिंगन करते होय वा मैथुनमें आसत होय. तो स्त्रीकी प्राप्ति होय ॥ १८७ ॥ गवेति ॥ जो श्वान गौतूं क्रीडा करै तो जो जो प्रयोजन होय वो वो कार्य सिद्ध होंय. और ग्राम प्रवेशमें श्वान अगाडी मूत्र करके च Aho! Shrutgyanam Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७८) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। वामोऽपि भूत्वा भषणो विलोलन्भंगं रणे यच्छति चार्थनाशम् ।। क्रुद्धोऽभिधावन्पुरतोऽभिधत्ते रक्तप्रपातं वधबंधने च॥ १८९ ॥ यं वीक्षते काष्ठदृषन्मुखः श्वा तस्य ध्रुवं स्यादचिरेण युद्धम् ॥ क्रीडंत्ययुग्माः प्रगुणे प्रयाणे युद्धाय यक्षा दिनसप्तकेन ॥ १९ ॥ प्रस्थातुरग्रे यदि सारमेयः कायं सपुच्छश्रवणं धुनोति ॥ध्रुवं तदा दत्तदृढप्रहारा हरंति चौरा द्रविणं क्षणेन ॥ १९१॥ युग्मम् ॥ प्लुते तरी कंटकभाजि शुष्के भग्ने विशीर्णे पतिते च वृक्षे॥अवस्करास्थीधनशृंगभस्मश्मशानवल्लीतुषकपरेषु ॥ १९२॥ ॥ टीका ॥ कृत्वा प्रयाति तदाऽभीष्टाशनलब्धये अभीष्टमिच्छितं यदशनं भोजनं तस्य लब्धिः प्राप्तिः तस्यै भवति ॥ १८८॥ वाम इति ॥ भषणः वामोऽपि भूत्वा विलोलन्पूर्णव्रणे भंगं कार्यनाशं यच्छति । तथा क्रुद्धः पुरतः अग्रेभिधाववक्तप्रपातं रुधिरनावं वधबंधने वा अभिधत्ते ॥ १८९ ॥ यमिति ॥ काष्ठदृषन्मुखः काष्ठं दारु दृषत्प्रस्तरः अनयोईदः । एतौ मुखे यस्य स तथोक्तः श्वा यं वीक्षते तस्य अचिरेण ध्रुवं युद्धं स्यात् । तथा प्रगुणे प्रारब्धे प्रयाणे अयुग्माःत्रिपंचसप्तसंख्याकाः यक्षाः क्रीडंति तदा दिनसप्तकेन युद्धाय स्युः॥ १९० ॥ प्रस्थातुरिति ॥ यदि सारमेयः प्रस्थातुः गंतुरग्रे पुरस्तात्सपुच्छश्रवणं पुच्छश्रवणाभ्यां सहितं कायं शरीरं धुनोति तदा चौरा दत्तदृष्टप्रहाराःक्षणेन द्रविणं धनं हरति ।। १९१॥ प्लते इति॥ ॥भाषा ॥ ल्यो जाय तो वांछित भोजनकी प्राप्तिके अर्थ जाननो ॥ १८८ ॥ वाम इति ॥ श्वान बायों करके घूमतो होय तो संग्राममें भंग करे. और. कार्यको नाश करै. और क्रोधवान् होय अगाडी दौड तो रुधिरको स्राव वधबंधन करै ॥ १८९ ॥ यमिति ॥ काष्ठ पाषाण मुखमें जाको ऐसो वान जा पुरुषकू देखे ता पुरुष· शीघ्रही निश्चय युद्ध होय. और. गमनमें तीन पांच सात ऐसे ऊना संख्या जिनकी वे श्वान क्रीडा करें तो सात दिनमें युद्ध करावें ॥ १९० ॥ प्रस्थातुरिति ॥ जो श्वान गमन कर्ता: पुरुषके अगाडी पूंछ कान शरीर इनें हलाव तो चौर प्रहार करके क्षणमात्रमें धन हर ले जाय ॥ १९१ ॥ प्लुते इति ॥ जलमें डूबो वृक्ष वा अग्नि करके प्रज्ज्वलित कटुवो वृक्ष और काटनको वृक्ष सूखो वृक्ष भन्न - Aho ! Shrutgyanam Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचोष्टिते यात्राप्रकरणम् । (४७९) अंगारशूलाश्मपलालकेशविशीर्णविट्चर्ममृतेषु दृष्टः ॥ श्वा मूत्रयन्यच्छति कार्यनाशं दारिद्यमृत्युप्रमुखाननर्थान् ॥ ॥ १९३ ॥ विण्मांसभक्षादिकपूर्णवको भयादितः श्वा यदि कंपमानः॥ पराङ्मुखो याति तदाध्वगानां नश्यति सिद्धा. न्यपि वांछितानि ॥ १९४॥ ॥ टीका॥ प्लुते तरौ जलप्लाविते वृक्षे । क्वचित् दग्धे कटौ इति पाठः । तत्र दग्धे अमिना प्रम्वलिते कटौ कटुक इत्यर्थः । तथा कंटफभाजि कंटकयुक्ते तथा शुष्क तथा भमे विशीर्ण स्फोटिते पतिते च वृक्षे अवस्करास्थांधनश्रृंगभस्मश्मशानवल्लीतुषकर्परेषु तत्र अवस्करः अवकरः अस्थि कीकसमिंधनमेधः शृंगं विषाणं भस्म रक्षा श्मशान प्रेतस्थलं श्मशानवल्लीत्येकपदं वा तुषः पुलाकः कर्परं कपालमेतेषामितरेतरद्वंद्वः । तेषु एतेषु स्थलेषु श्वा दृष्ट इत्युत्तरेणान्वयः ॥ १९२ ॥ अंगारेति ॥ अंगारशूलाश्मपलालकेशविशीर्णविट्चममृतेषु श्वा मूत्रयन्मूत्रं कुर्वन्दृष्टः कार्यनाशं दारिद्यमृत्युप्रमुखाननान्यच्छति । अंगारः हला इति प्रसिद्धःशूल: कंटकः अश्मा दृषत् पलालं धान्यरहितं यवादितृणं भूस इति ख्यातं केशः कचः विशीर्णविद् विशीर्णा चासौ विद् विष्ठा चेति कर्मधारयः। चर्म अजिनं मृतं मृतकम् एतेषामितरेतरबंदः। तेषु ॥ १९३ ॥ विण्मांसेति ॥ यदि विण्मांसभक्षादिकपूर्णवक्रः विट्च मांसं च भक्ष्यादिकं च एतेषां इंदः । तैः पूर्णभूतं वकं मुखं यस्य सः पराङ्मुखः भयादितः कंप. मानःश्वा याति तदा अध्वगानां सिद्धान्यपि वांछितानि नश्यति नाशं प्राप्नु।' ॥ भाषा॥ हुयो वृक्ष फटो हुयो वृक्ष पडो हुयो वृक्ष इनमें और हाड, काष्ट, सींग, भस्म, श्मशान, तुष, कपाल इनमें ॥ १९२ ॥ अंगारेति ॥ अंगार, शूल नाम कांटे, पाषाण, भूस, केश, विखरो हुयो विष्ठा, चाम, मृतक नाम मरो हुयो इनमें श्वान मूत्र करतो दीखे तो कार्यकों नाश करे. और मृत्युकू आदि लेकर मुख्य जे अनर्थ तिनै देवै ॥ १९३ ॥ विण्मांसेति ॥ विष्ठा, मांस भक्ष्यादिक पदार्थ इनकरके मुख जाको भयो होय, भयकरके पीडित होय, कंपायमान होय, ऐसो शान पीछों मुखकर चल्यो जाय तो मार्गमें गमन कर्ताकू सिद्ध Aho! Shrutgyanam Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८०) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः । पराङ्मुखः श्वा खनति क्षिति यो यो वा समारोदिति पूर्णवक्रः ॥ प्रतिष्ठमानस्य पुरः स्थितोऽसौ भयाद्भयं जल्पति दुर्निवारम् ॥ १९५ ॥ विज़ुभते लेढि च नासिकाग्रं यः स्वांगभंग भषणः करोति ॥ स लाभहानि प्रकरोति पुंसां मृत्युप्रदः श्वांतरलंघनेन ॥ १९६॥ विधूतकणे शुनि चेत्पुरस्तात्पांथो विशेद्वेश्म तदा समस्तम् ॥ प्रत्यागतोऽर्थ यमुपायं पापास्तं राजकीयाः पुरुषा हरंति ॥ १९७ ॥ गतौ निवृत्तावथ वाश्वयुद्धं युद्धाय बंधाय वधाय च स्यात् ॥जति तारा यदि युद्धशक्ताःखानस्तदा स्यात्पथि चौरभीतिः॥१९८॥ ॥ टीका ॥ वति॥१९४॥पराङ्मुखेति ॥ यःश्वा पराङ्मुखः पश्चान्मुखः क्षिति पृथिवीं खनति याप्रतिष्ठमानस्य गच्छतः जनस्य पुरःस्थितः पूर्णवक्रः समारोदिति असौ दुनिवारं भयाद्भयं जल्पति ॥ १९५ ॥ विज़ुभते इति ॥ यः श्वा विज़ुभते मुंभां करोति नासिकाग्रं च लेढि यश्च भषणः स्वांगभंगं करोति स पुंसां लाभहानि प्रकरोति श्वांतरलंघनेनच मृत्युप्रदोभवति ॥१९६॥ विधूतकणे इति ॥ चेत्पांथःपुरस्तादने विधूतकर्णे शुनि वेश्मनि विशेत्तदा यमर्थमुपायं प्रत्यागतः पापाः राजकीयाः पुरुषाः तं समस्तमर्थं हरति । क्वचित्समुपायंत्यपि पाठः ॥ १९७ ॥ गताविति ॥ गतौ अथ वा निवृत्तौ श्वयुद्धं भवति तदा युद्धाय बंधाय वधाय च स्यात्।यदि युद्धसक्ताः ॥भाषा ॥ हुये भी वांछित कार्य नाशकू प्राप्त करे ॥ १९४ ॥ पराङ्मुखेति ॥ जो श्वान पीठो मुख करके पृथ्वीकृ खोदतो होय अथवा जो पुरुष बैठो होय वाके अगाडी ठाढो होय मुख भरयो होय ऐसो श्वान रोवे तो दुर्निवार भयते भी भय होय ॥ १९५ ॥ विजंमत इति ॥ जो श्वान जंभाई लेवे और नासिकाके अग्रभागकू चाटतो होय अपने अंगकू भंग करतो होय तो वो श्वान पुरुषनकू लाभकी हानि करै. अपने बीचमें उलांग जाय तो मृत्युको देबेवारो जाननो ॥ १९६ ॥ विधतेति ॥ गमनकर्ता पुरुषके अगाडी दोनों का हलाय करके इवान घरमें प्रवेश कर जाय तो जा धनकू कमाई करके पीछो आयो वा समस्त धनकं पापरूप राजकाजके पुरुष हर लेवें ॥ १९७ ॥ गताविति ॥ गमन समयमें वा प्रवेश समयमें श्वान युद्ध करे तो युद्धबन्धन, वध इनके अर्थ जाननो जो युद्धमें आस Aho ! Shrutgyanam Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते यात्राप्रकरणम्। (४८१) बलेन वामो यदि नीयते श्वा कष्टात्तदाल्पं विदधाति लाभम्।।तारोऽथवा वामगतिर्भयेन श्वानर्थमर्थं च करोति यातुः।। ॥ १९९ ॥ घुरघुरारवमुच्चरति क्रुधाभषति यो भषणो भयतोऽथवा ॥ भ्रमति वाऽथ मृषैव यतस्ततो ध्रुवमसौ विदधाति धनक्षयम् ॥२०॥खनन्धरित्रीमसुखावहः स्याल्लोलन्पुनः स्यादनिवृत्तिहेतुः॥धुन्वमिच्छरश्चौरभयं करोति व्यात्ताननस्त्वीहितकार्यनाशम् ॥२०१॥ आघाय पृष्टे दशनैर्नखैर्वा वस्त्रं विकर्षन्विदधात्यनर्थम् । तथाऽविधोऽग्रे यदि सारमेयः प्रवासिनां तत्कुरुतेऽर्थलाभम् ।। २०२॥ ॥टीका ॥ . श्वानः पुरस्तात्तारा व्रजति तदा पथि चौरभीतिः स्यात् ॥१९८॥ बलेनेति ॥ यदि श्वा बलेन बलात्कारेण वाम: नीयते तदा कष्टात् अल्पलामं विदधाति । अथवा भयेन तारः वामगतिश्च श्वा भवति तदा यातुः अनर्थमर्थं च करोति ॥ १९९ ॥ घुरघुरेति ॥ जुधा घुरघुरारवं यः उच्चरति अथवा यःभयतः भषणो भवति । अथ मृषैव मिथ्यैव यतस्ततः भ्रमति । असौ श्वानः ध्रुवं धनक्षयं विदधाति॥२०॥ खनविति ॥धरित्री खननसुखावहः स्यात् । लोलन्पुनः अनिवृत्तिहेतुः अप्रत्यागमनं. कारणं स्यात् । शिरो मस्तकं धुन्वंश्चौरभयं करोति व्यात्ताननस्तु विस्फाटित. वक्रस्तु ईहितकार्यनाशं करोति ॥ २०१॥ आघायेति ॥ श्वा पृष्ठे आवाय द ॥ भाषा ॥ क्त होय रहे होय वे श्वान अगाडी ते जेमने चले जाय तो मार्गमें चीरको भय होय ॥ ॥ १९८ ॥ बलेनेति ॥ जो श्वान बलात्कारतूं वामभागमें चल्यो जाय तो कष्टसू अल्प लाभ कर. अथवा भय करके जेमने भागमें का वांये भागमें श्वान आय जाय तो गमनकर्ताकू अनर्थरूप अर्थ करे ॥ १९९ ॥ घुरघुरेति ॥ क्रोधकरके बुरघुर शब्द उच्चारण करै अथवा भयसूं भूसे अथवा वृथा इतको इत भ्रमतो होय वो श्वान निश्चय धनको क्षय करे ॥ २०० ॥ खनन्निति ॥ पृथ्वी खोदतो होय तो दुःखकू कर. चलतो होय तो दुःख करे. मस्तककू हलावतो होय तो चौरको भय करे. और मुख फाडतो होय तो वांछित कार्यको नाश करै ॥ २०१ ॥ आघायेति ॥ श्वान पीठमें संघ करके दांत नख इन करके वस्त्रत बँचता होय तो अनर्थ कर, जो श्वान अगाडीकू ऐसो होय तो वो गमन कर्ता Aho ! Shrutgyanam Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८२) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। दृग्गोचरो ग्रामगतो धुतांगो भयंकरः श्वा सकलोद्यमेषु ॥ खादन्पुनःकंन नरं करोति सर्वापदामास्पदमाग्रहेण॥२०३॥ वामोऽथवा पृष्ठगतोऽतिरौद्रं भषन्भवेत्पांथपराजयाय ॥ पुनर्निवृत्ते कथयत्यभावं भषत्यथाग्रे यदिजागरूकः॥२०॥ एकोऽग्रतः पृष्ठगतस्तथान्यो यक्षौ न शस्तौ युगपद्भपंतौ ॥ सव्यापसव्यौ यदि तौ भवेतां तत्तोरणाख्यौ शुभदौ सदैव ॥ ॥ २०५ ॥ पादौ गृहे जिप्रति सारमेयः पुंसो यदा वक्ति तदाशु यात्राम् ॥ यियासतो जिप्रति लेढि वाथ प्रयाणभंगं प्रणयाद्वीति ॥२०६॥ ॥ टीका ॥ शनैःनखैर्वा वस्त्रविकर्षननर्थ विदधाति।यदि अग्रे सारमेयस्तथाविधो भवति तदाप्रवासिनामर्थलाभं कुरुते॥२०२॥दृग्गोचर इति।दृग्गोचरो दृष्टिविषयं गतः ग्रामगतः श्वा धुतांग:पितांगःसकलोयमेषु सकलप्रयत्नेषु भयंकरोति।खादन्पुनःश्वा के नरें मनुष्यं सर्वापदामास्पदमाग्रहेण हठान्न करोति अपि तु सर्वमपि नरं करोत्येव ॥ ॥ २०३ ॥ वाम इति ॥ वामः अथवा पृष्ठगतः श्वा अतिरौंदें भषन्पांथपराजयाय भवेत् । अथ यदि अग्रेजागरूकः श्वानःभवति तदा पुनर्निवृत्तेःप्रत्यागमस्य अभावं कथयति॥२०४॥एक इति । एकः अग्रतः अग्रे गतः तथाऽन्यः पृष्ठगतः एवं युगपपद्भपंतौ यक्षौ न शस्तौ । यदि सव्यापसव्यौ तौ भंवेतां तत्सदैव तोरणाख्यौ शुभदौ । २०५ ॥ पादाविति ॥ यदा सारमेयो गृहे पादौ जिवति तदा पुंसामाशु ॥भाषा ॥ अर्थ लाभ करे ॥ २०२ ॥ दृगिति ॥ ग्राम जायबेबारे मनुष्यकू देहर्फ़ कंपायमान करतो होय ऐसो श्वान दग्वैि तो संपूर्ण उद्यमनमें भय करै. और जो खावतो दीखै तो हटसं सर्व आपदानको स्थान मनुष्यकू करे ॥ २०३ ॥ वाम इशि ॥ बायो अथवा पीठपीछे श्वान अतिकर भूसे तो मार्गीको पराजय होय. अथवा जो श्वान गमनकर्ताके अगाडीकू भतिकर भूसतो होय तो पाछो आयवेको अभाव कहैं ये जाननो । २०४ ॥ एक इति ॥ एक अगाडी और एक पीठ पिछाडी संगके संग भंसते होय तो शुभ नहीं जाननो. जो वाये जेमते भागमें संगके संग बोलते होंय तो उनको तोरण नाम है सो शुभके देबेवारे जाननें । ॥ २०५ ॥ पादाविति ॥ जो श्वान घरमें पावनकू सूंघे तो पुरुषकू शीघ्रही यात्रा कहैहै , Aho ! Shrutgyanam Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते यात्राप्रकरणम् । . (१८३) पद्भ्यां क्षिति तक्षति पश्चिमाभ्यामुद्दलितो दीर्घतरोचनादः।। वमत्यथाग्रे हदतेक्षतांगो बिभेति वा यः स भयंकरः खा ॥ ॥२०७॥ अग्रांघ्रिणोमवदारयेद्वा प्रोच्चैः स्थितः प्रस्थितमीक्षते वा ॥ कंडूयते चोत्तममंगभागं यो जागरूकः कुरुते स सिद्धिम् ॥२०८॥ लांगूलजिह्वाकटिपृष्ठभागान्प्रचालयन्सम्मुखमेति हृष्टः ॥ कूजल्लिइन्पृष्ठवपुः सुचेष्टो यः श्वा . स कार्येषु भवत्यभीष्टः ॥२०९॥ ॥ टीका ॥ शीघ्रं यात्रां वक्ति यियासतः गंतुमिच्छतः पादौ लेढि जिव्रति वा तदा प्रणयात्प्र. याणभंगं ब्रवीति ॥२०६ ॥ पद्यामिति ॥ यदि पश्चिमाभ्यां पन्या श्वा क्षिति तक्षति तनूकरोति खनतीति यावत्। तक्ष तनूकरणे धातुः कीदृक् उद्धलितःधूलीदिग्धः।पुनः कीदृक् दीर्घतरोचनादः दीर्घतर उच्चश्व नादो यस्य स तथा|अथ यो यक्षः । अग्रेवमति वांतिं कुरुते हदते विष्ठांविधत्ते अक्षतांग: अक्षतशरीरो विभेति वास श्वा भयंकरो भयजनको भवति ॥२०७ ॥ अग्रेति ॥ यो जागरूकः अग्रोविणा अग्रपादेन उर्वी पृथ्वीमवदारयन्विकर्षयन्प्रोच्चैः स्थितः प्रस्थितमीक्षते विलोकते अथ वा उत्तममंगभागं कंडूयति स सिद्धिं कुरुते ॥ २०८॥ लांगूलेति ॥ यः श्वा लांगूलजिह्वाकटिपृष्ठभागान्प्रचालयन् हृष्टःसम्मुखमेति तथा याकूजन्पृष्टवपुलिहन्मु. चेष्टो भवतिसश्वा कार्येषु अभीष्ट भमतोभवति।लांगूलं च जिह्वाच कटिपृष्ठभागश्चे ॥ भाषा॥ जो गमन• इच्छा करतो होय वा पुरुषके पाँवकू चाटे वा सुंघे तो स्नेहसू गमनको भंग कहैहै ये जानना ॥ २०६ ॥ पयामिति ॥ जो श्वान पिछाडीके पावनकरके पृथ्वी खोदतो होय, धूलसे भरी होय अथवा जो श्वान अगाडी वमन करतो होय वा विष्टा करतो होय शरीर जाको हीन और प्रहारयुक्त नहीं होय भयवान् होय तो वो श्वान भय प्रगट करै ॥ २०७ ॥ अग्रेति ॥ जो श्वान अगाडीके पात्र करके पृथ्वीकू खोदै का बहुत ऊंचपै स्थित होत स्थित पुरुषन• देखतो होय अथवा उत्तम अंगकू खुजावतो होय तो बो श्वान सिद्धी करै ॥ २०८ ॥ लांगूलेति ॥ जो श्वान पूंछ, जिह्वा, कटि, पृष्ठभाग इनें चलावत प्रसन्नमुख होय सन्मुख आवे तैसेही शब्द करत पीठ शरीर इनें चाटतो हुयो सुंदर Aho ! Shutgyanam Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८४ ) वसंतराजशाकुने - अष्टादशो वर्गः । तिष्ठत। प्रवसतां च नराणां मंदिरे प्रविशतां च समस्तम् ॥ दक्षिणं भषणचेष्टितमिष्टं वामकं पुनरुशंति विदुष्टम् ॥ ॥ २१० ॥ वामकेन यदि दक्षिणमंगं दक्षिणेन भषणो यदि वामम् ॥ संस्पृशत्यभिमतो न कदाचित्तत्प्रयोजनविधौ क्वचनापि ॥ २११ ॥ उकाराख्यात्स्यादुकाराच शब्दाद्वामे पार्श्वे सारमेयोऽर्थसिद्ध्यै | व्याक्षेपाय प्रोक्त आकारशब्दः पृष्ठे शब्दा रोधकाः सर्व एव ॥ २१२ ॥ ॥ टीका ॥ तीतरतरद्वंद्वः ॥ २०९ ॥ तिष्ठतामिति ॥ तिष्ठतां स्थाने स्थितवतां तथा प्रवसतां गच्छतां तथा मंदिरं प्रविशतां च नराणां मनुष्याणां समस्तं दक्षिणं भषणचेष्टितमिष्टं वामकं पुनः भषणचेष्टितं विदुष्टं विशेषेण दुष्टमुशंति कथयतिः २१०वामकेनेति ॥ यदि श्वा वामकेन दक्षिणमंगं स्पृशति यदि दक्षिणेन च वामं स्पृशति स वा कदाचित् कचनापि प्रयोजनविधौ कार्यविधाने न अभिमतः ॥ २११ ॥ ऊकाराख्यादिति ॥ सारमेयः वामे पार्श्वे सव्यप्रदेशे ऊकाराख्याच्छब्दादुकाराच्छब्दाच्च अर्थसिद्धयै भवति तथा आकारशब्दोव्याक्षेपाय भवति । पृष्ठे पृष्ठभागे शुनः सर्वे शब्दाः ॥ भाषा ॥ चेष्टा करतो होय वो श्वान कार्यनमें वांछित संगत योग्य है ॥ २०९ ॥ तिष्ठतामिति ॥ बैठे हाय गमन करते होंय वा घरमंदिर में प्रवेश करते होंय उन मनुष्यनकूं श्वानकी समस्त जेमनी चेष्टा शुभ और बांई चेष्टा अशुभ दूषित क हैं ॥ २२० ॥ वामकेनेति ॥ जो श्वान वांयो होकर जेमने अंगकूं स्पर्श करतो होय जो जेमनो होय वांये अंगकूं स्पर्श करतो होय तो कदाचित् कोई कार्यनें योग्य शुभ नहीं जाननो ॥ २१९ ॥ ऊकारेति ॥ श्वानके ऊकार शब्द बोलते वा ऊकार अर्थ जाननो. जो भाकार शब्द बोलतो होय तो आक्षेपके श्वानके समस्त शब्द शब्द बोलेसँ अर्थसिद्धि के अर्थ जाननो और पीठपीछे Aho! Shrutgyanam Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते भोजनप्रकरणम् । (४८५) गोधा बिडालः शशकः शृगालः कोलस्तथा पंच शुना समानाः॥प्राणान्तं क्षोभयते चतुणी बिडालगोमानवकुकुराणाम् ॥२१३॥ इति वसंतराजशाकुने श्वचेष्टिते यात्राप्रकरणं दशमम् ॥१०॥ जल्पति भोजनलाभनिषेधौ यत्तदथावितथं कथयामि ॥ चिह्नमनिह्नतभाविपदाथै सारतरं सरमातनयस्य ॥२१४॥ वामगतो गमने यदि यक्षो दक्षिणगो भवनागमनेषु । खादति किंचन दृष्टि पथस्थो यच्छति तद्विविधं बहुभो । ज्यम् ॥२१॥ ॥ टीका।। रोधका एव भवंति ॥ २१२ ॥ गोधेति ॥ गोधा निहाका विडाल ओतुः शशकः ससो इति प्रसिद्धः शृगालः जंबुक: कोलो वराहः एते पंच शुना भषणेन समानाः सदृशा ज्ञेयाः । तथा विडालगोमानवकुक्कुराणां चतुर्णा क्षुतं छिक्का प्राणान्क्षोभयते । विडालो मार्जारः गौर्धेनुः मानवो मनुष्यः कुक्कुरःश्वा एतेषां बंदः ॥२१३ ॥ इति वसंतराजशाकुने टीकायां श्वचेष्टिते यात्राप्रकरणं दशमम् ॥ १० ॥ जल्पतीति । अथ सरमातनयस्य भषणस्य यच्चिह्न भोजनलाभनिषेधौ भोजनस्य लाभश्च निषेधश्च तौ कर्मपदं जल्पति । तत्सरमासुतस्य चिह्नम् अनिद्भुतभाविपदार्थ न निद्भुतो नापलपितो भाविपदार्थो यत्र तत्तथा। पुनः कीदृक् सारतरमतिशयेन सारमवितथं सत्यं वयं कथयामः ॥ २१४ ॥ वामेति ॥ यदि यक्षो ॥ भाषा॥ कार्यकं रोकवेके अर्थ जाननो ॥ २१२ ॥ गोधेति ॥ गोह, विलाब, खगोंस, श्याल, शूकर ये पांचो श्वानके समान जानने. और विलाय, गौ, मनुष्य, श्वान इनकी छींक प्राणनकू क्षोभ करबेवाली जाननी ॥ २१३ ॥ इंति वसंतराजभाषाटीकायां श्वचेष्टिते यात्राप्रकरणं दशमम ॥१०॥ जल्पतीति ॥ श्वानके जो चिह्न भोजनके लाभकू और निषेधकू कहें हैं वेई चिह्न नहीं प्राप्तहुये होनहारपदार्थकुं प्राप्तकरबेवाले अधिक कर साररूप सत्य तिनैं हम कहैहैं । ॥ २१४ ॥ वामेति ।। जो श्वान गमन समयमें वायो होय घरकू आवते समयमें जेमनो Aho ! Shrutgyanam Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८६) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। दक्षिणगः प्रथमं तदनु स्यावामगतिव्रजतामशितुं श्वा ॥ वेश्मनि यत्र च तत्र तदन्नंदरतरं विषवत्त्यजनीयम् ॥२१६॥ धृतशिरा उत नामितपुच्छो यो भषणः स निषेधति भोज्यम् ॥ संमुखमेति गृहादुत तिर्यग्भुक्तमपि स्थिरतां न . तदेति ॥२१७॥ सृकियुगं यदि लेढि धरित्रीं जिघ्रति तत्सपिपीलिकमाज्यम् ॥ यत्र च लेढि सुधौतममत्रं तत्र भवत्यऽशनं विषयुक्तम् ॥ २१८॥ ॥ टीका ॥ भषणः गमने वामगतो भवति भवनागमने तु दक्षिणगः स्यात् । किंचन दृष्टिप. थस्थः खादति अत्ति तदा विविधं विचित्रं बहुभोज्यं यच्छति ददाति ॥ २१५॥ दक्षिणग इति ॥ यत्र वेश्मनि गृहे अशितुं भोजनं कर्तुं व्रजतां गच्छता नराणां श्वा प्रथमं दक्षिणगः स्यात्तदनु वामगतिः स्यात्तदा तत्र वेश्मनि तदन्नं विषवदूरतरं त्यजनीयं त्याज्यम् ॥ २१६ ॥ धूतशिरा इति ॥ यो भषणो धूतशिराः कंपितमूर्दा उत नामितपुच्छः स्यात्स भोज्यं निषेधति । तथा यः गृहासंमुखमेति आगच्छति उत तीर्यग्याति तदा भुक्तमपि न स्थिरतामेति ॥ २१७॥ सृक्तियुगमति ।। यदि धरित्री जिप्रति सृक्कियुगं दंतवस्त्रप्रतियुगलं लेढि च स श्वा सपिलीलिक कीटिकासहितमाज्यं वक्ति । यत्र सुधौतं सुष्ठ प्रक्षालितममत्रं ॥ भाषा ।। होय कछूक नेत्रनके अगाडी बैठयो होय और खावतो होय तो नानाप्रकारके चित्रविचित्र भोजन देवै ॥ ४१५ ॥ दक्षिणग इति ॥ जाघरमें भोजनकरखेकू गमनकरबेवाले मनु. व्यनके श्वान पहले जेमनो आवे ता पीछे वायो गमन करजाय तब वा घरमें वो अन्न विषकीसी नाई दूरतेई त्याग करनो योग्य है ॥ २१६ ॥ धूतशिरा इति ॥ जो श्वान मस्तक हलाय पूंछकू नमाय दे तो भोजनके योग्यपदार्थको निषेध जाननो. तैसेही जो घरसू उन्मुख आवे वा तिरछो जाय तो भोजन कियोपदार्थ स्थिर नहीं रहै ॥ २१७ ॥ सृक्कियुगामिति ॥ जो पृथ्वीकू चाटे वा दोनो गलफाढेनकू चाटै तो भोजनमें टीसहित घी जाननो जहां धुयेहुये पात्रकू चाटे तहां विषसहित भोजन जाननो ॥ २१८ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वचेष्टिते भोजनप्रकरणम् । ( ४८७ ) ओष्टयुगं यदि दर्शितदंतो लेढि भवत्यशनं तदभीष्टम् ॥ लेढि यदा पुनराननमध्यं नौष्ठयुगं विनिहंत्यशनं तत् ॥ ॥ २१९॥ मूत्रयिता यदि शोभनदेशे क्षीरिणि शाखिनि पक्कफले वा ॥ श्वा पुरतः पुरुषस्य तदानीमिष्टतरे भवतोऽशनपाने ॥ २२० ॥ दक्षिणभागगतो यदि लीढे सृक्कियुगं भषणो ऽभिमुखं च ॥ पश्यति तल्लभतेयमभीष्टं भोज्यमरण्यगतोऽपि मनुष्यः ॥ २२१ ॥ इति वसंतराजशाकुने श्वचेष्टिते भोजनप्रकरणमेकादशम् ॥ ११॥ ॥ टीका ॥ पात्रं लेठि तत्र अशनं विषयुक्तं भवति ।। २१८ || आष्टयुगमिति । यदि दर्शितदंतः श्वा ओष्ठयुगं लेढि तदाऽभीष्टमशनं भवति यदा पुनः आननमध्यं लेढि नौयुगं तदा तदशनं विनिहंति ॥ २१९ ॥ मूत्रयितेति ॥ यदि पुरुषस्य पुरतः श्वा शोभनदेशे तथा क्षीरिणि शाखिंनि पक्कफले वा। क्वचित पुष्पफले वेति पाठः। मूत्रयि ता स्यात्तदानीमशनपाने इष्टतरे भवतः ॥ २२० ॥ दक्षिणेति । यदि दक्षिणभागगतो भषणः सृक्कियुगं लीढे अभिमुखं च पश्यति तदाऽरण्यगतोऽप्ययं मनुष्यः अभीष्टं भोज्यं लभते प्राप्नोति ॥ २२१ ॥ इति वसंतराजशाकुने टीकायां श्वचेष्टिते भोजनप्रकरणमेकादशम् ॥ ११ ॥ ॥ भाषा ॥ ओष्ठयुगमिति ॥ जो श्वान दांत दिखावे और दोनों होटनकूं चाटे तो वांछितभोजन होय. जो फिर मुखके भीतर दोनों होठनकूं नहीं चाटै तो वांछितभोजन नाश करे ॥ २१९ ॥ मूत्रयितेति ॥ जो श्वान सुंदर स्थानमें और दूध जामेंसूं निकसै वा शाखान पकेहुये कल वा पुष्यमें मूत्र करै तो भोजन जल दोनों योग्य शुभ जाननो ॥ २२० ॥ दक्षिणेति ॥ जेमने भागमें श्वान दोनों गलफाडेनकूं चाटतो जाय संमुख देखे तो वनमें प्राप्तहुयोभी मनुष्य वांछित भोजनके योग्य प्राप्त होय ॥ २२९ ॥ .. इति वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां श्वचेष्टिते भोजनप्रकरणमेकादशम ११ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८) वसंतराजशाकुने-अष्टादशो वर्गः। अथ प्रकरणोद्देशे वृत्तसंख्या च कथ्यते ॥ शुनोऽधिवासनं पूर्व वृत्तैः षोडशभिः स्मृतम् ॥ १॥ द्वितीयं राज्यलाभाख्यं ज्यधिकैर्दशभिस्तथा ॥ तृतीये वरणं वृत्तैर्दशभिश्चतुरुत्तरैः ॥ ॥२॥ चतुर्थे देशलाभादि दशभिः पंचभिस्तथा ॥ पंचमं चाष्टभिर्वृत्तवृष्टिप्रकरणं स्मृतम् ॥३॥ युद्धप्रकरणं षष्ठं वृत्तानां त्रिशता तथा ॥षट्चत्वारिंशता वृत्तैः शुभज्ञानं च सप्तमे।। ॥ ४॥ लाभप्रकरणं वृत्तैर्विमृष्टं चाष्टमेऽष्टभिः ॥रोगिणां जीवितज्ञानं नवमे दशभिस्त्रिभिः॥५॥ ॥ टीका ॥ अथेति ॥ श्वचेष्टितकथनानंतरं मया प्रकरणोदेशो वृत्तसंख्या च कथ्यते । तत्र पूर्व शुनः अधिवासनप्रकरणं षोडशभिवृत्तः स्मृतम्॥१॥द्वितीयमिति॥द्वितीयं राज्यलामाख्यं प्रकरणंत्र्यधिकैर्दशभिः त्रयोदशभिर्वृत्तैः स्मृतम्। तृतीये प्रकरणे च. तुरुत्तरैर्दशभिश्चतुर्दशभिः वृत्तैः वरणं प्रतिपादितम् ॥ २॥ चतुर्थे इति ॥ चतुर्थे प्र. करणे दशभिः पंचभिश्च पंचदशभिर्वृत्तैः देशलाभादिप्रकरणं प्रतिपादितम् । तथा अष्टभिर्वत्तैः पंचमं वृष्टिप्रकरणं स्मृतम् ॥ ३ ॥ युद्धति ॥ तथा युद्धप्रकरणं षष्ठं वृत्तानां त्रिंशता स्मृतम् । सप्तमप्रकरणे शुभज्ञानाख्यं षट्चत्वारिंशता वृत्तैः स्मृतम् ॥४॥ लाभेति ।। अष्टमे प्रकरणे अष्टभिवृत्तःलाभप्रकरणं विमृष्टम्। नवमे प्रकरणे दशभित्रिभिः त्रयोदशभिरित्यर्थः । वृत्तैः रोगिणां जीवितज्ञानं विचारितमिति ॥ भाषा ॥ अथोति ॥ श्वानकी चेष्टा कहेके अगाडीमें प्रकरणनकी संख्या और प्रकरण प्रकरणके श्लोकनकी संख्या कहूंहूं. उनमें पहलो अधिवासन नाम पूजा प्रकरण सोले श्लोकनकरके कह्यो है ॥ १ ॥ द्वितीयमिति ॥ दूसरो राजलाभ नामकर प्रकरण तामें तेरह श्लोक हैं. तीसरो विवाह प्रकरण तामें चौदह श्लोक हैं ॥ २ ॥ चतुर्थेति ॥ चौथो देशलाभादि प्रकरण तामें पंद्रह श्लोक करे हैं. और पांचमो वृष्टि प्रकरण आठ श्लोकनकरके कह्योहै ॥ ३॥ युद्धेति ॥ छठो युद्धप्रकरण तीस श्लोकनकरके कह्यो है. सातमो शुभज्ञान नाम प्रकरण तामें छै चालीस श्लोक कहैं ॥ ४ ॥ लाभेति ॥ आठमो लाभ प्रकरण तामें आठ श्लोक Aho ! Shrutgyanam Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवारुते दग्धादिप्रकरणम् । (४८९) एकपंचाशता वृत्तैर्यात्रा च दशमे मता ॥ एकादशेऽष्टभिवृत्तभॊज्यलाभो विभावितः॥६॥ एवं प्रकरणान्यस्मिन्ने-- कादश श्वचेष्टिते ॥ द्वाविंशत्या समायुक्ते वृत्तानां द्वे शते तथा॥७॥ इति वसंतराजशाकुने सदागमार्थशोभनेऽष्टादशो वर्गः समाप्तः ॥ १८॥ शोभनाशुभफलाप्तिसूचकं कथ्यते त्ववितथं शिवारुतम् ॥ शांतदीप्तककुभां विशेषतो ज्ञानमत्र च सदोपयुज्यते ॥ १॥ ॥ टीका ॥ शेषः॥ ५॥ एकोति ॥ दशमे प्रकरणे एकपंचाशता वृत्तर्यात्रा मता प्रोक्ता। तथा एकादशे प्रकरणे अष्टभिवृत्तैः भोज्यलाभो विभावितः विचारितः ॥ ६ ॥ एव. मिति । एवममुना प्रकारेणास्मिञ्छास्त्रे श्वचेष्टिते एकादशप्रकरणानि भवति।तथा. वृत्तानां दे शते द्वाविंशत्या युक्ते स्तः ॥७॥ ___ इति वसंतराजशाकुने सदागमार्यशोभने ॥ समस्तसत्यकौतुके विचारितं श्वचे. ष्टितम् ॥ इत्यष्टादशो वर्गः॥१८॥ शोभनेति ॥ मया शिवारुतं शृगालीजल्पितं कथ्यते उच्यते । कीदृशं शोभनं मनोहरम् । पुनः कीदृशं शुभाशुभफलाप्तिसूचकं शुभं च अशुभं च यत्फलं तस्य आप्तिः प्राप्तिस्तस्याः सूचकं ज्ञापकम् । पुनः कीदृशमवितथं सत्यम् । अत्र शिवारुते शांतदीप्तककुभा शांतदीप्तदिशां ज्ञानं सदा सर्वकाले ॥भाषा ॥ कहेहैं. और नौमो जीवित मरण प्रकरण तामें तेरह श्लोक कहहैं ॥ ५॥ एकेति ॥ दशमो यात्रा प्रकरण तामें इक्यावन श्लोक कहे हैं. और ग्यारमो भोजन लाभ प्रकरण तामें आठ श्लोक कहे हैं ॥६॥ एवमिति ॥ या प्रकारकरके या ग्रंथमें श्वानकी चेष्टानमें ग्यारहप्रकरण है तिनके श्लोक दोयसै बाईस हैं ॥ ७॥ इति श्रीमन्जटाशंकरतनयज्योतिर्विच्छ्रीधरविरंचितायां वसंतराजभाषाटीकायां श्वचेष्टिते अष्टादशो वर्गः समाप्तः ॥ १८॥ शोभनेति ॥ अब मनोहर शुभ अशुभ फलकी प्राप्तिको करबेवालो सत्यरूप ऐसो . शृगालीको शब्द कहूंहूं. या शृगालीके शब्दमें शांत दीप्त दिशानको ज्ञान सर्वकालमें विशे. Aho! Shrutgyanam Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९०) . वसंतराजशाकुने–एकोनविंशतितमो वर्गः । दग्धा दिगुक्ता दिननाथमुक्ता विवस्वदाप्ता भवति प्रदीप्ता ॥ साधूमितायां सविता प्रयातिशेषा दिगंताः खलु पंच शांताः ॥२॥ दग्धा दिगैशी ज्वलिता दिगैंद्री धूमान्विता चानलदिक्प्रभाते ॥ प्रत्येकमेवं प्रहराष्टकेन भुंक्ते दिशोऽष्टौ सविता क्रमेण ॥३॥ आये दिनस्य प्रहरे प्रवृत्ते महेशदेवेशहुताशदिक्षु ॥ शिवा रटंती कुरुते क्रमेण संत्रासकायव्ययबंधनानि ॥ ४॥ अह्नो द्वितीये प्रहरस्य भागे सहस्रनेत्रानलकालदिक्षु ॥ शिवा रटंती कुरुते क्रमेण संत्रासकायव्ययबंधनानि ॥५॥प्राप्ते तृतीये प्रहरे दिनस्य हुताशवैवस्वतयातुदिक्षु ॥ शिवा रटंती कुरुते क्रमेण संत्रासकायव्ययबंधनानि ॥६॥ ॥टीका॥ विशेषतः विशेषादुपयुज्यते उपयोगी भवति ॥ १॥ दग्धेति ॥दग्धेति इदं वृत्तद्वयं पूर्वव्याख्यातत्वान्न व्याख्यातम् ॥२॥३॥ आयेति ॥ दिनस्य आये प्रहरे प्रवृत्ते सति महेशदेवेशहुताशदिक्षु महेशः शंकरः देवेशः इंद: हुताशो वह्निः एतेषां द्वंद्वः। तेषां दिक्ष ईशानपूर्वाग्रिकोणेष्वित्यर्थः। रटंती शिवा क्रमेण संत्रासकायव्ययवन्धनानि कुरुते । संत्रासो भयं कायव्ययः शरीरनाशः बंधनं काराक्षेपः एतेषां बंदः ॥ ४॥ अह्न इति ॥ अहः दिवसस्य द्वितीये प्रहरस्य भागे सहस्रनेत्रानलकालदिक्षु पूर्वा मिदक्षिणदिक्षु रदंती शिवा संत्रासकायव्ययबंधनानि कुरुते: गतार्थमेतत् ।। ५ ॥ प्राप्ते इति ॥ दिनस्य तृतीये प्रहरे प्राप्ते सति हुताशवैवस्वतयातुदिक्ष हुताशः अग्निः वैवस्वतो यमः यातुःराक्षसःएतेषां द्वंद्वः तेषां दिक्षु अमिदक्षिणनैर्ऋत्यदिक्षु इत्यर्थः। ॥ भाषा॥ पते उपयोगी होय है ॥ १ ॥ दग्धेति ॥ दग्धेति दूसरे श्लोककी और तीसरे श्लोककी टीका पहले कहआये इनको विस्तार बहुत यासू नहीं कियो ॥ २॥ ३॥ आये इति ॥ दिनके प्रथम प्रहरमें शृगाली ईशान, पूर्व, अग्निकोण इनमें बोले तो त्रास, नाश, भय, शरीरको नाश, बंधन ये क्रमकरके होय. ॥ ४ ॥ अह्न इति ॥ दिनके दूसरे प्रहरमें शृगाली पूर्व 'अग्निकोण दक्षिण इन दिशानमें बोले तो भय शरीरको नाश बंधन ये करे ॥ ५ ॥ प्राप्ते इति ॥ दिनके तीसरे प्रहरमें अग्निकोण दक्षिण नैर्ऋत्यकोण इनमें शगाली बोले तो Aho ! Shrutgyanam Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवारुते दग्धादिप्रकरणम् । ( ४९१ ) समागतेऽह्नः प्रहरे चतुर्थे प्रेतेशरक्षः पतिपाशिदिक्षु ॥ शिवा रटंती कुरुते क्रमेण संत्रासकायव्यय बंधनानि ॥ ७ ॥ आद्ये निशायाः प्रहरे प्रवृत्ते रक्षोऽधिपांभःपतिवातदिक्षु ॥ शिवा रटंती कुरुते क्रमेण संत्रासकायव्ययबंधनानि ॥ ८ ॥ ततो द्वितीये प्रहरे रजन्यास्तोयाधिनाथानिलसोमदिक्षु ॥ शिवा रटंती कुरुते क्रमेण संत्रासकायव्ययबंधनानि ॥ ९ ॥ यामे तृतीयेऽपि हि यामवत्याः समीरदोषाकरशंभुदिक्षु ॥ शिवा रटंती कुरुते क्रमेण संत्रासकायव्ययबंधनानि ॥ १० ॥ ॥ टीका ॥ रटंती शिवा संत्रासकायव्ययबंधनानि कुरुते ६ ॥ समागते इति ॥ अह्नः तुरीये चतुर्थे प्रहरे समागते सति प्रेतेशरक्षः पतिपाशिदिक्षु प्रेतेशो यमः रक्षः पतिः रक्षोऽधिपतिः पाशी वरुणः एतेषां द्वंद्वः तेषां दिक्षु दक्षिणनैर्ऋत्यपश्चिमासु रटंती शिवा संत्रास कायव्यय बंधनानि कुरुते ॥७॥ आद्ये इति ॥ निशाया आद्ये प्रहरे प्रवृत्तेः सति रक्षोधिपभिः पतिवातदिक्षु | क्वचिद्रक्षः प्रचेतोनिलदिक्षु चैवमित्यपि पाठः नैर्ऋपश्चिमवादिक्षु क्रमेण पूर्वोक्तं फलं कुरुते ॥ ८ ॥ तत इति ॥ ततो रजन्याः द्वितीये प्रहरे तोयाधिनाथानिलसोमदिक्षु वरुणवायुकुबेरदिक्षु क्रमेण पूर्वीक्तं फलं कुरुते ||९|| यामे इति ॥ यामवत्या रजन्यास्तृतीये यामे समीरदोषाकर। ॥ भाषा ॥ भय, शरीरको नाश, बंधन ये होंय ॥ ६ ॥ समागते इति ॥ दिनके चाथे प्रहरमें दक्षिण नैर्ऋत्य पश्चिम इन दिशानमें शुगाली बोले तो भयं शरीरको नाश, बंधन ये क्रम करके करै ॥ ७ ॥ इति ॥ रात्रिके पहले प्रहरमें नैर्ऋत्य पश्चिम वायुकोण इन दिशान में बोले तो पहले कहे हुये फल जाननो ॥ ८ ॥ तत इति । रात्रिके दूसरे प्रहरमें पश्चिम वायु उत्तर इनदिशान में बोले तो गाली भय देहको नारा बंधन करे ॥ ९ ॥ वामे इति ॥ रात्रिके तीसरे प्रहर में वायुकोण उत्तर ईशान इनमें बोलै तो भय, देहको नाश बंधन Aho! Shrutgyanam Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९२) वसंतरानशाकुने-कोनविंशतितमो वर्गः । समागते रात्रितुरीययामे निशाकरेशानसुरेशदिक्षु ॥ शिवा रटंती कुरुते क्रमेण संत्रासकायव्ययबंधनानि ॥ ११ ॥ इति वसंतराजशाकुने शिवारुते दग्धादिप्रकरणं प्रथमम् ॥१॥ इतीरितं दिक्त्रययामयोगात्फलं विरुद्धं विरुतैः शिवायाः॥ ब्रूमोऽथ दिक्पंचकयामयोगात्फलानि पुंसां क्रमतः शुभानि ॥ १२ ॥ कृतांतरक्षोवरुणानिलेंदुदिक्ष्वाद्ययामे रटितैः शृगाल्याः ॥ स्यादिष्टवार्ताश्रुतिरिष्टसिद्धिलाभः सुभिक्षं प्रियलोकसंगः॥ १३॥ ॥ टीका॥ शंभुदिक्षु वायुसोममहेशदिक्षु रटती शिवा पूर्वोक्तफलप्रदा ज्ञेया ॥ १०॥ समाग: ते इति ॥ रात्रितुरीययामे समागते सति निशाकरेशानसुरेशदिक्षु उत्तरेशानपूर्वदिक्षु रटंती शिवा संत्रासेति पूर्वोक्तफलप्रदा स्यात् ॥११॥ ___ इति वसंतराजशाकुने शिवारुते दग्धादिप्रकरणम् ॥ १॥ इतीति ॥ इति पूर्वोक्तप्रकारेण अम्माभिः दिक्त्रययामयोगाच्छिवायाः विरुतैः विरुद्धं फलमीरितं कथितम् ।अथ दिक्पंचकयामयोगात्क्रमतः अनुक्रमेण शुभानिफलानि पुंसां मनुष्याणां वयं ब्रूमः कथयामः॥१२॥ कृतांतेति ॥ दिनाद्ययामे दि. वसस्य प्रथमप्रहरे कृतांतरक्षोवरुणानिलेंदुदिक्षु दक्षिणनैर्ऋत्यपश्चिमवायूत्तरदिक्षु शृगाल्या रटितैः इष्टवार्ताश्रुतिः इष्टसिद्धिलाभासुभिक्षं प्रियलोकसंगः स्यात्।यथा ॥ भाषा॥ करै ॥ १० ॥ समागते इति ।। रात्रेके चौथे प्रहरमें शृगाली उत्तर ईशान पूर्व इनमें बोले तो भय देहको नाश बंधन करै ॥ ११ ॥ इति वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां शिवारुते दग्धदीप्तधूमितदिक्त्रयप्रकरणं प्रथमम् ॥ १॥ . इतीति ॥ या प्रकार हमने तनिदिशाके प्रहरके योगसूं शिवाफे शब्दन करके विरुद्ध फल मानु खोटे फल कहेहैं अब पांचों दिशानके प्रहरके योगसू क्रमकरके फल कहैं हैं ॥ १२॥ कृतांतेति ॥ दिनके पहले प्रहरमें शगाली दक्षिण नैत्य पश्चिम वायु उत्तर इन दिशानमें बोले तो वांछित वार्ताको श्रवण इष्टसिद्धिको लाभ सुभिक्ष प्रियलोकको संग Aho! Shrutgyanam Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवारुते दिक्पंचयामयोग प्रकरणम् । (४९३) रक्षःप्रचेतोऽनिलसोमशंभुदिक्षु द्वितीये प्रहरे रुतेन ॥ स्यादिष्टवार्ता श्रुतिरिष्टसिद्धिभिः सुभिक्षं प्रियलोकसंगः ॥ ॥ १४ ॥ जलेशवातेंदुशिवामरेशदिवारवेण प्रहरे तृतीये स्यादिष्टवार्ताश्रुतिरिष्टसिद्धिलाभः सुभिक्षं प्रियलोकसंगः ॥ १५॥ समीरसोमेशसुरेशवह्निदिक्षु स्वरेण प्रहरे चतुर्थे । स्यादिष्टवाश्रुितिरिष्टसिद्धिाभः सुभिक्षं प्रियलोकसंगः ॥१६॥शशांकरुद्रेद्रहुताशकालदिक्ष्वारवैः पंचमयामभागे।। स्यादिष्टवाश्रुितिरिष्टसिद्धिभिः सुभिक्षं प्रियलोकसंगः ॥ १७॥ ॥ टीका। क्रमं पंचापि फलानि भवंतीत्यर्थः ॥ १३ ॥ रक्ष इति ॥दिनस्येत्यनुवर्तते । द्वितीये प्रहरे रक्षःप्रचेतोनिलसोमशंभुदिक्षु नैर्ऋत्यवरुणवायुकुबेरेशानदिक्षु शिवायाः रुतेन इष्टवार्तेत्यादिपूर्वोक्तफलं यथाक्रमं स्यात् ॥ १४ ॥ जलेशेति ॥ दिनस्य तृतीये प्रहरे जलेशवातेंदुशिवामरेशदिक्षु पश्चिमवायुसोमशंकरशक्रककुप्सु शिवायाः आरवे ण शब्देन यथाक्रमं पूर्वोदितं फलं स्यात् ॥१५॥ समीरेति ॥ दिनस्य चतुर्थे प्रहरे समीरसोमेशसुरेशवहिदिक्षु वायुसोमशंस्विद्रवहिदिक्षु शिवायाः स्वरेण पूर्वोक्तमेव फलं यथाक्रमं स्यात्॥१६॥शशांकेति॥दिनस्य पंचमयामभागे शशांकरदेंद्रहुताशका लदिक्षु उत्तरेशानपूर्वामिदक्षिणदिक्षु शिवारवैःइष्टवातेति पूर्वोक्तमेव फलं क्रमेण स्या ॥ भाषा ॥ ये होय ॥ १३ ॥ रक्ष इति ॥ दिनके दूसरे प्रहरमें नैऋत्य पश्चिम वायु उत्तर ईशान इन दिशानमें शगाली बोले तो इष्ट वार्ताको श्रवण १ इष्टसिद्धि २ लाभ ३ सुभिक्ष ४ प्रियजनको संग ५ ये पांचों फल क्रमकरके होय ॥ १४ ॥ जलेशेति ॥ दिनके तीसरे प्रहरमें पश्चिप वायु उत्तर ईशान पूर्व इन पांचों दिशानमें शगाली बोले तो पहले कहे जे पांचों फल ते होय ॥ १५॥ समीरेति ! दिनके चौथे प्रहरमें वायु उत्तर ईशान पूर्व अग्नि कोण इनमें बोलें तो पहले कहेजे पांचों फल ते क्रमकरके होय ॥ १६ ॥ शशांकेति ॥ दिनके पांचवें प्रहरमें उत्तर ईशान पूर्व अग्निकोण दक्षिण इन पांचों दि Aho! Shrutgyanam Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९४) वसंतरानशाकुने-एकोनविंशतितमो वर्गः । ईशानशकाग्निकृतांतरक्षोदिक्षु स्वरेण प्रहरे च षष्ठे । स्यादिष्टवार्ताश्रुतिरिष्टसिद्धिाभः सुभिक्षं प्रियलोकसंगः ॥ १८॥ इंद्राग्निकालास्रपपाशपाणिदिक्ष्वारवात्सप्तमयामभागे॥स्यादिष्टवार्ताश्रुतिरिष्टसिद्धिलाभः सुभिक्षं प्रियलोकसंगः॥ ॥१९॥ वह्नयंतकृतपाशिवातदिश्वष्टमे च प्रहरे रवेण ॥ स्यादिष्टवाश्रुितिरिष्टसिद्धिभिः मुभिक्षं प्रियलोकसंगः ॥२०॥ इति शिवारुते दिक्पंचकयामयोगप्रकरणं द्वितीयम् ॥२॥ एकादिकानां निधनाष्टमानां शिवारुतानामधुना यथार्थम् ॥ प्राच्यादिकास्वष्टम दिवशेष यद्यत्फलं तत्तदुदीरयामः ॥२१॥ ॥ टीका ॥ त् ॥ १७ ॥ ईशानेति ॥ दिनस्य षष्ठे च प्रहरे ईशानशक्रानिकृतांतरक्षोदिक्षु ईशानपूर्वामिदक्षिणनैर्ऋतदिक्षु शिवास्वरेण इष्टवातेति पूर्वोक्तमेव फलं स्यात्॥१८॥ इंद्रामीति ॥ सप्तमयामकाले इंद्रामिकालास्त्रपपाशपाणिदिक्षु पूर्वामिदक्षिणनै:तपश्चिमदिक्षु शिवायाः आरवात्स्यादिष्टवातेति तदेव फलम् ॥ १९ ॥ वहीति॥अटमें प्रहरेवढ्यात कृन्नैर्ऋतपाशिवातदिक्षु अग्रिदक्षिणनैर्ऋतपश्चिमवायुहारत्सु शिवारवेण इष्टवातादिकं फलं पूर्वोक्तमेव स्यात् ॥ २० ॥ इति वसंतराजटीकायां शिवारते दिक्पंचकयामयोगप्रकरणं द्वितीयम् ॥ २॥ एकेति ॥ अधुना सांप्रतं प्राच्यादिकामु अष्टसु दिक्षु एकादिकानां निध ॥ भाषा॥ शानमें बोले तो पहले कहे जे पांचों फल ते होय॥ १७॥ईशानेति ॥ दिनके छठे प्रहरमें ईशान पर्व अग्निकोण दक्षिण नैऋत्य इन पांचों दिशानमें बोले तो शृगाली पहले कहेहुये पांचों फल करै ॥ १८॥ इंद्राप्नोति ॥ सातवें प्रहरमें शगाली पूर्व अग्निकोण दक्षिण नैऋत्य पश्चिम इन पांचों दिशानमें बोले तो पहले कहेहुये पांचों फल हाय ॥ १९ ॥ वह्रीति ॥ आठमें प्रहरमें अग्निकोण दक्षिण नैर्ऋत्य पश्चिम वायु इन पांचों दिशानमें बोले तो पहले कहे जे पांचों फल ते होय ॥ २० ॥ इति वसंतराजभाषाटीकायां शिवारते दिक्पंचयामयोगप्रकरणं द्वितीयम् ॥२॥ एकति ॥ अब पूर्वकू आदिले आठों दिशानमें ये कहे भादिमें जिनके निधान नाम है Aho ! Shrutgyanam Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शिवारुते स्वराष्टकप्रकरणम्। (४९५) धनाप्तिमिष्टाप्तिमभीष्टलाभं लाभं ततोऽर्थस्य फलं शुभं च ॥ भयप्रणाशं सकलंच सौख्यमेकादिशब्दैः कुरुते प्रशांते ॥२२॥ भयान्यनिष्टश्रुतिरर्थहानिरिष्टैर्वियोगो महती च भीतिः ॥ स्याद्विवरातिमरणं च दीप्ते त्वेकादिना फेत्कृतिसप्तकेन ॥२३॥ ऐंयां निनादे प्रथमेऽर्थलाभो भवेद्वितीये निधिदर्शनं च ॥ कन्यातृतीये लभते चतुर्थे बंधवागमः पंचमकेऽर्थसिद्धिः ॥२४॥ पष्ठे खे कुप्यति भूमिनाथो भीः सप्तमे स्याद्विफलोऽष्टमस्तु॥ त्रासोऽग्निभागेप्रथमे द्वितीये नराधिपः कुप्यति भीस्तृतीय॥२६॥ ॥ टीका ॥ नाष्टमानां शिवारुतानामशेषं यद्यत्फलं तत्तद्वयमुदीरयामः । एकः एकसंख्याकः आदौ येषु ते तथोक्ताः तेषाम् । पुनः कीदृशानां शिवारुतानां निधनो निधनाख्यः अष्टमो येषु ते तथोक्तास्तेषामित्यर्थः ॥ २१॥ धनाप्तिमिति ॥ प्रशांतदिग्विभागे एकादिशब्दैः एकशब्दमादौ कृत्वा यावत्सप्तशब्दास्तैः अनुक्रमेण धनाप्तिं इष्टाप्ति अभीष्टलाभं अर्थस्य लाभं फलं शुभं च भयप्रणाशं सकलं सौख्यं च शिवा कुरुते॥ ॥ २२ ॥ भयानीति ॥ दीप्ते दिग्विभागे एकादिना फेत्कृतिसप्तकेन भयानि १ अनिष्टश्रुतिः २ अर्थहानिः३ इष्टैर्वियोगः ४ महती च भीतिः ५ विडार्तिः ६ मरणं ७ च स्यात् ॥ २३ ॥ ऐंयामिति ॥ पूर्वस्यां प्रथमे निनादे अर्थलाभो भवेत् । द्वितीये शब्द निधिदर्शनं भवति । तृतीये कन्या लभ्यते । चतुर्थे बंधवागमः स्यात्।। ॥२४॥ षष्ठे इति ॥ षष्ठे रवे शब्दे भूमिनाथः कुप्यति । सप्तमे भी: स्यात् । अ ॥भाषा॥ आठमो जिनमें ऐसे शगालीके शब्दनको जो जो समय फल है सो सो हम कहहैं ॥ २१ ॥ धनाप्तिमिति ॥ शांत दिशामें एककू आदि ले सात शब्द बोले तो शृगाली अनुक्रम करके धनकी प्राप्ति इष्टको प्राप्ति अभीष्टको लाभ अर्थको लाभ शुभ फल भयको नाश सौख्य करे ॥ २२ ॥ भयानीति ॥ दीप्तदिशामें एकंकू आदि ले सात शब्द बोले तो भय ५ अनिष्टको श्रवण २ अर्थकी हानि ३ इष्ट जनन करके वियोग ४ महान भय ५ उत्तम वैश्यको पीडा ६ मरण ये होय ॥ २३ ॥ ऐद्यामिति ॥ पूर्वदिशामें पहले शब्दमें अर्थको लाभ होय, दूसरे अब्दमें धन दक्षि, तीसरे शब्दमें कन्या प्राप्त होय, चौथै शब्दमें बंधुको आगमन होय, पांचमें शब्दमें अर्थकी सिद्धि होय ॥ २४ ॥ षष्ठे इति ॥ छठे शब्दमें पृथ्वी Aho! Shrutgyanam Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९६) वसंतराजशाकुने-एकोनविंशतितमो वर्गः। घातं चतुर्थे नगरस्य शब्दे शिवारुते पंचमके च युद्धम् ॥ वदति तज्ज्ञाः कलहं च षष्ठे भी सप्तमे स्याद्रिफलोऽष्टमस्तु।। ॥२६॥ आये शुभं स्यादशुभं द्वितीये याम्ये महाव्याधिभयं तृतीये ॥ स्वरे चतुर्थे स्वजनागमः स्यात्पुत्रो भवेत्पंचसु फेत्कृतेषु ॥२७॥ जायेत कन्या रटिते च षष्टे भीः सप्तमे स्याद्विफलोऽष्टमस्तु ॥ ग्रामस्य घातो दिशि राक्षसानामाये द्वितीयेऽपि च गोकुलस्य ॥२८॥ ॥ टीका॥ टमस्तु विफलः। अग्निभागे प्रथमे रखे त्रासः स्यात् । द्वितीये नराधिपः कुप्यति । तृतीये भीर्भवति ॥ २५ ॥ धातमिति ॥ चतुर्थे शिवारुते शब्दे नगरस्य घातम्। पंचमके शिवारुते शब्दे युद्धम् षष्ठे च कलहं तज्ज्ञाः वदंति । सप्तमे भीतिः । अष्टमस्तु विफलः ॥ २६ ॥ आये इति ॥ याम्ये दक्षिणभागे आये रवे शुभं स्यात् । द्वितीये रखे अशुभं स्यात् । तृतीये महाव्याधिभयं भवति । चतुर्थे स्वरे स्वजनागमः स्यात् । पंचसु फेत्कृतेषु पुत्रो भवेत् ॥२७॥ जायेतेति ॥ षष्ठे रटिते च शब्दे कन्या जायेतोसप्तमे भी स्यात्।अष्टमस्तु विफल राक्षसानां दिशि नैर्ऋतदि. शि आये शब्दे ग्रामस्य वातः स्यात्ाद्वितीयेऽपि च गोकुलस्य घातः स्यात् ॥ २८ ॥ ॥ भाषा॥ को नाथ कोपवान् होय, सातमें शब्दमें भय होय आठमों शब्द तो निष्फलहै अग्निकोणमें पहलो शब्द बोले तो त्रास होय, दूसरे शब्दमें राजाको कोप होय, तीसरे शब्दमें भय होय ॥ २५॥ घातमिति ॥ चौथे अब्दमें नगरको घात होय पांचवें शब्दमें युद्ध होय छठे शब्दमें कलह होय, शृगालीके सातमें शब्दमें भय होय, आठमों शब्द तो निष्फल है ॥ २६ ॥ आये इति ॥ दक्षिणदिशामें शृगाली पहलो शब्द बोले तो शुभ होय, दक्षिणमें दूसरो शब्द बोलै तो अशुभ होय, तीसरे शब्दमें महान् व्याधिको भय होय, चौथे शब्दमें स्वजन जनको आगमन होय, पांचमें शब्द करे तो पुत्र होय ॥ २७ ॥ जायतेति ॥ शृगालीके छठे शब्दमें कन्या होय, दक्षिणमें शृगालीके सातमैं शब्दमें भय होय. शृगालीको आठमो शब्द तो निष्फल है. नैर्ऋत्यकोणमें शृगालीके पहले इन्दमें ग्रामको घात होय. दूसरे Aho! Shrutgyanam Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवारुते स्वराष्टकप्रकरणम् । (४९७) मृत्युस्तृतीये द्विचतुष्पदानां हानिश्चतुर्थेऽप्यथ पंचमे च ॥ चौराद्भयं राजभयं च षष्ठे भीः सप्तमे स्याद्विफलोऽष्टमस्तु॥ ॥ २९ ॥ शब्दे शिवाया वरुणस्य भागे आये भयं हानिरथ द्वितीये ॥स्याद्राजदूतागमनं तृतीयेदाहश्चतुर्थे खलु चौरभीतिः॥३०॥ स्यात्पंचमे राजभयं च षष्ठे भीः सप्तमे स्याद्धिफलोऽष्टमस्तु । वायव्यभागे भयमेकशब्दे भयातिरेको भवति द्वितीये ॥ ३१ ॥ वृष्टिस्तृतीये महती चतुर्थे मेघागमो वर्षति पंचमे च ॥ क्रोधं विधत्ते नृपतिश्च पष्टे भीः सप्तमे स्याद्विफलोऽष्टमस्तु ॥ ३२॥ ॥ टीका ॥ मृत्युरिति ॥ तृतीये शब्दे द्विपदानां चतुष्पदानां मृत्युः स्यात् । चतुर्थे शब्दे हानिः । अथ पंचमे च शब्दे चौराद्भयं भवति । षष्ठे राजभयं भवति । सप्तमे भीः स्यात् । अष्टमस्तु विफलः॥ २९ ॥ शब्दे इति ॥ वरुणस्य भागे पश्चिमदिशि शिवायाः आये रखे भयं भवति । अथ द्वितीये हानिः । तृतीये राजदूतागमनं स्यात् । चतुर्थे दाहः स्यात् । पंचमे खलु निश्चयेन चौरभीतिः स्यात् ॥३०॥ स्यादिति ॥ षष्ठे राजभयं स्यात् । सप्तमे सामान्येन भीः स्यात् । अष्टमस्तु विफलः। तथा वायव्यभागे शिवायाः एकशब्दे भयं भवति । द्वितीय भ. यातिरेको भयाधिक्यं भवति ॥३१॥वृष्टिरिति ॥ तृतीये महती वृष्टिर्भवति । चतुर्थे मेघागमो भवति।पंचमे च वर्षतिषष्ठे नृपतिः क्रोधं विधत्ते।सप्तमे भीः स्यात् । अष्ट. ॥भाषा ॥ शब्दमें गोकुलको वात होय ॥ २८॥ मृत्युरिति। तीसरे शब्दमें मनुष्यादिक और चौपदा इनकी मृत्यु होय.चौथे शब्दमें हानि होय. पांचमें शब्दमें चोरते भय होय.छठे शब्दमें राजभय होय. सातमें शब्दमें भय होय.आठमो शब्द तो निष्फलहै।।२९||शब्दे इति ॥ पश्चिम दिशामें शिवा पहलो शब्द बोले तो भय होय.दूसरो शब्द बोले तो हानि होय.तीसरे शब्दमें राजाके दृतको आगमन होय. चौथेमें दाह होय. पांचमें शब्दमें निश्चयकर चौरको भय होय ॥ ३० ॥ स्यादिति ॥ छठे शब्दमें राजभय होय. सातमें शब्दमें सामान्य भय होय. आठमों शब्द तो निष्फल है. और वायव्य कोणमें शृगालीके पहले शब्द बोलबेमें तो भय होय. दूसरे शब्दमें भयकी अधिकता होय ॥ ३१ ॥ वृष्ठिरिति ॥ शृगालोके तीसरे शब्दमें महान् वृष्टि होय, चौथे शब्दमें मेघको आगमन होय. पांचों शब्दमें वर्षा होय. छठे शब्दमें राजाको क्रोध होय .Aho! Shrutgyanam Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९८) वसंतराजशाकुने - एकोनविंशतितमो वर्गः । दिश्युत्तरस्यां विहिते विरावे म्रियेत कश्चित्प्रथमे द्वितीये ॥ महाभयं विप्रवधस्तृतीये क्षत्रं चतुर्थे खलु हन्यते च ॥ विट्पंचमे षष्टरवे च शूद्रो भीः सप्तमे स्याद्विफलोऽष्टमस्तु ॥ ॥ ३३ ॥ राहोस्तथा दर्शनमाद्यशब्दे के तोद्वितीये च तथोत्तरेण || उल्कापातस्त्रिषु दुर्दिनं च चतुर्षु भद्रं खलु पंचमे स्यात् ॥ ३४ ॥ संगो भवेद्वैरिजनस्य षष्ठे भीः सप्तमे स्याद्विफलोऽष्टमस्तु ॥ आद्ये भवेदुर्दिनमीशदेशे वृष्टिर्द्वितीये च वे शिवायाः ॥ ३५ ॥ 4 ॥ टीका ॥ मस्तु विफलः ॥ ३२ ॥ दिशीति ॥ उत्तरस्यां दिशि प्रथमे विरावे विहिते कश्चित म्रियेत । द्वितीये महाभयं भवति । तृतीये विप्रवधः स्यात् । चतुर्थे क्षत्रं हन्यते । पंचमे विद्वैश्यः हन्यते। षष्ठे रवे शूद्रः हन्यते । सप्तमे भीः स्यात् । अष्टमस्तु विफलः ॥३३॥ राहोरिति ॥ तथोत्तरेण आये शब्दे राहोर्दर्शनं स्यात् । द्वितीये शब्दे के तोर्दर्शनं भवति । त्रिषु शब्देषु उल्कापातः स्यात् । चतुर्षु दुर्दिनं स्यात् । “दुर्दिनं मेघजं तमः" इति हैमः । पंचसु खलु निश्चयेन भद्रं कल्याणं स्यात् ॥ ३४ ॥ संग इति ॥ षष्ठे शिवाशब्दे वैरिजनैश्च संगः स्यात् । सप्तमे भीः स्यात् । अष्टमस्तु विफलः। तथा ईश देशे ऐशान्यामाधे शब्दे दुर्दिनं स्यात् । शिवायाः द्वितीये च रवे वृष्टिर्भवेत् ॥३५॥ ॥ भाषा ॥ सातमें शब्दमें भय होय. आठमों शब्द तो निष्फल है ॥ ३२ ॥ दिशीति ॥ उत्तर दिशा में शृगाली पहलो शब्द बोले तो कोई मरे, दूसरे शब्दमें महान् भय होय. तीसरे शब्द में ब्राह्मणको वध होय. चौथे शब्दमें क्षत्रिय मरै. पांचमें शब्द में वैश्य मरे. छठे शब्दमें शूद्र मरे. सातमें शब्दमें भय होय. शृगालीको आठमा शब्द तो निष्फल है ॥ ३३ ॥ राहोरिति ॥ उत्तर दिशामें शृगालीके पहले शब्दमें राहुको दर्शन होय. दूसरे शब्दमें केतुको दर्शन होय. तीसरे शब्द में उल्का प्रपात होय. चौथे शब्दमें मेघादिक कर खोटो दिन होय. पांचमें श ब्दमें कल्याण होयं ॥ ३४ ॥ संग इति ॥ छठे शब्दमें बैरीजनन करके संगहोय. सातमें शब्दमें भय होय, आठमा शब्द तो निष्फल है. ईशानमें शृगालीको पहलो शब्द दुर्दिन करे.. Aho ! Shrutgyanam. Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवारुते यात्राप्रकरणम् । ( ४९९ ) वातस्तृतीये त्वशनिश्चतुर्थे म्रियेत कश्चित्खलु पंचमे च ॥ लभेत पृथ्वीं निनदे च षष्ठे भीः सप्तमे स्याद्विफलोऽष्टमस्तु ॥ ३६ ॥ इति शिवारुते स्वराष्टकप्रकरणम् ॥ ३ ॥ क्षेमलाभ पुनरागमनानां निश्चयं समधिगम्य विशंकः ॥ येन याति पथिकः परदेशं तच्छिवारुतमथ प्रथयामः ॥ ॥ ३७ ॥ यं देशं गंतुमभ्युद्यतानां पुंसां शब्दानुच्चरंती शृगाली || शांताशायां सिद्धये वांछितानां दीप्तायां तु स्यादभीष्टक्षया ॥ ३८ ॥ ॥ टीका ॥ वात इति ॥ तृतीये शब्दे वातः स्यात् । चतुर्थेऽशनिः विद्युत्पातः । पंचमे शब्दे कश्चिन्त्रियेत । षष्ठे निनदे पृथ्वी लभेत । सप्तमे भीः स्यात् । अष्टमस्तु विफलः ॥ ३६॥ इति वसंतराजशाकुने टीकायां शिवारुते स्वराष्टकप्रकरणं तृतीयम् ॥ ३ ॥ क्षेमेति ॥ अथ येन शिवारुतेन क्षेमलाभपुनरागमनानां क्षेमं कल्याणं लाभः प्राप्तिः पुनरागमनं परावृत्त्यागमनम्। एतेषामितरेतरद्वंद्वः । तेषां निश्चयं समधिगम्य अवधार्य विशंकः शंकारहितः परदेशं याति । तच्छिवारुतं वयं प्रथयामः विस्तारयामः ॥ ३७ ॥ ययमिति ॥ यंयं देशं गंतुमभ्युद्यतानां पुंसां शांताशायां शांतायां दिशि शब्दानुच्चरंती शृगाली वांछितानां सिद्धये भवति । दीप्तायां ॥ भाषा ॥ शृगालीको दूसरो शब्द वृष्टि करे ॥ ३५ ॥ वाम इति ॥ तीसर शब्दमें वात पवन होय. चौथे शब्द में वज्रपात होय. पांचमे शब्द में कोई मरे, छठेशब्दमें पृथ्वीको लाभ होय. सातमें श ब्दमें भय होय. आठमा शब्द तो निष्फल है ॥ ३६ ॥ इति वसंतराजशाकुने भाषाटीकायां शिवारुते स्वराष्टकप्रकरणं तृतीयम् ॥ ३ ॥ क्षेमेति ॥ अब जा शृगालीके शब्द करके कल्याण लाभ परदेश जायकर पीछो आवनो इनको निश्चय जानकरके पुरुष निःसंदेह परदेशकूं जाय वो शृगालोको शब्द हम - स्तार करक कहें हैं ॥ ३७ ॥ ययमिति ॥ जा जा देशकूं जायबेकूं तयारी करी मनुष्यनें उनकूं शांत दिशामें शृगाली बोले तो वांछितनकी सिद्धि होय, और जो दीप्त दिशामें बोले Aho! Shrutgyanam Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५००) वसंतराजशाकुने-एकोनविंशतितमो वर्गः। प्राची दिशं सम्मुखभानुबिंबा प्रतिष्टमानस्य नरस्य यस्य ।। शब्दं शृगाली पुरतः करोति बंधं वधं च प्रकरोति तस्य ॥ ॥ ३९ ॥ प्राची दिनेशाभिमुखस्य यस्य प्रयातुकामस्य शिवा सशब्दा ॥ भियेऽर्थनाशाय च दक्षिणा स्याद्वामा पुनवांछितकार्यसिद्धयै ॥ ४० ॥ प्रत्यर्कमाशां चलितस्य पूर्वा शिवा विरावं पुरुषस्य यस्य ॥ करोति पृष्ठे प्रकरोति तस्य सर्वप्रकारामभिलाषसिद्धिम् ॥४१॥ प्रस्थायिनो यस्य च दक्षिणस्यां शिवा खं मुंचति दक्षिणेन ॥ आदित्ययुक्ता यदि नो तदानीं भवेद्धवं तस्य महीपतित्वम् ॥४२॥ . ॥ टीका ॥ दिशि तु अभीष्टक्षयाय वांछितनाशाय भवति स्यात् ॥ ३८ ॥ प्राचीमिति ॥ प्रा. ची दिशं प्रतिष्ठमानस्य यस्य नरस्य सम्मुखभानुबिंवा शृगाली पुरतः शब्दं करोति तस्य बंध वधं च प्रकरोति ॥ ३९ ॥ प्राचीमिति ॥ दिनेशाभिमुखस्य प्रयातुका. मस्य यस्य पुंसः प्राची प्रति पूर्वी दिशं प्रति अर्कसम्मुखमित्यर्थः । या शिवा सशब्दा सा तस्य भिये स्यात् । दक्षिणा अपसव्याऽर्थनाशाय च स्यात् । वामा पुनः वांछितकार्यसिद्धयै स्यात् ॥४०॥ प्रत्यर्कमिति ॥ पूर्वामाशां दिशं चलितस्य यस्य पुरुषस्य शिवा पृष्ठे प्रत्यर्कम् अर्कसम्मुखं विरावं करोति तस्य सर्वप्रकाराम अभिलाषसिद्धि प्रकरोति ॥ ४१ ॥ प्रस्थायिन इति ॥ दक्षिणास्यां दिशि प्रस्थायिनः यस्य पुरुषस्य दक्षिणेन अपसव्येन शिवा रवं विरावं मुंचति यदि आदित्य ॥ भाषा॥ तो वांछितको क्षय होय ॥ ३८ ॥ प्राचीमिति ॥ पूर्वदिशा प्रति चल्यो मनुष्य वक सूर्यके सम्मुख देखरही ऐसी शृगाली अगाडी शब्द करै तो वाकू बधमंधन करै ॥ ३९ ॥ प्राचीमिति ॥ पूर्वदिशामें गमन की पुरुषकू सूर्यके संमुख देखती हुई बांई बोटे तो भयके अर्थ और जेमने भागमें बोले तो अर्थको नाश करै. जो फिर वामभागमें जाय बोले तो वांछित कार्यकी सिद्धिके अर्थ जाननी ॥ ४० ॥ प्रत्यकमिति ॥ पूर्व दिशाकू गमन कर्ता पुरुषकू शृगाली पीठपीछे सूर्यसम्मुख देखती हुई शब्द करे तो वा पुरुषकं अभिलाषाकी सिद्धि करै ॥ ४१ ॥ प्रस्थायिन इति । दक्षिण दिशाकू जाय वाकू शृगाली जेमने भाग में ओले और वा दिशामें सर्य नहीं होय तो वा पुरुषकू पृथ्वीपतिपनो निश्चय होय ॥ ४२॥ Aho! Shrutgyanam Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवारुते यात्राप्रकरणम् । (५०१) वैवस्वताशां चलितस्य यस्य दिवाकरस्तिष्ठति दक्षिणेन । शिवा च वामा कुरुते विरावं संपद्यते तस्य महीपतित्वम् ॥ ॥४३॥ पुमान्यदा याम्यककुष्प्रवासी करोति शब्दं पुरतः शृगाली ॥ आस्ते विवस्वानपि सम्मुखश्चेद्भवेत्तदानीमचिरेण मृत्युः॥४४॥ नरस्य यामी ककुभं यियासोः शृगालभार्या यदि पृष्ठभागे । फेत्कारमामुंचति पंचभावस्तत्सप्तरात्रेण भवत्यवश्यम् ॥ ४५॥ दिशं प्रतीची व्रजतः शृगाली नरस्य यस्याभिमुखा विरौति॥शांतस्थिताशांतफलप्रदात्रीदीप्ता तु दीप्तं फलमातनोति ॥४५॥ ॥ टीका ॥ युक्ता शिवा न भवति तदानीं तस्य महीपतित्वं ध्रुवं भवेत् ॥ ४२ ॥ वैवस्वतेति ॥ वैवस्वताशां दक्षिणाशां प्रचलितस्य पुंसः दिवाकरः दक्षिणेन अपसव्यभागेन तिष्ठति शिवाच वामं विरावं कुरुते तस्य महीपतित्वं संपद्यते । क्वचित् संपद्यते तस्य समस्तमिष्टमित्यपि पाठः॥४३॥ पुमानिति ॥ यदा पुमान्याम्यककुष्प्रवासी स्यात्। दक्षिणगामी भवेदित्यर्थः पुरतस्तस्य च शृगाली शब्दं करोति चेद्विवस्वानपि शूगाल्याःसम्मुखः आस्ते तदानीमचिरेणाल्पकालेन गंतुः मृत्युः स्यात्॥४४॥नरस्येति॥ यामी ककुभं यियासोनरस्य यदि पृष्ठभागेशृगालभार्या फेत्कारमामुंचति तदा सप्तरात्रेण पंचभावः पंचानां भाव पंचत्वं मरणमवश्यं स्यात्। पंचत्वं निधनं नाशो दीर्घनिद्रा निमीलनम् इति हैमः॥४५॥दिशमिति॥प्रतीची पश्चिमां दिशं बजतो नरम्य यस्य शृगाली अभिमुखा विरोति।तत्रायं विशेषायदि शांतास्थिता तदा शांतफलदा त्री स्यात् । दीप्ता तु दीप्तास्थिता तु दीप्तं फलमातनोति। 'प्रतीची स्यात्तु पश्चिमा"॥ ॥भाषा॥ वैवस्वतेति ॥ पूर्व दिशाकू चले ताकू सूर्य तो जेमने भागमें होय शृगाली बाई बोले तो वाकू पृथ्वीपतिपनो होय ॥ १३ ॥ पुमानिति ॥ जो पुरुष दक्षिण दिशा जातो होय. वाके अगाडी शृगाली बोले जो सूर्यभी शृगालीके सम्मुख होय तो शीघ्रही गंताकी मृत्यु होय ॥ ४४ ॥ नरस्येति ॥ दक्षिणदिशामें गमन कर्ताकू जो पीठपीछे शृगाली शब्द बोले तो सात रात्रिमें मरण होय ॥ १५ ॥ दिशमिति ॥ पश्चिमदिशाकू गमन कर वाके सम्मुख बोले तो शांतदिशाम हो। तो शांत फल देव और दीत दिशामें होय Aho ! Shrutgyanam Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०२ ) वसंतराज शाकुने - एकोनविंशतितमो वर्गः । R प्राचेतसी संचलितस्य काष्ठां शृंगालिका जल्पति दक्षिणेन || यदा तदानीं सुबहूननर्थान्करोति चार्थानपहंति पुंसः ॥ ४७ ॥ दिशं प्रचेतः परिपाल्यमानां नरस्य यस्य व्रजतः शृगाली ॥ वामा विरावं प्रकरोति शांता भवत्यभिप्रेतफलानि तस्य ॥ ४८ ॥ यो वारुणीं याति दिशं मनुष्यः शृण्वञ्छिवाया रटितानि पृष्ठे ॥ गतस्य तस्याशु हुताशभीतिरसंशयं स्याद्द्रविणक्षयश्च ॥ ४९ ॥ यस्योत्तराशां चलितस्य पुंसः प्राच्यां शिवा मुंचति फेत्कृतानि भानुः प्रतीच्यां विहितस्थितिश्वेदपेक्षितं सिध्यति तत्क्षणे ॥५०॥ मुंचत्युदीचीं चलितस्य पृष्ठे शिवा विरावं पुरुषस्य यस्य ॥ आस्ते च मध्ये नभसो विवस्वांस्तथार्थहानिर्मरणं च दृष्टम् ॥५१॥ ॥ टीका ॥ इति हैमः ॥ ४६ ॥ प्राचेतसीमिति प्रचेताः वरुणस्तस्येयं प्राचेतसी पश्चिमा तां काष्ठां दिशं संचलितस्य पुंसः यदि दक्षिणेन गृगालिका जल्पति तदानीं सुबहूननथन्करोति पुंसः अर्थानपहंति ॥ ४७ ॥ दिशमिति ॥ प्रचेतः परिपाल्यमानां दिशं पश्चिमां काष्ठामित्यर्थः । व्रजतो यस्य नरस्य शृगाली वामा विरावं प्रकरोति चेच्छांता तदा तस्य अभिप्रेतफलानि भवंति ॥ ४८ ॥ य इति । यः पुमान्वारुणीं दिशं शिवायाः रटितानि पृष्ठे शृण्वन्याति तस्य गतस्य आशु शीघ्रमसंशयं हुताशभीतिः स्यात् । तथा द्रविणक्षयश्च स्यात् ॥ ४९ ॥ यस्येति ॥ उत्तराशां चलितस्य पुंसः प्राच्यां पूर्वस्यां शिवा फेत्कृतानि मुंचति चेद्भानुः प्रतीच्यां पश्चिमायां विहितस्थितिः तदा अपेक्षितं वांछितं क्षणेन सिद्ध्यति ॥५०॥ मुंचतीति ॥ यस्य पुरुषस्य ॥ भाषा ॥ तो दीप्तफल देवै ॥ ४६ ॥ प्राचेतसीमिति || पश्चिमकूं गमन करै ताकूं जो जेमने भागमें शृगाली बोले तो बहुतसे अनर्थ करे और अर्थकुंभी नाश करै ॥ ४७ ॥ दिशमिति ॥ पश्चिमदिशाकूं गमनकर्ताके शृगाली बांई भागमें बोले जो शांत होय तो वाकूं वांछितफल होय ॥ ४८ ॥ य इति ॥ जो पुरुष पश्चिमदिशाकूं जातो होय और पीठपीछे शृगालीको शब्द सुनतो हुयो चलै तो वाकूं शीघ्रंही निःसंदेह अग्निको भय होय और धनको क्षय होय ॥ ४९ ॥ यस्येति ॥ उत्तरदिशाकूं चलतो होय वा पुरुषकूं पूर्वदिशा में शृगाली बोलै जो सूर्य पश्चिमदिशामें होय तो तत्क्षण वांछित सिद्धि होय ॥ ५० ॥ मुंचतीति ॥ जो उत्तखदि Aho! Shrutgyanam Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवारुते यात्राप्रकरणम् । ( ५०३ ) कुबेरकाष्ठां प्रति यः प्रयाति ज्वालामुखी चाभिमुखी विरौति ॥ तस्याध्वगस्याभिमतार्थसिद्धिर्भवेच्च सम्पत्पुनरागमश्च ॥ ५२ ॥ तिष्ठति तीव्रकरो दिशि यस्यां फेत्कुरुते यदि तत्र शृगाली ॥ तद्वजतः पथिकस्य भवतां निश्चयतो धनजीवितनाशौ ॥ ५३ ॥ दक्षिणतः प्रथमं यदि पश्चाद्वामगता पथिकस्य शृगाली || फेत्कुरुते कुरुते तदवश्यं क्षेमधनाप्तिगृहागमनानि ॥ ५४ ॥ अध्यास्य शांतां ककुभं नरस्य वामा शृगाली यदि रारटीति ॥ तदर्थलाभं वितरत्यवश्यमर्थक्षयं दक्षिणतो रटंती ॥ ५५ ॥ ॥ टीका ॥ उदीचीमुत्तरां चलितस्य पृष्ठे शिवा विरावं मुंचति यदि विवस्वान्नभसो मध्ये आस्ते तदा अर्थहानिः मरणं च दृष्टम् ॥ ५१ ॥ कुवेरेति ॥ यः पुमान्कुवेरकाष्ठां प्रति उत्तरां प्रति प्रयाति ज्वालामुखी शिवा च अभिमुखी विरौति तस्याध्वगस्य अभिमतार्थसिद्धिर्भवेत् । संपच्च पुनः आगमश्च स्यात् ॥ ५२ ॥ तिष्ठतीति ॥ यस्यां दिशि तीव्रकरः सूर्यस्तिष्ठति तत्र यदि शृगाली फेत्कुरुते तदा व्रजतः पथिकस्य निश्चयतः जीवितधननाशौ भवेताम् ॥ ५३ ॥ दक्षिणत इति । यदि शृगाली प्रथमं दक्षिणतः अपसव्यतः प्रयाति पश्चाद्ममगता पथिकस्य फेकुरुते तदा तस्य अवश्यं क्षेमधनाप्तिगृहागमनानि कुरुते । क्षेमं च धनाप्तिश्च गृहागमनं चेति द्वंद्वः ॥ ५४ ॥ अध्यास्येति ॥ शांतां ककुभमध्यास्य आश्रित्य ॥ भाषा ॥ 1 शाकूं चलतो होय वाकूं पीठपीछे शृगाली बोलै जो सूर्य आकाशके मध्यभागमें स्थित होय तो अर्थकी हानि मरण ये होंय ॥ ५१ ॥ कुबेरेति ॥ उत्तरदिशाकूं जातो होय वाकूं शृगाली सम्मुख बोले तो बाकं वांछित अर्थकी सिद्धि होय और संपदा होय आगम होय ॥ १२ ॥ तिष्ठतीति ॥ जा दिशामें सूर्य स्थित होंय बांई दिशामें जो शृगाली बोलै तो मार्ग चलबेवाले निश्चय जीव धन इनको नाश होय ॥ ५३ ॥ दक्षिणत इति ॥ जो शृगाली पहले जेमने भागमें आवे पीछे वामभागमें आय शब्द करे तो मार्गीकूं अवश्य कल्याण, धनकी प्राप्ति, घरकूं आगमन करै ॥ ८४ ॥ अध्यासेति ॥ शांतदिशामें स्थित होय और बांई होय शब्द बोले तो अवश्य अर्थको लाभ होय. जो जेमनी बोलै तो अर्थको Aho! Shrutgyanam Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०४) वसंतराजशाकुने एकोनविंशतितमो वर्गः। वामा प्रदीप्ते ककुभः प्रदेशे लाभं तथानर्थमुपाददाति ॥ शिवा रटंती पथि दक्षिणा तु क्षिपत्यनर्थावटसंकटेषु ॥ ॥५६॥शांते दिगंते यदि वा प्रदीप्ते पृष्ठे प्रयाणप्रतिषेधायत्री । शब्दायमाना तु शिवा पुरस्तानिमज्जयत्यापदगाधसिंधौ ॥ २७ ॥ वामेऽपसव्ये पुरतोऽथ पृष्ठे पुंसः शिवा जल्पति यत्र तत्र ॥ आयांति चौराः प्रथमे विरावे द्वयोर्भवेत्तस्करदर्शनं च ॥५८ ॥ नृपादरोऽर्थागमनं तृतीये तुर्य क्षितिः पंचमकेऽर्थलाभः॥ वाणिज्यसेवा विफलाथ षष्ठे भीः सप्तमे स्याद्विफलोऽष्टमस्तु ॥ ५९॥ ॥टीका॥ यदि नरस्य शृगाली वामा रारटीति अवश्यं तदाऽर्थलाभं वितरति।दक्षिणतः रटंती अर्थक्षयं कुरुते ॥ ५५ ॥ वामेति ॥ प्रदीप्ते ककुभः प्रदेशे वामा लाभं तथानर्थमुपादधाति । तथा प्रदीप्ते ककुभः प्रदेशे शिवा दक्षिणा रठंती अनर्थावटसंकटेषु क्षिपति तत्रानर्थःप्राणव्यपरोपणमवटः उत्पथप्रक्षेपः संकटं कष्टमेतेषां वंदतेिष्वित्यर्थः ॥ ५६ ॥ शांते इति ॥ शांते यदि वा प्रदीप्ते दिगन्ते पृष्ठे शब्दायमाना शिवा प्रयाणप्रतिषेधयित्री स्यात् । पुरस्तादने शब्दायमाना तु आपदगाधसिंधौ आपद एव अगाधः अलब्धतलः स चासौ सिंधुः समुद्रस्तस्मिन् “अगाधमतलस्पशेम्" इत्यमरःनिमज्जयति पातयतीत्यर्थः॥५७॥वामे इति। वामेपसव्ये दक्षिणे पुरतः अथ पृष्ठे यत्र तत्र पुंसः शिवा जल्पति तदा प्रथमे विरावे चौराः आयोति द्वयोः शब्दयोस्तस्करदर्शनं भवेत् ॥ ५० ॥ नृपतिः ॥ तृतीये नृपादरः राजसम्मा: ॥ भाषा॥ क्षय होय ॥ ५५ ॥ वामति ॥ दीप्त दिशामें वामांगमें शृगाली बोले तो अलाभ अनर्थ कर और प्रदीप्त दिशामें जेमने भागमें बोले तो अनर्थ गढेलेमें पडनो संकट ये होय ॥ १६ ॥ शान्ते इति ॥ शांत वा दीप्त दिशामें शृगाली पीठपीछे बोले तो गमनको निषेध जाननो. ऐसी होय अगाडी बोलै तो आपदारूपी अगाध समुद्रमें पडे ॥ ५७ ॥ वामे इति ॥ और वाई जेमनी अगाडी पीठपीछे जहां तहां शृगाली बोले तो पुरुषकू प्रथम शब्दमें तो चोर आवे दोय बोलमें चौरको दर्शन होय ॥ १८ ॥ नृपेति ॥ तीसरे शब्दमें राजाको सम्मान अर्थको आगमन होय. चौथे बोलमें पृथ्वी वा कष्टकी हानि होय. पांचवें बोलमें अर्थको लाभ होय. Aho ! Shrutgyanam Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवारुते यात्राप्रकरणम् । ' (५०५) हाहावं मुंचति हृष्टभावाद्धास्यं तु तस्यास्तदुदाहरंति ॥ अग्रे सरा वा पथि वा यियासोः सा द्विप्रकारापि मनोरथाप्त्यै ॥ ॥ ६० ॥ नृपस्य यात्रासमये पुरस्तात्प्रयाति चेद्वम निवेदयंती ॥ कुर्याच्छिवा वैरिपराजयं च जयश्रियं चाभिमतं यदन्यत् ॥ ६ ॥ कायोतरेष्वप्यनुपद्यमाना श्रेयः प्रदा शांतदिशि प्रदिष्टा ॥ शिवा प्रदीप्ते तु पुनः प्रदेशे समारटंती महते भयाय ॥ ६२॥ ॥ टीका ॥ नोऽर्थागमनं च भवेत् । तुर्ये क्षितिः कष्टहानिर्वा स्यात् । पंचमकेथलाभः स्यात् । षष्ठे वाणिज्यसेवा विफला स्यात् । कुत्रचित् वाणिज्यसेवादि फलायवास्यादित्यपि पाठः । सप्तमे भीः स्यादष्टमस्तु विफलः॥ ५९ ॥ हाहेति ॥ हृष्टभावाद्धर्षस्वभावतः या शिवा हाहारवं मुंचति तस्यास्तद्धास्यमुदाहरति । अथवा या यियासोर्गतुकाम स्य पथिमार्गेऽग्रेसरा पुरःसरा भवति सा द्विप्रकारापि उभयप्रकारापि मनोरथाप्त्यैअभिलषितसिद्ध्यै भवति ।। ६०॥ नृपस्येति ॥ नृपस्य राज्ञः यात्रासमये यदि वर्म मार्ग निवेदयंती निरूपयंती पुरस्तात्प्रयाति तदा शिवा वैरिपराजयं कुर्यात् । जय श्रियं च पुनः अन्यदभिमतं कुर्यात् ।। ६१ ॥ कार्यातरेष्विति । कार्यातरेष्वपि पृष्ठे पृष्ठभागे शिवा शांतदिशि रदंती अनुपद्यमाना पृष्ठे आगच्छन्ती श्रेयाप्रदा प्रदिष्टा। प्रदीप्ते तु प्रदेशे शिवा समारटंती पृष्ठे आगच्छंती महते भयाय स्यात् ॥ ६२॥ ॥ भाषा ॥ छठे बोलमें वाणिज्य सेवादिक निष्फल होय. सातवें शब्दमें भव होय. आठमों शब्द तो. निष्फल है ॥ ५९॥ हाहति ॥ जो गाली हर्षसू हाहा शब्द बोले तो शिवाको वो शब्द हास्य नाम हँसनो कहै है अथवा गमनकर्ताके मार्गमें अगाडी होय तो ये दोनों शृगाली मनोरथकी प्राप्ति और वांछितकी सिद्धि करै ॥ ६० ॥ नृपस्येति ॥ राजाकी यात्रासमयमें जो मार्गकू निरूपण करती शृगाली अगाडी चले तो वैरीको पराजय करै और वांछित जयश्री करै ॥ ६१ ॥ कार्यातरेष्विति ॥ कार्वातरनमें पीठपीछे शांत दिशामें बोलती हुई पीठपीछे चली आवे तो कल्याण देवे, और दीप्तदिशामें शृगाली बोलती Ahoi Shrutgyanam Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०६) वसंतराजशाकुने-एकोनविंशतितमो वर्गः। भयोयमे दीप्तदिशि प्रदीप्तैनादैर्नृणां हंति महांति देवी ॥ भयानि सर्वाण्यपि शांतनादा शांतास्थिता सैव भयाय भूने ॥ ६३ ॥ यदा शृगाली कुरुते नराणां शब्दं च नद्युत्तरणे कदाचित् ॥ तटद्वये तत्परिरक्षणीयं महद्भयं भावि जलेचरेभ्यः ॥ ६४॥ ... इति शिवारुते यात्राप्रकरणं चतुर्थम् ॥४॥ स्थानस्थितानामभियोगभाजां नैमित्तिकानामुपदिश्यतेऽथ॥. शिवाविरावैरशिवं शिवं च सुनिश्चितार्थमुनिसम्मतेन॥६५॥ ॥ टीका ॥. . भयति ॥ भयोद्यमे समुद्भूते शिवा दीप्तदिशि प्रदीप्तै दैः सर्वाण्यपि महांति भयानि हति भयोद्गमे सैव शांतनादा शांतशब्दा शांतस्थिता शांतदिविस्थता भने महते भयाय भवति ॥ ६३ ॥ यदेति ॥ यदा शृगाली नराणां नद्युत्तरणे कदाचिच्छब्दं कुरुते तदा तटद्वये परिरक्षणीयम् । यतः जलेचरेभ्यो महद्भयं भावि भवितव्यम् ॥ ६४॥ . . इति वसंतराजटीकायां शिवारुते यात्राप्रकरणं चतुर्थम् ॥ ४॥ . स्थानेति ॥ अथ अभियोगभाजामभियोगमुद्यमं भजते ते अभियोगमाजस्तेषां कृतयात्राणामित्यर्थः। स्थानस्थितानां स्थाने स्वगृह एव कृतस्थितीनां नैमित्तिकानां शकुनाशकुनवता मुनिसंमतेन शिवाविरावैः मुनिश्चितार्थ शिवमशिवं च उ. ॥ भाषा ॥ हुई पीठपीछे आवे तो महान् भय होय ॥ १२॥ भयेति.॥ कोई भय उठयो होय और शृगाली दीप्तदिशामें होय दप्तिही बोल बोले तो सबसे महान् भय दूर होय. और भय उठेप जो शृगाली शांत दिशामें स्थित होय शांत शब्द बोले तो महान् भय होय ॥ ६३॥ यदेति ॥ जो शृगाली मनुष्यनकू नदी उतरती समयमें कदाचित् शब्द करै तो बोधन दोनों तटपै रक्षाके योग्य जाननो. और जलजंतुनरौँ महान् भय होनो. योग्य इति श्रीवसंतराजशाकुन भाषाटीकायां शिवारुते यात्राप्रकरणं चतुर्थम् ॥ ४॥ स्थानति ॥ यात्राकरबेवालेनकू और स्थानमें बैठे होय उनकू शकुन अशकुनके देखवेवाले हॉय उनकू मुनिने शृगालीके शब्दनकरके निश्चय हैं अर्थ जिनके ऐसे शुभ अ Aho! Shrutgyanam Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शिवारुते स्थानस्थितप्रकरणम्। (५०७) करोति फेफे इति सर्वदिक्षु यदा तदा स्थानविघातयुद्धे ॥ शिवा विधत्ते शुभिता त्वसंख्यात्रौद्रान्स्वरान्मुंचति चेदुपेक्ष्या ॥६६॥ निरंतरं रौति च सर्वदिक्षु समंदकारुण्यखातुरा चेत् ॥ अपत्यमोहेन युता शृगाली त्यक्तस्पृहा सा कथितेह तज्ज्ञैः॥ ६७॥ स्थित्वा प्रदीप्ते ककुभो विभागे ज्वालामुखी फेत्कुरुतेऽतिरौद्रम् ॥ ग्रामस्य पार्श्वे प्रकरोति नाशं तस्याथवा तिष्ठति यश्च मध्ये ॥६८॥ ग्रामस्य मध्यं समवाप्य यस्य ज्वालामुखी मुंचति फेत्कृतानि ॥ स शून्यतां गच्छति निश्चये लोकस्य वा स्यादसुखं प्रभूतम् ॥ ६९॥ ॥ टीका॥ पदिश्यते ॥ ६५॥ करोतीति यदा सर्वदिक्षु फेफे इति करोति तदा शिवा स्थान विघातयुद्धे विधत्ते।क्षुभिता तु शिवा असंख्यान रौद्रान्भयावहान्स्वरान्मुचति चेत्तदा उपेक्ष्या उपेक्षणीया ॥ ६६ ॥ निरंतरमिति ॥ या अपत्यमोहेन शृगाली समदकारुण्यरवातुरा मंदः मंदतरः कारुण्योदयोत्पादकः ताभ्यां सहिताभ्यां रवः शब्दो यस्याः सा आतुरा च निरंतरं सर्वदिक्षु सा इह तज्ज्ञैः शिवारुतज्ञैः त्यक्तस्पृहा कथिता ॥ ६७ ॥ स्थित्वेति ॥ यस्य ग्रामस्य पार्श्वे स्थित्वा प्रदीप्ते ककुभो विभागे ज्वालामुखी यदि फेत्कृतानि मुंचति अतिरौद्रं फेत्कुरुते इति वातदा तस्य ग्रामस्य नाशं करोति । अथवा ग्रामस्य मध्ये यस्तिष्ठति तस्य नाशं करोतीत्यर्थः॥६॥ ग्रामस्येति ॥ यस्य ग्रामस्य मध्यं समवाप्य ज्वालामुखी फेत्कृतानि मुंचति निश्चयेन ॥भाषा ॥ शुभ शकुन कहेहैं ॥ १५ ॥ करोतीति ॥ जो सर्व दिशानमें फेफे ये शब्द करे तो शृगाली स्थानके नाशकर्ता युद्धकू करै जो क्रोधवान् होय करके शृगाली असंख्यात भयके करबेवाले शब्द बोले तो कार्य छोडबेके योग्य है ॥ १६ ॥ निरंतरमिति ॥ जो संतानके मोहकरके शृगाली मंद और कारुण्य प्रकट करै ऐसो और आतुर होय सर्व दिशानमें शब्द बोले तो शिवाके शब्दके तत्त्वकू जानबेवालेनने वाळू वांछारहित कहीहै ॥६७॥ स्थित्वेति ॥ जा ग्रामके पसवाडेनमें स्थित होयकर दीप्तदिशामें शृगाली फे शब्दकरै वा अति रौद्र फे शब्दकू बोले तो वा ग्रामको नाश करै अथवा ग्रामके मध्यमें जो स्थित होय वाको नाश करे ॥ ६८ ॥ ग्रामस्येति ॥ जा प्रामके मध्यमें आय करके शृगाली Aho! Shrutgyanam Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०८ ) वसंतराजशाकुने - एकोनविंशतितमो वर्गः । ग्रामांतिके सप्तदिनानि यावन्महाभयोत्पादिकफेत्कृतेन ॥ विरौति चेत्तत्कुरुते शृगाली तद्वासिलोकस्य भयं प्रभूतम् ॥ ७० ॥ मध्यंदिने यावदहानि पंच शिवा समीपे नगरस्य · यस्य ॥ विरौति घातं विदधाति तस्य भयं च वह्निप्रभवं प्रभूतम् ॥ ७१ ॥ पंचार्द्धरात्राणि कथंचिदेषा क्रूरावा व्याहरते शृगाली || यस्यांतिके तं बहवो हठेन मुष्णंति चौरा जनसंनिवेशम् ॥ ७२ ॥ स्थानस्य यस्योपगता समीपं शिवा प्रगे पंचदिनानि यावत् ॥ जाते भृशं प्रोच्चस्ते तदा स्यान्महाजनानां महती च हानिः ॥ ७३ ॥ ॥ टीका ॥ - स शून्यतामुदसतां गच्छति वा अथवा लोकस्य प्रभूतमसुखं स्यात् ॥ ६९ ॥ ग्रामांतिके इति ॥ चेच्छ्रगाली ग्रामस्य अंतिके समीपे सप्तदिनानि यावत् महाभयोत्पादि क फेत्कृतेन विरौति तदा तद्वासिलोकस्य महद्भयं कुरुते ॥ ७० ॥ मध्यमिति ॥ यस्य नगरस्य समीपे शिवा मध्यंदिने मध्याह्ने पंच अहानि पंचदिनानि यावद्विरौति तस्य नगरस्य घातं विदधाति । वह्निप्रभवं प्रभूतं भयं च विदधाति ॥ ७१ ॥ पंचेति ॥ यस्यांतिके एषा शृगाली क्रूरारवा सती पंचार्द्धरात्राणि पंच निशीथान् ग्रामे यदि कथं विद्याहरते फेत्कुरुते तदा जनसन्निवेशं तं ग्रामं बहवश्चौरा हठेन मुष्णंति । “निशीथस्त्वर्द्धरात्रं स्यात् " इत्यजयः ॥ ७२ ॥ स्थानस्येति ॥ शिवा शृगालभार्या यस्थ स्थानस्य समीपमुपगता सती प्रगे प्रभाते जाते पंच दिनानि यावत्प्रोच्चरते भृशं फेस्कृतानि कुरुते तदा तत्र महाजनानां महतां पुंसां महती हानिः स्यात् ॥ ७३ ॥ ॥ भाषा ॥ फे शब्द करे तो निश्चय शून्यता नाम उजाडदे अथवा जननकूँ बहुत दुःख होय ॥ ६९ ॥ ग्रामांति इति ॥ जो शृगाली ग्रामके समीपमें सातदिन तांई महाभयं प्रगट करबेवालो फेत्कार शब्द करके बेलि तो वा ग्राम में निवास करें उनके महान् भय करे ॥ ७० ॥ मध्यमिति ॥ जा नगरके समीपमें मध्याह्नकी समय पाँच दिन ताई शृगाली बोले तो वा नगरको घात करै और अग्निको बहुत भय करे ॥ ७१ ॥ पंचेति ॥ जा गामके पास शृगाली क्रूर शब्द साढे पांचरात्रि तांई बोले तो बहुतसे चोर हठकरके ग्रामकूं छूटें || ॥ ७२ ॥ स्थानस्येति ॥ शृगाली जा स्थानके पास आयकरके प्रातः काल होय वा Aho! Shrutgyanam Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवारुते स्थानस्थितप्रकरणम् । (५०९) सुरक्षितस्यापि मनुष्यलक्षामस्य शीघ्र ग्रहणं विधत्ते ॥ त्रयं दिनानां दिवसावसाने शिवा रटंती परुषस्वरेण ॥७४॥ दिवारदंती सकलासु रौद्रं भ्रमत्यखिन्ना परितः पुरं चेत् ॥ शृगालजाया खलु तद्रवीति युद्धं महत्तत्र तथाभिघातम् ॥ ॥ ७९ ॥ ज्वालां विमुंचत्यतिरौद्रनादा समाकुला धावति या समंतात् ॥ रोमांचकंपौ जनयत्यकस्मात्कुच्छिवा सा युवराजपातम् ॥ ७६ ॥रोमोद्गमं या जनयत्यकस्मात्फे इत्यति क्रूररवा नराणाम् ॥ मूत्रं पुरीषं च तुरंगमाणां सा सर्वदा स्यादशिवा शिवह ॥ ७७॥ ॥टीका॥ मरक्षितस्येति ॥ दिवसावसाने परुषस्वरेण दिनानां त्रयं शिवा रटंती मनुष्यलक्षैः . सुरक्षितस्यापि ग्रामस्य शीघ्र ग्रहणं विधत्ते ग्रहं कुरुते ॥ ७४ ॥ दिवेति ॥ रौद्रेण स्वरेण शृगालजाया सकलासु दिक्षु रौदं रदंती चेत्पुरं परितः अखिन्ना भ्रमति तदा खलु तत्र महद्युद्धं तथाभिघातं च ब्रवीति ॥ ७५ ॥ ज्वालामिति ॥ या अतिरौद्रनादा ज्वाला विमुंचति या समंतात्समाकुला धावति या अकस्माद्रोमांचकंपौ जनयति सा शिवा युवराजपातं कुर्यात् ॥ ७६ ॥ रोमेति ॥ या फे इति अतिकूररवा नराणां अकस्माद्रोमोद्गमं जनयति तुरंगमाणां मूत्रं पुरीषं चाकस्माज्जनयति सा शिवा इह अशिवा न श्रेष्ठा ॥ ७७ ॥ ॥ भाषा॥ समयमें पांचदिन ताई अत्यंत फेल्कार शब्द करै तो पुरुषनकी महान् हानि होय ॥७३॥ सुरक्षित नोति ॥ दिनके अन्तमें कठोरस्वरकरके तीनदिन ताई शृगाली बोले तो लाखों मनुष्यनकरके रक्षा करोगयो होय तोभी वा ग्रामळू शीघ्रही ग्रहण करै ॥ ७४ ॥ दिस्विति ।। रौद्रस्वरकरके शृगाली सब दिशानमें बोले जो पुरके चारोंमेर दुःख विना भ्रमण करे तो महान् युद्ध और घात होय ॥ ७५ ॥ ज्वालामिति ॥ जो अतिरौद्रशब्द बोलती होय, ज्वाला मुखमंसू निकासती होय, जो चारोंमेर आकुल होय, भागती होय. जो भकस्मात् रोम ठाढे होय, वा कंपायमान हायँ तो वो शृगाली युवराजको पात करे ॥ ७६ ॥ रोमेति ॥ जो शृगाली फे या प्रकार अति क्रूर शब्द बोले तो मनुष्यनकू अकस्मात् रोमांचको उदय करै घोडानकू मूत्र पुरीष अकस्मात् प्रगट करै वो शृगाली श्रेष्ठ नहीं॥७७.१. Aho! Shrutgyanam Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१०) वसंतराजशाकुने-एकोनविंशतितमो वर्गः । तरंगिणीरोधसि सौम्यरूपांस्त्रीन्पंच वा मुञ्चति या निनादान् ॥ शिवा शिवां तां नृपतित्वदात्री वन्देत देवीमभिवं दनीयाम् ॥ ७८॥ श्मशानभूमौ दिनमध्यभागे मध्ये रजन्याश्च गृहाग्रदेशे ॥ या रौति तस्यै बलिमर्घयुक्तं भक्त्या प्रदद्याद्यदि भद्रमिच्छेत् ॥ ७९ ॥ सर्वेषु कार्येषु समुद्यतेषु बलिः शिवाया विनिवेदनीयः ॥ गृह्णाति यस्मिन्विषयेऽभ्यु पेत्य देवी बलिं यच्छति तत्र सिद्धिम् ॥ ८० ॥ इति वसंतराजशाकुने शिवारुते स्थानस्थितप्रकरणम् ॥६॥ कथ्यते बलिविधानमिदानी शाकुनागममतेन शिवायाः ॥ दिव्यमंत्रवलिबाधितदोषं साधिताखिलसमुद्यतकार्यम् ॥ ८ ॥ ॥टीका ॥ तरंगिणीति ॥ तरंगिणीरोधसि नदीतटे या शिवा सौम्यरूपांस्त्रीपंच नादान्मुंचति तां शिवां देवीमभिवंदनीयां नृपतित्वदात्री वंदेत ॥ ७८ ॥ श्मशानेति ॥ श्मशानभूमौ दिनमध्यभागे मध्याह्ने तथा रजन्याश्च मध्ये गृहाग्रदेशे गृहस्य पुरः प्रदेशे या शिवा रौति यदि भद्रं कल्याणमिच्छेत्तदा तस्यै बलिमयुक्तं भक्त्या प्रदद्यात् ॥ ७९ ॥ सर्वेष्विति।समुद्यतेषु सर्वेषु कार्येषु शिवायाः बलिनिवेदनीयः यस्मिन्विषये देवी अभ्युपेत्य आगत्य बलिं गृह्णाति तत्र सिद्धि जल्पति ॥ ८०॥ इति वसंतराजशाकुने टीकायां शिवारुते स्थानस्थितप्रकरणं पंचमम् ॥५॥ कथ्यते इति ॥ इदानीं शाकुनागममतेन शाकुनसिद्धांतप्रोक्तेन शिवायाः ब ॥भाषा॥ तरंगिणीति ॥ नदीके तटके ऊपर जो शिवा तीन वा पांच सौम्य शब्द बोले तो नमस्कार करबेके योग्य राजापनेकी करबेवाली ऐसी वो शिवा देवी ताय नमस्कार करै ।। ७८ ॥ श्मशानेति ॥ श्मशानमें मध्याह्नमें अर्धरात्रिमें घरके अगाडी इतनी जगहमें शृगाली बोले तो जो प्राणी कल्याणकी इच्छा करे तो वाके अर्थबलिदान अर्घसहित भक्तिपूर्वक देवै ॥ ७९ ॥ सर्वेष्विति ॥ संपूर्ण कार्यनमें शिवाकी बलि करै जा कार्यमें शिवा देवी आय करके बलिदान ग्रहण करै ता कार्यमें सिद्धि कहै है ये जाननो ॥ ८ ॥ इति वसंतराजभाषाटीकायां शिवारते स्थानस्थितप्रकरणं पंचमम् ॥ ५ ॥ कथ्यते इति ॥ अब शकुनशास्त्रके मत करके शिवा नाम शृगालीको बलिविधान Aho! Shrutgyanam Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शिवारुते बलिंविधानप्रकरणम्। (५११) शन्यालयं रुद्रगृहं श्मशानं चतुष्पथं मातृगृहं जलांतम् ॥ . वंध्यावनिश्चत्वरमेवमाया बलिप्रदानाय मताःप्रदेशाः॥८२॥ तेषां च मध्यादुदितप्रदेशे विशोधिते मंडलकं विदध्यात् ॥ पौराणिकश्लोकपरीक्षितायाः संगृह्य गोर्गोमयमंतरिक्षात् ८३॥ अत्यंतजीर्णदेहाया वंध्यायाश्च विशेषतः ॥ रोगार्तनवमूताया न गोर्गोमयमहरेत् ॥ ८४ ॥ तस्मिन्विचित्रं विततं विदध्यात्पिष्टातकेनाष्टदलं सरोजम् ॥ संपूजयेत्तत्र सुराधिपादीक्रमेण सर्वानपि लोकपालान् ॥ ८५॥ ॥ टीका ॥ लिविधानं दिव्यमंत्रबलिबाधितदोषं दिव्यमंत्रेण प्रतिष्ठितो यः बलिः पूजा तेन वाधिता दोषा येन तत्तथा । पुनः कीदृशं साधिताखिलसमुद्यतकार्य साधितमखिलं समद्यतानां कार्य येन तत्तथेति॥८॥शून्येति॥एवमाद्यांइत्यादिका प्रदेशाः स्थानविशेषाः बलिप्रदानाय मता इष्टाः एतानेव दर्शयति। शून्याश्रयं शून्यं स्थलं कचिच्छन्यालयमित्यपिपाठः । रुद्रगृहं शंभुगृहं श्मशानं प्रेतगृहं चतुष्पथं यत्र चत्वारः पंथानो मिलंति वंध्यावनिः मुंडितभूमिः॥८२॥ तेषामिति ॥ तेषां स्थलानां मध्याद्विशोधिते उदितप्रदेशे पूर्वोदितं मंडलकं विदध्यात्। किं कृत्वांतरिक्षादाकाशादोगों मयं संगृह्या "नभोंतरिक्षं गगनमनंतं सुरवर्त्म खम्" इत्यमरः । कथंभूतायाः गोः पौराणिकश्लोकपरीक्षितायाः इदं तु पूर्वमेव व्याख्यातम् ॥८३॥ अत्यंतेति ॥ पूर्वमिदं व्याख्यातम् ॥८४॥ तस्मिन्निति॥ तस्मिन् मंडलके पिष्टातकेन विचित्र विविधवर्ण ॥ भाषा ॥ कहैहै ये बलिविधान कैसो है जो दिव्य मंत्रन करके बलिपूजा करें तो सबले दोष दर होंय और या करकेही जितने अपने कार्य उद्युक्त होय रहे होय वेभी होय ॥ १॥ शन्येति ॥ सूनो स्थल होय, शिवमंदिर होय, श्मशान होय, चौरायो होय, ऊखर पृथ्वी होय इनकं आदिलेके स्थान शिवाबलि देवेके योग्य है ॥ ८२॥ तेषामिति ॥ इनके मध्यमेंसं सोधो हुयो योग्य स्थान तामें पहले कह्यो जो मंडल ताय कर पहले गौको गोबर हाथके हाथमें लियो हुयो होय वाको मंडल बनानो ॥ ८३ ॥ अत्यंतति ॥ अत्यंतर्णि देह जाको होय वंध्या होय रोगली होय नवीन व्याई होय ऐसी गौको गोबर नहीं लेनो ॥an तस्मिनिति ॥ ता मंडलमें चूनको चित्रविचित्र लंबो चोडो अष्टदल कमल करै वा कम Aho ! Shrutgyanam Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१२ ) वसंतराजशाकुने - एकोनविंशतितमो वर्गः । मध्ये सुतैः सप्तभिरभ्युपेता शिवान्विता पिष्टमयी प्रयत्नात् ॥ पूज्या शिवादूत्यभिभक्तियोगात्प्रभूत पुष्पाक्षतधूपदीपैः ॥ ॥ ८६ ॥ साज्यगुडौदनमाषकुलत्थैर्यावकपूपलिकामिषम ॥ संभृतिरत्र नराशनमात्रा बुद्धिमता बलिकर्मणि कार्या ॥ ॥ ८७ ॥ प्राप्याष्टमीं वाथ चतुर्दशीं वा संमंत्र्य मंत्रेण च सप्तकृत्वः ॥ बलिं शिवाया निशि निश्चयेन दद्यान्मनुष्यो यदि भद्रमिच्छेत् ॥ ८८ ॥ ॥ टीका ॥ विततं विस्तीर्णमष्टदलं सरोजं कमलं विदध्यात् कुर्यात् । तत्र कमले क्रमेण सर्वा नपि सुराधिपादील्लोकपालान्संपूजयेत् ॥ ८५ ॥ मध्ये इति । सुगमार्थत्वान्न लिख्यते ॥ ८६ ॥ साज्येति । बुद्धिमता प्रेक्षावता पुंसेति शेषः । बलिकर्मणि संभृतिः कार्या । कैः साज्यगुडौदनमाषकुलत्यैः आज्येन घृतेन सहिताः साज्याः ते च ते गुडोदनमाषकुलत्थाश्चेति कर्मधारयः । तैः यावकपूपलिकामिषमद्यैः यावकपूपलिका माषचूर्णपूपिका । "स्याद्यावकस्तु कल्माषः" इत्यमरः । आमिषं मांस मद्यं मदिरा तेषां द्वंद्वः । कीदृशी संभृतिः नराशनमात्रा नराशनं पुरुषाशनमेव मात्रा प्रमाणं यस्याः सा । तथा यावता नरस्तृप्तो भवति तावन्मात्रेत्यर्थः ॥ ८७ ॥ प्राप्येति ।। मनुष्यः अष्टमीं चतुर्दशीं वा प्राप्य सप्तकृत्वः सप्तवारान्मन्त्रेण संमन्त्र्य निशि रात्रौ शिवायाः बलिं निश्चयेन दद्याद्यदि भद्रं कल्याणमिच्छेत् ॥ अथ मन्त्रः ॥ ॐ शिवे ज्वालामुखि बलिं गृहाण गृहाण हुं फट् स्वाहा ॥ इत्यामन्त्रणमन्त्रः ॥ ॐ शिवे शिवदूति भगवति चंडि इदमध्ये क ॥ भाषा ॥ लमें क्रमकरके संपूर्ण लोकपाल देवतानको पूजन करें ॥ ८५ ॥ मध्ये इति ॥ सातपुत्रनकरके सहित शृगाली ये चूनके बनाय बीचन में स्थापनकर भक्तिसूं बहुतसे पुष्प अक्षत धूप दीप इनकरके पूजन करै ॥ ८६ ॥ साज्येति ॥ बुद्धिमान् पुरुष बलिदान में घी गुड चावल कुत्था लापसी उडदके बडा मांस मदिरा इन सबनको प्रमाण जितनेमें मनुष्य तृप्त होक उतनो आहार करे || ८७ ॥ प्राच्येति ॥ मनुष्य अष्टमी वा चतुर्दशीकूं सातवार मंत्र अभिमन्त्रण करके रात्रिमें शिवाकी बलि निश्चयकरके देवे जो कल्याणकी इच्छा करे तार्क या रीतकर करनो योग्य है ॥ अथ मन्त्रः ॥ ॐ शिवे ज्वालामुखि बलिं गृहाणगृहाण हुं फट् स्वाहा ॥ इत्यामन्त्रणमन्त्रः ॥ ॐ शिवे शिवदूति भगवति चंडि इदमर्थ्य बाल ली Aho! Shrutgyanam Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवारुते बलिविधानप्रकरणम् । (५१३ ) ताबूलवस्त्राशनदक्षिणाभिनैमित्तिकं शाकुनशास्त्रदक्षम् ॥ प्रपूजयेत्तत्र भवत्यभीष्टमाचार्यवर्ये परितोषिते हि ॥ ८९ ॥ आश्लेषिकावतिकृतांतरुद्रधिष्ण्यानि पूर्वात्रितयेन साकम् ॥ ज्येष्ठां च संत्यज्य विरौति येह श्रेयस्करी जंबुकगेहिदीसा॥ ॥९०॥ हितैषिणी सर्वसमीहितेषु देवी भवानीभुवि फेरवासु॥ ॥ टीका ॥ .. . लिली अलिलीलासमन्वितं नमार्चितं गृहाण गृहाण आगच्छागच्छ वायुवेगेन शुभं कुरु कुरु स्वाहा।।इन्ययमंत्रावलिप्रदानाय मंत्रान्तरम्। ॐ नमो भगवति इमं वलिं गृहाण गृहाण इमं बलिं गंधधूपपुष्पादिकं दह दह पच पच घोररूपिणि भो भगवति शिवदूति पिवत स्वाहा॥“एतस्य मंत्रद्वितयस्य मध्यादेकेन केनाप्यभिमत्रणीयः। बलिः शिवायाः मुमहाप्रभावं पृथक्पृथङ्मंत्रयुगं यदेतत् " वर्तते ॥ ८८ ॥ तांबूलेति । तत्र तस्मिन्प्रदशे नैमित्तिकं शाकुनाचार्य प्रपूजयेत् । कैः तांबूलवस्त्रा. शनदक्षिणामिः तांबूलं च वस्त्रं च अशनं च दक्षिणा च एतेषां द्वंद्वः । तैः किंविशिष्टं नैमित्तिकं शाकुनशास्त्रदक्षम् । शाकुनशास्त्रवेत्तारमित्यर्थः । हि यस्मात्कारणादाचार्यवयें परितोषिते अभीष्टं मनोभिलषितम् ॥ ८९॥ आश्लेषिकेति ॥ या जंबुकगेहिनी शृगाली अश्लेषाकृत्तिकाभरण्यााधिष्ण्यानि पूर्वात्रितयेन साकं पूर्धा फाल्गुनी पूर्वाषाढा पूर्वाभाद्रपदेति नक्षत्रात्रिकेणसह ज्येष्ठां'च संत्यज्य विरौतिसाबु करोहिनी श्रेयस्करी स्यात्॥९०॥ हितैषिणीति॥भुवि पृथिव्यां देवी भवानी वर्तते । कीदृशी सर्वेषु समीहितेषु हितैषिणी हितवांछिका पुनः कीदृशी कृपया सदैव फेर ॥ भाषा॥ अलिलीलासमन्वितं नमर्चितं गृहाणगृहाणआगच्छआगच्छ वायुवेगेन शुभं कुरु कुरु स्वाहा ॥ इत्यर्यमंत्रः ।। इन मंत्रनकरके बलिदान अर्घ्य देनो ॥ ८८ ॥ तांबूलेति ॥ वाई स्थानमें शकुनशास्त्रके वेत्ता शकुनमें मुख्य आचार्य होय उनको तांबूल वस्त्र भोजन दक्षिणा इनकरके पूजनकर आचार्य के प्रसन्नहुयेसूं मनोवांछित पूर्ण होयह ॥ ९ ॥ आश्लेषिकेति ॥ जो शृगाली अश्लेषा, कृत्तिका, भरणी, आर्द्रा, रोहिणी, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा और ज्येष्ठा नक्षत्रकू त्याग करके नक्षत्रनमें बोले तो कल्याण करै ॥९० ॥ हितैषिणीति ॥ या पृथ्वीमें हितवांछाकी देबवाली कृपाकरके शिवा जो Aho! Shrutgyanam Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१४) वसंतराजशाकुने एकोनविंशतितमो वर्गः। कृताधिवासा कृपया सदैव शिवारुते तेन यतेत विद्वान् ॥११॥ इति वसंतराजशा शिवारुते बलिविधानप्र० षष्ठम् ॥६॥ अथ प्रकरणोदेशो वृत्तसंख्या च कथ्यते ॥ वृत्तैर्दिक्कमयामाख्यमेकादशभिरादिमम् ॥ १ ॥ द्वितीयं नवभिवृत्तैः स्यादिक्पंचकनामकम् ॥ त्रिगुणैः पंचभित्तैस्तृतीयं च स्वराष्टकम् ॥ २ ॥ अष्टाविंशतिवृत्तं च तुर्य यात्राभिधं स्मृतम् ॥ पंचमं स्थानकाख्यं च वृत्तैः षोडशभिर्भवेत् ॥३॥ बलिप्रकरणं षष्ठं वृत्तद्वादशकं स्मृतम् ॥ एवं प्रकरणः पतिवत्तानां नवतिः स्मृता॥४॥ इति वसंतराजशाकुने एकोनविंशतितमो वर्गः॥ १९॥ ॥ टीका॥ वासु कृताधिवासा तेन कारणेन शिवारुते विद्वान्यतेत यत्नं कुर्यात् ॥ ९१ ॥ इति वसंतराजशाकुनटीकायां शिवारुते बलिविधानप्रकरणं षष्ठम् ॥६॥ अथेति ॥ अथ बलिविधानकथनानंतरं प्रकरणोद्देशो वृत्तसंख्या च कथ्यते । तब एकादशभिवृत्तः आदिमं प्रथमं दिक्कमयामाख्यं प्रकरणं भवति ॥२॥ द्विती. यमिति ॥ दिक्पंचनामकं द्वितीयं प्रकरणं नवभित्तैः स्यात् । स्वराष्टकं तृतीयं च त्रिगुणैः पंचभिः पंचदशभिर्वृत्तेः स्यात् ॥ २ ॥ अष्टाविंशतीति ॥ तुर्य चतुर्थ यात्राभिधं प्रकरणम् अष्टाविंशतिवृत्तं स्मृतम् । पंचमं स्था. नकाख्यं च प्रकरणं षोडशभिवृत्तैभवेत् ॥३॥ बलीति ॥ षष्ठं बलिप्रकरणं वृत्त. ॥भाषा॥ शृगाली तामे निवासकररही ऐसी भवानी देवी वर्तेहै ताकारणकरके विद्वान् पुरुष शिवाके शब्दमें यत्न करेहे ॥ ९१ ॥ . इति षसंतराजशाकुने भाषाटीकायां शिवारुते लिविधानप्रकरणं षष्ठम् ॥ ६ ॥ अथेति ॥ बलिविधान कहेके अनंतर अब प्रकरण और श्लोकनकी संख्या कहें हैं तामें ग्या. गह इलोकनकरके पहलो दिक्कमयामनाम प्रकरण है ॥ १ ॥ द्वितीयमिति ॥ दिक्पचक नाम दसरो प्रकरण नौ श्लोकनकरके हैं. तीसरी स्वराष्टक नाम प्रकरण तामें पंद्रह श्लोक हैं ॥२॥ अधाविंशतीति ॥ चोथी यात्रा नाम प्रकरण तामें अट्ठाईस श्लोक हैं. पांचमो स्थानकना- मप्रकरण तामें सोलह श्लोक हैं ॥ ३ ॥ बलीति ॥ छठो बलिविधान नाम प्रकरण Aho I Shrutgyanam Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रप्रभाववर्णनम् । (५१५) यदत्र वाच्यं सकलं यदुक्तं शास्त्रप्रभावं त्वधुनाभिदध्मः ॥ प्रभावहीनं जनता जहाति महाप्रभावं तु यदभ्युपैति ॥१॥ यदस्ति किंचिजगतीह वस्तु स्मृतं श्रुतं स्पृष्टमथापि दृष्टम् ॥ स्वप्नांतराद्यत्प्रतिपादितं तत्फलप्रदत्वाच्छकुनं वदंति ॥२॥ ॥टीका ॥ द्वादशकं वृत्तानां द्वादशं यत्र तत्तथा स्मृतं कथितम् । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण षडभिः प्रकरणैः वृत्तानां नवतिः स्मृता प्रोक्ता ॥४॥ ॥ वसंतराजशाकुने सदागमार्थशोभने । समस्तसत्यकौतुके विचारितं शिषा. रुतम् ॥ इति श्रीपादशाहश्रीअकबरजलालुद्दीनसूर्यसहस्रनामाध्यापकश्रीशर्बुजयतीर्थकरमोचनाद्यनेकसुकृतविधायकमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगणिविरचितायां तच्छिण्याष्टोत्तरशतावधानसाधनप्रमुदितपादशाहश्रीअकबरजलालुद्दीनप्रदत्तषुश्युहमा परा. भिधानमहोपाध्यायश्रीसिद्धिचंद्रगणिना विचार्य शोधितायां श्रीवसंतराजटीकाया. मेकोनविंशतितमो वर्गः ॥१९॥ यदिति ॥ यदत्र अस्मिन् ग्रंथे वाच्यं वक्तव्यं तत्सकलं समस्तमुक्तं कथितम् । अधुना शास्त्रमभावं ग्रंथस्य माहात्म्यं वयं अभिदध्मः बमः । यद्यस्मात्कारणालमा वहीनं माहाल्यवर्जितं जनता जननां समूहो जहाति त्यजति । महाप्रभा शालं चाभ्युपैति अंगी कुरुते ॥१॥ यदिति ॥ इह जगति लोके यत्किचित् स्मृतं चितितं श्रुतं श्रवणविषयीकृतं स्पृष्टं स्पर्शविषयीकृतं दृष्टं दृग्गोचरीकृतं स्वमांतराद्यत्मति. ॥ भाषा॥ 'तामें बारह श्लोक हैं, या प्रकार के प्रकरण करके नव्वे श्लोक जामें एसों ये उगनीसमो वर्ग कह्यो है ॥ ४ ॥ इति श्रीमज्जटाशंकरसदनकुवलयालयविभावरीनागरीरसिकज्योतिर्विच्छोश्री. धरंविरचितायां वसंतराजभाषाटोकायां शिवारुतं नाम एकोनविंशतितमो वर्गः१९॥ यदिति ॥ या ग्रंथमें जो कहवेके योग्य है सो समस्त कह्यो. अब शास्त्रको प्रभाव, ग्रंथको माहात्म्य, हम कहेहैं. या कारणते के प्रभावहीन और माहात्म्यहीन शास्त्रकू जनसमूह त्यागकर देहैं. जो शास्त्र महान् प्रभाक्वान् होय जाको माहात्म्य बहुत होय वाकू अंगीकार करें ॥ १ ॥ यदिति ॥ या लोकमें जो कछु वस्तु चिंतमन करवेमें आवे है, जो अक्णमें आवे है, जो स्पर्शमें आवेहै, जो दीखवेमें आवे है, जो स्वप्नांतरतूं प्रतिपादन किया जाय है वो सब Aho! Shrutgyanan Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१६) वसंतराजशाकुने-विंशतितमो वर्गः । पुरांधकेभासुरसूदनादियात्रास्वपश्यद्भगवान्निजार्थे ॥ जिगीपवेऽमूञ्छकुनानशेषानुपादिशत्तारकवैरिणे च ॥ ३ ॥ ददौ तथा जंभवधोयताय गोत्रच्छिदे चित्रशिखंडिजन्मा ॥ सुधापहारोद्यमिने पुरामी दत्ताःसुपर्णाय च कश्यपेन ॥ ४॥ अतींद्रियज्ञानमिदं मुनींद्रविज्ञाय शिष्यार्थितया प्रणीतम् ॥ आप्तोपदेशात्तदवाप्य सम्यगस्माभिरभ्यस्य यथावदुक्तम् ॥५॥ ॥ टीका ॥ पादितं तत्फलपदत्वात्सर्व शकुनं वदति ॥२॥ पुरेति ॥ पुरांधकेभामुरसूदनादियात्रासु भगवानीश्वरः निजार्थे आत्मकृते शकुनमपश्यत् । पुमर्भगवांस्तारकवैरिणे स्कंदाय अमूञ्छकुनानशेषानुपादिशदुपदेशं कृतवान् । कीदृशाय तारकवैरिणे जिगी. षवे जेतुमिच्छतीति जिगीषुस्तस्मै जिगीषवे ॥ ३ ॥ ददाविति ॥ तथा चित्रशिखंडिजन्मा स्वामिकार्तिकेयो जंभवधोद्यताय गोत्रभिदे इन्द्राय ददौ । “सूत्रामागोत्र. भिवजी वासवोत्रहा वृषा" इत्यमरः। ततःइंद्रः कालांतरेण कश्यपाय दत्तवान् । कश्यपेन पुनः पुरा अमी शकुनाः सुपर्णाय गरुडाय दत्ताः। किंविशिष्टाय मुधापहारोद्यमिने सुधा अमृतं तस्यापहारः अपहरणं तत्र उद्यमी उद्यमस्तिस्मै । एतकथानकं ग्रंथांतरादवसेयम्।"नागांतको विष्णुरथः सुपर्णः पन्नगाशनः" इत्यमरः॥ ॥४॥॥ अतींद्रियेति ॥ अतींद्रियज्ञानमिदमिंद्रियनिरपेक्षं ज्ञातम् इदं मुनीदैः शिप्यार्थितया विनयकार्यार्थितया विज्ञाय ज्ञात्वा प्रणीतं प्रतिपादितम् । अस्माभिरपि आप्तोपदेशात्तज्ज्ञानमवाप्य ज्ञात्वा सम्यग्यथा भवति तथा अभ्यस्य अभ्यासं कृत्वा ॥ भाषा॥ फल देवेवारो है, यातें संपूर्ण शकुन कहेंहैं ॥ २ ॥ पुरेति ॥ पहले शिवजीने अंधकासुरकू आदि ले दैत्यनके वधके लिये आप शकुन देखते हुये. फिर शिवाजी तारकासुरके वैरी जयकी इच्छा कर रहे ऐसे स्वामिकार्तिकजीके अर्थ इन शकुननकू उपदेश करते हुये ॥३॥ ददाविति ॥ स्वामिकार्तिकजी जंभासुरके वध करवेकू उद्युक्त होय रह्यो इंद्र ताकू देते हुये. ता पीछे इंद्र कालांतर कश्यपजीके अर्थ देतो हुयो. और कश्यपजीने पूर्व ये शकुन अमृतके हरवेमें उद्युक्त ऐसे गरुडके अर्थ दीने ॥ ४ ॥ अतींद्रियेति ॥ मुनींद्रने शिष्यनकी प्रार्थनाकर ये अप्रत्यक्ष ज्ञान ताकू जानकरके प्रतिपादन करते हुरे. हमनेभी उपदेशसं ये ज्ञान जानकरके फिर अभ्यासकरके जैसो Aho ! Shrutgyanam Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखप्रभाववर्णनम् । माहेश्वरं शाकुनशास्त्रसारं सारं समस्तं सहदेवशास्त्रात् ॥ सारं च वाचस्पतिगंर्गशुक्रभृग्वादिशास्त्रादिह संगृहीतम् ॥६॥ न्यूनाधिकत्वं शकुनेषु मध्यात्कस्यापि केनापि न भावनीयम् ॥ महेश्वरादिप्रतिपादितत्वात्सर्वेऽपि सत्याःशकुना यतोऽमी॥ वेदाः प्रमाणं स्मृतयः प्रमाणं लोके पुराणानि यथा प्रमाणम् ॥ विशुद्धबोधाव्यभिचारिभावात्तथा प्रमाणं शकुनागमोऽयम् ॥८॥अपायरक्षासदुपायवृत्ती स्यांतां सदा शिक्षितशाकुनस्य ॥ स्याचैहिकासुष्मिकसारभूता त्रिवर्गवृद्धिः ॥ टीका ॥ यथावदुक्तं यथा गृहीतं तेन प्रकारेण प्रतिपादितमियर्थः। "आप्तप्रत्यायितौ समौ" इत्यमरः॥५॥ माहेश्वरमिति ॥ इह शास्त्रे माहेश्वरंमहेश्वरेण प्रणीतंशाकुनशास्त्रं सारं तथा सहदेवशास्त्रात्समस्तंसारं तथा वाचस्पतिर्गशुक्रभृग्वादयो मुनयःतैः प्रणीता च्छास्त्रात्सारं तत्वं संगृहीतमित्यर्थः ॥ ६ ॥ न्यूनाधिकत्वमिति ॥ केनापि पुंसेति शेषः। शकुनेषुमध्यात्कस्यापि शकुनस्य न्यूनाधिकत्वं न भावनीयंन विचारणीयम् । महेश्वरादिप्रतिपादितत्वान्महेश्वरोमहादेवः आदौ येषां ते महेश्वरसहदेववाचस्पतिगर्गशुक्रभृग्वादयस्तैःप्रतिपादितत्वात्प्रोक्तत्वात्सर्वेपि अमी शकुनाः सत्याः अविसं. बादिन इत्यर्थः ॥ ७ ॥ वेदा इति ॥ यथा लोके वेदाः प्रमाणं यथा अष्टादश स्मृतयः प्रमाणं यथा पुराणानि अष्टादशसंख्याकानि प्रमाणं विशुद्भवोधाव्यभिचारिभावात् विशुद्धः स्वस्थो यो बोधो ज्ञानं तस्मिन्नव्यभिचारित्वादविसंवादित्वादि. ति यावत् ।तथायं शकुनागमः शकुनसिद्धांतोऽपि प्रमाणम्॥८॥ अपायति।।शिक्षि. तशाकुनस्य पुंसः सदा अपायरक्षासदुपायवृत्ती स्यातां भवेतां अपायः कष्टंतस्माद ॥ भाषा ॥ कह्योहै, जैसो ग्रहण कियो ताप्रकार कर प्रतिपादनीकयोहै ॥ ५॥ माहेश्वरमिति ॥ याशास्त्र में महादेवजीने कह्यो जो शकुनशास्त्रको सार, और सहदेवके शास्त्रतें समस्त सार, तैसेही बृहस्पति, गर्ग, शुक्र, भृग्वादिक मुनि इनमें करे जे शास्त्र, उनते ये सारग्रहणकियोहै ॥६॥ न्यूनाधिकत्वमिति ॥ शिवजीकू आदिले सहदेव, बृहस्पति, गर्ग, शुक्र, भृग्वादिक इनने कहे हैं यातें शकुननके मध्यमेंसू कोई शकुनभी न्यून अधिक नहीं विचारणी योग्य है संपूर्णही ये शकुन सत्यहैं ॥७॥ वेदा इति ॥ लोकमें जैसे वेदप्रमाणहैं, जैसे अठारे स्मती प्र. माण हैं, जैसे अठारे पुराण प्रमाण हैं, तैसेही ये शकुनशास्त्र शकुनांसिद्धांतप्रमाणहैं ॥ ८ ॥ अपायेति ॥ शकुनशास्त्रकू जाने तापुरुषके सदा कष्टसू रक्षा सुन्दरउपाय Aho ! Shrutgyanam Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१८) वसंतराजशाकुने-विंशतितमो वर्गः । शकुनप्रभावात् ॥ ९ ॥ आसीदिदं चास्ति भविष्यतीति प्रश्नत्रयं शाकुनिको विभिन्नम् ॥ विधाय यो वेत्ति फलानि तेषां त्रिकालदर्शी जगतीह स स्यात् ॥ १०॥ यस्यालये तिष्ठति शास्त्रमेतच्छ्रेयस्करं दुष्कृतनाशनं च ॥ विलेखितं दु:खदरिद्रहारि निकेतनात्तस्य बिभेति मृत्युः ॥ ११॥ दारियविद्रावणनामधेयमधीयते यत्र गृहे सदैव ॥ हठेन हत्वा विपदं वराकी निराकुलाः तिष्ठति तत्र संपत् ॥ १२॥ ॥ टीका ॥ क्षात्राणंसच्छोभनोपायवृत्तिःआजीविकाएतयोदः।तथाऐहिकामुष्मिकसारभूतात् इहलोकपरलोकसारभूताच्छकुनप्रभावात्रिवर्गवृद्धिः वा सिद्धिः स्यात् । तत्र त्रिवर्गः धर्मार्थकामाः तेषां सिद्धि प्राप्तिः स्यादित्यर्थः॥९॥ आसीदिति ॥ यः शाकुनिका इदमासीत्पूर्वमभूतइदमस्ति संप्रति वर्तते । इदमग्रे भविष्यात संपत्स्यते । इतिप्रश्न त्रयं विभिन्न विभक्तं विधाय कृत्वा तेषां फलानि यो वेत्ति जानाति स इह जगति त्रिकालदर्शीभवति। त्रिकालमतीतवर्तमानभविष्यल्लक्षणंकालत्रयंपश्यतिसत्रिकाल दर्शीत्यर्थः ॥ १०॥ यस्यति ॥ यस्यालये यस्य गृहे एतच्छास्त्रं विलखितं तिष्ठति आस्ते तस्य निकेतनाद्भवनान्मृत्युर्यमो बिभेति । कीदृशमेतच्छास्त्रं श्रेयस्करं कल्याणकारकम् । पुनः कीदृशं दुष्कृतनाशनं पापापहारकम् । पुनः कीदृशं दुःखदरिद्रहारि दुःखं च दरिद्रं च अनयोईन्द्वः । ते हरतीत्येवंशीलम् । पुनः कीदृशं विले. खितं लिखितमित्यर्थः ॥ ११ ॥ दारिद्येति ॥ दारिद्यविद्रावणनामधेयमिदं शास्त्रं यत्र गृहे सदैव अधीयते पठ्यते तत्र वराकी शोचनीयामापदं हठेन हत्या संपनिराकुला निश्चला तिष्ठति । “वराकः शोचनीयः स्यात्" इति विश्वः॥१२॥ ॥भाषा॥ आजीविका ये होय. या लोक परलोकके सारभूत शकुनको प्रभाव तातें धर्म अर्थ, काम इनकी वृद्धि होय वा प्राप्ति होय ॥ ९ ॥ आसीदिति ॥ जो शकुनो ये पहले होतो हुयो ये अब वर्ते है. ये अगाडी होय गो. इन तीनो प्रश्ननकं न्यारे २ भेद करके इनके फल जो जानै वो या पृथ्वीमें त्रिकालदर्शी जाननो ॥ १० ॥ यस्येति ॥ जा पुरुषके घरमें कल्याणका करबेवारो पापनको दूर करबेवालो दुःख दारिद्र्यको हरवेवालो. और लिखो हुयो होय ऐसो ये शकुनशास्त्र होय वाके स्थानतें यमराज भय मानो करै ॥ ११ ॥ दारिद्योति ।। दारिद्र्यविद्रावणनाम ये ग्रंथ है. जो याको अध्ययन करै जाके घरमें सदा स्थित रहै ता घरमें शोकके योग्य आपदाकू हठसूं दूर करके निश्चल संपदा करै ॥ १२ ॥ Aho !'Shrutgyanam .. Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रप्रभाववर्णनन् । (५१९ ) प्रतिष्ठिते तिष्ठति लिप्सतेऽर्थ संगच्छते गच्छति युद्धयते च ॥ इत्यादि यद्यच्छकुनेन कुर्यात्ततस्ततो न स्खलति स्वकार्यात्१३ उत्साहाध्यवसायधैर्यजनकं राज्याप्तिसंसूचकं युद्धद्यूतविवाददिव्यजयदं लक्ष्मीप्रदं क्षेमदम् ॥ यात्रामन्त्ररसायनौषधवि . ॥टीका ॥ प्रतिष्ठिते इति ॥ यः पुमान्प्रतिष्ठिते स्थिरतां प्राप्ते शकुनै तिष्ठति तथा सस्पृहे शकुने अर्थ लिप्सते । तथा संगच्छते गमनायोद्यते शकुने गच्छति इतस्ततः प्रयाति । तथा युद्धोद्यते शकुने युद्ध्यते युद्धं करोति इत्यादि पूर्वोक्तं यद्यवस्तु शकुनेन समं कुर्यात्स पुमांस्ततस्ततः स्वकार्यान्न स्खलति न भ्रंशं प्रामोतीत्यर्थः ॥ १३ ॥ उत्साहेति ॥ मया महाशाकुने प्रकृष्टशकुनशास्त्रं प्रोक्तं कीदृशमुत्साहाध्यवसायधैर्यजनकं शुभशकुनावलोकनेन मनसः उत्साहःप्रमोदोभवति। ततःधैर्यस्यादित्यर्थः। पुनः कीदृशं राज्याप्तिसंसूचकं तथाविधशकुनावलोकनेन दरिद्रोपद्रुतस्यापि राज्यप्राप्तिः संसूच्यते । पुनः किविशिष्टम् युद्धद्यूतविवाददिव्यजयदं युद्धं संपरायःद्यूतं दुरोदरं विवादः परस्परं वाग्व्यापारः दिव्यममितप्तधृतादौ . हस्तप्रक्षेपादिकमेतेषां द्वंद्वः। एतेषु स्थानेषु जयदं जयप्रदम् । यद्वा दिव्यजयदमद्धतजयप्रदमित्यर्थः । पुनः कीदृशं लक्ष्मीप्रदं द्रव्यप्रदम् । पुनःकिविशिष्टंक्षेमदंकल्याणप्रदंशकुनानुयायि. नां सर्वदा कल्याणकारकम् । पुनः कीदृशं यात्रामन्त्ररसायनौषधविधौ सिद्धिप्रदं तत्र यात्रा अन्यत्र जनपदादौ गमनं मन्त्री रहस्यालोचःअथवा मन्त्री देवताराधनाक्षरात्मक प्रसिद्धः रसायनं पारदक्रिया औषधमामयोपशमकद्रव्यमेतेषां वंद्वः। तेषा विधिविधानं तस्मिन्सिद्धिप्रदं कार्यनिष्पत्तिहेतुः सिद्धिदायकं सच्छकुनैरेतेषां प्रारंभे अवश्यं सिद्धिः स्यात् । पुनर्विशिनष्टि प्राग्जन्मार्जितकर्मपाकपिशुनं पूर्वजन्मनि ॥ भाषा ॥ प्रतिष्ठिते इति ॥ जो पुरुष स्थिरभावकू प्राप्त होय शकुन स्थित होय, वांछासहित शकुन होय, गममके लिये उद्युक्त होय रह्यो होय, युद्धके लिये उद्युक्त होय, वा युद्ध करै इनकं आदिले जोजो वस्तु कार्य शकुनसूही करे तो वो पुरुष ता ता कार्यते भ्रष्ट नहीं होय ॥ १३ ॥ उत्साहति ॥ चित्त• उत्साह प्रमोद धैर्य इनकू प्रगट करवेवालो राज्यकी प्राप्तिकी सूचनका करै शकुनके देखवे करके दरिद्री होय वाकू राज्यकी प्राप्तिको कहवेवारो, और युद्ध, जुआ, विबाद, दिव्यकर्म इन स्थाननमें जयको देवेवारो. अथवा अद्भुत जय देवै. Aho ! Shrutgyanam Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२०) वसंतराजशाकुने-विंशतितमो वर्गः। धौ सिद्धिप्रसिद्धयावहं प्राग्जन्मार्जितकर्मपाकपिशुनं प्रोक्तं महाशाकुनम् ॥ १४॥ इति श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीणश्रीवसंतराजविरचिते शकुनशास्त्रे शास्त्रप्रशस्तिकथनं नाम विंशः सर्गः ॥२०॥ ॥राधापतिः प्रीयताम् ॥ ॥ टीका ॥ यदर्जितं शुभाशुभं कर्म तस्य यः पाकः सुखदुःखानुभवः तस्य पिशुनं मूचकं स्तोकैः एव दिनर्मम सुखं दुःखं भविष्यतीति शकुनाज्ज्ञानं स्यादित्यर्थः ॥ १४॥ वसंतराजशाकुने समस्तसत्यकौतुके । सदागमार्थशोभनैः कृतं प्रभावकीर्तनम् ॥ ॥१॥ पूर्वव्याख्यातविशेषणविशिष्टे वसंतराजशाकुने ग्रंथस्य प्रभावकीर्तनं कृतमिति विशतितमो वर्गः ॥२०॥ इति श्रीपादशाहश्रीअकब्बरजलालुद्दीनसूर्यसहस्रनामाध्यापक श्रीशत्रुजयतीर्थकरमोचनाद्यनेकसुकृतविधायाकमहोपाध्यायश्रीभानुचंद्रगाणिविरचितायां तच्छिष्याष्टोत्तरशतावधानसाधनप्रमुदितपादशाहश्रीअकब्बरजलालुद्दीनप्रदत्तषुशुहमापराभिधानमहोपाध्यायश्रीसिद्धिचंद्रगणिना विचार्य शोधितायां वसंतराजटीकायां विंशतितमो वर्गः ॥ २० ॥ समाप्तोऽयं ग्रंथः ॥ श्रीर्जयतु ॥ ॥ भाषा॥ और लक्ष्मीको देबेवारो कल्याणको करवेवारो यात्रा मन्त्र रसायन औषध रोगकू दूर करवालो. द्रव्य इनकी बिधिमें सिद्धिको करवेवालो जो उत्तम शकुन देखकर प्रारंभ करे तो अवश्य सिद्धि होया पूर्व जन्ममें जो संचय कियो शुभ अशुभ कर्मको फल सुखदुःखको भोगनो ताको सूचन करवेवालो ऐसो महाशाकुनमें श्रेष्ठ शकुनशास्त्र सो मैंने कह्यो है ॥ १४ ॥ इति श्रीवसंतराजभाषाव्याख्यायां दध्याख्यकुलोत्पन्नजटाशंकरात्मजश्रीधरकतायां मनोरंजिन्यभिधायां शास्त्रप्रभाववर्णनं नाम विंशतितमो वर्गः ॥ २० ॥ पुस्तक मिलनेका ठिकाना खेमराज श्रीकृष्णदास "श्रीवेङ्कटेश्वर" स्टीम प्रेस-मुम्बई. Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः॥ स्वप्नाध्यायः। -CONSTRESOR प्रथमः कल्लोलः १. ॥ श्रीगणेशायनमः। श्रीनृसिंह रमानाथं गोकुलाधीश्वरं हरिम् ॥ वन्दे चराचरं विश्वं यस्य स्वप्नायितं भवेत् ॥ १॥ स्व प्राध्यायं प्रवक्ष्यामि मुह्यन्ते यत्र सूरयः ॥ नानामतानि संचिंत्य यथाबुद्धिबलोदयम् ॥ २ ॥ स्वप्नं चतुर्विधं प्रोक्तं दैविकं कार्यसूचकम् ॥द्वितीयं तु शुभस्वप्नं तृतीयमशुभं तथा ॥३॥ मिश्रं तुरीयमाख्यातं मुनिपुङ्गवकोटिभिः ॥ तत्रादो दैविकस्वप्ने मंत्रसाधनमुच्यते ॥ ४॥ तदादौ कालयामानां विचारं कुर्महे वयम्॥ तत्र च प्रथमे यामे स्वप्नं वर्षेण सिध्यति॥५॥ द्वितीये मासषड्वेन षभिः पक्षैस्तृतीयके ॥ चतुर्थे त्वेकमासेन प्रत्यूषे तद्दिनेन च ॥ ६॥ गोरेणूच्छुरणे चाथ तत्कालं जायते फलम् ॥ स्वप्नं दृष्टं निशि प्रातर्गुरवे विनिवे गौरि गिरा गणपति सुमार, शंभुचरण शिरनाय । . जगहितः स्वमाध्यायकी, भाषा लिखहुँ बनाय ॥ श्रीनृसिंह रमानाथ गोकुलके अधिपति भगवान्को प्रणाम करता हूं कि, यह चर अचर संवार जिनकी सत्तासे स्वप्नायित होरहाहै ॥ १ ॥ जिसमें बड़े बडे कवि मोहित होजातेहैं, उस स्वप्नाध्यायको कहता हूं और उसमें बुद्धिफेअनुसार अनेकोंमतोंका निर्णय करूंगा ॥ २ ॥ चार प्रकारके स्वप्न होतेहैं, दैविक जो कार्यकी सूचना देनेवाले, दूसरे शुभस्वप्न, तीसरे अशुभ ।। ॥ ३ ॥ और चौथे शुभ अशुभ मिले हुए होतेहैं । ऐसा अनेकमुनियोंका मतहै, उसमें पहले दैविक स्वप्नमें मंत्रका साधन कहतेहैं ॥ ४ ॥ उसमें पहलेकाल और पहरका विचार करते हैं रात्रिके पहले पहरमें देखाहुआ स्वप्न एकवर्षमें फल करताहे ॥ ५ ॥ दूसरे पहरमें देखाहुमा छः महीनेमें फल करताहै । तीसरे पहरमें देखाहुआ तीनमहीनमें । चौथे पहरमें देखाहुआ एकमहीनेमें और प्रभातमें देखाहुआ उसीदिन फल करताहै ॥ ६ ॥ और गौवोंके चरनेको जातेसमय देखाहुआ स्वप्न तत्काल फल करताहे । रात्रीका देखाहुआ देविक स्वप्न प्रातसमय गुरुसे Aho ! Shrutgyanam Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वनाध्याय। दयेत् ॥७॥ तमन्तरेण मन्त्रज्ञः स्वयं स्वप्नं विचारयेत् ॥ यानि कृत्यानि भावीनि ज्ञानगम्यानि तानि तु ॥ ८॥ आत्मज्ञानाप्तये तस्माद्यतितव्यं नरोत्तमैः ॥ कर्मभिर्देवसेवाभिः कामाद्यरिगणक्षयात् ॥ ९॥ चिकीर्षुर्देवतोपास्तिमादौ भावि विचिन्तयेत् ॥ स्नानदानादिकं कृत्वा स्मृत्वा हरि पदाम्बुजम् ॥ १० ॥शयीत कुशशय्यायां प्रार्थयेवृषभध्व जम् ॥ तत्रादौस्वप्नप्रदाशिवमन्त्रः ॥ (ॐ हिलि हिलि शूलपाणये स्वाहा ॥ १ ॥) इमं मन्त्रम् १०८ अष्टोत्तरशतवारं जपित्वा कृताञ्जलिः संप्रार्थयेत् ॥ ॐ भगन्देवदेवेश शूलभृ द वृषभध्वज ॥ इष्टानिष्टे समाचक्ष्व मम सुप्तस्य शाश्वत ॥ ११॥ नमोऽजाय त्रिणेत्राय पिङ्गलाय महात्मने ॥ वामाय विश्वरूपाय स्वनाधिपतये नमः ॥ १२॥ स्वप्ने कथय मे तथ्यं सर्वकार्येष्वशेषतः॥ क्रियासिद्धि विधास्यामि त्वत्प्रसादान्महेश्वर ॥ १३॥ ॐ नमः सकललोकाय विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ विश्वाय विश्वरूपाय स्वप्नाधिपतये कहै ॥ ७ ॥ यदि गुरु नहों तो मंत्रका जाननेवाला स्वयंही स्वप्नको विचारै जो वातें होने वालीहैं वह ज्ञानसे जानलीजातीहैं ॥ ८ ॥ इससे बुद्धिमानोंको आत्मज्ञानकेलिये यत्नकरना चाहिये. कर्म और देवसेवासे कामादि शत्रुनाश होते ॥ ९ ॥ स्नानदानकरके नारायणके चरणारविन्द स्मरणकर दैविक स्वप्नो भाविफलको विचारके निमित्त शंकरकी प्रतिमाके समीप ॥ ॥ १० ॥ कुशाकी शय्यापर शयन करके शंकरसे प्रार्थना करे कि मेरा अमुक कार्य करना सिद्ध होगा। वह स्वप्नका देनेवाला शिव मंत्र नीचे लिखाहै ( ॐहिालेहिलिशूलपाणयेस्वाहा ) यह मंत्र १०८ बार जपकर हाथ जोडकर शंकरकी प्रार्थना करे ॥ ॐ हेभगवन् हे देवदेवेश हेशूलधारी. हेवृषभध्वज. मैं सोताहूं जो कुछ इस कार्यमें भला बुरा हो सो कहिये हेदेव ! मैं आपकी शरण हूं ॥ ११ ॥ आप अजन्मा तीन नेत्र पिङ्गल महात्माहो ऐसे काम विश्वरूप स्वप्नके अधिपति आपको नमस्कारहै ।। १२ । आप सबकार्यकी होने वाली बात स्वप्नमें सत्य सत्य मुझसे कहिये हेमहेश्वर आपकी कृपासे मैं क्रियासिद्धिको करूंगा ॥ १३ ॥ ॐ नमः इनि-सबलोकके पालक समर्थ विष्णु और विश्वरूप सर्वरूपस्वप्नके अधिपति आपको Aho! Shrutgyanam Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत। नमः ॥१४॥ इति मन्त्रान्सकृन्जपित्वा नत्वा च प्राक्छिराः स्वपेत् ॥ दक्षिणं पार्श्वमानम्य स्वप्नं चाथ परीक्षयेत् ॥१५॥ अथापरः स्वप्नप्रदः श्रीरुद्रमन्त्रः ॥ (ॐ नमो भगवते रुद्रा य मम कर्णरन्ध्रे प्रविश्य अतीतानागतवर्तमानं सत्यंब्रूहिब्रू हि.स्वाहा ॥२॥) इमं मंत्रं समुच्चार्यायुतवारं दशांशतः ॥ तिलान्हुत्वा सिद्धमन्त्रो रात्रौ दर्भासने शुचिः॥१६॥जस्वा वामं पाचमधः कृत्वा धृतमनोरथः ॥ शयीत स्वप्न आगत्य देवः सर्व ब्रवीति तम् ॥ १७॥ अथापरः स्वप्नप्रदो गणपतिमन्त्रः ॥ (ॐ त्रिजट लंबोदर कथय कथय कथय हुं फट् स्वाहा ।। ३॥) कार्य विचिन्त्य प्रजपादष्टोत्तरशतं नरः॥ शयीत पश्चादशुभं शुभं वा कथयेद्विभुः ॥ १८॥ अथापरः स्वप्रप्रदो विष्णुमन्त्रः ॥ कार्पण्येतिम न्त्रस्यार्जुन ऋषिः । दण्डकं छन्दः । श्रीकृष्णो देवता। ( अमुक) कार्याकार्यविवेकस्वप्नपरीक्षार्थे जपे विनियोगः ॥ नमस्कार है ॥१४॥ इन मंत्रोंको एकवार जपकर और पूर्वकी औरको शिर करके दाहिने करवट लेट कर शयन करै आर्थात सीधीबगलको नीचे कर सोवै और स्वप्नकी परक्षिा करैः ॥ १५ ॥ अब दूसरा स्वप्नका देनेवाला श्रीरुद्रका मन्त्र कहतेहैं "ओं नमो भगवते रुद्राय मम कर्णरन्ने प्रविश्व जतीतानागतवर्तमानं सत्यं ब्रूहि ब्रूहि स्वाहा २" इस मंत्रको दश सहस्त्र जपकर दशांशतिलोंका हवन कर सिद्धमंत्र वाला रात्रीमें पवित्र हो कुशाशनपर बैठे ॥ १६ ॥ इस मंत्रको जपकर मनमें कार्यको धारण करके वामपार्श्वको नीचे करके शयन करे तो स्वप्नमें आकर देवता उस्से सब कहताहै ॥१७॥ अब दूसरा स्वप्नका देनेवाला गणपति मंत्र कहतेहैं । “ओं त्रिजट लम्बो दर कथय कथय हुं फट् स्वाहा ३" कार्यको मनमें धारण कर इस मंत्रको १०८ वार जपे तो स्वप्नमें आकर देवता शुभ अशुभ जैसा हो वह सब कहताहै ॥ १८ ॥ अब दूसरा स्वप्नका देनेवाला विष्णुमंत्र कहतेहैं। ओं कर्पण्येति इसमंत्रका अर्जुन ऋषि दंङक छंद श्रीकृष्ण देवता अमुक कार्याकार्यके ज्ञान और स्वप्नको परीक्षामें विनियोगहै (ओंकार्पण्येतियहमंत्र आर्थात् कृपणताके रोषसे मेरा स्वभाव हत होगयाहै मैं मूढबुद्धि होकर आपसे धर्म पूछताहूं हे कृष्ण जिसमें मेरा कल्याण हो सो आप मुझसे कहो मैं तुम्हारा शिष्यहूं तुम्हारी शरणहूं आप मुझे शिक्षा करें ओं) इन मंत्रपदोंको कहकर चतुर मनुष्य पंचांगमें न्यास करे और पकान चित्त होकर विधिपूर्वक Aho! Shrutgyanam Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) स्वमाध्याय। ( ॐकार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामित्वां धर्मसंमूढचेताः ॥ यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ ॐ॥४॥) उक्त्वा मन्त्रपदान्यङ्गपञ्चके विन्यसेबुधः ॥ ध्यानं च कुर्याद्विधिवदेकाग्रेणैव चतसा ॥१९॥ सेनयोरुभयोर्मध्ये श्रीकृष्णं प्रति फाल्गुनः॥शस्त्रास्त्राणि करान्यस्याप्राक्षीद्वै प्रपदाग्रतः॥२०॥ इति ध्यात्वा च तुलसीमूले पञ्चोपचारकैः ॥शालग्रामं सुसंपूज्य मलयागरुधूपकैः॥२१॥ प्रज्वाल्य घृतदीपंच ताम्बूलादिभिरुत्तमैः।। ततः कुशासने स्थित्वा मन्त्रमष्टोत्तरं शतम् ॥२२॥ जपित्वा प्रस्वपेत्स्वस्थः सुमना दक्षपार्श्वके ॥ २३॥ स्वप्ने कृष्णः समागत्य ब्रूयात्तस्य शुभाशुभम् ॥ २४ ॥ अथापरः स्वप्नप्रदः स्वप्नवाराहीमन्त्रः ॥ (ॐ नमो भगवति कुमारवाराहि गुग्गुलुगन्धप्रिये सत्यवादिनि लोकाचारप्रचाररहस्यवाक्यानि मम स्वप्ने वद वद सत्यं ब्रूहि ब्रूहि आगच्छ आगच्छ ह्रीं वौषट् ॥५॥) एतन्मन्त्रस्य सहस्रजपासिद्धिः ॥ शुक्रवारे शुचिर्भूत्वा निशीथे कलशं शुभम् ॥ संस्थाप्याथो तदुपरि नागवल्लीदलं न्यसेत् ॥ २५ ॥ हरिद्रापिण्डरचितां देवीं ध्यान करै ॥ १९ ॥ 'सेनयोरुभयोर्मध्ये.' आर्थात् दोनों सेनाके मध्यमें अर्जुन श्रीकृष्णके सन्मुख अपने अस्त्र शस्त्र त्यागनकर उनके आगे बैठगया ॥ २० ॥ इसप्रकार ध्यान कर तुलसीकी अढमें पंचोपचार पूजन कर उत्तम चंदन अगर धूपसे शालग्रामकी पूजा करके ॥ २१ ॥ घृतका दीपक जलाय ताम्बूलादि उत्तम पदार्थोंसे पूजन कर इसके पीछे कुशासनपर बैठकर १०८ मंत्रको जपे ॥ २२॥ स्वस्थचित्तहो अच्छेमनसे दाहिनेकरवटपर शयन करै ॥ २३ ॥ तव स्वप्नमें कृष्ण आकर शुभाशुभ कहतेहैं ॥ २४ ॥ अव इसके पीछे स्वप्नदनेवाला स्वप्नवाराहीमंत्र कहतेहैं [ ॐनमो भगवतीति० ५] इस मंत्रके सहस्त्रजरसे सिद्धि होतीहै । शुक्रवारके दिन पवित्र होकर आधीरात्रीमें सुन्दर कलश स्थापन कर उसके ऊपर पान रक्खे ॥ २५ ॥ उसके ऊपर हलदीकी देवीकी प्रतिमा बनाकर स्थापन करे, फिर वाराझै नमः Aho! Shrutgyanam Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्टीकासमेत । तस्योपरि न्यसेत् ॥ वारायै नम इत्येतनाममन्त्रेण भक्तितः ॥२६॥ प्राणप्रतिष्ठां कृत्वाथोन्मत्तद्रव्यं निवेदयेत् ॥ साङ् गपूजां विधायाथ मन्त्रमष्टोत्तरं शतम् ॥२७॥ जपित्वैकमना देव्या अग्रे कृत्वा च मस्तकम् ॥ शयीत तस्य सा देवी प्रन वीति शुभाशुभम् ॥ २८॥ अथापरः स्वप्नप्रदः पुलिन्दिनी मन्त्रः॥ नमो भगवतीतिमन्त्रस्य शङ्कर ऋषिः । जगती च्छन्दः। श्रीपुलिन्दिनी देवता। ई बीजम् । स्वाहा शक्तिः। पुलिन्दिनीप्रसादसिद्धयर्थे जपेविनियोगः ॥ ॐ इत्यादि करपडङ्गन्यासौ विधाय ध्यानं कुर्यात् ॥ बर्दापीडकुचाभि रामचिकुरां बिंबोज्वलच्चन्द्रिका गुनाहारलतांशुजालविलसगीवामधीरेक्षणाम् ॥ आकल्पद्रुमपल्लवारुणपदां कुन्देन्दुबि म्बाननां देवीं सर्वमयी प्रसन्नहदयां ध्यायेकिरातीमिमाम् ॥ इति ध्यात्वा ॥ (ई ॐ नमो भगवति श्रीशारदादेवि अत्यन्तातुले भोज्यं देदि देहि शहि एहि आगच्छ आगच्छ आगन्तुक हृदिस्थं ( अमुकं) कार्य सत्यं ब्रूहि ब्रूहि पुलि न्दिनि ईॐ स्वाहा ।। ६॥) अस्य मन्त्रस्य पञ्चसहस्रजपासिद्धिः । तदशांशतस्तिलानां हवनं कार्यम् ॥ कार्याका र्यविवेकार्थे रात्रावष्टोत्तरं शतम् ॥ जत्वा शयीत तस्याशु इस नाममंत्रसे भक्तिपूर्वक ॥ २६ ॥ प्राणप्रतिष्ठा करके मत्तद्रव्यको मादक पदार्थको निवेदन कर फिर सांग पूजाकर १०८ मंत्र जप ॥ २७ ॥ देवीके आगे मस्तक झुकाकर एकाग्रमनसे जप कर और देवी के चरणोंमें शिर करके सोजाय तो देवी स्वप्नमें शुभाशुभ कहतीहै ॥२८॥ अब दूसरा स्वप्नदेनेवाला पुलिन्दनी मंत्र कहतेहैं ओं नमो भगवतीति, इस मंत्रका शंकर ऋषि जगती छन्द पुलिन्दिनी देवता ई वीज स्वाहा शक्तिपुलिन्दिनीकी प्रसन्नताके निमित्त जपमें विनियोगः ॐ इत्यादिसे अंगन्यास कर न्यास करे पीछे ध्यान करे ॐ बहापीडेति यह ध्यानका मंत्रहै मोरपंखधारे स्तनोंपर लम्बायमान केश बिम्बकी समान उज्ज्वल चंद्रिका चौटली तथा लताओंके हार गलेमें डाले शोभायमान अधीर नेत्र कल्पद्रुमके कोमल पत्रोंकी समान लाल चरण कमल कुन्दचन्द्रमा और बिम्बाफलकी समान मुख, सर्वमयी प्रसन्न हृदयवाली किराती देवीका Aho ! Shrutgyanam Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) स्वमाध्याय। देवी स्वप्नेऽखिलं वदेत् ॥ २९ ॥ साधकस्तद्वचः श्रुत्वा तदैवान्वाहमाचरेत् ॥ नास्ति तस्य भयं वापि सर्वकालं सुखी भवेत्॥३०॥अथापरः स्वप्नप्रदः स्वप्नेश्वरीमन्त्रः॥ॐ अस्य श्रीस्वप्नेश्वरीमन्त्रस्य उपमन्यु ऋषिः। बृहतीच्छन्दः स्वप्नेश्वरी देवता । स्वप्ने कार्याकार्यपरिज्ञानाय जपे विनियोगः ॥ अस्य मन्त्रस्य व्यक्षरचतुरक्षरब्यक्षरैकाक्षरचतुरक्षरद्वयक्षरतः करन्यासाङ्गन्यासौ कृत्वा ध्यानं कुर्यात् ॥ वरदाभये पद्मयुगं दधानां करैश्चतुर्भिः कनकासनस्थाम् ॥ सिताम्बरां शारदचन्द्रकान्ति स्वप्नेश्वरी नौमि विभूषणाव्याम् ॥ (ॐ की स्वप्नेश्वरि कार्य मे वद वद स्वाहा ॥७॥) एतन्मन्त्रस्य लक्षजपं कृत्वा तदशांशतो बिल्वदलैर्हवनात्सिद्धिः ॥ पूर्वोदिते यजेत्पीठे षडङ्गत्रिदशायुधैः ॥ रात्रौ संपूज्य देवेशी मयुतं पुरतो जपेत् ॥ ३१ ॥ शयीत ब्रह्मचर्येण भूमौ दर्भा सने शुभे ॥ देव्यै निवेद्य स्वं कार्य सा स्वप्ने वदति ध्रुवम् ॥ ध्यान करताहूं । इस मंत्रसे ध्यान करके [ई ओं नमो भगवतीति०६ ] इस मंत्रके पांचसहस्र जपसे सिद्धि होतीहै । इसके दशांशसे तिलोंका हवन करना चाहिये, कार्य अकार्यके ज्ञानके निमित्त रात्रिमें एकसौ आठवार जप कर शयनकरै तो स्वप्नमें देवी सब आकर कहती है ॥२९॥ साधक उसके स्वप्नके वचनको सुनकर वैसाही आचरण करें तो उसको कहीं भय नहीं होता वह सदा सुखी रहताहै ॥ ३० ॥ अब दूसरा स्वप्न देनेवाला स्वप्नेश्वरी मंत्र कहते हैं इस स्वप्नेश्वरी मंत्रका उपमन्यु ऋषि बृहती छंद स्वप्नेश्वरी देवतास्वप्नमें कार्य अकार्यके ज्ञानके निमित्त जपमें विनियोगहै इससे विनियोग छोडै इस मंत्रके दो अक्षर चार अक्षरसे अक्षर एकअक्षरसे चारअक्षरसे कर न्यास अंगन्यास कस्के ध्यान करे, वरदानभयेति यह ध्यानका मंत्रहै, कार्य यहहै कि चार हाथोंमें वरअभय दोकमल धारण किये सुवर्णके आसनमें स्थित श्वेतवस्त्र धारे शरदकालके चन्द्रमाकी समान कांतिमान गहने धारण किये श्वप्नेश्वरी देवीकी प्रणाम करताहूं [ऑक्लिस्वप्नेश्वरिकार्यमे वद वद स्वाहा ७ ] इस मंत्रको एकलाख जपकर दशांशसे बेलपत्रीका हवन करे तो सिद्धि होतीहै १ जब सूर्य पूर्वमें उदय । हो तो यजन करे सिंहासनपर देवीको पूजे, देव आयुधधारे चिन्तन करे, फिर रात्रिमें देवेशीका पूजन करै १००० मंत्र जपै ॥३१॥ और सुन्दरकुशाके आसनपर भूमिमें शयन करें और अपना Aho! Shrutgyanam Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत। (७) ॥३२॥ अथापरः स्वप्नप्रदः सिद्धिलोचनामन्त्रः॥ (ॐ स्वप्रविलोकि सिद्धिलोचने स्वप्ने मे शुभाशुभं कथय स्वाहा ॥८॥) इमं मन्त्रमयुतं जपित्वा मन्त्रसिद्धिः ॥ कार्याकार्य विवेकार्थे रात्रावष्टोत्तरं शतम् ॥ जत्वा शयीत स्वप्ने तु सर्व देवी ब्रवीति तम् ॥ ३३ ॥ अथापरः स्वप्नप्रदः स्वप्नचक्रेश्वरीमन्त्रः॥ (ॐ ह्रीं श्री ऐ ॐ चक्रेश्वरि चक्रधारिणि शङ्खचक्रगदाधारिणि मम स्वप्नं प्रदर्शय प्रदर्शय स्वाहा ॥९॥) एतन्मन्त्रस्याष्टोचरशताधिकैकसहस्रजपात्सिद्धिः॥ ॥रात्रावष्टोत्तरं जावा शतं स्वापो विधीयताम् ॥ स्वप्रेश्वरी समागत्य ब्रूयात्स्वप्ने शुभाशुभम् ॥ ३४॥ अथापरः स्वप्न प्रदो घण्टाकर्णीमन्त्रः ॥(ॐ नमो यक्षिणि आकर्षिणि घण्टाकर्णि महापिशाचिनिमम स्वप्नं देहि देहि स्वाहा॥१०॥) इमं मन्त्रं शयनसमये रात्रावकविंशतिवाराअपित्वा शयीत जपकालमारभ्य प्रातः कालपर्यन्तं किञ्चिदपि न वदेत् । प्रातःकाले उत्थानसमये पुनरेकविंशतिवाराअपेत् । ततो मौनं विसर्जयेत् ॥ एवं प्रकारेणैकविंशतिदिनपर्यन्तमविच्छि नं साधयेत् । यदि मध्य एव धृतस्यास्य व्रतस्य विच्छेदः कार्य देवीसे निवेदन करें तो वह स्वप्नमें अवश्य कहतीहै ।। ३२ ॥ अब स्वप्नदेनेवाला सिद्धि लोचना मंत्र कहतेहैं ( ओं स्वप्नविलोकि सिद्धिलोचने स्वप्ने में शुभाशुभं कथय स्वाहा ८) यह मंत्र १०००० जपनेसे सिद्धि होतीहै कार्याकार्य ज्ञानके लिये रात्रिमें इस मंत्रको १०८ वार जपै तो स्वप्नमें देवी उसको सब कहतीहै ॥ ३३ ॥ अब स्वप्नदेनेवाला स्वप्नचक्रेश्वरी मंत्र कहतेहैं । (ओह्रीं श्री ओंचकेश्वार चक्रधारिणि शंखचक्रगदाधारण मम स्वप्नं प्रदर्शय प्रदर्शय स्वाहा ९)इस मंत्रको११०८वार जपनेसे सिद्धिहोतीहै।रात्रिमें एक सौ आठ बार जपकर सो रहेतो स्वनेश्वरी प्राप्त होकर स्वप्नमें शुभाशुभ कहतीहै।॥३४॥अब स्वप्नदेनेवाला दूसरा घंटाकरणी मंत्र कहतेहैं। ओं नमोपक्षिणीति यह मंत्रहे यह मंत्र शयनसमयमें रात्रिमें इक्कीस वार जप कर शयन कर जपकालसे लेकर प्रातः कालपर्यंत कुछभी न बोले, प्रातः काल उठते समय फिर २१ वार जपै इसके पीछे मौनता विसर्जन करे इस प्रकार २१ दिन तक निरन्तरसाधन कर, यदि बीचमें धारण किये इस व्रतका Aho! Shrutgyanam Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) स्वमाध्याय। स्यात्तदा पुनरप्युक्तप्रकारेणैवैकविंशतिदिनपर्यन्तं साधयेत् ॥ कार्य विचिन्त्य निपुणो रात्रौ जप्त्वैकविंशतिम् ॥शयीत स्वप्नमध्ये तु स पश्येदशुभं शुभम् ॥ ३५॥ अथापरः स्वप्न प्रदो विद्यान्मन्त्रः॥ (ॐ ह्रीं मानसे स्वप्नं सुविचार्य विद्ये वद वद स्वाहा ॥ ११॥) शुचिर्भूत्वा हविष्यान्नं भुक्त्वा जवायुतं मनुम् ॥ संध्यायां भारतीपूजां कृत्वा स्वापो विधीयताम् ॥ ३६ महाविद्या समागत्य स्वप्ने ब्रूयाच्छुभाशुभम् ॥३७॥ अथापरं मन्त्रवरं ब्रह्मवैवर्तभाषितम् ॥ब्रवीमि सद्यः फलदमनुभावकरं परम् ॥ ३८ ॥ (ॐ ह्रीं श्रीं की पूर्वदुर्गतिनाशिन्यै महामायायै स्वाहा ॥ १२॥) कल्प वृक्षो हि भूतानां मन्त्रः सप्तदशाक्षरः ॥ शुचिश्च दशधा जवा दुष्टस्वप्नं न पश्यति ॥ ३९ ॥ शतलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥ सिद्धमन्त्रश्च लभते सर्वसिद्धिं च वाञ्छितम् ॥४०॥ अथापरः स्वप्नप्रदो मृत्युञ्जयमन्त्रः॥ (ॐ मृत्युञ्जयाय स्वाहा ॥ १३॥) इमं मन्त्रं दशलक्षं जपित्वा मन्त्रसिद्धिः ॥ दृष्ट्वा च मरणं स्वप्ने शतायुश्च भवेन्नरः॥ विच्छेद होय तो फिर उक्तप्रकारसे २१ दिनतक साधन करै । बुद्धिमान मनुष्य रात्रिमें कार्यको विचारकर २१ वार इस मंत्रको जप कर शयन करै तो स्वप्नके बीच शुभाशुभ को देखताहै ॥ ३५ ॥ अवश्य स्वप्नदेनेवाला दूसरा विद्या मंत्र कहतेहैं । (ॐ हीं मानसेति० ११ ) यह मूलका मंत्रहै पवित्र हो हविष्यअन्नको खाताहुआ १०००० मंत्र जप करे और संध्यामें सरस्वतीको पूजा करके सोरहै ॥ ३६ ॥ तो रात्रिमें महाविद्या आकर स्वप्नमें शुभाशुभ कहती है॥३७॥ अब दूसरा मंत्र ब्रह्मवैवर्त पुराणका कहाहुआ शीघ्र फलदेनेवाला अनुभवसिद्धकहताहूं ॥३८ ॥ ॐ ह्रीश्रीक्लीपूर्वदुर्गतिनाशिन्यमहामायायैस्वाहा । १२ ) प्राणियों को कल्पवृक्षकी समान यह सत्रह अक्षरवाला मंत्रहै इसको पवित्र होकर दशवार जपनेसे दुःस्वप्न दिखाई नहीं देता ॥ ३९ ॥ एक करोड़ जपसे मनुष्यों को मंत्रसिद्धि होजातीहै मंत्रसिद्ध होनेसे सब मनवांछित प्राप्त होतेहैं ॥ ४० ॥ अब दूसरा स्वप्नपद मृत्युंजय मंत्र कहतेहै (ॐ मृत्युंजयाय स्वाहा १३) इस मंत्रके दश लाख जपनेसे मंत्रसिद्धि होतीहै स्वप्नमें अपनी मृत्यु देखकर मनुष्य Aho! Shrutgyanam Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत। पूर्वोत्तरमुखो भूत्वा स्वप्नं प्राज्ञे प्रकाशयेत् ॥४१॥ इति नानामन्त्रशास्त्राण्यालोड्य स्वप्नमन्त्रकान् ॥ कृत्वैकत्र कृतो अन्थो लोकानां हितकाम्यया ॥ ४२ ॥ 'कलौ चतुर्गुणं प्रोक्तम् ' महर्षीणामिदं वचः ॥ स्मृत्वा नरस्तथा कुर्याद्विवस्तः फलकर्मणि ॥४३॥ नाविश्वस्तस्य सिद्धिः स्यादित्यृषीणां मतं मतम् ॥४४॥ इति ज्योतिर्विच्छ्रीधरसंगृहीतस्वप्नकमलाकरे दैविक स्वप्नप्रकरणकथनं नाम प्रथमः कल्लोलः ॥ १॥ सौवर्षकी आयुवाला होता, पूर्व उत्तर मुख कर पंडितसे स्वप्न कहना चाहिगा४१॥ इस प्रकारसे मंत्रशास्त्रसे अनेकप्रकारके स्वप्नप्रद मंत्रोंको देखकर लोकोंके हितकी कामनासे यह ग्रंथ संग्रह कियाहै ॥४२॥कलियुगमें चौगुना जप करना चाहिय यह महर्षियोंका वचनहै, यह विचार फलकर्ममें विश्वास करके जप करै ॥ ४३ ॥ विना विश्वासके सिद्धि नहीं होती यह महार्षिपोंका सिद्धान्त है ॥४४॥ इति श्रीज्योतिर्विच्छ्रीधरसंगृहीतस्वप्न कमलाकरे पंडितज्वालाप्रसादमिश्रकृतभाषा टीकायां प्रथमः कल्लोलः ॥ १ ॥ अथ द्वितीयः कल्लोलः २. अथ नानाविधान्ग्रंथान्समालोच्यावलोड्य च ॥ अस्मि द्वितीये कल्लोले शुभस्वप्नफलं ब्रुवे ॥ १॥ यस्य चित्तं स्थिरीभूतं समधातुश्च यो नरः॥ तत्प्रार्थितं च बहुशः स्वप्ने कार्य प्रदृश्यते ॥२॥स्वप्नप्रदा नव भुवि भावाः पुंसां भव न्ति हि ॥ श्रुतं तथानुभूतं च दृष्टं तत्सदृशं तथा ॥३॥ चिन्ता च प्रकृतिश्चैव विकृतिश्च तथा भवेत् ॥ देवाः पुण्या__ अब अनेक प्रकारके ग्रंथोंकी समालोचन कर और उनको देखकर इस दूसरे कल्लोलमें शुभस्वप्नोंका फलकहताहूं॥१॥जिसका चित्त स्थिरहै जिस मनुष्यकी धातुएँ समान हैंउसकीइच्छाकरनेपर स्वप्नमें बहुतसे कार्य दीखतेहैं । २ ॥ संसारमें स्वप्नदेनेवाले नौ प्रकारके भावहैं सुनाहुआ, अनुभव कियाहुआ, देखाहुआ, और उसकी समान ॥३॥ चिन्ता, प्रकृति, विकृति, देवतासे Aho! Shrutgyanam Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) स्वमाध्याय। नि पापानीत्येवं हि जगतीतले ॥ ४॥ तन्मध्य आयं षट्कं तु शिवं वाशिवमप्यथ ॥ अन्त्यं त्रिकं तथा नृणामचिरात्फलदर्शकम् ॥ ५॥ प्राज्ञेन पुरुषेणेहावश्यं ज्ञेयः स्वचेतसि ।। स्वप्नो विचार्यस्तस्यार्थस्तथा चैकाग्रचेतसा ॥६॥रतेहाँसाच शोकाच्च भयान्मूत्रपुरीषयोः ॥ प्रणष्टवस्तुचिन्तातो जातः स्वप्नो वृथा भवेत् ॥ ७॥ कफालुतशरीरस्तु पश्येद्वहु जलाशयान् ॥ नद्यः प्रभूत सलिला नलिनानि सरांसि च ॥८॥ स्फटिकै रचितं सौधं तथा श्वेतं च गह्वरम् ॥ तारागणं च चन्द्रंच तोयदानां च मण्डलम्॥९॥रसांश्च मधुरान्दि व्यान्फलानि विविधानि च ॥ आज्यं यज्ञोपकरणं यज्ञमण्डपमुत्तमम् ॥ १०॥ शुभालंकारशालिन्यः पृथुलस्तनमण्ड लाः॥ सुलोचनाः पीनसक्थिपरिशोभितमध्यमाः॥११॥ श्वेतवस्त्रैः श्वेतमाल्यैर्विकासन्त्यश्च योषितः॥ पित्तप्रकृतिको यश्च सोऽग्निमिदं प्रपश्यति ॥ १२ ॥ विद्युल्लतायाश्च तेजस्तथा पीतां वसुन्धराम् ॥ निशितानि च शस्त्राणि दिशो दावानलार्दिताः ॥ १३ ॥ फुल्लास्त्वशोकतरवो गांगेयं पापपुण्यसे इसप्रकारसे स्वप्न होतेहैं ॥ ४ ॥ उनमें पहले छः भला या बुरा फल देतेहैं, शेष पिछले तीन शीघ्रही फल देतेहैं ।। ५ ।। बुद्धिमान् पुरुषको यह बात चित्तमें अवश्य जाननी चाहिये, स्वप्नमें देखी बातको एकाग्रचित्तसे अर्थपूर्वक विचार ॥६॥ रतिमें हाससे शोकसे भयसे मूत्रपुरूषके वेगसे तथा नष्ठवस्तुकी चिन्तासे देखाहुआ स्वप्न व्यर्थ होजाताहै ॥ ७ ॥ शरीरमें कफका वेग होनेसे बहुतसे जलाशय, नदियें तथा बडे जलोंवाले सरोवर दिखाई देतेहैं ॥ ८ ॥ स्फटिकमणियोंके रचित महल, श्वेत घने स्थान, गुफाऐं, तारासमूह चंद्रमा और मेघमंडल दिखाई देतेहैं ॥ ९ ॥ मधुर और दिव्यरस अनेक प्रकारके दिव्यफल, धृत यज्ञकी सामग्री यज्ञका उत्तम मण्डप ॥ १० ॥ अच्छी गहनोंसे युक्त बड़े स्तनोंवाली सुन्दर नेत्रोंवाली पुष्टगलेकी अस्थिसे शोभित सुन्दर मध्यभागवाली ॥ ११ ॥ श्वेत वस्त्र तथा श्वेतमाला पहरे स्त्रिये दिखाई देतीहैं । और पित्त प्रकृतिवालेको जलतीहुई अग्नि दिखाई देतीहै ॥ १२ ।। बिजलतिज पीतवर्णवाली पृथिवी तीक्ष्ण शस्त्र, दावानलसे युक्त दिशायें दीखतीहैं ॥ १३ ॥ फूलेहुए अशोक वृक्ष निर्मल गंगाजल, क्रोधका होना तथा आघात और गिरना आदि तथा Aho! Shrutgyanam Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) भाषाटीकासमेत । चापि निर्मलम् ॥ किंच प्ररूढकोपः संघातपातादिकाः क्रियाः ॥ १४ ॥ करोत्यात्मैवेति पश्येज्जलं चापि पिबेहु । वातप्रकृतिको यश्च स पश्येत्तुंगरोहणम् ॥ १५॥ तुङ्गद्वमांश्च विविधान्पवनेन प्रकम्पितान्॥ वेगगामितुरंगांश्च पक्षिभिर्गमनं स्वयम् ॥ १६॥ उच्चसौधान्विवादं च कलहं च तथात्मनः॥आरोहणंच डयनमिति प्रकृतितो भवेत् ॥१७॥ स्वप्नमिष्टं च दृष्ट्वा यः पुनः स्वपिति मानवः ॥ तदुत्पन्न शुभफलंस नाप्नोतीति निश्चितम् ॥ १८॥अतो दृष्ट्वा शुभस्वप्नं सुधिया मानवेम वै ॥ सूर्यसंस्तवन यावशिष्टा रजनी पुनः॥ १९॥ देवानां च गुरूणां च पूजनानि विधाय सः॥ शंभोर्नमस्त्रियां कुर्यात्प्रार्थयेच्च शुभं प्रति ॥ २० ॥ ततस्तु स्थविराग्रे वै कथयेत्स्वप्नमुत्तमम्॥ दृष्ट्वा पूर्वमनिष्टं तु पश्चाच शुभमेव चेत् ॥२१॥ यः पश्येत्स पुमांस्तस्माच्छुभस्व प्रफलं भजेत् ॥ अनिष्टं प्रथमं दृष्ट्वा तत्पश्चात्स स्वपेत्पुमान।। ॥२२॥ रात्रौ वा कथयेदन्यं ततो नाप्नोति तत्फलम् ॥ अथवा प्रातरुत्थायनमस्कृत्य महेश्वरम् ॥२३॥ तुलस्या लडना मारना ॥ १४ ॥ देखै वा बहुत जलपियै यह सब पित्तप्रकृतिवालेके लक्षण हैं । वातप्रकृतिवाला ऊंचेपर अपनेको चढाहुआ देखताहै ॥ १५ ॥ वायुसे कंपायेहुए अनेकप्रकारके ऊंचे वृक्ष तेज चलनेवाले घोडे, पक्षी तथा स्वयं अपना गमनभी देखताहै ॥ १६ ॥ ऊंचे महल अपना विवाद आरोहण विवाद यह सब, बातप्रकृतिसे होतेहैं ॥१७॥ इष्टस्वप्नको देखकर जो मनुष्य फिर सोजाताहै, वह निश्चयही स्वप्नसे उत्पन्न हुए शुभफलको नहीं पाता ॥ १८ ॥ इसकारण शुभस्वप्नको अवलोकन कर बुद्धिमान् मनुष्यको शेषरात्री सूर्यकी स्तुतिसे बितानी चाहिये ॥ १९ ॥ वह देवता और गुरुओंका पूजन करके शिवजीको नमस्कार कर शुभफलके लिये प्रार्थना करें ॥ २० ॥ फिर वृद्धजनोंके आगे शुभस्वप्नकोकथन करें यदि पहले अनिष्ट देखकर पीछे शुभ देखे ॥ २१॥ तो वह पुरुष शुभस्वप्नके फलको पाताहै, अनिष्टस्वप्नको देखकर जो पुरुष सो जाय ॥ २२॥ वा रात्रिमें ही उसे दूसरेसे कहदे तो उसके फलको नहीं प्राप्त होता अथवा सवेरेही उठकर महेश्वरको नमस्कार करके ॥२३॥ तुलसीके आगे उस Aho! Shrutgyanam Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) स्वमाध्याय । अग्रतः प्रोच्य प्राप्नुयान्न हि तत्फलम् ॥ देवानां च गुरूणां च स्मृतिर्दुःस्वप्ननाशिनी ॥ २४ ॥ तस्माद्रात्रौ स्वापकाले विष्णुं कृष्णं रमापतिम् ॥ अगस्ति माधवं चैव मुचुकुन्दं महामुनिम् || २५ || कपिलं चास्तिकमुनिं स्मृत्वा स्वस्थः सुधीर्जनः ॥ शयीत तेन दुःस्वप्नं न कदाचित्प्रपश्यति ॥ २६ ॥ स्वप्नमध्ये पुमान्यश्च सिंहाश्वगजधेनुजैः ॥ युक्तं रथं समारोहेत्सभवेत्पृथि वीपतिः ॥ २७ ॥ श्वेतेन दक्षिणकरे फणिना दृश्यते च यः ॥ पञ्चरात्रे तस्य भवेद्धनं दशसहस्रकम् ॥ २८ ॥ मस्तकं यस्य वैस्वप्ने यश्च स्वप्नेऽथ मानवः । स च राज्यं समाप्नोति च्छिद्यते वा छिनत्ति वा ॥ २९ ॥ लिङ्गच्छेदे चपुरुषो योषिद्धनमवानुयात् । योनिच्छेदे कामिनी च पुरुषाद्धनमाप्नुयात् ॥ ३० ॥ छिन्ना भवेदस्य जिह्वा स्वप्रे स पुरुषोऽचिरात् ॥ क्षत्रियः सार्वभौमत्वमितरो मण्डलेशताम् ||३१|| श्वेतदन्तिनमारुह्य नदीतीरे च यः पुमान् ॥ शाल्योदनं प्रभुंक्ते वै स भुङते निखलां महीम् ॥ ३२ ॥ सूर्याचन्द्रमसोर्बिम्बं समयं ग्रसते च यः ॥ स प्रसह्य प्रभुङक्ते वै सकलां सार्णवां महीम् ||३३|| ॥ २८ ॥ स्त्रमको कहकर उसका फल नहीं पाता, देवता तथा गुरुओं का स्मरण भी दुःस्वप्ननाशक हैं ॥ २४ ॥ इसकारण रात्रिको सोतेसमयमें विष्णु, कृष्ण, लक्ष्मीपति, अगस्त्य, माधव, मुचुकुन्द, महामुनि ॥ २५ || कपिल आस्तिकका स्मरण करके बुद्धिमान् मनुष्य सोवे तो कभी दुःस्वप्न नहीं देखता ॥ २६ ॥ जो पुरुष स्त्रममें सिंह घोडे हाथी बैल जुतेरथमे चढता है वह राजा होता है ॥ २७ ॥ जिसके दहने हाथमें श्वेतसर्प काटै, पांचदिनों उसके पास दशसहस्र धन आता है स्वममें जिस मनुष्यका मस्तक कटे, वा जो काटै, वे दोनों राज्य को प्राप्त होते हैं ॥ २९ ॥ छेदन होनेसे पुरुष स्त्रीधनको प्राप्त होता है, योनिच्छेदन होनेसे स्त्री पुरुषरूपी धनको प्राप्त ॥ ३० ॥ जिस पुरुषकी स्त्रममें जिह्वा छेदन हो वह यदि क्षत्रियहो तो सार्वभौम राजा हो, यदि अन्य कोई हो तो मण्डलेश्वर होता है ॥ ३१ ॥ जो पुरुष श्वेतहाथीपर चढ़कर नदी के किनारे मट्टी के चावलों का भात खाता है, वह सब पृथिवीको भोगता है || १२ || जो पुरुष स्त्रमने सूर्य चन्द्रमा के Aho! Shrutgyanam लिङ्ग होती है। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत। (१३) यः स्वदेहोत्थितं मांसं परदेहोत्थितं च वा। स्वप्ने प्रभुङ्क्ते मनुजः ससाम्राज्यं समभुते॥३४॥प्रासादशृङ्गमासायास्वाद्य चान्नं स्वलंकृतम् ॥अगाऽभसि यस्तीर्यात्सभवेत्पृथिवीपतिः ॥ ३५ ॥ छर्दैि पुरीषमथवा यः स्वदेन विमानयेत् ॥राज्यं प्राप्नोति स पुमानत्र नास्त्येव संशयः॥ ३६ ॥ मूत्रं रेतः शोणितं च स्वप्ने खादति यो नरः॥तरङ्गाभ्यञ्जनं यश्चकुरुते धनवान्हि सः ॥३७ ॥ नलिनीदलशय्यायां निषण्णः पायसाशनम् ॥ यः करोति नरः सोत्र प्राज्यं राज्यं समश्नुते ॥ ३८ ॥ फलानि च प्रसूनानि यः खादति च पश्यति ॥ स्वप्ने तस्यांगणे लक्ष्मीलठत्येव न संशयः॥३९॥ यःस्वप्ने चापसंयोगं बाणस्य कुरुते सुधीः ॥ सर्व शत्रुबलं हन्यात्तस्य राज्यमकण्टकम् ॥४०॥ स्वप्ने परस्य योऽसूयां वधंबन्ध नमेव च ॥ यः करोति पुमाल्लोके धनवाआयते तु सः ॥४१॥ स्वप्ने यस्य जयो वै स्याद्रिपूणां च पराजयः॥स चक्रवर्ती राजा स्यादत्र नास्त्येव संशयः॥ ४२ ॥रौप्ये वा काञ्चने पात्रे पायसं यः स्वदेन्नरः ॥ तस्य स्यात्पार्थिवपदं सम्पूर्ण मण्डलको खाजाताहे वह वलात्कारसे सागरपर्यन्त पृथिवीको भोगताहै ॥ ३३ ॥ जो मनुव्य स्वप्नमें अपने या पराये मनुष्यके मांसको खाताहै, वह साम्राज्यको प्राप्त होताहे ॥ ३४ ॥ जो पुरुष महलके ऊपर चढकर अच्छे पक्वान्नको खाकर अगाध जलभेतैरताहै वह पृथिवीपति होताहै ॥ ३५ ॥ जो पुरुष वमन वा विष्ठा खाय और उसका अनादर न करे तो बह अ. वश्य राजा होताहै ॥ ३६ ॥ जो मनुष्य स्वप्नमें मत्र वीर्य और रुधिरपान करताहै और तेल शरीरमें मलताहै वह धनवान होताहै ॥३७॥ जो मनुष्य कमलदलकी सजपर बैठकर खीर खाताहे वह मनुष्य राज्यको प्राप्त होताहै ॥ ३८ ॥ जो मनुष्य स्वप्नमें फल वा फूलोंको खाता या देखताहै उसके आंगणमें नि:संदेह लक्ष्मी लोटतीहै ॥ ३९ ॥ जो बुद्धिमान् स्वप्नमें बाणपर धनुष चढाताहै, वह सब शत्रुदलको मारताहै और उसका राज्य अकंटक होताहै ॥ ४० ॥ जो पुरुष स्वप्नमें दूसरेका वध वा बंधन करताहै वा निंदा करताहै, वह पुरुष लोकमें धनवान होताहै ॥ ४१ ॥ जि. सकी स्वप्नमें जय और शत्रुकी पराजय होतीहै निःसंदेह वह चक्रवर्ती राजा होताहै ॥ ४२ ॥ जो मनुष्य चांदी या सोनेके पात्रमें खीर खाताहै अथवा वृक्ष वा पर्वतपर चढताहै वह राज्यपदको प्राप्त Aho! Shrutgyanam Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) स्वप्राध्याय । वृक्ष शैलेऽथवा स्थितः ॥ ४३ ॥ शैलग्रामवनैर्युक्तां भुजाभ्यां यो महीं तरेत् ॥ अचिरेणैव कालेन स स्याद्राजेति निश्चितम् ॥ ४४ ॥ यः शैलशृङ्गमारुत्योत्तरति श्रममन्तरा ॥ स सर्वकृतकृत्यः सन्पुनरायातिवेश्मनि ॥ ४५ ॥ विषंपीत्वा मृति गच्छेत्स्वप्नेयः पुरुषोत्तमः ॥ सभोगैर्बहुभिर्युक्तः क्लेशा दोगाद्विमु च्यते॥४६॥ यः कुंकुमेनरक्तांगःस्वप्ने स्वोद्वाहमीक्षते ॥ जगन्मध्ये धनैर्धान्यैर्युक्तः सुखमवाप्नुयात् ॥ ४७ ॥ यः शोणितस्य नद्यां वै स्नायाद्रक्तं पिबेच्च वा ॥ यस्याङ्गाद्रुधिरस्रावो धनवान्स भवेद्ध्रुवम् ॥ ४८ ॥ यः स्वप्नेऽन्यशिरश्छिन्द्याद्यस्य वाछियते शिरः ॥ स सहस्रधनं प्राप्य विविधं सुखमश्नुते ॥ ४९ ॥ जिह्वायां यस्य वै स्वप्नेयश्च वान्यस्य लेखयेत् ॥ विद्या तस्य प्रसन्ना स्याद्राजा भवति धार्मिकः ॥ ५० ॥ नारी या पौरुषं रूपं नरः स्त्रीरूपमप्यथ ॥ पश्येत्स्वस्यैव चेत्स्वप्ने द्वयोः स्यात्प्रीतिरुत्तमा ॥ ५१ ॥ आरुह्योन्मत्तकरिणं पुरुषं वा प्रजागृयात् ॥ बिभीयान्न च यः स्वप्रेऽतुलं तस्य भवेद्धनम् ॥ ५२ ॥ अश्वारूढः क्षीरपानं जलपानमहोता है ॥ ४३ ॥ जो पुरुष स्वप्नमें पर्वत ग्राम और बनसे युक्त पृथिवीको तरता है, थोडेही कालमें वह अवश्य राजा होता है यह निश्चय है ॥ ४४ ॥ जो पुरुष पर्वत के शिखरपर चढकर विनापरिश्रमके उतरताहै वह सब कार्यों को पूर्ण कर फिर अपने घरको आता है ॥ ४५ ॥ स्त्रमें जो पुरुष विष खाकर मरजाय, वह रोग और क्लेशोंसे छूटकर बडे भोगोंको भोगता है ॥ ४६ ॥ जो पुरुष कुमकुमसे शरीर रंगकर स्वममें अपना विवाह देखता है वह जगतमें धनधान्यसे युक्त है। सुखपाताहै ॥ ४७ ॥ जो पुरुष स्वप्नमें रुधिरकी नदीमें स्नानकर रुधिर पीता है वा जिसके अंरुधिर निकलता है वह अवश्य धनी होता है ॥ ४८ ॥ जो स्वप्नमें दूसरेका शिर काटे वा अपना शिर काटाजाय वह सहस्रोंका धन पाकर महासुखी होता है ॥ ४९ " स्वनमें जिसकी जिह्वापर कोई लिखे, वा लिखावे उसपर सरस्वती प्रसन्न होती और वह धर्मात्मा राजा होता है ॥ ५० ॥ जो पुरुष स्वप्न में स्त्रीका रूप देखे वा स्त्री पुरुषका रूप देखे उन दोनों में उत्तमप्रीति होती है ॥ ५१ ॥ जो पुरुष स्वप्न में अपनेको मतवाले हाथी पर चढा देख कर जागे और डरे नहीं तो उसके बहुत धन होता है ॥ ५२ ॥ जो पुरुष घोडेपर चढकर दूधपिये Aho! Shrutgyanam Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्टीकासमेत। (१५) थापि वा ॥ स्वप्ने कुर्याद्यः पुमांश्च स राजा भवति ध्रुवम् ॥ ॥५३॥ स्वप्ने राजा भवेद्यश्च यश्च चौरो भवेत्पुनः ॥ पुनः स्वामी भवेद्यश्च स राजा स्यादसंशयः॥५४॥ मूत्रैः पुरीपैलिप्ताङ्गः स्मशाननिलयो नरः॥ खादेन्मूत्रं पुरीषं च स भवेत्पृथिवी पतिः ॥५५॥ गौरानडत्समायुक्तं यानमारुह्य यो नरः ॥ उदीचीमथवा प्राची दिशं गच्छेत्स भूपतिः॥५६॥ स्वप्नमध्ये यस्य देहः केशविरहितो भवेत् ॥ तमथो नरशाVलं लक्ष्मीरायाति दासवत् ॥५७॥ स्वप्नमध्ये स्वस्य गेहं पातयित्वा पुनर्नवम् ॥ निबनाति पुमांस्तस्य व्यसनं लयमाप्नुयात्।।५८॥ स्वप्ने यो नीलवर्णा गां धनुर्वा पादरक्षणम् ॥ प्राप्नुयात्स प्रवासाद्वै सत्वरं स्वगृहं विशेत् ॥ ५९॥ अपानद्वारतो यश्च जलपानं करोति वै ॥ स्वप्न तस्य धनं धान्यं विपुलं जायते ध्रुवम् ॥६०॥ आपादमस्तकं यश्च निगडैर्ब ध्यते नरः॥ पुत्ररत्नं प्रपश्येत्स ध्रुवं तत्र न संशयः॥६॥ यो ग्रामं नगरं वापि स्वप्ने यो वेष्टयेन्नरः॥ मंडलाधिपतिःस स्याद्राममुख्योऽथवा भवेत् ॥६२॥ निम्नायामथ भूम्यां यः घा स्वप्नमें जलपान घोडेपर चढकर करै वह निश्चय राजा होताहै ॥ ५३ ॥ जो स्वप्नमें राजा होकर फिर चोर होजाय और फिर स्वामी होजाय तो वह निश्चय राजा होताहै ।। ५४ ॥ जिस पुरुषके अंगमें स्वप्नमें मूत्रपुरीष लगजाय, वा मरघटमें घरहोता दीखै तथा मूत्रपुरीषका भक्षण करै वह राजा होताहै ॥ ५५ ॥ सफेद बैलसेयुक्त यानपर चढ़कर जो पुरुष उत्तरदिशाको अथवा पूर्वदिशाको जाय वह राजा होताहै ॥५६॥ स्वप्नमें जिसपुरुषका शरीर केशरहितहो सिंहकी समान उस पुरुषको लक्ष्मी दासीकीसमान प्राप्त होतीहै ॥ २७ ॥ जो स्वप्नमें अपना घर गिराकर नयाघर बनाताहै उस पुरुषके व्यसनका नाश होताहै ॥ ५८ ॥ जो पुरुष स्वप्नमें नीली गोको प्रातही वा धनुषको वा पादरक्षा ( जूते ) को प्राप्तहो वह परदेश जाकर शीघ्रही अपने घरमें आताहै ॥ ५९॥ जो स्वप्नमें अपान मार्गसे जलपान करता है. उसके निःसन्देह धनधान्यं बहुत होताहै ॥ १० ॥ जो पुरुष चरणसे मस्तकपर्य्यन्त बेडियोंसे बांधा जाय वह निःसन्देह पुत्ररूपी धनको प्राप्त होगा ।। ६१ ॥ जो स्वममें ग्राम पा नगरको घेरताहै वह मण्डलाधिपति होताह अथवा ग्रामका मुखिया होताहै ॥ ६२॥ गहरी पृथ्वीमें जो गिरफर फिर उठे Aho ! Shrutgyanam Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) स्वपाध्याय। पतित्वा पुनरुत्पतेत् ॥ बुद्धिस्तस्य प्रसन्नास्यादनं धान्यं समश्नुते॥६३॥ यस्योत्सङ्गः फलैर्धान्यैःप्रसुनैर्वापि पूर्यते ॥ तस्य लक्ष्मीः प्रतिदिनं वृद्धिमेव समाप्नुयात्॥६४॥ स्वप्नमयं मक्षिका दंशा मशकाश्चापि मत्कुणाः ॥ खादन्ति वा वेष्टयन्ति स स्त्रीमानोत्यनुत्तमाम् ॥६५॥ यः स्वप्ने शोकसंतप्तः सरितः कमलानि च ॥ आरामान्पर्वतांश्चैव पश्येच्छोकात्स मुच्यते ॥६६॥ फलं पीतं तथा पुष्पं रक्तं वा यस्य दीयते ॥ सुवर्णलाभस्तस्य स्यात्पद्मरागं च वा लभेत् ॥ ६७॥ स्वप्ने यः कमलामूर्ति शुद्धवस्त्रां प्रपश्यति ॥ लक्ष्मीः सरस्वती वाथ प्रसन्ना तस्य जायते ॥ ६८॥ शुभ्रांगरागवसनैः परिभूषितविग्रहा ॥ आलिङ्गति च यं नारी तस्य श्रीविश्वतोमुखी ॥६९॥ श्रोत्रयोः कुण्डलयुगं मुक्ताहारो गले तथा ॥ मस्तके मुकुटो यस्य स राजा भवति ध्रुवम् ॥ ७० ॥ स्वप्ने यस्य भवेच्छोको परिदेवयते च यः॥ रोदिति म्रियते यश्च तस्य स्यात्सर्वतः सुखम् ॥ ७१ ॥ गृहांगणे यस्य पुंसः कुमु दानि करांजलौ ॥ गृहीत्वोपहतिं कुर्यात्तस्य स्याद्राज्यमुत्तउसकी बुद्धि निर्मल होतीहै और वह धनधान्यको भोगताहै ॥६३ ॥ जिसकी गोदी फलोसे धान्यसे भर उसकी लक्ष्मी प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त होतीहै ॥६४ ॥ स्वप्नमें जिसको मक्खी मच्छर खटमल काटतेहैं, वा ऊपर गिरतेहैं वह उत्तम स्त्रीको प्राप्त होताहै ॥६५॥ जो पुरुष शोकसे दुःखित होकर स्वप्नमें नदी कमल वगीचे पर्वत देख वह शोकसे छूटताहै ॥६६॥ पीला फल वा लाल पुष्प जिसको देताहै उसको सुवर्गका लाभ होताहै, वा पद्मराग मणिको पाताहै ॥ ६७ ।। स्वप्नमें जो शुद्धवस्त्रको धारण करे हुए लक्ष्मीको देखताहै उस पुरुषसे लक्ष्मी अथवा सरस्वती प्रसन्न होतीहै ॥ ६८ ॥ सफेदअंगवाली रंगेवस्त्रोंसे सुशोभित स्त्री जिस पुरुषको आलिङ्गन करतीहै उसके लक्ष्मी सामने आतीहै ॥ १९॥ जिसको दोनों कनमें कुण्डल तथा गलेमें मोतियोंका हार मस्तकपर मुकुट होताह वह पुरुष निश्चय राजा होताहै ॥ ७० ॥ जिसको स्वप्नमें शोकहो और जो परिताप करताहै रोताहै मरताहै उसको सम्पूर्ण सुख होताहै ॥ ७१ ॥ जिस पुरुषके घरके आँगनमें कमल (बबूले ) हों और दोनों हाथोंसे ग्रहण कर इकडे Aho ! Shrutgyanam Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत। (१७) मम् ॥७२॥ रत्नयुक्ते च पयके शयनं यः करोति वै ॥ सिंहासनेऽथवा तिष्ठत्तस्य राज्यमकण्टकम् ॥ ७३ ॥ सुवेषधारिभिः पुंभिः पूज्यते यः पुमानिह ॥ धनैर्धान्यैः समायुक्तः स भवेन्मानवो भुवि ॥७४॥पाणी वीणां समादाय जागृयायो नरोत्तमः॥ कन्यां कुलीनां मान्यां च लभते नात्र संशयः ॥ ७९ ॥ स्वदेहवसितं वस्त्रं शयनं सौध एव च ॥ यस्य स्वप्नेऽग्निना दग्धं तस्य श्रीः सर्वतोमुखी ॥७६॥ घनवस्त्रैवष्टितो यः शुभेदह्यत चाग्निना॥ स श्रेयोभाजनं लोके भवत्येव न संशयः॥७७॥ऋतुकालोद्भवं पुष्पं फलं वा भक्षयेच्च यः ॥ विपत्तौ तस्य लक्ष्मीः स्यात्प्रसन्ना नात्र संशयः॥ ७८ ॥ बहुवृष्टिनिपातं यः पश्येत्स्वप्नेसमाहितः ॥ ज्वलन्तमनलं वापि तस्य लक्ष्मीर्वशंगता ॥ ७९ ॥ पशुं वा पक्षिणं वापि हस्तेनास्पृश्य यो नरः॥विबुध्येत सुकन्या तं वृणु यानात्र संशयः॥८॥गोवृष मानुषं सौधं पक्षिणं कुञ्जरं गिरिम्।। समारुह्य पिबेत्तोयनिधि स नृपतिर्भवेत्॥८॥स्वमस्तकोपरितनं करें उसका उत्तम राज्यहो ।। ७२ ॥ रत्नोंसे युक्त पलंगपर. जो शयन करताहै अथवा सिंहासनपर बैठता है उसका अकंटक राज्य होताहै ॥ ७३ ॥ जो इस संसारमें अच्छे बेषधारी पुरुषोंसे पूजन किया जाय वह पुरुष संसार में धन और धान्यसे युक्त होताहै ।। ७४ ।। जो पुरुष हाथमें वीणा लेकर जागे वह पुरुष संसारमें कुलीन कन्याको प्राप्त होताहै ॥ ७९ ॥ अपने देहके पहरनेके वत्र महल शयनस्थान जिसका स्वप्नमें अग्निसे दग्धहो इसको लक्ष्मी सबप्रकारसे प्राप्त होतीहै ॥ ७६ ॥ सफेद सान्द्रवस्त्रोंसे वेष्टित जो पुरुष अग्निसे जले वह संसारमें निःसंदेह कल्याणका भाजन होताहै ।। ७७ ॥ जो पुरुष ऋतुकालमें उत्पन्न हुए फल वा पुष्पको खाय, विपत्तिमें उसकी लक्ष्मी प्रसन्न होतीहै इसमें कुछ सन्देह नहीं ॥ ७८॥ स्वप्नमें एकाग्रचित्त होकर जो बहुत वर्षाको देखै अथवा बलतीहुई अग्निको देखे उसकी लक्ष्मी वशमें होतीहै ॥ ७९ ॥ पशु. वा पक्षीको हाथसे छूकर जो मनुष्य जागे उस पुरुषको अच्छी कन्या वरें इसमें कुछ संशय नहींहै ।। ८० ॥ गौ बैल मनुष्य महल पक्षी हाथी पर्वतपर चढकर जो समुद्रको पिये वह पुरुष राजा होताहै ॥ ८१ ॥ ऊपर चढेहुए अपनेको देखतेहुए जिसपुरुषका घर जले वह पुरुष रात्री में Aho! Shrutgyanam Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) स्वपाध्याय। गृहं यस्य प्रपश्यतः॥ प्रदह्यते सप्तरात्रे स साम्राज्यमवाप्नुयात् ॥८२॥ स्वप्ने पितॄन्यः प्रपश्येत्तस्य गोत्रं प्रवर्धते ॥ हिरण्यं च प्रसादश्च नृपतेनास्ति संशयः ॥ ८३॥ शीते पयसि यः स्नानं जलक्रीडामथापि वा ॥ कुरुते तस्य सौभाग्यं वर्धते हि दिने दिने ॥ ८४॥ मातरं पितरं देवान्साधून्भत्त्या प्रपश्यति॥ तस्य रोगः प्रणष्टः स्यादन्यथा रोगभाग्भवेत ॥ ८५ ॥ श्वेतं विहंगं तुरगं मातंगं सदनं च वा ॥अधिरोहेप्रपश्येद्वा साम्राज्यं स समनुते ॥ ८६॥धान्यराशि गिरेः शृङ्गं फलितं वा वनस्पतिम् ॥ अधिरुह्य च यः स्वप्ने जागृयात्तस्य सम्पदः ॥ ८७॥ स्वप्ने क्षीरमयं वृक्षं समारुह्य प्रजागृयात् ॥ धनधान्यसमृद्धिर्हि तस्य स्यानात्र संशयः ॥८८॥ इन्द्रायुधं सूर्यरथं मंदिरं शङ्करस्य च ॥ यः प्रपश्येस्वप्नमध्ये धनं तस्य समृध्रुयात् ॥ ८९॥ प्राकारं तोरणं श्वेतच्छत्रं यः स्वप्न ईक्षते ॥धनं धान्यं संततिश्च तस्य वृद्धिमवाप्नुयात् ॥ ९० ॥ स्वप्ने यस्य भवेत्स्पर्श उल्कानां भगणस्य च॥तडितां तोयदानां च शुभं तस्य भवेदध्रुवम् ॥ राज्यको प्राप्त होताहे ॥ ८२ ॥ जो पुरुष स्वप्नमें पितरोंको देखे उसका गोत्र बढताहै राजासे सुवर्ण मिलता और राज्यकी प्रसन्नता होतीहै इसमें संदेह नहीं ॥ ८३। जो शीतजलमें स्नान करे अथवा जलमें क्रीडा करे उसका सौभाग्य दिन २ बढताह ॥ ८४ ।। जो भक्तिसे माता पिताको देवताओंको देवताहै उसका रोग नाश होताहै, और प्रेमसे नहीं देखे अर्थात् अप्रेमसे देखे तो रोगी होताहै ॥८६॥ जो सफेद पक्षीको घोडको हस्तीको घरको देखे वा इनपर चढे वह राज्यको भोगताहै।॥८६॥जो धान्यराशिपर्वत शिखर,फलितवनस्पति, इनके ऊपर चढकर स्वप्नमें जागेतो निःसन्देह उसके धनधान्यकी वृद्धि होतीहै ।। ८७ ॥ जो स्वप्नमें वृक्षपर चढकर जागे उसके निश्चय धनधान्यकी वृद्धिहो ॥ ८८ ॥ जो स्वप्नमें इन्द्रके धनुषको सूर्यके रथको शिवके मंदिरको देख उसके धनकी वृद्धि होतीहै ॥ ८९ ॥ जो स्वप्नमें किलेका परकोटा बंदरवार सफेद छत्रको देखताहै उसके धन धान्य संपत्तिको वृद्धि होतीहै ॥९० ॥ जिसको स्वप्नमें 'उल्कापातका स्पर्श हो, अथवा नक्षत्रोंका स्पर्श हो वा बिजली बादलोंका स्पर्शहो उसका निः. Aho ! Shrutgyanam Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत । (१९) ॥ ९१ ॥ जलधीनां नदीनां च यानमापूपपाचनम् ॥ स्वप्ने यः कुरुते तस्य धनं वृद्धिमवाप्नुयात् ॥ ९२ ॥ स्वप्ने मृण्मयभाण्डानां धेनूनां वा चतुष्पदाम् ॥ भूमण्डले च साम्राज्यं प्राज्यं तस्य भवेद्ध्रुवम् ॥ ९३ ॥ स्वप्ने यस्य मुखे दोहो धेनोः स्याच्छनाशनम् || वीणां च वादयेद्यो वै धनं तस्य समृभुयात् ॥ ९४ ॥ कृष्णागरु च कर्पूरकस्तूरीचंदनांबुदाः || यस्य दृष्टिपथं यान्ति लिप्यन्ते वा समानभाक् ॥ ९५ ॥ मित्राणामथ बन्धूनामलंकृतशरीरिणाम् || वधूनां कमलानां च दर्शनं शुभदायकम् ॥ ९६ ॥ कलविंकं नीलकण्ठं चाषं सारसमेव च ॥ दृष्ट्वा स्वप्ने जागृयाद्यः स भार्यां लभते ध्रुवम् ॥ ९७ ॥ धेनोर्दोहनभाण्डे यः सफेनं क्षीरमुत्तमम् । स्थितं पिबति यः स्वप्ने सोमपस्तस्य मङ्गलम् ॥ ९८ ॥ गोधूमानां यस्य लाभो दर्शनं वा भवेद्यदि । यवानां सर्षपाणां च तस्य विद्यागमो भवेत् ॥ ९९ ॥ राजानो ब्राह्मणा गावो देवाश्व पितरस्तथा ॥ स्वप्ने ब्रूयुर्यच्च यस्य तत्तत्स्यान्नैव संशयः ॥ १०० ॥ यो भुजायां ध्वजं पश्येन्नाभौ वहीं तरुं तथा ॥ संदेह शुभ होता है ॥ ९१ ॥ जो समुद्र व नदी यानद्वारा तरता है वा पुओंको खाता है उसका धन वृद्धिको प्राप्त होता है ॥ ९२ ॥ स्वप्न जो मट्टीके पात्रोंका गौओंका चतुष्पदोंका पाचन करता है, उसका भूमण्डलमें वडा राज्य होता है ॥ ९३ ॥ स्वप्न में जिसको मुखमें गौका दोहन हो उसके शत्रुका नाश होता है, और जो वीणा बजावे उसके धनकी वृद्धि होती है ॥ ९४ ॥ कालाअगर कपूर कस्तूरी चंदन बादल ये जिसको दीखें अथवा जो इनको माथेपर लगावे वह मानका भागी होता है अर्थात् संसार में उसका मान होता है ॥ ९५ ॥ मित्रोंको बन्धुओं को गहने पहरे देखे वा सुन्दर देहवालोंका स्त्रियोंका कमलोंका दर्शन शुभदायक होता है ॥ ९६ ॥ चिडा नीलकंठ सारस इनको स्वप्न देखकर जागे वह निश्चय स्त्रीको प्राप्त होताहै ॥ ९७ ॥ जो पुरुष स्वन गौके दुहनेके वर्तनमें झाग सहित उत्तम दूध पीता है उसका मंगल होता है ॥ ९८ ॥ जिसको गेहूं के आटेका लाभ हो अथवा दर्शन हो अथवा जीके आटे सरसों का लाभ हो उसको विद्याकी प्राप्ति होती है ॥ ९९ ॥ स्वप्न में राजा ब्राह्मण गौएं देव पितर ये जिस्से स्वप्नमें जो जो कहें निःसन्देह वह उस पुरुषको मिलता है ॥ १०० ॥ जो स्वप्नमें भुजा में ध्वजा देखे नाभिमें लता वृक्ष देखे निश्चय Aho! Shrutgyanam Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) स्वपाध्याय। स्यालक्ष्मीस्तस्य वै दासी तिलमात्रं न संशयः ॥ १०१॥ य आत्मानं स्वप्नमध्ये पिबन्तं धूममीक्षते ॥ तस्य लक्ष्मीः प्रसन्ना स्यादव नास्त्येव संशयः ॥ १०२॥ धूमज्वाला विरहितं वह्नि यो गाहते नरः॥ ग्रसते वा स्वप्नमध्ये तस्य लक्ष्मी वेढा ॥ १०३॥ अगम्ययोषिति गतावभक्ष्यस्य च भक्षणे ॥ शंकाविरहितं पुंसां भवन्ति शतशो रमाः ॥ १०४ ॥ स्वप्ने विहङ्गहरिणशङ्खमीनाब्धिशुक्तयः ॥ करे भवन्ति यस्यासौ धनाढयः प्रथितो भवेत् ॥ १०५॥ व सुन्धराया ग्रसनं सेतोवा बन्धनं च यः ॥ स्वप्ने यः कुरुते धीमांस्तस्य संपत्समृभुयात् ॥ १०६॥ चतुरंगवलं पश्येदा त्मानं वा मृतं तथा ॥ कदापि तस्य संपत्तेर्न नाशः स्यादिति स्मृतिः ॥ १०७॥ मुक्ताफलं विद्रुमं वा वल्लीं चाथ कपर्दिकाम् ॥ यः प्राप्नोति प्रपश्येद्वा न चिरेण धनं लभेत् ॥१०८॥केयूरहारमुकुटवेयकझपाङ्गदम् ॥ स्वप्ने प्राप्नोति वा पश्येत्तस्य लक्ष्मीनिरन्तरम् ॥१०९॥ कर्णाभरणला लाटभूषणं पत्रवल्लरीम् ॥ स्वप्ने यः प्रेक्षते धन्यस्तस्य वित्तं लमी उसकी दासीहो इसमें तिलमात्र भी संशय नहींहै ॥ १०१ ॥ जो स्वप्नमें अपनेको धुआँ पीते देखे उससे लक्ष्मी प्रसन्न होतीहै, इसमें कुछभी सन्देह नहींहै ॥ १०२ ॥ जो पुरुष स्वप्नमें धूप ज्वाला रहित अग्निको विलोडन करै वा खाय उसकी लक्ष्मी दृढहो ॥ १०३ ॥ अगम्यास्त्रीके पास जानेपर अभक्ष्यके भक्ष्यमें जो शंका रहितहों उस पुरुषके धन स्त्री सैंकडों होतीहैं ॥ १०४ ॥ जिस पुरुषके स्वप्न में पक्षी हरिण शंख मछली सीपी हाथमें आवें वह पुरुष प्रसिद्ध धनाढय होत है ।। १०५ ॥ जो पुरुष स्वप्नमें पृथ्वीका ग्रास करताहै, और पुल बांधताहै उसकी सम्पत्ति वृद्धिको प्राप्त होतीहै ॥ १०६ ॥ जो चार प्रकारके अंगवाली सेनाको देखे अथवा अपने को मरा हुआ देख उस पुरुषकी सम्पत्तिका नाश कभी भी नहो इस प्रकार स्मृति कहतीहै ॥ १०७ ॥ मोतीको' मंगेको, वा वेलको वा कौडीको स्वप्नमें प्राप्त होता देखें वह शीघ्रही लक्ष्मीको प्राप्त हो । १०८॥ बाजूबन्द हार मुकुट कंठा फल मछलीके रूपका कोई गहना जो स्वप्नमें देखताहै वा पाताहै उसे धनकी प्राप्ति होतीहै ॥ १०९ ॥ कानके गहने, मस्तकके गहने, पत्रावळको जो Aho! Shrutgyanam Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत । प्रपूर्यते ॥ ११० ॥ नन्द्यावर्तः स्वस्तिकश्च दूर्वामाङ्गल्यदोरकः ॥ स्वमे दृष्टिपथं यायाद्यस्य स स्यान्नृपाणीः ॥ १११ ॥ व्यजनां कुशवज्राणि भाजनध्वजतोरणान् ॥ स्वमे यः पश्यति पुमान्स्पृशेद्वा स प्रवर्धते ॥ ११२ ॥ विलासिनी कुचा भोगपरिमर्दन चाटुभिः ॥ क्रीडाभी रमते यश्च स स्त्रीधनमंत्रामुयात् ॥ ११३ ॥ खगपट्टिशशाङ्गसिपुत्रीचक्रगदाः शिताः ॥ स्वप्ने पश्यति चेत्पाञ्चजनं स लभते महीम् ॥ ॥ ११४ ॥ शातकौम्भविदूरेजवत्रभूषितमेदिनीम् ॥ स्वप्ने यः पश्यति पुमान्स स्याच्छुभशतैर्युतः ॥ ११५ ॥ तुलाया तोलनं पश्येद्धान्यशस्त्रादिवस्तुनः ॥ शुभलाभो भवेत्तस्य दर्शनं वा करोति यः ॥ ११६ ॥ शालितन्दुलमुद्गानां कणान्पश्यत्यथ स्वयम्।। आदत्ते करमध्ये वा भुङ्गे वा सभवेद्धनी ॥११७॥ वैकुण्ठपीठनिलयं चतुर्भुजधुरंधरम् ॥ श्री हरिं वीक्षये स्वने सस्याद्योगिवरो नरः ॥ ११८ ॥ लक्ष्मी सरस्व ती सूर्यबिम्बं गोत्रस्य देवताम् ॥ स्वप्ने दृष्ट्वा जागृयाद्यः स धन्यो मान्य एव च ॥ ११९ ॥ सरोवरं सागरं च प्रपूरितजलैर्युतम् ॥ स्वप्नमें देखताहै उसके धन पूर्ण होता है ॥ ११० ॥ नदी भ्रमर मांगालेक पदार्थ दुर्वा माङ्गल्य दोरक स्त्रप्नर्मे जिसको दीखते हैं वहभी राजों में अग्रणी होता है ॥ १११ ॥ जो पुरुष स्वमें पंखा, अंकुश, वज्र, भाजन, ( पात्र ) ध्वजा ( पताका ) बन्दनवार देखता है, वा स्पर्श करता है वह वृद्धिको प्राप्त होता है ॥ ११२ ॥ स्त्रीके स्तनको भोग के समय मर्दन करके क्रीडाओं को करके जो रमण करता है वह चतुर स्त्रीरूपी धनको प्राप्त होता है ॥ ११३ ॥ तेज तलवार पट्टिश धनुष छुरी चक्र गदा । जो स्त्रममें देखता है वह पृथिवीको पाता है ॥ ११४ ॥ जो ननुष्य स्वममें सुवर्णकी भूमिको हीरों से भूषित देखता है वह सैंकड़ों शुभ से युक्त होता है ॥ ११९ ॥ वान्य शस्त्रादि वस्तुओं को जो तराजू से तुलता देखे वा तोले उसको अच्छा लाभ होवे ॥ ११६ ॥ जो आप साठीके चावल वा मूंगके कणें (किन्कीको) देखता है, वा हाथमें लेता है अथवा खाता है वह धनबानू होता है ॥ ११७ ॥ स्त्रममें जो वैकुण्ठपति चारभुजाको धारण करते हुये श्रीभगवान्को देखे बह पुरुष योगियोंमें श्रेष्ठ हो ॥ ११८ ॥ लक्ष्मी, सरस्वती, सूर्यकी परछाईंको गोत्रके देवताको जो स्वप्नमें देखकर जागे वह मनुष्य धन्य और पूजने योग्य होता है ॥ ११९ ॥ पूर्णजल से युक्त ताला Aho! Shrutgyanam (२१) Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) स्वमाध्याय। मित्रनाशं च यः पश्येदनिमित्तं धनं लभेत् ॥ १२० ॥ स्वप्नमध्ये देवताभिर्दत्तं पीयूषमास्वदेत् ॥ यःस स्यात्पृथिवीपालो नृपाणां विदुषां च वा ॥ १२१ ॥ सुगन्धपुष्पमालम्बं वीक्षते लभते च यः ॥ कण्ठमध्ये क्षिपति च स नृपालो भवेद्धवम् ॥१२२॥ आसमुद्रक्षितीशो यःस्वप्नमध्ये भवेन्नरः॥ क्षीरानभुम्भवेद्वापि सलभेत्सुखमुत्तमम् ।।१२३॥ गानवेदगजानां च सिंहसैन्धवयोरपि ।। ध्वनि यः शृणुयान्मर्त्यः प्राप्नो ति स धनं बहु ॥ १२४ ॥ मेरोरधित्यकायां वा कल्पपादपशेखरे ॥ अधिरुह्य प्रपश्येद्यो नीलं तृणमयं धनी ॥ १२५॥ गगने तारकाकामधेनुपक्तिं प्रपश्यति ॥ शुभ्राणि चाभ्रखण्डानि लभते सधनं बहु ॥ १२६॥ पुन्नागचंपकतिलनागके सरमालतीः॥शिरीषं च प्रपश्येद्यः स्वप्ने तस्य शुभं भवेत् । ॥ १२७॥ कदली दाडिमं चाथ नारिंगं मातुलुंगकम् ॥ यदि पश्येद्भक्षयेद्वा शुभं स लभते ध्रुवम् ॥ १२८ ॥ कदलीप्रभृतीनां च प्रसूनैः संयुता द्रुमाः॥ यदि दृष्टिपथं याता नाशुभं स्यात्कदाचन ॥१२९॥ द्राक्षाराजादनीपूगनालिकेरफलानि घको, समुद्रको मित्रके नाशको जो देखे वह पुरुष विना कारण धनको प्राप्तहोताहे ॥१२०॥ स्वप्नके वीचमें देवताओं करके दिये हुये अमृतका जो स्वादले वह राजा होताहै वा पंडितोंका अधिपति होताहै ॥ १२१ ॥ जो पुरुष सुगन्ध पुष्पोंकी मालाको देखताहै, या प्राप्त होताह वा जिसके कण्ठके बीचमें माला गिरे वह निःसंदेह राजा होताहै ॥ १२२ ।। जो पुरुष स्वप्नमें समुद्रपर्यन्त पृथिवीका राजा हो अथवा दूध और अन्न भोगनेवाला हो वह उत्तम सुखको प्राप्त होताहै. ॥ १२३ ॥ स्वप्नमें गाना वेद हाथी सिंह घोड़ा इनकी ध्वनिको जो सुने वह बहुत धनको पाता है ।। १२४ ।। जो मनुष्य पर्वतकी ऊपरकी भूमिपर अथवा कल्पवृक्षके शिखरपर चढ़कर नीले तृणवाली भूमिको देखे वह धनी होताहै ।। १२५ ॥ जो आकाशमें सारोंको कामधेनुओं (गौ ) कोदेखताहै अथवा सफेद मेवोंके खण्डोंको देखताहै वह बहुत धनको पाताहै ॥१२६॥ जो पुरुषः नागकेशर, चमेली, तिल, मालती, शिरस इनको स्वप्नमें देखे उसका शुभहो ।। १२७ ॥ केला दाडिमी विजौरा नींबू यदि देखे वा खाय वह कल्याणको निःसंदेह पाताहै ॥१२८॥ केलेके वृक्षादिकोंके पुष्पोंसहित वृक्ष यदि दीखें तो उसका कभी अशुभ न हो ॥१२९॥ अखरोट, खिरनी२ Aho ! Shrutgyanam Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत । (२३) यः॥ स्वप्ने प्रपश्यतिजनः स प्राप्नोत्युत्तमां श्रियम् ॥१३०॥ अशोकं चंपकं स्वर्ण चंदनं च कुरंटकम् ॥ स्वप्ने यः पश्यति पुमान्स स्याल्लक्ष्मीसमन्वितः ॥ १३१॥ एलालवंगकर्पूरफलानि सुरभीणि च ॥ जातीफलं च खादेवा पश्येदा स भवेद्धनी ॥ १३२॥ कुन्दस्य मल्लिकायाश्च प्रसूनं यो नरो- .. त्तमः ॥ स्वप्नमध्ये च लभते पश्येद्वा स भवेद्धनी ॥ १३३॥ केतकी बकुलं चापि पाटलं पुष्पमेव च ॥स्वप्रमध्ये प्रपश्येद्यः स भवेद्धनधान्यवान् ॥ १३४॥इक्षुवल्लीं नागवल्ली यः स्वप्ने भक्षयेन्नरः ॥ लुठेद्धस्ते तस्य धनं तितिणीफलबीजवत् ॥ ॥ १३५ ॥ स्वप्नमध्ये यस्य पुरोधातूनां चोपहारणम् ॥ सीसत्रप्वारकूटानां स्थाप्यते स सुखी भवेत् १३६ ॥ लौकि कव्यवहारे ये पदार्थाःप्रायशः शुभाः॥सर्वथैव शुभास्ते स्युरिति नैव विनिश्चयः॥१३७॥ परंतु ते शतपथः शुभं दद्युः फलं सदा ॥ अशुभा अपि ये केचित्तेऽपि सत्फलदायिनः • ॥ १३८ ॥ भवन्ति मनुजानां वै नात्र किंचिद्विरोधनम् ॥ यतो लौकिकभावेनाशुभत्वं तत्र धिष्ठितम् ॥ १३९ ॥ सुपारी, नारियलको जो स्वप्नमें देखताहै वह मनुष्य उत्तम लक्ष्मीको पाताहै ॥ १३० ॥ जो स्वप्नमें अशोक वृक्षको चम्पाको सुवर्णको चंदन और गुलाबांसको देखताहै वह पुरुष लक्ष्मीको पाताहै !! १३१॥ इलायचीको लौंगको कपूरको और सुगन्धित फलोंको जाय फलको जो खाय वा देखे वह मनुष्य धनवान् होताहै ॥ १३२ ॥ जो पुरुष श्रेष्ठ कुंद ( माध्य ) के बेलेके पुष्पोंको स्वप्नमें खाताहै अथवा देखे वह धनवान् होताहै ॥ १३३ ॥ केतकीको मौलश्रीको लाल पुष्पको जो स्वप्नमें देख वह पुरुष धनधान्य वाला होताहै ॥ १३४ ॥ तालमखानेकी (गन्ना) बेलको पानकी बेलको जो मनुष्य स्वप्नमें खाय उसके हाथमें इमलीके फलके बीजकी समान धन धन गि रताहै ॥ १३५॥ स्वप्नके बीच जिसके आगे धातुओंका ढेर सीसा रांग और पतिल स्थानपर किया जाताहै वह सुखी होताहै ॥ १३६ ॥ लौकिकव्यवहारमें जो पदार्थ प्रायशः शुभहै वे सर्वथा शुभही हों ऐसा निश्चय नहींहै॥१३७॥ परन्तु वे शतयथमें प्राप्तहुए सदा शुभफल देतेहैं जो अशुभ भी हों वे श्रेष्ठफल देनेवाले होतेहैं॥१३८॥इस प्रकार मनुष्योंको शुभफल होताहै,इसमेंकोई विरोध नहीं Aho ! Shrutgyanam Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) स्वमाध्याय। तथापि ते शुभं भावमावहन्ति निदर्शनात् ॥ एषा नारायण स्यैव क्लप्तिरित्येव निश्चयः ॥१४॥ इति श्रीमज्ज्योतिर्विच्छीधरेण संग्रहणपूर्वकविर चितस्वप्नकमलाकरे शुभस्वप्नप्रकरणकथनं नाम द्वितीयः कल्लोलः ॥२॥ हैं कारण लौकिकभावसे उनमें अशुभपना स्थितहै ॥ १३९ ॥ तो भी वे दृष्टान्तसे शुभभाव ही प्रकाश करतेहैं, यह निश्चय नारायण कृतिहै इसमें संदेह नहींहैं ॥ १४०॥ . इति श्रीस्वप्नकमलाकरे पंडितज्वालाप्रसाद मिश्रकृतभाषाटीकायां शुभस्वप्नकथनं नाम द्वितीयः कल्लोलः ॥ २॥ अथतृतीयः कल्लोलः। अतः परं प्रवक्ष्यामि स्वप्नानां फलमन्यथा ॥ यतो ज्ञास्यन्ति भूलोकेऽशुभं यत्स्वल्पबुद्धयः ॥ १॥ आयुधानां भूषणानां मणीनां विद्रुमस्य च ॥ कनकानां च कुप्यानां हरणं हानिकारकम् ॥ २ ॥ हास्ययुक्तं नृत्यशीलं वित्रस्तं केशवर्जितम् ॥ स्वप्ने यः पश्यति नरं स जीवेन्मासयुग्मकम् ॥३॥कर्णनासाकरादीनां छेदनं पङ्कमजनम्॥पतनंदन्तकेशानांबहुमांसस्य भक्षणम् ॥४॥गृहप्रासादभेदं च स्वप्नमध्ये प्रपश्यति ॥ यस्तस्य रोगबाहुल्यं मरणं चेति निश्चयः॥५॥ अश्वानांवारणानां च वसनानां च वेश्मनाम् ॥ स्वप्ने यो हरणं पश्येत्तस्य राजभयं भवेत् ॥६॥स्वस्यवपल्यभिहारे इससे पीछे अब कनिष्ट स्वप्नोंका फल कहूंगा, जिससे अल्पबुद्धिके मनुष्य इस संसारमें अशुभ . फलको जानसकें ॥ १ ॥ शस्त्रोंका गहनोंका मंणियोंका मूंगोंका सुवर्णका तांबेका ( पैसोंका ) चुराना हानिकारक होताहै ॥ २ ॥ हास्ययुक्त नृत्यशील लंबे चौडे केश रहित पुरुषको स्वप्नमें जो मनुष्य देखताहै ? वह दोमास जीताहै ॥ ३ ॥ कान नाक हाथका कटना कीचमें सनना दांत, के शोंका गिरना बहुत मांसका खाना ॥ ४ ॥ गृहका गिरना राजमहलका गिरना जो स्वप्नके बीचमें देखताहै, उसके रोग बहुत होताहै अथवा मरण होताहै ॥ ५ हाथियोंका घोडोंका कपडोंका स्था नका हरण (चुराना) जो स्वप्नमें देखे उसको राजभय होताहै ॥ ६ ॥ जो अपनी स्त्रीका हरण Aho ! Shrutgyanam Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भाषाटीकासमेत। (२५) च लक्ष्मीनाशो भवेद्धवम् ॥ स्वस्यापमाने संकेशो गो त्रस्त्रीणां च विग्रहः॥७॥ स्वप्नमध्ये यस्य पुंसो ह्रियते पादरक्षणम् ॥ पत्नी च म्रियते यस्य स स्यादेहेन पीडितः ॥८॥ स्वप्ने हस्तद्वयच्छेदः यस्य स्यात्स नरो भुवि ॥ मातापितृविहीनः स्याद्गवां वृन्दैश्च मुच्यते ॥९॥ दन्तपाते द्रव्यनाशः नासाकर्णप्रकर्त्तने ॥ फलं तदेव व्याख्यातमत्र नास्त्येव संशयः ॥ १० ॥ चक्रवातं च यः पश्येदङ्गे वातं च यः स्पृशेत् ।। शिखा चोत्पाट्यते यस्य स म्रियेताचिरादुवम् ॥११॥ स्वनमध्ये यस्य कर्णे गोमीगोधाभुजङ्गमाः॥ प्रविशन्ति पुमान्कर्णरोगेण स विनश्यति ॥ १२॥ सूर्याचन्द्रमसोः स्वप्ने ग्रहणं यः प्रपश्यति ॥ पञ्चरात्रेण पञ्चत्वं स प्राप्नोति न संशयः॥ १३॥ नेत्ररोगं दीपनाशं तारापातं तथैव च ॥ स्वप्ने यः पश्यति पुमानङ्गरोगी स जायते ॥१४॥ द्वारस्य परिघस्याथ ग्रहस्योपानहस्तथा ॥ स्वप्ने भग्नं प्रपश्येचेत्तस्य गोत्रं प्रणश्यति ॥ १५ ॥ हरिणच्छा गकरभरासभानां च दर्शनम् ॥ स्वप्नमध्येऽनिष्टकरं भवत्यत्र देखे उसके धनका नाश हो अपना अपमान देखे तो क्लेशहोय, गोत्रकी स्त्रियोंसे लड़ाई होय ॥ ७ ॥ स्वप्नके बीचमें जिस पुरुषका जता चोरी जाय अथवा स्त्री मरे वह मनुष्य देहसे दुःखित हो ॥६॥ स्वप्नके बीचमें जिस पुरुषके दोनों हाथ कटें, वह पुरुष संसारमें माता पिता रहित हो, अथवा गौओंसे रहितहो ॥९॥ दांतगिरेंतो इन्द्रियोंका नाश हो नाकके कानके कटनेपर द्रव्यनाश होय इसमें कोई संशय नहींहै ॥ १० ॥ अङ्गमें जो चक्रवातको देख अथवा पवनका स्पर्श करे वा जिसकी शिखा कोई उखाडे वह जल्दी मरताहै ॥ ११॥ स्वप्नके बीचमें जिसके कानमें गोमी गोय वा सर्प प्रवेश करतेहैं वह पुरुष कानके रोगसे नाशको प्राप्त होताहै ॥ १२ ॥ जो सूर्य चंद्रमाका ग्रहण स्वप्नमें देखताहै वह मनुष्य पांच रात्रिमें मरजाता, इसमें कुछ संशय नहींहै ॥ १३ ॥ जो नेत्र रोगको, दियेके नाशको ( दियागुल ) तारोंके गिरनेको स्वप्नमें देखताहै वह पुरुष अङ्गरोगी होताहै ॥ १४ ॥ जो स्वप्नमें दरवाजेका परिघ ( गदा ) का नक्षत्रका जूतेका टूटना देख उसका गोत्र नष्ट होताहै ॥ १५ ॥ हरिण, बकरी, हाथीका बचा गदहा इनका दर्शन Aho ! Shrutgyanam Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) स्वमाध्याय । न संशयः || १६|| अहिं च नकुलं कोलं जम्बुकं च तरक्षकम् ॥ स्वप्ने वीक्ष्य नृणां द्वेषकारकाः प्रभवन्ति हि ॥ १७ ॥ चित्रकं च चमूरुं च गण्डकं योऽवलोकयेत ॥ स्वप्नमध्ये नरस्यास्य भवेत्सौभाग्यसंक्षयः ॥ १८ ॥ कलविङ्कं वायसं च कौशिकं खञ्जनं किरिम्॥ दृष्ट्वा स्वप्ने जागृयाद्यः स धनैर्वर्जितो भवेत् ॥ १९ ॥ जलकुक्कुटा दात्यूहकुररीकुक्कुटा यदि ॥ स्वप्ने दृष्टिपथं याता विनाशं कुर्वते खलु ॥२०॥ पाकस्थाने सूतिगृहे प्रसून विपिनेऽपिच॥ प्रविशेद्यः स पुरुषो मृत्युमाप्नोत्यसंशयम् ॥ ॥ २१ ॥ कूपे गर्ते कन्दरायां स्वप्रे यः प्रविशेत्पुमाः ॥ आपदामास्पदं स स्याद्विपदां च पतिर्भवेत् ॥ २२॥ पक्कमांसं भक्षयेद्यः प्रेक्षयेद्वा लभेत वा ॥ क्रयविक्रयतस्तस्य द्रव्यनाशो भवेद्ध्रुवम् ॥ २३ ॥ शष्कुल्याः पौलिकायाश्वापूपस्य वरणस्य च ॥ भक्षणं कुरुते स्वप्ने शोकाद्यैः स प्रपीडयते ॥ २४ ॥ स्वप्नमध्ये सरोमध्ये कमलानि प्रपश्यति ॥ उद्भवन्ति नरो यश्च स रोगैर्नश्यति ध्रुवम् ॥ २५ ॥ स्वप्नमध्ये पिशाचाद्यैः सुरापानं करोति यः ॥ दारुणैर्व्याधिभिर्व्याप्तो मरणं सं स्वप्नमें हानिकारक होताहै, इसमें कुछ संशय नहीं है ॥ १६ ॥ सांप नेवला, गीदड़, शूकर, इमको स्वममें देखना मनुष्यों के द्वेषकारक होता है ॥ १७ ॥ चीता और मृग गैंडा इनको जो स्वप्नमें देखे उस पुरुष के सौभाग्यका नाश होता है ॥ १८ ॥ चिडिया, काक, उल्लू, कौडीला, सांप, चैटीको स्त्रमें देखकर जो जागे वह धनसे रहित होता है || १९|| जलमुर्गावी, कालाकाग, कररी नाम जीव मुरगा यदि ये स्वप्न में दीखें तो निःसंदेह विनाश करते हैं ॥ २०॥ रसोईके स्थान में प्रसूतीके वरमें पुष्पों के बगीचे में जोप्रवेश करे वह पुरुष मृत्युको प्राप्त होता है ॥ २१ ॥ कूपमें गढ़े में गुफामें जो पुरुष प्रवेश करे उसपुरुषको आपत्तियें होती हैं, विपत्तियों का मानो स्थानही होता है ॥ २२ ॥ जो पक्कमांसको खाय वा देखे वा प्राप्त होय मोल ले या बेचे उसके द्रव्यकानाश निःसंदेह होता है ॥ २३ ॥ पुरीको अधपके अन्नको मालपुएको वरना ( वृक्षको ) जो स्वप्न में खाताहै । वह शोक से पीडित होता है ॥ २४ ॥ स्वप्नके बीचमें तालाब में कमलों को देखता है, वह पुरुष रोगों से निःसंदेह नाशको प्राप्त होताहे ॥ २५ ॥ जो स्वप्नमें पिशाचादिकों के साथ मदिरापान Aho! Shrutgyanam Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत। (२७) प्रपद्यते ॥२६॥ चाण्डालैः सह यस्तैलं स्वप्ने पिबति पूरुषः॥ प्रमेहव्याधिना युक्तो मरणं स प्रपद्यते ॥ २७ ॥ कृशरां भक्षयति यः क्षयरोगी स जायते ॥ नारीस्तनपयःपायी पुनर्जन्म लभेत च ॥२८॥ अतितप्तं च पानीयं गोमयेन युतं पिबेत् ॥ कटुतैलं चौषधेनातीसारेण विपद्यते ॥२९॥ जतुकुकुमसिन्दुरधातुपातो गृहोपरि ॥ आकाशाद्यस्य भवति तद्हं दह्यतेऽग्निना॥३०॥ तालकीचकखजूररोहिताख्यद्रुमाङ्करः॥ कण्टकैश्च परीतः सन्रोहेत्स म्रियते खलु॥३१॥दर्भास्तृणानि गुल्माश्च वामलूरास्तथैव च।।उत्पद्यन्ते यस्य देहे व्याधिभिःस म्रियेत वै ॥३२॥ श्यामं हयं समारूढः श्यामद्रव्यानुलेपनः॥ श्यामं पटं परिवसेत्स्वप्ने यस्तस्य संक्षयः ॥३३॥ अशोकं किंशुकंपारिभवृक्षं च यो नरः।।स्वप्नमध्ये समारोहेदाधिभिः संयुतो भवेत्॥३४॥वराहपृष्ठमासीनानारी यं परिकृष्यति।सा रात्रिश्चरमा तस्य वनवास्यथवा भवेत् ॥३५॥ यः पुना रथमारूढः प्रेतसर्पसमायुतम् ॥ पुरी संयमिनी गच्छेत्सोऽचिरा करताहै, वह कठोर व्याधियोंसे युक्त मरणको प्राप्त होताहै ॥ २६ ॥ जो पुरुष चाण्डालके साथ तेलको स्वप्नमें पीताहै वह प्रमेहकी ब्याधिसे मरणको प्राप्त होताहै ॥ २७ ॥ जो कृशरा खाताह वह क्षयरोगी होताहै स्त्रीके स्तनसे दूध पीनेवाला पुनर्जन्मको पाताहै ॥२८॥ अत्य. न्त गरम गोमयसे (गोवर ) युक्त पानीको जो पिये अथवा दवाईके साथ कडुवा तेल पिके उसको अतिसार रोग होताहै ॥ २९॥ लाख, कुंकुम, सिंदूर धातुपात जिसघरके ऊपर आकाशसे होताहै वह घर अग्निसे जलताहै ॥ ३० ॥ ताल कीचकवृक्ष बांस खजूर रोहितवृक्ष अंकुआ इनके ऊपर कांटोंसे लगाहुआ चढे वह निश्चय मरताहै ॥ ३१ ॥ कुश तृण हूँठ बमई जिसके शरीरमें उत्पन्न होतेहैं वह ब्याधियोंसे निश्चय मरताहै ॥ ३२ ॥ जो स्वप्नमें श्याम घोडपर चढा हुआ श्याम द्रव्योंका लेप करे श्याम वस्त्रको धारण करे उस पुरुषका नाश होय ॥ ३३ ॥ अशोकके वृक्षपर टेसूके उपर नीमके ऊपर जो पुरुष स्वप्नमें चढे वह पुरुष मनको व्यथासे संयुक्त होय ॥ ३४ ॥ असुरकी पीठपर बैठीहुई स्त्री जिसको खींचतीहै, वह रात्रि उसकी पिछलीहै अथवा वह बनवासी होताहै ॥ ३५ ॥ जो पुरुष प्रेत औरं सर्पसे युक्त स्थपर चढकर यमपुरीको Aho ! Shrutgyanam Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • (36) स्वाध्याय । म्रियते नरः ॥ ३६ ॥ हसते शोचति मुहुर्नृत्यं चारभते पुनः ॥ वधो बन्धश्च तस्य स्यादत्र नास्त्येव संशयः ॥ ३७ ॥ स्वप्रमध्ये मूत्रयते हदते वा च यो नरः ॥ लोहितं तस्य बहुशो धनं धान्यं च नश्यति ॥ ३८ ॥ सिंहो गजोऽथ सर्पश्च पुरुषो मकरस्तथा ॥ यं कर्षति भवेन्मुक्तो बद्धोऽन्यो बन्धितो भवेत् ॥ ३९ ॥ पितृतर्पणवैवाहसांवत्सरिककर्मसु ॥ कुरुते भोजनं स्वप्ने यः स चाशु विनश्यति ॥ ४० ॥ स्वप्ने यः शैलशृङ्गाग्रे श्मशाने चापि पूरुषः ॥ अधिष्ठाय पिबेमधं मद्यतः स म्रियेत वै ॥ ४१ ॥ यस्य स्वप्ने रक्तपुष्पं सूत्रं रक्तं तथैव च ॥ बध्यते वेष्टयते चाङ्गे स शुष्को भवति ध्रुवम् ॥ ४२ ॥ पाण्डुरोग परीताङ्गं स्वप्ने दृष्ट्वान्यपूरु षम् ॥ रुधिरेण विहीनः स्यात्तस्य देहो न संशयः ॥ ४३ ॥ जटिलं रूक्षमलिनं विकृताङ्गं मलीमसम् ॥ स्वप्ने दृष्ट्वान्य पुरुषं मानहानिः प्रजायते ॥ ४४ ॥ शत्रुभिः कलहे वादे युद्धे यस्य पराजयः ॥ स्वप्नमध्ये भवेत्तस्य वधो बन्धोऽथवा भवेत्॥४५॥ यस्य गेहेऽङ्गणे वाथ विशंति मधुमक्षिकाः ॥ स्वप्ने जाय वह शीघ्र मरे ॥ ३६ ॥ जो हसता शोचता है फिर वारंवार नृत्यको आरम्भ करता है, उस पुरुषका नाश होय, अथवा बन्धन होय इसमें कुछ संदेह नहीं है ॥ ३७ ॥ जो स्वप्न में रूधिर मूतता अथवा रूरकी विष्ठा त्यागन करें उस पुरुषका अनेकप्रकार से धन धान्य नाश होता है ॥३८॥ सिंह,हाथी, सांप, पुरुष, मकर, जिसको स्वप्नमें खीचता है वह छूटा हुआ बंधताहे ॥३९॥ पितृ तर्पण विवाह कार्यों में वार्षिक कर्मों में जो स्वप्न में भोजन करता है वह शीघ्रही नाशको प्राप्त होताहै ॥ ४० ॥ जो पुरुष पर्वत के शिखरके ऊपर अथवा श्मशान में बैठकर मदिरापिये वह निश्चय मरे ॥ ४१ ॥ जिस पुरुषके स्वप्न में लालफूल लाल सूत्र शरीर में बाँधा जाय वा लपेटा जाय वह पुरुष निश्चय सूखता ॥ ४२ ॥ स्वप्न में अन्य मनुष्य को देखकर जिसके पाडुरोग होजाय उस पुरुषका शरीर रुधिरसे नष्ट होय इसमें कुछ संशय नहीं है ॥ ४३ ॥ जटावाले रूखे मलीन विकृताङ्ग निन्दासे युक्त अन्य पुरुषको स्वप्न में देख मानहानि होती है। ॥ ४४ ॥ शत्रुओं के साथ जिसका कलहमें विवाहमें युद्ध में पराजय होय उसका वध अथवा बंधन होय ॥ ४५ ॥ स्वद्यमें जिसके घर में अथवा आँगनमें सहदकी मक्खियें बास करती है वह मृत्युको प्रात Aho! Shrutgyanam Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत। (२९) स मृत्युं लभते वा शुभेन विमुच्यते॥४६॥ कुडयेऽथवा भित्ति तले चित्राकारविलेखितम् ॥ राहुयुक्तं चन्द्रबिम्बं स्वप्ने दृष्ट्वा विनश्यति॥४७॥ स्वप्ने य इष्टप्रतिमां स्फुटितां चलितामपि॥ प्रपश्यति नरस्तस्य मृत्युदौवारिको भवेत् ॥ ४८॥ स्वप्ने यः कुलदैवत्यं चोर्यमाणं प्रपश्यति ॥ चौरैर्यमभटैस्तस्य चोर्यन्ते प्राणवायवः ॥४९ ॥ आराममध्ये वृक्षापात्पतितो मार्गमन्तिके ॥ न पश्यति नरस्तस्य मरणं स्यान्न संशयः॥५०॥ कृतक्षौरः पटहकं स्वप्ने यो वादयेन्नरः ॥ यमस्य नगरी जेतुं जयध्वनिरुदीर्यते ॥५१॥ रक्ताङ्गा रागकृप्ताङ्गी शुष्कमालाविभूषणा॥ आलिङ्गति दृढं नारी यं स आशु म्रियेत वै॥ ॥५२॥॥ मुक्तकेशा कृष्णगन्धपरिचर्चितगात्रिका ॥ नार्यालिङ्गति यं स्वप्नेस आशु म्रियते नरः॥५३॥ भयङ्करारुणापाङ्गी पीताम्बरपरीवृता ॥ नार्यालिङ्गति यं स्वप्ने स आशु म्रियते नरः ॥ ५४ ॥ कृशोदरी पिङ्गनेत्री नना दीर्घनखा तथा ॥नायोलिङ्गति यं स्वप्ने स आशु म्रियते नरः॥५५॥ होताहै अथवा कल्याणरहित होता है ॥४६॥ दीवालपर अथवा दीवार के नीचे चित्रकारसे लिखित राहुसे युक्त चंद्रमाकी परछाईको स्वप्नमें देखकर शीघ्रही नाशको प्राप्त होताहै ॥ ४७ ॥ जो स्वप्नमें इष्टमार्तको टूटीहुई देखे अथवा चलतीहुई देखे उस मनुष्यकी मृत्यु दुःखसे निवारणक योग्य होतीहै ॥ ४८ ।। जो मनुष्य स्वप्नमें कुलके देवताओंकी वस्तुको चुराया हुआ देखताहै उसकी प्राणवायु यमके भटोंसे चुराई जातीहै ।। ४९ ॥ बगीचेके बीचमें बृक्षसे गिरता हुआ समीपके मार्गको जो नहीं देखताहै, उसका निश्चय मरण होताहै इसमें कुछ संशय नहींहै ॥१०॥ जो स्वप्नमें क्षौर कराकर बडे नगाडेको बजाताहै, वह पुरुष यमराजकी नगरी जीतनेको जयध्वनि उच्चारण करताहै ॥ ५१ ॥ लालअङ्गवाली रङ्गसे रचित शरीरवाली सूखी मालासे शोमित स्त्री जिस पुरुषका आलिङ्गन करतीहै वह निश्चय शीघ्र मरताहै ॥ १२ ॥ केश रहित काली गन्धसे युक्त शरीरवाली स्त्री जिस पुरुषका स्वप्नमें आलिङ्गन करतीहै वह पुरुष अवश्य मरताहै ॥५३॥ भयङ्कर लालनेत्र वाली पीले वस्त्रसे व्याप्त स्त्री जिस पुरुषको स्वप्नमें आलिङ्गन करती है वह पुरुष शीघ मरताहै ॥ ५४ ॥ कृश उदरखाली पीलेनेत्र वाली नंगी बड़ेनाखूनवाली स्त्री जि Aho! Shrutgyanam Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) स्वमाध्याय । कृष्णवर्णा विकृताङ्गी नग्ना कुञ्चितकुन्तला ॥ स्वप्ने नारी यमाकृष्य रमते स म्रियेत वै॥५६॥कज्जलेन च तैलेन लिप्ताङ्गो रासभोपरि ॥ समारूढो यमदिशं यो यायात्स म्रियेत वै ॥२७॥ खरक्रमेलकयुतं समारुह्य च वाहनम् ॥ जागृयात्स्वप्नमध्यायो मृत्युस्तस्य ध्रुवं भवेत् ॥ ५८॥ यः पङ्किलेड म्भसि स्वप्ने उन्मज्जति निमजति ॥ निर्गच्छति च कृच्छ्रेण भूतेन म्रियते च सः॥५९॥ नृत्यन्मत्तश्च यो मर्यो यमस्य नगरीमुखम् ॥प्रेक्षतेवा प्रविशति सप्राणैर्विरही भवेत्॥६०॥ रक्ताङ्गरागवसनभूषणैरतिभूषिताम् ॥ नारी विचुम्ब्य सुरतं यः करोति म्रियेत सः॥६॥ स्वप्ने क्रूरं च पुरुषं यः पश्यति निरन्तरम् ॥ वर्षमध्येऽसवस्तस्य यमस्यातिथयः किल ॥ ॥ ६२॥ हर्षोत्कर्षः स्वप्नमध्ये विवाहो वापि जायते ॥ यस्य सोऽपि विजानीयान्मृत्युमागतमन्तिके॥ ६३॥ स्वप्ने नारी खपरेषु निधायानं च यं नरम्।। रात्रावभिसरेत्सोऽपिन चिरेण विनश्यति ॥ ६४॥ पिशाचश्वपचप्रेतप्रकृति प्रमदां गतः॥ कन्यां च कामी यो गच्छेत्स आश म्रियते नरः ॥ ६५॥ स पुरुषको स्वप्नमें आलिङ्गन करतीहै वह शीघ्र मरताहै॥ ५५ ॥ काली विकृताङ्गी ( नाक आदिसे रहित) नंगी ठेढे केशोंवाली स्त्री स्वप्नमें जिस पुरुषको खेंचकर रमण करतीहै वह निश्चय मरताहै॥५६॥स्या हीसे अथवा तेलसे युक्त जो पुरुष गधेके ऊपर चढकर दक्षिणदिशाको जाय वह पुरुष निश्चय मरे ॥१७॥ गधा और ऊंटसे युक्त सवारीमें चढकर जो स्वप्नके बीचमें जागे उसकीमृत्यु निश्चय होय ॥१८॥ जो पुरुष कीचडयुक्त जलमें स्वप्नमें डूबताहै निकलताहै ऊपरको उठताहै वह बडे दुःखसे भरताहै ॥ ५९॥ नाचताहुआ उन्मत्त जो पुरुष यमराजकी नगरीके मुखको देखताहै, अथवा प्रवेश करताहै वह प्राणसे रहित होता अर्थात् मरताहै ॥ ६० ॥ लालअङ्ग लालवस्त्रोंसे गहनोंसे शोभित स्त्रीका मुखचुम्बन कर जो विषय करताहै वह मरताहै ॥ ६१ ॥ जो स्वप्नमें क्रूरपुरुषको निरन्तर देखताहै, उसके प्राण वर्षके भीतर यमराजके अतिथि . होतेहैं अर्थात् वर्षके बीचों मरताहै ॥ १२ ॥ स्वप्नके बीचमें जिसको अत्यन्त आनन्द होताहै, अथवा विवाह होताहै उसकी भी मृत्यु समीप आई जानना ॥ ६३ ॥ स्वप्नमें स्त्री खप्पडमें अन्न रखकर जिस पुरुषको अभिसरण करे वह पुरुष भी शीघ्र नाशको प्राप्त होय ॥६४ ॥ पिशाच चाण्डाल Aho! Shrutgyanam Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटोकासमेत। (३१) व्यालैश्च नखिभिश्चौरैर्बीभत्सैः क्रोष्टुभिस्तथा ॥ वित्रासनं भवेद्यस्य स्वप्नेसोऽपि विनश्यति ॥६६॥काकैः कङ्कः शकुनिभिंगृहीत्वाक्षिप्यते त्वधः॥स्वप्ने यः पुरुषस्तस्य निर्दिष्टं मरणं ध्रुवम् ॥ ६७ ॥ शयनादासनादृक्षात्प्राकारादेववेश्मनः ॥ तुरगाद्वाहनाचापि पतनं मरणप्रदम् ॥ ६८ ॥ स्वप्नमध्ये धूलियुक्ते भूतले यो निरन्तरम् । उपाविशेद्वियति वा गच्छेत्स मरणं व्रजेत्॥६९॥वराहकपिमार्जारव्याघ्रजम्बुककुक्कुटैः ॥ स्वप्ने आकृष्यते यश्चम्रियते सोऽचिरान्नरः॥ ७०॥ गृध्रध्वांक्षपतत्रीणां मूर्ध्नि स्यात्पतनं यदि।।यस्य सोऽपि कृतान्तस्य भक्ष्यतामेति मानवः ॥७१ ॥ विकराला पिङ्गलाक्षी स्वप्ने यं मर्कटी नरम्।।आलिङ्गति सना चाशु बहुदुःखंसमश्नुते७२ वानरेण मृगेणाथ मेषेण महिषेण च ।। युक्तं रथं समारोहेद्धहुक्केशः स पीडयते ॥७३॥स्ववंशसंभवः पुंभिर्मृतैराहूयते च यः ॥ स्वप्नमध्ये पुमांस्तस्य मरणं जायतेऽचिरात् ॥७४॥स्वप्नमध्ये च संन्यासग्रहणं कुरुते यदि ॥ कलहंवा भवेत्सोऽपिक्केशभामात्र संशयः॥७॥धान्यराशेधूलिमिश्रीअंतआकृति स्त्रीको प्राप्तहुआ जो कामीपुरुष उससे अथवा कन्यासे रमे वह शीघ्र मरे ॥६५॥ सोसे नाखूनोंवाले जीवोंसे चोरोंसे घिनोनोंसे गीदडोंसे जिसको स्वप्नमें डरहो वह भी नाशको प्राप्त होय ॥६६॥जो पुरुष स्वप्नमें काक सफेद चीले इन पक्षियोंद्वारा पकडकर नीचे डालजाताहै उसका मरयौं निश्चय होताहै ॥ ६७ ॥ शय्याते आसन वृक्ष किला देवतास्थान घोडावाहन इनसे गिरना मृत्युको देताहै ॥ ६८ ॥ स्वप्न के बीचमें धूलियुक्त पृथिवीतलमें जो पुरुष निरन्तर प्रवेश करे अथवा आकाशमें जाय वह मृत्युको पाताहै ॥ ६९ ॥ जिस पुरुषको स्वप्नमें (सुअर) बन्दर बिलाव व्याघ्र गीदड कुत्ते खीचतेहैं वह शीघ्रही मरताहै ॥ ७० ॥ गिद्ध काक बगुला इन पक्षियोंका जिसके मस्तकपर पतनहो वह निश्चय मरताहै ॥ ७१ ॥ भयंकर पीले नेत्रत्राला क्रौंच नाम पक्षी जिसको लिपटताहै वह शीघ्र बहुत दुःख भोगताह ॥७२॥ वानर मेढा हिरण भैसा इनसे युक्त रथपर जो चढताहै, वह बहुत क्लेशोंसे दुःखित होतहि॥७३॥ स्वप्नमें जिस पुरुषको अपने वंशमें उत्पन्न हुआ मरा पुरुषबुलावै वह निश्चय मरै ॥७४।। स्वप्नके बीचमें सन्यास ग्रहण करता अथवा लडाई करताहै वह क्लेशभागी होताहै, इसमें कुछ संशय नहींहै ॥७॥ धान्यराशिको Aho! Shrutgyanam Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) स्वमाध्याय । करणं यदि पश्यति ॥ अथवा तैलसंयुक्तं पाचनं दुर्गतिर्हि सः ॥ ७६ ॥ नग्नस्य मुण्डितस्याथ दक्षिणस्यां दिशि ध्रुवम पिशाचैः श्वपचैश्चाथ नयनं प्राणसंकटम् ॥ ७७ ॥ यस्योपरि स्वप्रमध्ये पिता माता च बान्धवाः ॥ कुपिताः स्युस्तस्य नाशो झटित्येव भवेद्ध्रुवम् ॥ ७८ ॥ काषायवस्त्रसंवीनं दिशावल्कलधारणम् ॥ स्वप्ने यः पुरुषः कुर्यात्स यायाद्यमसंनिधौ ॥ ७९ ॥ स्वप्ने योऽकालजलदघनच्छायां प्रपश्यति । अथवा वातसंमिश्रां वृष्टिं सक्लेशभाग्भवेत् ॥ ८० ॥ दिनमस्तं गतादित्यं रात्रिं चन्द्रमसा विना । नक्षत्रैश्च विनाकाशं दृष्ट्वा गच्छेद्यमालयम् ॥ ८१ ॥ तैलिकैः कुम्भकारैश्व सह यस्य पलायनम् || स्वप्ने भवति तस्य स्याच्चित्तखेदो दिवानिशम् ।। ८२ ।। स्वममध्ये च यो निद्रां क्षुते क्षौद्रेऽथवार ॥ कुर्यात्तस्य भवेद्भूरि दूरदेशप्रवासनम् ॥ ८३ ॥ वामलूरं चावकारं कण्टकप्रवरं द्रुमम् ॥ शेतेऽथवा भालयति स विपत्तिं प्रपश्यति ॥ ८४ ॥ करीषतुषकंकालकाष्टलोष्टेषु यः पुमान् ॥ स्वप्ने तिष्ठति वा शेते स महादुःखमश्रुते ॥ ८५ ॥ खायां मृतशय्यायां शिलायां धूलिसे मिली हुई देखता है, अथवा तेलसे युक्त पाचन देखता है, वह दुर्गतिको पाता है ॥ ७६ ॥ स्वप्नर्भे नंगे शिरमुँडे हुए प्राणिको पिशाच वा चाण्डाल दक्षिण दिशामें लेजावें तो उसको प्राणबा - धाहो||७७||स्वप्नके बीच में जिसके ऊपर माता पिता बन्धु क्रोधित होते हैं, शीघ्र उस पुरुषका नाश होता है ॥ ७८ ॥ जो स्त्रममें कषायसे रंगवस्त्र पहरे वा नंगाहो वा भोजपत्रको धारण करै वह यमराज के समीपं प्राप्त हो || ७९ || स्वप्न में जो पुरुष असमय बादलों की छाया देखताहै, अथवा वायुयुक्त वृष्टिको देखता है वह दुःखित होता है ॥ ८० ॥ सूर्यरहित दिनको चंद्रमा रहित रात्रीको नक्षत्रों के बिनाआकाशको देखकर यमराजके स्थानको जाता है; अर्थात् मरता है ॥ ८१ ॥ जो स्त्रनमें तेल साथ कुम्हार के साथ भागता है, रात्रदिनमें उसके मनमें दुःख होता है ॥ ८२ ॥ जो स्वप्न में मक्खी के सहते में अथवा ऊपर भूमिमें निद्रा करे छींके उस पुरुषका दूर देशमें वासहो ॥ ८३ ॥ मई कूड़ा कर्कट तीक्षण कांटेवाले वृक्षपर जो सोता है अथवा देखता है वह विपत्तिको प्राप्त होताहै ॥ ॥८४॥ जो पुरुष करीष (उपला ) भूसी हाड़का पिंजर काष्ठ ढेलों के मध्यमे स्वप्न में सोता है ' वह महादुःख भोगता है || ८५ ॥ चारपाईपर मरे हुए की खाटपर पत्थरपर जो बैठता है वह मृत्यु - Aho! Shrutgyanam Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत। (३३) 'चाथ संविशेत् ॥ यो नरस्तस्य सुलभं कृतान्तनिलयं भवेत् ॥८६॥ गोमयं कर्दमं रक्षां धूलिं यश्च विमर्दयेत् ॥ स्वप्नमध्ये शरीरं स्वं सत्वरं स मृतो भवेत् ॥ ८७॥ गोरोचनानि शानीलीकजलैगोत्रलेपनम् ॥ जायते यस्य वै स्वप्ने स स्याच्छीघ्रं यमातिथिः॥८८॥ मेदो दुर्गन्धियुक्तानं यः खादति नरो भुवि ॥ स्वप्नमध्ये च तस्य स्यादवश्यं मरणं रुजः।। ॥ ८९॥ कान्त्रिकक्षौद्रतक्राणां तैलस्य च घृतस्य च ॥ स्वप्नमध्ये भवेद्यस्याङ्गाभ्यङ्गः स म्रियेत वै॥ ९० ॥ कुविन्दसूचिकाकारतक्षायस्कारचर्मिकाः॥ धीवराः शबराः स्वप्ने यं स्पृशन्ति स दुःखभाक् ॥ ९१ ॥ विकलाङ्गाः पङ्गवश्च वैद्याः खर्वाश्च नर्तकाः ॥ चेटाश्च द्यूतकाराश्च यं स्पृशन्ति स दुःखभाक् ॥ ९२॥ कुरंटकः करनश्च कुटजः सप्तपल्लवः॥ एतेषां दर्शनं नाशकरं जग्धिस्तु किं ततः ॥९३॥ कर्णिकारः शिशपा च धवः खदिर एव च ॥ बदरी च शमी चैषां दर्शनं नाशकारकम् ॥९४॥ कुशकाशाकरतृणीकपाकमदनद्रुमाः॥ स्वप्ने दृष्टिपथं याता महादुः खकरा ध्रुवम् ॥ ९५॥ जपाचम्पकपुष्पाणि रक्तानि यदि को प्राप्त होताहै ॥ ८६ ॥ जो स्वप्नमें गोबरको कीचको राखको अपने शरीरमें मलतहि वह शीघ्र मरताहै ॥ ८७ ।। गोलोचन हलदी नील कजल जिसके शरीरमें मलाजाताहै वह शीघ्र मरताहै ॥ ८८ ॥ जो पुरुष चर्चाको दुर्गन्धियुक्त अन्नको स्वप्नमें खाताहै उसका अवश्य मरण होताहै ॥ ८९॥ कांजी सहत मट्ठा तिल घतका जिसके शरीरपर लेप होताहै वह मरताहै। ९० ॥ जिस पुरुषको स्त्र में जुलाहा दर्जी बढई लुहार चमार धीमर म्लेच्छ स्पर्श करतेहैं वह दुःखी होताहे ॥ ९१ ॥ जन्मसे किसी अंगरहित, लङ्गडे हकीम विलसटिया नट चेटी जुआरी जिसको स्पर्श करतेहैं वह दुःखभागी होताहै ॥ ९२ 'पीलागुलाबांस कज्जुआ कुडावृक्ष सप्तपर्ण इनका दर्शन नाश कारकहे खाना तो क्याहै ॥ ९३ ॥ कनेर सीसम धव खैर वेर जण्ड इनका दर्शन नाशकारकहै ॥९४ कुशकांसके अंकुर तृण माकलके वृक्ष जिसको स्वप्नमें दीखें उसे निश्चय दुःख होय ॥ ९५ जो पुरुष जपाके पुष्प चम्पेके पुष्प लाल देखता है वह शीघ्र मरताहै ॥९॥ Aho ! Shrutgyanam Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) स्वप्नाध्याय। पश्यति ॥ स सत्वरं यमभटैः क्षयं नेनीयते नरः ॥९६॥ जम्बीरतुम्बीकालिङ्गतुण्डीकर्कटिकाश्च यः॥प्रेक्षते खादति स्वप्ने म्रियते सोऽचिरानरः ॥ ९७ ॥ नीवारान्कोरदूषांश्च व्रीहीन्मुद्दान्यवांस्तिलान् ॥ कुलत्थान्यो भक्षयति वीक्षते वा. स दुःखभाक् ॥ ९८ ॥ अम्लतिक्तकटुक्षारकषायाः स्वादिता यदि ॥ स्वप्ने तस्य भवेद्धानिः सर्वतोऽपि न संशयः॥ ९९॥ शरीरमांसमन्त्राणि नखान्त्राणि च यो नरः ॥ स्वप्ने खादति तस्याङ्गनाशः सद्यः प्रजायते ॥१०० ॥ खर्जुरीगुडहिंगुद्धनिर्यासान्यश्च खादति ॥ स्वप्ने स यमराजस्य दूतैर्ननीयते द्रुतम् ॥ १०१ ॥ शैवाललिप्तं स्वं देहं मासमात्रं प्रपश्यति ॥ यः स्वप्ने स क्षयी भूत्वा मृत्युभूयाय कल्पते ॥१०२॥ कांस्यारकूटकथिल ताम्रलोहत्रपूणि यः ॥ लभते प्रेक्षते वाथ निर्धनत्वमियाद्धि सः॥१०३॥ करवालं कुठारं च कुद्दालं फालकुन्तलौ ॥ मुद्रं करपत्रं च यः पश्यति स नश्यति ॥ १०४॥ संमार्ज नी घट्टिका च स्थाली मुसलमेव च ॥ स्वप्ने दृष्टिपथं यायाजभारीनिंबू रामतुरई विम्बाफल कालिंगी ( साग ) विशेष ककडीको जो पुरुष स्वप्नमें देखताहै खाताहै वह शीघ्र मरता है ॥ ९७ ॥ जो पुरुष मुनिअन्न कोदों धान मूंग जौ तिल कुलत्थ (कु लथी ) को खाताहै अथवा देखताहै वह दुखी होताहै ॥ ९८ ॥ जो आमला तीखा कडवा खारी कसीले पदार्थको स्वप्नमें खाय उसकी निःसंदेह सबओरसे हानि होतीहै ॥ ९९ ॥ जो पुरुष स्वप्नमें शरीरके मांसको आँतोको वा नखूनसे मिलीहुई आंतोको खाताहै वह मृत्युको पाताह ॥ १०० ॥ जो पुरुष खजूरका वृक्ष गुडहींग गोंदको खाताहै उसकी मृत्युहोतीहै ॥१०१॥ जो शेवालसे लिप्त अपना शरीर महीने भरतक देखताह वह पुरुष क्षयको प्राप्तहो मरताहै॥१०२॥ कांसी पीतल कथिल तांबा लोहा रांग इनको देखताहै वा पाताहै वह निर्धन होताहै ॥ १०३ ॥ तलवार कुहाडी हल हलका अग्रभाग वा वरछी मुद्गर आरा जो देखनाहै उसका नाश होताहै ॥ १०४ ॥ जिस पुरुषको स्वप्नमें बुहारी बटलोई थाली मूसल दखेिं बह मृत्युपावै ॥ Aho! Shrutgyanam Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषावा भाषाटीकासमेत / (35) यस्य तस्य भवेन्मृतिः।।१०५॥इन्धनंधूममुल्मूकं सधूमाग्नि च यः पुमान् // स्वप्ने पश्यति तस्य स्याद्धनधान्यक्षयो भृशम् / / 106 // मन्थानदण्डं शूर्प च लागलं पाशदोरको // पश्यति स्पृशति स्वप्ने यस्तस्य स्यादनक्षयः // 107 // स्वप्ने वयोविकारं यो नरः पश्येद्यदि स्वतः // मङ्गलानां विनाशः स्यात्तस्य नास्त्यत्र संशयः // 108 ॥प्रासादको टच्छत्राणां ध्वजस्य कलशस्य च // भङ्गे दृष्टे राज्यनाशोऽथवा तस्य मृतिर्भवेत् // 109 // देवमन्दिरभङ्गोऽथ ग्राम भङ्गोऽथवा यदि // स्वप्नमध्ये दृष्टिपथमायातो नाशकृद्भवेत् // 110 // देहभङ्गे देहभङ्गश्चक्षुर्भङ्गेऽन्धता भवेत् // कर्णभङ्गे च बाधिर्य भवेदन न संशयः // 111 // क्षेत्रे जलमयः पूरो भवेत्स्वप्ने यदीशितुः // तस्मिन्वर्षे तस्य धनं धान्यं चापि क्षयं ब्रजेत् // 112 // स्थलभूमिमकस्मायः स्वप्ने पस्येजलाप्लुताम् // तस्य व्याधिग्लानिधनहानिः स्या नात्र संशयः // 113 // अंत्यजस्त्री यदि स्पृष्टा द्यूते वा // 105 // जो पुरुष ईंधन धुआं कोयला धुएँसहित अग्निको स्वप्नमें देखताहै उसके अत्यन्त धनधान्यका क्षय होताहै // 106 // जो स्वप्नमें रईका डण्डा देखताहै छाज हल पाश डोरा देखता था छूताहे उसके धनका क्षय होताहै // 107 // जो मनुष्य स्वप्नमें अपनी आयुका विकार दखि उसके मंगलोंका विनाश हो इसमें कुछ संदेह नहींहै // 108 // राजमहलका किलका छत्रका ध्वजाका कलशका टूटना देखनेसे राज्यका नाशहो, अथवा उस पुरुषकी पत्युहो // 109 // देवमन्दिरका टूटना ग्रामका नाश जो स्वप्नमें देखे उसका नाशहो // 110 // स्वप्नमें शरीरभंग होनेपर शरीरनाश होताहै, नेत्रके नाशहोनेसे नेत्र जाताह अर्थात् अन्धा होताहै कानका नाश होनेपर बहरा होताहै इसमें कुछ संशय नहींहै // 111 // स्वप्नमें जिस स्वामीके खेतमें जलसेयुक्त झागहों वा समस्थलमें जल भरजाय उस वर्षमें उस पुरुषके धनधान्यका क्षय हो. ताहै // 112 // जो स्वप्नमें अकस्मात् जलसे व्याप्त स्थलभूमिको देखे उसको व्याधिहो (रोगही) Aho! Shrutgyanam Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (36) स्वमाध्याय मैथुनेऽपि वा। स्वामध्ये येनपुंसा स स्नानान्नहि दुःखभाक // 114 // // मया समारब्धमहाप्रयत्नेन दिवानिशम् / / मानग्रन्थप्रमाणानि सञ्चित्य विपुलीकृतः॥ 115 // ग्रन्थः सज्जनसन्तत्यै सततानन्दनन्दनः // भूयात्कार्यकरश्चापि जगदीशकृपावशात् // 16 // इति श्रीमज्योतिर्विच्छीधरेण संग्रहणपूर्वकविरचिते स्वप्रकम लाकरेऽशुभस्वप्नप्रकरणकथनं नाम तृतीयः कल्लोलः॥३॥ धनहानिहो इसमें कुछ संशय नहींहै // 113 // यदि स्वप्नों चाण्डालत्रीका स्पर्श कियाहो जुआ खेलाहो वा मैथुन कियाहो तो स्नानकरलेनेसे स्वप्नका दोष नहीं रहता // 114 // ज्योतिषविद्या जाननेवाले श्रीधरने बडे प्रयत्नसे रात्रिदिन प्रमाणितग्रन्थोंके प्रामाणोंको इकट्ठाकर विचारकर यह ग्रन्थ रचाहै // 115 // यह ग्रन्थ सज्जनपुरुषोंकी सन्तानके लिये परमेश्वरकी कृपासे सदा भानन्ददायकहो और कार्य सिद्ध करनेवालाभी हो // 116 // इति श्रीस्वप्नकमलाकरे पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्रकृतभाषाटीकायामशुभस्वप्नप्रकारकथनं नाम तृतीयः कल्लोलः॥३॥ . अथ चतुर्थः कल्लोलः 4. अथ प्रसङ्गतो वक्ष्ये मृत्युकालपरीक्षणम् // यस्य ज्ञानानरो मृत्युं निजं जानाति योगवित् // 1 // आकाशं शुक्रतारां च पावकं च ध्रुवं रविम् // दृष्ट्वैकादशमासोषं स पुमानव जीवति // 2 // मेहयेत्स्वप्नमध्ये यो हदेताप्यथ चेन्नरः॥ हिरण्यं रजतं वापि स जीवेदशमासिकम् // 3 // दृष्ट्वा भूतपिशाचांश्च गन्धर्वाणां पुराणि च / / सौवर्णानथ वृक्षांश्च नव अब प्रसंगसे मृत्युसमयकी परीक्षा कहताहूं योगका जाननेवाला मनुष्य जिसके ज्ञानसे अपनी मृत्युको जानताहै // 1 // स्वप्नमें आकाश शुक्रका तारा अग्नि ध्रुव सूर्यको देखकर मनुष्य ग्यारह महीनसे अधिकनहीं जीताहै // 2 // जो मनुष्य स्वप्नके बीचमें सुवर्णको अथवा चांदीको मूते वा इनकी ठा कर वह दशमहीने जिये // 3 // भूत पिशाच गन्धवोंके नगर सुवर्णके वृक्ष इनको देख Aho! Shrutgyanam Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत / (37) मासान्स जीवति // 4 // पीवा कृशः कृशः पीवा योऽकस्मादेव जायते // स्वभावाच परावृत्तः स जीवेदष्टमासिकम् // // 5 // स्वप्ने यस्य भवेद्वल्फात्पादखण्डनमेव च // पश्येत्तस्य भवेदायुवित्सप्तममासिकम् // 6 // कपोतगृध्रौ काकोल वायसावपि मूर्धनि // क्रव्यादो वा खलो लीनः षण्मासान्स च जीवति // 7 // हन्यते काकचण्डालैः पांशुवर्षेण वा नरः // स्वां छायां चान्यथा दृष्ट्वा चतुर्मासान्स जीवति // 8 // सौदामिन्यभ्ररहितां दृष्ट्वा यामी दिशं तथा // उत्तरां च धनुःश्लिष्टां जीवितं द्वित्रिमासि कम् // 9 // घृते तैलेऽथवाऽऽदशैं तोये वा स्वश रीरकम् // यः पश्येदशिरस्कं स मासादूबै न जीवति॥१०॥ यस्य देहे छागसमो मृतदेहसमोऽपि वा॥ गन्धौ भवेत्पुमान्सोऽपि पक्षपूर्ति न जीवति // 11 // यस्य वै स्नातमात्रस्य हृत्पादमवशुष्यति।।स्वप्ने वा जागरे वापि स जीवेदशवासरम् // 12 // निम्नः सन्मारुतो यस्य मर्मस्थानानि कृन्तति // न हृषत्यम्बुसंस्पर्शात्तस्य मृत्युरुपस्थितः // 13 // शाखा मृगक्षयानस्थो गायश्चिदक्षिणां दिशम्॥स्वप्ने प्रयाति तस्यापि कर नौमहीने जीताहै ॥४॥स्थूल पुरुष अकस्मात् कृश होजाय और कृश पुरुष पुष्टहोजाय स्वभाव बदलजाय वह पुरुष आठ महीने जीताहै // 5 // स्वप्नमें जिस पुरुषको गांठसे पैरका खण्डन दीखे वह सातमहीने जिये // 6 // जिसके मस्तकपर कबूतर गिद्ध काक राक्षस दुष्ट लगहुए दखें वह पुरुष छः महीने जीताहै // 7 // जो पुरुषकाक और चाण्डालोंसे अथवा धूलिके वर्षनेसे नाश को प्राप्त हो अथवा अपना छायाको और तरह देखै वह चार महीने जीताहै // 8 // मेघसे रहित बिजलीको दक्षिणदिशामें देख कर और धनुषसे व्याप्त उत्तर दिशाको देखकर दो तीन महीने जीताहै // 9 // जो पुरुष स्वप्नमें घृतमें, अथवा तेलमें शीसेमें जलमें मस्तकरहित अपने शिरको देखे वह महीनेसे ऊपर नहीं जीता // 10 // जिसके शरीरमें बकरीके वा मृतदेहके समान गन्ध होतीहै वह पुषरु पक्षके भीतर मरजाताहे // 11 // स्वप्नमें अथवा जागतेमें स्नानकरतेही जिसपुरुषका हृदय और पैर सूखतेहैं वह दश दिन जीताहै // 12 // तेज वायु जिस के मर्मस्थानको काटतीहै , जलके स्पर्शसे जिसे आनन्द नहीं होताहै, उसकी मृत्यु समीपमें है // 13 // जो वन्दर Aho! Shrutgyanam Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (38) स्वप्नाध्याय। मृत्युः कालमपेक्षते॥१४॥रक्तकृष्णाम्बरधरागायन्ती हसती च यम् // दक्षिणाशां नयेनारी स्वप्ने सोऽपि न जीवति // 15 // नग्नं च क्षपणं स्वप्नेहसमानं प्रहृष्यवै॥ एनं च वीक्ष्य वल्गन्तं विद्यान्मृत्युमुपस्थितम् // 16 // आमस्तकतलावस्तु निमग्नं पङ्कसागरे // स्वप्ने पश्येत्तथात्मानं नरः सद्यो म्रियेत सः॥ 17 // केशाङ्गारांस्तथा भस्म वक्रगानिर्जला नदीः विपरीतं परीतं वा सद्यो मृत्यु समेति सः // 18 // यस्य वै भुक्तमात्रेऽपि हृदयं पीडयते क्षुधा // जायते दन्तघर्षश्च स गतासुरसंशयम् // 19 ॥धूपादिगन्धं नोवेत्ति स्वपित्यह्नि तथा निशिानात्मानंपरनेत्रस्थं वीक्षते न सजीवति ॥२०॥शकायुधं निशीथे च तथा ग्रहगणं दिवा॥ दृष्ट्वा मन्येत संक्षीणमात्मजीवितमात्महक् // 21 // नाधिका वक्रतामेति कर्णयोनयनोन्नती // नेत्रं वामं च स्रवति तस्यायुरुदितं लघु // 22 ॥आरक्ततामेति मुखं जिह्वा चास्य सिता यदा // तदा प्राप्त विजानीयान्मृत्युं मासेन चात्मनः // // 23 // उष्टरासभयानेन यः स्वप्ने दक्षिणां दिशम् // प्रयाति तं विजानीयात्सयो मृत्यु नरं जनः // 24 // और रीछ युक्तकी सवारीमें बैठकर गाताहुआ स्वप्नमें दक्षिणदिशाको जाताहे उसकीभी मृत्युकालकी अपेक्षा करतीहै // 14 // स्वप्नमें लाल कालेवस्त्रधारण किये गाती हँसती स्त्री जिस पुरुषको दक्षिण दिशामें व्याप्त हो वहभी नहीं जीताहै // 15 // स्वप्नमें हँसतेहुये संन्यासीको हँस कर बात करता देखै तो मृत्युको समीप आया जाने // 16 // जो स्वप्नमें मस्तकपर्यन्त अपनेको कीचरूपी समुद्रमें डूबा देखे, वह मनुष्य शीघ्रही मरताहै / / 17 // केश अंगारे भस्म वा न. दीको सूखतीहुई कुटिलगामिनी देखे, घा विपरीत देखै अथवा परीत ( नष्ट ) देखे वह शीघ्रही मरताहै / / 18 // जिसके भोजन करनेपरही भूख हृदयको दुख देतीहै अथवा जो दांतोंको घिसै वह शीघ्र मरताहै इसमें कुछ संशय नहींहै // 19 // धूपादि गन्धको नहीं जानता, दिनरात सोताहीहै, दूसरेके नेत्रमें स्थित अपनेको नहीं देखताहै वह नहीं जीताहै / / 20 / / रात्रिमें इंद्रके धनुषदिनमें तारों (नक्षत्रों )को देखकर बुद्धिमान् आत्माको क्षीण जाने॥२१॥जिसकेनेत्रोंका ऊँचाओं कानोंमें अधिक टेढेपन को नहीं प्राप्त होता और वांये नेत्रों में आंसू निकलें उसकी आयु हीन जानो॥२२॥जिसका मुखअकस्मात् लाल होजाय जीम सफेदहो उसकी एकमहीनेमें मृत्यु जाने // 23 // जो पुरुष स्वप्नमें ऊंट गधेकी Aho ! Shrutgyanam Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाटीकासमेत। (39) पिधाय कौँ निघोषं न शृणोत्यात्मसम्भवम् // नश्यते चक्षुषो ज्योतिर्यस्य सोऽपि न जीवति // 25 // पतितो यश्च वै गत स्वप्ने निष्कास्यते नहि // नचोत्तिष्ठति यस्तस्मात्तदन्तं तस्य जीवितम् // 26 // स्वप्नेऽनि प्रविशेषस्तु न च निष्कामते पुनः // जलप्रवेशादपि वा तदन्तं तस्य जीवितम् // 27 // ऊर्ध्वा च दृष्टिन च संप्रविष्टा रक्ता पुनः संप्रति वर्तमाना // मुखस्य चोष्मा विवरं च नाभः शंसंति पुंसामपरं शरीरम् // 28 // यश्चापि हन्यते दुष्टैर्भूत राबावथो दिवा / / स मृत्यु सप्तरात्रे तु पुमानाप्नोत्यसंशयम् // 29 // स्ववस्त्रममलं शुक्लं रक्तं पश्यत्यथासितम् / / यः पुमान्मृत्युरापनस्तस्येत्येवं विनिर्दिशेत् // 30 // स्वभाववैपरीत्यं तु प्रकृतेस्तु विपर्ययः॥ कथयन्ति मनुष्याणां षण्मासं जीवितावधिः // 31 // लिङ्गपुराणे // अप्सुवा यदि वाऽऽदर्शयोह्यात्मानं न पश्यति // अशिरस्कं तथात्मानंमासादूर्व न जीवति // 32 // नारदः॥आत्मनस्तु शिरश्छायां नैव पश्येत कहिंचित् // उत्पातमीदृशं दृष्ट्वा, मासमेकं स जीवति // 33 // स्वरशास्त्रे // हस्ते न्यस्ते सवारीमें दक्षिणदिशाको जाताहै, उसकी मृत्यु, शीघ्र जाननी चाहिये // 24 // कानोंको ढककर जो अपने शब्दको नहीं सुनताहै, जिसकी नेत्रकी ज्योति नष्ट होतीहै वह भी नहीं जीताहै // 25 // जो पुरुष स्वप्नमें गड्ढमें पतितहो निकला नहींजाय और न उठसकै वह भी नहीं जीताहै // 26 // स्वप्नमें जो अग्निमें प्रवेश कर फिर न निकले अथवा प्रवेश कर वहभी मृत्युको पाताहै // 27 // जिसकी दृष्टि ऊर्ध्वगामिनी होजाय पीछे न लौटै और फिर वर्तमान होकर लाल होजाय मुखमें गरमी नाभिमें विबर दीख वहभी नहीं जीताहै // 28 // जो पुरुष स्वप्नमें रात्रिमें दिनमें दुष्टप्राणियोंसे माराजाय वह पुरुष सातरातमें मरताहै, इसमें कुछ संशय नहींहै // 29 // जो पुरुष अपने निर्मल सफेद वस्त्रोंको लाल वा काले देखताहै वह पुरुष मृत्युको पाताहै // 30 // स्वभावका विपरीत होजाना प्रकृतिका बदल जाना जिनके हो उन मनुष्योंकी छः महीनेकी आयु जानो // 31 // यह लिङ्गपुराणमें लिखाहै जो पुरुष जलमें अथवा शीसेमें अपने शरीरको नहीं देखताहै, अथवा शिररहित आत्माको देखता है वह महीनेसे ऊपर नहीं जीताहै // 32 // नारद कहतेहैं जो कभी अपने शिरकी छायाको नहीं देखे तो इसप्रकारके उत्पातको देखकर एक महीने जीताहै // 33 // स्वरशास्त्रका Aho! Shrutgyanam Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (40) स्वमाध्याय। शिरसि यदि न च्छिन्नदण्डोऽस्य दृष्टः षण्मासान्तन मरणभयं सम्पुटे हस्तयोस्तु॥न्यस्तेशीर्ष यदि च कदलीकोरकामं तदन्तर्दृष्टं नौभिस्तरति सलिले चेत्स्वशेफो न मृत्युः // 34 // इत्युक्तं बहुशः स्वप्नग्रन्थेषु लिखितं मया।संगृह्य विदुषां तोषहे तवेऽतिप्रयत्नतः॥३५॥ नामूलमत्र लिखितं दृष्ट्वा ग्रन्थाननेकशः॥छन्दो विपरिणामेन स एवार्थों मयोदितः // 36 // इति श्रीपण्डितज्योतिर्विच्छीधरेण संग्रहपूर्वकविरचितस्वप्नकमलाकरे प्रकीर्णकप्रकरणकथनं नाम चतुर्थः कल्लोलः समाप्तः॥४॥ वचनहै कि शिरपर हाथ रखनेसे वह हस्तछाया खंडित नहीं दीखै तो छ: महीनेतक मृत्युका संदेह न करना और दोनों हाथ सम्पुटकर शिरपर रखनेसे यदि कदलीकी कोरकी समानभी अन्तर दीखे वा नावद्वारा जलमें अपनेको तरता देखे तो किसीप्रकार मृत्युका भयनहींहै // 34 // इसप्रकार बहुनसे ग्रन्थोंका संग्रह कर स्वप्नाध्याय लिखाहै यह बडे यत्नोंसे पंडितोंके संतोषके लियेही कियाहै // 35 // इसमें अमूल कोई बात नहीं लिखी ग्रन्थोंको देखकरही लिखाहै छन्दोंके इति श्रीपण्डित ज्योतिर्विच्छ्रीधरेण संग्रहपूर्वकविरचितस्वप्नकमलाकरे मुरादादाबादनिवासी पंडित-ज्वालाप्रसादमिश्रकृतभाषाटीकायां प्रकीर्णप्रकरणकथनं नाम चतुर्थः कल्लोलः समाप्तः // 4 // दोहा-उनिससौ त्रेसठ सुभग, संवत् कार्तिक मास / दीपमालिकाके दिवस, कीनों ग्रंथ प्रकास // 1 // वसन रामगंगानिकट, नगर मुरादाबाद / भजन करत हरिको तहां बुधज्वालाप्रसाद // 2 // खेमराज गुणखान जग, सेठशिरोमणि जान / तिनको अर्पित ग्रंथ यह, सज्जनको सुखदान // 3 // भूल चूक सब क्षमा कर, सज्जन लेहि सुधार / हरिचरित्र गावहु सुनहु, मिलैं पदारथ चार // 4 // पुस्तकमिलनेकापता-खेमराज श्रीकृष्णदास, 'श्रीवेङ्कटेश्वर' स्टीम् यन्त्रालय-चंबई. Aho! Shrutgyanam