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काकरुते पिंडत्रयप्रकरणम् । (३१३) , पिंडं समादाय यदि प्रधानां शांतां दिशं गच्छति काकपक्षी ॥ पूर्ण फलं तत्कुरुते नराणां चिकीर्षिते वस्तुनि यत्र तत्र ॥ १६७ ॥ काको गृहीत्वा यदि मुख्यपिडं प्रयाति दीप्तां ककुभं तदानीम् ॥ अत्युत्तमं कार्यफलं प्रदर्थ्य ततः समस्तं विनिहन्त्यवश्यम् ॥ १६८ ॥ द्वितीयकं यद्यपहृत्य पिंडमुड्डीयते शान्तदिगाश्रयेण ॥ फलं तदानींच शुभं नराणां जाप्यं खगो जल्पति कार्यिकाणाम् ॥ १६९ ॥ काके समादाय जघन्यपिंडं याते प्रदीप्तां ककुभं वदंति ॥ कार्य जघन्यादधिकं जघन्यं स्यान्मध्यमं मध्यमपिंडभागे ॥१७॥
॥ टीका ॥
पिंडं समादाय एवंविधां यः चेष्टां विदधाति स शुभः खगः अभीष्टकार्यादधिक करोति । चेष्टाविपर्यासतयान्ययात्व वैपरीत्यं भवति ॥ १६६ ॥ पिंडमिति ॥ यदि काकपक्षी पिंडं समादाय प्रधानां दिशं गच्छति तदा नराणां यत्र तत्र चिकीर्षिते वस्तुनि समस्तं पूर्णफलं कुरुते ॥ १६७ ॥ काक इति ॥ यदि काकः मुख्य. पिंडं गृहीत्वा दीप्तां ककुभं प्रयाति तदानी अत्युत्तमं कार्यफलं प्रदर्य ततः समस्तम् । अवश्यं विनिहति ॥ १६८ ॥ द्वितीयकमिति ॥ यदि द्वितीयकं पिंडमपहृत्य शांत दिगाश्रयेण उड्डीयते तदा कार्यिकाणां शुभं फलंजाप्यं मनोऽभीष्टं खगो जल्पति॥ ॥ १६९ ॥ काके इति ॥ काके जघन्यपिंडं समादाय प्रदीप्तां ककुभं याते सति कार्य जघन्यादधिकं जघन्यं स्यात् मध्यमपिंडभागे मध्यम कार्य स्यादित्यर्थः१७०
॥भाषा॥ कार्यसूं अधिक कार्यकरै, और जो इन चेष्टासं विपरीत चेष्टा करै तो विपरीत कार्य होय ॥ ॥ १६६ ॥ पिंडमिति ॥ जो काकपक्षी प्रधान जो मुख्य पिंड ताकरके शांत दिशाकू चल्यो जाय तो मनुष्यनकू जा काऊ कार्यमें समस्त पूर्ण फल करै ॥ १६७ ॥ काक इति ॥ जो काक मुख्य पिंड लेकरके दीप्तदिशामें चल्यो जाय तो अतिउत्तम कार्य फल दिखाय करके ता पीछे समस्त कार्यकूँ अवश्य नाश करै ॥ १६८ ॥ द्वितीयकमिति ॥ जो काक दूसरो पिंड ले करके शांत दिशाको आश्रय लेकर उडजाय तो कार्यवान् पुरुषनकू शुभ फल करै ॥ १६९ ॥ काके इति ॥ जो काक लोहयुक्त निकृष्ट पिंड लेकरके प्रदीप्त दिशामें चल्यो जाय तो कार्यमें निकृष्टसू भी निकृष्टता करै मध्यमपिंडमें मध्यम कार्य होय ॥.१७०॥
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