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पिंगलारुते संकीणप्रकरणम् । (३६३ ) , धूत्वा शिरोंगान्यथ वा विहंगः शुभस्वरो रोगमुपादधाति ॥ अशस्तशब्दस्तु ददात्यसाध्यबाधावहंदुस्तरदुःखदाहम्१४९॥ उन्मूलिते भूरुहि दुष्टशब्दैनष्टावशेषोऽपि विनश्यतेऽर्थः॥ प्रलंबमानः सकलप्रणाशमसंशयं शंसति खेशयोऽयम्१५०॥ प्रभूतपुष्पे परमप्रमोदोव्याधिक्षयस्त्वक्षतपल्लवाढये॥अत्य
र्थलाभ फलशोभिशाखे वृक्षे भवेत्क्षीरिणि भूमिलाभः॥१५॥ विवर्जिताभ्यर्चितपादपश्चेद्गत्वा परं वृक्षमदृश्यमानः ॥ दीप्तध्वनिः स्यादिहगस्तदानीं संदेहमाहुर्नहि देहहानौ ॥ १५२॥
॥ टीका ॥ शांतत्रये स्थानाप्तिरोगक्षयवित्तलामा इति त्रितयं क्रमेण स्यात् तत्र रोगस्य क्षयः नाशःपर्वतस्य मूर्द्धनि कृताश्रयः पिंगचक्षुःबहीं श्रियं यच्छति॥१४८॥धूत्वेति॥अथवा शिरोंऽगानिधूत्वा शुभस्वरोविहंगो रोगमुपादधाति अशस्तशब्दस्तु असाध्यबाधावहंदुस्तरदुःखदाहं ददाति ॥१४९॥ उन्मूलित इति ॥उन्मूलिते भूरुहि दुष्टशब्दैनष्टावशेषोऽप्यर्थों विनश्यति खेशयः प्रलंबमानः असंशयं सकलप्रणाशं शंसति ॥ ।। १५० ॥प्रभूतेति॥प्रभूतपुष्पे परमः प्रमोदः स्यात् अक्षतपल्लवाढये व्याधिक्षयः स्यात् फलशोभिशाखेऽत्यर्थलाभ: स्यात् क्षीरिणि वृक्षे भूमिलाभः स्यात् ॥ १५१॥ विवर्जितेति ॥ चेद्यदि विहगः विवर्जिताभ्यर्चितपादपः सन्परं वृक्षं
॥भाषा॥ तो क्रम करके स्थानकी प्राप्ति, रोगको क्षय, वित्तको लाभ, ये तीनों होय. जो पिंगल पर्वतके ऊपर बैठो होय तो बहुतसी श्री देवे ॥ १४८ ॥धूत्वति ॥ जो विहंग मस्तक अंग इने कंपायमानकरके शुभस्वर बोले तो रोग करे, और अशस्त शब्द बोले तो असाध्यबाधा करै. ऐसो दुस्तर दुःखदाह करै ॥ १४९ ॥ उन्मूलित इति ॥ जड जाकी उखडगई ता वृक्षपै पिंगल दुष्ट शब्द वोले तो नष्ट हुये कार्यमेसू अवशेष रह्यो अर्थ ताय नाश करे. जो पक्षी लंबो दूर चल्यो जाय तो निःसंदेह सकल नाश करै ॥ १५० ॥ प्रभूतेति ॥ बहुत पुष्प जामें ऐसे वृक्षपैः पिंगल होय तो परमहर्ष करै. और अक्षत होय फल पुष्पसहित वृक्ष होय तापै स्थित होय तो व्याधिको नाश करे. और फलकर शोमायमान वक्ष होय तो अत्यंत लाभ करै. और दूधवान् वृक्षपै स्थित होय तो पृथ्वीको लाभ होय ॥ १५१ ॥ विजितेति ॥ पक्षीनकरके वर्जित अर्चन कियो हुयो वृक्ष ताप जायकर १ आत्मनेपदमसाधु ।
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