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( ३२२) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशो वर्गः। स्नातः शुचिः पांडुरवस्त्रधारी यत्नेन कृत्वा पितृदेवकार्यम् ॥ आचार्यमित्रानुचरैः समानं सायं व्रजेद्वर्णितवृक्षमूलम् ॥७॥ गोचर्ममात्रामवनिं च तत्र विशोध्य पिन्नवगोमयेन ॥ तस्मिन्विदध्याद्विततं विचित्रं पिष्टांतकेनाष्टदलं सरोजम् ॥ ॥८॥मृदादिनोर्द्धस्यमथ प्रकल्प्य निवेशयपिंगयुगं सरोजतिथैव चंडीमपि वक्ष्यमाणध्यानाकृति पिष्टमृदादिसृष्टाम्॥९॥
॥टीका ॥ या युक्तः शुभः वैपरीत्ये वैपरीत्यम् ॥ ६ ॥ स्नात इति ॥ पुमान्वर्णितवृक्षमूलं सायं बजेताकीहक त्रातः कृतस्नानः श्रुचिरिति पवित्रः पांडुरवस्त्रधारीति पांडराणि श्वतानि वस्त्राणि धारयतीत्येवंशीलः स तथा।किं कृत्वा पितृदेवकार्य केन यत्नेन आ. दरपूर्वकमित्यथः।कथं समानं सह कैः आचार्यमित्रानुचरैः तत्र आचार्यः शकुनज्ञानोपदेष्टा मित्रं मुहत् अनुचराः सपर्याकारिणः ॥ ७॥ गोचर्ममात्रामिति ॥ तत्र वक्षमलादौ गोचर्ममात्रामवनि विशोध्य शर्करादि दूरे क्षित्वा नवगोमयेन लिंपेत् ।
लिप्रदेशे पिष्टांतकेन भाषायां रांगोळी इति ख्यातेन अष्टदल सरोज कमलं विततं विस्तीर्ण विचित्रं विविधवर्ण विदध्यात्कुर्यात् ॥ ८॥ मृदादिनेति ॥ अथ
॥भाषा॥
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जाननी. और पुरुष होय धर्धर कंठ जाको हाय महान् बडी जाकी चोंच होय चेष्टाहीन होय वो आलस्यवान् जाननो. और जो बहुत द्विगुणोस्वर बोले वो वृद्ध जाननो और अल्पपंछ जाकी ताम्रकीसी चोंच जाकी, बहुत अल्प अंग होय, कठोर स्वर बोले, मेंडकी कोसो गमन करै, जंभाई युक्त होय वो बालक जाननो. धूसरो वर्ण जाको, महान् जंघा जाकी. दीनस्वर करवेवाली होय वो गर्भिणी जाननी. और ऐसी होयकै हौले हौले चले तो प्रसवती जाननी. पहले कहे लक्षण होंय कोपकर तीक्ष्ण स्वर बोले तो बंध्या जाननी. अपने वर्णकी स्त्रीकरके युक्त होय तो शुभ जाननो. और विपरति धर्म होय तो विपरीत जाननो ॥६॥ सात इति ॥ पुरुष स्नानकर पवित्र होय श्वेतवस्त्र धारण कर शीलस्व. भाव होय. पितृदेवकार्य करके शकुनजानके उपदेष्टा गुरु, सुहृत, अनुचर इनकरके सहित सायंकालकू पहले वर्णन कर आये जिन वृक्षनकी मूलमें जाय ॥ ७ ॥ गोचर्ममा त्रामिति ॥ वा वृक्षके नीचे गोचर्ममात्र पृथ्वी शोधकर अर्थात् बहारीलगाय कंकर कांटे दरकरके नवीन गोबरतूं लीपकर लिपी पृथ्वीमें चुन लेकर चित्रविचित्र नानावर्णके रंगसहित अष्टदल कमल करै ।। ८ ॥ मृदादिनेति ॥ मृत्तिकादिक करके ऊंचो मुख जाको
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