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पोदकीरुते यात्राप्रकरणम्। (१५५) या ब्रह्मपुत्री गमनोधतानामग्रे वजित्वाऽभिमुखी समेति ।। अदक्षिणा कार्यविनाशनाय स्यादक्षिणा सा द्रविणाप्तिहेतुः॥ ॥ १६७ ॥ भूत्वा वितारा परिगृह्य भक्ष्यं प्रदक्षिणेनाभ्युपगम्य देवी । मनोरमं स्थानकमाश्रयंती हत्वापदं संपदमादधाति ।। १६८ ॥ निमज्य धूल्यां यदि शुक्लपक्षा विधाय चेष्टां यदि वा विदुष्टाम् ॥ प्रयाति तारा विपदं विधाय क्षणेन लक्ष्मी तदुपादधाति ॥ १६९॥ दिकालचेष्टानिनदस्थितीनां मध्याद्भवेदेकतरेण दीप्ता ॥ भयंकरी दक्षिणगापि दुर्गा स्यादामगा मृत्युविधायिनी तु ॥ १७० ॥
॥ टीका ।। रणाय युद्धाय स्यात् । एवंविधा वामा अवश्यं गंतुर्मरणाय स्यात् ॥ १६६ ॥ या ब्रह्मपुत्रीति ॥ या ब्रह्मपुत्री देवी गमनोधतानामग्रे वजित्वा अभिमुखी समेति ततः अदक्षिणा वामा स्यात्तदा कार्यविनाशनाय भवति सा चेदक्षिणा स्यात्तदादविणाप्तिहेतुःस्यादित्यर्थः॥ द्रविणंधनं तस्य प्राप्तिः तस्या हेतुः कारणम्। 'स्वमुक्थं दविणं धनम्' इति हैमः॥ १६७ ॥ भूत्वेति॥प्रथमं वितारा वामा भूत्वा भक्ष्यं परिगृह्य गृहीत्वा पुनः प्रदक्षिणेनाभ्युपगम्य मनोरमं स्थानकमाश्रयन्ती देवी आपदं हत्वा संपदमादधाति ।। १६८ ॥ निमज्येति ।। यदि शुक्लपक्षा धूल्यां निमज्य 'स्नात्वा यदि वा दुष्टां चेष्टां विधाय तारा प्रयाति तदा विपदं विधाय क्षणेन लक्ष्मीमुपादधाति ॥ १६९ ।। दिक्कालेति ॥ यदि दिकालचेष्टानिनदस्थितीनां पूर्वोक्तानां
॥भाषा ॥
होय तो अवश्य गमनकर्ताकू मृत्यु करै ॥ ११६ ॥ या ब्रह्मपुत्रीति ॥ ब्रह्मपुत्री जो पोदकी गमनकरनेवाले पुरुषके अगाडी जायके फिर पीछे वाके सम्मुख आय फिर वामा होय जाय तो कार्यको नाश करे. और जो दक्षिणभागमें आय जाय तो धनप्राप्ति करावे ॥ १६७ ॥ भूत्वति।। प्रथम वाम होय कर भक्ष्यग्रहण करके फिर दक्षिणभागमें जाय सुंदर स्थानमें जाय बैठे तो आपदा दूर करके संपदा करे ।। १६८॥ निमज्येति ॥ श्वेत जाके पंख ऐसी पोदकी धूलमें स्नान करके बुरी चेष्टाकरके जो दक्षिणमें चली जाय तो आपदा दे करके क्षणमें ही लक्ष्मी प्राप्त करे ॥ १६९ ॥ दिक्कालेति ॥ जो दिशा काल चेष्टा नाद स्थिति ये. पहले कहे हैं, इनमेंसू एकप्रकारकी दीप्ता होय फिर वो दक्षिणभागमें भी होय तो भय करे
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