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(१७२) वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। वामस्वरो दक्षिणगः सुचेष्टो यः खेशयस्तेन समं मिलंति ॥ उत्कंठिता यद्यपरे विहंगाः संधानमिच्छंति तदा द्विषतः॥ ॥२२४ ॥ वियुज्य ते यांति समागतं चेदुर्गायुगं तद्विघटेत संधिः॥ संगच्छते चेत्पृथगाश्रितं सत्संधिं चिकीर्षन्त्यरयस्तदानीम् ॥ २२५ ॥ खगेन वामां दिशमाश्रितेन सार्ध खगो दक्षिणतोऽभ्युपेत्य ॥ संगच्छतेऽन्यो यदि सौहृदेन संधि विधातुं तदुपैति दूतः॥२२६॥ अवामशब्दा प्रतिकूलयाना कलिं तथान्येन समं करोति ॥ निषेवते दीप्तमनाप्तकल्पा या पोदकी विग्रहमाह सेह ॥२२७॥
॥ टीका । भूमहे । कीदृशां शकुननीतिवर्तिनामिति शकुनानां या नीतिः मार्गः तत्र वर्तिनां शकुनमार्गानुगामिनामित्यर्थः ॥२२३॥ वाम इति ॥ वामस्वरो दक्षिणगः मुचेष्टो यः खेशयो वर्तते तेन समं उत्कंठिता यद्यपरे विहंगा मिलंति तदा द्विषतः संधातुमिच्छति ॥ २२४ ॥ वियुज्यत इति ॥ यदि ते पक्षिणः वियुज्य यांति चेदुगायुगं समागतं वियुज्यते तत्संधिः विघटेत चेत्पृथगास्थितं दुर्गायुगं सत्संगच्छते तदानीं अरयः संधि चिकीर्षति ॥ २२५ ॥ खगेनेति ॥ वामा दिर्श आश्रितेन खगेन सार्ध दक्षिणतः खगः अभ्युपेत्य यदि सौहृदन सुहृद्भावेनान्यः संगच्छते तदा संधि विधातुं दूत उपैति आगच्छति ॥ २२६ ॥ अवामेति ॥ अवामशब्दा प्रतिकूलयाना अन्येन समं कलिं करोति । तथा अनाप्तकल्पा अनाप्तभोजना दीप्तं स्थानं
॥ भाषा ॥
लाप विग्रह वैरिनके संगमते भय और जयपराजय ये अब कहै हैं ॥ २२३ ॥ वामेति ॥ चाममें स्वरकरके दक्षिणमाऊं आय जाय सुंदर चेष्टा करे और आकाशमें स्थित होय फिर और पक्षी उत्कंठावान् होय आकाशमें पोदकी करके सहित मिलतो वैरी अपने मिलापकी इच्छा करै है ऐसो जाननो ॥ २२४ ॥ वियुज्य इति ॥ जो वेही पक्षी पोदकीको जोडा आयेकू वियोगकरके चले जाय तो संधिहोय. और जो पोदकीको जोडा न्यारो होयके स्थितहोय सब मिलजाय तो ये जाननो वैरी मिलापको इच्छा करैहै ॥ २२५ ॥ खगेनेति ॥ बाईदिशामें स्थितपक्षी होय वाकू संगलेकर दक्षिणदिशामें पक्षी प्राप्त होय और जो स्नेहकरके और पक्षी आयमिलें तो जाननो मिलाप करवेकू दूत आवैहै ॥ २२६ ॥ अवामेति ॥
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