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पोदकीरुते संधिविग्रहजयादिप्रकरणम्। (१७३) उत्पन्नसंधी रिपुणा समानं समागमं दक्षिणया विदध्यात् ॥ करोति राज्यं प्रतिकूलगा चेद्भवेद्भवं तत्प्रतिकूलमेव ॥ ॥ २२८ ॥ आशंकमानस्य समं द्विषद्भिः समागमं दक्षिणया भवेत्सः ॥ वामं व्रजेत्याः नियतं द्विपंतः समागमाहुःख्यति राजकीयात् ॥ २२९ ॥ तारातिघोरं समरं विधत्ते वामा तु तस्य प्रतिषेधनाय ॥ वामस्वरा दक्षिणतः प्रयाति या पोदकी सा महते रणाय ॥ २३० ॥ यांती प्रदीप्तं श्रयतीह तारा कुर्वति युद्धं यदि वा विहंगाः ॥ तत्स्याच्छिवाफेत्कृततालबन्धनृत्यत्कबन्धः समरोतिघोरः ॥ २३१॥
॥टीका ॥ निषेवते तदा विग्रहमाह ॥ २२७ ॥ उत्पनेति ॥उत्पन्नः संधिर्यस्याः सा तथा एवं विधा इह सा पोदकी दक्षिणया गत्या रिपुणा समानं समागमं विदध्याव-मतिकूलगा चेत्तदा राजा तत्मतिकूलमेव करोति ॥ २२८ ॥ आशंकमान इति ॥ द्विषद्भिःसमंसमागमम् आशंकमानस्य दक्षिणया समागमोभवेत्पुनः वामं व्रजेत्या तया राजकीयात्समागमाविषंतः दुःख्यति दुःखं प्रामोतीत्यर्थः ॥२२९ ॥ तारेति ॥ तारा अतिधोरं समरं विधत्ते । वामा तु तस्य प्रतिषेधनाय भवति या पोदकी वामस्वरा नकचन प्रयाति तत्रैव स्थिति विधत्ते सा पोदकी महते रणाय भवति ॥ २३०॥ ॥ यांतीति ॥ यदि तारा यांती दीप्तं स्थानं श्रयति यदि वा विहंगाः युद्धं कुर्वन्ति
॥ भाषा॥ वायों शब्द कियो नहीं एढीटेढी चलरही होय और पक्षी करके कलह कररही होय भोजन जाळू प्राप्त नहीं हुयो होय, दीप्तस्थानकू सेवन करती होय तो विप्रह करावे ॥ २२७ ॥ उत्पनेति॥ पूर्व कलह करती होय, फिरसंधी जाके होय गई होय, ऐसी पोदकी दक्षिणमाऊं बैरीनकरके सहित समागमकर तो राज्यकरे. प्रतिकूलगनन करती होय तो राजाके राज्या. प्रतिकूल करै ॥ २२८ । आशंकमान इति ॥ वैनिकरके सहित समागम कियो चाहे ताकू दक्षिण तारा होयतो समागम होय फेर बाई गमन करती होय ता करके राजानके समागमतें दुःख होय ॥ २२९ ॥ तारेति ॥ और जो पोदकी ताराहोय तो अतिधोरसंग्रामकरै, और जो वामा होय तो संग्रामके निषेधके अर्थ होय जो पोदको वाममाऊं स्वस्करके फिर दक्षिण माऊते बोई मांऊ जायकर शब्द करतो महान् संग्राम करावे ॥ २३० ॥ श्रयंतीति ॥ जो तारा गमनकरत दीप्तस्थानमें बैठ जाय और जो पक्षीहैं ते युद्ध करतेहाय तौ. श्यारिया
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