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वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः।
॥ टीका॥
"शकुनार्णवे दिग्विभागस्त्वेवं यथा|उदयास्तौ मूलाख्यौ उत्तरयाम्यौ ध्रुवनिवासनामानौ । नैर्ऋतवायव्यौ च प्रमाणखरकाहयौ चेति ॥ १॥ रूढे एव भवेता ई. शानामेयकोणयोरभिधे॥सहजं रविगतिजनितं चैषां देधा प्रशांतदीप्तत्वम्॥२॥इति वदति । एतासां फलं त्वेवम्-प्राच्ये मूले दीप्तान शकुनानाकस्मिकान्समाकर्ण्य । बयान ममेत्येते मत्तो महतस्तु वार्तायै ॥ १॥ पश्चिममूले दीप्ता पश्चिमसंध्यासमुस्थिताः शकुनाः । शस्त्रामिचौरभूपप्रभृतिभयोत्पादकाः सद्यः॥२॥ यस्योटजेपि वसतो निवासमासाद्य जायते शकुनः। मासार्धमस्यन चिरात्पुंसः सौधानि साधयति ॥ ३ ॥ ग्रामारामामरगृहपरिखा च प्रदिशास्वनारंभात् ॥ सिद्धिं निवासशकुनो नयति मखोद्वाहमुख्यांश्च ॥ ४ ॥ प्रमाण नित्यप्रामाण्यं प्रमाणं कुरुतेतरम्।पदस्थस्य पदावाप्तिनाशकृत्त्वरितं च तत् ।। ५॥प्राप्य प्रमाणकोणं यस्य स्वस्थस्य जायते शकुनः॥ तस्याकस्मात्किंचित्सत्वरमुत्पद्यते कार्यम् ॥६॥ न प्रारब्धं सिद्ध्यति न प्रस्थानं प्रमाणमायाति ॥ जाते प्रमाणकोणे विघटेत समागता
॥भाषा॥
"अब शकुनार्णवके प्रकारसे दिशापरत्वकरके फल कहते हैं.उसमें प्रथम जो शकुन देखनेवाला है उसके स्थानसे जो अष्टदिशा हैं उनके नाम कहते हैं. उदयास्तौ इति ॥ पूर्वदिशा, और पश्चिमदिशा यह दोनों दिशाकी मूल संज्ञा है. और उत्तर दिशाकी ध्रुवसंज्ञा दक्षिगदिशाकी निवास संज्ञा नैर्ऋत्यदिशाकी प्रमाणसंज्ञा वायव्य दिशाकी खाक संज्ञा है. ॥ १ ॥ और ईशानदिशा आग्नेयदिशा यह दोनोंकी रूढ संज्ञा है ऐसे आठ दिशाके आठ नाम हैं उसमें भी सूर्यके गमन परसे शांत और प्रदीप्त ऐसे दोभेद दिशाके होते हैं वो स्पष्ट दिखाते हैं. रात्रिके अंतिमभागकी दो घडी और सूर्योदयानंतर दो घडी ऐसी चार घडीको मूल संज्ञा पूर्वदिशाज्वलित जाननी. उसके पीछेकी चार घडी वो दग्ध जाननी, और मूलदिशा ज्वलितके आगे चार घडीतक धूम्र जाननी. ऐसा चार चार घडीका दग्ध अलित धूम्रभेद दिशाका जानना. जैसा प्रातःकालकू मूलदिशा ज्वलित है मध्याह्नकू निवास दिशा ज्वलित है. संध्याकालकू पश्चिमदिशा अलित है. मध्यरात्रिकू ध्रुवदिशा ज्वलित है. तब जो दग्ध ज्वलित धूमितदिशा वो प्रदीप्त जाननी, और बाकीकी पांच दिशा प्रशांत जाननी और दिशाका भोग
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