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दिग्विभागचक्रम् | ॥ टीका ॥
सिद्धि: ( ॥ ६ ॥ ) विघटितमर्थं घटयति संशितं वस्तु साधयत्यचिरात् ॥ प्रस्थानयति च नीतं प्रमाणकोणोदयः शकुनः ॥ ७ ॥ प्रत्यूहोपहतानां दिग्मूढानामतिभ्रमार्तानाम् । प्रायः प्रमाणशकुनः साधीयान्कांदिशीकानाम् ॥ ८ ॥ रिक्तीकरोति पूर्ण रिक्तं पूर्ण करोति नियमेन ॥ प्रायः स्वरूपदीप्तः शकुनः खरकमदेशोत्थः ॥ ९ ॥ उत्साहोज्झितमनसां राज्ञां परिमोषिणां जि- || दिग्विभागचक्रम् ||
ईशान
गीषूणाम् । निरुपायोद्विमानां साधुः खरके सदा शकुनः ॥ १० ॥ चौर्यावर कंदाहृतपरस्वसंभृतप्रदेशानाम् । सद्यो रिक्तीकरणं खरके शकुनं समुद्भूतम् ॥ ११ ॥ भूमिं गतोपि जीवति निगडैरपि संयतो विमुच्येत ॥ युध्यते सन्नद्धाः क्रोधात्रोदायुधा योधाः ॥ १२ ॥ शकटारोपित भांडोप्युच्चलति नैव जातुकामोपि ॥
ध्रुव
खरक
मूल
3:21
( ११५ )
मूल
अभि
निवास
प्रमाण
॥ भाषा ॥
चार चार घडीका कहा है सो बत्तीसके दिनमानसें कहा है, दिनमान रात्रि कमजास्ती होवे तो सूर्यभोग चार घडी में कमजास्ती करना ऐसा अहोरात्रमें दग्धादिविभाग जानना, और विशेष यह है कि, देखनेवालेका मन चञ्चल व्यग्र होवे तो प्रदीप्त दिशाका शकुन शुभ फल देवेगा, और देखनेवालेका चित्तस्थिर शांत होवे तो शांत दिशाका शकुन शुभ फल देवेगा. अब उदाहरण बताते हैं- कोई शकुन देखनेवाला पुरुष खेदयुक्त अपने स्थान पै अप्रसन्न चित्त बैठा है इतनेमें दक्षिणदिशा में श्यामापक्षिणीका शब्द भया तब सूर्योदयादिष्टवटी १३ प. १५ थे, उस ऊपरसे वो दिशा निवास संज्ञा, और सूर्य के आगमन होनेके लिये धूमित भई तब दिशा प्रदीप्त भई और देखनेवाला चिंतायुक्त है तो शकुन शुभफल दायक होवेगा, भयचिन्तादूर होवैगी, रोगीकी चिन्ता होत्रे तो मृत्युं जानना, और शकुन देखनेवालेका चित्त शांत होवे तो बिलंबसे कार्यसिद्ध होवेगा, सो श्लोक ॥ यस्पोटजेपि वसतौ ॥ इत्यादि स्पष्टार्थ आगे दिखाते हैं इति ॥ २ ॥ अब मूलादिक दिशाका फल लिखते हैं प्राच्येति पूर्वमूल दिशामें प्रदीप्त शकुन सुनै तो कार्य अपने हाथ से गया जानना ॥ १ ॥ पश्चिममूलेति ॥ प
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