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________________ ( ३६६) वसंतराजशाकुने त्रयोदशो वर्गः । मृत्युप्रदौ वारिमरुन्निनादौ भयंकरौ तोयहुताशशब्दौ ॥ विनाशदौ वातवियद्विरावौ नभोमहीजौ कुरुतोऽर्थनाशम् ॥ १६ ॥ भंगं विधत्तः पवनांबरोत्थौ तौ व्यत्ययान्मृत्युकृतौ भवेताम् ॥ अलं प्रसंगेन रवाःक्रमेण भद्रंकराः पार्थिवपूर्वकाश्च ॥१६२॥ पिंगदिदृक्षुरनीक्षितपिंगः पश्यति संगतशब्दितचेष्टम् ॥ यद्यपरं विहगं तदभीष्टं स्यात्फलमन्यदपेक्षिततुल्यम् ॥ १६३॥ ॥ टीका ॥ मृत्यू स्याताम् आप्यार्द्ध नाभसे स्थानहानिः स्यात् दुर्जनैश्च साध संगः स्यात् ॥ १६० ॥ मृत्युप्रदाविति ॥ चारिमरुनिनादौ मृत्युप्रदौ स्तः तोयहुताशशब्दौ भयंकरौ स्तः वातवियद्विरावौ विनाशदौ स्तःनभोमहीजी अर्थनाशं कुरुतः॥१६१ भंगमिति ॥ पवनांवरोत्थौ भंग विधत्तः तौ व्यत्ययान्मृत्युकृतौ भवेताम् प्रसंगेन अलं पूर्वतया पार्थिवपूर्वकाश्च रवाः भद्रंकरा भवति ॥ १६२ ॥ पिंगेति ॥ पिंगदिक्षुः पुरुषः अनीक्षितपिंगः यद्यपरं विहंगं संगतशब्दितचेष्टं पश्यति तदाऽन्यदपेक्षिततुल्यमभीष्टं फलम् ॥ १६३ ॥ ॥ भाषा॥ तो अर्थको लाभ होय. वायव्य शब्द करे पीछे तैजस शब्द बोले तो भंगसहित मृत्यु करै. और जल शब्द करै पीछे नाभस शब्द कर तो स्थानकी हानि होय. और दुर्जननकरके सहित संग होय ॥ १६० ॥ मृत्युप्रदाविति ॥ जल और मरुत् ये दोनों शब्द मृत्युके देनेवाले हैं. और जल, अग्नि ये दोनों भयके करनेवाले हैं. और वात आकाश ये दोनों विनाशके देनेवाले हैं. और आकाश, पृथ्वी ये दोनों अर्थको नाश करैः हैं ॥ १६१ ॥ भंगमिति ॥ पिंगलके पवन आकाशते हुये शब्द भंग करें ये दोनों विपरीत होय तो मृत्युके करनेवाले होय. और पार्थिवकू आदिलेके जे शब्द है ते कमकरके कल्याणके करने वारे हैं ॥ १६२ ॥ पिंगेति ॥ पिंगलकू देखतो होय पुरुष और पिंगल न दीख्यो और कोई पक्षी संगकरत शब्दकरत चेष्टा करत दीखै तो आपुनकू वांछितकी तुल्य और अभीष्ट फल Aho! Shrutgyanam
SR No.034213
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandra Gani
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1828
Total Pages606
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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