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(११)
भाषाटीकासमेत । चापि निर्मलम् ॥ किंच प्ररूढकोपः संघातपातादिकाः क्रियाः ॥ १४ ॥ करोत्यात्मैवेति पश्येज्जलं चापि पिबेहु । वातप्रकृतिको यश्च स पश्येत्तुंगरोहणम् ॥ १५॥ तुङ्गद्वमांश्च विविधान्पवनेन प्रकम्पितान्॥ वेगगामितुरंगांश्च पक्षिभिर्गमनं स्वयम् ॥ १६॥ उच्चसौधान्विवादं च कलहं च तथात्मनः॥आरोहणंच डयनमिति प्रकृतितो भवेत् ॥१७॥ स्वप्नमिष्टं च दृष्ट्वा यः पुनः स्वपिति मानवः ॥ तदुत्पन्न शुभफलंस नाप्नोतीति निश्चितम् ॥ १८॥अतो दृष्ट्वा शुभस्वप्नं सुधिया मानवेम वै ॥ सूर्यसंस्तवन यावशिष्टा रजनी पुनः॥ १९॥ देवानां च गुरूणां च पूजनानि विधाय सः॥ शंभोर्नमस्त्रियां कुर्यात्प्रार्थयेच्च शुभं प्रति ॥ २० ॥ ततस्तु स्थविराग्रे वै कथयेत्स्वप्नमुत्तमम्॥ दृष्ट्वा पूर्वमनिष्टं तु पश्चाच शुभमेव चेत् ॥२१॥ यः पश्येत्स पुमांस्तस्माच्छुभस्व प्रफलं भजेत् ॥ अनिष्टं प्रथमं दृष्ट्वा तत्पश्चात्स स्वपेत्पुमान।। ॥२२॥ रात्रौ वा कथयेदन्यं ततो नाप्नोति तत्फलम् ॥
अथवा प्रातरुत्थायनमस्कृत्य महेश्वरम् ॥२३॥ तुलस्या लडना मारना ॥ १४ ॥ देखै वा बहुत जलपियै यह सब पित्तप्रकृतिवालेके लक्षण हैं । वातप्रकृतिवाला ऊंचेपर अपनेको चढाहुआ देखताहै ॥ १५ ॥ वायुसे कंपायेहुए अनेकप्रकारके ऊंचे वृक्ष तेज चलनेवाले घोडे, पक्षी तथा स्वयं अपना गमनभी देखताहै ॥ १६ ॥ ऊंचे महल अपना विवाद आरोहण विवाद यह सब, बातप्रकृतिसे होतेहैं ॥१७॥ इष्टस्वप्नको देखकर जो मनुष्य फिर सोजाताहै, वह निश्चयही स्वप्नसे उत्पन्न हुए शुभफलको नहीं पाता ॥ १८ ॥ इसकारण शुभस्वप्नको अवलोकन कर बुद्धिमान् मनुष्यको शेषरात्री सूर्यकी स्तुतिसे बितानी चाहिये ॥ १९ ॥ वह देवता और गुरुओंका पूजन करके शिवजीको नमस्कार कर शुभफलके लिये प्रार्थना करें ॥ २० ॥ फिर वृद्धजनोंके आगे शुभस्वप्नकोकथन करें यदि पहले अनिष्ट देखकर पीछे शुभ देखे ॥ २१॥ तो वह पुरुष शुभस्वप्नके फलको पाताहै, अनिष्टस्वप्नको देखकर जो पुरुष सो जाय ॥ २२॥ वा रात्रिमें ही उसे दूसरेसे कहदे तो उसके फलको नहीं प्राप्त होता अथवा सवेरेही उठकर महेश्वरको नमस्कार करके ॥२३॥ तुलसीके आगे उस
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